Monday, October 3, 2016

वे अपनी नस्लों के जेहन में संगीत बो रहे हैं; और हम?

"जब भी भूख से लड़ने
कोई खड़ा हो जाता है
सुंदर दिखने लगता है।"

कलाकारों-कलमकारों का जमावड़ा है तो कुछ अलहदा तो होगा ही। आनंद मोहन माथुर हॉल में माहौल खिंचा हुआ है। सामने प्रवेश द्वार पर चित्त प्रसाद के सुप्रसिद्ध रेखांकन नजर आ रहे हैं। प्रवेश करने वाले गलियारे के दोनों और किताबों की स्टाल सजी हुई है और लोग 'कहीं खत्म न हो जाए' के भाव से अपनी पसंदीदा किताब अभी ही खरीद लेना चाहते हैं। स्टाल के बाएं कोने में सुनील जाना के फोटोग्राफ लगे हुए हैं, जो चित्त प्रसाद के रेखांकन से मानों कह रहे हों-हम भी तो वही बात कह रहे हैं। फोटोग्राफ अंदर बरामदे में भी हैं और इसके फक्कड़-अलमस्त छायाकार शाह आलम बाइसिकल में नजर आ रहे हैं। जिंदगी की जद्दोजहद में लगे आम लोगों की जिन्दा तस्वीरें हैं। यहीं सुपरिचित चित्रकार मुकेश बिजोले की पेंटिंग्स पंकज दीक्षित के कविता पोस्टरों के साथ जुगलबन्दी में लगी हुई हैं। ठीक इसी के सामने वे सीढियाँ हैं जहाँ लम्बे श्वेत बाल और इतनी ही सफेद दाढ़ियों वाला कलाकार नुमा शख्स बड़ी ही सादगी के साथ भोजन की प्लेट लेकर नीचे बैठ गया है। भिलाई के साथी यह देख परीशाँ हो उठते हैं।' अरे कामरेड! यह क्या?' वे एक कुर्सी देकर 12 राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित फिल्मकार और मौजूदा सत्र के मुख्य अतिथि आनन्द पटवर्धन को ऊपर बैठने का अनुरोध करते हैं और आनन्द 'अरे! कोई फर्क नहीं पड़ता' के भाव से अनुरोध स्वीकार कर लेते हैं। उधर सम्मेलन के बाकी प्रतिनिधि कुछ पर्चियों के सहारे भोजन की प्लेट जुटा रहे हैं और इन्हीं पर्चियों में सर्वेश्र्वर दयाल सक्सेना की ऊपर लिखी पंक्तियाँ दर्ज हैं। गोरख पाण्डेय, धूमिल वगैरह की कविताएँ भी हैं। भूख से जूझते हुए भूख की कविताएँ। आनन्द पटवर्धन भोजन को काम की तरह निपटा रहे हैं, क्योकि अभी तुरन्त बाद उन्हें प्रलेस पर बन रही एक अधपकी फ़िल्म का प्रदर्शन करना है।

फ़िल्म कच्ची है, असंपादित, ब्लेंक सीन भी हैं, पर 'ख़त का मजमून समझ आता है, लिफाफा देखकर' की तर्ज पर बनने वाली फ़िल्म की उत्कृष्टता का अंदाजा लगाया जा सकता है। यूँ भी आनन्द पटवर्धन अमूमन ऐसे विषयों पर फ़िल्म बनाते रहे हैं, जिन पर दीगर फिल्मकार सोचते भी नहीं। प्रलेस को विषय बनाना तो और भी कठिन है। फ़िल्म में जावेद सिद्दीकी बता रहे हैं कि किस तरह 1936 में प्रेमचन्द की तहरीर ने न केवल हिंदी और उर्दू के बल्कि अन्य भाषाओं के लेखकों को भी प्रगतिशीलता की धारा में बहा लिया। इप्टा के पूर्व अध्यक्ष ए. के. हंगल विभाजन के त्रासद दिनों को याद कर रहे है जब उनका परिवार पाकिस्तान में बतौर अल्पसंख्यक रह रहा है। मोहल्ले के मुस्लिमों के बीच वे अकेले हिन्दू हैं। वे खुद जेल में हैं। कुछ लोग दुर्भावना से उनके परिवार को घेरते हैं तो मोहल्ले के सारे मुस्लिम बचाव में एकत्र हो जाते हैं। कहते हैं, 'इन्हें हाथ नहीं लगाना। हम इन्हें जानते हैं। भले आदमी हैं। कम्युनिस्ट हैं!'

देश भर के कोई 22 राज्यों से एकत्र हुए कलाकारों की इंदौर शहर में भव्य रैली के बाद इस सत्र की शुरुआत हुई थी। जाती हुई बेमौसम बारिश ने भी रैली का हार्दिक अभिवादन किया। शाम को सुरों की बरसात हुई। देवास इंदौर के ऐन पड़ोस में है। औरों का नहीं पता पर कलाप्रेमी इस शहर को कुमार गन्धर्व के नाम से ही चिह्नित करते हैं। उन्हीं यशश्वी गायक कुमार साहब की सयोग्य शिष्या और सुपुत्री कलापिनी कोमकली ठेठ मालवी शैली में कबीर के भजन सुनाती हैं। कुमार साहब की वही अद्भुत शैली, जहाँ शास्त्रीयता अपना अभिजात्यपन त्याग कर ऊँची आसंदी से उतर आती है और लोक के अक्खड़पन से बेलौस-उन्मुक्त होकर मिलती है। "कौन ठगवा नगरिया लूटल हो" और "नैहरवा, हमका न भाए" जैसी रचनाएँ" अद्भुत, अवर्णनीय समाँ बाँध देती हैं। समय -सीमा की बाध्यता कलापिनी को और, और अधिक सुनने से रोकती है।

शाम के इस सत्र का संचालन आयोजन की भाग-दौड़ में लगे-थके विनीत तिवारी के हाथों में है। इप्टा के इस 14 वें राष्ट्रीय सम्मेलन की स्वागत समिति के अध्यक्ष आनंद मोहन माथुर की आवाज 90 वर्ष की आयु में भी कड़क और बलंद है। वे कहते हैं कि मैं स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहा हूँ की इप्टा का सम्मेलन यहां हो रहा है। जो काम आप पहले कभी आप कर रहे हों, वही काम आगे की दो -तीन पीढियां करती नजर आएं तो बड़ी तसल्ली होती है। 22 राज्यों से 700 से भी ज्यादा कलाकार यहां आए हैं। बाज़ार ने कला को मनोरंजन तक सीमित करने का प्रयास किया पर सथ्यू साहब व आनन्द पटवर्धन जैसे लोगों ने बाजार के सामने घुटने नहीं टेके। यही अपेक्षा आप सब से भी देश करता हैं। क्यूबा और वेनेजुएला के प्रतिनिधियों ने यहां आकर हमें इज्जत बक्शी है। छोटे-छोटे देश किस तरह आत्म सम्मान के सामने खड़े हैं, यह प्रेरक है।

श्री माथुर ने कहा कि हम केवल संस्कृति कर्मी नहीं है। हम राजनीतिक चेतना से लैस हैं। कश्मीर को लेकर जिस तरह हिंदुस्तान और पाकिस्तान राजनीति क्र रहे हैं, उनसे किसी का भला नहीं होगा। हमें मखदूम की ये पंक्तियाँ याद आती हैं कि " जाने वाले सिपाही से पूछो, वो कहाँ जा रहा है।"

अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में श्री रणवीर सिंह ने कहा कि आज का माहौल पूरी तरह अंधकारमय है। मुझे याद आती है, शेक्सपियर के नाटक मैकबेथ के चौथे अंक के तीसरे दृश्य की यह स्पीच: "मुझे लगता है हमारा देश जंजीरों के नीचे दबा जा रहा है; यह रो रहा है, इससे खून बह रहा है और हर दिन इसके घावों में वृद्धि होती जा रही है।' उन्होंने सवाल किया कि क्या हम इन अँधेरे दिनों के खिलाफ़ मूक दर्शक बने रहेंगे या अपने पुरोधाओं से सबक लेकर अपने आंदोलन की धार और तेज करेंगे, अपने नाटकों को और पैना करेंगे, उन्हें जनता के बीच ले जाकर उन्हें लामबंद करेंगे। उन्होंने कहा कि हमारा अस्तित्व थिएटर की वजह से है और थिएटर का अस्तित्व हमारी वजह से। इस रिश्ते को और अधिक सघन और आत्मीय बनाए जाने की जरूरत है।
 
सत्र में क्यूबा और वेनेजुएला के राजदूतों की मौजूदगी प्रेरक और हौसला बढ़ाने वाली रही। क्यूबा के राजदूत ने जहाँ थोड़े संकोच के साथ अपनी बात कही, वहीं वेनेजुएला के प्रतिनिधि ने पूरे भावाभिनय के साथ अपनी बातों को विस्तार दिया। एक फ़िल्म उन्होंने दिखाई जो चौंकाती है, प्रेरित करती है, विचार करने के लिए बाध्य करती है। संगीत को उनके मुल्क ने आंदोलन बना दिया है। कोई 5 लाख से भी ज्यादा बच्चे संगीत सीख रहे हैं, सिखा रहे हैं। किसी के हाथ में गिटार है, किसी के हाथ में वायलिन तो कोई ट्रम्पेट जैसे वाद्य में सुरों से खेल रहा है। यह अपने मुल्क के उन लोगों के लिए विचार का मुद्दा हो सकता है-हालांकि वे कभी करेंगे नहीं-जो अपने बच्चों के हाथों में लाठी और त्रिशूल जैसी चीजें थमा रहे हैं।

कबीर कला मंच की साथी शीतल साठे को सुनना एक अलग, अलहदा अनुभव था । इस पर विस्तार से फिर कभी।







No comments:

Post a Comment