फैज़ाबाद, 17.11. 2012। प्रगतिशील लेखक संघ की जिला इकाई के तत्वावधान में स्थानीय तरंग पैलेस के सभागार में साम्प्रदायिकता और साहित्य का प्रतिरोध विषय पर विचार गोष्ठी और एक काव्यपाठ का आयोजन किया गया। इस कार्यक्रम में वाराणसी से प्रगतिशील लेखक संघ के संजय श्रीवास्तव और लखनउ से जाने माने साहित्यकार शकील सिद्दीकी, बस्ती से सुपरिचित कवि हरीश दरवेश और बहुत से स्थानीय कवि-साहित्यकारों ने भागीदारी की।
विचार गोष्ठी में अपने विचार व्यक्त करते हुए प्रख्यात लेखक शकील सिद्दीकी, ने कहा कि हमारे समय में साम्प्रदायिक शकितयां केवल हमारी भावनाओं से खेलती है जिसका उददेश्य राजनीतिक लाभ उठाना भर है। वे वास्तव में जनता के हितों के लिए कुछ भी नहीं करती हैं। ऐसे में हमारी साझी विरासत का बहुत अधिक महत्व है। यह साझी संस्कृति सामान्य जनता के रोजमर्रा के जीवन में दिखायी देती है। यह जनता की अमनपसंदगी की वजह से है। यह जीवन को एक साथ जीने की एक प्रकार की मजबूरी भी होती है। लेखकों, साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों को इसे मजबूरी नहीं बनने देना चाहिए। यह हमारी संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग होना चाहिए। साम्प्रदायिकता जनविरोधी और राष्ट्रविरोधी होती है। उन्होंने अपने वक्तव्य के दौरान इंशा की कविता भी उधृत की-
सीधी मन को आ दबोचें
मीठी बातें सुन्दर बोल
मीर, नजीर, कबीर और इंशा
सारा एक घराना हो
उन्होंने यह भी कहा कि लेखकों को सामाजिक संवाद में विश्वास रखना चाहिए। प्रगतिशील लेखक संघ के उ.प्र. महासचिव संजय श्रीवास्तव ने कहा कि रचना और संस्कृतिकर्म से जुड़े लोगों को पूरी शिद्दत से आगे आना चाहिए और समाज में अपनी भूमिका सुनिर्धारित करनी चाहिए। साम्प्रदायिक लोग देश की जनता में प्रचलित धर्मप्राण तत्वों का प्रयोग अपने संकीर्ण राजनीतिक हितों के लिए करते हैं। साम्प्रदायिकता के विरुद्ध संघर्ष के लिए लोकतत्व का परिष्कार जरूरी है तथा साझा संस्कृति को आगे बढा़ना होगा।
इससे पूर्व कवि डा. अनिल सिंह ने कहा कि साहित्य में पलायनवादी और अवसरवादी प्रवृतितयां हावी हो रही हैं जिससे साम्प्रदायिकता के विरुद्ध साहित्य का स्वर हल्का हुआ है। सुपरिचित लेखक आर. डी. आनन्द ने कहा कि साम्प्रदायिकता के पैरोकार सतत सक्रिय रहते हैं जबकि साम्प्रदायिकता का विरोध साम्प्रदायिकता के उभर जाने पर ही होता है। धर्मनिरपेक्ष लोगों की सतत सक्रियता ही समान्तर संस्कृति को जन्म दे सकती है।
कार्यक्रम के प्रारम्भ में डा. रघुवंशमणि ने साहित्य में प्रतिरोध और साम्प्रदायिकता के प्रतिरोध पर प्रकाश डालते हुए कार्यक्रम में आये हुए अतिथियों का स्वागत किया। कार्यक्रम के प्रथम सत्र का संचालन अयोध्या प्रसाद तिवारी ने किया और अध्यक्षता प्रसिद्ध कवि दयानन्द सिंह मृदुल ने की।कार्यक्रम के दूसरे सत्र में काव्यपाठ हुआ जिसमें हरीश दरवेश, साहिल भारती, स्वपिनल श्रीवास्तव, अमान फैज़ाबादी, इस्लाम सालिक, रघुवंशमणि, सौमित्र, दयानन्द सिंह मृदुल आदि कवियों ने भागीदारी की। इस सत्र का संचालन इस्लाम सालिक ने किया।कार्यक्रम के अन्त में दलित लेखक ओमप्रकाश वल्मीकि के निधन पर शोक प्रस्ताव किया गया और दो मिनट का मौन रखा गया।
विचार गोष्ठी में अपने विचार व्यक्त करते हुए प्रख्यात लेखक शकील सिद्दीकी, ने कहा कि हमारे समय में साम्प्रदायिक शकितयां केवल हमारी भावनाओं से खेलती है जिसका उददेश्य राजनीतिक लाभ उठाना भर है। वे वास्तव में जनता के हितों के लिए कुछ भी नहीं करती हैं। ऐसे में हमारी साझी विरासत का बहुत अधिक महत्व है। यह साझी संस्कृति सामान्य जनता के रोजमर्रा के जीवन में दिखायी देती है। यह जनता की अमनपसंदगी की वजह से है। यह जीवन को एक साथ जीने की एक प्रकार की मजबूरी भी होती है। लेखकों, साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों को इसे मजबूरी नहीं बनने देना चाहिए। यह हमारी संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग होना चाहिए। साम्प्रदायिकता जनविरोधी और राष्ट्रविरोधी होती है। उन्होंने अपने वक्तव्य के दौरान इंशा की कविता भी उधृत की-
सीधी मन को आ दबोचें
मीठी बातें सुन्दर बोल
मीर, नजीर, कबीर और इंशा
सारा एक घराना हो
उन्होंने यह भी कहा कि लेखकों को सामाजिक संवाद में विश्वास रखना चाहिए। प्रगतिशील लेखक संघ के उ.प्र. महासचिव संजय श्रीवास्तव ने कहा कि रचना और संस्कृतिकर्म से जुड़े लोगों को पूरी शिद्दत से आगे आना चाहिए और समाज में अपनी भूमिका सुनिर्धारित करनी चाहिए। साम्प्रदायिक लोग देश की जनता में प्रचलित धर्मप्राण तत्वों का प्रयोग अपने संकीर्ण राजनीतिक हितों के लिए करते हैं। साम्प्रदायिकता के विरुद्ध संघर्ष के लिए लोकतत्व का परिष्कार जरूरी है तथा साझा संस्कृति को आगे बढा़ना होगा।
इससे पूर्व कवि डा. अनिल सिंह ने कहा कि साहित्य में पलायनवादी और अवसरवादी प्रवृतितयां हावी हो रही हैं जिससे साम्प्रदायिकता के विरुद्ध साहित्य का स्वर हल्का हुआ है। सुपरिचित लेखक आर. डी. आनन्द ने कहा कि साम्प्रदायिकता के पैरोकार सतत सक्रिय रहते हैं जबकि साम्प्रदायिकता का विरोध साम्प्रदायिकता के उभर जाने पर ही होता है। धर्मनिरपेक्ष लोगों की सतत सक्रियता ही समान्तर संस्कृति को जन्म दे सकती है।
कार्यक्रम के प्रारम्भ में डा. रघुवंशमणि ने साहित्य में प्रतिरोध और साम्प्रदायिकता के प्रतिरोध पर प्रकाश डालते हुए कार्यक्रम में आये हुए अतिथियों का स्वागत किया। कार्यक्रम के प्रथम सत्र का संचालन अयोध्या प्रसाद तिवारी ने किया और अध्यक्षता प्रसिद्ध कवि दयानन्द सिंह मृदुल ने की।कार्यक्रम के दूसरे सत्र में काव्यपाठ हुआ जिसमें हरीश दरवेश, साहिल भारती, स्वपिनल श्रीवास्तव, अमान फैज़ाबादी, इस्लाम सालिक, रघुवंशमणि, सौमित्र, दयानन्द सिंह मृदुल आदि कवियों ने भागीदारी की। इस सत्र का संचालन इस्लाम सालिक ने किया।कार्यक्रम के अन्त में दलित लेखक ओमप्रकाश वल्मीकि के निधन पर शोक प्रस्ताव किया गया और दो मिनट का मौन रखा गया।
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