Thursday, November 28, 2013

‘इप्टा’ लखनऊ का 'सिनेमा के 100वर्ष एवं बलराज साहनी जन्म शताब्दी समारोह'

खनऊ 15 नवम्बर, 2013.  भारत में सिनेमा के आगमन के तीन दशकों के भीतर ही 1943 में इप्टा की स्थापना के साथ ही यथार्थवादी एवं हस्तक्षेपकारी सिनेमा का बीज पड़ गया था, जो 1946 में ‘‘धरती के लाल’’ के रूप में सामने आया।

     उक्त वक्तव्य प्रख्यात सिने एवं नाट्य निर्देशक, इप्टा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एम.एस. सथ्यु  ने 15 नवम्बर, 2013 को ‘इप्टा’ लखनऊ द्वारा आयोजित ‘‘सिनेमा के सौ वर्ष’’ तथा बलराज साहनी जन्म शताब्दी समारोह के अवसर पर दिया। उन्होंने कहा कि यह स्वाभाविक ही था कि ख्वाजा अहमद अब्बास ने ‘इप्टा’ की पहली फिल्म ‘धरती के लाल’ के लिए बंगाल के अकाल पीडि़त किसानों के त्रासद यथार्थ को विषयवस्तु के रूप में चुना। इस फिल्म से ही बलराज साहनी ने अपने बेजोड़ यथार्थवादी अभिनय से अपनी पहचान बनायी। उसी समय चेतन आनन्द ने ‘नीचा नगर’ के माध्यम से इस धारा को और भी पुष्ट किया। उन्होंने कहा कि उन्हें इस बात पर संतोष है कि उन्होंने इसी धारा से जुड़कर अपने फिल्म एवं रंगजीवन की शुरूआत की। उन्होंने कहा कि उनकी फिल्म ‘गर्म हवा’ को इस्मत चुगताई द्वारा दी गयी विषयवस्तु के अलावा बलराज साहनी के अभिनय ने एक सार्थक फिल्म बनाया। उन्होंने कहा कि ‘इप्टा’ एक मात्र ऐसा सांस्कृतिक संगठन है ,जो पिछले सात दशकों से लगातार सक्रिय है, लेकिन उसे अपनी सृजनात्मक क्षमता को और भी बढाने की जरूरत है।इस सार्थक संवाद का संचालन नाटककार तथा उ.प्र.इप्टा के महामंत्री व राष्ट्रीय सचिव राकेश ने किया।   

     एम.एस. सथ्यु  से सम्वाद के फौरन बाद जानी मानी अर्थशास्त्री संस्कृतिकर्मी एवं एक्टिविस्ट जया मेहता तथा लेखक, संस्कृतिकर्मी विनीत तिवारी द्वारा बलराज साहनी पर बनाए गए वृत्त चित्र का प्रदर्शन किया गया। धरती के लाल, दो बीघा जमीन तथा गर्म हवा के विविध दृश्यों में बलराज साहनी के अभिनय उनके स्वयं के अनुभवों को प्रभावशाली कर्मेन्द्री से जोड़कर बनाए गए इस वृत्तचित्र का दिलचस्प पहलू यह भी है कि कुछ भी फिल्माएं बिना यह वृत्तचित्र बलराज साहनी के जीवन एवं उनकी जीवन दृष्टि को बेहद सफलता से दर्शाता है। सामूहिकता से अकेलेपन की ओर जाने की त्रासदी को जया और विनीत ने धरती के लाल तथा दो बीघा जमीन के दृश्यों के माध्यम से दर्शाया है। जहां आजादी के पहले धरती के लाल में अकालग्रस्त गांव से किसान सामूहिक रूप से पलायन करते हैं और वापसी भी सामूहिक रूप से करते हैं वहीं आजादी के बाद बनी दो बीघा जमीन में जमीन से बेदखल किसान अकेले ही शहर पलायन करता है जहां वह रिक्शा चलाने के लिए अभिशप्त होता है। दो बीघा जमीन में घोड़ा-गाड़ी और बलराज साहनी द्वारा हाथ से खींचने वाले रिक्शे के बीच की दौड़, तेज दौड़ाने के लिए तांगेवाले द्वारा घोड़े पर बार-बार चाबुक की मार और बलराज साहनी के रिक्शे पर बैठी सवारी द्वारा दो आने और कहते हुए पैसे की मार को जितने प्रभावशाली ढंग से विमल राय ने फिल्माया है उतनी ही कुशलता से जया और विनीत ने कमेन्ट्री के साथ इसे अपने वृत्त चित्र में जोड़ा है। विभाजन के बाद देश में अल्पसंख्यकों को लगातार अपनी देशभक्ति को प्रमाणित करते रहने की त्रासदी को उकेरते हुए एम.एस. सथ्यु  ने गरीबी, बेरोजगारी ने तथा सभी समस्याओं के जवाब में सामूहिक आन्दोलन के जिस संदेश पर गर्म हवा को समाप्त किया, वह अभी भी कला प्रेमियों के लिए एक ताजे झोंके की तरह लगता है, जिसे बार-बार देखना और महसूस करना ताजगी देता है। गर्म हवा के इन दृश्यों को भी जया और विनीत ने रेखांकित किया है। कुल मिलाकर लखनऊ के कला प्रेमियों के लिए यह एक सार्थक शाम थी।

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