Thursday, August 9, 2012

अकस्मात का सृजन-क्षण


मणि कौल की फिल्म ‘सतह से उठता आदमी’ में, जो गजानन माधव मुक्तिबोध के जीवन और कृतियों को लेकर बनी थी, एक दृश्य है, जहां दो चरित्र निपट मध्य वित्तीय घरेलू परिवेश में जमीन पर बैठ कर थालियों में खाना खाते हुए कला के तीन क्षणों की बात करते हैं। यह अवधारणा मुक्तिबोध की मौलिक सूझों में मानी जाती है। लगभग तीन दशक बाद इस फिल्म को दुबारा देखने पर यह धारणा एक बार फिर पुष्ट हुई कि मणि कौल की मुक्तिबोध की समझ गहरी और कई मायनों में अद्भुत और अभूतपूर्व थी। फिल्म की दुर्बोधता को लेकर जो हंगामा 1980 में हुआ था वह स्वयं मुक्तिबोध की दुर्बोधता की याद दिलाता था। कवियों और लेखकों को अपनी दुर्बोधता आपत्तिजनक नहीं लगती, लेकिन कोई फिल्म दुर्बोध हो तो यह बरदाश्त नहीं। यह दुर्भाग्य की बात है, पर सही कि हम अक्सर अपनी विधा में अवांगार्द होते हैं या होने का स्वागत करते हैं, पर अन्य कलाओं के बारे में हमारा रवैया निहायत दकियानूस होता है। 

इस बार के ओसिआन फिल्म समारोह में रजा फाउंडेशन के सहयोग से मणि कौल को प्रणति देते हुए एक पूरा खंड आयोजित किया गया, जिसमें उनकी कई फिल्मों के प्रदर्शन के अलावा उनकी स्मृति में एक व्याख्यान और उनके साथ काम करने वाले कैमरामैनों, संगीत और ध्वनि रिकार्डिस्टों, संपादकों, संगीतकार, आलेखकार आदि के बेहद उत्तेजक और ज्ञानवर्द्धक संवाद भी आयोजित हुए। मणि के कृतित्व, रचना-प्रक्रिया, दृष्टि, शैली आदि का पुनरवलोकन करने का यह बहुत उपयुक्त अवसर था। मणि की फिल्मों का भी इतना बड़ा समारोह शायद पहली बार ही हुआ है। 

यह बात पहले भी नोट की गई है कि मणि कौल ने जितनी साहित्यिक कृतियों पर आधारित फिल्में बनार्इं उतनी शायद ही किसी और हिंदी निर्देशक ने। दोस्तोवस्की, मोहन राकेश, विजयदान देथा, मुक्तिबोध, विनोद कुमार शुक्ल आदि की कृतियों को मणि ने चुना और उनमें से हरेक का अपनी दृष्टि से कायाकल्प कर दिया। यह बात कइयों ने संवाद में कही कि मणि फिल्म को राग की तरह सांगीतिकता से बुनते थे: उनके यहां आख्यान का महत्त्व नहीं है। वे हर फिल्म में मानो कोई कहानी नहीं, सिनेमा के माध्यम की बेहद आत्मसजग कथा कहते हैं: उनके फ्रेम्स को संगीत के स्वरों की तरह एक साथ संयुक्त और विविक्त देखा जा सकता है। ‘नजर’ फिल्म के अभिनेता शेखर कपूर ने अपने वक्तव्य में मणि का यह कथन उद्धृत किया कि सृजनात्मकता आकस्मिक होती है। मणि अकस्मात को बार-बार सहेजते हैं: उनके यहां जो थोड़ा-बहुत पहले से सोचा गया है वह आकस्मिक के आगे हमेशा समर्पित होता रहता है। जो संगीत है वह कथाक्रम की संगति नहीं, संगीत की संगति है: बिंबों की एक लड़ी जो स्वरों की तरह बहती रहती है। निरी चीजें भी मणि के यहां अपनी अलग जगह रखती-पाती हैं। वे दृश्य हैं, पर मुखर नहीं, अगर दृश्यता को भी मुखरता का संस्करण न माना जाए तो। कई बार उन पर हमारी और कैमरे की नजर अकस्मात ही जाती है। इस अकस्मात पाए को मणि अपनी शैली में गूंथते चलते हैं कुछ इस तरह कि एक स्तर पर उनकी हर फिल्म को निरी चीजों के बीच लगातार चल रहे संवाद या संगीत की तरह देखा-सुना जा सकता है। 

संवाद लगभग चार घंटे चला और दो खंडों में विभाजित था: ‘मणि कौल की सिनेमाटोग्राफी: जल, मिट्टी, धातु और ध्वनि- अनुगूंजें’ तथा ‘समय की स्पंदित उपस्थिति अनुभव करने की ओर’। साहित्य के अलावा मणि दूसरी कलाओं के प्रति बहुत संवेदनशील और उत्सुक थे। खुद ध्रुपदगायक, चित्रकार और हाइकू कवि होने के अलावा उन्होंने संगीत पर ‘ध्रुपद’ और ‘सिद्धेश्वरी’, और टेराकोटा पर ‘माटी मानस’ फिल्में बनार्इं। यों तो फिल्म अपने आप कई कलाओं का समावेश करती है, पर मणि एक फिल्मकार के रूप में भी बहुत सारे कला-कौशलों के धनी थे। उनकी फिल्मकला को चित्र, कविता और संगीत तीनों की ही तरह देखा-पढ़ा जा सकता है। कमाल यह है कि वे फिल्म की अपनी स्वायत्तता और अद्वितीयता के भी बहुत आक्रामक पक्षधर थे। उन्हें काम करते देख कर और ‘सतह से उठता आदमी’ पर हुए प्रहारों का प्रतिकार करते हुए ही मुझे सूझा था कि कोई कला किसी और कला के बारे में नहीं होती: वह किसी और कला से संबंध बना सकती है, उससे संवादरत हो सकती है, पर उसके बारे में नहीं। तभी यह समझ जागी थी कि कविता अपने आदर्श रूप में किसी के बारे में नहीं होती। जीवन-जगत के चित्र, छवियां और अनुभव सब कला को प्राणवान बनाते हैं, पर अंतत: वह उनको ऐसे कलानुभव में बदल देती है, जो सिर्फ उसके माध्यम से ही आयत्त किया जा सकता है। 

संवाद में उनके साथ काम कर चुके तकनीशियनों ने विस्तार से मणि की कार्यपद्धति समझाई। उनकी प्रक्रिया में सोचा-विचारा जो था सो था उससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण और सर्जनात्मक था न सोचा गया, अकस्मात घटित हो गया। कई बार जिसे तकनीशियन गलती या व्यर्थ मानते थे, मणि के लिए सही और सार्थक हो जाता था। बिंब के अलावा मणि के यहां ध्वनि की महिमा थी: संगीतकार होने के बावजूद उनके यहां बाकायदा संगीत के अलावा ध्वनियों का, आकस्मिक और रोजमर्रा की ध्वनियों का एक बड़ा संसार था। वे तो मानते थे कि जब आप किसी संगीत सभा में जाते हैं तो दरअसल आपको मौन सुनने जाना चाहिए। खासकर ध्रुपद में, मणि मानते थे, उसका पूरा अनुभव तभी संभव है   जब स्वर और मौन दोनों को सुना-समझा जाए, खासकर उस परिव्याप्त मौन को, जो स्वरों के ऊपर छाया हुआ होता है। कई बार लगता है कि मणि कौल की फिल्में समय के होने और अंतत: भंगु होने का आलाप और विलाप हैं। ऐंद्रियता और संयम के बीच संतुलन बनाए रखना हमेशा ही मुश्किल होता है, जबकि यह ध्रुपद की बुनियादी शर्त ही है: यह संतुलन बनाने की चेष्टा गलत या न समझे जाने का खतरा उठा कर मणि कौल अपने समूचे कला-जीवन भर करते रहे।

जनसत्ता से साभार

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