कविता की सार्वजानिक प्रस्तुति हमारी
परम्परा में शामिल है । यदि हम
भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो वैदिक काल में 'ऋषयो मंत्र दृष्टार: ' की
अवधारणा में ऋषियों द्वारा मन्त्रों को देखे जाने का उल्लेख है । श्रुति
परंपरा में कविता का पाठ ऋषियों द्वारा अपने शिष्यों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता
था जिसे वे इसी परंपरा में अपनी आनेवाली पीढ़ियों का सौंपते थे । संभवतः इस पाठ में अभिनय भी शामिल होता था जिसके प्रमाण हमें आगे
चलकर इस विधा पर स्वतन्त्र रूप से लिखे गए नाट्य शास्त्र में मिलते हैं ।
आदिमकाल में भाषा के अविर्भाव से पूर्व
संकेत की भाषा विद्यमान थी । भाषा के
प्रवेश के पश्चात उसे चित्रात्मक लिपि में देखना प्रारंभ हुआ । भाषा के
प्रवेश के पश्चात जब काव्यकला का उद्भव हुआ तब भी कविता की प्रस्तुति में अंग
संचालन और संकेतों का प्रभाव उपस्थित रहा ।
प्रस्तुतकर्ता कविता का पाठ करते समय अंग संचालन एवं हाव-भाव द्वारा अपने लिखे
शब्दों को दृश्यरूप प्रदान करता था । कालांतर
में इस एकल प्रस्तुति में कवि के अतिरिक्त अन्य लोगों का भी समावेश हुआ, भिन्न
कविता पंक्तियों और वर्णित दृश्यों के अनुसार विभिन्न पात्रों की रचना की गई और
मंच पर तदनुसार दृश्य उपस्थित किया गया ।
इसी
तारतम्य में लोक परम्परा का अवलोकन करते हुए हमें ज्ञात होता है कि आदिम मनुष्य के
जीवन में भाषा के उद्भव के साथ जब जीवन के क्रियाकलापों को लेकर गीतों की रचना हुई
तो उसने सर्वप्रथम श्रम के गीत रचे और शिकार, अन्न संग्रहण, पशुपालन एवं कृषि से
सम्बंधित विभिन्न क्रियाकलापों को गीतों के माध्यम से प्रस्तुत किया । शिकार पा
लेने की प्रसन्नता को वह नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत करता था । हम अभी भी कुछ
आदिवासी समाजों में यह परम्परा देखते हैं कि वे गीतों के माध्यम से शिकार और
सम्बंधित क्रियाकलापों का साभिनय वर्णन प्रस्तुत करते हैं जिसमे एक व्यक्ति हिरण
बनता है और एक शिकारी । उनकी वेशभूषा भी पात्र के अनुसार होती है जिसमे में सींग, खाल
आदि धारण करते हैं । इसी तरह कृषि सम्बंधित विभिन्न कार्यों को भी वे गीतों पर अभिनय के
माध्यम से प्रस्तुत करते हैं जिसमें अनाज बोने से लेकर काटने, और उन्हें देवता को
अर्पित किये जाने तक के दृश्य शामिल होते हैं ।
नाट्यकला
के उद्भव के पश्चात गध्य नाटकों के विकास से पूर्व काव्य नाटक ही मंच पर प्रस्तुत
किये जाते थे । वाल्मीकि कृत महाकाव्य रामायण के मंचन से इस कला का प्रारम्भ हुआ
जिसकी लोक में परिणति तुलसीदास की काव्य कृति रामचरित मानस की रामलीला मंचन के रूप
में हुई । कृष्ण भक्ति पर आधारित रचनाओं का भी मंचन किया गया । यह परंपरा
सर्वप्रथम उत्तर भारत में प्रारंभ हुई लेकिन दक्षिण भी इससे अछूता नहीं रहा और
विभिन्न कलारूपों में इसकी प्रस्तुति होती रही । दक्षिण के लोक कवियों की
प्रस्तुति तो पूर्व में ही होती रही । भव्य मंच और मंदिरों के प्रांगण इनके
प्रस्तुति स्थल रहे ।
कविता
की लोक में प्रस्तुति के रूप में हम कालान्तर में आई नौटंकी विधा को भी रख सकते हैं
जिसमे समस्त संवाद पद्यात्मक ही होते थे । सुल्ताना डाकू, गुलफ़ाम, अलिफ़ लैला जैसी
नौटंकी में जहाँ शेरों शायरी में उर्दू, अरबी, फारसी का इस्तेमाल होता था वहीं आल्हा-उदल
राजा हरिश्चंद्र जैसी नौटंकी में स्थानीय ब्रज, अवधि, भोजपुरी आदि भाषाओँ में लिखे
छंदों का प्रयोग होता था । उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में पारसी नाटकों का भी
अविर्भाव हुआ जो अनेक दशकों तक चलते रहे, इनमें भी शेरो शायरी का आधिक्य रहा और
अभिनेता दर्शकों पर प्रभाव डालने के लिए ऊँचे स्वर में किसी कथा के साथ उन्हें
प्रस्तुत करते रहे । कविता की मंच पर प्रस्तुति के सन्दर्भ में हम वैश्विक
परिप्रेक्ष्य में यूनानी नाटकों की प्रस्तुति को देख सकते हैं जिनमे एक निश्चित
संख्या में अभिनेता ऊँचे स्वर में कविता का गायन करते थे । पश्चिम में शेक्सपियर
और मौलियर के युग में भी इस परंपरा का निर्वाह होता रहा ।
हिंदी
साहित्य में कविता के युग के आगमन के पश्चात भक्तिकाल, रीतिकाल से लेकर आधुनिक युग
तक कविता अपने विभिन्न रूपों में आई । तत्पश्चात प्रगतिवाद, नई कविता जैसे आन्दोलन
भी चले और यह सम्प्रति समकालीन कविता तक पहुंचे । भक्तिकाल और रीति काल में कविताओं का मंचन
नाट्य विधा का एक महत्वपूर्ण अंग था । मध्यकाल में जब अलग अलग बोलियों और भाषाओं
में कविता रची जा रही थी लोक नाट्यों में भी वह उसी रूप में आई तथा संगीत इसका
प्रमुख आलंबन रहा । अठारहवीं शताब्दी तक नाटक में कविता और संवाद का मिलाजुला रूप
भी हम देख सकते हैं । आधुनिक काल तक आते आते नाट्य विधा का अपनी सम्पूर्णता में
विकास हुआ और नाटक का मंच खड़ी बोली में लिखे जा रहे नाटकों से समृद्ध हुआ ।
उन्नीसवीं शताब्दी में गद्य नाटकों का लेखन प्रारम्भ हुआ जिसका विकास बीसवीं
शताब्दी तक हुआ । यह माना जाने लगा कि कि नाटक के मंचन के लिए एक कहानी और गद्य में
लिखे संवाद तथा उसमे बुने गए दृश्य ही पर्याप्त हैं यद्यपि संवादों में
काव्यात्मकता का पुट भी शामिल रहा किन्तु उनका रूप कविता से भिन्न था । नाट्यलेखन
का अपने आप में एक पूर्ण विधा के रूप में विकास हुआ और कवि, गीतकार, कथाकार की
भांति नाटककार को भी साहित्य जगत में उचित स्थान प्राप्त हुआ ।
इस
तरह के नाट्य मंचन में सम्पूर्ण संवाद गद्य में ही होते थे । धीरे धीरे कविता इस
मंच से निष्काषित होती गई । लोक नाट्यों के मंचन में भी कविता के स्थान पर गद्य के
वाक्यों का प्रयोग होने लगा । आधुनिक काल में महाभारत महाकाव्य पर आधारित पंडवानी,
लोक नाट्य नाचा, नौटंकी और रामलीला में भी कविता का यह हश्र हम देख सकते हैं ।
रामलीला में मानस के दोहे केवल पूरक के रूप में शेष रहे । विभिन्न मिथकों पर
आधारित खड़ी बोली में लिखे नाटकों से तो कविता के संवाद पूरी तरह गायब हो गए,
उदाहरण के रूप में महाभारत महाकाव्य पर आधारित अंधायुग के संवादों को देख सकते हैं
। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में प्रारंभिक दौर में प्रयोगधर्मी नाटकों में
यद्यपि गीतों का प्रयोग जारी रहा किन्तु उसका कारण उनकी गेयता और छंदबद्ध होना था । समकालीन कविता मुक्तछंद होने के कारण रंगकर्मियों के लिए असाध्य ही
रही ।
लेकिन
आज प्रसन्नता इस बात की है कि समकालीन कविता के शिल्प में अब पुनः मंच पर कविता की
वापसी हो रही है । ऐसा भी नहीं है कि समकालीन कविता के प्रारंभिक दौर में इसके
मंचन हेतु प्रयास नहीं किये गये लेकिन नाट्य विधा से जुड़े लोगों के सामने सबसे बड़ी
समस्या इसके सम्प्रेषण की थी । नाटकों के मंचन में गद्य में लिखे संवादों की
दर्शकों को इतनी आदत हो गई थी कि वे उसे कविता के रूप में ग्रहण करने में असमर्थ
थे । दूसरी समस्या समकालीन कविता का छन्दबद्ध न होना, इसका
शिल्प संवाद के रूप में न होना तथा बिम्ब एवं प्रतीकों का आधिक्य होना था ।
रंगकर्मियों के लिए भी यह समस्या थी, इसलिए कि संवादों से युक्त नाटक का मंचन और
उस पर अभिनय उनकी आदत में शामिल हो चुका था यह दर्शकों को भी पसंद आने लगा था और निर्देशक
नए प्रयोग नहीं करना चाहते थे । यद्यपि पूर्व समय में छंदबद्ध कविता में भी
संवादों की और दृश्यों की उपस्थिति थी और उसका मंचन भी सरल नहीं था किन्तु अपनी
गीतात्मकता और लयबद्धता के कारण वह दर्शकों तक पहुँचती रही । अलावा इसके एक प्रमुख
कारण यह भी था कि गद्य नाट्यलेखन का एक स्वतन्त्र विधा के रूप में विकास हो रहा था
और वह अपनी शैशवावस्था में था ।
शनैः
शनैः दृश्य परिवर्तन होता है और कुछ प्रयोगगामी निर्देशक कविताओं के मंचन हेतु
अग्रसर होते हैं । आधुनिक कविता और नाट्य कला के विकास के साथ कुछ नाट्य
निर्देशकों ने समकालीन कविता के मंचन में अनंत संभावनाएं देखीं और सम्प्रेषणीयता
का जोखिम उठाते हुए भी कुछ महत्वपूर्ण कविताओं के मंचन का सिलसिला प्रारंभ किया ।
समकालीन कविता को लेकर सर्वप्रथम प्रयास मुक्तिबोध की कविताओं को लेकर प्रारंभ हुए
। मुक्तिबोध की कविता का मंचन आसान नहीं था । मुक्तिबोध को एक जटिल कवि माना जाता
है और हिंदी साहित्य के अच्छे अच्छे अध्येता भी उनकी कविताओं को समझ पाने में
कठिनाई का अनुभव करते हैं । लेकिन मुक्तिबोध की कविताओं की एक विशेषता यह भी है कि
उनकी कविताओं में दृश्यात्मकता प्रमुख है जो एक नाट्य निर्देशक के लिए बहुत
महत्वपूर्ण बिंदु है । कठिनाइयाँ अवश्य थीं लेकिन ऐसा भी नहीं था कि मुक्तिबोध की
कविता का मंचन नहीं किया जा सकता था । निर्देशकों ने उनकी समझ में आने वाली कुछ
पंक्तियाँ चुनीं , उदाहरण के लिए कुछ पंक्तियाँ देखिये ।
ओ मेरे आदर्शवादी मन
ओ मेरे सिद्धांतवादी मन
अब तक क्या किया जीवन क्या जिया
उदरम्भरि बन अनात्म बन गए
भूतों की शादी में कनात से तन गये
किसी व्यभिचारी के बन गए बिस्तर
बहुत बहुत ज़्यादा लिया
दिया बहुत कम
अरे ! मर गया देश जीवित रह गए तुम
लगभग
आठवें दशक में मुक्तिबोध से ही कविता के मंचन की शुरुआत हुई । प्रसिद्ध रंग
निर्देशक अलखनंदन, अरुण पाण्डेय तथा जयंत देशमुख ने मुक्तिबोध की कविताओं को दृश्य
रूप में मंच पर उपस्थित किया । आलोचक जयप्रकाश बताते हैं कि सन उन्नीस सौ अस्सी
में मध्यप्रदेश साहित्य परिषद द्वारा राजनांदगाँव में आयोजित 'मुक्तिबोध संगम' में
रंग निर्देशक मुकेश शर्मा के निर्देशन में मुक्तिबोध की रचना ' ओरांग उटांग ' का
प्रभावशाली मंचन किया गया । मुक्तिबोध की कविताओं में उनकी लम्बी कविता ' अँधेरे
में ' इन नाट्य निर्देशकों का प्रिय विषय रही । मुक्तिबोध की कविताओं का रहस्यमय
संसार, उसमे बुनी गई वह फैंटासी, उनकी कविता में उपस्थित वह लम्बा जुलूस, बूढ़ा
तालाब, ब्रह्मराक्षस सब कुछ मंच पर साकार होता गया । उनकी कुछ पंक्तियाँ जैसे '
स्वार्थों के टैरियर कुत्ते पाल लिए ' 'भावना
के कर्तव्य त्याग दिए ' लोकहित पिता को घर से निकाल दिया ' जन मन करुणा सी माँ को
हकाल दिया ' तर्कों के हाथ उखाड़ दिए ' अपने ही कीचड़ में धँस गए ' विवेक बघार डाला
स्वार्थों के तेल में ' ' आदर्श खा गए खेल ही खेल में ' जैसी पंक्तियाँ तो अब
सत्ता को कोंचने के मुहावरे के नाम पर जन जन की ज़ुबान पर हैं ।
रंग निर्देशकों ने इन कविताओं की प्रस्तुति में प्रॉप, वेशभूषा, ध्वनि, प्रकाश और संगीत के माध्यम से अनेक प्रयोग किये और मुक्तिबोध की कविता की फैंटेसी को मंच पर साकार किया । यद्यपि मुक्तिबोध की कविता में दृश्य परिवर्तन बहुत तेज़ी से होते है और दो पंक्तियों के बीच छुपे अर्थ को साकार करना बहुत कठिन कार्य होता है लेकिन रंगकर्मियों ने सायास इसे कर दिखाया है । मुक्तिबोध की कविताओं के मंचन का यह सिलसिला अब तक चल रहा है । अस्सी के दशक के पश्चात तो देश की विभिन्न नाट्य संस्थाओं ने मुक्तिबोध की कविताओं का मंचन किया जिनमे मध्यप्रदेश की जबलपुर, रायपुर, भिलाई, राजनांदगाँव, डोंगरगढ़ सहित इप्टा की विभिन्न इकाइयां प्रमुख हैं । जबलपुर इप्टा ने अरुण पाण्डेय के निर्देशन में मुक्तिबोध की कविताओं पर 'तुम निर्भय ज्यों सूर्य गगन के ' की प्रस्तुति भोपाल में की । कुल्लू में मीनाल कल्चरल असोसिएशन द्वारा संगीत नाटक अकादमी के लिए मुक्तिबोध की कविता 'अँधेरे में' और विभिन्न कविताओं का मंचन किया गया । छत्तीसगढ़ में अग्रज नाट्य दल के सुनील चिपणे, रोहतक के जतन नाट्य मंच के अलावा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़ की अनेक संस्थाओं द्वारा मुक्तिबोध का मंचन अब तक जारी है ।
मुक्तिबोध के अलावा कई अन्य कवि
भी रंग निर्देशकों के प्रिय कवि रहे । भोपाल के भारत भवन में रंग निर्देशक अलखनंदन
ने श्रीकांत वर्मा के संकलन 'मगध' की कविताओं की प्रस्तुति की । जबलपुर इप्टा
द्वारा अरुण पाण्डेय के निर्देशन में कवि ज्ञानेन्द्रपति की कविताओं का 'भिनसार'
नाम से मंचन हुआ । पहल सम्मान के अवसर पर नागपुर में कवि कथाकार उदय प्रकाश की
कविताओं का 'ताना-बाना' शीर्षक से मंचन हुआ । 'विवेचना' द्वारा ही आलोक धन्वा को
पहल सम्मान दिए जाने के अवसर पर दो हज़ार पाँच में उनकी कविताओं का मंचन भारतीय
भाषा परिषद के सभागृह में कोलकाता में हुआ जिसमे देश के अनेक वरिष्ठ साहित्यकार
उपस्थित रहे । इसी तरह भगवत रावत की कविताओं का मंचन 'शायद वह एक कवि था' के नाम
से तथा सोमदत की कविता ' रेल बोगदे में ' का मंचन जबलपुर में किया गया ।
अभी
हाल फ़िलहाल रंग निर्देशक राजकमल नायक द्वारा रायपुर में ज्ञानेन्द्रपति की कविताओं का मंचन ' गंगातट '
शीर्षक से किया गया है । रायपुर इप्टा के मिन्हाज़ असद ने 'चकमक की चिंगारी '
शीर्षक से मुक्तिबोध की कविताओं की संगीतमय प्रस्तुति की जिसमे संगीत पक्ष रंग
निर्देशक आबिद अली का था । जबलपुर इप्टा द्वारा गुलज़ार की कविताओं का मंचन ' रेशम
का यह शायर ' नाम से भी किया गया । रंग निर्देशक अरुण पाण्डेय ने रघुवीर सहाय की
कविताओं को भी मंच पर प्रस्तुत किया । मानव कौल द्वारा काफी पहले गोरख पाण्डेय की
कविताओं का मंचन किया गया था ।
इसके अलावा भी अनेक लोगों ने कविताओं का मंचन किया है जिनमे मनोज
नायर, सौरभ अनंत, संजय मेहता आदि हैं । मनोज नायर ने कवि संतोष चौबे की कविताओं का
मंचन किया है । कवि विनोद दास बताते हैं कि लखनऊ इप्टा द्वारा राकेश जी के
निर्देशन में मुक्तिबोध,रघुवीर सहाय, लीलाधर जगूड़ी,राजेश शर्मा और विनोद दास की
कविताओं का मंचन किया गया ।
इप्टा लखनऊ ने समकालीन कविता के मंचन की दिशा में अनेक प्रयोग किये हैं । युवा रंगकर्मी और संगीतकार रवि नागर ने अनेक कवियों की कविताओं का
चयन किया और इप्टा लखनऊ के स्वर्ण जयंती समारोह के अंतर्गत इनकी प्रस्तुति दी इनमे
रघुवीर सहाय की चर्चित कविता 'अधिनायक' भी है जिसकी प्रसिद्ध पंक्तियाँ हैं 'राष्ट्रगीत
में कौन भला वह भारत भाग्य विधाता है , फटा सुथन्ना पहने जिसका गुन हरचरना गाता है
।' इसके अलावा कुँवर नारायण की कविता ' टूटे हुए खंजर की मूठ' , लीलाधर
जगूड़ी की कविता 'पाटा' , त्रिलोचन की कविता 'परिवर्तन' केदारनाथ अग्रवाल की प्रसिद्ध कविता ' एक हथौड़े
वाला घर में और हुआ ' शमशेर बहादुर सिंह की कविता ' प्रातः नभ था बहुत नीला ' और
कैफ़ी आज़मी की नज़्म की भी संगीतमय प्रस्तुति की गई । रवि नागर द्वारा
कवि राजेश शर्मा की कविताओं की भी प्रस्तुति इनमे शामिल है ।
समकालीन
कविता का मंचन अब रंग निर्देशकों का प्रिय विषय है और जिसमे अब अनेक नए नए नाम
सामने आ रहे हैं जिनमे इप्टा रायपुर के निसार अली जिन्होंने ब्रह्मराक्षस कहानी व
कविता का मंचन किया तथा मिन्हाज़ असद, दिनेश चौधरी जैसे नाम हैं । इसके अलावा अब
अनेक युवा कवियों की कविताओं का मंचन भी विभिन्न रंग निर्देशकों द्वारा किया जा
रहा है विगत दिनों महाराष्ट्र मंडल रायपुर द्वारा आचार्य रंजन मोड़क के निर्देशन में लम्बी कविता 'पुरातत्ववेत्ता'
और 'देह' के कवि शरद कोकास की कविता 'तितलियाँ गुम हैं' का मंचन किया गया । इसके अलावा युवतर
कवि पूर्णाक्षी साहू, आमना मीर , शिज्जू
ठाकुर, मिताली , कल्पेश पटेल और सुजश शर्मा की कविताओं को लेकर एक कोलाज 'अंतर्द्वंद्व ' शीर्षक से प्रस्तुत किया गया ।
उसी तरह धमतरी में कवि विजय पंजवानी और त्रिलोक महावर की कविताओं का मंचन किया गया
। युवा रंगकर्मी सिग्मा उपाध्याय ने हाल ही में नाज़िम हिकमत और कुँवर नारायण की
कविताओं को लेकर एक प्रस्तुति भिलाई में दी है ।
इसी
तारतम्य में इलाहाबाद की नाट्य संस्था बैक स्टेज द्वारा प्रवीण शेखर के निर्देशन
में वामिक जौनपुरी की कविता 'नीला परचम', राही मासूम रज़ा की 'बावन साल पुरानी
आँखें ' भवानी प्रसाद मिश्र की रचना 'गीत फ़रोश', आदम गोंडवी की रचना 'चमारों की
गली', तथा धर्मवीर भारती की रचना 'मुनादी' का मंचन किया गया । प्रवीण शेखर ने इसके
अलावा इमन्यूएल आर्तेज की प्रसिद्ध कविता 'एक मिनट का मौन' तथा पोलैंड की कवयित्री
क्रिस्टीना रोजीटी की कविता 'गोब्लिन मार्केट' को 'माया बाज़ार' के नाम से मंचित
किया ।
मंच
पर कविताओं की प्रस्तुति के अलावा इन दिनों नाट्य समीक्षकों द्वारा कविताओं के
मंचन का दर्शकों पर प्रभाव का भी आकलन किया जा रहा है । सामान्यतः दर्शकों का
परिचय कवि के नाम से होता है लेकिन उनकी कविताएँ उन्होंने पढ़ी नहीं होती । कविताओं
के नाम पर उन्होंने हास्य व्यंग्य के मंच पर और चैनलों में प्रस्तुत कविताएँ ही
सुनी होती हैं किन्तु गंभीर कविताओं से मंच पर जब उनका साक्षात्कार होता है तो वे
इसका स्वागत करते हैं और इसे बहुत गंभीरता से लेते हैं । आश्चर्य यही है कि
मुक्तिबोध जैसे कवि की गंभीर कविताएँ सबसे अधिक सराही गईं । यह अलग बात है कि
इप्टा के द्वारा किये जा रहे कविता के मंचन में सामान्यतः बुद्धिजीवियों और
रंगकर्म से जुड़े लोगों की संख्या अधिक होती है किन्तु इसके अलावा दर्शकों में जन
आन्दोलनों से जुड़े लोग तथा मजदूर वर्ग के भी अनेक लोग होते हैं जिनकी साहित्य की
समझ पर संदेह नहीं किया जा सकता । इप्टा द्वारा अब कविताओं को अभिनय के माध्यम से
सडकों और चौराहों पर भी प्रस्तुत किया जा रहा है जिनका दर्शक आम व्यक्ति है ।
वर्तमान
में समकालीन कविता के मंचन को लेकर रंग निर्देशकों द्वारा विभिन्न प्रयोग जारी हैं
। इन निर्देशकों द्वारा बहुत अध्ययन के पश्चात कविताएँ चुनी जाती हैं । समकालीन
कविता के अंतर्गत अधिकाँश रूप से प्रगतिशील और जनवादी कवियों की कविता का चयन किया
जाता है साथ ही कविता में विजुअल्स की संभावना को ध्यान में रखा जाता है । यदि
सम्पूर्ण कविता का मंचन संभव न हो तो कविता के किसी एक अंश का चयन किया जाता है । यद्यपि
सम्पूर्ण गद्य नाटक में बीच बीच में कविताओं के प्रयोग का चलन तो काफी समय से है
और इसकी सराहना भी दर्शकों द्वारा की जाती रही है लेकिन सम्पूर्ण कविता की काव्य
पंक्तियों पर अभिनय के साथ प्रस्तुति उल्लेखनीय है । गद्य नाटक में बीच बीच में कविताओं की
प्रस्तुति के विषय में रंग निर्देशक निसार अली ने ध्यान आकृष्ट करते हुए कहा है कि
"यह दुःख का विषय है कि अनेक बार मंचन के समय ऐसे कवियों का उल्लेख भी नहीं
किया जाता न ब्रोशर में उनका नाम होता है बल्कि यह कविताएँ एक फिलर के रूप में
उपयोग में लाई जाती हैं ।" बहरहाल यह सम्पूर्ण कविता के मंचन से अलग विषय है
।
सम्पूर्ण
कविता की नाट्य रूप में प्रस्तुति निर्देशक की सूझ बूझ और कलाकारों के अभिनय से ही
सफल हो सकती है । इसके लिए निर्देशक की कविता की समझ भी बहुत मायने रखती है । निर्देशक
कवि के लिखे को एक्सप्लोर करता है, कविता में उपस्थित बिम्ब और प्रतीकों को दृश्य
रूप प्रदान करता है तथा उसमे निहित कथ्य और विचार को दर्शकों तक संप्रेषित करता है
। वस्तुतः यह जोख़िम भरा कार्य है और ज़रा सी नासमझी से अर्थ का अनर्थ हो सकता है ।
ध्यातव्य है कि कविता की नाट्य रूप में प्रस्तुति का उद्देश्य सामान्य मनोरंजन से
अलग है और दर्शकों पर इसका एक अलग प्रभाव होता है । सामान्य रूप से पाठ करने पर
अथवा श्रवण मात्र से कविता का जो भाव व्यक्त नहीं होता है वह दृश्य, अभिनय, ध्वनि
और पाठ की विविधता आदि के माध्यम से सरलता से व्यक्त हो जाता है और जन जन तक संप्रेषित
होता है । बावज़ूद इसके समकालीन कविताओं के मंचन की यह विधा अभी लोकप्रिय विधा नहीं
बन पाई है । अनेक कवियों की कविताओं का मंचन करने वाले रंग निर्देशक अरुण पाण्डेय
का कहना है कि "कविताओं का मंचन बहुत श्रमसाध्य कार्य है । दुःख की बात है कि
नाटकों की तरह अनेक बार इनका मंचन संभव नहीं होता और श्रम व्यर्थ हो जाता है ।"
उनके द्वारा प्रस्तुत की गई कविताओं में केवल उदय प्रकाश, आलोक धन्वा और गुलज़ार की
कविताएँ ही दोबारा प्रस्तुत की गईं, शेष कवियों की कविताओं का मंचन केवल एक बार ही
हुआ । लेकिन राकेश जी इस स्थिति को लेकर निराश नहीं हैं उनका कहना है कि कविता की
नाट्यरूप में प्रस्तुति ही क्या बल्कि कई बार एक नाटक का भी दूसरी बार मंचन संभव
नहीं हो पाता ।
बहरहाल,
हम उम्मीद करते हैं कि समकालीन कविताओं के मंचन की यह अल्पजीविता कभी न कभी विराम
लेगी और रंगमंच के इस नवीन और अभिनव प्रयोग की ओर दर्शकों का ध्यान आकृष्ट होगा ।
केवल बुद्धिजीवी ही नहीं अपितु सामान्य दर्शक भी कविता के मंचन की गंभीरता को
समझेंगे और रंग निर्देशकों तथा रंग कर्मियों का उत्साह वर्धन करेंगे । कविताओं के
मंचन से आम दर्शकों और जनसामान्य की साहित्य के प्रति रूचि भी जागृत होगी । यही
नहीं युवा रंगकर्मी भी परम्परा से अलग हटकर की जाने वाली इन प्रस्तुतियों के माध्यम
से साहित्य और कला के सामाजिक सरोकारों से परिचय प्राप्त करेंगे और कला के संसार
में वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ संस्कारित होंगे । इन युवाओं का नाटक के अलावा
साहित्य की अन्य विधाओं कविता, कहानी आदि से भी परिचय होगा और वे आगे चलकर कला के
एक सिपाही के रूप में भविष्य के संसार में सम्भावनाओं की तलाश करेंगे ।
-शरद कोकास
स्ट्रीट 7 ज़ोन 3
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