Monday, June 25, 2018

प्रभाकर चौबे का कॉलम अब नहीं लिखा जाएगा

- ललित सुरजन

बीते सोमवार याने 18 जून को मैंने कहा- आज तुम्हारा कॉलम छपा है। अगले हफ्ते का कब लिखोगे। रायपुर के एम्स अस्पताल के आपातकालीन चिकित्सा कक्ष में रोगशैय्या पर पड़े उनका जवाब था- तुम्हारी तुम जानो। मैंने अपना काम कर दिया है। इतने सालों में एक बार भी नागा नहीं किया। उन्हें बोलने में तकलीफ हो रही थी, लेकिन तेवर वही थे। अगली सुबह बेटे जीवेश से कहा- पैन-कागज लाकर दो, कॉलम लिखना है। वे मौत से लड़ रहे थे। शायद जानते थे कि जीत नहीं पाएंगे, किंतु आखिरी साँस तक हार मानने के लिए तैयार नहीं थे। चंद दिनों की बीमारी में शरीर कमजोर हो गया था, दवाईयां चल रही थीं, जीवन रक्षक उपकरणों के सहारे जीवन आगे बढ़ रहा था। ऐसे में कॉलम कहां से लिख पाते!

18 जून को प्रकाशित लेख उनका अंतिम लेख सिद्ध हुआ। इसे उन्होंने घर में ही बिस्तर पर लेटे-लेटे जीवेश के सहयोगी दुर्गेश को डिक्टेशन देकर लिखवाया था। इसके पहले के लेख हेतु छोटे बेटे आलोक को डिटेक्शन दिया था। ये प्रभाकर चौबे थे- सच्चे मायनों में कलम के सिपाही। वे यश के लिए, पद के लिए, धन के लिए नहीं लिखते थे। उनका एकमात्र मकसद था कि उनके विचार आम जनता तक पहुंचना चाहिए। लेखनी समाज के प्रति ऋण उतारने का माध्यम थी।

प्रभाकर चौबे देशबन्धु के प्रारंभ काल याने 1959 से ही अखबार के साथ जुड़ गए थे। यह रिश्ता उन्होंने जीवन भर कायम रखा। हरिशंकर परसाई का अस्सी प्रतिशत लेखन देशबन्धु में प्रकाशित हुआ तो प्रभाकर चौबे का पंचानवे प्रतिशत। साठ साल तो नहीं, लेकिन लगभग अठ्ठावन वर्षों तक प्रभाकर का लिखा देशबन्धु में प्रकाशित होता रहा- पत्र, कविताएं, व्यंग्य, लेख, कहानियां, उपन्यास, एकांकी, रिपोर्ताज, निबंध, गरज यह कि हर विधा में उन्होंने लिखा और खूब लिखा। परसाईजी की एक पुस्तक हँसते हैं, रोते हैं का शीर्षक उधार लेकर उन्होंने एक स्तंभ लिखा शुरू किया जो अनेक सालों तक सप्ताह में दो बार प्रकाशित होता रहा। 1988-89 में जबलपुर यात्रा के दौरान प्रभाकर और मैं नगर में प्रतिष्ठित समाजसेवी चिकित्सक डॉ. जे.एन. सेठ से मिलने गए। प्रभाकर चौबे का परिचय पाते ही वे उछल पड़े। अरे भाई, आपका कॉलम तो मैं नियमित रूप से पढ़ता हूं और सबको पढ़वाता हूं। यह थी एक पाठक की प्रथम परिचय में प्रतिक्रिया। ऐसे और भी अनुभव हैं।

एक रात रायपुर के रंगमंदिर से कोई नाटक देखकर हम लौट रहे थे। कोई पंद्रह साल पुरानी बात होगी। हम दोनों रिक्शे में बैठे बात करते चले आ रहे थे। अग्रसेन चौक पर रिक्शे से उतरे। चालक ने पूछा- सर! आप प्रभाकर चौबे हैं। हां में उत्तर मिला तो वह रिक्शे का किराया लेने से मना करने लगा। आपके लेख मैं हमेशा पढ़ता हूं। सोचता हूं कोई तो है जो हमारे जैसे गरीबों के बारे में लिखता है। वह पैसे लेने तैयार नहीं था। मैंने जबरन यह कहकर पैसे थमाए कि इनका किराया मत लेना, मेरा किराया तो ले लो। ये प्रभाकर चौबे थे- मन, वचन, कर्म से एक। जैसा सोचते थे, वैसा ही जीवन जीते थे और वैसा ही लिखते थे। कहीं कोई खोट नहीं, एकदम पारदर्शी सोच; लेकिन राग द्वेष से हीन, न किसी का चरित्र हनन किया, न ओछी टिप्पणी की और न कभी घटिया चुटकुलेबाजी। उनके जैसे बेलाग लिखने वाले लोग, और वह भी जीवन में कभी डगमग हुए बिना, हां, बिना डगमग हुए, हमारे बीच कितने हैं?

व्यंग्य का नियमित स्तंभ लिखते हुए एक समय प्रभाकर के मन में विचार आया।  व्यंजना के बजाय सीधी-सीधी बात कहने का समय आ गया है। उनका सोचना था कि व्यंग्य में अन्तर्निहित तमाम शक्ति के बावजूद लोक शिक्षण के लिए आवश्यक हो गया है कि पाठकों के सामने खुलकर मुद्दे रखे जाएं। इस तरह सोमवार को उनके नियमित स्तंभ की शुरूआत हुई। इस कॉलम का हमने कोई नाम नहीं दिया। लगभग बीस साल लगातार चलने के बाद अब यह स्तंभ सदा के लिए बंद हो गया है।

प्रभाकर चौबे की जन पक्षधरता इन लेखों में बहुत स्पष्टता के साथ व्यक्त होती है। सन् नब्बे के दशक से भारत में जिस तरह से नवसाम्राज्यवादी तथा नवपूंजीवादी ताकतों ने अपने पैर जमाना शुरू किए, उससे प्रभाकर स्वाभाविकत: क्षुब्ध थे। वे जान रहे थे कि उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण का लुभावना नारा देकर ये ताकतें भारत को अघोषित रूप से अपना उपनिवेश बनाने का षड़यंत्र रच रही हैं। देश का सत्ताधारी वर्ग जिस प्रकार लोभ, लालच में पड़ गया है, मदांध हो गया है, उसे भी वे ताड़ चुके थे। अपने साप्ताहिक स्तंभ में उन्होंने सरल-सुबोध भाषा में जनता को आगाह किया। वे एक तरफ रामचरित मानस की चौपाईयां उद्धृत करते थे तो अक्सर मुक्तिबोध की कविता पंक्तियों से अपने तर्क को पुष्ट कर लेख समाप्त करते थे।

मैं पाठकों का ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा कि प्रभाकर चौबे हिंदी साहित्य नहीं, बल्कि वाणिज्य के विद्यार्थी थे। पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्हें इनकम टैक्स इंस्पैक्टर की नौकरी मिल गई थी। लेकिन यह नौकरी उन्हें उसी तरह रास नहीं आई, जैसे परसाईजी को महकमा-ए-जंगलात में नौकरी करना नहीं जंचा।  प्रभाकर ने स्वाधीनता संग्राम के दौरान स्थापित राष्ट्रीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में शिक्षक के रूप में काम करना शुरू किया और समय आने पर शाला के प्राचार्य बने और उसी पद से सेवानिवृत्त हुए। प्रभाकर रिटायर हो चुके थे। देशबन्धु में उनका लेखन बदस्तूर चल रहा था।  तभी हमने 1996 में सांध्य दैनिक 'हाईवे चैनल' निकालने की योजना बनाई। मेरे अनुरोध पर प्रभाकर चौबे प्रदेश के इस प्रथम संपूर्ण सांध्यकालीन पत्र के संपादक बने।

उन्होंने पूरी तन्मयता और परिश्रम के साथ अठारह वर्षों से अधिक समय तक यह दायित्व निभाया। वे प्रतिदिन संपादकीय लिखते थे। उनकी पत्नी मालती भाभी 2005 में बीमार पड़ीं तो अस्पताल में उनके सिरहाने बैठकर भी वे अपना काम करते रहे। मुझे अगर ठीक याद है तो 7 सितम्बर 2005 याने जिस दिन भाभी की अंत्येष्टि हुई, सिर्फ उस दिन उन्होंने संपादकीय नहीं लिखा। अगले दिन से वे घर से लिखकर भेजते रहे, जबकि घर में रिश्तेदारों व मातमपुर्सी के लिए आने वालों का तांता लगा रहता था। कोई स्थितप्रज्ञ ही ऐसा कर सकता था!

प्रभाकर चौबे ने इस एकाग्रता, तन्मयता, कर्मनिष्ठा, दायित्वबोध का परिचय जीवन में हर मोड़ पर, हर समय दिया। वे अशासकीय शिक्षकों के संगठन म.प्र. माध्यमिक शिक्षक संघ के महासचिव थे। अध्यक्ष थे स्व. मुरलीधर गनौदवाले।  एक वामपंथी, एक धुर दक्षिणपंथी। लेकिन संगठन के प्रति दोनों ने जिम्मेदारी बहुत समझदारी और ईमानदारी के साथ निभाई। राजनीति को बीच में नहीं आने दिया। उन्होंने अपनी शाला में भी आंदोलन किए, लेकिन प्रबंधन के प्रति कटुता नहीं पाली।

राइस किंग सेठ नेमीचंद प्रबंध समिति के अध्यक्ष  थे, उन्होंने प्रभाकर चौबे को वरिष्ठता के सिद्धांत पर प्राचार्य नियुक्त किया। इस पद पर भी प्रभाकर ने न तो अपने दायित्व में कोताही की और न अपने सिद्धांतों से समझौता किया। उनके साथ काम करने वाला कोई भी व्यक्ति नहीं कह सकता था कि प्रभाकर चौबे ने किसी से अन्याय किया हो, दुराव किया हो, पीठ पीछे बात की हो, काम ठीक से न किया हो। उनकी फितरत में यह सब नहीं था। दरअसल, वे कई मायनों में निस्पृह व्यक्ति थे। जिन जनसंगठनों में वे सक्रिय रहे, वहां वे पहले एक कार्यकर्ता थे, फिर नेता। पद के लिए साथियों को आगे कर दिया, फिर किसी ने मार्गदर्शन मांगा तो ठीक, नहीं तो अपन अपने घर में भले।

प्रभाकर ने जितना विपुल लेखन साठ वर्षों की अवधि में किया, हिन्दी में फिलहाल उसकी मिसाल मिलना असंभव प्रतीत होता है। विभिन्न विषयों पर लिखे संपादकीय व अन्य रचनाओं की संख्या दस हजार के आसपास होगी। यह भी कमाल की बात है कि उन्होंने देशबन्धु के अलावा और किसी पत्र-पत्रिका के लिए लेखन नहीं किया।  एक अखबार और एक लेखक अठ्ठावन साल तक साथ-साथ रहे, यह सचमुच एक विश्व रिकॉर्ड है। लेकिन न उनका लिखना, न देशबन्धु का उन्हें छापना रिकॉर्ड बनाने के उद्देश्य से था।  वे मुक्तिबोध और परसाई के परंपरा के लेखक थे। प्रभाकर जितना लिखते थे, उतना पढ़ते भी थे। उनकी रुचि समकालीन राजनीति, अर्थनीति, दर्शनशास्त्र, इतिहास इन तमाम विषयों में थी। साहित्य की विधाओं में उनकी अधिक रुचि कथा साहित्य पढ़ने में थी। पत्र-पत्रिकाओं में वे सबसे पहले कहानियां ही पढ़ते थे। कोई रचना पसंद आ जाए और रचनाकार का फोन नंबर उपलब्ध हो तो फोन करके बधाई देने में देरी या कंजूसी नहीं करते थे। इस तरह देश के कितने ही नए लेखकों को उन्होंने खासकर प्रोत्साहित किया। वे फिर मुझे बताते थे कि फलानी पत्रिका में फलाने की कहानी छपी है। तुम भी पढ़ लेना।

एक दिलचस्प तथ्य है कि मैंने जब कोई नई कविता लिखी तो सबसे पहले प्रभाकर को ही सुनाई। 1996 में एक रात अचानक मेरी नींद खुली और मैं सात साल बाद लंबे समय से अधूरी पड़ी एक कविता को पूरी करने के लिए टेबल पर बैठ गया। सुबह चार बजे कविता पूरी हुई। अब बेचैनी थी कि प्रभाकर को सुना दूं। सुबह छह बजे नहीं कि मैंने फोन खटखटा दिया। प्रभाकर नींद में ही थे। मैंने कहा- कविता सुनो। लंबी कविता थी। उन्होंने सुनी और सजग प्रतिक्रिया दी- अच्छी है लेकिन आखिरी पैरा में झोल है। मैं निराश हो गया। कहा- यार! इतने साल बाद कविता लिखी पर तुम उसे खारिज कर रहे हो। खैर, मैंने कविता को नए सिरे से पढ़ा। प्रभाकर की राय ठीक लगी। कविता को संशोधित किया। उन्हें दुबारा सुनाई। जब प्रभाकर का अनुमोदन मिल गया तो संतोष हुआ कि वाकई मैंने एक अच्छी कविता लिख ली है। 'तिमिर के झरने में तैरती अंधी मछलियां'  मेरी प्रिय कविता है और उसका श्रेय प्रभाकर को ही है।

साभार: देशबन्धु

lalitsurjan@gmail.com

Sunday, June 3, 2018

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Friday, June 1, 2018

समय-समाज के सवालों से कटता रंगकर्म

-राजेश चन्द्र

अमेरिका जैसे देश में ब्लैक थियेटर मूवमेन्ट या 'अश्वेत रंग आन्दोलन' का एक समृद्ध और गौरवशाली इतिहास है, और उसके महत्व और प्रासंगिकता से इनकार करना सम्भव नहीं है। अपने देश में भी महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु में दलित रंगमंच एक समानान्तर रंगमंच की तरह दशकों से मौजूद है और उसने अलग धाराओं के रंगमंच पर भी गुणात्मक रूप से काफी प्रभाव डाला है। हमारे यहां हिन्दी रंगमंच में लोग पढ़ते नहीं। अगर पढ़ते तो उन्हें पता होता कि भारत में दलित रंगमंच की शुरुआत सबसे पहले हिन्दी में ही हुई और यही से महाराष्ट्र होते हुए वह देश के दूसरे हिस्सों में पहुंचा। पेरियार ललई से लेकर माताप्रसाद और स्वामी अछूतानन्द हरिहर जैसे समर्थ नाटककारों और सामाजिक चिन्तकों ने दलित रंगमंच की मज़बूत बुनियाद रखी और उसे एक आन्दोलन का व्यापक स्वरूप दिया, सैकड़ों नाटक लिखे गये, गांव-गांव में दशकों तक उनके हज़ारों प्रदर्शन भी हुए, पर जातिवादी, सवर्णवादी और ब्राह्मणवादी इतिहासकारों एवं आलोचकों ने उनके योगदान को न सिर्फ़ अनदेखा किया, बल्कि उसकी कहीं शिनाख़्त तक नहीं होने दी। उनका यह भय समझ से परे नहीं है। इस भय का नज़ारा हमें आज भी ख़ूब होता रहता है, जब भी दलित रंगमंच की चर्चा छिड़ती है।

हिन्दी के रंगकर्मियों से अधिक कूपमंडूक रंगकर्मी शायद ही कहीं मिलें। उनका समय-समाज से, भारतीय भाषाओं के और विश्व साहित्य से, दर्शन और समाजशास्त्र की दुनिया में नित्य हो रहे बदलावों से कोई रिश्ता ही नहीं बनता। हाशिये के समाजों को लेकर दुनिया भर में कितना कुछ लिखा जा रहा है। पढ़ना-समझना चाहें तब न। आज कल इन्टरनेट पर भी दुनिया भर की सामग्री मौजूद है। ज्ञान की भूख होनी चाहिये। हम रात-दिन अनुदान लेने-निपटाने की फ़िक्र में रहेंगे तो दिमाग़ को नया कुछ भी जानने का अवकाश कहां मिलेगा! अपने इतिहाबोध से, परंपरा से, मनुष्यता की वैज्ञानिक वैचारिकी से, समाजशास्त्र और दर्शन से पीछा छुड़ा कर बाज़ार के अलावा और कहीं नहीं पहुंचा जा सकता।

विडम्बना देखिये कि जो रंगकर्मी या आलोचक जितना ही हमारे यहां स्थापित होता जाता है, वह जनता से, समय-समाज के सवालों से उतना ही कटता जाता है। अध्ययन से कोई नाता न रहे, तो समीक्षक की दृष्टि किसी नाट्य-प्रस्तुति के बाह्य आवरण में ही उलझ कर रह जाती है, वह उसके तड़क-भड़क में फंस जाता है और समीक्षक से प्रचारक की भूमिका में आ जाता है। कथ्य और उसकी वैचारिकी तक, उसके समाजशास्त्र और राजनीति तक जाने की वह ज़हमत ही नहीं उठाता। वरना किसी औसत और मूल्यहीन नाट्य प्रस्तुति के बारे में लिखते या बोलते हुए क्या कोई समीक्षक ऐसा कह सकता है कि जिसने यह नाटक नहीं देखा, उसका जीवन व्यर्थ हो गया ? नाटक और रंगमंच की दुनिया में एक से बढ़ कर एक सृजनात्मक उत्कृष्टताएं सामने आ रही हैं, आती रहती हैं, पर आपको जानकारी नहीं होगी तो आप ऐसे ही अनर्थकारी निष्कर्ष निकालते रहेंगे!

रंगकर्मी आज स्थापित कहां होना चाहता है? कहां पर मान्यता चाहता है? क्या जनता के बीच? नहीं। वह सारी कवायद करता है कि संस्कृति विभाग में, एनएसडी और अकादमियों में उसका दबदबा हो जाये, भारंगम तथा दूसरे महोत्सवों में उसका हर नाटक लग जाये, उसे किसी सरकारी कमिटि में रख लिया जाये, कोई पुरस्कार कहीं से भी और किसी भी तरह से मिल जाये बस! जनता से, दर्शकों से किसी रंगकर्मी को कोई सरोकार हो तो वह ग्रांट को ध्यान में रख कर नाटक क्यों चुने? महोत्सवों में झंडा गाड़ने की फिक्र में अपने काम से, विचारथारा से समझौता क्यों करे? सरकार और सरकारी संस्थानों का दरबार क्यों करे?

हिन्दी रंगमंच का बहुलांश आज भटकाव का शिकार है। पुनरुत्थानवादी विषयों वाले नाटक, मिथकों पर आधारित और वर्णवाद, ब्राह्मणवाद को प्रतिष्ठित करने वाले नाटक ज़्यादा हो रहे हैं क्योंकि इसके माध्यम से आप विशिष्ट वर्गों और सत्ताधारी वर्ग को साधना चाहते हैं। उनकी नज़र में आना चाहते हैं। ताक़त की दुनिया का हिस्सा होना चाहते हैं। रंगकर्मियों में सत्ताधारी राजनीतिक दल का भोंपू बनने की प्रवृत्ति पहले भी थी, पर इस बात का लिहाज़ रखा जाता था कि किसी फ़ासिस्ट, साम्प्रदायिक, मनुवादी, घृणा की राजनीति करने वाले और संविधान-विरोधी दल या संगठन से उनका कोई सम्बंध न रहे। आज तो इतनी बेहयाई चल रही है कि रंगकर्मी खुल कर घृणा और सामाजिक विभेद पैदा करने वाले दलों और संगठनों की शरण में दौड़ लगा कर पहुंचने की होड़ में हैं। ऐसा किसी वैचारिक कारण से नहीं बल्कि जल्दी से जल्दी धन और ऐश्वर्य के असीमित साधन इकट्ठा कर लेना ही उनका इकलौता मक़सद है। इसलिये वे भी बदलती सत्ता के साथ कदमताल करते हैं। सत्ता कांग्रेस की हुई तो कांग्रेस के साथ, भाजपा की हुई तो भाजपा के साथ. ये प्रवृत्तियां रंगमंच के लिये अत्यंत घातक सिद्ध हो रही हैं। केवल यह कह देने से कि रंगमंच पहले से ही दलित कला की हैसियत रखता है, या वंचितों का पक्षधर है, आज काम नहीं चलने वाला है। हमें यह भी देखना होगा कि तथाकथित वंचितों के पक्षधर रंगमंच में समाज के दलित, आदिवासी, पिछड़े, स्त्रियों की उपस्थिति कितनी है? यह उपस्थिति भागीदारी के तौर पर भी देखनी होगी और विषय के तौर पर भी। जो लोग रंगमंच की मुख्यधारा को संचालित-निर्देशित करते हैं, उनमें से कितने दलित हैं, कितने आदिवासी, कितनी स्त्रियां हैं? दलित और आदिवासी यदि विषय के तौर पर, चरित्र के तौर पर इस मुख्यधारा में आ रहे हैं तो उनका चित्रण किस तरह से किया जा रहा है? क्या उनके साथ बराबरी का व्यवहार हो रहा है? क्या उनके मुद्दों को ईमानदारी से और केन्द्रीयता के साथ लाया जा रहा है? उनके प्रति नाटककार, निर्देशक और अभिनेता का नज़रिया और बर्ताव कितना सम्मानपूर्ण है? क्या दलितों-वंचितों और आदिवासियों का हम हमेशा दीन-हीन, बेचारे के रूप में चित्रण करते हैं? क्या उनकी जीवन-स्थितियों के प्रति हम दया और करुणा का भाव प्रदर्शित कर रहे हैं? दलितों को आज आपकी दया और करुणा की ज़रूरत नहीं है। वे उस पर रात-दिन थूकते हैं। वे मानवोचित गरिमा और सम्मान चाहते हैं। बराबरी का हिस्सा और व्यवहार चाहते हैं। आप नहीं देंगे तो वे छीन लेंगे। अगर आपका रंगमंच उन्हें यह सब नहीं दे सकता तो दलितों के लिये आपका रंगमंच बेकार है। वे अपना रंगमंच बना रहे हैं और बना लेंगे। आप अपने ब्राह्मणवादी, सवर्णवादी और मर्दवादी रंगमंच की ख़ैर मनायें।