Friday, October 12, 2012

जातियों के झगड़े में हिंदी जाति


-अरुण कुमार त्रिपाठी

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता अतुल कुमार अनजान ने एक दिन बहुत बेचैनी के साथ फोन किया। कहने लगे, आर्थिक सुधारों के माध्यम से साम्राज्यवादी हमले बढ़ रहे हैं। हम लोगों को सोशलिस्ट-कम्युनिस्ट एकता के लिए काम करना चाहिए। फिर बोले, इस बारे में मधु लिमये की किताब ‘सोशलिस्ट कम्युनिस्ट इंटरैक्शन इन इंडिया’ एक मार्गदर्शक साबित हो सकती है। फिर उन्होंने बताया कि किस तरह से उन्होंने मधु लिमये की उस समय मदद की थी जब वे उस किताब को लिख रहे थे।अनजान ने बताया कि उन्होंने लिमये को ‘पीपुल्स डेमोक्रेसी’ और ‘न्यू एज’ और ‘जनयुग’ के अंक लाकर दिए थे। ऐसा ही कुछ अनुभव अर्थशास्त्री गिरीश मिश्र ने बताया है जब उन्होंने डॉ राममनोहर लोहिया पर किताब लिखी थी। उनकी मधु लिमये ने मदद की थी। और बाद में जिस प्रकार अन्य समाजवादियों ने मिश्र पर आलोचनात्मक हमला बोला था वैसा उन्होंने कुछ भी नहीं किया था। बल्कि मधु जी ने उस किताब को एक अकादमिक आलोचना के भाव से ही लिया था।


"रामविलास शर्मा ने निश्चित तौर पर भारतीय संदर्भ में मार्क्सवाद को लागू करने और उसकी व्याख्या करने की कोशिश की। उनका चिंतन यूरोपीय नकल नहीं, भारतीय स्वाभिमान पर आधारित है। यही कारण है कि उन्होंने आखिर में गांधी, लोहिया और आंबेडकर पर विचार करते हुए भारतीय इतिहास की समस्याओं पर नजर डाली। मजेदार बात यह है कि उन्होंने इन महान विभूतियों पर विचार करते समय डॉ लोहिया को इन दोनों से अलग बताया। उनका कहना था कि आंबेडकर और गांधी दोनों वर्ग संघर्ष के सिद्धांत के पास जाकर खड़े होते हैं जबकि लोहिया उनसे दूर हैं।"


संवाद की इसी भावना की तलाश में डॉ रामविलास शर्मा जन्मशती समारोह के आयोजन में चला गया। आगरा के केंद्रीय हिंदी संस्थान में यहां के स्थानीय नागरिकों के सहयोग से आयोजित इस समारोह में बेहद सादगी से देश के जाने-माने हिंदी आलोचकों और विद्वानों ने हिस्सा लिया और डॉ रामविलास शर्मा के जीवन और कृतित्व पर तीन सत्रों में गहन चर्चा की। इन चर्चाओं में मैनेजर पांडे, डॉ शंभुनाथ, अवधेश प्रधान, प्रोफेसर रविभूषण और जितेंद्र रघुवंशी ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया।

रामविलास शर्मा की हिंदी जाति की अवधारणा और औपनिवेशिक दासता से मुक्ति संबंधी विमर्श ने यह साबित किया कि वे महज हिंदी के आलोचक नहीं थे बल्कि हिंदी समाज, भारतीय राजनीति और विश्व राजनीति के अध्येता और विचारक भी थे। सचमुच उनके चिंतन और लेखन का दायरा इतना बड़ा है कि राहुल सांकृत्यायन के अलावा कोई उनका सानी नहीं है और रामविलास जी भी किसी और को आसपास पाते नहीं थे। फर्क यही है कि राहुल सांकृत्यायन के पैरों तले पूरी दुनिया रहती थी और उनकी अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा से हिंदी समाज चकित था, जबकि रामविलास शर्मा घर से बाहर ही नहीं निकलते थे और उनकी इस अनुपस्थिति को हिंदी समाज अक्सर महसूस करता था। उनकी यह प्रवृत्ति उन्हें ज्यादा से ज्यादा काम करने में सहायता करती थी लेकिन कई बार जमीनी हकीकत से काट भी देती थी। यही वजह है कि उनके कई सिद्धांत बंद कमरे में बैठ कर गढ़े लगते हैं और जमीन पर उन्हें उतारने में दिक्कत नजर आती है।

डॉ शर्मा कभी विदेश नहीं गए। जिस जमाने में वामपंथ के प्रति सामान्य रुझान भी किसी को सोवियत संघ और पूर्वी यूरोपके कम्युनिस्ट देशों का वीजा दिलाने के लिए काफी था उस समय भी उनका वीजा रोक दिया गया। वे कभी लंदन भी नहीं गए तो अमेरिका जाने का सवाल ही नहीं पैदा होता। लेकिन उन्होंने अपने लेखन में इसकी कमी नहीं महसूस होने दी। उनके बेटे विजय मोहन बताते हैं कि जब वे लंदन में थे तो उनके पिताजी जो पत्र लिखते थे उनमें लंदन के पुस्तकालय और स्मारकों की ऐसी जानकारियां होती थीं जो वे वहां रह कर भी नहीं रखते थे।

रामविलास जी ने विदेश यात्रा की इस कमी को अध्ययन से पूरा ही नहीं किया बल्कि वे किसी भी घुमक्कड़ से ज्यादा दुनिया की परिक्रमा कर आए और विदेश यात्रा के लिए की जाने वाली तमाम बेइमानियां और तिकड़म उन्हें छू नहीं गए। यही कारण है कि उन्होंने पूंजीवाद पर लगातार हमला किया और अपने कम्युनिस्ट साथियों को भी मौका पड़ने पर नहीं बख्शा। अपनी इसी ईमानदारी के कारण वे औपनिवेशिक दासता के विमर्श को ज्यादा धारदार तरीके से चला सके जिसे चलाते समय तमाम कम्युनिस्ट नेता और विचारक लड़खड़ा जाया करते थे।

इसकी वजह उनकी ईमानदारी के साथ उनका हिंदी क्षेत्र के उस स्थान से संबंधित होना भी था जिसने 1857 में सबसे कठिन संघर्ष किया था और सबसे बुरी तरह दमन झेला था। रामविलास शर्मा के इतिहास लेखन और उनके राजनीतिक विमर्श को स्थापित विश्वविद्यालय और उनके इतिहासकार कितना स्थान देंगे यह तो समय बताएगा, लेकिन उन्होंने उन तमाम लोगों के दिलो-दिमाग में जगह बना ली है जिन्हें अपने समाज के लिए समझदार और ईमानदार नजरिए की तलाश है। वे सत्तावनवादी थे और उनकी इसी दृष्टि ने उनके लेखन और विमर्श के विभिन्न आयामों को संचालित किया। बाद में जब उनके जीवनकाल में उदारीकरण और वैश्वीकरण के बहाने पूंजीवाद ने नया जाल फैलाया तो उनकी बात न सिर्फ प्रासंगिक हुई बल्कि नई ताकत के साथ उभरी। यह हैरानी की बात है कि जिस तरह का शोध प्रबंध सुरेंद्रनाथ सेन जैसे इतिहासकार राष्ट्रीय अभिलेखागार के महानिदेशक होकर नहीं लिख पाए उससे कई गुना बेहतर काम उन्होंने बिना संसाधन के कर दिया।
आज जब उदारीकरण विफल होते हुए भी जनता के संसाधनों पर पूंजीवादी कब्जे को बढ़ावा दे रहा है, सुधार के नाम पर आम जनता को नए-नए तरह के कष्ट दे रहा है, तब उनकी चिंताएं और भी प्रासंगिक होती जा रही हैं।

डॉ रामविलास शर्मा की चिंताएं सही लगती हैं और उनके विश्लेषण को बाद में अंग्रेजी में इतिहास लिखने वाले तमाम लोग आधार भी बनाते हैं। जबकि डॉ शर्मा अंग्रेजी के विद्वान होते हुए भी अंग्रेजी में लिखने को तैयार नहीं थे।उनका यही संकल्प उन्हें हिंदी जाति का महान विचारक और उसके सिद्धांतकार के तौर पर भी स्थापित करता है। पर मुश्किल यह है कि विदेशी पूंजी और अंग्रेजी भाषा के नए हमले से हिंदी और देश को बचाने के लिए वे जिस विकल्प का सुझाव देते हैं वह व्यावहारिक दिखता नहीं। यही कारण है कि उनके बारे में पंकज सिंह जैसे कवि और बौद्धिक का कहना है कि डॉ शर्मा जितने बड़े बौद्धिक थे उनकी भूलें भी उतनी ही बड़ी हैं।
रामविलास जी की हिंदी जाति की अवधारणा को तमाम लोगों ने हिंदी इलाके की भोजपुरी, मैथिली, बुंदेलखंडी, मारवाड़ी, मगही, बज्जिका, कुमाऊंनी, गढ़वाली और छत्तीसगढ़ और झारखंड की तमाम बोलियों और भाषाओं की स्वायत्तता का हवाला देकर खारिज कर दिया था। जाहिर है, उनकी यह अवधारणा सोवियत संघ के तानाशाह शासक स्तालिन की रूसी राष्ट्रीयता की अवधारणा से प्रेरित थी। लेकिन उनकी हिंदी जाति की अवधारणा को बोलियों और भाषाओं से ज्यादा हिंदी प्रदेशों की सामाजिक जातियों के विद्रोह ने चुनौती दे रखी है। उनको इस इलाके में पनपी जातिवादी और सांप्रदायिक राजनीति के पतन का अहसास तो था तभी उन्होंने इस पूरे इलाके को एक करने और कई हिंदी प्रदेशों को मिला कर एक प्रदेश बनाने की बात कर डाली थी।
लेकिन वर्ग संघर्ष के सिद्धांत में अटूट आस्था रखने वाले रामविलास शर्मा इस इलाके की राजनीति, साहित्य और अर्थनीति में जाति के योगदान और उसके हस्तक्षेप को अच्छी तरह से समझ नहीं सके या उसमें उतर कर उससे निकलने का रास्ता बताने का साहस नहीं कर सके। वे होते तो आज यह देख कर और विचलित होते कि जिस हिंदी आलोचना को वे अपने विपुल लेखन से तराश रहे थे उसमें अब दलित विमर्श के साथ अन्य जातिवादी विमर्श प्रचंड हो गए हैं।

कबीर और प्रेमचंद के बहाने डॉ धर्मवीर ने हिंदी के तमाम आलोचकों पर जो प्रहार किए हैं उससे बड़े-बड़े लोग भागते घूम रहे हैं। वे प्रतिक्रिया जताने का साहस नहीं करते। आज अगर डॉ शर्मा होते तो उन पर कैसी प्रतिक्रिया करते यह सोचने लायक विषय है। संभव है वे हिंदी के तमाम आलोचकों की तरह से मौन रहने के बजाय विमर्श में जरूर उतरते, बिना इस बात की परवाह किए कि इससे क्या फर्क पड़ता है।

यह भी देखने लायक होता कि अंग्रेजी देवी का मंदिर बनवाने और मैकाले की जयंती मनाने में लगे दलित बौद्धिकों के बारे में वे क्या कहते। हालांकि दलित बौद्धिक तो अस्मिता के कारण मांस-भक्षण के कार्यक्रम से लेकर इस तरह का कार्यक्रम कर रहे हैं, जबकि सवर्ण बौद्धिक बिना इस तरह का कार्यक्रम लिए वही सब कर रहा है। वह भी रोज मैकाले की पूजा करता है और अंग्रेजी देवी की प्रतिमा दिल में स्थापित करता है।
रामविलास शर्मा ने निश्चित तौर पर भारतीय संदर्भ में मार्क्सवाद को लागू करने और उसकी व्याख्या करने की कोशिश की। उनका चिंतन यूरोपीय नकल नहीं, भारतीय स्वाभिमान पर आधारित है। यही कारण है कि उन्होंने आखिर में गांधी, लोहिया और आंबेडकर पर विचार करते हुए भारतीय इतिहास की समस्याओं पर नजर डाली। मजेदार बात यह है कि उन्होंने इन महान विभूतियों पर विचार करते समय डॉ लोहिया को इन दोनों से अलग बताया। उनका कहना था कि आंबेडकर और गांधी दोनों वर्ग संघर्ष के सिद्धांत के पास जाकर खड़े होते हैं जबकि लोहिया उनसे दूर हैं।

उन्होंने आंबेडकर में भी औपनिवेशिक दासता के खिलाफ विमर्श के सूत्र ढूंढ़ निकाले और लोहिया को महज मध्य जातियो तक केंद्रित बताया। जबकि गौर से देखें तो आंबेडकर और गांधी के अंतर्विरोध के बीच अगर कोई सेतु है तो वह लोहिया ही हैं। इन दोनों से उम्र में काफी कम होने और जेल जाने और संघर्ष करने में बेजोड़ होने के साथ उन्होंने जातिगत दासता और औपनिवेशिक दासता दोनों के खिलाफ लड़ने की सैद्धांतिक ही नहीं व्यावहारिक जरूरत पर जोर दिया।

लोहिया अगर प्रासंगिक हैं तो महज आरक्षण के सिद्धांत के कारण नहीं बल्कि अपनी विश्व-दृष्टि के कारण, जिन्होंने समाजवाद को उसी तरह गांधी के व्यवहार के माध्यम से भारतीय रूप देने की कोशिश की जिस तरह रामविलास शर्मा ने मार्क्सवाद को भारतीय विद्रोह की परंपरा से जोड़ कर नया रूप दिया। रामविलास जी हिंदी के सवाल पर भी लोहिया के बहुत पास बैठते हैं।

आज सवाल यह है कि समाजवादी ब्राह्मण और दलित ब्राह्मण जैसे संगठनों में विभाजित हिंदी इलाके की स्थिति को देख कर औपनिवेशिक विमर्श को छोड़ दिया जाए या फिर इसी बीच से नए समाज की संरचना का संघर्ष तलाशा जाए। रामविलास शर्मा के चिंतन में जमीनी हकीकत की तमाम अनदेखी के बावजूद हिंदी समाज और व्यापक भारतीय समाज के लिए बहुत ऊर्जा है। आज गांधी, लोहिया और आंबेडकर जितने प्रासंगिक हैं उतने ही रामविलास शर्मा। अतुल अनजान की बेचैनी गलत नहीं थी कि सोशलिस्ट-कम्युनिस्ट संवाद ही इस इलाके को सही दिशा देने का तरीका है।

-जनसत्ता से साभार

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