दिनांक 5 मार्च 14 को रायपुर में संस्कृति विभाग द्वारा कला-विमर्श नामक संगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें पूर प्रदेश से कलाकारों-संस्कृति कर्मियों को चर्चा के लिये बुलाया गया। यह आलेख इप्टा की राष्ट्रीय कार्यसमिति के सदस्य सुभाष मिश्र का है, जो एक पर्चे के रूप में संगोष्ठी में रखा गया। आयाेजन की विस्तृत रपट आप इस लिंक पर देख सकते हैं :
http://bhadas4media.com/article-comment/18257-ipta-dines-raipur-artist.html
सिनेमा और रंगमंच का संबंध यदि आज के हालात में देखा जाये तो यह एक तरह से पगडंडी से राजमार्ग का संबंध है, जिसमें टी.वी. रूपी स्टेट हाईवे भी रास्ते में है जो धीरे-धीरे 6 लेन में तब्दील हो रहा है । नाटक में सफलता पाने वाला कलाकार सिनेमा में जाना चाहता है और सिनेमा में हाशिये पर चला गया कलाकार नाटक में आना चाहता है । अब इनके बीच टी.वी.स्क्रीन आ गया है जो सिनेमा और नाटक के कलाकारों को अपने में समाहित कर रहा है । टी.वी. एक हाथी के मानिंद है, जिसे 24 घंटे की खुराक चाहिए। हमारे समय का यह सच है की राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का स्नातक श्रीवर्धन द्विवेदी सनसनी के नाम से टी.वी.पर न्यूज की प्रस्तुति करता है । जहां सिनेमा और टी.वी.के प्रोडक्शन हाउस नहीं है, वहां के कलाकारों की आखिरी ख्वाहिश इन स्थानों तक पहुंचने की है। शार्टकट के इस दौर में अधिकांश माता पिता अपने बच्चों को टी.वी.शो, फैंशन परेड के लिए तैयार कर रहे हों उनके पास इतना धर्य नहीं है कि वे अपने बच्चों को लंबी नाट्य रिहर्सल वर्कशाप में भेजें । वे अधिकतम इतना कर सकते हैं कि गर्मी की छुट्टियों में समय काटने की गरज से 15-20 दिन के लिए नाटक की वर्कशाप में भेज दें और इस अपेक्षा के साथ की उनका बच्चा तुरंत सेलीब्रेटी बन पाये । रंगमंच को कोई गंभीरता से नहीं ले रहा है। जहां पैसा और पब्लिसिटी है वहीं समाज दौड़ रहा है ।
रंगमंच कलात्मक अभिव्यक्ति का ऐसा माध्यम है जिसमें मनोरंजन का अंश अन्य कलाओं की तुलना में अपेक्षाकृत सबसे अधिक है । रंगमंच पर प्रदर्शित नाटक पे्रक्षकों का रंजन करके ही सम्पूर्ण और सफल होता है और अपना उद्देश्य पूरा करता है किन्तु वह मनोरंजन का ऐसा साधन और कलात्मक अभिव्यक्ति का ऐसा रूप है जिसके द्वारा हम जीवन की नानाविधि अनुभूतियों का प्रत्यक्ष रूप से सामना करते हैं ।संस्कृति के सामूहिक-सामुदायिक पक्ष की दृष्टि से भी रंगकला सबसे सम्पूर्ण और सशक्त आधार और साधन है ।
नाट्यशास्त्र में नाट्य का उद्गम बताते हुए कहा गया है यह नाट्य नामक पाॅचवावेद मनोरंजन का ऐसा दृश्य और श्रव्य साधन है जो धर्म, यश, आयु को बढ़ाने वाला बुद्धि को उद्दीप्त करने वाला तथा लोक को उपदेश देने वाला होगा । न ऐसा कोई ज्ञान है, न शिल्प है, व विद्या है, व ऐसी कोई कला है न कोई योग है और न कोई कार्य ही है जो इस नाट्य में प्रदर्शित न किया जाता हो । फिल्म कम्पनियां और नाटक मंडलियां एक बिरादरी की तरह ही होते हैं । यह बिरादरी जितनी मजबूत होगी, जितनी वह अपनी सामूहिक रचना और अपनी सामाजिक जवाबदेही को महसूस करेगी उतना ही उसका काम सफल होगा ।नाटक साहित्यक अभिव्यक्ति की ऐसी विधा है जो केवल साहित्य नहीं उससे अधिक कुछ और भी है क्योंकि रचना की प्रक्रिया लेखन द्वारा ही लिखे जाने पर समाप्त नहीं होती उसका पूर्ण प्रस्फुटन और सम्पे्रषण रंगमंच पर ही जाकर होता है। नाटक के तीन मौलिक पक्ष हैं 1. कवि या नाटककार द्वारा तैयार की हुई संवादात्मक कथा 2. अभिनेताओं द्वारा उसका अभिनय प्रदर्शन 3. दर्शक वर्ग । दर्शक वर्ग नाट्य कला में रचना का अनिवार्य तत्व होकर भी प्रायः उसे स्वतंत्र है । कोई अभिनय प्रदर्शन दर्शक वर्ग के बिना संभव नहीं है।
सिनेमा और रंगमंच दोनों में आज वही अंतर है जो अमीर व गरीब व्यक्ति के बीच है । सिनेमा बड़ी पूंजी का कारोबार है जिसमें मुनाफा कमाने के लिए बड़े बड़े कार्पोरेट घराने शामिल है क्योंकि इस कारोबार में मल्टीप्लेक्स के जरिये एक हप्ते में सौ करोड़ से अधिक कमाये जा सकते हैं जबकि नाटक में एक समय में एक ही शो हो सकता है । नाट्क के प्रिंट तैयार नहीं होते फिल्मों के हजारों प्रिंट तैयार होते हैं । नाटक की दुनिया में वो ग्लैमर नहीं जो फिल्मी दुनियां में हो यह पूंजी की माया है ।सिनेमा तकनीक पर आधारित माध्यम है जिसमें अभिनय कथानक उतना प्रमुख नहीं है जितना कि नाटक में है । नाटक की पहली शर्त ही बेहतर अभिनय और कथानक है।
पारसी रंगमंच जो व्यावसायिक रंगमंच का प्रतिनिधित्व करता था, सिनेमा के चलते विरान होने लगा। उसके अभिनेता, अभिनेत्रिया, संगीतकार, लेखक धीरे धीरे फिल्मीस्तान में आबाद होने लगे । पारसी रंगमंच के पतन के बाद भी लोक रंगमंच बचा रहा क्योंकि इसकी जड़े किसी कम्पनी में नहीं बल्कि जनजीवन में थी । सामाजिक आयोजनों के जरिये रामलीला और जात्रा हप्तो महीनों चला करते थे । नाचा गम्मत अभी भी हमारे यहां राम-रात चला करते हैं । जिस तरह सिनेमा में टूरिंगटाकिज कल्चर विकसित हुआ और यूरोप में मोबाइल थियेटर विकसित हुआ वैसा हमारे देश के नाटकों के क्षेत्र में नहीं हो पाया, इसलिए कितना भी अच्छे से अच्छा नाटक क्यों न हो, उसके दो चार से अधिक शो नहीं हो पाते । अभी भी हमारे देश में सेंसर बोर्ड की तरह ही ड्रामेटिक पर्फामेंस एक्ट जैसा कानून लागू है जिसके माध्यम से पहले नाटक का आलेख दिखाकर कलेक्टर से अनुमति ली जाना जरूरी है ।निसंदेह फिल्म के आने से हमारे देश के व्यावसाियक थियेटर को बहुत नुकसान पहुंचा है। प्रोफेशनल थियेटर में ऐसी कोई बात नहीं थी जो उसे ज्यादा दिनों तक उसे जिन्दा रख सकती। जिस प्रदेश में नाटक कम्पनियों ने अपने बुनियादी मकसद को समझने की कोशिश की, मसलन बंगाल या महाराष्ट्र में, वहां थियेटर अब भी जी रहा है।
शेक्सपियर की लिखी कुछ पंक्तियों हैं जो आज से पूरे साढे तीन सौ वर्ष पहले लिखी गई थी। हेमलेट नाटक के तीसरे अंक में नाटक का नायग कुछ अभिनेताओं को उपदेश देता है जो बादशाह के दरबार में नाटक पेश करने वाले थे। हेमलेट उनसे कहता है "देखो स्टेज पर खड़े होकर इस तरह बोले कि तुम्हारे शब्दों को सुनने वालों को रस आये यह नहीं कि उनके कान फट जावें। तुम एक्टर हो ढंढोरची नहीं। और देखो, हाथ को कुल्हाड़े की तरह मार.मार कर हवा को मत चीरना। ऐक्टर को चाहिए कि अपने मन को हमेशा काबू में रखें, चाहे उसके अंदर भावनाओं का उफान हो। जो अभिनेता भावनओं को काबू में रखकर उन्हें संयम से व्यक्त नहीं कर सकता उन्हें चौराहे पर खड़ा करके चाबुक मारनी चाहिए। फिर वह कहता है "और देखो फीके भी मत पड़ जाना। अंडर ऐक्टिंग करना भी अच्छा नहीं होता। खुद अपनी सूझ.बूझ को अपना उस्ताद बनाओ और उसी के अनुकूल चलो। अपनी चाल.ढाल को, अपने संकेतों और इशारों को शब्दों मुनासिब बनाओ और शब्दों को इशारों के मुनासिब। और बराबर खयाल रखो कि कहीं भी वास्तविक और असलियत पर अत्याचार न हो। अगर कहीं भी मुबालिगे से काम लिया तो नाटक का सारा मकसद ही खत्म हो जाएगा। याद रखो, सैकड़ों वर्षों से नाटक का मकसद सिर्फ एक ही रहा है और भविष्य में भी रहेगा, वह मकसद है असलियत के सामने आइना रख देना, ताकि अच्छाई अपना रूप देख सके, बुराई अपना। यही नहीं बल्कि समाज और जमाने के सारे उतार.चढ़ाव भी उस आइने में साफ दिखाई दें।
जब हम सिनेमा और रंगमंच की बात करते हैं तो हमें यह भी देखना होगा की सिनेमा की कला में एक तरह की व्यापकता है, जो उसे करोड़ों इंसानों के पास ले जाती हैए और वह भी बहुत आसानी से। रंगमंच एक जोखिम भरा कला माध्यम है क्योंकि इसमे रीटेक की गुंजाइश नहीं होती। साथ ही इसमे क्लोज शॉट और लांग शॉट भी नहीं होते। मंच पर प्रस्तुति के दौरान निर्देशक के पास ज्यादा तकनीकी सहायता भी नहीं होती, इसलिए अच्छा या बुरा जो बन पड़ता है वह निर्देशक की मेहनत और कल्पनाशक्ति का परिणाम होता है। इसीलिए ज़्यादा श्रेय भी निर्देशक को मिलता है। इसके बरक्स सिनेमा निर्देशक का माध्यम होते हुए भी अनेक तकनीकी माध्यमों के सहयोग से बनता है। रंगमंच अपने आप में असीम संभावनाओ और कई कलाओ को समेटे हुए है लेकिन फिल्म एक ऐसी विधा है कि रंगमंच को बड़ी आसानी से अपने भीतर समाहित कर लेता है। जहाँ भी फिल्म और रंगमंच का विकास सकारात्मक दिशा में हुआ है, वहाँ का सिनेमा निर्देशकों के नाम से और नाट्य प्रस्तुति या रंगमंच अभिनेता के नाम से जाना जाता है । इसे उदाहरण से समझा जा सकता है .. बांग्ला सिनेमा या अन्य क्षेत्रीय सिनेमा का प्रतिनिधित्त्व निर्देशक सत्यजित रे, मृणाल सेन, ऋत्विक घटक आदिद् करते हैं, जबकि रंगमंच का अभिनेता शम्भु मित्र, अजितेश बंद्योपाध्याय, अरुण मुखर्जी वगैरह।
रंगमंच और सिनेमा के बीच एक बड़ा माध्यम और हमारे सामने आया जिसे हम टी.वी.कहते हैं । आज टी.वी. हमारे घरों की जरूरी आवश्यकता हो गई है। टी.वी.में वे सब है जो एक समय में एक फिल्म या कई नाटकों में एक साथ नहीं मिल सकता । टी.वी. सीरियलों में भव्यता एवं टेक्नालाॅजी की छौंक है । भारतीय टेलीविजन का नया चेहरा फिर से धर्म के रंग में रंगता दिख रहा है । 25 साल बाद टी.वी.पर धार्मिकता की जोरदार वापसी हुई है । धार्मिक सीरियल देखने वालों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है । साल 2013 के बत्तीस से पैतीसवें सप्ताह में मनोरंजन चैनलों पर आने वाले धार्मिक धारावाहिकों का आंकड़ा 10 करोड़ 70 लाख था जो साल 2013 के बत्तीस से पैतीसवें सप्ताह में बढ़कर 12 करोड़ पहुंच गया । टी.वी. का स्कोप आज फिल्मों से कहीं ज्यादा है । आर्थिक रूप से टी.वी.इण्डस्ट्रीज बढ़ रही है । फिक्की केपीएमजी की फ्रेम्स 2013 के रिपोर्ट के मुताबिक 2012 में भारतीय टेलीविजन इण्डस्ट्रीज 370 अरब रूपये की रही और इसके 2017 तक 848 अरब रूपये तक पहुंचने का अनुमान है ।
हिन्दुस्तानी सिनेमा के पचास साल की इतिहास में जो नहीं हुआ वह 1980 में घटित होने लगा जब टी.वी. का माध्यम हमारे सामने आया और इस माध्यम में अपना इतना बड़ा जाल फैलाया कि इसमें फंसकर लोक रंगमंच और कस्बाई रंगमंच लगभग खत्म सा हो गया । रंगमंच के खात्में के इसी दौर में कस्बाई और महानगरी शौकिया रंगमंच ने अपनी संभावनाओं से नई उम्मीदें बंधाई । इसमें कला को समझने वाले बृद्धिजीवी और मंच को, सिनेमा/टी.वी. का माध्यम समझने वाले कलाकार शामिल हैं । महानगरों के रंगमंच में जुड़ने वाले बहुत सारे कलाकार अपनी पहचान बनाने या नाटक को सीढ़ी बनाकर टी.वी.व फिल्म में आ रहे हैं इसमें कोई बुराई भी नहीं है किन्तु उनके सामाजिक सरोकार क्या है यह देखना जरूरी है। हाल ही में केन्द्र सरकार ने 12 राज्यों में साम्प्रदायिक दंगों की संभावना जताई है और देश में फिर से कई मुद्दे गरमा रहे हैं ऐसे में धार्मिक सीरियल की बाढ़ कई संदेह पैदा करती है । जेएनयू के समाजशास्त्र के प्रोफेसर श्री विवेक कुमार के अनुसार ’’पिछले कुछ समय से धर्म से जुड़े मुद्दे हावी हुए हैं तो बाजार इन्हें कैश करने की जुगत में लगा है बाजार भारतीय समाज को धर्म से जोड़कर देखता है । सीरियल का आना प्रायोजित नहीं है लेकिन हमेषा से जनता के मनोभाव को भुनाया जाता है।’’
आज जब पूरी दुनिया में शेक्सपीयर और रवीन्द्र नाथ टैगोर की जन्मशती के बहाने उनके नाट्कों की प्रस्तुति हो रही है, भारतीय सिनेमा के सौ साल का जलसा मनाया जा रहा है ऐसे में संस्कृत नाटकार भास के नाटक जिसकी पांडुलिपि पी गणपति शास्त्री को 1911-12 में प्राप्त हुई थी के सौ साल पर क्यों नहीं उत्सव मनाया जा सकता । हमारे अपने छत्तीसगढ़ में भरत मुनि के नाट्य शास्त्र के अनुरूप सीता बोगरा (रामगढ़) जोगीमारा की रंगशाला मिलने की बात दुहाई दी जाती है, सिरपुर की खुदाई में 6 वीं 7 वीं शताब्दी में संस्कृत नाट्कों की प्रस्तुति के प्रमाण की बात कह जा रही है तो हम इस दिशा में अग्रणी राज्य बनकर भास के नाम पर संस्कृत नाट्य महोत्सव क्यों नहीं आयोजित कर सकते ।
हमारा राज्य छत्तीसगढ़ देश में 27 वें राज्य के रूप में 1 नवम्बर 2000 को देश के नक्शों में आने के पूर्व हबीब तनवीर के नाटक के जरिये पूरी दुनिया में अपना परचम लहरा चुका था वहीं हमारेे पूर्ववर्ती राज्य मध्यप्रदेश की तरह छत्तीसगढ़ में अबतक कोई बड़ा कला केन्द्र क्यों नहीं बन पाता । अभी हाल ही में भोपाल में रतन षियम के नाट्कों पर पूरा समारोह हुआ अब पाणिक्कर जी पर समारोह होने जा रहा है । भारत भवन में नाटकों के साथ साथ सिनेमा के लिए भी एक अलग डिवीजन है । अच्छी फिल्मों का प्रदर्शन उन पर बातचीत का सिलसिला वहां निरंतर जारी है वो सब यहां क्यों नहीं हो सकता? राज्य में जगह जगह बिखरी लोककला और संपदा को बचाने के लिए कौन से उपक्रम हो रहे हैं । हबीब तनवीर, सत्यदेव दुबे, रामचन्द्र देशमुख के नाम पर कौन से आयोजन हो रहे हैं ? राज्य बनने के बाद भी महाराष्ट्र, आंध्रा, कर्नाटक की तरह क्षेत्रीय फिल्मों को दिखाने के लिए बाध्यता क्यों नहीं है । छत्तीसगढ़ी फिल्मों को प्रात्साहित करने अनुदान क्यों नहीं है । रंगकर्म से जुड़ी संस्थाओं को कितनी सहायता मिलती है ।
छत्तीसगढ़ी फिल्म घर दुवार और कहि देबे संदेश के बाद राज्य निर्माण के साथ ही छत्तीसगढ़ी फिल्मों का जो बाजार विकसित हुआ उसे बनाये बचाये रखने और उसे अन्य भारतीय भाषाओं की फिल्मों के समकक्ष खड़ा करने के लिए क्या गंभीर प्रयास हुए । सस्ती टेक्नालाॅजी और कम लागत पूंजी के चलते इस व्यवसाय में ऐसे ऐसे लोग आ गये जिन्हें फिल्म की बेसिक समझ भी नहीं थी । राज्य की संस्कृति, साहित्य कला और लोक जीवन को दर्शाये ऐसी फिल्मों का निर्माण होने की वजाय बम्बईया फार्मूले की घटिया नकल तैयार हुई । "गांजे की कली" जैसी एक्का दुक्के फिल्में हैं जिनकी चर्चा राष्ट्रीय फलक पर हुई है । छत्तीसगढ़ में करीब 55 सिनेमा हाल हैं जिनमें से अधिकांश की हालत खसता है, मालिक उन्हें तोड़कर माॅल/गोदाम बनाना चाहते हैं । बहुत सारे सिनेमा हाॅल अंग्रेजी और साउथ की हाॅट फिल्मों की वजह से चल रहे हैं इसका दर्शक कम पढ़ा लिखा गरीब वर्ग का व्यक्ति है जो सस्ते में मनोरंजन चाहता है । कुछ ही सिनेमा घर हैं जहां पर गंभीर फिल्मों का प्रदर्शन हो पाता है जिसकी जेब में पैसा है वे पी.व्ही.आर., आईनाॅक्स में जाकर सिनेमा देखना पसंद करता है । सरकार के स्तर पर ऐसी कोई पालिसी नहीं है जो कि छत्तीसगढ़ी फिल्मों को सिनेमा हाॅल में दिखाने के लिए बाध्य करे । छत्तीसगढ़ में फिल्म निर्माण को लेकर जो सुविधाएं वे भी नहीं के बराबर हैं । फिल्म की साउंड एडिटिंग निकार्डिग के लिए एक दो स्टुडियों हैं अच्छी तकनीक के न तो कैमरे हैं न ही टेक्नीशियन । फिल्म में जाने की उत्सुक लड़के, लड़कियों को अभिनय सिखाने के लिए कोई संस्थान नहीं है । यदि कोई डांस सिखना चाहे तो उसके लिए भी खैरागढ़ संगीत विश्वविद्यालय और उससे जुड़े कुछ महाविद्यालय हैं जहां पर तीन साल तक डांस रेगुलर कोर्स के रूप में सीखना होगा । छत्तीसगढ़ के परम्परागत डांस फार्म को सिखाने की कोई व्यवस्था यहां नहीं है । सरकार की ओर से छत्तीसगढ़ी फिल्मों कोई किसी प्रकार का अनुदान नहीं दिया जाता जैसा कि कर्नाटक आदि राज्यों में है । फिल्म के क्षेत्र में जो कुछ भी कार्य हो रहा है वह निजी पूंजी से हो रहा है और निजी पूंजी लगाने वाले लोग अधिकाअधिक मुनाफा खुद के लिए कमाना चाहते हैं । अभी तक राज्य में 113 से अभिक फिल्मों का निर्माण हो चुका है या निर्माण की प्रक्रिया में है किन्तु इन फिल्मों के प्रदर्शन के लिए सिनेमा की उपलब्धता बमुश्किल हो पा रही है । फिल्म के वितरक राज्य के बाहर के हैं जिनके हांथों में सिनेमा हालों का नियंत्रण है । गंभीर सिनेमा बनाने की चाहत रखने वालों के लिए प्रोड्यूसर की कमी है । जो हाल छत्तीसगढ़ी सिनेमा का है उससे बदतर स्थिति रंगमंच की है । राज्य में कहीं पर भी कोई सर्वसुविधा युक्त पे्रक्षाग्रह नहीं है । नाटक की कोई रेपेटरी नहीं है। जो नाट्य समारोह राज्य में हो रहे हैं उन्हें भी राज्य की ओर किसी प्रकार का कोई संरक्षण नहीं है । छत्तीसगढ़ राज्य बन जाने के चैदह साल भी विभिन्न कलारूपों और लोक कलाओं की जानकारी किसी एक जगह मिल सके ऐसा कोई प्लेटफार्म नहीं है। साल में बमुश्किल यहां की नाट्य संस्थाएं एक दो नाटक अपने बूते पर कर पाते हैं । रंगमंच और सिनेमा मिलकर तभी कुछ हमारे जैसे राज्य में कर सकता है जबकि इसे गंभीरता से लिया जाये यह गंभीरता केवल सरकार के स्तर पर नहीं बल्कि सभी स्तरों पर जरूरी है ।
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