Saturday, January 12, 2013

क्या प्रगतिशील आंदोलन को पुनर्जीवित किया जा सकता है?

- राधे दुबे

यों तो दमनकारी, रूढ़िग्रस्त व्यवस्थाओं को बदलने और व्यक्ति व समाज को बंधन-मुक्त करके प्रगति के पथ पर आगे बढ़ाने के आंदोलन इतिहास में बराबर होते आए हैं और आज भी हो रहे हैं, परंतु यहाँ मेरा तात्पर्य 75 वर्ष पहले (अक्तूबर 1936 में) प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के साथ संस्कृति के क्षेत्र में शुरू हुए आंदोलन से है। तब साहित्य के साथ-साथ संगीत और ललित कला के क्षेत्रों में नये-नये प्रयोग किये गये थे। भुखमरी के शिकार ग़रीब देहाती लोगों और शहरों के रास्तों पर पत्थर तोड़ती मजूरिनों को लेकर कविताओं, कहानियों और उपन्यासों की रचना की गयी थी। फिर बंगाल के अकाल के दौरान शुरू हुए इंडियन पीपुल्स थियेटर असोशियेसन ‘इप्टा’, ने अपने जुझारू नाटक पेश किये, जिनसे देश के कोने-कोने में तहलका मच गया।

देश में पुनर्जागरण काल कुछ दशक पहले ही बंगाल में आरंभ हो गया था और महान साहित्यकारों ने समाज की उग्र समस्याओं को साहस से उठाया था। परंतु प्रगतिशील आंदोलन ने उन प्रयासों में एक नया सार भर दिया। उसने समाज के क्रिया-कलापों को वर्ग-संघर्ष की दृष्टि से समझने और घटनाओं को अलग-अलग नहीं, बल्कि सम्बद्ध रूप में देखने की परिपाटी को जन्म दिया। उस काल में जब हमारी आज़ादी की लड़ाई अपने निर्णायक दौर में प्रवेश कर रही थी, मज़दूरों और किसानों के सवाल उठाना अत्यंत महत्वपूर्ण था। देश में घट रही घटनाओं को अंतर्राष्ट्रीय गतिविधियों की पृष्ठभूमि में देखना भी कम महत्वपूर्ण नहीं था, क्योंकि उन वर्षों में फासिस्ट ताक़तें दुनिया को नरक में भेजने की तैयारियाँ कर रही थीं। प्रगतिशील आंदोलन का इतिहास अत्यंत गौरवशाली रहा, परंतु खेद की बात है कि अब उसे लकवा मार गया है और वह केवल लक़ीर पीट रहा है। ऐसा क्यों हो गया? इसके कारण क्या हैं?

हमारे कुछ नीम हकीम बेहिचक कहते हैं कि जब पी.सी.जोशी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव थे, प्रगतिशील संगठनों के बाग़ फल-फूल रहे थे और जब बी.टी. रणदिवे आये, उन्हें पाला मार गया। इसलिए रणदिवे ज़िम्मेदार हैं। क्यू.ई.डी.। लेकिन थ्योरम हल नहीं हुई। रणदिवे के काल में ‘इप्टा’ ने उनकी संकीर्णतावादी, दुस्साहसी नीति का अनुसरण करते हुए एक-दो नेहरू-विरोधी नाटक खेले थे जिससे बलराज साहनी को बहुत अफ़सोस हुआ था। उन जैसे दूसरे लोग भी खिन्न हुए थे। लेकिन रणदिवे 1948 के आरंभ में आये थे और 1950 के आरंभ में चले गये। तो उन दो वर्षों की ग़लतियों को पिछले 62 वर्षों में सुधारा क्यों नहीं गया? यह भी याद किया जा सकता है कि ‘इप्टा’ की केन्द्रीय मंडली को, जो अंधेरी (बम्बई) में अभ्यास करती थी, कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से सहायता 1947 के मध्य में ही, यानी जोशी के कार्यकाल में ही बंद कर दी गयी थी। प्रगतिशील संगठनों के जीवनभर भरण-पोषण का ठेका कम्युनिस्ट पार्टी ने कभी नहीं लिया। उन्हें बैसाखी देना पार्टी का काम नहीं है। वह तो संगठनों को मार्ग दिखाती है। जन संगठन पार्टी से सम्बद्ध होते हैं, परंतु पार्टी के अनुशासन में बंधे नहीं होते और होने भी नहीं चाहिए क्योंकि इससे उनके स्वाभाविक विकास में बाधा पड़ती है।

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प्रगतिशील संगठनों की आज की स्थिति और पिछली आधी शताब्दी की उनकी कहानी को वस्तुगत दृष्टि से देखना चाहिए। सांस्कृतिक क्षेत्र का प्रगतिशील आंदोलन कालविशेष की उपज था और परिस्थितियाँ बदल जाने के कारण उसकी क्षमता क्षीण होने लगी। दूसरे विश्व युद्ध का ज्वालामुखी फटने के बाद का क्रांतिकारी ज्वार मोटे तौर पर 1949 में चीनी जन क्रांति की विजय के बाद ठंडा पड़ गया था। फिर कुछ वर्ष बाद सोवियत संघ के नेता ख्रुश्चोव ने स्तालिन के तथाकथित काले कारनामों का कच्चा चिठ्ठा खोला जिससे न सिर्फ कम्युनिस्ट आंदोलन का समर्थन करनेवाले परिधि के लोगों की हिम्मत पस्त हो गयी, बल्कि स्वयं कम्युनिस्टों के एक अंग का विश्वास डगमगा गया।

इधर हमारे देश ने नयी करवट ले ली थी और उसके इतिहास का नया दौर शुरू हो गया था। वह स्वाधीनता की प्राप्ति का सुप्रभात था। जन साधारण की तरह वामपंथी झुकाववाले परिधि के लोग भी राज्य की घोषणाओं में नयी संभावनाओं के द्वार खुलते देख रहे थे। समाजवादी देशों ने अपने-अपने दूतावास और देश के विभिन्न नगरों में अपने काउंसिल-दफ्तर और सूचना केन्द्र खोल दिये थे जहाँ सबसे पहले वामपंथी लोगों का स्वागत किया जाता था। बम्बई का सिनेमा जगत समाज की समस्याओं और दायमी बीमारियों को उठा रहा था और उसके चुम्बक ने न सिर्फ ख्वाजा अहमद अब्बास जैसे परिधि के लोगों, बल्कि बलराज साहनी, साहिर लुधियानवी, शंकर शैलेन्द्र और मजरूह सुल्तानपुरी जैसे प्रतिबद्ध कम्युनिस्टों को भी अपनी ओर खींच लिया। गये तो कैफ़ी और अलीसरदार जाफरी जैसे शायर भी थे, लेकिन जाफरी जम नहीं पाये। दो शब्दों में कहा जाये तो प्रगतिशील आंदोलन की भूतपूर्व और सम्भावित हस्तियाँ और आम तौर पर मध्यम वर्ग के लोग उन दिनों नये सब्ज़ बाग़ देख रहे थे।

कांग्रेस सरकार से मोह भंग कुछ बरस बाद हुआ। शक्तियों का संतुलन बदल गया। पहले अहीर, जाट, गूजर, राजपूत आदि दरम्यानी तबक़ों के लोग उठे जिन्हें राम मनोहर लोहिया ने ‘अजगर’ बताया फिर दलितों और पिछड़े वर्ग के लोगों ने अपनी कमर सीधी की और सिर उठा लिये। यह सचमुच में एक ज़लज़ला था। जो आंदोलन महाराष्ट्र और तमिलनाडू में कुछ दशक पहले छिड़ा था, अब उत्तरी भारत के हिन्दी भाषा-भाषी इलाक़ों में फैल गया। कोई दो हज़ार साल पहले मनु द्वारा स्थापित की गयी समाज की व्यवस्था को चुनौती दी जाने लगी। वी.पी. सिंह की सरकार ने मंडल कमीशन की सिफारिशें मंजूर कर लीं और दलितों, दूसरे पिछड़े वर्गों के लोगों और शिड्यूल्ड जन-जातियों – आदिवासियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था का ऐलान कर दिया।

देखना दिलचस्प है कि हमारे प्रगतिशील संगठनों की ओर से, मूल-परिवर्तन की आकांक्षी वामपंथी शक्तियों की ओर से इस घटना-चक्र की प्रतिक्रिया क्या हुई। वे कहने लगीं कि यह ‘जातिवाद’ है जिसकी ‘सम्प्रदायवाद’ की तरह ही निंदा करनी चाहिए। तुलना अनोखी थी। सम्प्रदायवादी देश को धर्म के आधार पर विभाजित रखना चाहते हैं और उसकी प्रगति के मार्ग में प्रधान बाधा है, जबकि दलित और दूसरे पिछड़े वर्गों के लोग न केवल शोषित और उत्पीड़ित हैं, बल्कि देश की आबादी का वह अधिकाँश भाग हैं जिसकी शिरकत के बिना देश का उत्थान ही असंभव है। फिर भी कहा गया कि जातियों का यह आंदोलन वर्गीय एकता को तोड़ने का हथकंडा है और प्रगतिशील लोगों को उससे खबरदार रहना चाहिए। साहित्यकार पीछे नहीं रहे। भीष्म साहनी जैसा जाना-माना व्यक्तित्व आरक्षण के सवाल को लेकर त्राहि-त्राहि करने लगा और ‘मैरिट’ की – योग्यता और प्रतिभा की बलि चढ़ जाने की दुहाई देने लगा। इसे कहते हैं उल्टी चाल, जबकि चाहिए था कि प्रगतिशील संगठन वक्त के साथ क़दम मिलाकर चलते।

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प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के समय के नारे अपना औचित्य खो चुके हैं और बेमानी हो गये हैं। बासी निवालों को चबाने और जुगाली करने से अब कुछ हासिल नहीं हो सकता। वह साम्राज्यशाही के ख़िलाफ़ लड़ाई और देश में एके का ज़माना था, आज समाज के हर दबे-कुचले तबके के अधिकारों के लिए लड़ने का सवाल है। अमरीका को कोसना और मनमोहन सिंह सरकार की नव-उदारवादी नीति पर लानत भेजना महज़ ज़बानी जमा-खर्च है। जनता से जुड़ी उग्र समस्याएं हर तरफ़ मुँह बाये खड़ी हैं। महाजनों के कर्ज़ चुकाने में असमर्थ हो जाने के कारण पिछले 16 बरसों में लगभग तीन लाख ग़रीब किसान आत्म-हत्या कर चुके हैं। खाने-पीने की पौष्टिक चीज़ों से वंचित बच्चों और माताओं को देखते हुए हमारे देश ने सारी दुनिया को पीछे छोड़ दिया है। ग़रीबी, बेकारी और निरक्षरता की इन्तहा मुसलमानों के बीच नज़र आती है और ऊपर से उन्हें आर.एस.एस और भाजपा के बजरंगियों के हमले झेलने पड़ते हैं। बिहार में दलितों की झोपड़ियों को बच्चों और नारियों समेत जला दिया जाता है, यू.पी. और मध्य प्रदेश में नवदम्पत्तियों को अलग-अलग जाति के होने के कारण पेड़ों से लटका दिया जाता है, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में ‘खाप’ नाम की देहाती पंचायतें मध्य-युगीन, सामंती नमूने के ज़हर बुझे, रक्त-रंजित फतवे जारी करती हैं। मगर अन्ना हज़ारे और उनकी टीम जैसे समाज के स्वयं नियुक्त ठेकेदारों को ऐसे अत्याचारों की नहीं, केवल भ्रष्टाचार की चिंता है।

त्रासदियाँ बहुत सी हैं जो साहित्य में प्रतिबिम्बित होने और संस्कृति में परिलक्षित होने की माँग करती हैं ताकि समाज को झकझोरा जा सके। देश के सबसे पुराने बाशिन्दों – आदिवासियों का चीत्कार जंगलों की हवाओं में तिरोहित हो जाता है। झारखंड, उड़ीसा और खास तौर से छत्तीसगढ़ के आदिवासियों पर जो जुल्म और सितम ढाये जाते हैं, उन्हें पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उनके जंगल उनके नहीं रहे, उनकी ज़मीन उनकी नहीं रही, उनका जल उनका नहीं रहा और उनके पहाड़ भी उनके नहीं रहे। दंडकारण्य में अब नये राक्षस – कौरपोरेट हल्के आ गये हैं जो खनिज पदार्थ निकाल-निकाल कर पहाड़ोंको खोखला कर रहे हैं और पेड़ काट-काट कर ज़मीन को वीरान बना रहे हैं। उन्हीं कौरपोरेट हल्कों के सुख और सुविधा की ख़ातिर आदिवासियों को ‘माओवादी हत्यारों के ख़िलाफ़ मुहिम’ के नाम पर गोलियों से भूना जाता है। हाल ही में, 29 जून को 19 निर्दोष लोगों को बाक़ायदे मार डाला गया। जब छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री को बताया गया कि वे तथाकथित माओवादी नहीं थे, उनमें से दो तो 15-15 बरस के स्कूली बालक थे, तो बेशर्मी के साथ उन्होंने जवाब दिया कि माओवादियों ने उन्हें ढाल की तरह इस्तेमाल किया था। आदिवासियों के दुख-दर्द में शरीक होनेवाला कौन है? उनके हक़ में आवाज़ कौन उठाता है? शायद अकेली महाश्वेता देवी! और हाँ, अरुंधति राय भी।

अब इसके बरअक्स तसवीर देखिए। आज हमारे शहरों में डिपार्टमेंट स्टोरों की – जिन्हें मॉल कहा जाता है, कतारों पै कतारें खड़ी हो रही हैं। उनके माल की चकाचौंध का उपभोग करनेवाले नये दुर्योधन फर्श को कुंड और कुंड को फर्श समझने की ग़लती नहीं करते। वे तो अमरीका के रॉकफैलर और डू पोंट से होड़ लेनेवाले तबकों के लोग हैं; वे बम्बई के तीन-तीन हैलीपेडों, हैंगिंग गार्डनों और जिमनेसियमों से शोभायमान 27 मंजिली अट्टालिका ‘अंतीला’ के स्वामी, अम्बानी के भाईबंद हैं। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूँजी की ‘दरियादिली’ और भूमंडलीयकरण की प्रक्रिया की ‘मेहरबानी’ से ‘उपभोक्तावादी संस्कृति के गुलदस्ते’ हमारे शहरों में बिखर गये हैं।

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आम लोगों की कंगाली और दूभर ज़िंदगी की वजह से नहीं, तो उनका मखौल उड़ानेवाले नये और पुराने धनिकों की ऐशो-इशरत को देखकर ही हमारे जनवादी प्रगतिशील साहित्यकारों को अल्लामा इक़बाल की तरह गर्जना करनी चाहिए कि ‘जिस खेत से दहकाँ को मयस्सर नहीं होती रोज़ी, उस खेत के हर गोशए-गंदुभ को जला दो!’ तभी वे प्रगतिशील कहलाने के हक़दार हो सकते हैं।

‘उपभोक्तावादी संस्कृति’ के भंडाबरदार जीवन के उच्च मूल्यों को ठोकर मार रहे हैं। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त को उन्होंने सिर के बल खड़ा कर दिया है। वे कहते हैः ‘तन सेवा और मन सेवा, जीवन और धन सेवा’ ही सब कुछ है। ‘जनसेवा’ और ‘भुवनसेवा’ को कौन पूछता है?.....बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशकों की तरह एक बार फिर रणभेरी गूँजनी चाहिए। ‘उपभोक्तावादी संस्कृति’ के साजो-सामान की होली जलानी चाहिए, उसी तरह जैसे गाँधी जी के असहयोग आंदोलन के समय विदेशी कपड़ों की होली जलायी गयी थी।

देश की बदल गयी परिस्थितियों में 1936 से शुरू हुए प्रगतिशील आंदोलन को पुर्नजीवित नहीं किया जा सकता। लेकिन उसमें नयी जान डाली जा सकती है, उसे नया रूप दिया जा सकता है। एकदम ज़रूरी है कि नया आंदोलन सीमित और संकुचित न हो, वह किसी दल विशेष की अमलदारी बनकर न रह जाये। प्रगति के आकांक्षी और जनवाद के हामी सभी लोगों के लिए उसके द्वार खुले होने चाहिए और उसके संचालक-मंडल को फरमानबाज़ी से बाज़ आना चाहिए। ऐसा आंदोलन ही पिछले आंदोलन की परम्परा को आगे बढ़ा सकता है। 

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