Friday, June 6, 2014

सुरों की कविता है संगीत

संगीत के जनपक्षीय पहलुआें को रेखांकित करता अखिलेश दीक्षित का यह लेख खास तौर पर विश्व संगीत दिवस, 21 जून के लिये लिखा गया है। विश्व संगीत दिवस के बारे में आैर ज्यादा जानकारी लेख के अंत में दिये गये लिंक से हासिल की जा सकती है।

जे के रोलिंग की हैरी पॉटर सीरीज़ के उपन्यास हैरी पॉटर एंड द सोरसरर्स स्टोन में एक चरित्र डम्बल्डोर अपनी आँखें पोछते हुए कहता है “आह, जो कुछ भी हम यहाँ करते है संगीत उससे भी बड़ा जादू है.” संभवतः ये संवाद मेरेलिन मैनसन के उस विचार से प्रेरित है जब उन्होंने कहा “संगीत जादू का सबसे प्रबल रूप है .” यहाँ सवाल ये नहीं की कौन किससे प्रेरित है बल्कि  हम यहाँ पर संगीत की पहुँच, उसके  प्रवाह, प्रभाव, आचार और व्यवहार की बात कर रहे है. मौन के बाद ये ताकत संगीत में ही है जो अवर्णनीय को अभिव्यक्त कर दे यानी संगीत को मनुष्य की सार्वभौमिक भाषा भी कहा जा सकता है. जहाँ एक तरफ ‘ हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के स्वर में गाते हैं’ के विचार से इनकार नहीं किया जा सकता वहीँ यह भी सच है कि सांगीतिक धुनों व ध्वनियों के माध्यम से अपने आस-पास से लेकर वृहद् दायरे तक की स्थितियों को समझा-जाना जा सकता है. ये संगीत ही है जो तमाम तरह के भेद-भावों के बावजूद सबको एक धरातल पर ले आता है. अगर दुःख-सुख की अभियक्ति की बात की जाये तो कितनी बार ऐसा होता है की किसी रचनाकार की पीड़ा या उल्लास से उपजी कोई धुन कब निज से व्यापक होकर पूरे समाज से संवाद करती हुई उसे प्रेरित करने लगती है पता ही नहीं चलता. पीट सीगर, बॉब मारले, रवि नागर, पॉल रोब्सम, अमर शेख़, विनय राय, हेमोंगो विश्वास, प्रेम धवन और न जाने ऐसे कितने ही गायक-संगीतकार हैं जिनका संगीत यह बताता है कि आपको स्वयं कैसा इन्सान होना चाहिए और यह दुनिया कैसी हो. संगीत जटिलताओं को सुलझा कर चरित्र और संवेदनाओं को निखारते हुए दुःख, चिंता और अवसाद में एक आशा की किरण जगाये रखता है. संगीत जो  समय और मृत्यु से प्रबल है हमें आपस में जोड़े रखता है. 

ख़लील जिब्रान ने कहा कि संगीत आत्मा की भाषा है, यह जीवन  के रहस्यों को खोलकर दुखों को दूर करता है.  इस कथन के अध्यात्मिक पक्ष से इतर अगर व्यवहारिक दुनिया के बारे में भी सोचें तो जो दुःख-तकलीफें, असमानता, शोषण, वर्ग व जातियों के दकियानूसी और गूढ़ ताने-बने, ग़रीबी, भूख, वर्चस्व की लड़ाई, युद्ध, प्राकृतिक संसाधनों पर एकाधिकार और ऐसी ही तमाम अमानवीय स्थितियां जिनसे विश्व की कुल जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा जूझ रहा है और उसे ईश्वर की इच्छा जैसे तिलस्म में फंसा कर ऐसे ही जीने को मजबूर किया जा रहा है | संगीत ऐसे ही तिलस्मों को तोड़ता हुआ आम जन को अपनी लड़ाई लड़ने के लिये लगातार प्रेरित करता है. एक प्रभावशाली स्वर समूह या धुन में बंधी कोई ऐसी कविता या गीत जो ढोलक की थाप, हारमोनियम की स्वर लहरी या अन्य वाद्यों के साथ मिलकर शोषकों को ललकारती हो, ऐसे रहस्यों को खोलती हो जिन्हें हम नियति समझे बैठे हैं, जब एकल या समवेत रूप से गायी जाती है तो जटिलताओं और कठिनाइयों को पछाडती संवेदनाओं को उत्प्रेरित करती एक ऐसे उर्जा स्रोत का काम करती है जो भय को परास्त कर जन-जन को हिम्मत और साहस से भर देता है. 

संगीत लोगों को संवेदना के स्तर पर एक गहरी समझ देकर उन्हें बेहतर बनने की दिशा में प्रेरित करता है और यही तत्व जब निज से व्यापक होता है तो दुनिया भी बदल सकती है. ये संगीत ही है जो आदि को अंत से जोड़कर हमारे हृदय का साहित्य बन जाता है, हमें उकसाता भी है और शांत भी करता है, आत्मा को स्नेह से भर देता है, मन को गहन अन्धकार से लेकर अनन्त ऊंचाइयों तक ले जाता है.. हम घुटन भरे  अंधेरों मे डूब जाते है....... फिर  उम्मीद से भर जाते है ..अच्छा महसूस करते हैं...!!

किसी ने कहा कि यह एक ऐसा उपकरण है जो फ़ासिस्टों को मारता है....तो मार्टिन लूथर किंग का विचार है कि संगीत अन्दर के शैतान को निकाल कर लोगों को उल्लास से भर देता है...लोग कोप रोष और दीगर नकारात्मक, विध्वंसक विचारों और गतिविधियों से दूर हो जाते हैं, चालाकियां भूल जाते है.
जब तक कविता विद्यमान है तब तक मनुष्यता भी कायम रहेगी. और पहला कवि भी तो आह को गान से ही अभिव्यक्त करता दिखाई देता है. 

वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान....!!

निश्चित ही होगा क्योंकि संवेदना की उपज पीड़ा की ज़मीन पर ही होती है...भाव अभाव में ही पैदा होता हैं... अपने प्रस्फुटन के क्षण से उड़ान भरते समस्त मानवता को अपनी बाहों में समेटे..... समाज, संस्कृति और राजनीति की पायदानों पर विचरण करता संगीत जीवन के उतार चढाव की कालकथा को धरती के विस्तारों और अनन्त आकाश में दर्ज कर देता है - और इस यात्रा में चलते हुए हमें हर सदी में दोस्त और साथी मिल ही जाते हैं. यह एक ऐसी भाषा है जिसमें आप कोई खराब, तुच्छ, व्यंग्य या कुटिल बात कह ही नहीं सकते. संगीत में एक सम्पूर्ण ब्रम्हांड को रच देने की क्षमता है तो किसी सभ्यता को नष्ट कर देने की शक्ति भी. यह अपने प्रति बहुत जागरूक और होशियार  रहने की अपेक्षा करता है.
संगीत सुरों की कविता है....

कविता को संगीत से या संगीत को कविता से अलग कर के नहीं देखा जा सकता ....
सुरों से सृजित कोई धुन वैसे ही संगीत कविता है
शब्दों से रचित छंदयुक्त-छंदमुक्त कविता
जैसे शब्द कविता
जैसे रंगों के माध्यम से बनाया गया कोई रंगचित्र
संगीत में श्रुतियों के रंग हैं
शब्दों में संगीत की ध्वनियाँ
और चित्र में रंगों की श्रुतियां
(श्रुतियां = Tones)

Music has the colours of tones
Poetry has the sounds of words
Painting has the tones of colours.

जो एक-दूसरे से अलग भी हैं और पूरक भी. शब्दों से जो ध्वनियाँ प्रसारित हो उन्हें पहचान कर स्वरों में रूपांतरित करना ही निहित संगीत को स्वरों की रंगश्रुतियों से धुन के कैनवास पर चित्र बना देने की प्रक्रिया है संगीत. जहाँ शब्द नहीं हैं वहां भी संगीत अपनी काया में स्वतंत्र रूप से भावों-संवेदनाओं को अभिव्यक्त करता चलता है - कभी प्रत्यक्ष तो कभी पाश्र्व में आकार लेता हुआ.

किसी नाटक के गीत, भाव, संवाद, अन्य परिस्थितियों व रस निष्पत्ति के लिए भी संगीत की रचना प्रक्रिया काव्यात्मक दृष्टिकोण, तरल भावों और गूढ़ संवेदना से गुज़रते हुए ही अपना रूप धारण करती है.
बाबा नागार्जुन की एक कविता है ...

घन-घन-घन धमक-धमक मेघ बजे
दादुर का कंठ खुला मेघ बजे..... 

इस कविता को १८ मात्रा के अलावा किसी और ताल में सोचा ही नहीं जा सकता. कविता इस बात की इजाज़त ही नहीं देती. यही बात इसकी धुन बनाने में भी लागू होती है और कविता से गुज़रते हुए राग मेघ-मल्हार या इसी प्रकृति का कोई और राग या स्वरलिपि गूंजती है ज़ेहन में. ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिल जायेंगे जहाँ कविता खुद अपने संगीत की दिशा तय करती है. महाकवि निराला तो अपनी बहुत सी कविताओं के लिए राग और ताल तक निर्धारित कर गए हैं. वैसे प्रयोगधर्मिता की कोई सीमा नहीं होती ये तथ्य भी ध्यान में रखना ज़रूरी है.
मुक्त छंद कविता के पितामह टी.एस.इलियट ने अपने निबंध कविता का संगीत में कहा की ‘ कविता का संगीत सबसे पहले संगीत और कविता की एकता है. काव्य संगीत अपने समय की जनभाषा में निहित होता है और कविता की प्रत्येक क्रांति जनभाषा की और लौटने और कभी-कभी इसके लौट आने की घोषणा करने के लिए उपयुक्त होती है.”

जिसका इतना विस्तृत वितान है, इतनी अपार क्षमताएं है और इतने आयाम हैं...
तो क्या ये ज़रूरी नहीं प्रतीत होता कि बचपन से ही संगीत की ऐसी शिक्षा दी जाये जिसमें पारंपरिक बंदिशों के साथ साथ ऐसा साहित्य-संगीत भी प्रयुक्त हो जो सुरों के ज्ञान, उनके उतार-चढाव और रियाज़ के साथ संवेदनात्मक धरातल पर समाज, संस्कृति व प्रकृति सहित संगीत की प्रवृत्तियों और तत्वों के प्रति जागरूकता पैदा करे. प्रशिक्षण व कलात्मक सृजन और उनके विश्लेष्णात्मक पहलू किसी भी समाज के आत्मिक जीवन के लिये बहुत महत्वपूर्ण हैं जो सृजन के अन्य पक्षों को भी उद्घाटित करते हुए कला की सामाजिक भूमिका निर्धारित करते हैं.

मछली जल की रानी है
जीवन उसका पानी है
हाथ लगाओगे तो दर जाएगी
बाहर निकालोगे तो मर जाएगी.

यह कविता हम सबने बचपन में न केवल सुनी होगी बल्कि घेरा बनाकर अपने आँगन, छत या आसपास के मैदानों में इसे खेला भी होगा. हम इसे एक बग़ैर पारंपरिक  प्रशिक्षण  के मंचित होने वाली सांगीतिक प्रस्तुति कह सकते हैं जो स्वतंत्र अस्तित्व, जीने की आज़ादी और जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं का बयान है. ऐसे तमाम छोटे बड़े खेल है जो किसी संदर्भवश आज भी स्मृतियों में कौंध ही जाते है.. और हम उन गलियों में भटकते हैं जहाँ आज भी बच्चों का कोई झुण्ड देख कर अनायास प्रश्न ज़बान पर आ ही जाता है..अनायास..’ क्या खेल रहे हो?’ जवाब मिलता है ... वीडिओ गेम, मोबाईल गेम या क्रिकेट – स्कूलों में जहाँ सबसे पहले प्रार्थना गाने की परंपरा थी जो अब ख़त्म हो गयी... ये प्रार्थना का गीत एक तरह से सामूहिक चेतना को एक धरातल पर लाने का प्रयास था जो बच्चों के मन-मस्तिष्क को कक्षाओं और अध्ययन के अनुशासन के लिए एकदम तैयार कर देता था. सैकड़ों विद्यार्थियों का एक धुन में गूंजता हुआ स्वर न केवल उनके अपने अंतर को बल्कि पूरे भवन के कोने-कोने को सकारात्मक उर्जा से भर देता होगा.

आजकल ऐसा कम देखने को मिलता है. हाँ यह ज़रूर है कि रियलटी शोज़ ने बच्चों को एक ऐसी कोमोडिटी में तब्दील कर दिया है जो जब बाज़ार में आये सबसे ज़्यादा कीमत पाए. इस दौड़ में उनके अभिवावकों की भी उतनी ही अहम् भूमिका है जो एक निरंतरता लिए हुए सहज संगीत शिक्षा के बजाय प्रशिक्षण पैकेजों को ज्यादा तरजीह दे रहे हैं जिनका आधार संगीत के साथ एक सहज सम्बन्ध बनाने के बजाये स्पर्धा और एकाकीपन है जिसमें बच्चों का कोई अस्तित्व नहीं होता... वो भी एक निश्चित उद्देश्य के लिए जहाँ संगीत के दर्शन और विस्तार से कोई सरोकार नहीं है..एकदम मशीनी. क्या हम मे से कभी किसी ने ये जानने की कोशिश की की ऐसे शोज़ में प्रथम, द्वितीय या फिर कोई और स्थान पाने वालों के साथ अन्य प्रतिभागी भी शो खत्म हो जाने के बाद क्या करते है, कहाँ जाते है ? अपनी अस्थायी शोहरत और इनामों को लेकर उनका शेष जीवन कैसे चलता है..


दुनिया भर में हुए तमाम शोध-अध्ययन भी ये बताते हैं बचपन से ही संगीत की शिक्षा मस्तिष्क के बाएँ भाग को विकसित करने में सहायक होती है जो  भाषा प्रक्रिया  और तर्क शक्ति को गति देती है. वाह्य दुनिया को समझने में संगीत और उसकी कल्पना करने की प्रक्रिया में एक गहरा रिश्ता है जिसके माध्यम से हम एक दूसरे के साथ मिलने-जुलने वाले तत्वों के बारे में सोच सकते हैं और जो हमें विज्ञान व मानविकी के अंतर्गत आने वाले अनुशासनों को समझने में सहायक होता है.

कला में हर प्रश्न का एक ही निश्चित उत्तर नहीं होता. संगीत या कला के छात्र रचनात्मक ढंग से सोचते हुए समस्याओं के नए और अधिक तर्कपूर्ण समाधान तलाशते हैं जो निश्तित रूप से एक प्रगतिशील दृष्टिकोण का निर्माण करता है. सिर्फ़ ‘मैं, और मेरा सब कुछ सर्वोत्तम’ जैसे दृष्टिकोण को तोड़ता है जहाँ सब एक दूसरे के पूरक हो जाते हैं. संगीत की शिक्षा प्रारम्भ से ही अन्य संस्कृतियों और वहां के गीत संगीत और उनकी जड़ों के बारे में भी अवगत कराती चलती है जिससे एक ऐसे संवेदनात्मक धरातल की रचना होती है जो सांस्कृतिक विभिन्नताओं के बीच एक पुल बना देता है. प्रशिक्षण के दौरान शब्द, स्वर और ताल के बीच एक संयोजन बनाना होता है शब्द, धुन और गायन के अनुकूलतम बिंदु तक और बेहतर संयोजन से काम करने की यह शिक्षा उनके व्यावसायिक जीवन व अन्य कार्य व्यवहार में काम आती है. साज़ का सुर में होना, सही सुर लगाना, तालबद्ध तरीके से आगे बढ़ना जैसे सांगीतिक तत्व छात्रों को सूक्ष्म समझ व दृष्टिकोण से लैस कर देते हैं.. उन्हें उत्कृष्टता, कौशल और प्रवीणता के साथ आपसी सहयोग से काम करना भी सिखाते हैं. यह सब अव्यव मिलकर  छात्रों को स्वाभिमान, आत्मविश्वास और सुरक्षा प्रदान करते हैं जिससे उन्हें कार्य निष्पादित करते हुए दुनिया का सामना करने का बल मिलता है. संगीत प्रशिक्षण मस्तिष्क के उच्च स्तर की खिड़की खोलकर  अपने समय का सामना  करने, विषमताओं से जूझने और सही की  पक्षधर्ता का साहस देता है.

संदर्भवश यहाँ ‘मोज़ार्ट एफ़ेक्ट’ का ज़िक्र ज़रूरी प्रतीत होता है. इसी शीर्षक से डॉन कैम्पबेल की एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी जिसमें विश्व प्रसिद्द कम्पोज़र अमेडियस वूल्फगोंग मोज़ार्ट के संगीत द्वारा मस्तिष्क की तार्किक और रचनात्मक क्षमता बढ़ने की बात कही गयी है. इसके बाद प्रसिद्द भौतिकशास्त्री व स्नायुविज्ञानी डॉ. गॉर्डन शॉ ने ‘ कीपिंग मोज़ार्ट इन माइंड ’ शीर्षक से एक और पुस्तक लिखी जो सितम्बर १९९९ में प्रकाशित हुई. उन्होंने संगीत को मस्तिष्क की क्षमता बढ़ाने वाली खिड़की बताते हुए यह तथ्य उजागर किया कि संगीत हमारी सोच को सकारात्मक दिशा में ले जाता है, हमारी तार्किक समझ और रचनात्मक क्षमता बढ़ाता है. इस पुस्तक के साथ मोज़ार्ट के सोनाटा इन डी माइनर स्केल (Mozart Sonata in Dm (D minor scale) की सी.डी. भी उपलब्ध है. वैसे तो सभी स्केल महत्वपूर्ण और सामान रूप से प्रभावी होते हैं मगर ऐसा माना जाता है कि डी माइनर स्केल का मानवीय संवेदनाओं और मस्तिष्क से एक अलग तरह का रिश्ता कायम हो जाता है मगर अन्ततः तो सब कुछ संगीतकार के चयन पर निर्भर होता है. अब यहाँ सवाल ये उठता है कि मोज़ार्ट ही क्यों ..बीथोवेन, बाक, शूबर्ट, शुमन, शोपेन, विवाल्डी, ताईखोव्सकी या कोई और क्यों नहीं? खैर... ये कहानी फिर सही.

चर्चा और अध्ययन का विषय हो सकता है कि संगीत का प्रशिक्षण, कोई कहानी या अन्य प्रेरक प्रसंग क्या सभी प्रशिक्षार्थियों पर एक सा प्रभाव डालते है – परंतु इतना तो किया ही जा सकता है की मौन के बाद अभिव्यक्ति के सबसे सशक्त माध्यम संगीत को शुरुआत से ही बच्चों के करीब लाया जाये या यूं कहें की उन्हें संगीत से रू-ब-रू कराया जाये. ऐसा करने से उनको कितना फ़ायदा होगा इसे सापेक्षता के सिद्धांत से समझा जा सकता है लेकिन इस दुनिया का कोई नुकसान तो नहीं ही होगा इतना निश्चित है.

देखें : http://www.musicianswithoutborders.org/

अखिलेश दीक्षित
इप्टा, लखनऊ
05.06.2014

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