शकील सिद्दीक़ी
यह अनुमान लगा पाना निश्चय ही कठिन था कि नृत्य व अभिनय के क्षेत्र में 80 वर्ष तक निरन्तर सक्रिय रहने वाली नितांत चुलबुली हंसोड़, बिन्दास, नित नई बुलन्दी छूने वाली ज़ोहरा सहगल कैन्सर जैसे जान लेवा रोग से ग्रस्त थीं। ये अनुमान लगा पाना भी कठिन था कि उस थिरकन, हास्य व लय का नित नया अनुभव देने वाली जीवट खिलंदड़ी महिला के भीतर अवसाद की आॅधियां भी मचलती थीं। प्रशंसकों, कलाकारों, प्रोग्राम प्रोडयूसरों से घिरी रहने वाली दो बच्चों की मां पचास वर्ष से कम की वय में एकांत के स्थाई यथार्थ को जीने पर मजबूर हुई। फिर भी मुसीबत के क्षण हों या कामयाबियों से मिली प्रसन्नता के लम्हे, न तो उनके व्यक्त्वि की गरिमा पर कोई आँच आई न खिले-खिले से चेहरे पर कोई शिकन। मुक्तभाव से अनार के दाने जैसी उनकी हंसी उतनी ही सुर्ख़ बनी रही। बाधाओं को पार करते हुए लगातार आगे बढ़ने का मूल्यवान सन्देश वे उसी आवेग से देती रहीं। उनकी प्रत्येक गतिविधि से जीवन राग-थिरकता था। जैसे वे कह रही हों सीखो-सीखो, सीखो प्रत्येक क्षण, प्रत्येक दिन, ख़तरे उठाओ और जीवन को बदलो। उनका समूचा जीवन ठहराव व जड़ता से स्थाई चिढ़ का प्रतीक है।
निर्भीक, बिन्दास और अद्वितीय अभिनेत्री-नृत्यांगना ज़ोहरा सहगल से मैं मिला अवश्य परन्तु उनसे गुफ़्तगू मेरी अतृप्त इच्छा बनकर रह गयी यों तो उन्हें देखना उन्हें बोलते हुए सुनना ही अपने आप में मूल्यवान अनुभव से समृद्ध होना था। निस्वानियत की बन्दिशों को धता बताती उनकी बेबाक हँसी, नाटकों व फ़िल्मों में बोले गये संवादों का उनका दोहराना, अतीत में लौटते हुए उनका श्रोताओं को रोमांच से भर देना सब गहरे तक प्रभावित करता था। अब वह सब भी यादों का हिस्सा हो गया है। उनका स्मरण विचलित करता है ।सृजनात्मकता को जीवन शैली की उच्चता देते हुए वो स्वयम् सृजना की बे जोड़ शिल्प के रूप में स्थापित हुर्इं।
उन्हें याद करते हुए एक पारम्परिक मुस्लिम पठान परिवार की कंटीले बाड़ों के बीच पली-बढ़ी वर्जनाओं बन्धनों को तोड़ती स्त्री का अपूर्व साहस याद आता है। वो विद्रोह याद आता है जो उनकी पांच बहनों में कम से कम तीन बहनों, हाजरा, ज़ोहरा, तथा उज़रा की पहचान बना। हाजरा अपने समय में बीसवीं सदी के चैथे-पांचवे दशक तथा आगे की सक्रिय कम्युनिस्ट कार्यकर्ता थीं। परिवार की इच्छा के विपरीत उन्होंने जुझारू कम्युनिस्ट नेता जे़ड. ए. अहमद से न केवल प्रेम-विवाह किया बल्कि ज़ोहरा सहगल द्वारा उदय शंकर मंडली के अत्यंत प्रतिभावन कलाकार कामेश्वर सहगल से विवाह करने की इच्छा को तमाम विपरीतताओं-अवरोधों के बावजूद पूरा करने में भर पूर मदद की। प्रगतिशील लेखन आन्दोलन, मज़दूर आन्दोलन तथा महिला आन्दोलनों को भी उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। पर्दाप्रथा से सम्बद्ध परिवार की सदस्य होने के बावजूद सार्वजनिक जीवन व रंगमंच में ज़ोहरा व उज़रा के प्रवेश को संभव बनाने में अपनी बहनों व दूसरे परिजनों की सोच को आधुनिक व प्रगतिशील दिशा देने में भी उनकी कोशिशों को याद किया जा सकता है।
वहीं छोटी बहन उज़रा सुन्दर तो थीं ही उनमें अभिनय की प्रतिभा भी कूट-कूट कर भरी हुई थी। इप्टा के पहले नाटक ‘‘ज़ुबैदा में नायिका के रूप में उनके अभिनय से पृथ्वी राजकपूर इतना प्रभावित हुए कि उन्हें पृथ्वी थियेटर्स के पहले नाटक ‘शकुन्तला’ की नायिका के लिये सबसे उपयुक्त मान लिया। ‘शकुन्तला’ से आरंभ हुई यह यात्रा उनके सत्रह नाटकों तक जारी रही। उज़रा ने पृथ्वी थियेटर्स के साथ देश के अनेक क्षेत्रों के साथ दूसरे देशों की यात्राएं भी कीं।
27 अप्रैल 1912 को सहारनपुर में जन्मी ज़ोहरा जन्मजात विद्रोही थीं। ‘होनहार बिरवा के चिकने पात’ बहुत छोटी उम्र से प्रकट होने लगे थे। सातवीं सदी में यहूदी से मुसलमान बना रूहेला पठानों का यह परिवार झीनी-झीनी आधुनिकता के प्रति उत्साहित होने के बावजूद स्त्री-शिक्षा के प्रति बहुत आग्रही नहीं था। सर सैयद की सोच का प्रभाव यहाँ भी था। बर्फ तो तब पिघली जब 1919 में हाजरा व ज़ोहरा का प्रवेश सैकड़ों मील दूर लाहौर के प्रसिद्ध अंग्रेजी स्कूल ‘‘क्वीन मैरीज़‘‘ मे कराया गया। ऐसा इस कारण भी हो सकता है कि वहां आधुनिक शिक्षा के बावजूद पर्दे की पाबन्दी थी। ज़ोहरा ने पढ़ाई में नये कीर्तिमान बनाते हुए कालेज के वातावरण को संस्कृतिमय बनाने में सक्रिय भूमिका ली। उन्हें दो बार डबुल प्रमोशन मिले फिर भी दसवीं की परीक्षा में बैठने से रोक दिया गया क्यांेकि वह इस परीक्षा के लिए निर्धारित उम्र से पहले दसवीं कक्षा में पहँुच गयी थीं। यही वो जगह थी जहां उनमें अभिनय प्रतिभा के प्रारंभिक कोंपल फूटे ‘^The Rose and the Ring’ नाटक में अभिनय-शिखर की ओर उनकी यात्रा का आग़ाज़ था।
थोड़े अन्तराल के उपरांत ही दस वर्ष की आयु में ‘‘जैक एंड द बीन स्टाक‘‘ नाटक में वो जैक के रूप में मंच पर प्रस्तुत थीं। उधर गर्मियों की छुटिटयों में उनके बड़े भाई ज़काउल्लाह ख़ान प्रत्येक सप्ताह एक नाटक तैयार करते जिसमें नायिका ज़ोहरा होतीं तो भाई नायक की भूमिका में। घर से लेकर कालेज तक में यह धारणा प्रबल होती जा रही थी कि यह लड़की एक दिन बड़ी अभिनेत्री बनेगी। 1929 में दसवीं कक्षा उत्तीर्ण करते-करते वे 17वें वर्ष में प्रवेश कर चुकी थी। इस उम्र तक उस समय लड़कियों की शादी हो जाना एक अनिवार्य सिद्धांत की तरह था। लेकिन जैसा मैं पहले भी कह आया हूं कि विद्रोह के तत्व उनके भीतर कूट-कूट कर भरे हुए थे। उनका तब तक का जीवन रूढ़ियों, परम्पराओं व वर्जनाओं से मुठभेड़ में गुज़रा था। शादी के मामले में भी उन्होंने परिवार के दबाव के आगे झुकना स्वीकार नहीं किया। अगस्त 1935 में उदयशंकर की अति विख्यात नृत्य-नाट्य मंडली से उनका जुड़ना स्वयम् उनके लिये, उदयशंकर और उनकी मंडली के लिए और भारतीय नाट्य व नृत्य के लिए भी एक सुखद संयोग तथा महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। दो एक दम भिन्न शिल्प व शैलियों के किसी हद तक संस्कारों के भी समन्वय व मिश्रण की शुरूआत थी।
एक तरह से यह उनकी लगातार प्रखर होती प्रतिभा का सर्वाधिक उत्तेजनापूर्ण विस्फोटक काल था। मंडली की मुख्य प्रशिक्षका ऐलिस ने उनका स्वागत अकड़ी हुई लड़की के रूप में किया। यहां उन्होंने मात्र ग्यारह दिनों में फ्रेंच प्रभाव वाले बारह डांस सीखने का कीर्तिमान बनाया। 8 अगस्त 1935 को कलकत्ता के ‘द न्यू एम्पायर थियेटर’ में उदयशंकर के साथ उनका पहला शो हुआ। 18 वर्षो पर फैला यह साथ 1953 में गहरे अवसाद के साथ अवसान ग्रस्त हुआ। समुद्र का वेग जैसे ठहर गया था। दोनों ने भारतीय नाटय व नृत्य परम्परा में कई जड़ताओं को तोड़ा तथा अनेक नई निर्मितियों को संभव बनाया था। कलात्मकता ने अधिक मधुर लय अर्जित की थी। विदेशों में भारतीय नृत्य को पहचान दिलवाने में दोनों का बहुमूल्य योगदान है।
इस बीच ज़ोहरा तथा छोटी बहन उज़रा जन व लोक नाट्य में विचारोन्मुख क्रांतिकारी तब्दीलियों को संभव कर सकने वाले जन प्रतिबद्ध भारतीय जन नाट्य संघ व पृथ्वी थियेटर्स के सम्पर्क में आयीं। कला के सामाजिक सरोकारों से जुड़कर सोद्देश्यता प्राप्त करने का ये ऐतिहासिक अवसर था। वो बाम्बे इप्टा की उपाध्यक्ष भी बनायी गयीं। इप्टा के साम्प्रदायिकता, दमन व शोषण विरोधी अभियानों का वो अभिन्न हिस्सा थीं। बंगाल के अकाल पीड़ितों की सहायता अभियानों से भी वो सम्बद्ध हुई। एक अकेले कन्सर्ट के ज़रिए उन्होंने अकाल पीड़ितों के लिए 42000@रू0 जमा किये।
मंच पर सक्रियता के दौरान फ़िल्मों में विभिन्न चरित्र निभाने के प्रस्ताव उन्हें मिलते रहे। उन्होंने लगभग 30 भारतीय व विदेशी फ़िल्मों में विभिन्न चरित्र अभिनीत किए। भारत में उनकी अधिक फ़िल्में सन् 90 के बाद की हैं। यों उनकी पहली फिल्म इप्टा के दौर की ‘धरती के लाल’ थी। लगभग इतने ही नाटकों में उन्हें अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर प्राप्त हुआ। लगभग दस टी.वी. धारावाहिकों में काम किया तो लन्दन में ऐसे धारावाहिकों की संख्या तक़रीबन छै है। जहां तक लन्दन में किए गये उनके काम का सम्बन्ध है तो ‘डाउन एवरी स्अंीट’ तथा ‘द यर्निंग’ को काफ़ी ख्याति प्राप्त हुई। मदीहा गौहर (पाकिस्तान) के निर्देशन में मंचित ‘एक थी नानी’ में उनके चरित्र के कारण उन्हें लाहौर, कराची, लन्दन के अतिरिक्त दूसरे शहरों में भी हाथों- हाथ लिया गया। ठीक वैसे ही जैसे दूरदर्शन का धारावाहिक ‘‘मुल्ला नसीरूददीन‘‘ ने उन्हें घर-घर के बुज़ुर्ग की हैसियत दिला दी।
अदभुत है उनका परिश्रम और अभिनय। हबीब तनवीर, इब्राहीम अल्का जी, अमीर रज़ा, सुहैला कपूर जैसे ख्यात-प्रतिष्ठित हस्तियों के निर्देशन में अभिनय के नये शिखर स्थापित किए। प्रसिद्ध जैदी सिस्टर्स के साथ भी काम किया। कितनी फ़िल्में तो केवल उनके कारण देखी गयी। भंसाली की सांवरिया उनकी अन्तिम फ़िल्म थी। वो दिलों में बस जाने वाली अभिनेत्री थीं। मंच पर वो चाहे जितना रौद्र रूप धारण कर लें, उनके हाथ में छुरी हो या लाठी, आंखें उनकी चाहे जितनी फैल गयीं हों, अधर चाहे जितना मुस्कान विहीन हो, उनके चेहरें की एक-एक लकीर से मानवीय संवेदना फूटी पड़ती थी। विश्व का शायद ही ऐसा कोई इलाक़ा हो जहाँ उन्होंने अपने अभिनय या नृत्य प्रतिभा का लोहा न मनवाया हो। यहां तक कि अरब व अफ्रीक़ी देशों में। जिस विराटता में उन्होंने विश्व का भ्रमण किया उतनी ही सवदयता से उन्होंने अलग-अलग क्षेत्रों की कला विशिष्टताओं को ग्रहण भी किया। लन्दन के एक स्कूल में जहाँ उन्होंने नाट्य प्रशिक्षण लिया तो अन्तोन चेख़व के भतीजे मीशेल से अभिनय के गुर सीखे। स्तालिनावस्की नाटय शैली की बारीकियों को समझा। पृथ्वीराज कपूर से भी उन्होंने लगातार सीखा। उदयशंकर की मंडली में रहते हुए उन्होंने उनसे तो बहुत कुछ ग्रहण किया ही, यूरोपियन एवं भारतीय नृत्य गुरूओं से भी कुछ पाने को भी लगातार लालायित रहीं। सीखने की असीम इच्छा, कठिन परिश्रम तथा अभिनय व नृत्य के प्रति समर्पण ने ही उन्हें महान कलाकार बनाया और उनके सपनों की मूर्तता को संभव किया।
सच पूछिये तो उनके स्वप्नों में रंग भरने में उनके परिवार के पुरूषों, पिता मामाओं और भाइयों की दिलचस्पी और मदद का भी विशेष महत्व है। विशेष रूप से उनके एक मामा साहबजादा सैदुज़्ज़फ़र खान जो अपने समय के अत्यंत प्रतिष्ठित सर्जन थे, कालांतर में उन्हें लखनऊ मेडिकल कालेज का पहले भारतीय प्रिंसिपल होने का गौरव भी प्राप्त हुआ। इस सराय फ़ानी से रूख़्सत होते हुए उनकी मां की यह ख़्वाहिश भी बहुत अहम है कि ‘‘मेरी जायदाद से मिलने वाली रक़म मेरी बेटियों की तालीम पर ख़र्च की जाए।‘‘बड़ी बहन हाजरा बेगम तथा बहनोई कामरेड ज़ेड.ए. अहमद की मदद व रहनुमाई भी बहुत काम आई। अभावों, बेघरी और आजीविका का निश्चित स्थाई साधन न होने के कारण कई बार जीवन अधिक कठिन हो आया। बावजूद इसके कि प्रदर्शनों से उन्हें पर्याप्त आय होती रही थी। कठिनाई निरन्तरता के टूट जाने, कुछ उम्र के बढ़ते जाने तथा कामेश्वर की असफलताओं के कारण पैदा हुई।
एक सौ दो वर्ष की जीवन यात्रा में युवा काल के बाद उन्हें कई तरह के संघर्षो से गुज़रना पड़ा। हर बार वो बाधाओं के समक्ष मजबूत चटटान के समान खड़ी हुईं। अवरोध पराजित हुआ परन्तु कामेश्वर लगातार मिलती असफलताओं के कारण हिम्मत हार गये। वैधव्य ने जीवन को अधिक संघर्ष व चुनौती पूर्ण बना दिया। जीवन यापन के लिए उन्होंने विदेश, व देश में कई तरह की नौकरियां कीं। श्रीमती इन्दिरा गांधी के शासनकाल में उन्हें अवश्य कुछ आसानियां प्राप्त हुई। उन्हें अकादमियों का अध्यक्ष व कुछ संस्थाों का प्रमुख बनाया गया। लेकिन भारतीय कला की बहुमूल्य सेवा करने तथा विश्व के कई हिस्सों में उसके विशिष्ट गौरव का दर्शन कराने वाली उस बेजोड़ कलाकार को, पण्डित नेहरू जिनका बहुत सम्मान करते थे, बार-बार अनुरोध करने के बाद भी भारत सरकार एक सरकारी मकान नहीं दे सकी।
कामेश्वर से विवाह के बाद दोनों अपने धार्मिक विश्वासों पर क़ायम रहे। फिर भी धर्म उनके जीवन की गति में बाधा नहीं बन सका। उनकी एक मात्र पुत्री किरण तथा एक मात्र पुत्र पवन ने हिन्दू धर्म के विश्वासों से अधिक निकटता अनुभव की। जबकि ज़ोहरा नास्तिकता की ओर अग्रसर थीं। उन्होंने इच्छा प्रकट की थी कि उनके निधनोपरांत उनके शव को वि़द्युत शवदाह गृह में नज़्रे आतिश कर दिया जाये तथा कोई धार्मिक कर्म काण्ड न किया जाये। बावजूद इसके उनका संस्कार वैदिक तरीके़ से मंत्रोच्चार के बीच चिता पर हुआ। ये एक बेजोड़ दृढ़ता वाली बेमिसाल महिला का दुखद अवसान था। इतना संतोष अवश्य है कि जावेद अख़्तर व शबाना आजमी की उपास्थिति में वहां ‘‘ज़ोहरा सहगल लाल सलाम‘‘ के नारे अवश्य लगे। ‘‘अपनी वसीयत में मैंने लिखा है कि जब मैं मरूँ तो मैं नहीं चाहती कि तब किसी तरह का धार्मिक या कला से जुड़ा कार्यक्रम हो। अगर शव-दाह गृह के लोग मेरी राख रखने से मना करें तो मेरे बच्चे उसे मेरे घर लाकर टायलेट में बहा दें... इससे घिनौना कुछ नहीं हो सकता कि किसी मरे हुए आदमी का कोई हिस्सा शीशे के जार में रखकर सजाया गया हो‘‘। (‘आत्मकथा से‘)
उन्होंने न केवल अभिनय और नृत्य का उत्तेजक घटनापूर्ण इतिहास रचा बल्कि उसके विकास और विस्तार की अनन्य संभावनायें भी निर्मित कीं। अनेकानेक युवतियों को वर्जनायें तोड़ने एवं इस कला क्षेत्र से जुड़ने के लिए प्रेरित किया।
शकील सिद्दीक़ी, संपर्क-09839123525
यह अनुमान लगा पाना निश्चय ही कठिन था कि नृत्य व अभिनय के क्षेत्र में 80 वर्ष तक निरन्तर सक्रिय रहने वाली नितांत चुलबुली हंसोड़, बिन्दास, नित नई बुलन्दी छूने वाली ज़ोहरा सहगल कैन्सर जैसे जान लेवा रोग से ग्रस्त थीं। ये अनुमान लगा पाना भी कठिन था कि उस थिरकन, हास्य व लय का नित नया अनुभव देने वाली जीवट खिलंदड़ी महिला के भीतर अवसाद की आॅधियां भी मचलती थीं। प्रशंसकों, कलाकारों, प्रोग्राम प्रोडयूसरों से घिरी रहने वाली दो बच्चों की मां पचास वर्ष से कम की वय में एकांत के स्थाई यथार्थ को जीने पर मजबूर हुई। फिर भी मुसीबत के क्षण हों या कामयाबियों से मिली प्रसन्नता के लम्हे, न तो उनके व्यक्त्वि की गरिमा पर कोई आँच आई न खिले-खिले से चेहरे पर कोई शिकन। मुक्तभाव से अनार के दाने जैसी उनकी हंसी उतनी ही सुर्ख़ बनी रही। बाधाओं को पार करते हुए लगातार आगे बढ़ने का मूल्यवान सन्देश वे उसी आवेग से देती रहीं। उनकी प्रत्येक गतिविधि से जीवन राग-थिरकता था। जैसे वे कह रही हों सीखो-सीखो, सीखो प्रत्येक क्षण, प्रत्येक दिन, ख़तरे उठाओ और जीवन को बदलो। उनका समूचा जीवन ठहराव व जड़ता से स्थाई चिढ़ का प्रतीक है।
निर्भीक, बिन्दास और अद्वितीय अभिनेत्री-नृत्यांगना ज़ोहरा सहगल से मैं मिला अवश्य परन्तु उनसे गुफ़्तगू मेरी अतृप्त इच्छा बनकर रह गयी यों तो उन्हें देखना उन्हें बोलते हुए सुनना ही अपने आप में मूल्यवान अनुभव से समृद्ध होना था। निस्वानियत की बन्दिशों को धता बताती उनकी बेबाक हँसी, नाटकों व फ़िल्मों में बोले गये संवादों का उनका दोहराना, अतीत में लौटते हुए उनका श्रोताओं को रोमांच से भर देना सब गहरे तक प्रभावित करता था। अब वह सब भी यादों का हिस्सा हो गया है। उनका स्मरण विचलित करता है ।सृजनात्मकता को जीवन शैली की उच्चता देते हुए वो स्वयम् सृजना की बे जोड़ शिल्प के रूप में स्थापित हुर्इं।
उन्हें याद करते हुए एक पारम्परिक मुस्लिम पठान परिवार की कंटीले बाड़ों के बीच पली-बढ़ी वर्जनाओं बन्धनों को तोड़ती स्त्री का अपूर्व साहस याद आता है। वो विद्रोह याद आता है जो उनकी पांच बहनों में कम से कम तीन बहनों, हाजरा, ज़ोहरा, तथा उज़रा की पहचान बना। हाजरा अपने समय में बीसवीं सदी के चैथे-पांचवे दशक तथा आगे की सक्रिय कम्युनिस्ट कार्यकर्ता थीं। परिवार की इच्छा के विपरीत उन्होंने जुझारू कम्युनिस्ट नेता जे़ड. ए. अहमद से न केवल प्रेम-विवाह किया बल्कि ज़ोहरा सहगल द्वारा उदय शंकर मंडली के अत्यंत प्रतिभावन कलाकार कामेश्वर सहगल से विवाह करने की इच्छा को तमाम विपरीतताओं-अवरोधों के बावजूद पूरा करने में भर पूर मदद की। प्रगतिशील लेखन आन्दोलन, मज़दूर आन्दोलन तथा महिला आन्दोलनों को भी उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। पर्दाप्रथा से सम्बद्ध परिवार की सदस्य होने के बावजूद सार्वजनिक जीवन व रंगमंच में ज़ोहरा व उज़रा के प्रवेश को संभव बनाने में अपनी बहनों व दूसरे परिजनों की सोच को आधुनिक व प्रगतिशील दिशा देने में भी उनकी कोशिशों को याद किया जा सकता है।
वहीं छोटी बहन उज़रा सुन्दर तो थीं ही उनमें अभिनय की प्रतिभा भी कूट-कूट कर भरी हुई थी। इप्टा के पहले नाटक ‘‘ज़ुबैदा में नायिका के रूप में उनके अभिनय से पृथ्वी राजकपूर इतना प्रभावित हुए कि उन्हें पृथ्वी थियेटर्स के पहले नाटक ‘शकुन्तला’ की नायिका के लिये सबसे उपयुक्त मान लिया। ‘शकुन्तला’ से आरंभ हुई यह यात्रा उनके सत्रह नाटकों तक जारी रही। उज़रा ने पृथ्वी थियेटर्स के साथ देश के अनेक क्षेत्रों के साथ दूसरे देशों की यात्राएं भी कीं।
27 अप्रैल 1912 को सहारनपुर में जन्मी ज़ोहरा जन्मजात विद्रोही थीं। ‘होनहार बिरवा के चिकने पात’ बहुत छोटी उम्र से प्रकट होने लगे थे। सातवीं सदी में यहूदी से मुसलमान बना रूहेला पठानों का यह परिवार झीनी-झीनी आधुनिकता के प्रति उत्साहित होने के बावजूद स्त्री-शिक्षा के प्रति बहुत आग्रही नहीं था। सर सैयद की सोच का प्रभाव यहाँ भी था। बर्फ तो तब पिघली जब 1919 में हाजरा व ज़ोहरा का प्रवेश सैकड़ों मील दूर लाहौर के प्रसिद्ध अंग्रेजी स्कूल ‘‘क्वीन मैरीज़‘‘ मे कराया गया। ऐसा इस कारण भी हो सकता है कि वहां आधुनिक शिक्षा के बावजूद पर्दे की पाबन्दी थी। ज़ोहरा ने पढ़ाई में नये कीर्तिमान बनाते हुए कालेज के वातावरण को संस्कृतिमय बनाने में सक्रिय भूमिका ली। उन्हें दो बार डबुल प्रमोशन मिले फिर भी दसवीं की परीक्षा में बैठने से रोक दिया गया क्यांेकि वह इस परीक्षा के लिए निर्धारित उम्र से पहले दसवीं कक्षा में पहँुच गयी थीं। यही वो जगह थी जहां उनमें अभिनय प्रतिभा के प्रारंभिक कोंपल फूटे ‘^The Rose and the Ring’ नाटक में अभिनय-शिखर की ओर उनकी यात्रा का आग़ाज़ था।
थोड़े अन्तराल के उपरांत ही दस वर्ष की आयु में ‘‘जैक एंड द बीन स्टाक‘‘ नाटक में वो जैक के रूप में मंच पर प्रस्तुत थीं। उधर गर्मियों की छुटिटयों में उनके बड़े भाई ज़काउल्लाह ख़ान प्रत्येक सप्ताह एक नाटक तैयार करते जिसमें नायिका ज़ोहरा होतीं तो भाई नायक की भूमिका में। घर से लेकर कालेज तक में यह धारणा प्रबल होती जा रही थी कि यह लड़की एक दिन बड़ी अभिनेत्री बनेगी। 1929 में दसवीं कक्षा उत्तीर्ण करते-करते वे 17वें वर्ष में प्रवेश कर चुकी थी। इस उम्र तक उस समय लड़कियों की शादी हो जाना एक अनिवार्य सिद्धांत की तरह था। लेकिन जैसा मैं पहले भी कह आया हूं कि विद्रोह के तत्व उनके भीतर कूट-कूट कर भरे हुए थे। उनका तब तक का जीवन रूढ़ियों, परम्पराओं व वर्जनाओं से मुठभेड़ में गुज़रा था। शादी के मामले में भी उन्होंने परिवार के दबाव के आगे झुकना स्वीकार नहीं किया। अगस्त 1935 में उदयशंकर की अति विख्यात नृत्य-नाट्य मंडली से उनका जुड़ना स्वयम् उनके लिये, उदयशंकर और उनकी मंडली के लिए और भारतीय नाट्य व नृत्य के लिए भी एक सुखद संयोग तथा महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। दो एक दम भिन्न शिल्प व शैलियों के किसी हद तक संस्कारों के भी समन्वय व मिश्रण की शुरूआत थी।
एक तरह से यह उनकी लगातार प्रखर होती प्रतिभा का सर्वाधिक उत्तेजनापूर्ण विस्फोटक काल था। मंडली की मुख्य प्रशिक्षका ऐलिस ने उनका स्वागत अकड़ी हुई लड़की के रूप में किया। यहां उन्होंने मात्र ग्यारह दिनों में फ्रेंच प्रभाव वाले बारह डांस सीखने का कीर्तिमान बनाया। 8 अगस्त 1935 को कलकत्ता के ‘द न्यू एम्पायर थियेटर’ में उदयशंकर के साथ उनका पहला शो हुआ। 18 वर्षो पर फैला यह साथ 1953 में गहरे अवसाद के साथ अवसान ग्रस्त हुआ। समुद्र का वेग जैसे ठहर गया था। दोनों ने भारतीय नाटय व नृत्य परम्परा में कई जड़ताओं को तोड़ा तथा अनेक नई निर्मितियों को संभव बनाया था। कलात्मकता ने अधिक मधुर लय अर्जित की थी। विदेशों में भारतीय नृत्य को पहचान दिलवाने में दोनों का बहुमूल्य योगदान है।
इस बीच ज़ोहरा तथा छोटी बहन उज़रा जन व लोक नाट्य में विचारोन्मुख क्रांतिकारी तब्दीलियों को संभव कर सकने वाले जन प्रतिबद्ध भारतीय जन नाट्य संघ व पृथ्वी थियेटर्स के सम्पर्क में आयीं। कला के सामाजिक सरोकारों से जुड़कर सोद्देश्यता प्राप्त करने का ये ऐतिहासिक अवसर था। वो बाम्बे इप्टा की उपाध्यक्ष भी बनायी गयीं। इप्टा के साम्प्रदायिकता, दमन व शोषण विरोधी अभियानों का वो अभिन्न हिस्सा थीं। बंगाल के अकाल पीड़ितों की सहायता अभियानों से भी वो सम्बद्ध हुई। एक अकेले कन्सर्ट के ज़रिए उन्होंने अकाल पीड़ितों के लिए 42000@रू0 जमा किये।
मंच पर सक्रियता के दौरान फ़िल्मों में विभिन्न चरित्र निभाने के प्रस्ताव उन्हें मिलते रहे। उन्होंने लगभग 30 भारतीय व विदेशी फ़िल्मों में विभिन्न चरित्र अभिनीत किए। भारत में उनकी अधिक फ़िल्में सन् 90 के बाद की हैं। यों उनकी पहली फिल्म इप्टा के दौर की ‘धरती के लाल’ थी। लगभग इतने ही नाटकों में उन्हें अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर प्राप्त हुआ। लगभग दस टी.वी. धारावाहिकों में काम किया तो लन्दन में ऐसे धारावाहिकों की संख्या तक़रीबन छै है। जहां तक लन्दन में किए गये उनके काम का सम्बन्ध है तो ‘डाउन एवरी स्अंीट’ तथा ‘द यर्निंग’ को काफ़ी ख्याति प्राप्त हुई। मदीहा गौहर (पाकिस्तान) के निर्देशन में मंचित ‘एक थी नानी’ में उनके चरित्र के कारण उन्हें लाहौर, कराची, लन्दन के अतिरिक्त दूसरे शहरों में भी हाथों- हाथ लिया गया। ठीक वैसे ही जैसे दूरदर्शन का धारावाहिक ‘‘मुल्ला नसीरूददीन‘‘ ने उन्हें घर-घर के बुज़ुर्ग की हैसियत दिला दी।
अदभुत है उनका परिश्रम और अभिनय। हबीब तनवीर, इब्राहीम अल्का जी, अमीर रज़ा, सुहैला कपूर जैसे ख्यात-प्रतिष्ठित हस्तियों के निर्देशन में अभिनय के नये शिखर स्थापित किए। प्रसिद्ध जैदी सिस्टर्स के साथ भी काम किया। कितनी फ़िल्में तो केवल उनके कारण देखी गयी। भंसाली की सांवरिया उनकी अन्तिम फ़िल्म थी। वो दिलों में बस जाने वाली अभिनेत्री थीं। मंच पर वो चाहे जितना रौद्र रूप धारण कर लें, उनके हाथ में छुरी हो या लाठी, आंखें उनकी चाहे जितनी फैल गयीं हों, अधर चाहे जितना मुस्कान विहीन हो, उनके चेहरें की एक-एक लकीर से मानवीय संवेदना फूटी पड़ती थी। विश्व का शायद ही ऐसा कोई इलाक़ा हो जहाँ उन्होंने अपने अभिनय या नृत्य प्रतिभा का लोहा न मनवाया हो। यहां तक कि अरब व अफ्रीक़ी देशों में। जिस विराटता में उन्होंने विश्व का भ्रमण किया उतनी ही सवदयता से उन्होंने अलग-अलग क्षेत्रों की कला विशिष्टताओं को ग्रहण भी किया। लन्दन के एक स्कूल में जहाँ उन्होंने नाट्य प्रशिक्षण लिया तो अन्तोन चेख़व के भतीजे मीशेल से अभिनय के गुर सीखे। स्तालिनावस्की नाटय शैली की बारीकियों को समझा। पृथ्वीराज कपूर से भी उन्होंने लगातार सीखा। उदयशंकर की मंडली में रहते हुए उन्होंने उनसे तो बहुत कुछ ग्रहण किया ही, यूरोपियन एवं भारतीय नृत्य गुरूओं से भी कुछ पाने को भी लगातार लालायित रहीं। सीखने की असीम इच्छा, कठिन परिश्रम तथा अभिनय व नृत्य के प्रति समर्पण ने ही उन्हें महान कलाकार बनाया और उनके सपनों की मूर्तता को संभव किया।
सच पूछिये तो उनके स्वप्नों में रंग भरने में उनके परिवार के पुरूषों, पिता मामाओं और भाइयों की दिलचस्पी और मदद का भी विशेष महत्व है। विशेष रूप से उनके एक मामा साहबजादा सैदुज़्ज़फ़र खान जो अपने समय के अत्यंत प्रतिष्ठित सर्जन थे, कालांतर में उन्हें लखनऊ मेडिकल कालेज का पहले भारतीय प्रिंसिपल होने का गौरव भी प्राप्त हुआ। इस सराय फ़ानी से रूख़्सत होते हुए उनकी मां की यह ख़्वाहिश भी बहुत अहम है कि ‘‘मेरी जायदाद से मिलने वाली रक़म मेरी बेटियों की तालीम पर ख़र्च की जाए।‘‘बड़ी बहन हाजरा बेगम तथा बहनोई कामरेड ज़ेड.ए. अहमद की मदद व रहनुमाई भी बहुत काम आई। अभावों, बेघरी और आजीविका का निश्चित स्थाई साधन न होने के कारण कई बार जीवन अधिक कठिन हो आया। बावजूद इसके कि प्रदर्शनों से उन्हें पर्याप्त आय होती रही थी। कठिनाई निरन्तरता के टूट जाने, कुछ उम्र के बढ़ते जाने तथा कामेश्वर की असफलताओं के कारण पैदा हुई।
एक सौ दो वर्ष की जीवन यात्रा में युवा काल के बाद उन्हें कई तरह के संघर्षो से गुज़रना पड़ा। हर बार वो बाधाओं के समक्ष मजबूत चटटान के समान खड़ी हुईं। अवरोध पराजित हुआ परन्तु कामेश्वर लगातार मिलती असफलताओं के कारण हिम्मत हार गये। वैधव्य ने जीवन को अधिक संघर्ष व चुनौती पूर्ण बना दिया। जीवन यापन के लिए उन्होंने विदेश, व देश में कई तरह की नौकरियां कीं। श्रीमती इन्दिरा गांधी के शासनकाल में उन्हें अवश्य कुछ आसानियां प्राप्त हुई। उन्हें अकादमियों का अध्यक्ष व कुछ संस्थाों का प्रमुख बनाया गया। लेकिन भारतीय कला की बहुमूल्य सेवा करने तथा विश्व के कई हिस्सों में उसके विशिष्ट गौरव का दर्शन कराने वाली उस बेजोड़ कलाकार को, पण्डित नेहरू जिनका बहुत सम्मान करते थे, बार-बार अनुरोध करने के बाद भी भारत सरकार एक सरकारी मकान नहीं दे सकी।
कामेश्वर से विवाह के बाद दोनों अपने धार्मिक विश्वासों पर क़ायम रहे। फिर भी धर्म उनके जीवन की गति में बाधा नहीं बन सका। उनकी एक मात्र पुत्री किरण तथा एक मात्र पुत्र पवन ने हिन्दू धर्म के विश्वासों से अधिक निकटता अनुभव की। जबकि ज़ोहरा नास्तिकता की ओर अग्रसर थीं। उन्होंने इच्छा प्रकट की थी कि उनके निधनोपरांत उनके शव को वि़द्युत शवदाह गृह में नज़्रे आतिश कर दिया जाये तथा कोई धार्मिक कर्म काण्ड न किया जाये। बावजूद इसके उनका संस्कार वैदिक तरीके़ से मंत्रोच्चार के बीच चिता पर हुआ। ये एक बेजोड़ दृढ़ता वाली बेमिसाल महिला का दुखद अवसान था। इतना संतोष अवश्य है कि जावेद अख़्तर व शबाना आजमी की उपास्थिति में वहां ‘‘ज़ोहरा सहगल लाल सलाम‘‘ के नारे अवश्य लगे। ‘‘अपनी वसीयत में मैंने लिखा है कि जब मैं मरूँ तो मैं नहीं चाहती कि तब किसी तरह का धार्मिक या कला से जुड़ा कार्यक्रम हो। अगर शव-दाह गृह के लोग मेरी राख रखने से मना करें तो मेरे बच्चे उसे मेरे घर लाकर टायलेट में बहा दें... इससे घिनौना कुछ नहीं हो सकता कि किसी मरे हुए आदमी का कोई हिस्सा शीशे के जार में रखकर सजाया गया हो‘‘। (‘आत्मकथा से‘)
उन्होंने न केवल अभिनय और नृत्य का उत्तेजक घटनापूर्ण इतिहास रचा बल्कि उसके विकास और विस्तार की अनन्य संभावनायें भी निर्मित कीं। अनेकानेक युवतियों को वर्जनायें तोड़ने एवं इस कला क्षेत्र से जुड़ने के लिए प्रेरित किया।
शकील सिद्दीक़ी, संपर्क-09839123525
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