Tuesday, February 5, 2013

एकल और ग्लोबल कूड़े का रंगमंच

-पुंज प्रकाश

"घटनाओं को लेकर बढ़ाती अनभिज्ञता अन्याय को मुख्य रूप से आश्रय देती है |" - सालाविनी ( इतालवी लोकतंत्रवादी )
कल नाट्य प्रस्तुति का अर्थ अमूमन ये लगाया जाता है कि अकेला किया जाने वाला नाटक | पर यह समझ एक प्रकार का सरलीकरण है | किसी काल में हो सकता है कि रंगमंच अकेला किया जाने वाला भी कार्य हो पर वर्तमान में रंगमंच एक सामूहिक कर्म है इस वजह से यह कभी एकल हो ही नहीं सकता | कुछ नहीं तो कम से कम एक अभिनेता और कम से कम एक दर्शक के बिना किसी भी प्रकार के नाटक की परिकल्पना संभव ही नहीं |

अमूमन, आज तक मैंने जितने एकल नाट्य प्रस्तुतियाँ देखीं हैं उनमें भले ही एक अभिनेता दर्शकों से रु-ब-रु हो रहा होता है पर उसके पीछे कई लोगों की टीम काम कर रही होतीं हैं जैसा कि किसी अन्य नाट्य प्रदर्शन में होता है | मसलन – लेखक या नाटककार, निर्देशक, विभिन्न प्रकार के परिकल्पक आदि | इन सबका योगदान कम करके नहीं आंकना चाहिए | जो सामने दिखता है सच केवल उतना ही नहीं होता, अगर हम केवल उसे ही सत्य मान लेते हैं तो ये हमारी अज्ञानता का ही परिचायक है और फिर यहाँ तो पाठ ( Text ) के पीछे वैसे भी उप-पाठ ( Sub-Text ) होता है |

"केवल अभिनेता की संख्या एक हो जाने से ये नाटक से कोई अलग प्रकार की विधा हो गई ऐसा नहीं समझना चाहिए | नहीं तो दो पात्रवाले नाटक दोकल और तीन पात्र वाले त्रिकल और बहुत सारे अभिनेताओं वाले नाटक भीड़कल नाटक कहे जाने चाहिए....."

केवल अभिनेता की संख्या एक हो जाने से ये नाटक से कोई अलग प्रकार की विधा हो गई ऐसा नहीं समझना चाहिए | नहीं तो दो पात्रवाले नाटक दोकल और तीन पात्र वाले त्रिकल और बहुत सारे अभिनेताओं वाले नाटक भीड़कल नाटक कहे जाने चाहिए | एक बात साफ़ तौर पर समझ लेना चाहिए कि सब नाटक ही हैं जिन्हें हम पहचानने के लिए अपनी सुविधा के अनुसार नामांकन कर देतें हैं |

हाँ, नामांकन से याद आया कई बार अक्सर हम बिना जाने-पहचाने, चीजों को उनके प्रचलित नाम से बुलाने लगतें हैं | जैसे कि हम कितनी आसानी से कह देतें हैं “फोक थियेटर या लोक नाट्य” | अब देखिये इस विषय पर जगदीश चंद माथुर क्या लिखतें हैं – “ ऑक्सफोर्ड कम्पेनियान ऑफ ड्रामा के अनुसार “फोक प्ले” यानि “लोकनाटक” ऐसा नाट्य मनोरंजन है जो ग्रामीण उत्सवों पर ग्रामवासियों द्वारा स्वं प्रस्तुत किया जाता है और प्रायः अशिष्ट और देहाती होता है |” ( पारंपरिक नाट्य, पन्ना संख्या १७ ) अब ये है परिभाषा | तो क्या आप अब भी भारत के क्षेत्रीय नाट्यशैलियों को “फोक थियेटर या लोक नाट्य” कहेंगें ? शायद कह भी सकतें हैं क्योंकि कुछ ज़्यादा “पढ़े-लिखे टाईप" रंगकर्मी महानगरों में पाए जातें हैं जो बात-बात पर ग्रीक, रोम, जापान आदि की सैर करने लगतें हैं और जिन्हें भारत, भारतीयता, परम्परा, पारंपरिक आदि शब्दों के अर्थ खोखले लागतें हैं वो बड़े शान से Folk Theatre जैसे शब्दों का उच्चारण करतें हैं |

लोकप्रिय मान्यता है कि एकल अभिनय वही अभिनेता कर सकता है जो अभिनय में पारंगत हो | ये बात सच भी है पर अभिनय में पारंगत तो हर अभिनेता को होना चाहिए, कम से कम कोशिश तो करनी ही चाहिए, चाहे वो एकल अभिनय करे या सामूहिक | पर ऐसी एक मान्यता बन गई है कि सामूहिक अभिनय में अभिनेता की कमियों को छुपाया जा सकता है, एकल में नहीं | हो सकता है इस बात में कुछ सच्चाई हो परन्तु यह बात अभिनेता की व्यक्तिगत खामी के सन्दर्भ में कही जानी चाहिए एकल और सामूहिक अभिनय अथवा रंगमंच के सन्दर्भ में नहीं | इस बात से एकल व सामूहिक अभिनय का कोई लेना-देना नहीं | आजकल ऐसा भी देखा जा रहा है कि औसत से औसत अभिनेता-अभिनेत्री एकल नाटक कर रहें हैं और बड़े - बड़े दाबे के साथ लगातार कर रहें हैं | तो क्या उन्हें ये नाटक करने से रोका जाय ? कौन रोकेगा ? क्या दर्शक ? ऐसी एकल प्रस्तुतियों भी देखने में आयीं हैं कि शुरुआत के कुछ मिनटों के बाद ही खचाखच भरे सभागार में आयोजकों के सिवा केवल दो चार लोग ही बचे हों पर अभिनेता-अभिनेत्री अपनी अभिनय की “जलेबी” परोसे जा रहें हैं |

जहाँ तक सवाल अभिनेता और उसकी कमियों का है तो एक बुरा अभिनेता सामूहिक अभिनय वाले नाटकों के रसास्वादन में ठीक वैसा ही काम करेगा जैसे कि कोई मनपसंद व्यंजन खाते वक्त मुंह में पड़ने वाला कंकड करता है | और सवाल तो ये भी बनता है कि अभिनेता की कमी को छुपाया ही क्यों जाय ? इससे किसका भला होगा ? किसी का नहीं | हम नाटकवाले जो कुछ भी दर्शकों या समीक्षकों से छुपाये रखना चाहतें हैं क्या वो सचमुच छिपा रहता है या यहाँ हमारी हालत उस शुतुरमुर्ग की तरह होती है जो अपना सर ज़मीन में छुपकर सोचता है कि मैं किसी को नहीं दिख रहा ?

हमारा मुल्क एक आज़ाद मुल्क है | हमारे देश में खासकर आधुनिक रंगमंच में कोई भी व्यक्ति अपनी पसंद से कोई भी नाटक करने के लिए स्वतंत्र है चाहे उसे नाटक करना आए या न आए | यहाँ रंगकर्मी कहलाने के लिए किसी प्रमाण-पत्र की ज़रूरत नहीं है | कई ऐसे बड़े नाम हैं जिनके खाते में वर्षों से सक्रिय रंगमंच में योगदान के नाम पर रंगकर्मियों के साथ सिगरेट-चाय पीना ही दर्ज़ है, पर वो रंगकर्मी माने जातें हैं और शान से माने जातें हैं !

क्या किसी कलाकार को दर्शकों का सांस्कृतिक दोहन का अधिकार है ? यह बात मैं तकनीक के सम्बन्ध में कह रहा हूँ विचार के सन्दर्भ में नहीं | अगर किसी को हथियार पकड़ना नहीं आता तो वो युद्ध में उतरके किसका भला करेगा ? माना कि रंगमंच युद्ध नहीं है पर जो खुद ही परिपक्व नहीं वो कला का प्रदर्शन क्या खाक करेगा | वहीं क्या दर्शकों से ये निवदन नहीं कारण चाहिए कि ऐसी कोई भी नाट्य प्रस्तुति जो रंगमंच की किसी भी कसौटी पर खरी न उतार रही हो वहाँ से उठ कर चले जाने में क्या बुराई है ? सहृदयता अच्छी बात है पर केवल रंगमंच के नाम पर अपना दोहन बर्दाश्त करते रहने को सहृदयता कहीं से भी नहीं कही जा सकती | हाँ, किसी की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ध्यान रखते हुए यहाँ किसी प्रकार का बलप्रयोग अनुचित है | पर शांतिपूर्वक विरोध दर्ज़ करने में कोई खास बुराई भी नहीं है | आखिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्र का अधिकार सबको है, सहृदय दर्शकों को भी | समय बदला है, अब केवल सहृदय होने भर से काम नहीं चलेगा, सजग और जागृत भी होना पड़ेगा | एक सजग दर्शक होने के नाते आपका कार्य केवल टिकट कटाकर या पास लेकर नाटक देखना और चुपचाप घर चले जाना नहीं है | नाटक एक जीवंत कला है तो इसके दर्शकों को भी जीवंत होना चाहिए | लोकतान्त्रिक तरीके से विरोध लोकतंत्र की परम्परा है, लोकतंत्र का विरोध नहीं | ऐसी बातें से शायद रंगमंच में दर्शकों की भूमिका और प्रखर हो और नाटक करनेवाले नाटक को पटक देने और ठोक देने के बजाय, उसकी उपयोगिता के सामाजिक सरोकार की ओर सजग होगें |

इसी देश मे ऐसी रंग-परम्परा रही है जिसमें तालीम मुकम्मल होने के पश्चात् ही अभिनेता को मंच पर कदम रखने के लायक माना जाता था अथवा कदम रखने दिया जाता था | यह परम्परा आज भी है | जिन्हें इस बात पर संदेह है वे किसी भी भारतीय पारंपरिक नाट्य शैली की शिक्षण पद्धति का अध्यन करके देख लें | यहाँ मैं किसी प्रकार के आकादमिक प्रशिक्षण की भी बात नहीं कर रहा मैं व्यावहारिक प्रशिक्षण की बात कर रहा हूँ | जैसा कि किसी ज़माने में पारसी रंगमंच, जात्रा या नौटंकी आदि में हुआ करता था | समूह के साथ रहना, उस्ताद से प्रशिक्षण लेना और नित्य अभ्यास करना, अपने सीनियर अभिनेताओं के काम को देखना और उसका आकलन करना आदि, आदि | बकौल डेविड ममेट ( अमेरिकन नाटककार व रंग-चिन्तक ) - “ज्यादातर अभिनय प्रशिक्षण संस्थाएं अभिनेता की अभिनय प्रतिभा को सीमित ही करती है विकसित नहीं | कक्षाएं अभिनेता को सिखाएंगी कैसे आज्ञा पालन करना है ये आज्ञा पालन थियेटर के अभिनेता को कहीं नहीं ले जायेगा | यह झूठी सांत्वना है |”

एकल नाटक अभिनेता केंद्रित होतें हैं | माना | पर एकल या किसी भी प्रकार के सार्थक रंगकर्म के लिए तकनीकी कूद-फांद से ज़्यादा विचार ( Plot ) की महत्ता को सर्वप्रथम स्वीकार करना चाहिए | रंगमंच व्यक्तिगत अहम् से परे एक उद्देश्य के लिए किया जानेवाला कला माध्यम है | दर्शकों का मनोरंजन करना भी एक उद्देश्य ही तो है | पर मनोरंजन मात्र के लिए भी एक सार्थक विचार का होना अनिवार्य है, निरर्थक बातों और विचारों से किसी भी समाज का मनोरंजन नहीं होता | ऐसा सोचना कि एकल नाटक अभिनेता केंद्रित होतें हैं बाकि नहीं, सही नहीं है | नाटक चाहे कितना भी तकनीक से लैश हो जाए अगर वो नाटक जैसा कुछ है तो उसमें अभिनेता का कोई विकल्प नहीं हो सकता | नाट्य की शैली के हिसाब से अभिनेता की भूमिका बदल सकती है पर ऐसा कतई संभव नहीं कि अभिनेता विहीन रंगमंच हो |

एक विचार या मान्यता है की नाटक में अभिनेता दिखने चाहिए और एकल नाटक में अभिनेता अपने पुरे शबाब पर होता है | ये अभिनेता दिखने का क्या मतलब होता है ? क्या ज़्यादा से ज़्यादा समय मंच पर रहने और लंबे लंबे संवाद दर्शकों पर फेंक देने भर से अभिनेता दिख जाता है ? हम ये कब समझ पायेंगें कि नाटक में अभिनेता नहीं चरित्र दिखने चाहिए जो नाटक में दी गई परिस्थितिओं के अनुसार सच्चाई ( Truth ) के साथ आचरण कर रहा हो | अगर कोई अभिनेता अपनी तकनीकों का प्रदर्शन कर लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है ये उसकी धूर्तता है, अभिनय की कलाकारी नहीं |

हम भारतियों की मूल समस्या पता है क्या है ? हमारी समस्या ये है कि हम हर चीज़ के लिए यूरोप की ओर ताकतें हैं और अपनी परम्पराओं के प्रति वही भाव रखतें हैं जो यूरोप हमसे रखवाता है | यूरोप हमें बताएगा कि तुम्हारा योगा तो कमाल है और हम बेवकूफों की तरह योग की टांग तोड़ने में लग जायेंगें | कह सकतें कि सालों पहले हमें ओपनिवेशिक मानसिकता से उबर जाना चाहिए था पर यहाँ बात पूरी उल्टी चल निकली | अपनी परम्पराओं के प्रति यह हेय भाव जान बूझकर पैदा किया जाता है ताकि आप उन पर शक न करें जो बड़े-बड़े विदेशी नामों के आड़ में दरअसल अपनी दुकान चला रहें हैं और आपकी ही चीज़, आपको ही विदेशी तड़के का साथ बेच रहें हैं | अब कोई ईस्ट इण्डिया कंपनी यहाँ आकर अपना साम्राज्य नहीं फ़ैलाने वाली बल्कि अब उसका काम पहले से ज़्यादा आसान हो गया है | वो माल बनाएगा, उस माल की महानता को प्रामाणिक बनाने के लिए हमारे नायकों-महानायकों का मुखौटा इस्तेमाल करेगा और हम उसका उपभोगकर अपने आपको सभ्य और धन्य समझेंगें | आज नीम का दातून हममें वो जादू नहीं जगा पता जो क्लोज़-अप का एक रंगीन टुकड़ा कर देता है | ये उपभोक्तावादी प्रचार तंत्र हैं जो हमारी सांसों में कुछ इस तरह रच-बस गया है कि हमें कुछ गलत जैसा अनुभव भी नहीं होता | हम जिन नायकों की नक़ल कर रहे होगें ये नायक भी इनके ही गढे होंगे, जो हमारे मन में हमारे सच्चे नायको के प्रति एक तरह का हेय भाव भी पैदा करतें रहेंगें |

यहाँ मैं अपनी बात किसी पुनरुथानवादी अंधभक्त की तरह नहीं कह रहा बल्कि ये जानते हुए कि गलत-सही हर परंपरा में होता है, फिर भी ये सवाल कर रहा हूँ कि हमें अपनी परम्परा पर गर्व के बजाय ग्लानी क्यों है, आज भी ? अगर हम खुली आँखों और स्वास्थ्य दिमाग से आंकलन करें तो पायेंगें कि भारतवर्ष में भी नाट्य-प्रशिक्षण की अपनी एक समृद्ध परंपरा रही है जिसे एक साजिश के तहत नज़रंदाज़ किया गया है, बार-बार-लगातार | खासकर आज़ादी के बाद | यहाँ उस व्यक्ति को महानतम का दर्ज़ा दिया गया जो विदेशों में देखे नाटकों को थोड़ा फेर बदल करके भारत में जनता के पैसों से मंचित कर रहा था और तमाम पारंपरिक लोक कलाकार और भारतीयता का ध्यान रखकर कार्य कर रहे लोग को तुच्छ, अनपढ़, गंवार, गवाई समझा गया और ऐसा ही प्रचारित किया गया | यह बात ठीक वैसी ही है कि अगर कोई व्यक्ति भोजपुरी बोल रहा है तो अपने-आप ही अनपढ़-गंवार का तमगा उसपर लग जाता है और कोई अगर अंग्रेज़ी में बकवास भी कर रहा है तो वो सभ्य और सुसंस्कृत मान लिया जाता है | जैसे हमारी आँखें फट जाती है ये सोचकर कि भाई कमाल देश है इंग्लैंड बच्चा –बच्चा वहाँ अंग्रेज़ी बोलता है | ये कौन सी मानसिकता है ?

ये ओपनिवेशिक सोच है जो प्रचार-प्रसार के आज के युग में और भी प्रखर हो गई है | हम ग्लोबल होने के नाम पर एक तरह की मानसिक गुलामी को अपने ऊपर आरोपित होने दे रहें हैं | इस साजिश में वो हर व्यक्ति शामिल है जिनके ऊपर हमारे और इस देश का भविष्य सवारने की ज़िम्मेदारी थी या है | जगदीश चन्द्र माथुर ने सन 1950 ई. में “उदय की बेला में हिंदी रंगमंच और नाटक” नामक आलेख में लिखा था कि “यदि हिंदी में राष्ट्रीय रंगमंच के उदय से तात्पर्य है अभिनय के नियम, रंगशाला की बनावट, प्रदर्शन की विधि, इन सभी के लिए एक सर्वस्वीकृत परम्परा और शैली की अवतारणा होना, तो ऐसे रंगमंच का अस्त भी शीघ्र ही होगा |”

हम आज तक ये तय नहीं कर पाए कि एक ऐसे देश में जहाँ पग-पग पर पानी और बानी बदल जाती है वहाँ एक भारतीय रंगमंच का स्वरुप क्या होगा ? इसकी वजह शायद ये है कि हमने कभी भारतीय आधार पर ये सोचा ही नहीं बल्कि हमारी सोच “युरोपवाले या वाली गुरूजी या गुरुआनीजी” संचालित करते/करतीं रहीं | हमारी चोटी वहीं गडी है नहीं तो हम ये कब का समझ लेते कि हबीब तनवीर, रतन थियम, एच. कन्हाईलाल ग्लोबल है और भारतीय भी | रोबिन दास कहतें हैं – “कलाकार अगर सिर्फ किताबों के आधार पर पाई गई जानकारियों और अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, पोलैंड या रूस जैसे देशों में छापी किताबों या सिधान्तों पर ध्यान दे तो उसके सामने यह समस्या रहेगी कि ये सब उस देश के खास एतिहासिक वजहों से अस्तित्व में आयीं | इस तथ्य को नज़र-अंदाज़ कर अगर इसे अपनाना शुरू कर दें तो क्या भारतीय रंगकर्मी अपनी रचनात्मकता और दर्शकों के साथ उसके रचनात्मक सम्बन्ध का गला नहीं घुट जायेगा ? फिर तो ये सिर्फ खांचों में फिट करने की बात हो होगी | ये एक वंध्य तरीका होगा | नई पीढ़ी को चाहिए कि वो अपने जीवनानुभवों के आधार पर रंगमंच के सिधान्तों का मूल्यांकन या पुनर्मूल्यांकन करे |...एक खास बात जो मुझे चिंताजनक लगती है, आज के युवा पीढ़ी के कुछ रंगकर्मी ऐसे नाटक करने लगें हैं या ऐसी रंगभाषा का प्रयोग करने लगें हैं जो उनको पश्चिम देशों के नाट्य महोत्सवों में निमंत्रित होने के योग्य बना सके | इसे वैश्विक रंगमंच की तरफ़ एक कदम कहकर व्याख्यायित किया जाता है | लेकिन जब भारतीय लोकतंत्र पश्चिम लोकतंत्र से अलग है, भारतीय नारी विमर्श पश्चिमी नारी विमर्श से अलग है, भारतीय दलितों और उनकी महिलाओं की स्थिति पश्चिम से अलग है तो फिर भारतीय रंगमंच पूरी तरह के पश्चिम के खांचे में कैसे ढाल सकता है |” ( रंग प्रसंग, अंक ४०, २०१२ ) |

ऐसे नाटकों की प्रस्तुति जब विदेशों के रंग-महोत्सवों में होतें है तो आलम कुछ ऐसा ही होता है जैसे साऊथ की फिल्मों का हिंदी वर्जन देखा जा रहा हो | आज हमें ये समझना पड़ेगा कि हम यूरोपियों को यूरोप, जापानियों को जापान दिखाकर प्रभावित नहीं कर सकते | अगर हमें दुनियां को कुछ दिखाना और प्रभावित करना ही है तो उसका रास्ता भारतीय मिट्टी की खुशबू से होकर गुज़रती है, जैसा कि कुरुसावा ने किया | समझ लेना चाहिए कि दुनियां से संस्कृत आदान-प्रदान करना और विदेशियों को आम खिलके फोटो खिचवाने में फर्क है | कुछ लोग भारत के होते हुए भी भारत में ऐसे रहतें हैं जैसे टूरिस्ट हों | यही हैं इन वैश्विक रंगमंच के सिपाही | जिन्हें खुद अपनी संस्कृति नहीं पता वो बेचारे क्या खाक वैश्विक होगें | दोष इनका नहीं है दोष झूलन कुर्सियों पर बैठे उन महागुरुओं का है जिन्हें अपनी सत्ता चलाये रखने और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के नाम पर साल में एकाध विदेश यात्रा करने के लिए ऐसे पुतले चाहिए | ये रंगमंच में अमरता हासिल करने की व्यक्ति केंद्रित राजनीति है, जो भारतीय रंगमंच के सबसे बड़े संस्थान में भी है और बहुत ही प्रखर रूप से है | जिन्हें भी ये बात नहीं दिखाई पड़ती वो दरअसल इसी तंत्र के हिस्से हैं | वैसे भी आँख के बहुत करीब होने पर किसी भी चीज़ की स्पष्ट छवि नहीं दिखाई पड़ती |

गौर करिये हबीब साहेब क्या कहतें हैं – “थिएटर में अगर किसी और कल्चर की नकल की झलक है, तो वह असली थिएटर नहीं है । थिएटर को अपने मुल्क, अपने समाज की जिंदगी, अपने मुल्क की शैली में कुछ इस तरह पेश करना चाहिए कि बाहर के लोग देखकर यह कह सकें कि ये भी एक थिएटर हैं, थिएटर के सारे लवाजमात तत्व उसमें मौजूद हैं, हमें उसमें वही मजा आता है जो थिएटर में आना चाहिए लेकिन अगर हम ऐसा थिएटर खुद करना चाहें तो नहीं कर सकेंगे । यानी थिएटर में इलाकाइयत (आंचलिकता) का दामन न छोड़ते हुए विश्व स्तर पर पहुंचना कामयाब थिएटर की कुंजी है। आज ऐसे थिएटर हमारे मुल्क में कम सही मगर है जरूर ।“ ( हबीब तनवीर लिखित “चरणदास चोर के पीछे बहुतेरे कहानियां” आलेख से )

"रंगमंच एक गतिशील कला माध्यम है जो देश, समाज, काल आदि से अपना ताल-मेल मिलाता–बिठाता रहता है | उपभोक्तावाद के इस अंधे दौर में आज समाज में हर तरह समूह का विघटन हुआ है | परिवार भी इससे अछूता नहीं है | आज सामूहिक चूल्हा एतिहासिक धरोहर का रूप ले चुका है | एक ( शासक ) वर्ग यह जान चुका है कि सामूहिकता इंसान की सबसे बड़ी ताकत है | आज गुलाम बनाने के लिए देश के बजाय विचार को गुलाम बनाने की कला हुक्मरानों ने सीख ली है और विचार की गुलामी की सत्ता चलती रहे इसके लिए व्यक्ति को समूह से अलग करना एक अहम् मुद्दा बन चुका है | लोगों को समूह के बजाय छोटे-छोटे कमरों में कैद कर देना और समूह के नाम पर किसी उन्माद में डुबो देना, एक अहम् बात और कारोबार में तबदील हो चुका है |"

रंगमंच एक गतिशील कला माध्यम है जो देश, समाज, काल आदि से अपना ताल-मेल मिलाता–बिठाता रहता है | उपभोक्तावादिता के इस अंधी दौर में आज समाज में हर तरह समूह का विघटन हुआ है | परिवार भी इससे अछूता नहीं है | आज सामूहिक चूल्हा एतिहासिक धरोहर का रूप ले चुका है | एक ( शासक ) वर्ग यह जान चुका है कि सामूहिकता इंसान की सबसे बड़ी ताकत है | आज गुलाम बनाने के लिए देश के बजाय विचार को गुलाम बनाने की कला हुक्मरानों ने सीख ली है और विचार की गुलामी की सत्ता चलती रहे इसके लिए व्यक्ति को समूह से अलग करना एक अहम् मुद्दा बन चुका है | लोगों को समूह के बजाय छोटे-छोटे कमरों में कैद कर देना और समूह के नाम पर किसी उन्माद में डुबो देना, एक अहम् बात और कारोबार में तबदील हो चुका है | शहरों में सिंगल रूम सेट का कांसेप्ट चरम पर है | किसी ज़माने में समूह में बैठना और बात करना भी जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ करता था, कुछ स्थानों पर आज भी है, पर आज समूह में निवास करना व्यक्तिगत स्वतंत्र का हनन के रूप में भी देखा जाने लगा है | क्या इन बातों से रंगमंच का कोई सरोकार नहीं है ?

आज रंगमच के लिए समूह का गठन और उसे सुचारू रूप से संचालन क्या पहले जैसी ही बात रह गई है ? सामाजिक उथल पुथल और बदलाव से क्या रंगमंच का कोई सरोकार नहीं ? कई और भी पहलू है जिन पर बात होना चाहिए | पर सामाजिक समूह ( रंगमंचीय सामूहिकता नहीं ) का यह अभाव आज रंगमंच में भी साफ़ साफ़ देखने को मिलता है | कभी पचास-पचास सदस्यों की सदस्यता वाले नाट्यदल आज दहाई के अंक भी बड़ी मुश्किल से पार कर पा रहें हैं | क्या इस प्रक्रिया से एकल नाटकों का कोई लेना देना नहीं ? मैं व्यक्तिगत तौर पर कुछ प्रतिष्ठित नाट्य निर्देशकों व अभिनेताओं को जानता हूँ जो आज से एक दशक पहले एकल नाटकों को सामूहिकता का विरोधी मानते थे, क्योंकि उस वक्त उनके पास एक अच्छा-खासा नाट्य समूह था पर आज जब वो समूह नहीं रहा तो वो भी एकल नाटक अभिनीत कर रहें हैं या करने को अभिशप्त हैं , निर्देशित कर रहें हैं, यहाँ तक कि उनके महोत्सव भी करा रहें हैं | क्या इन बातों से एकल नाटकों का कोई लेना देना नहीं ?

एकल अभिनय को प्रस्तुत करने का कोई अलग शास्त्र है ऐसी बात नहीं, सिवाय इसके कि इसे किसी एक अभिनेता या अभिनेत्री द्वारा प्रस्तुत किया जाता है | यह बात शास्त्रीय नहीं बल्कि तकनीकी है | इसके भी मूलभूत सिद्धांत वही हैं जो बाकि नाटकों में अभिनय या प्रस्तुतिकरण के होतें हैं | जिस प्रकार नाटकों की शैली के अनुसार अभिनेता अपने अभिनय का तरीका तलाशता है ठीक वही बात एकल नाटकों पर भी लागू होती है | इस नाटक की तैयारी ( पूर्वाभ्यास ) का तरीका भी कोई अलग नहीं होता | अगर हम ये कहें कि हम सिर्फ पहचान करने के लिए इसे एकल नाम दे रहें हैं, ठीक वैसे ही जैसे पहचान के लिए इंसान को अलग-अलग नाम देतें हैं , तो क्या कुछ गलत होगा ?

रंगमंच को भ्रमों से दूर रहना और रखना चाहिए | इससे किसी का कोई तात्कालिक लाभ हो भी जाय पर लंबी अवधि में किसी का भी कोई खास भला नहीं होने वाला | आज़ादी के बाद के दशकों में बहुत ऐसे नाट्य निर्देशक, अभिनेता और रंगकर्मी हुए जिन्होंने रंगमंच की एक नई धारा खोजने का दावा पेश किया पर आज हम भली भांति जानतें हैं कि उनमें से अधिकतर में कोई दम नहीं था | वो या तो हमारे पारंपरिक नाटकों का थोड़ा फेर बदलकर की गई प्रस्तुतिकरण थी, या किसी लोक कलाकार के महत्वपूर्ण कार्य का शहरी रंगकर्मियों द्वारा प्रस्तुतिकरण या फिर विदेशों में चल रहे नाट्य प्रयोगों का रूपांतरित संस्करण |

एक बात साफ़ समझ लेनी चाहिए कि एकल नाटकों की एक बहुत ही पुरानी परंपरा रही है | क्या पता नाट्य विधा की शुरुआत ही एक अकेले अभिनेता ने की हो | एतिहासिक तत्वों की बात करें तो ग्रीक रंगमंच की शुरुआत थेसिपस नामक एक अभिनेता द्वारा ही मानी जाती है | यहाँ भारतीय सन्दर्भ में बात इसलिए नहीं की जा सकती क्योंकि हमारे यहाँ इतिहास अंकन का क्षेत्र ज़रा संकरा सा है | हम लिखने में कम बोलने में ज़्यादा विश्वास करने वाले लोग हैं | इसलिए किसी रंगकर्मी को अगर ये दुह-स्वप्न बार-बार सताता रहता है कि वो रंगमंच में किसी नई धरा का प्रवाह कर रहा है या करने वाला है या कर ही देगा तो इस दुह-स्वप्न से छुटकार पाने का एक ही तरीका है और वो है ज्ञान | रंगमंच के प्रति ज्ञान | इतिहास के प्रति ज्ञान | उनसे निवेदन है कि ज़रा रंगमंच के बारे में जाने तब पता चलेगा कि जिसपर वो मेरा का दावा कर रहें हैं वो दरअसल सदियों पहले ही अस्तित्व में आ चुका था | करो, जानो, समझो या समझो, करो , जानो यही दो रस्ते हैं, हाँ,तीसरा रास्ता भी है – आत्म-मुग्धता का | चयन हमारा होगा | बाकी, तमाशा देखनेवालों की कोई कमी नहीं |

लेखक के ब्लाग से साभार, स्रोत :
http://daayari.blogspot.in/2012/08/blog-post_6503.html?spref=tw


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