-शर्मिला टैगोर
आजादी के 65 सालों बाद भी हम पाते हैं कि एक समतामूलक समाज बनाने में भारत की प्रगति धीमी और निराशाजनक है। महिलाओं के प्रति भेदभाव फल-फूल रहा है और धर्म, जाति, अमीर, गरीब, शहरी-ग्रामीण विभाजकों में समान रूप से मौजूद है। आज 2013 में और बहुतेरे न्यायिक प्रावधानों के उपरांत कहा जा सकता है कि चीजें पहले से बेहतर हैं; फिर भी कुछ चीजें बिलकुल नहीं बदली हैं। अपने ठोस आर्थिक और सामाजिक आधार में सुरक्षित पुरुष पुरुष हैं और हम इतर हैं। आज महिलाएं महसूस कर रही हैं कि लैंगिक समानता और न्याय को प्रभावित करने वाले कुछ बुनियादी मुद्दों को जब तक सुलझाया नहीं जाएगा, तब तक महिला सशक्तीकरण केवल जबानी स्तर पर रहेगा।
जहां एक ओर शिक्षा, रोजगार के अवसर और सोशल नेटवर्क ने हम जैसी कुछ महिलाओं को मुखरता प्रदान की है, वहीं बहुत सी महिलाएं परिवार, इज्जत, परंपरा, धर्म, संस्कृति और समुदाय के नाम पर अब भी चुपचाप अन्याय सह रही हैं। कुछ विचार प्रणालियां इतनी गहरे बसी हैं कि स्वयं महिलाओं द्वारा भी पक्षपात को पक्षपात के तौर पर नहीं देखा जाता।
जैसा कि उमा चक्रवर्ती कहती हैं कि हम सब अपने अंदर अतीत का बोध लिए चलते हैं जो हमने कई सालों में पौराणिक कथाओं, आम मान्यताओं, पराक्रम की गाथाओं, लोकसाहित्य और मौखिक इतिहास द्वारा आत्मसात किया होता है। इन विचारों के मिश्रण की, जो अपनी फितरत में पितृसत्तात्मक होते हैं, हमारी सामूहिक चेतना पर मजबूत पकड़ होती है और ये ही अतीत में महिलाओं की हैसियत को लेकर हमारी समझ का आधार बनते हैं। ऐसी अभिज्ञताएं लगातार सामने लाई जाती हैं और नए सिरे से गठित-पुनर्गठित होती रहती हैं। भारतीय परिवार में, खासकर उत्तर भारत में बेटे को पसंद किया जाना शायद सदियों तक ऐसे विचारों को आत्मसात करने का ही नतीजा है। रिलीजन, पैट्रिआर्की एंड कैपिटलिज्म पुस्तक की समीक्षा करते हुए राजेश कोमत जो कहते हैं, मैं यहां उद्धृत कर रही हूं :
‘चारों ओर से बंद यह मनोवृत्ति लड़कियों को आर्थिक बोझ समझकर स्त्री भ्रुणहत्या के विचार को बढ़ावा देती है। दहेज प्रथा और बेटी अपने पति की अमानत होती है इस विचार (जो एक प्रकार से स्त्री को पुरुष से बांधना है) के कारण स्त्री के साथ उसके अपने ही परिवार में एक महंगे जिंस के तौर पर बर्ताव होता है। विज्ञान और तकनीकी के संदर्भ में सामाजिक विकास के दौर में भी स्त्री को कोई वास्तविक लाभ होता नहीं प्रतीत होता। बल्कि जो देखा जा रहा है वह पीछे को जाने वाला सामाजिक आयाम है।’
पारंपरिक तौर पर एक राष्ट्र के तौर पर हमारा रुख औरत को देवी या पुरुष की संपत्ति के तौर पर देखने का रहा है, न कि उसके बराबर। औरत को देवी मानना बड़ा चतुर तरीका है, क्योंकि फिर उसे उच्च स्थान पर रहना पड़ता है और पितृसत्तात्मक समाज द्वारा उसके लिए बनाए गए उच्च आदर्शों के अनुसार अपना व्यवहार रखना होता है। ऐसा लगता है कि उस उच्च स्थान पर बने रहना महिलाओं को अच्छा लगता है और वे अपनी आतंरिक प्रेरणाओं के बावजूद बड़ा व्यक्तिगत मूल्य चुकाते हुए परिपूर्ण बने रहने के इस आदर्श से चिपकी रहती हैं। तो पुरुषों और महिलाओं दोनों की ही उत्कृष्ट उपलब्धियों के बावजूद मनोवृत्तियों में बदलाव की गति धीमी है। इन मनोवृत्तियों का प्रभाव हमारे सांस्कृतिक हलकों में रहा है और करवा चौथ, रक्षाबंधन, शिवरात्रि जैसे त्यौहारों में सेलिब्रेट होता है जो अपने परिवार की महिलाओं की सुरक्षा करने और उन्हें खुश रखने के पुरुष अहं को अपील करते हैं। इसलिए इसमें कोई अचरज नहीं कि सिनेमा, खासकर हिंदी सिनेमा जैसे व्यापक, लोकप्रिय और अति प्रत्यक्ष माध्यम ने भी इन सांस्कृतिक मिथकों को बनाए रखा है।
इससे पहले कि फिल्मों ने ऐसा किस तरह किया है, उस पर अपने विचार और स्वयं अपने अनुभवों की बात करूं, एक हाल का उदाहरण देना चाहूंगी जिस पर बात करना मुझे जरूरी लगता है। पता नहीं आपमें से कितनों ने दिल्ली पुलिस का जनसेवा में जारी विज्ञापन देखा है जिसमें फरहान अख्तर हमसे कहते हैं : ‘बी अ मैन, प्रोटेक्ट वीमेन’ (पुरुष बनें, महिलाओं की रक्षा करें)। लैंगिक समानता को जो बातें बेहद मुश्किल बनाती हैं, यह विज्ञापन मेरे विचार में उसका सुस्पष्ट उदाहरण है। आखिर इस संदेश का निहितार्थ क्या है? यह सिर्फ इस विचार को मजबूती देता है कि महिलाएं किसी तरह हीनतर हैं और उन्हें पुरुष द्वारा सुरक्षा की जरूरत है। यह सिर्फ यह दावा नहीं करता कि महिलाएं कमजोर हैं, बल्कि यह भी दर्शाता है सारे पुरुष शक्तिशाली होते हैं-जो सही नहीं है। आखिर 16 दिसंबर के वाकये का एक पीडि़त पुरुष भी था। जरूरत इस बात की है कि महिलाओं की सुरक्षा समान दर्जे के नागरिक के तौर पर सुनिश्चित की जाए, न कि इसलिए कि उन्हें दोनों लिंगों में कमजोर माना जाता है। लिंग पर ध्यान दिए बिना व्यवस्था को सुरक्षा मुहैया करानी चाहिए। इस बात की काफी संभावना है कि यह विज्ञापन पुरुषों को और भी हकदारी अहसास कराए। एक ऐसे समाज में जहां मनु के काल से महिलाओं को बताया गया है कि वे पुरुषों के आदेशानुसार जिएं, वहां ऐसा विज्ञापन अधिक उपयोगी नहीं हो सकता। बहुत से दीगर इश्तहार भी कोई बेहतर नहीं हैं। रोजाना ही लैंगिक स्टीरियोटाइप को मजबूत बनाने वाली छवियों की बमबारी हम पर होती रहती है : बैंकों, आईटी, कारों, रफ्तार, बुद्धिमत्ता और ज्ञान संबंधी योग्यताओं से जुड़ी कोई भी बात पुरुषों से जुड़ी होती हैं; जब सौंदर्य, गहनों, घर-परिवार और देखभाल का मामला हो तभी औरतें नजर आती हैं। बीमा कंपनियों के विज्ञापन हमें बार-बार बेटे की पढ़ाई के लिए और बेटी की शादी के लिए पैसा बचाने के लिए कहते हैं।
जब मैंने अपना कैरियर शुरू किया था तब न केवल सिनेमा में महिलाओं का चित्रण संदिग्ध था, बल्कि सिनेमा खुद कुछ-कुछ बदनाम पेशे के तौर पर देखा जाता था। भारतीय सिनेमा के जनक दादासाहेब फाल्के को 1913 में राजा हरिश्चंद्र में मुख्य अभिनेत्री की भूमिका के लिए एक पुरुष से संतोष करना पड़ा, क्योंकि समाज के किसी भी तबके से कोई भी स्त्री ऐसे गिरे हुए पेशे में काम करने को तैयार न थी। लगभग पचास सालों बाद 1957 में जब मैंने अपुर संसार में अभिनय किया तो मुझे स्कूल छोडऩे को कहा गया। प्रिंसिपल को लगा था कि दूसरी लड़कियों पर मेरी संगत का गलत असर पड़ेगा।1963 में कश्मीर की कली की शूटिंग के दौरान हुआ एक वाकया मुझे अच्छी तरह याद है, जब एक प्रतिष्ठित उद्योगपति परिवार की बेटी उस जगह पर आई। उस मौके पर खींची गई तस्वीरें फिल्मफेयर के मुखपृष्ठ पर आ गईं। एक फिल्म पत्रिका में अपनी बेटी के फिल्मस्टारों के साथ नजर आने के विचार से व्याकुल उस परिवार ने उस अंक की सारी प्रतियां खरीद डालीं।
उसके बाद से फिल्मों के प्रति सामाजिक रवैये में नाटकीय परिवर्तन आया है। आज हम दुनिया में फिल्मों के सबसे बड़े निर्माता हैं। हमारी फिल्मों की तकनीकी मामलों और निर्माण मूल्यों के संदर्भ में हुई प्रगति को नकारा नहीं जा सकता, मगर जब बात महिलाओं के चित्रण की होती है तो मुझे लगता है कि बदलाव महज दिखावटी हैं। कभी-कभी मुझे लगता है कि ‘चीजें जितनी अधिक बदलती हैं, उतनी ही वे जस की तस रहती हैं।’ वाली कहावत बिलकुल इसी के लिए बनाई गई होगी। फिल्में अब भी महिलाओं की ऐसी छवि आगे लाती हैं जो मुख्य रूप से सजावटी और दोयम दर्जे की है। अपवाद बेशक हैं। समानांतर सिनेमा, कुछ क्षेत्रीय सिनेमा औरतों को पूरी तरह अलग, अधिक बराबर और अधिक यथार्थपरक तौर पर चित्रित करता है। मगर देश में प्रधान फिल्म उद्योग तो मुख्यधारा का हिंदी सिनेमा है। यह सामाजिक और सांस्कृतिक रीति-रिवाजों को दर्शाता भी है और उन्हें प्रभावित भी करता है। सो आज की चर्चा में मैं इस खास धारा पर ही ध्यान केंद्रित करूंगी।
सिनेमा में महिलाओं की बात करें तो 30 का दशक प्रगतिशील दौर था। हमारे पास देविका रानी थीं। उनके अस्सी साल बाद भी उनके समकक्ष किसी और महिला निर्माता के बारे में मैं नहीं सोच पाती। फातिमा बेगम पहली भारतीय महिला निर्देशक थीं, जिन्होंने बुलबुल-ए-परिस्तान बनाई थी। दुर्गा खोटे थीं एक ब्राह्मण स्त्री, जिन्होंने फिल्मों में अभिनय करने का असाधारण फैसला उस समय लिया, जब उसे संदिग्ध पेशा माना जाता था। मेरी इवांस, जो निडर नाडिया के नाम से मशहूर थीं, के रूप में हमारे पास नारीवाद पद के लोकप्रिय होने के बहुत पहले से एक नारीवादी थीं।
40 के दशक में स्टूडियो युग के अवसान के साथ और गुणवत्ता के प्रति किसी भी प्रकार की प्रतिबद्धता के बिना तुरंत मुनाफा चाहने वाले लोगों के आगमन के साथ ही 30 के दशक वाले सिनेमा के वैचारिक बंधन टूट गए। सिनेमा एक सामाजिक फोरम से बदलकर एक व्यावसायिक उद्योग बन गया, जहां मनोरंजन सर्वोपरि था। चूंकि दर्शकों में अधिकतर पुरुष थे, तो फिल्म-निर्माण का अर्थशास्त्र उन्हीं के पक्ष में और भी झुकता गया। और तो और सारे फिल्मकार पुरुष होने की वजह से महिलाओं का चित्रण इस तरह किया जाने लगा कि वह दर्शकों के मर्दाना हिस्से को अपील करे और महिलाओं के प्रति और परिवार और समाज में उनकी जगह को लेकर किंचित पूर्वाग्रहग्रस्त रवैये को बल प्रदान करे।
फिर भी 1950 के दशक में सिनेमा में महिलाओं के चित्रण में कुछ संवेदनशीलता बाकी रही। बिमल रॉय की बंदिनी और सुजाता में मजबूत और यथार्थपरक महिला किरदार थे। मदर इंडिया में नरगिस ने जो भूमिका निभाई, वह संभवत: भारतीय सिनेमा के इतिहास में सबसे प्रतिष्ठित महिला किरदार है, वहीं मुगले-आजम में दूसरी यादगार महिला मधुबाला मुख्य भूमिका में थीं।
मगर मदर इंडिया और मुगले-आजम जैसी फिल्मों की सफलता से भी महिला चरित्र स्टीरियोटाइप हुए और जम-से गए – उन गौरवान्वित माताओं और दरियादिल तवायफों के सांचे में जो उन पुरुषों की खातिर अपनी खुशी को कुर्बान करने में धन्य होती हैं जिनके इर्द-गिर्द उनकी जिंदगी घूमती है। ऊपरी तौर पर असाधारण महिलाओं के विषय में होते हुए भी इन फिल्मों और इनसे प्रेरित पाकीजा, दीवार, तपस्या, उमरावजान और अन्य फिल्मों के निहितार्थ स्त्री के प्रति पुरुष दृष्टिकोण की तुष्टि करना था। यह बात और है कि इन फिल्मों की अदाकाराएं अपनी शानदार उपस्थिति और अभिनय से कथानक और अपनी भूमिकाओं को ऊचे दर्जे पर ले गईं और प्रेरक हस्तियां बन गईं। ‘गुणवान महिला स्टीरियोटाइप’ के संदर्भ में श्याम बेनेगल – जो अपनी फिल्मों में मजबूत, व्यक्तिवादी स्त्री चरित्र पेश करने वाले चुनिंदा फिल्मकारों में एक हैं – ने कहा है, ‘अच्छी मां, पत्नी, बहन – जो स्त्री द्वारा निभाई जाने वाली जरूरी भूमिकाएं हैं – होने में उसका गुण है जो भयानक किस्म का उत्पीडऩ है; ऐसा महिमा मंडन जो स्त्री को चुनने की आजादी नहीं देता।’
पचास के दशक के बाद वाले दशक खासतौर पर निराशाजनक रहे हैं, जिनमें औरतों का काम सिर्फ ऐसी ग्लैमरस माशूकाओं की भूमिका निभाना रह गया था, जिनका अस्तित्व सिर्फ नायकों के दैहिक सुख के लिए है और जो अपनी सुरक्षा और पूर्णताबोध केलिए पूरी तरह पुरुषों परआश्रित हैं। 80के दशक में तो चीजें गर्त में पहुंच गईं, जब फिल्मों में महिलाओं के प्रति जो अकल्पनीय हिंसा नजर आई, वह इस हद तक थी कि 60 और 70 के दशक का बेकार छिछोरापन सुखद लगने लगा। 60 के दशक की शुरुआत में गाइड और साहिब,बीवी और गुलाम ये दो फिल्मेंअलग से चमकती नजरआती हैं। दोनों में ही उल्लेखनीय महिला किरदारथे।
बेशक गुलजार, ऋषिकेश मुखर्जी और बासु चटर्जी जैसे समझदार निर्देशक भी थे, जिनकी फिल्मों में औरतों का चित्रण अलग और खुशगवार था। श्याम बेनेगल की अंकुर, भूमिका तथा अन्य कई फिल्मों में अच्छी तरह रचे गए महिला किरदारहैं। मगर ये सभी अपवादस्वरूप थे और मुख्यधारा के सिनेमा की उन बड़ी ब्लॉक बस्टर फिल्मों के सामने कहीं नहीं ठहरते थे, जो औरतों की जवां, खूबसूरत, मासूम फिरभी दिलकश, आसानी से बस मेंआ जानेवाली, फरमाबरदारऔरअपने परिवार तथा औरों को अपने से आगे रखने वाली छवि को बल देती रहीं। जैसाकि मैथिलि राव कहती हैं, पॉपुलर सिनेमा उस आदर्श का अनुमोदन करता है कि औरत की जगह घर है। अपनी समस्त ऊर्जाओं और बुद्धिमत्ता का उपयोग एक पुरुष को पाने औरउसकी ही रहने में ही उसका हित है। उसके लिए शादी जीवन का पासपोर्ट है और शादी और मातृत्व के घेरे में आने परऔर समाज के आदर्शों केसमक्ष झुक जाने पर ही वह खुश होती है।
मैंने खुद अपने अनुभव से देखा है कि विवाह और मातृत्व औरत की स्थिति कैसे बदल देते हैं। एक मर्तबा तो आराधना की भारी सफलता के बाद मैंने खुद को देर रात अपने तीन महीने के बेटे के साथ रेलवे स्टेशन पर फंसा हुआ पाया। जैसे तुरंत ही भीड़ इकट्ठी हो गई। इससे पहले भी भीड़ ने मुझे घेरा था और मैं डर गई थी। मगर इस बार बात और थी, क्योंकि अब मैं एक मां थी। तब मैंने महसूस किया कि विवाह और मातृत्व ने मेरे दर्शकों की नजर में मुझे अर्थवान बना दिया था, अब मैं सम्मान के योग्य थी।
वही भीड़ जो पहले मुझे देखकर सीटी बजाती थी, अब मेरे बैठने के लिए जगह ढूंढऩे को अधीर थी, यह सुनिश्चित करा रही थी कि मैं सुरक्षित हूं और यह कि मेरा बेटा आरामदायक स्थिति में है। यह सब इसलिए था कि अब मेरा शौहर था और मैं सिर्फ अभिनेत्री नहीं, बल्कि समाज की प्रामाणिक सदस्य थी। इस संदर्भ में मैं जिक्र करना चाहूंगी उन सलाहों की, जो शादी करने पर भारी मात्रा में मुझे मिली थीं। अटकलें लगाई गई थीं कि अगर मैं काम करती रही तो मेरी शादी सालभर भी नहीं टिक पाएगी। 1968 में हमारा समाज इस मामले में सामंती होते हुए भी यह बात स्वीकार कर सकता था कि कोई पुरुष किसी फिल्मी अदाकारा से शादी कर ले, मगर उसके बाद उसे अपना काम करने देना उनकी समझ से परे था। मेरी शादी ने काफी हद तक मीडिया और जनता की कल्पना से कसरत करवाई। जाहिर तौर पर वे उन तर्कों को मान चुके थे, जो हमारी फिल्में सामने रखती थीं कि शादी और कैरियर में कोई संगति नहीं हो सकती। फिर भी मेरे मामले में विवाह, मातृत्व और सफल फिल्मी कैरियर के संयोग से किसी प्रकार वैमनस्य उपजता प्रतीत नहीं हुआ। इसके फलस्वरूप काफी आश्चर्य, अटकलबाजी, कौतूहल और बहस देखने में आई क्योंकि जो बात फिल्में दिखा रही थीं और समाज उसका समर्थन कर रहा था, यह एकदम उसके उलट थी।
यही वह ‘क्लीशे’ हैं, जो हमारी फिल्मों में नजर आते हैं और उनसे बल पाते हैं। तर्क और भावना को विसंगत मान लिया जाता है। तर्क को पुरुष से जोड़कर देखा जाता है और उसकी कदर की जाती है तथा भावना को महिलाओं से जोड़कर उसकी बेकद्री। ताकतवर और फैसले लेने वाली भूमिकाएं पुरुषों को मिलती हैं और अच्छी-सच्ची भूमिकाएं औरतों को। कोई लड़की अपनी शर्तों पर जीवन शायद ही कभी जी पाती है। उसके भले के लिए उस पर नजर रखी जाती है, गश्त की जाती है। आज खाप पंचायतें इस बात को अलग स्तर पर ले गई हैं, यूं कि वे बताती हैं कि औरतों को कैसा बर्ताव करना चाहिए। उन पर कोई कानून लागू होता नजर नहीं आता। औरत को बार-बार यह बताया जाता है कि उसके क्रिया-कलापों से उसके परिवार और समुदाय का मान-सम्मान प्रभावित होता है। काम की जगहों पर भी उसे यही रवैया झेलना पड़ता है।
व्यवस्था पर सवाल उठाने वाली महिला को ‘डिफिकल्ट’ माना जाता है। समाधान ढूंढऩे की उसकी जरूरत अक्सर संस्थान की गरिमा बचाने की सामूहिक चिंता के आगे निष्प्रभ हो जाती है। लैंगिक उत्पीडऩ की शिकायतें अक्सर दर्ज नहीं की जातीं या दबा दी जाती हैं। समाज जो चीजें उन पर थोपता है या उनको लेकर जो निर्णय देता है, उन्हें औरतें अपने अंदर आत्मसात और समावेशित कर लेती हैं और स्वयं की परिभाषा पुरुषों के संदर्भ में खोजती हैं, इसमें कोई अचरज की बात नहीं। पितृसत्तात्मक संरचना को तोड़कर बाहर निकलना असंभव नहीं, मगर बहुत मुश्किल है।
टाइप कास्टिंग बचपन से ही शुरू हो जाती है। छोटे लड़के शरारती होते हैं, छोटी लड़कियां सुंदर होती हैं। लड़के बहादुर होते हैं, लड़कियां अच्छी होती हैं। औरतें देखभाल करती हैं और हमेशा पुरुषों के अधीन होती हैं। मुझे याद है जब मैं अपने तीन साल के बेटे को रात में कहानी सुना रही थी जिसमें मगरमच्छों से भरी एक नदी से मैं उसे बचाती हूं, उसकी व्यंग्यपूर्ण प्रतिक्रिया थी, ‘आप मुझे नहीं बचा सकतीं। आपकी मसल्स नहीं हैं, आप स्ट्रांग नहीं हो। मैं अब्बा से इसलिए प्यार करता हूं कि वह स्ट्रांग हैं और आपसे इसलिए कि आप अच्छी हैं।’
हमारी फिल्में इन्हीं विचारों को बल देती हैं। वे आधुनिकता को पैकेजिंग के मुद्दे में रिड्यूस कर देती हैं। पाश्चात्य वेशभूषा से आधुनिक महिला परिभाषित होती है। वे आधुनिक नजर आती हैं, मगर जब सुविज्ञ फैसले लेने की बारी आती है, तो वह पारंपरिक को चुनती है। शादी के लिए जब उसे समाज के सामने पेश होना होता है, उसी क्षण उसके पहनावे की संपूर्ण पारंपरिक मरम्मत की जाती है, क्योंकि अब उससे समूह का हिस्सा बन जाने की अपेक्षा है, समुदाय की खातिर उसके पृथक व्यक्तित्व को तज दिया जाता है। इंगित किया जाता है कि स्वयं को और अपनी आजादी को मुखर रूप से सामने रखने वाली आधुनिक महिला किसी को खुश नहीं कर सकती और न ही खुद खुश रह सकती है। अक्सर फिल्म के मध्यांतर से पहले वाले हिस्से में बहुत से नए और डाइनामिक विचार रखे जाते हैं, जो बाद वाले हिस्से में ढीले पड़ जाते हैं और समझौता कर लिया जाता है।
हाल ही में हमने द डर्टी पिक्चर और कहानी जैसी फिल्मों में औरतों को सेलेब्रेट किया है, मगर आगे सोचने पर द डर्टी पिक्चर में नायिका के शराबी बन जाने और खुदकुशी कर लेने से क्या दर्शकों को उस चरित्र को पीडि़त के तौर पर देखने को नहीं कहा गया? या फिर कहानी की नायिका को लें, जो अंत में कहती है उसे संपूर्णता और संतुष्टि का अहसास सिर्फ उसी समय हुआ ,जब वह गर्भवती होने का नाटक कर रही थी। उस सीन की कहां जरूरत थी? इसके अलावा पाश्र्व में अमिताभ बच्चन की आवाज जिसमें उसकी तुलना दुर्गा से की जाती है—जो फिर सदियों से स्त्री पर थोपी गई पारंपरिक भूमिका है, ये उस मकाम तक खासी मजबूत और अ-स्त्रैण नजर आती नायिका के समक्ष निर्देशक द्वारा स्वयं का बचाव या बीमा था।
मुख्य धारा के सिनेमा में कामकाजी महिलाओं की लगभग-मुकम्मल अनुपस्थिति जनप्रिय स्टीरियोटाइपिंग का एक और उदाहरण है। इस मामले में भी 50 का दशक आवारा, श्री 420, कागज के फूल जैसी फिल्मों के साथ बाद के दशकों के मुकाबले प्रगतिशील नजर आता है। अनुपमा, अनुराधा, गुड्डी और खूबसूरत जैसी महिला-केंद्रित फिल्में बनाने वाले ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों में तक महिलाएं विरले ही काम के लिए घर से बाहर निकलती हैं। इसमें अभिमान अपवाद है, जो पुरुषवादी मानसिकता की आलोचना थी। तर्क दिया जा सकता है कि 60 और 70 के दशक में जब मुखर्जी ने अपनी फिल्में बनाई थीं, तब हमारे यहां भले ही एक ताकतवर महिला प्रधानमंत्री थीं, मगर औरतें कम ही काम के लिए बाहर निकलती थीं।
इसी तर्क के आधार पर फिल्मों में महिलाओं की भूमिकाएं 90 के दशक में बदल जानी चाहिए थीं, जो ऐसा दौर था जब भारी संख्या में महिलाएं काम करने लगी थीं। मगर उस दशक को परिभाषित करने वाली चंद फिल्मों पर नजर डालें तो कुछ और ही तस्वीर सामने आती है। ऐसे दौर में जब ज्यादा से ज्यादा औरतें अपना कैरियर बनाने के लिए घर से बाहर निकलीं, सिनेमा में और भी ज्यादा औरतें घर पर रहीं। मैंने प्यार किया, हम आपके हैं कौन और दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे जैसी फिल्मों की मुख्य नायिकाएं अपने सपनों के राजकुमार का इंतजार करने और वैवाहिक आनंद के परीलोक में ले जाए जाने में खासी संतुष्ट हैं। इन सभी फिल्मों का साझा सूत्र यह है कि औरत की जगह उसका घर है और उसका काम अपने पति की देखभाल करना है क्योंकि पारंपरिक रूप से जीविकोपार्जन का काम पुरुष का है। कमाने की खातिर महिलाओं का घर से बाहर निकलना सदियों की पुरुष प्रभुसत्ता के लिए खतरा है। कामकाजी महिलाओं की अनुपस्थिति से या औरतों के काम करने को वैवाहिक झगड़ों का कारण बताकर फिल्म दर फिल्म इस स्टीरियोटाइप को बल देती हैं।
थ्री इडियट्स, जो हाल की सबसे बड़ी हिट फिल्मों में से है, में तक औरत के निरूपण में समस्या है। यहां औरत एक सफल और उत्कृष्ट प्रोफेशनल है, जो स्कूटर चलाती है और व्यवहार में ‘मॉडर्न’ है। मगर उसे इस सच्चाई का अहसास दिलाने के लिए हीरो की जरुरत पड़ती है कि वह जिसके साथ शादी कर रही है, उससे प्यार नहीं करती। बारंबार पुरुष की श्रेष्ठता पर जोर दिया जाता है।
इसके उलट मुझे नागेश कुकुनूर द्वारा निर्देशित फिल्म डोर याद आती है। जो मेरे विचार में एक निराली फिल्म है, क्योंकि यह न सिर्फ एक औरत को हाशिये पर पड़े एक पुरुष के समकक्ष रखती है और मुस्लिम महिला को अधिक बंधनमुक्त दर्शाती है, बल्कि इस फिल्म में एक युवा हिंदू राजस्थानी विधवा को दिखाने का साहस भी है जो रोती नहीं,नाचना चाहती है, संगीत सुनना चाहती है और जिसके लिए पति की मौत के साथ जिंदगी खत्म नहीं होती। व्यवस्था द्वारा रची गई सीमाओं के अंदर काम करते हुए भी पितृसत्तात्मक संरचना से बाहर आने का चुनाव करने वाली ऐसी फिल्में ही भविष्य में पॉपुलर सिनेमा में महिलाओं की रूपरेखा को परिभाषित करेंगी, ऐसी मुझे उम्मीद है।
दर्शकगण अभिनेता को देखने खिंचे आते हैं यह मान्यता आम है। अभिनेताओं को अपनी महिला सहकर्मियों के मुकाबले कहीं अधिक पैसा मिलता है। अगर कोई अभिनेता मेहमान कलाकार की भूमिका करने के लिए तैयार न हो, तो महिला-केंद्रित पटकथा पर फिल्म बनाने के लिए पैसा खड़ा करना बहुत मुश्किल है। कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो हीरोइन को हीरो के मुकाबले बहुत कम स्क्रीन स्पेस मिलती है। मुख्य अभिनेत्रियों का सिनेमा में कैरियर एक पुरुष के मुकाबले काफी छोटा होता है। पचास की उम्र छू रहे हीरो को बीस उम्र के पास वाली हीरोइन के साथ रोमांस करते हुए तो देखा जा सकता है, मगर इसका उल्टा शायद ही कभी देखने को मिले। किसी अमिताभ बच्चन या किसी अनुपम खेर और किसी नसीरुद्दीन शाह तक के लिए पटकथाएं खासतौर पर लिखी जाती हैं, मगर किसी प्रौढ़ होती अभिनेत्री के लिए ऐसा नहीं होता। यह सब इसलिए संभव है क्योंकि दर्शक, पुरुष और महिला दोनों, इस प्रकार की सोच का अनुमोदन करते हैं।
देखा जा सकता है कि कुछ ही फिल्में औरतों के प्रति पारंपरिक पुरुष नजरिए को तोड़ पाई हैं। इसके बावजूद औरत को, चाहे वह पोस्टरों पर हो या स्क्रीन पर या वास्तविक जिंदगी में, उस पर आने वाली विपत्तियों के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। लैंगिक हिंसा के लिए ‘प्रवृत्त’ करने वाली उत्तेजक अंदाज में कपड़े पहने हुई राह चलती औरत न हो तो दोष स्क्रीन पर दिखाई देने वाली आइटम गर्ल पर मढ़ा जाता है। समाज की कभी न हटने वाली निगाह हमेशा औरत पर होती है और बिरले ही पुरुषों के बर्ताव, आचरण और रवैये पर।
जहां एक ओर मैं इन छवियों की समालोचना के पूरी तरह हक में हूं, वहीं मैं यह भी पूछती हूं : क्या किसी एक संस्था, सिनेमा को दोषी ठहराना उचित होगा जब सारी संस्थाएं लैंगिक भेदभाव के अगर ज्यादा नहीं तो बराबर के दोषी हैं। चाहे वह कानून हो, प्रशासन हो, काम की जगहें हों, या परिवार का हृदयस्थल घर ही हो? और न्यायपालिका के बारे में क्या? अगर न्यायपालिका में ही, जो कुछ मात्रा में सम्मान जगाने वाले देश के चंद बचे हुए संस्थानों में से हैं, लैंगिक संवेदनशीलता नहीं है, तो सिर्फ सिनेमा को दोष क्यों दें?
आज टेलीविजन सबसे लोकप्रिय जनसंचार माध्यम है, जो लगभग पूरी तरह महिलाओं द्वारा चलाया जा रहा है और फिर भी अभी हम वहां क्या पाते हैं? टीवी के सबसे मकबूल फॉर्मूलों में से एक है सास और बहू के बीच चलता आ रहा तनाव। ‘सास-बहू’ समस्या की जड़ इस बात में है कि दोनों ही अपने आप को पुरुष के संदर्भ में देखती हैं। घर में कैद ये दोनों ही उसका स्नेह और उदारता हासिल करने की कोशिश में होती हैं और नतीजतन दोनों ही अपूर्ण जीवन जीती हैं। इन महिलाओं के जीवन के खालीपन को पति के अलावा हर चीज पर मढ़ा जाता है। जाहिर से पलायनवाद दिखाते हुए जन्मपत्री जैसी बाहरी बातें अक्सर संबंधों को बयां और निर्धारित करती हैं।
भारत का संविधान महिलाओं को समान अवसर और दर्जे की गारंटी देता है। वयस्क मताधिकार का सिद्धांत सत्ता को आकार देने और उसे बांटने में महिलाओं की पूर्ण सहभागिता सुनिश्चित कराने का यत्न करता है, मगर राजनीतिक उपयोगिता को हमने बार-बार इंसाफ पर तरजीह पाते देखा है। मसलन शाह बानो मामले में या संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मसले को जिस तरह सभी दलों के पुरुष सांसदों ने पटरी से उतारने की कोशिश की। और जैसा कि हमने अनेकों बार देखा है, अपराधियों के लिए कानून शायद ही एक निरोधक का काम करता है। 16 दिसंबर की हत्या और सामूहिक बलात्कार के बाद उभरे जनाक्रोश के बावजूद महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले कम नहीं हुए हैं। उलटे बलात्कार, तेजाब के हमले, महिलाओं के खिलाफ हिंसा स्थानिक हो गए हैं।
अभी-अभी हमने शर्मिंदगी तब झेली, जब सीबीआई निदेशक रंजीत सिन्हा खुद कह बैठे, ‘अगर आप बलात्कार से बच नहीं सकते, तो उसका मजा लीजिए।’ इस वक्तव्य की उचित ही आलोचना हुई, मगर आश्चर्य होता है यह देखकर कि मीडिया ने केवल नारीवादी समूहों की प्रतिक्रिया का उल्लेख किया। मीडिया ने आम जनता से पूछने या दरअसल इस वक्तव्य पर आदमियों की क्या प्रतिक्रिया रही, यह जानने की जहमत क्यों नहीं उठाई? क्या यह ऐसी बात नहीं है, जिसकी दोनों लिंग के लोग निंदा करें? सीबीआई के मुखिया के बतौर क्या उन्हें स्वयं अच्छा उदाहरण पेश नहीं करना चाहिए? अपने मातहतों को वह क्या संदेश दे रहे हैं?
और यह असंवेदनशीलता सिर्फ पुरुषों तक सीमित नहीं है। प्रभावशाली पदों पर बैठी ताकतवर महिलाओं ने नाजुक मौकों पर हानिकारक वक्तव्य दिए हैं। देर रात काम से लौटते हुए एक कामकाजी महिला को मार दिया जाता है और हमें बताया जाता है कि रात में बाहर निकलने का दुस्साहस औरतों को नहीं दिखाना चाहिए। महानगर के मध्यवर्ती इलाके में एक महिला के साथ बलात्कार होता है और फिर हम एक ताकतवर महिला को पुलिस की छानबीन में दखलंदाजी करते पाते हैं। हमारे माननीय सांसदों द्वारा आधुनिक महिलाओं का उपहास उड़ाने के लिए ‘डेंटेड-पेंटेड’, ‘परकटी’ इत्यादि जुमले हम लगातार सुनते रहते हैं, जो उनकी प्रतिगामी सोच को साफ-साफ उघाड़कर रख देता है। हमारे जैसे समाज में ऐसे कथनों के हानिकारक परिणामों का जितना आकलन किया जाए, कम है।
आज भारत में ‘महिला सशक्तिकरण’ सरकारी नारा है, जो हर पार्टी के घोषणापत्र में आता है। उसके बावजूद इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में भी हिंदुस्तानी औरत,जो कानून द्वारा रक्षित प्रतीत होती है, मीडिया द्वारा सेलेब्रेट की जाती है और एक्टिविस्टों द्वारा जिसकी हिमायत की जाती है, दोयम दर्जे की नागरिक ही बनी हुई है, एकदम जाहिर तौर पर ग्रामीण इलाकों में, मगर कुछ अर्थों में हर तरफ।
तस्वीर भले ही निराशाजनक नजर आती है, मगर हाल में बहुत सी बातें घटी हैं। कम से कम राजधानी में बात सुने जाने का माहौल है। आगे क्या होता यह देखने के लिए हम इंतजार करेंगे और उम्मीद भी कि कामकाजी महिलाओं के लिए नतीजा सकारात्मक होगा। एकमात्र तरीका है स्तरीय शिक्षा। इस तरह के फाउंडेशन भी इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण काम कर रहे हैं और जरूरत है कि हम उन्हें और आगे बढ़ाएं।
मगर ऐन मरी स्लॉटर जिस तरफ इशारा करती हैं, वह बात सबसे महत्त्वपूर्ण है : जब देखभाल और जीविकोपार्जन इन मानवीय जीवन के दो स्तंभों को हम समान महत्त्व देंगे, तभी औरत और मर्द काम की जगह पर और घर में बराबरी हासिल करेंगे। मैंने अपने बच्चों को सिखाया कि जब मैं काम के लिए जाऊं, तो वे कामना करें कि मुझे पूरे नंबर हासिल हों। परंपरागत रूप से पुरुषों के प्रभुत्व वाले क्षेत्रों में काम करने के लिए जब अधिक से अधिक औरतें बाहर आ रही हैं, तो घर के अंदर और बाहर उनके काम की कदर होनी चाहिए। ‘कामकाजी मां’ पद का पूरक ‘कामकाजी पिता’ को बनना होगा।
इसके लिए लोगों को, मुख्यत: खुद औरतों को, औरतों की जरूरतों के प्रति और उनसे की जा रही अपेक्षाओं के प्रति संवेदनशील बनाने की जरूरत है। समाज में औरत और मर्द की कथित भूमिका निर्धारित करने वाली सख्त रेखाओं को विलीन करने और हल्का बनाने की आवश्यकता है। आज पुरुषों के यहां जिन मुद्दों को वे घरेलू समझते हैं, उनमें हिस्सा लेने को लेकर भारी प्रतिरोध और अनिच्छा है। यह मुश्किल फैसला है और आगे का सफर आसान नहीं होगा। मगर मुझे उम्मीद है कि भविष्य में कभी जल्दी ही इस फोरम में और किसी वक्ता को यह कहने की तसल्ली मिलेगी कि हिंदुस्तानी औरतों ने इस फाउंडेशन के आदर्श वाक्य ‘द फ्रीडम टू चूज, द राइट टू एक्सेल’ (चुनाव करने की आजादी, श्रेष्ठतर होने का अधिकार)को साकार करने की दिशा में काफी तरक्की कर ली है।
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