- राजेश चन्द्र
जन नाट्य मंच सफदर हाशमी की हत्या के बाद से ही एक सांस्कृतिक दोराहे पर खड़ा रहा है। एक तरफ सफदर की जनवादी सांस्कृतिक आन्दोलन की परंपरा के संरक्षण का दबाव और दूसरी तरफ इलीट संस्कृति की ऐश्वर्यशाली जीवनशैली का व्यामोह उसे खींचता रहा है। सांगठनिक लोकतंत्र के सम्पूर्ण निषेध और पार्टी (सीपीआईएम) की दुर्भाग्यपूर्ण विफलताओं ने जनम को हमेशा इतनी सुविधा और स्पेस मुहैय्या कराया कि वह इस विरोधाभास को जीते हुए भी जनवादी भ्रम बनाये रख सके और अपनी इलीट लालसाओं की सम्पूर्ण तुष्टि का व्यापार गांठता रह सके। इस खींचतान का फ़ायदा इलीट सुधन्वा देशपांडे और माला हाशमी ने खूब उठाया है। एक तरफ उन्होंने रंगमंच के एनएसडी जैसे ब्राह्मणवादी और इलीटिस्ट संस्थान से एक साहचर्य और आदान-प्रदान का सम्बंध बनाये रखा ताकि दिल्ली और देश के इलीट सर्किल में उनकी स्वीकार्यता बनी रहे, और दूसरी तरफ पार्टी के बौद्धिक-सांस्कृतिक अकाल और सन्नाटे का चालाक दोहन करते हुए जनवादी हलकों में भी उनकी केन्द्रीयता क़ायम रहे। इस सुअवसर को मुफ़ीद और स्वर्णिम बनाने का एक भी अवसर उन्होंने गंवाया हो, इसका उदाहरण नहीं मिलेगा।
सफदर स्टूडियो बन जाने के बाद सुधन्वा ने अपनी निजी इलीट लालसाओं के अनुसार उसकी कार्यशैली विकसित की और खुद को अब तक उसका एकच्छत्र भाग्यविधाता बनाये रखा है। सफदर स्टूडियो उस मेहनतकश जनता के सहयोग से निर्मित हुआ है, जिसके लिये सफदर काम करते रहे, पर वह उस वर्ग की बख़्तरबंद आरामग़ाह बना हुआ है, जिसके ख़िलाफ़ लड़ते हुए सफ़दर ने शहादत दे दी। सुधन्वा और माला हाशमी ने उसे आम जनता की पहुंच और भागीदारी से मुक्त एक इलीट द्वीप की तरह विकसित किया है और इसका अहसास वहां जाकर कोई भी कर सकता है। सुधन्वा और माला हाशमी का दिल्ली के रंगजगत और यहां की सामान्य जनता से कोई सम्पर्क और जुड़ाव नहीं है और स्वाभाविक ही है कि वे जनता के किसी भी आन्दोलन और संघर्ष में शामिल नहीं दिखायी पड़ते। नुक्कड़ नाटक से तो वर्षों पहले उन्होंने किनारा कर लिया था, और सफदर की पुण्यतिथि और जयंती जैसी सालाना उत्सवधर्मिताओं का निर्वाह करने भर के लिये उन्होंने एनएसडी जैसे इलीट और ब्राह्मणवादी संस्थान में मुलायम कालीन के ऊपर चुनिन्दा दर्शकों के बीच बाबा आदम के ज़माने के कथित 'जनवादी नाटक' का उथला, प्राणहीन प्रदर्शन कर देने तक खुद को सीमित कर लिया है। दिल्ली की मलिन बस्तियों, कल-कारखानों की धूल फांकने के बजाय उन्होंने पिछले एक-डेढ़ दशक में अमेरिका और यूरोप के देशों में जाकर 'जनवाद' की अलख जगायी है! मकसद समझना इतना मुश्किल भी नहीं है। यह ऐसा ही है जैसे दिल्ली के एनजीओ सड़क के बच्चों को विदेश यात्रा पर ले जाते हैं, ताकि उनकी फटेहाली और दुर्दशा का प्रदर्शन कर 'डॉलर सहायता' जुटा सकें। सड़क के बच्चे दुबारा सड़कों पर छोड़ दिये जाते हैं। उनकी भूमिका यही समाप्त हो जाती है।
जन नाट्य मंच ने अब इन्डिया फ़ाउन्डेशन फ़ॉर द आर्ट्स जैसी फ़ंडिंग एजेन्सी का दामन थाम लिया है, जो भारत में फ़ोर्ड फ़ाउन्डेशन और रॉकफ़ेलर फ़ाउन्डेशन के वैश्विक साम्राज्यवादी एजेन्डे को लागू कराने वाली प्रतिनिधि संस्था है। फ़ोर्ड और रॉकफ़ेलर जैसी संस्थाओं के कारनामे दुनिया भर के शिक्षित लोगों को मालूम हैं और उन्हें दोहराने की बहुत ज़रूरत नहीं महसूस होती। ये संस्थाएं अमेरिकी हितों के अनुरूप दुनिया में हिंसा, अशान्ति, उपद्रव और अराजकता फैलाने तथा वामपंथी आन्दोलनों को पनपने न देने की अपनी बेहतरीन उपलब्धियों के लिये विख्यात हैं। आज 23 जून है और आज ही जन नाट्य मंच और इन्डिया फ़ाउन्डेशन फ़ॉर द आर्ट्स के नये गठबंधन और वैचारिक साझेदारी की औपचारिक शुरुआत हो रही है। शाम को 7 बजे सफदर स्टूडियो में 'नुक्कड़ नाटक की एक शाम' का आयोजन है, जिसके लिये जनम ने लोगों को आमंत्रण बांटा है। यह जनपक्षधर रंगमंच का एक नया शिफ़्ट है, जिसका नेतृत्व एक बार फिर से जनम कर रहा है। यह उसका ऐतिहासिक कार्यभार जो है। हाल के वर्षों में जनम की सक्रियता इजरायल के खिलाफ नुक्कड़ नाटक के माध्यम से एक देशव्यापी प्रतिरोध विकसित करने को लेकर दिखायी पड़ी थी, जिसके बारे में सुनने में आता है कि उस अभियान के लिये जनम को फिलिस्तीन से भरपूर फंड मिला था और इस फंड का हिस्सा उसने देश के कई अन्य समानधर्मा संगठनों (खास तौर से पटना की प्रेरणा जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा) के साथ भी बांटा!
प्रसिद्ध रंगकर्मी हबीब तनवीर ने 'विरोधी धारा का थियेटर' शीर्षक से अपने एक आलेख में कहा था कि, 'कला और संस्कृति का विकास तब तक होता है, जब तक वह धारा के विरुद्ध गतिमान रहती है। उसके साथ चल कर वह हमेशा कमज़ोर पड़ जाती है। शासक वर्ग की संस्कृति ने आज ऐसी व्यूह रचना कर ली है कि अब अगर लोकधर्मी या शोषित वर्ग की संस्कृति को पनपना है तो वह उसके विरोध में ही पनप सकेगी, वरना उसी संस्कृति का एक हिस्सा बन कर रह जायेगी।' सफदर हाशमी का जन नाट्य मंच आज वैश्विक पूंजी के सांस्कृतिक खेल का हिस्सा बन गया है। इस नये शिफ़्ट का इस्तक़बाल कीजिये!
(पोस्ट के साथ आज के कार्यक्रम का आमंत्रण और इन्डिया फ़ाउन्डेशन पर एक रपट का स्नैपशॉट है, जिसमें उसके फंडिंग स्रोतों का स्पष्ट विवरण दिया गया है। रपट का लिंक कमेन्ट बॉक्स में है।)
जन नाट्य मंच सफदर हाशमी की हत्या के बाद से ही एक सांस्कृतिक दोराहे पर खड़ा रहा है। एक तरफ सफदर की जनवादी सांस्कृतिक आन्दोलन की परंपरा के संरक्षण का दबाव और दूसरी तरफ इलीट संस्कृति की ऐश्वर्यशाली जीवनशैली का व्यामोह उसे खींचता रहा है। सांगठनिक लोकतंत्र के सम्पूर्ण निषेध और पार्टी (सीपीआईएम) की दुर्भाग्यपूर्ण विफलताओं ने जनम को हमेशा इतनी सुविधा और स्पेस मुहैय्या कराया कि वह इस विरोधाभास को जीते हुए भी जनवादी भ्रम बनाये रख सके और अपनी इलीट लालसाओं की सम्पूर्ण तुष्टि का व्यापार गांठता रह सके। इस खींचतान का फ़ायदा इलीट सुधन्वा देशपांडे और माला हाशमी ने खूब उठाया है। एक तरफ उन्होंने रंगमंच के एनएसडी जैसे ब्राह्मणवादी और इलीटिस्ट संस्थान से एक साहचर्य और आदान-प्रदान का सम्बंध बनाये रखा ताकि दिल्ली और देश के इलीट सर्किल में उनकी स्वीकार्यता बनी रहे, और दूसरी तरफ पार्टी के बौद्धिक-सांस्कृतिक अकाल और सन्नाटे का चालाक दोहन करते हुए जनवादी हलकों में भी उनकी केन्द्रीयता क़ायम रहे। इस सुअवसर को मुफ़ीद और स्वर्णिम बनाने का एक भी अवसर उन्होंने गंवाया हो, इसका उदाहरण नहीं मिलेगा।
सफदर स्टूडियो बन जाने के बाद सुधन्वा ने अपनी निजी इलीट लालसाओं के अनुसार उसकी कार्यशैली विकसित की और खुद को अब तक उसका एकच्छत्र भाग्यविधाता बनाये रखा है। सफदर स्टूडियो उस मेहनतकश जनता के सहयोग से निर्मित हुआ है, जिसके लिये सफदर काम करते रहे, पर वह उस वर्ग की बख़्तरबंद आरामग़ाह बना हुआ है, जिसके ख़िलाफ़ लड़ते हुए सफ़दर ने शहादत दे दी। सुधन्वा और माला हाशमी ने उसे आम जनता की पहुंच और भागीदारी से मुक्त एक इलीट द्वीप की तरह विकसित किया है और इसका अहसास वहां जाकर कोई भी कर सकता है। सुधन्वा और माला हाशमी का दिल्ली के रंगजगत और यहां की सामान्य जनता से कोई सम्पर्क और जुड़ाव नहीं है और स्वाभाविक ही है कि वे जनता के किसी भी आन्दोलन और संघर्ष में शामिल नहीं दिखायी पड़ते। नुक्कड़ नाटक से तो वर्षों पहले उन्होंने किनारा कर लिया था, और सफदर की पुण्यतिथि और जयंती जैसी सालाना उत्सवधर्मिताओं का निर्वाह करने भर के लिये उन्होंने एनएसडी जैसे इलीट और ब्राह्मणवादी संस्थान में मुलायम कालीन के ऊपर चुनिन्दा दर्शकों के बीच बाबा आदम के ज़माने के कथित 'जनवादी नाटक' का उथला, प्राणहीन प्रदर्शन कर देने तक खुद को सीमित कर लिया है। दिल्ली की मलिन बस्तियों, कल-कारखानों की धूल फांकने के बजाय उन्होंने पिछले एक-डेढ़ दशक में अमेरिका और यूरोप के देशों में जाकर 'जनवाद' की अलख जगायी है! मकसद समझना इतना मुश्किल भी नहीं है। यह ऐसा ही है जैसे दिल्ली के एनजीओ सड़क के बच्चों को विदेश यात्रा पर ले जाते हैं, ताकि उनकी फटेहाली और दुर्दशा का प्रदर्शन कर 'डॉलर सहायता' जुटा सकें। सड़क के बच्चे दुबारा सड़कों पर छोड़ दिये जाते हैं। उनकी भूमिका यही समाप्त हो जाती है।
जन नाट्य मंच ने अब इन्डिया फ़ाउन्डेशन फ़ॉर द आर्ट्स जैसी फ़ंडिंग एजेन्सी का दामन थाम लिया है, जो भारत में फ़ोर्ड फ़ाउन्डेशन और रॉकफ़ेलर फ़ाउन्डेशन के वैश्विक साम्राज्यवादी एजेन्डे को लागू कराने वाली प्रतिनिधि संस्था है। फ़ोर्ड और रॉकफ़ेलर जैसी संस्थाओं के कारनामे दुनिया भर के शिक्षित लोगों को मालूम हैं और उन्हें दोहराने की बहुत ज़रूरत नहीं महसूस होती। ये संस्थाएं अमेरिकी हितों के अनुरूप दुनिया में हिंसा, अशान्ति, उपद्रव और अराजकता फैलाने तथा वामपंथी आन्दोलनों को पनपने न देने की अपनी बेहतरीन उपलब्धियों के लिये विख्यात हैं। आज 23 जून है और आज ही जन नाट्य मंच और इन्डिया फ़ाउन्डेशन फ़ॉर द आर्ट्स के नये गठबंधन और वैचारिक साझेदारी की औपचारिक शुरुआत हो रही है। शाम को 7 बजे सफदर स्टूडियो में 'नुक्कड़ नाटक की एक शाम' का आयोजन है, जिसके लिये जनम ने लोगों को आमंत्रण बांटा है। यह जनपक्षधर रंगमंच का एक नया शिफ़्ट है, जिसका नेतृत्व एक बार फिर से जनम कर रहा है। यह उसका ऐतिहासिक कार्यभार जो है। हाल के वर्षों में जनम की सक्रियता इजरायल के खिलाफ नुक्कड़ नाटक के माध्यम से एक देशव्यापी प्रतिरोध विकसित करने को लेकर दिखायी पड़ी थी, जिसके बारे में सुनने में आता है कि उस अभियान के लिये जनम को फिलिस्तीन से भरपूर फंड मिला था और इस फंड का हिस्सा उसने देश के कई अन्य समानधर्मा संगठनों (खास तौर से पटना की प्रेरणा जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा) के साथ भी बांटा!
प्रसिद्ध रंगकर्मी हबीब तनवीर ने 'विरोधी धारा का थियेटर' शीर्षक से अपने एक आलेख में कहा था कि, 'कला और संस्कृति का विकास तब तक होता है, जब तक वह धारा के विरुद्ध गतिमान रहती है। उसके साथ चल कर वह हमेशा कमज़ोर पड़ जाती है। शासक वर्ग की संस्कृति ने आज ऐसी व्यूह रचना कर ली है कि अब अगर लोकधर्मी या शोषित वर्ग की संस्कृति को पनपना है तो वह उसके विरोध में ही पनप सकेगी, वरना उसी संस्कृति का एक हिस्सा बन कर रह जायेगी।' सफदर हाशमी का जन नाट्य मंच आज वैश्विक पूंजी के सांस्कृतिक खेल का हिस्सा बन गया है। इस नये शिफ़्ट का इस्तक़बाल कीजिये!
(पोस्ट के साथ आज के कार्यक्रम का आमंत्रण और इन्डिया फ़ाउन्डेशन पर एक रपट का स्नैपशॉट है, जिसमें उसके फंडिंग स्रोतों का स्पष्ट विवरण दिया गया है। रपट का लिंक कमेन्ट बॉक्स में है।)
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