‘‘प्रिंट लाइन के भीतर के लोग प्रिंट लाइन का संयम तोड़कर बाहर आ गये हैं। उसके बाहर ढेर सारे अपनों के बीच यह पहचानना मुश्किल हो गया है कि कौन मीडिया से है और कौन नहीं।’’
जाहिर है कि वह जमाना अब चला गया जब ‘प्रिंट लाइन’ के भीतर के लोग प्रिंटलाइन की मर्यादा को न केवल समझते थे बल्कि इसका सम्मान करते हुए कभी भी ‘लक्ष्मण-रेखा’ को लांघने की कोशिश नहीं करते थे। अब तो लोग ‘प्रिंट लाइन’ के भीतर दाखिल ही इसलिये होते हैं कि उन्हें ‘प्रिंट लाइन’ के बाहर आने का कोई बढ़िया-सा अवसर हासिल हो सके। पिछले लगभग चार दशकों में हिंदी पत्रकारिता के उतार (चढ़ाव तो शायद ही हो! ) की पूरी कथा परितोष चक्रवर्ती के नवीनतम उपन्यास प्रिंट लाइन’ में पढ़ी जा सकती है, जिसे हाल ही में ‘ज्ञानपीठ’ ने प्रकाशित किया है। किताब का लोकार्पण पिछले दिनों रायपुर में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने किया व इस समारोह में देशभर के लेखक, पत्रकार, आलोचक-चिंतकों ने भागीदारी की। छत्तीसगढ़ राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के इस कार्यक्रम की अध्यक्षता कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने की।
‘धर्मयुग’ में नहीं जाने से लेकर ‘रविवार’ को छोड़ने तक परितोष के पास पत्रकारिता का एक लंबा अनुभव है पर उनके पाँवों में ‘भँवरी’ (चकरी) लगी हुई है इसलिये वे किसी एक जगह टिककर नहीं रह पाते। नौकरियाँ छोड़ने का रोग उन्हें खाज की तरह रहा है जो उन्हें कोई 15-16 जगह घुमाता रहा और इसी सिलसिले में अनेकानेक लोग उनके संपर्क में आए जो इस उपन्यास के पात्र हैं - कई वास्तविक नामों से और कुछ काल्पनिक। लगभग हकीकत और थोड़े फसाने को लेकर रचा गया यह उपन्यास एक ओर तो विगत् चार दशकों की हिंदी पत्रकारिता का लेखा-जोखा है तो दूसरी ओर नायक ‘अमर’ की जीवनी भी जो इस समस्त घटनाक्रम में सक्रिय रूप से सम्मिलित है।
उपन्यास का एक किरदार ‘कप्पू’ भी है, जिसके साथ काम करने का अवसर इन पंक्तियों के लेखक को भी हासिल हुआ, इसलिये उपन्यास व लोकार्पण कार्यक्रम के विस्तार में जाने से पहले -निश्चय ही क्षमायाचना के साथ- कुछ निजी अनुभव। उन दिनों अखबार में साहित्यिक पत्रकारिता का अवसान पूरी तरह नहीं हुआ था और अखबार में नया होने के कारण मैं हरेक पत्रकार को ‘साहित्यकार’ समझते हुए उन्हें बड़ी श्रद्धा व आदर के साथ देखा करता था। परितोष, दीवाकर मुक्तिबोध (गजानन माधव मुक्तिबोध जी के सुपुत्र व रायपुर के वरिष्ठ पत्रकार ) व कप्पू उर्फ निर्भीक वर्मा उसी अखबार में काम करते थे। मैंने पहले भी कहीं जिक्र किया है कि अखबार का माहौल दमघोंटू था और हर वक्त कर्फ्यू जैसा लगा रहता था, जहाँ किसी को भी हँसते-बोलते देख लिये जाने पर फौरन गोली मार दिये जाने का अंदेशा बना रहता था। दीवाकर स्वाभाव से ही गंभीर थे और मैंने उन्हें प्रायः चुपचाप अपना काम करते हुए ही देखा था। ‘कर्फ्यू’ तोड़ने का काम या तो परितोष करते या कप्पू और इसलिये ही हम नये ‘रंगरूटों’ के हीरो थे। एक बार प्रधान संपादक जी ने कप्पू को समय पर अखबार के दफ्तर में आने की सलाह दी तो ‘‘टाइम पर आना और टाइम पर जाना’’ के मौन नारे के साथ कप्पू घर से एक बड़ी -सी अलार्म घड़ी लेकर आने लगे जो टेबल में उनके ठीक सामने रखी रहती, ताकि समय पर जाने में चूक न हो। लेकिन असल किस्सा कुछ और है।
मैंने अर्ज किया कि तब साहित्यिक व ‘मिशन वाली पत्रकारिता’ का अंत तो नहीं हुआ था लेकिन नयी तकनीक के आगमन के साथ बाजारवाद की पदचाप सुनाई पड़ने लगी थी, जो इतनी महीन थी कि कम से कम हम जैसे नये रंगरूटों की पकड़ से बाहर थी। कोई नया आदमी मिलता और कप्पू से परिचय कराया जाता तो काम के बारे में कप्पू का कहना होता, ‘‘जी मैं रद्दी बेचने का काम करता हूँ।’’ परितोष इस पर मुस्कुराते रहते और मैं आहत होता कि पत्रकारिता जैसे ‘महान’ व ‘पवित्र’ कार्य को कप्पू इस तरह लांछित कर रहे हैं और उन्हें परितोष का मूक समर्थन हासिल है। बहुत बाद में जब दिल्ली में एक ट्रेड यूनियन के दफ्तर में काफी दिनों तक अपना डेरा रहा तो उन दिनों अंग्रेजी के दो बड़े अखबारों में कीमत घटाकर ज्यादा पन्ने देने की प्रतिस्पर्धा चल रही थी। एक दिन बातों ही बातों में अखबार के हॉकर ने बताया कि ‘‘लंबे समय की मजबूरी है, वरना अखबार को बाँटने के बदले यदि उसे रद्दी में बेच दिया तब भी उतने ही पैसे मिल जायेंगे।’’ मुझे उसी क्षण कप्पू व परितोष की याद आयी और दरअसल ‘प्रिंट लाइन’ की समस्त कथा उस पूरे दौर कथा है जिसमें सरोकारी पत्रकारिता रद्दी बेचने के कारोबार में बदल गयी।
छत्तीसगढ़ के छोटे-से गाँव से उपन्याय का नायक अखबारी लेखन की शुरूआत करता है और रायपुर के एक अखबार से सक्रिय पत्रकारिता में प्रवेश करते हुए अंततः देश की राजधानी दिल्ली में पहुँचता है जहाँ उसकी नियति बाजारू हथकंडों द्वारा छले जाने के लिये अभिशप्त है। लेकिन मजे की बात यह है कि ‘मिशन’ के खाज का मारा नायक अब भी ‘‘सब कुछ लुटाकर होश में आये तो क्या किया’’ कहने के बजाय ‘‘जो घर फूँके आपना’’ के मंत्र का जाप करता दिखाई पड़ता है। इसलिये लक-दक गाड़ियों में घूमने व लाखों की सैलरी लेने वाले आज के पत्रकारों के लिये यह पत्रकार किसी अजूबे से कम नहीं है जो संपादक-प्रबंधक द्वारा छूट दिये जाने पर भी अपने लिये न्यूनतम वेतन तय करता है और एक डूबती हुई पत्रिका को बचाने और चलाने के लिये अपना वेतन व खर्च कम कर लेता है।
लेकिन इस आत्मकथात्मक उपन्यास में केवल पत्रकारिता की कथा नहीं है। बहुस-सी और भी कथायें हैं जो साथ-साथ चलती रहती हैं। छत्तीसगढ़ के गाँवों कस्बों में वर्ण-व्यवस्था, गाँवों से मजदूरों का पलायन, आपातकाल के काले दिन, पृथक छत्तीसगढ़ का आंदोलन -आदि अनेक प्रसंग कथा में बार-बार में आते हैं ओर इस कथा को अत्यंत रोचकता के साथ इतिहास की तरह भी पढ़ा जा सकता है। छत्तीसगढ़ की कथा यहाँ की प्रमुख पैदावार धान के उल्लेख के बगैर पूरी नहीं हो सकती सो कुछ पन्नों पर आप धान की विभिन्न किस्मों से भी रू-ब-रू हो सकते है। सबसे बड़ी बात यह है कि किताब को पढ़ने के लिये प्रयास की जरूरत नहीं है, किताब स्वयं को पढ़ाती चलती है। यह रोचकता मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को भी नजर में आयी और उन्होंने कहा कि इस किताब को पढ़े बगैर मुझे चैन नहीं आयेगा, अभी थोड़ी पढ़ी तो बेचैन हूँ। इसे पढ़ते हुए बहुत आनंद आ रहा है। आलोचकों पर चुटकी लेते हुए उन्होंने कहा कि आप विद्वानों को तो और भी अधिक आनंद आयेगा।
दिल्ली के वरिष्ठ समीक्षक व मुख्य वक्ता डॉ. अजय तिवारी ने इसे दांपत्य-प्रेम का अद्भुत उपन्यास बताया जो प्रेमचंद के यहाँ दिखाई पड़ता है। उन्होंने कहा कि सिर्फ इसी वजह से उपन्यास की कुछ कमियों को -जो उपन्यासकार की हड़बड़ी की वजह से उत्पन हुई हैं -खारिज किया जा सकता है। दिल्ली के ही कवि व समीक्षक डॉ. जितेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा कि यह किसी निष्कर्ष में पहुँचने की जल्दबाजी वाला उपन्यास नहीं है बल्कि यहाँ पर अर्थ की अनेक सभावनायें हैं। यह प्रश्न पूछने वाली, प्रश्न पूछने का शऊर पैदा करने वाली, बेचैनी उत्पन्न करने वाली व सच को सच की तरह कहने का साहस प्रदान करने वाली रचना है। अपने अध्यक्षीय भाषण में डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने कहा कि उन्हें इस बात का फख्र हासिल है कि उन्हें इस रचना को ड्राफ्ट दर ड्राफ्ट लेखन -प्रक्रिया के दौरान ही पढ़ने का गौरव हासिल है, ठीक वैसे ही जैसे कोई व्यक्ति अपनी नयी गाड़ी के इंजन को रवां करने के लिये उसे अपने मित्र को सौंप देता है।
चर्चा का सूत्र थमाने के लिये परितोष ने भी संक्षिप्त वक्तव्य दिया। कहते हुए वे थोड़े भावुक हो गये, हालांकि उनका सेंस ऑफ ह्यूमर विपरीत परिस्थितियों में कुछ ज्यादा ही जागृत हो जाता है। जब वे दिल्ली से अपनी पत्रिका निकाल रहे थे और घाटे में चल रहे थे तो अचानक मैंने देखा कि पत्रिका के अंग्रेजी संस्करण के शुभारंभ की घोषणा की गयी है। मैंने तुरंत फोन घनघनाया और इस उलट-बाँसी का आशय पूछा। परितोष ने कहा कि ‘‘तुम नहीं समझोगे। गरीब आदमी ही ज्यादा बच्चे पैदा करता हैं।’’ लेकिन यहाँ पर वे रूआँसे-से हो गये। पता नहीं ऐसा क्यों होता है कि तस्वीर खिंचवाते हुए प्रेमचंद के जूते फटे हुए दिखाई पड़ते हैं और बोलते हुए परितोष का गला रूंध जाता है! हिंदी-समाज अपने लेखकों के साथ ऐसा बर्ताव क्यों करता है?
- दिनेश चौधरी
यहां भी देखें : http://bhadas4media.com/print/8007-2013-01-18-08-47-08.html
सारगर्भित आलेख , पत्रकारिता की दुनिया का नग्न यथार्थ को सशक्तता के साथ उद्घाटित किया है ।.
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