क्या कहें, क्या न कहें? किसी पोस्ट या टिप्पणी के साथ किसे टैग करें, किसे न करें? क्या साझा करें, क्या न करें? ये दुविधा भी है और मुश्किल भी ? जो भी है पर ये दिनों-दिन बढ़ती जा रही है. अगर नाम और आस्था के तरीके ‘कुछ’ बताते हैं और पहचान की कई परत चढ़ी है तो दुविधाएं या मुश्किलें और बढ़ जा रही हैं. अनेक पहचान यानी अनेक मुश्किलें. दुविधाओं की तह दर तह.
एक नई दुविधा/मुश्किल इन दिनों कई लोगों के सर आ खड़ी हुई है. क्या न कहें/क्या न करें, जो ‘राष्ट्र’ से ‘द्रोह’ न माना जाए. इस वक्त कोई तगमा बड़ी आसानी से मिल रहा है तो वह यही ‘राष्ट्रद्रोह’ का है। जिसे देखिए, वही बांटे जा रहा है। इसके साथ गंदी-गंदी गालियां, ढेरों विशेषण और लात-घूंसे बोनस में दे रहा है.
देखने और सुनने में तो यह मामूली सी बात लगती है. मगर ये सबके लिए मामूली नहीं है. हमारे समाज की दस फीसदी आबादी दुविधाओं/मुश्किलों से आजाद है. वह कुछ भी कर या कह सकती है. अब जो नब्बे फीसदी हैं, वे भी दुविधाओं/ मुश्किलों से ऐसी ही आजादी चाहते हैं. खासतौर पर वे लोग जिनकी जिंदगी का नाम जद्दोजेहद है.
करीब तीन दशक से एक गीत जगह-जगह सभाओं और जुलूसों में सुना जा रहा है. इस गीत के लिखे रूप के बारे में पता नहीं. अलग-अलग समूह अलग-अलग तरीके से गाते हैं. महिलाएं अपने हिसाब से तो दलित अपने हिसाब से. अब मुश्किल यह है कि इस गीत में बार-बार आजादी का जिक्र आता है. दुविधा यह है, कहीं इसे गाना अब राष्ट्रद्रोह तो नहीं माना जाएगा? जैसे हिंसा मुक्त माहौल की मांग करने वाली लड़कियां गाती हैं- आजादी ही आजादी, हमें चाहिए हिंसा से आजादी... हमें चाहिए डर से आजादी... बहना मांगे, जीने की आजादी... हमें चाहिए बराबरी का हक... हम लेकर रहेंगे बराबरी का हक. भेदभाव की हिंसा के शिकार दलित गाते हैं - हमें चाहिए जातिवाद से आजादी... हमें चाहिए छुआछूत से आजादी. हमें चाहिए साम्प्रदायिकता/ दंगाइयों से आजादी... हमें चाहिए मनुवाद से आजादी... शराब के खिलाफ आंदोलन करने वाली महिलाओं का झुंड गाता है... मेरी बहना मांगें शराब से आजादी , मेरी सहेली मांगे सट्टा बाजारी से आजादी. दो जून रोटी के लिए जद्दोजेहद करने वाले गाते हैं... हमें चाहिए भूख से आजादी... हमें चाहिए रोजगार की आजादी... आजादी ही आजादी.
इतनी आजादी! अब सवाल है कि कान में एक साथ पड़तीं ‘आजादियों’ की गूंज, किन्हें नागवार गुजरेंगी?
दुविधा तो यह भी है कि फैज अहमद फैज की आजादी के मौके पर लिखी गई नज्म ‘वह इंतजार था जिसका, ये वह सहर तो नहीं...’ अब पढ़ा जाए या नहीं. साहिर लुधियानवी का गीत, ‘ये लुटते हुए कारवां ज़िंदगी के... जिन्हें नाज है हिन्द पर वो कहां हैं कहां हैं...’ सुना जाए या नहीं. और तो और... देखिए अदम गोंडवी उर्फ रामनाथ सिंह ने क्या लिख डाला- 'सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद हैं, दिल पर रखकर हाथ कहिए देश क्या आजाद है’'. ये सब तो चले गए. अब हमारी मुश्किल है, ये पढ़ें या सुनें या गाएं, तो कहीं राष्ट्रद्रोही तो नहीं कहे जाएंगे?
- नासिरूद्दीन, स्वतंत्र पत्रकार
सौजन्य: प्रभात खबर ... 18 फरवरी 2016
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