- ललित सुरजन
विशालकाय प्रवेश द्वार के भीतर काफी आगे जाकर बाँए हाथ पर संकरी सी गली में एक लौह कपाट खुलता है। भीतर एक छोटे गलियारे के दोनों तरफ दो-दो कोठरियां हैं। शायद 7x7 की। हर कोठरी पर भी एक लौह कपाट है और एक रोशनदान। एक कोने पर छत से लालटेन लटक रही है। नीचे सोने के लिए पलंग, खाट या बिस्तर नहीं, सिर्फ एक पुराना बारदाना है। दो बाल्टियां हैं- एक पानी के लिए, दूसरी शौच के लिए। इन कोठरियों का उपयोग अधिकतम अभिरक्षा वाले बंदियों के लिए किया जाता है। इन्हीं में तीसरे नंबर की कोठरी कस्तूरबा गांधी ने पहली-पहली बार कैदी जीवन गुजारा। लेकिन इतना ही नहीं, बाहर एक खुला प्रांगण है, जिसमें कतारबध्द होने के लिए लंबी रेखाएं खींच दी गई हैं। हाथ में तश्तरी लेकर घुटने के बल बैठो। जेल कर्मचारी खाने के नाम जो कुछ दें, उसे लेकर भूख शांत करो। सर्दी, गर्मी, बरसात यही नियम है। मौसम की मार से बचने के लिए सिर पर कोई छाया नहीं है।
यह पीटर मॉरित्जबर्ग की पुरानी जेल है जिसे अब विरासत संग्रहालय और शिल्प शाला में तब्दील कर दिया गया है। एक सौ तीस साल पुरानी इस जेल में दक्षिण अफ्रीका के उपनिवेशवादी, रंगभेदवादी शासकों ने जाने कितने स्वाधीनता सेनानियों को अकथ यातनाएं दी होंगी। हां, जेल में काल कोठरी भी है जिसमें फांसी दी जाती थी। अपनी इस पहली जेल यात्रा से लेकर यरवदा के कारावास तक कस्तूरबा ने कितनी ही जेल यात्राएं कीं। अगर मोहनदास करमचंद गांधी बापू, महात्मा और राष्ट्रपिता कहलाए तो उसके पीछे बा का साहस, संघर्ष और त्याग कितना प्रबल रहा होगा, कल्पना करने से ही रोम-रोम सिहर उठता है।
पीटर मॉरित्जबर्ग दक्षिण अफ्रीका का एक छोटा किंतु प्रमुख नगर है, जोहान्सबर्ग और डरबन के बीच। क्वाजुलू -नटाल प्रांत की राजधानी, संक्षेप में पीएमबी। इसी नगर के रेलवे स्टेशन पर 7 जून 1893 की रात एक गोरे सहयात्री ने मोहनदास गांधी को धक्के देकर ट्रेन से बाहर फेंक दिया था। गेहुंआ चमड़ी वाले की ये मजाल कि गोरे साहब के साथ फर्स्ट क्लास के डिब्बे में यात्रा करे! यह सिर्फ न सिर्फ गांधी जी के जीवन को, बल्कि विश्व के राजनीतिक इतिहास को नई दिशा देने वाली युगांतरकारी घटना थी। रॉबिन आईलैण्ड में निर्वासन के अठाइस साल बिताने वाले नेल्सन मंडेला जब स्वतंत्र हुए तो उसके तत्काल बाद उन्होंने सबसे पहले भारत यात्रा की। और जैसा कि इस अवसर पर उन्होंने कहा- 'आपने हमें एक बैरिस्टर भेजा था, हमने उन्हें महात्मा बनाकर वापिस भेजा।' दक्षिण अफ्रीका में जून की कड़कडाती ठंड में रेल यात्रा के इस अनुभव ने ही सचमुच गांधी जी को विश्ववंद्य महात्मा बनने की ओर अग्रसर किया।
पीएमबी के रेलवे स्टेशन पर एक प्रस्तर फलक स्थापित है, जिसमें लिखा है कि इस फलक के आसपास ही उपरोक्त वाकया हुआ था। स्थान निर्धारित करने में रेलवे तंत्र को काफी माथापच्ची करना पड़ी। पुराने रिकार्ड खंगाले गए। 7 जून 1893 की उस ट्रेन में फर्स्ट क्लास का डिब्बा कहां लगा था, इंजिन से कितनी दूर था और इंजिन कहां पर रुका होगा, यह सब नापजोख की गई और तब स्थान निर्धारित हुआ। इस पर मजा यह कि कुछ अध्येताओं के अनुसार उस जमाने में सिर्फ एक ही प्लेटफार्म था और वह पटरी के दूसरी ओर था, और जहां फलक लगा है वह नया प्लेटफार्म है।
जो भी हो, यह रेलवे स्टेशन एक युगांतरकारी घटना का साक्षी तो है ही। इस प्रस्तर फलक के अलावा स्टेशन के प्रतीक्षालय में गाँधी जी की एक तस्वीर लगाई गई है, साथ ही स्टेशन के प्रवेश कक्ष में बहुत सारे फलक हैं। 25 अप्रैल 1997 को पीएमबी की नगर परिषद ने महात्मा गांधी को मरणोपरांत ''नगर की स्वतंत्रता'' के सम्मान से विभूषित किया। नेल्सन मंडेला इस अवसर पर उपस्थित थे और महात्मा के पौत्र, तब भारत के उच्चायुक्त गोपाल गांधी भी। 16 फरवरी 1998 को मॉरीशस के प्रधानमंत्री नवीन रामगुलाम ने यहां आकर बापू को अपनी श्रध्दांजलि अर्पित की। दक्षिण अफ्रीका की प्रखर बुध्दिजीवी गांधीवादी कार्यकर्ता फातिमा मीर ने गांधी जी को समर्पित एक अभिनंदन पत्र लिखा। 30 जनवरी 2001 को दक्षिण अफ्रीका के एक संसद सदस्य बापू की पुण्यतिथि पर श्रध्दांजलि अर्पित करने पहुंचे। भारत के राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम भी यहां 16 सितम्बर 2004 को आए। इन सबके फलक वहां प्रदर्शित हैं। एक ही कसर रह गई। अगर भारत होता तो स्थानों के नाम बदलने की हमारी अदम्य प्रवृत्ति के चलते स्टेशन का नाम भी शायद बदलकर गांधीबर्ग कर दिया गया होता!
इस नगर के दो और स्थानों का उल्लेख मुझे करना चाहिए। शहर के भीड़-भाड़ वाले इलाके में टाउन हॉल या प्रांतीय सचिवालय के सामने बीच सड़क पर गांधी जी की एक आदमकद प्रतिमा नगरपालिका ने स्थापित की है। संगमरमर में ढली यह प्रतिमा- बाएं हाथ में छड़ी, दायां हाथ अभय में ऊपर उठा- सहज ही प्रेरित करती है। इस प्रतिमा के चबूतरे पर एक ओर अल्बर्ट आइंस्टीन की वह सुप्रसिध्द उक्ति उत्कीर्ण है कि - ''आने वाली पीढ़ियों को यह विश्वास करना कठिन होगा कि हमारे बीच कभी हाड़ मांस से बना एक ऐसा व्यक्ति भी था।'' दूसरी ओर गांधी जी का एक कथन उत्कीर्ण है कि अहिंसा के लिए अप्रतिम साहस की आवश्यकता होती है। दूसरी उल्लेखनीय जगह है- एलेन पेटन एवेन्यू। इस मार्ग का नामकरण मेरे प्रिय साहित्यकारों की सूची में बहुत ऊपर दर्ज उस व्यक्ति की स्मृति में किया गया है जो स्वयं गौरांग था लेकिन जिसने जीवन भर उपनिवेशवाद और रंगभेद का साहस के साथ मुकाबला किया, अफ्रीका की अश्वेत जनता की पीडा को अपनी लेखनी से मुखरित किया और 'धरती के आंसू' (क्राय द बिलव्ड कंट्री) शीर्षक से कालजयी उपन्यास लिखा, जिसके लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार से भी नवाजा गया।
डरबन से एक दिशा में पीएमबी है और दूसरी दिशा में फीनिक्स। फीनिक्स कभी एक अलग गांव रहा होगा, लेकिन अब वह डरबन की वृहत्तर नगरपालिका की सीमा में आ गया है। 1904 में गांधी जी ने इसी जगह पर लगभग सौ एकड़ के क्षेत्र में फीनिक्स आश्रम की स्थापना की थी। वे डरबन में 1903 में स्थापित अपना इंटरनेशनल प्रिंटिंग प्रेस उठाकर यहां ले आए थे। इस प्रेस से ही उन्होंने पहले पहल 'इंडियन ओपिनियन' निकालकर अपनी मूल्यपरक पत्रकारी प्रतिभा का भी परिचय दिया था। यहां एक फुटबाल मैदान भी था और सब्जियों का खेत भी। यद्यपि अब एक बड़े हिस्से पर अतिक्रमण हो चुका है। गांधी जी ने श्रम की महत्ता, बुनियादी तालीम, सविनय अवज्ञा, अहिंसा के अपने प्रयोग इस स्थान से ही प्रारंभ किए थे। 1985 के जातीय दंगों में यह आश्रम पूरी तरह जलाकर खाक कर दिया गया था, लेकिन इसका पुनर्निर्माण हुआ, गांधी जी का निवास 'सर्वोदय' दुबारा बना और 27 फरवरी सन् 2000 को राष्ट्रपति एमबेकी ने इसे पुन: लोकार्पित किया।
देशबंधु से साभार
विशालकाय प्रवेश द्वार के भीतर काफी आगे जाकर बाँए हाथ पर संकरी सी गली में एक लौह कपाट खुलता है। भीतर एक छोटे गलियारे के दोनों तरफ दो-दो कोठरियां हैं। शायद 7x7 की। हर कोठरी पर भी एक लौह कपाट है और एक रोशनदान। एक कोने पर छत से लालटेन लटक रही है। नीचे सोने के लिए पलंग, खाट या बिस्तर नहीं, सिर्फ एक पुराना बारदाना है। दो बाल्टियां हैं- एक पानी के लिए, दूसरी शौच के लिए। इन कोठरियों का उपयोग अधिकतम अभिरक्षा वाले बंदियों के लिए किया जाता है। इन्हीं में तीसरे नंबर की कोठरी कस्तूरबा गांधी ने पहली-पहली बार कैदी जीवन गुजारा। लेकिन इतना ही नहीं, बाहर एक खुला प्रांगण है, जिसमें कतारबध्द होने के लिए लंबी रेखाएं खींच दी गई हैं। हाथ में तश्तरी लेकर घुटने के बल बैठो। जेल कर्मचारी खाने के नाम जो कुछ दें, उसे लेकर भूख शांत करो। सर्दी, गर्मी, बरसात यही नियम है। मौसम की मार से बचने के लिए सिर पर कोई छाया नहीं है।
यह पीटर मॉरित्जबर्ग की पुरानी जेल है जिसे अब विरासत संग्रहालय और शिल्प शाला में तब्दील कर दिया गया है। एक सौ तीस साल पुरानी इस जेल में दक्षिण अफ्रीका के उपनिवेशवादी, रंगभेदवादी शासकों ने जाने कितने स्वाधीनता सेनानियों को अकथ यातनाएं दी होंगी। हां, जेल में काल कोठरी भी है जिसमें फांसी दी जाती थी। अपनी इस पहली जेल यात्रा से लेकर यरवदा के कारावास तक कस्तूरबा ने कितनी ही जेल यात्राएं कीं। अगर मोहनदास करमचंद गांधी बापू, महात्मा और राष्ट्रपिता कहलाए तो उसके पीछे बा का साहस, संघर्ष और त्याग कितना प्रबल रहा होगा, कल्पना करने से ही रोम-रोम सिहर उठता है।
पीटर मॉरित्जबर्ग दक्षिण अफ्रीका का एक छोटा किंतु प्रमुख नगर है, जोहान्सबर्ग और डरबन के बीच। क्वाजुलू -नटाल प्रांत की राजधानी, संक्षेप में पीएमबी। इसी नगर के रेलवे स्टेशन पर 7 जून 1893 की रात एक गोरे सहयात्री ने मोहनदास गांधी को धक्के देकर ट्रेन से बाहर फेंक दिया था। गेहुंआ चमड़ी वाले की ये मजाल कि गोरे साहब के साथ फर्स्ट क्लास के डिब्बे में यात्रा करे! यह सिर्फ न सिर्फ गांधी जी के जीवन को, बल्कि विश्व के राजनीतिक इतिहास को नई दिशा देने वाली युगांतरकारी घटना थी। रॉबिन आईलैण्ड में निर्वासन के अठाइस साल बिताने वाले नेल्सन मंडेला जब स्वतंत्र हुए तो उसके तत्काल बाद उन्होंने सबसे पहले भारत यात्रा की। और जैसा कि इस अवसर पर उन्होंने कहा- 'आपने हमें एक बैरिस्टर भेजा था, हमने उन्हें महात्मा बनाकर वापिस भेजा।' दक्षिण अफ्रीका में जून की कड़कडाती ठंड में रेल यात्रा के इस अनुभव ने ही सचमुच गांधी जी को विश्ववंद्य महात्मा बनने की ओर अग्रसर किया।
पीएमबी के रेलवे स्टेशन पर एक प्रस्तर फलक स्थापित है, जिसमें लिखा है कि इस फलक के आसपास ही उपरोक्त वाकया हुआ था। स्थान निर्धारित करने में रेलवे तंत्र को काफी माथापच्ची करना पड़ी। पुराने रिकार्ड खंगाले गए। 7 जून 1893 की उस ट्रेन में फर्स्ट क्लास का डिब्बा कहां लगा था, इंजिन से कितनी दूर था और इंजिन कहां पर रुका होगा, यह सब नापजोख की गई और तब स्थान निर्धारित हुआ। इस पर मजा यह कि कुछ अध्येताओं के अनुसार उस जमाने में सिर्फ एक ही प्लेटफार्म था और वह पटरी के दूसरी ओर था, और जहां फलक लगा है वह नया प्लेटफार्म है।
जो भी हो, यह रेलवे स्टेशन एक युगांतरकारी घटना का साक्षी तो है ही। इस प्रस्तर फलक के अलावा स्टेशन के प्रतीक्षालय में गाँधी जी की एक तस्वीर लगाई गई है, साथ ही स्टेशन के प्रवेश कक्ष में बहुत सारे फलक हैं। 25 अप्रैल 1997 को पीएमबी की नगर परिषद ने महात्मा गांधी को मरणोपरांत ''नगर की स्वतंत्रता'' के सम्मान से विभूषित किया। नेल्सन मंडेला इस अवसर पर उपस्थित थे और महात्मा के पौत्र, तब भारत के उच्चायुक्त गोपाल गांधी भी। 16 फरवरी 1998 को मॉरीशस के प्रधानमंत्री नवीन रामगुलाम ने यहां आकर बापू को अपनी श्रध्दांजलि अर्पित की। दक्षिण अफ्रीका की प्रखर बुध्दिजीवी गांधीवादी कार्यकर्ता फातिमा मीर ने गांधी जी को समर्पित एक अभिनंदन पत्र लिखा। 30 जनवरी 2001 को दक्षिण अफ्रीका के एक संसद सदस्य बापू की पुण्यतिथि पर श्रध्दांजलि अर्पित करने पहुंचे। भारत के राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम भी यहां 16 सितम्बर 2004 को आए। इन सबके फलक वहां प्रदर्शित हैं। एक ही कसर रह गई। अगर भारत होता तो स्थानों के नाम बदलने की हमारी अदम्य प्रवृत्ति के चलते स्टेशन का नाम भी शायद बदलकर गांधीबर्ग कर दिया गया होता!
इस नगर के दो और स्थानों का उल्लेख मुझे करना चाहिए। शहर के भीड़-भाड़ वाले इलाके में टाउन हॉल या प्रांतीय सचिवालय के सामने बीच सड़क पर गांधी जी की एक आदमकद प्रतिमा नगरपालिका ने स्थापित की है। संगमरमर में ढली यह प्रतिमा- बाएं हाथ में छड़ी, दायां हाथ अभय में ऊपर उठा- सहज ही प्रेरित करती है। इस प्रतिमा के चबूतरे पर एक ओर अल्बर्ट आइंस्टीन की वह सुप्रसिध्द उक्ति उत्कीर्ण है कि - ''आने वाली पीढ़ियों को यह विश्वास करना कठिन होगा कि हमारे बीच कभी हाड़ मांस से बना एक ऐसा व्यक्ति भी था।'' दूसरी ओर गांधी जी का एक कथन उत्कीर्ण है कि अहिंसा के लिए अप्रतिम साहस की आवश्यकता होती है। दूसरी उल्लेखनीय जगह है- एलेन पेटन एवेन्यू। इस मार्ग का नामकरण मेरे प्रिय साहित्यकारों की सूची में बहुत ऊपर दर्ज उस व्यक्ति की स्मृति में किया गया है जो स्वयं गौरांग था लेकिन जिसने जीवन भर उपनिवेशवाद और रंगभेद का साहस के साथ मुकाबला किया, अफ्रीका की अश्वेत जनता की पीडा को अपनी लेखनी से मुखरित किया और 'धरती के आंसू' (क्राय द बिलव्ड कंट्री) शीर्षक से कालजयी उपन्यास लिखा, जिसके लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार से भी नवाजा गया।
डरबन से एक दिशा में पीएमबी है और दूसरी दिशा में फीनिक्स। फीनिक्स कभी एक अलग गांव रहा होगा, लेकिन अब वह डरबन की वृहत्तर नगरपालिका की सीमा में आ गया है। 1904 में गांधी जी ने इसी जगह पर लगभग सौ एकड़ के क्षेत्र में फीनिक्स आश्रम की स्थापना की थी। वे डरबन में 1903 में स्थापित अपना इंटरनेशनल प्रिंटिंग प्रेस उठाकर यहां ले आए थे। इस प्रेस से ही उन्होंने पहले पहल 'इंडियन ओपिनियन' निकालकर अपनी मूल्यपरक पत्रकारी प्रतिभा का भी परिचय दिया था। यहां एक फुटबाल मैदान भी था और सब्जियों का खेत भी। यद्यपि अब एक बड़े हिस्से पर अतिक्रमण हो चुका है। गांधी जी ने श्रम की महत्ता, बुनियादी तालीम, सविनय अवज्ञा, अहिंसा के अपने प्रयोग इस स्थान से ही प्रारंभ किए थे। 1985 के जातीय दंगों में यह आश्रम पूरी तरह जलाकर खाक कर दिया गया था, लेकिन इसका पुनर्निर्माण हुआ, गांधी जी का निवास 'सर्वोदय' दुबारा बना और 27 फरवरी सन् 2000 को राष्ट्रपति एमबेकी ने इसे पुन: लोकार्पित किया।
देशबंधु से साभार
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