Thursday, July 12, 2012

शरीर को अस्त्र मान कर ‘स्टार’ बना जा सकता है, अभिनेता नहीं

-पुंज प्रकाश
एक अभिनेता के लिए ‘स्पेस’ का अर्थ समझने के लिए सबसे पहले हमें इसे कई भागों में बांटना पड़ेगा। इसका सीधा मतलब यह है कि केवल नाट्य प्रदर्शन के दौरान उपस्थित होने वाले स्पेस ही से एक सृजनशील और सजग अभिनेता का काम नहीं चलता। नाट्य प्रदर्शन तो रंगकर्मियों के कार्य की परिणति है, प्रक्रिया नहीं। अगर हम अभिनेता और रंगकर्मी की बात करना चाहते हैं तो प्रक्रिया की बात करनी चाहिए। अभिनय कला को गंभीरतापूर्वक लेने वाले एक अभिनेता को व्यक्तिगत जीवन में सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से जागरूक होना चाहिए। यह ‘एक्टिविज्म’ की नहीं ‘अवेयरनेस’ की बात है। मतलब कि एक अभिनेता को एक व्यक्ति और एक कलाकार के बतौर सजग रहना आवश्यक है। 


अभिनय हवा में पैदा नहीं होता, इसके लिए देश, समाज, काल आदि की समझ जरूरी है। अभिनेता का मूल अस्त्र केवल उसका शरीर नहीं, बल्कि दिमाग भी है। केवल शरीर को अस्त्र मान कर ‘स्टार’ बना जा सकता है, अभिनेता नहीं। इसलिए केवल शरीर को साधने से काम नहीं चलने वाला, दिमाग को भी साधना पड़ेगा। हालांकि रंगमंच के अधिकतर अभिनेता अपना काम केवल पूर्वाभ्यास में किए गए कार्य से चला लेते हैं जिसे अपने और अभिनय के प्रति एक अगंभीर प्रयास कहा जाना चाहिए। एक अभिनेता की दृष्टि से अगर हम इस स्पेस को देखें तो इसका महत्त्व किसी प्रयोगशाला से कम नहीं है, जहां तरह-तरह के प्रयोग के दौर से गुजर कर अभिनय और उस प्रस्तुति से जुड़ी कोई भी चीज एक आकार लेती है। 


एक अभिनेता यहां अभिनेता से चरित्र में ढलता है, चरित्र की ध्वनि (सुर) तलाशता है, चरित्र का नजरिया और हाव-भाव पैदा करता है, चरित्र को एक शरीर प्रदान करता है आदि। मंच पर प्रस्तुत होने के पहले पूरा नाटक और उसका एक-एक ब्योरा यहां अपनी पूर्णता तक पहुंचाता है। यहां जो कुछ भी हासिल होता है, उसी का प्रदर्शन मंचन के वक्त किया जाता है। अब सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि पूर्वाभ्यास की जगह को कितना ज्यादा संवेदनशील और रंगकला के अनुकूल होने की जरूरत है। अभिनेता के लिए नाट्य प्रदर्शन स्थल पर ‘मेकअप स्पेस’ और ‘विंग्स स्पेस’ आदि का भी अपना एक खास महत्त्व है। ये वे जगहें हैं जहां एक अभिनेता प्रस्तुत होने वाले नाटक के प्रति अपने आपको एकाग्रचित करता है। प्रदर्शन के दौरान किसी और को उधर जाने की इजाजत नहीं होती। मंच पार्श्व का अनुशासन मंच पर प्रस्तुत होने वाले या हो रहे कार्य का सहायक होता है। 


हिंदुस्तान में कुछ नाट्य दल ऐसे हैं या कुछ पारंपरिक नाट्य शैलियां ऐसी हैं जिनका मंच पार्श्व का अनुशासन आज भी अनुकरणीय है। अब जहां तक सवाल मंच पर बने स्पेस का है तो अलग-अलग नाट्य प्रस्तुतियों में उनकी शैली के मुताबिक स्पेस की बुनावट भी अलग-अलग होती है। इन सबके साथ सामंजस्य बैठाने की प्रक्रिया भी अलग-अलग होती है। हर अभिनेता का अपना तरीका होता है जिसे वह अपनी सुविधा के हिसाब से गढ़ता है। लेकिन कुछ बातें बुनियादी होती हैं जिनका ध्यान रखना हर स्पेस में जरूरी होता है। नाटक को दृश्य काव्य कहा गया है जिसका प्रदर्शन सामान्य तौर पर दर्शकों के समक्ष किया जाता है। 


अब जो भी दर्शक नाटक देखने आता है वह चाहे कितना भी सहृदय क्यों न हो, अगर उसे ठीक से दिखाई और सुनाई नहीं दे रहा है तो या तो वह उठ कर चला जाएगा या बोर होगा। कई बार प्रदर्शन स्थल या सभागार की बनावट के हिसाब से प्रस्तुति में कुछ छोटे-मोटे बदलाव करने आवश्यक हो जाते हैं। वहीं कई सारी प्रस्तुतियां किसी खास स्पेस को ध्यान में रख कर की जाती हैं जिसका किसी और तरह के स्पेस में प्रदर्शन उतना कारगर सिद्ध नहीं होता। रंगमंच का अभिनेता पहली पंक्ति में बैठे दर्शकों के प्रति ही नहीं, बल्कि सबसे पीछे बैठे लोगों के प्रति भी उतना ही जिम्मेदार होता है। 
साभार: जनसत्ता

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