वह महेश भट्ट की फिल्म थी - उनकी सबसे प्रिय फिल्म, जिसके जरिये 28 साल की उम्र में अनुपम खेर ने फिल्म जगत में प्रवेश किया था. लेकिन यह दानिश इकबाल का नाटक था, जिसे उन्होंने महेश भट्ट के मार्गदर्शन में ही तैयार किया है. इस प्रकार यह एक मिली-जुली कृति है. खचाखच भरे रायपुर के मुक्ताकाशी मंच पर रंग दर्शक सांस थामे मंचन देखते रहे. जबरदस्त तालियों के साथ उन्होंने दिल खोलकर कलाकारों के अभिनय की सराहना की. फिल्म पर रंगमंच का पलड़ा भारी दिखा.
ऊपरी तौर पर यह एक रिटायर्ड हेड मास्टर बी वी प्रधान की कहानी है, जो अपने बेटे की अकारण हत्या के बाद अपनी पत्नी पार्वती के साथ मिलकर जीवन के नए अर्थों की तलाश करता है. इस ' तलाश ' में वह टूटता-बिखरता है, लेकिन हारता नहीं. वह अपनी पत्नी के चेहरे की झुर्रियों में अपने जीवन का ' सारांश ' खोजता है.
लेकिन गहरे अर्थों में यह आज़ादी के बाद बने पतनशील समाज की कहानी है, जिसके मूल्य बिखर रहे हैं, सपने हवा हो रहे हैं. इस समाज पर भ्रष्टाचार का रोग लगा है. राजनीति पर अपराधीकरण हावी है और इस राजनीति का मुख्य लक्ष्य केवल चुनाव जीतना और पैसे बनाना रह गया है. यह राजनीति इतनी संवेदनहीन हो चुकी है कि कोख में पनप रहे बच्चे की भी हत्या पर वह उतारू है.
लेकिन पतनशीलता के खिलाफ एक लड़ाई हमेशा जारी रहती है. अपने बेटे अजय की हत्या प्रधान और उसकी पत्नी भूल नहीं पाते. सुजाता की कोख में पार्वती अपने बेटे अजय को देखती है.दोनों मिलकर इस बच्चे को जन्म देना ठानते हैं. लेकिन प्रधान नहीं चाहते कि उनकी पत्नी कल्पना-स्वप्न में जीयें. वे कठोरता से सुजाता व विलास को घर से अलग करके बच्चे का जन्म सुनिश्चित करते हैं. प्रधान दंपत्ति जिंदगी का सामना करने फिर से तैयार होते हैं, क्योंकि मृत कभी वापस नहीं आते और जीवन असीमित है.
' सारांश ' में अनुपम खेर ने प्रधान की भूमिका निभाई थी और असहिष्णुता के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी. जिस संघर्ष को उन्होंने परदे पर लड़ा -- वह केवल अभिनय था, वास्तविक नहीं. वास्तविकता तो यह है कि आज वे असहिष्णुता की उन्हीं ताकतों के साथ हैं, जो न केवल राजनैतिक गुंडागर्दी कर रही है, बल्कि उनका बस चले तो अपनी विरोधी ताकतों को ' देशनिकाला ' दे दें. पर्दे पर वे अपने बेटे अजय की हत्या से विचलित दिख सकते हैं, लेकिन वास्तविक जीवन में एक अफवाह पर भीड़ द्वारा इखलाक की हत्या कर देने से वे विचलित नहीं होते. वे उस राजनीति के पक्ष में खड़े हैं, जो इखलाक, पानसारे, कलबुर्गी की हत्या के लिए जिम्मेदार है. वे उन लोगों की अगुवाई कर रहे हैं, जो इस समाज की ' उदार ' मानसिकता को ' असहिष्णु ' मानसिकता में बदल देना चाहते हैं और जो ताकतें असहिष्णुता के खिलाफ लड़ रही है, उन्हें ही ' असहिष्णु ' बताते हुए गरिया रही है. यह जरूरी भी नहीं कि एक अच्छा अभिनेता, एक अच्छा इंसान भी हो.
अनुपम खेर के ' सारांश ' से एकदम जुदा है दानिश इकबाल का ' सारांश ' . फिल्म का नायक तो आज खलनायक बन चुका है और रंगमंच आज नायक की भूमिका अदा कर रहा है - एक ' असहिष्णु ' समाज के निर्माण के प्रयासों के खिलाफ अपनी लड़ाई लड़ रहा है.
यह मुक्तिबोध के नाम पर आयोजित इप्टा के 19वें राष्ट्रीय नाट्य समारोह का आखिरी दिन था, जिस पर समर्पण और श्रद्धांजलि विवाद हावी रहा. लेकिन कलबुर्गी, पानसारे-जैसे इस देश के अप्रतिम योद्धाओं के लिए न कोई श्रद्धांजलि थी, न कोई समर्पण. कहीं यह इप्टा के जेबी संगठन बनने और वैचारिक क्षरण का लक्षण तो नहीं ? मुक्तिबोध आज इप्टा से ही पूछ रहे हैं -- किस ओर खड़े हो तुम ? दंगाईयों के साथ या दंगों के खिलाफ ?? इप्टा को आज मुक्तिबोध के ' अंधेरे में ' को समझना बहुत जरूरी है.
(लेखक की टिप्पणी - बतौर एक दर्शक ही)