- वीरेन्द्र यादव
अभी कुछ ही देर पहले मुद्राराक्षसजी के पार्थिव शरीर को शवदाह गृह की विद्युत् भट्ठी में गुडुप होते देखकर लौटा हूँ. इस अवसर पर लेखक, नाट्यकर्मी , सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ता , दलित संगठनों के प्रतिनिधि और मुद्राजी के पाठक-प्रशंसक जिस भारी संख्या में उपस्थित थे वह मुद्राजी की लोकप्रियता का परिचायक था. यह देखकर आश्वस्ति हुयी कि युवाओं का दल मुद्राजी की वैचारिकता के अनुकूल साम्प्रदायिक फासीवाद और साम्राज्यवाद विरोधी नारे लगाता हुआ उनके इस अंतिम प्रयाण को भी एक मुहिम की शक्ल दे रहा था. मुद्राजी के व्यक्तित्व में मार्क्सवाद और आम्बेदकरवाद का जो सम्मिश्रण था उसकी भरपूर बानगी इस अवसर को यादगार बना रही थी . दृश्य मगहर में कबीर की भी याद दिला रहा था क्योंकि जहाँ मुद्राजी के मार्क्सवादी मित्र और प्रशंसक उनकी नास्तिकता के अनुकूल बिना किसी कर्मकांड के उन्हें अंतिम विदा देना चाहते थे वहीं कुछ दलित बुद्ध अनुयायी बौद्दिक रीति का भी निर्वहन करना चाहते थे और उन्होंने किया भी. इस तरह अपने अंतिम प्रयाण में भी 'लाल -सलाम' और 'जय-भीम' के उद्घोष केबीच मुद्राजी लाल और नीले की एकता का सूत्र पिरोकर गए.
यह भी दिलचस्प था कि अभी मुद्राजी का पार्थिव शरीर पूरी तरह अग्नि को समर्पित भी न हो पाया था कि कई शोक सभाओं की घोषणा अलग अलग बैनरों के तले की जा रही थी. इस सबके पीछे अधिग्रहण भाव न होकर मुद्राजी की व्यापकता और स्वीकार्यता का सम्मान ही अन्तर्निहित था. अपने समूचे जीवन में मुद्राजी सत्ता-प्रतिष्ठान के सतत विरोधी रहे कभी उन्होंने झुकना नही जाना. लेकिन उनकी अंतिम विदाई के समय प्रदेश की समाजवादी सत्ता ने उन्हें राजकीय सम्मान देकर उनके पार्थिव शरीर को अंतिम विदाई दी. सैनिकों ने शस्त्र झुकाए और शोक बिगुल बजाया.
मुझे पूरा भरोसा है कि यदि मुद्राजी यह सब जानने-सुनने की स्थिति में होते तो वे मेरा हाथ पकड़कर यह जरूर कहते कि "चलो यार, यहाँ से चुपचाप खिसक लें और कहीं अलग चाय पियें".
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