Friday, October 31, 2014

कलाफरोशों ने थियेटर को धंधा बना लिया

प्टा के अध्यक्ष रणबीर सिंह  से यह बातचीत ई-मेल के जरिये हुई है। इप्टानामा द्वारा उन्हें देवनागरी में प्रश्न भेजे जाते और वे रोमन लिपि में टाइप कर प्रश्नों का जवाब भेज देते। उनसे और भी बहुत कुछ पूछना था, पर सनद रहे कि वे हाल ही में पचासी बरस के हो गये हैं और इस वय में उन्हें टाइप कराने जैसे दुःसाध्य कार्य के लिये बाध्य करने में सदैव संकोच होता रहा, हालांकि उन्होंने अपनी ओर से कभी-कोई परेशानी नहीं जताई। बहरहाल, जो जवाब उन्होंने भेजे -केवल लिप्यांतरण के साथ-जस के तस प्रस्तुत हैं:

थियेटर में आपकी भूमिका प्रमुखतः क्या है? अपने लिखे नाटकों और उनके निर्देशकों के बारे में कुछ बतायें।
 मेरी थिएटर में भूमिका प्रमुखतः क्या है, यह कहना मुश्किल है क्यों की जब मैंने थिएटर में काम करने की सोची तो मेरे सामने सवाल था थिएटर से रोटी-रोज़ी जुटाने का। उस वक्त शायद यह फैसला बेवकूफी भरा था या कोई कहे की हिम्मत भरा, मगर मेरे लिए यह दोनों ही नहीं। बस मेरी मज़बूरी थी। पहली नौकरी जो मिली वो भारतीय नाट्य संघ के कार्यवाहक मंत्री (एग्जीक्यूटिव सेक्रेटरी) की मिली। भारतीय नाट्य संघ यूनेस्को का इंडियन सेंटर था। मेरी क़िस्मत की वहां मुझे श्रीमती कमलादेवी चट्टोपाध्याय के नेतृत्व में काम करने का मौक़ा मिला। वहीँ मेरी मुलाक़ात कपिला वात्स्यायन, मृणालिनी साराभाई, प्रोफेसर एन. सी. मेहता, अल्काजी, हबीब तनवीर, इन्दर राज़दान, तरुण रॉय, नेमीचंद जैन, विश्णु प्रभाकर, जसवंत ठक्कर, शांता गांधी, अनिल बिस्वास , चार्ल्स फेब्री, शीला वत्स, कैलाश पाण्डेय जैसे महान लोगों से हुई और उनसे थिएटर के बारे में जानने-समझने का मौक़ा मिला। सारे भारत के थिएटर की जानकारी हासिल हुईय अच्छाइयाँ, बुराइयाँ, मुश्किलात, सरकार की नीयत और नीतियां, कामकाज का तरीकाय ये सब बहुत नज़दीक से देखने का मौक़ा मिला। उस वक्त मेरी भूमिका सिर्फ एक एडमिनिस्ट्रेटर की थी, जो आज मेरे काम आ रही है।

            भारतीय नाट्य संघ में बड़ी-बड़ी हस्तियों के साथ थिएटर के बारे में सीखा। वहीँ इस की भी जानकारी हासिल हुई कि किस कदर ओछेपन, बदनीयती और डर्टी पॉलिटिक्स से कोई संस्था  कैसे बर्बाद की जाती है। आज भारतीय नाट्य संघ का नाम तो है मगर निशान नहीं है। जयपुर में रवीन्द्र मंच पर राजस्थान संगीत अकादमी की तरफ से स्पेशल ऑफिसर ऑफ़ प्रोग्रामकी नौकरी की। यहाँ वर्कशॉप (मोहन महर्शि के साथ जयपुर में पहला वर्कशॉप) का आयोजन, जयपुर इंटरनेशनल फेस्टिवल, मिस प्रभु के साथ शेक्सपियर के नाटकों का डायरेक्शन, प्रोफेसर भल्ला के साथ मर्डर इन कैथेड्रलमें डायरेक्शन और लाइटिंग का अनुभव हासिल हुआ। इस दौर में, डायरेक्शन किया, एक्टिंग की और ऑर्गनाइजिंग का काम किया।

            यात्रिक थिएटर में रिपर्टरी कैसे चलायी जाये उस का एक्सपीरियंस हुआ। यात्रिक एक इंग्लिश प्ले करने का एमेच्योर थिएटर ग्रुप था। बाद में मार्क्स मिर्च, बैरी जॉन, कुलभूषण और मुझे अपनी तनख्वाह का इंतज़ाम थिएटर से ही करना था। हमने यह तय किया कि हम अपनी तनख्वाह नाटक कर के ही लेंगे। यात्रिक के जो एमेच्योर थिएटर थे उन्होंने हाथ खड़े कर दिए थे, यह कह कर कि हम तो अपने मन बहलाने की खातिर थिएटर में हैं। इंग्लिश के नाटक मार्क्स और बैरी डायरेक्ट करते थे और मोहन महर्षि , एम. के. रैना व चमन बग्गा वगैरह हिंदी के नाटक। हमने पाँच साल तक बग़ैर कोई ग्रांट लिए नाटक किये, डायरेक्टर्स, एक्टर्स को फीस दी और अपनी सैलरी ली। यहाँ मुझे रिपर्टरी चलने की तालीम मिली। यह कि पेशेवर थिएटर कैसे चलाया जाता है।

            यात्रिक छोड़ने के बाद फ्रीलांसिंग शुरू की। मैं पहला नाटक लिख चुका था। उसका पहला परफॉरमेंस जयपुर में हुआ और बाद में दिल्ली में लिटिल थिएटर ग्रुप ने किया। नाटक का नाम था- अफ़सोस हम न होंगे।यह नाटक बॉम्बे में  1977 में दिनेश ठाकुर ने अंक की तरफ से किया, नाम बदल कर। बदला हुआ नाम था, ‘हाय मेरा दिल।अभी तक इस के एक हज़ार से ज्यादा शो हो चुके है। दिल्ली में एक लोकल ग्रुप के वास्ते मैंने सराय की मालकिनलिखा, जिसे बी.एम. शाह ने डायरेक्ट किया। यहीं से शुरू होता है मेरा सफर नाटक लिखने का। एम. के. रैना के लिए मैंने ब्लड राइट्सका और वी बॉम्बड न्यू हैवनका तर्जुमा किया। एम. के. रैना के कहने पर ब्रेख्त के नाटक गुड वुमन ऑफ़ सेटजुआनका एडाप्टेशन किया, जिसे रैना ने एन.एस.डी. के लिए डायरेक्ट किया। अभी तक मैंने 25 के क़रीब नाटक लिखे हैं: हाय मेरा दिल, सराय की मालकिन, गुलफाम, पाश, अमृतजल, हैसियत, जिन को मुख देखे दुःख उपजत, सुल्तान की परेशानी, हंगामा -ए -लॉकेट, मुखौटों की ज़िन्दगी, परछाइयाँ भी  न रहेंगी, मिर्ज़ा साहिब, संध्या काले प्रभात फेरी। इब्सन के प्ले जॉन गेब्रेइलका ट्रांसलेशन भी किया।  मुझे अभी भी इप्टा के लिये नाटक लिखने पड़ते हैं पर में ज्यादा डायरेक्ट नहीं करता। जयपुर इप्टा के संजय विद्रोही, केशव गुप्ता डायरेक्ट करते हैं। मैं उनकी मदद करता हूँ।

इसके अलावा मैं थिएटर में रिसर्च भी करता हूँ। मेरे लेखों का संग्रह पब्लिश होने की बात चल रही है। अभी तक जो किताबें मैंने लिखी हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं: वाजिद अली शाह: द ट्रैजिक किंग’,  ‘ रणथम्भोर: द इम्प्रेग्नबल फोर्ट’,  ‘हिस्ट्री ऑफ़ शेखावत्स’, ‘इंद्रा सभा: अमानत्स प्ले अ क्रिटिकल असेसमेंट’, ‘थिएटर कोट्स’,  ‘हिस्ट्रिओसिटी इन द संस्कृत ड्रामा’ (प्रकाशनाधीन), ‘पारसी थिएटर’ (हिस्ट्री ऑफ़ पारसी थिएटर), मोलायर, इब्सन, पिरांदेला और ओेनिएल की जीवनी व उनके काम (हिंदी में यह प्रकाशित होना है), राजस्थानी के बाँकीदास री ख्यातका अंग्रेजी अनुवाद, आदि-आदि। इतिहास व थियेटर पर लेखन आज भी सतत् जारी है इसलिये यह कहना मुश्किल है कि थियेटर में मेरी भूमिका क्या है।


आपका ताल्लुक राज परिवार से है, फिर जनवादी रुझान किस तरह से उत्पन्न हुआ? इस प्रश्न को इस तरह से भी लें कि रंगकर्म के क्षेत्र में आपका आगमन महज एक संयोग था या यह आपका चुनाव था।
प सही फरमाते हैं। मेरे पिताजी जयपुर रियासत के ठिकाना डूंण्डलोद के ठाकुर थे। मेरी माँ, महाराज प्रताप सिंह, जो जोधपुर रियासत के रीजेंट और इदर रियासत के महाराज थे, क्वीन विक्टोरिया के क़रीबी भरोसेमंद थे, उनकी दोहिती थीं। मेरा बचपन गाँवों और जोधपुर के राज महलों में ही गुजरा। बाद में मुझे मेयो कॉलेज शिक्षा के लिए भेजा गया। मेयो कॉलेज में सिर्फ राजघरानों के बच्चो को ही पढ़ाया जाता था। पूरी तरह से कोलोनियल शिक्षा दी जाती थी, पूरी तरह से अँगरेज़ बनाते थे। सपने भी अंग्रेजी में आते थे। वहां मेरी दोस्ती कई राजकुमारों के साथ हुई। रहना उन्ही के साथ था। पढाई खत्म करने के बाद अंग्रेजी कंपनी थॉमस कुक, जो उस वक्त की सबसे बड़़ी टूरिस्ट कंपनी थी, उसमे नौकरी की मगर कुछ ही महीनो के बाद रिसेशन की वजह से छोड़नी पड़ी।1950 में मैंने बॉम्बे में फिल्मो में काम करने की सोची। परिवार में सिवाय मेरी माँ के सब नाराज़ थे। मज़ाक में ही सही मगर मुझे ढोलीकह कर बुलाते थे। थिएटर का शौक़ मेयो कॉलेज में ही लग गया था। वहाँ मैंने हर अंग्रेजी और हिंदी के नाटकों में काम किया था। बॉम्बे में उस वक्त वामपंथी विचारधारा का बोलबाला था। जहाँ भी काम की तलाश में मैं जाता वहाँ वामपंथी विचार के लेखकों और शायरों की बातें सुनने को मिलती। हालांँकि वे सामंती ख्यालों के बिल्कुल खिलाफ थीं मगर मुझे मालूम हुआ कि यह भी एक जीने का तरीका है। मुझे यह रास आने लगा। किताबें पढ़ने लगा। ज़िन्दगी में एक अजीबो -ग़रीब जद्दोजहद थी। चारों तरफ सामंती माहौल और में अकेला। शादी भी राजघराने में ही हुई। एक दो जगह नौकरी भी की मगर माहौल से समझौता नहीं कर पाया। 1959 में मैंने यह तय किया कि अगर काम करना है तो थिएटर में ही करना है। नौकरी की तलाश में में दिल्ली गया और वहां मुझे कमलादेवी चट्टोपाध्याय के भारतीय नाट्य संघ में काम मिल गया। इस दौरान मेरी मुलाक़ात कई प्रगतिशील कलाकारों से हुई। भारतीय नाट्य संघ में काम करने के बाद मैंने अपनी सारी ज़िन्दगी थिएटर में ही लगा दी और अब आखिरी साँस तक थिएटर में ही काम करना है। थिएटर ही मेरा बिछौना है और वही ओढ़ना है।

मुंबई में वे कौन शख्स थे, जिन्होंने आपकी सोच को सबसे ज्यादा प्रभावित किया?
 जैसे मैं पहले कह चुका हूँ कि फिल्मों में सारा माहौल ही लाल था। सब से पहले मेरी मुलाक़ात रामानंद सागर से हुई। उस वक्त उनकी लिखी फिल्म बरसातजो राजकपूर साहब ने बनाई थी  वो मशहूर हुई और उसके साथ सागरसाहब को भी शौहरत हासिल हुई। मुझे जयपुर से महाराज हीरासिंह जी ने, जो बरिया रियासत के थे, बुलाया था क्योंकि उन्होंने हीरा फिल्म्स्के नाम से एक फिल्म कंपनी बनाई थी और वो चाहते थे कि मैं उनके साथ काम करूँ। कहानी रामानंद सागर साहब ने लिखी थी और कास्ट वही होनी थी जो बरसातकी थी। उस में एक केरेक्टर मुझे देने की बात हुई। सागर साहब के साथ रहने से, उन से बातें करने से वामपंथी विचारधारा की कुछ बात मालूम हुई। मगर वो फिल्म नहीं बन सकी। उनकी जगह पर बी. आर. चोपड़ा साहब आए और उन्होने दो फिल्म बनाई एक थी शोलेऔर दूसरी थी चांदनी चौक। इस दौरान बहुत कुछ सोशलिज्म की जानकारी मिली।

            यही वक्त था मेरी मुलाक़ात जनाब अख्तर-उल -इमाम से हुई। उनकी मुझ पर मेहरबानी हुई। हम दोनों की काफी बनी। यूँ कहूँ तो ग़लत नहीं होगा कि वामपंथी विचारधारा का पहला सबक अख्तर साहब ने ही पढ़ाया। उन्होंने  अपनी किताब यादेंअपने दस्तखत के साथ मुझे इनायत की जो आज तलक मेरी लाइब्रेरी को इज्ज़त फर्मा रही है। इन्हीं के साथ साहिर लुधियानवी से भी मुलाक़ात हुई। इसके बाद मेरी मुलाक़ात दीवान शरर साहब से सीसीआई क्लब में हुई। वे शांताराम साहब के लिए कहानियाँ लिखते थे। उनका असर मुझ पर काफी गहरा रहा। दीवान साहब ने ही मुझे बताया था कि रिटन वर्ड में और स्पोकन वर्ड में क्या फर्क है। यह आज नाटक लिखने में मेरी बहुत मदद करता है। मार्क्स और लेनिन के बारे में बताया करते थे। काम की खातिर में जनाब शाइद लतीफ़ साहब के पास गया। उस वक्त फिल्म आरज़ू की शूटिंग चल रही थी। न जाने क्यों मुझे वहां बहुत अपनापन और प्यार मिला। मैं बाद में बराबर जाता रहा इस उम्मीद से कि काम मिल जाये, मगर वो मक़सद बाद में नहीं रहा, अपनापन ही मुझे वहाँ ले जाता था। वहीँ मेरी मुलाक़ात इसमत आपा से हुई। वह जो हुक्म देती में बजा लाता। आरज़ूके बनाने में कौन ऐसा था जो वामपंथी नहीं था। देर रात तक उस माहौल में रहता। उनके सामने जुबां खोलना बेअदबी थी। खामोश बैठा-बैठा उनकी बातें सुनता रहता।

            अनिल बिस्वास से मेरी मुलाक़ात इसी वक्त हुई थी। वे इप्टा के मेंबर थे। इप्टा के बारे में वही बताया करते थे। जब मैं भारतीय नाट्य संघ में काम करता था तब अनिल दा दिल्ली में आये थे और वहाँ उनसे मुलाक़ात होती रहती थी। उनसे मुझे बहुत प्यार मिला। धीरे- धीरे परत-दर -परत विचार बढ़ते गए। दोस्ताना तो नहीं कह सकता मगर उनकी मुझ पर इनायत ज़रूर थी। ज़िक्र मोतीलाल साहब का भी है। मेरी नज़रों में रीयलिस्टिक एक्टिंग के वो सरताज थे। उनकी जिन्दगी शाही अंदाज से गुज़री मगर दिल उनका गरीबों का हिमायती था। उन के साथ वक्त बिता कर मैंने ज़िन्दगी के कई दस्तूर सीखे। किशोर साहू साहब से भी मिलना हुआ। अच्छी जान पहचान हुई और कई शामें उनके साथ गुजरी। अंग्रेजी और हिंदी साहित्य, थिएटर पर काफी चर्चा होती थी। उनकी मुलाक़ात भी मेरी ज़िन्दगी में काफी अहमियत रखती है।

            जयराज और डेविड से मेरी मुलाक़ात सीसीआई क्लब में हुई। यह बात सही निकली कि खूब गुजरेगी जब मिल बैठेंगे दीवाने दो ! उनके सोहबत में मॉडर्न थिंकिंग और सोशलिस्टिक सोसाइटी के बारे में बहुत कुछ समझा और थिएटर के बारे में भी। उस वक्त शेक्सपियर का ड्रामा ऑथेलो स्टेज करने की बात हुई। जयराज डायरेक्ट करने वाले थे। जयराज-ऑथेलो, बेगम पारा-डेस्मोना, डेविड-इयागो और मुझे दिया गया था रोल रोड्रिएगो का। रिहर्सल काफी हुए मगर नाटक खेला नहीं जा सका, क्योँकि वे लोग फिल्मों में व्यस्त थे। डेविड को पढ़ने का बहुत शौक था और उन्होंने मुझे कई किताबों के नाम बताये और पढ़ने को कहा। इन्ही हजरात के जेरेे-साया मेरी जिन्दगी में नया मोड़ आया।

जिस दौर का आप जिक्र कर रहे हैं उसमें सरोकार ही ज्यादा महत्वपूर्ण था, माध्यम चाहे सिनेमा हो, या नाटक या साहित्य। पर आज के थियेटर-और सिनेमा को भी- आप किस नजरिये से देखते हैं?
जिस दौर की आप बात कर रहे हैं या मैंने जिसका ज़िक्र किया वो आज़ादी के ऐन बाद का दौर है और इतिहास की नजर से देखें तो यह दौर शुरू हुआ था 1905 में। 1905 में लार्ड कर्ज़नं ने बंगाल का विभाजन किया। विभाजन हमारे सियासी, सामाजिक, धार्मिक नेताओं की समझ में यह आया कि यह हिंदुस्तान के टुकड़े करने की साज़िश है। इस सोच ने ब्रिटिश हुकूमत की खिलाफत, जो चिंगारी की शक्ल में थी, उसे आग की शक्ल में बदल दिया। तमाम लेखक और खासकर के नाटककारों ने खुलकर लिखना शुरू किया। कीचक-वधमराठी का सब से पहला नाटक था जिसने थिएटर के ज़रिये खिलाफत करना सिखाया। हिंदुस्तान की हर भाशा के थिएटर ने अपनी-अपनी तरह से समाज के सामने, अवाम के सामने, ब्रिटिश हुकूमत की नीयत की तस्वीर रखी। आजादी के बाद बदलाव आना जरूरी था। उस वक्त तक थिएटर कमोबेश ख़त्म हो चुका था। इप्टा पर भी बंदिश लागू थी। जितने भी कलाकार, शायर, लेखक थे वो सब सिनेमा में आ गये। दुश्मन गायब हो गया। उस वक्त सवाल था मुल्क को नयी दिशा देना। यही सब का मक़सद था। वह ज़माना था सोशलिज्म का। जवाहरलाल नेहरू की लीडरशिप में सोशलिज्म का ज़ोर था। सिनेमा ने भी यही दिखने की कोशिश की। पुरानी फिल्मो को देखें तो हिन्दू -मुस्लिम की दोस्ती, अमीर और गरीब में फ़र्क़, सामाजिक संस्कार, जातियों में भेद -भाव के तत्वों के साथ तमाम कलाकार, लेखक, शायर वही थे जो अपनी भाशा के थिएटर में काम किया करते थे या इप्टा के साथी थे। कहानी का अंदाज वही था, डायलाग वही तीखे और गीतों का इस्तेमाल वही था जो पारसी थिएटर और बाक़ी भाशा के थिएटर में था। चारो तरफ मक़सद यही था कि अपने मुल्क को ताक़तवर बनाएँ। सारे समाज की तमाम कुरीतियों को उसके सामने रखें ताकि वो बदल सके। लिहाज़ा उस वक्त का सिनेमा मनोरंजक होते हुए सोशिअली एंड पॉलिटिकली रिलेवेंट था।


 दिनेश भाई, कभी आपने इस बात पर गौर किया है कि अंग्रेज़ों की हुकूमत के ज़माने में आज़ादी के पहले हिंदुस्तान का बहुत ही महत्वपूर्ण साहित्य जेल में लिखा गया था। तिलक ने गीता रहस्य लिखा, तो गांधीजी ने अपनी आत्मकथा लिखी। जवाहरलाल नेहरू ने डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’, ‘लेटर्स टू डॉटरऔर मौलाना आज़ाद ने ग़ुबार-ए-खातिरजैसी किताबें लिखी। आर.एस. पंडित ने जेल में कल्हणसंस्कृत में लिखी। राजतरंगिणी और शूद्रक के नाटक मुद्राराक्षस जेल में लिखे गये। मेरे कहने का मतलब यह है कि उस वक्त सब के दिमाग में यही बात थी कि अपने मुल्क की तरक्की हो। जहाँ कहीं भी लोग थे उनका मक़सद यही था।
            यह सिलसिला क़रीब 70 के दशक तक चला। उस के बाद से फिल्मो, साहित्य में बहुत गिरावट आई।सांस्कृतिक पत्रिकाएं बंद हो गयी। थिएटर में अनुदान, ग्रांट लेने की फ़िराक़ में अजीबो-गरीब एक्सपेरिमेंट होने लगे। खासकर लोक-संस्कृति को मॉडर्न थिएटर में मिलाने लगे। न रहा मॉडर्न थिएटर और न रहा लोक। प्लेराइट की थिएटर में ज़रूरत ही नहीं रही। आज दुःख के साथ कहना पड़ता है कि हिंदी बेल्ट में कोई प्लेराइट ही नहीं है। कारपोरेट जगत के हमले ने सब को पैसे बनाने में लगा दिया। मुल्क की फिक्र किसी को नहीं -न अवाम को है, न हमारे मुल्क के नेताओं को है। जो हो रहा है वो फूहड़ मनोरंजन के लिए हो रहा है। सब कुछ बिकाऊ है। नोम चोम्स्की ने कहा है की आज के दौर का सबसे बड़ा दुश्मन कैपिटलिज्म है। कारपोरेट ने सब कुछ खरीद लिया। मीडिया को, सरकार को, हथियार बनाने की मशीनों को और मुल्कों को। उन्होंने हिदायत की कि तुम अपने आप को न बिकने दोे। अफ़सोस कि यह बात अभी तक समझ में आई नहीं है। सिनेमा, थिएटर और साहित्य इस मौजूदा दौर में अपने मक़सद से बहुत दूर हो चुके हैं। जो अपने-आप को प्रगतिशील कहते हैं वो भी तरक़ीपसन्द ख्यालों से दूर हैं। मगर एक बार फिर उम्मीद बनती नज़र आती है। कुछ फिल्में, कुछ नाटक ऐसे लिखे गए हैं जो मुल्क, समाज की बेहतरी के लिए हैं। मगर उनकी तादाद बहुत कम है ओर अवाम तक पहुंचते भी नहीं। बर्नार्ड शॉ का कहना था कि थिएटर समंदर की लहरों की तरह है। उठतीं हैं, किनारे से टक्कर देती हैं फिर शांत हो कर पीछे हट जाती हैं। चलो कामरेड, इस उम्मीद में जीते रहें कि कभी तो थिएटर की लहरें सर उठा कर समाज से टक्कर लेंगी।

हर क्षेत्र में जिस गिरावट की बात आप कह रहे हैं और कारपोरेट से लड़ने का जो सवाल है, उसमें इप्टा की क्या भूमिका बनती है?
जी हाँ ज़रूर बनती है। इप्टा कोशिश करती है मगर कर नहीं सकती। इप्टा थिएटर के ज़रिये ही अपनी ज़िम्मेदारी निभा सकती है मगर यह सही तौर पर तब ही होगा जब इप्टा की ज्यादा से ज्यादा यूनिट के पास अपनी रिपर्टरी हो जो बराबर नाटको का प्रदर्शन कर सके। गौर से देखें तो आज ज्यादा काम इप्टा ही कर रही है। फेस्टिवल भी हो रहे हैं, वर्कशॉप भी हो रहे हैं, नाटक भी हो रहे हैं। इस सवाल का जवाब हमें देना ही होगा कि ऐसी क्या वजह है कि इप्टा अपनी पहचान बनाने में खास कामयाब नहीं हुई।

            इप्टा शुरुआत में एक आंदोलन था। शायर, कलाकार, लेखक जुड़े हुए थे। वो किसी के मोहताज नहीं थे। दिल में वतन परस्ती थी, सर पर कफ़न बंधा था। नुकसान तब हुआ जब इप्टा पर हुकूमत ने पाबन्दी लगायी। पर्दा गिरा, एक बहुत लम्बा वक्फ़ा रहा। जब पर्दा उठा तो बहुत देर हो चुकी थी। मुल्क में चारों तरफ शौकिया थिएटर का बोलबाला छाया हुआ था। इप्टा भी इसी रंग में रंग गया। कलाफ़रोशों ने थिएटर को धंधा बना लिया था। अकादमियाँ अनुदान के नाम पर अफीम बाँट रही थी। थिएटर का मक़सद कम, अनुदान पाना ज्यादा। कोई भी थिएटर कारपोरेट और समाज के दुश्मनों का मुकाबला नहीं कर सकता जब तक वो सरे आम समाज में अपनी बात को बराबर न पहुँचा सके। यह काम सिर्फ एक ज़िम्मेदार रिपर्टरी कर सकती है। कभी-कभी का थिएटर  नहीं। थिएटर को पेशेवर बनाना होगा।

            पुरानी इप्टा के सामने दुश्मन साफ़ दिखाई देता था। आज दुश्मन को पहचानना बहुत मुश्किल है। क्या मालूम कोई हमारे ही बीच बैठा हो। पुराने लोग जो इप्टा में हैं उन्हें नयी पीढ़ी को बराबर बताना होगा की थिएटर क्या है, उसका मक़सद क्या है, इप्टा क्या है, कारपोरेट जगत क्या है, किस तरह से वो काम करता है। इस खुले दौर में विचारधारा गायब की जाती है। ज्यादातर लोग जो इप्टा को छोड़कर गए वो इप्टा के विचार से, उसके डिसिप्लिन में बँध कर नहीं रहना चाहते  थे। उनके छोड़ने की वजह खासकर पैसे कमाने की थी। यंग बॉयज एंड गर्ल इप्टा को छोड़ते हैं रोज़गार की तलाश में, पब्लिसिटी की तलाश में। इप्टा को अपनी ज़िम्मेदारी और समाज में भूमिका निभाने के लिए सिंसियर और डिवोटेड मेंबर्स की तलाश करनी होगी, जो इप्टा को अपना समझें।

            इप्टा को अपनी तरह के नाटक लिखने और लिखवाने होंगे। दूसरी भाशा में अगर नाटक हैं तो उनका अनुवाद करके खेलना होगा, ताकि इप्टा की विचारधारा का चारों तरफ फैलाव हो सके। इप्टा के फेस्टिवल होते हैं मगर उन में दूसरी इप्टा के यूनिट के ड्रामे होते हैं क्या? कुछ शहरों में इप्टा की रिपर्टरीज़ बनाना बहुत ज़रूरी है। मुद्दों को समझना होगा, नए नाटक लिखने होंगे। बराबर उनके प्रदर्शन करने होंगे। औरों को शायद 30.40 साल पुराने नाटकों की ज़रुरत हो, मगर इप्टा को नहीं है। इप्टा को वो नाटक चाहिए जो आज के समाज की बात करें, कारपोरेट जगत के जाल के खतरे से समाज को आगाह करे। इप्टा तभी अपनी सही ज़िम्मेदारी निभा सकती है। और इप्टा के लिए कोई मुश्किल नहीं है। इप्टा के पास विचारधारा है, डायरेक्टर्स हैं, कलाकार हैं, प्ले राइट्स हैं, म्यूजिक डायरेक्टर्स हैं -अगर नहीं है तो एक ज़िम्मेदार रिपर्टरी नहीं है। इप्टा को फिर से आंदोलन बनाना होगा।

इप्टा से जो नयी पीढ़ी जुड़ी है, क्या उनके लिये बतायेंगे कि वे कौन से हालात थे जिनकी वजह से इप्टा पर सरकारी प्रतिबंध लगा।
सीपीआई और आज़ाद हिन्द की पहली सरकार के बीच आज़ादी को लेकर ही आपसी विचारों में खिलाफत पैदा हो गयी थी। में मानता हूँ कि मेरे लिए तफ्सील से कुछ कहना मुश्किल है क्योंकि मैं उस वक्त सीपीआई से या जो सियासती बदलाव आ रहे थे, उन से जुड़ा हुआ नहीं था और उतनी जानकारी अब भी नहीं है। यह रिसर्च का विशय है और मालूमात करना निहायत ज़रूरी है की भला ऐसी क्या बात हो गयी थी की पार्टी पर पाबन्दी लगानी पड़ी जब कि जवाहरलाल नेहरू खुद बड़े सोशलिस्ट थे। इतना ज़रूर कह सकता हूँ की पाबन्दी लगी थी। इप्टा उस वक्त पार्टी का एक अहम हिस्सा थी, इसलिए इप्टा पर भी पाबन्दी लगी। जब इप्टा पर पाबन्दी लगी तो सोशलिस्ट पार्टी के कुछ मेंबर्स जो जेल में थे, उस वक्त कमलादेवी चट्टोपाध्याय, अच्युत पटवर्धन और बाकि साथियों ने तय किया कि थिएटर का काम बंद नहीं होना चाहिए। उन्होंने भारतीय नाट्य संघ की स्थापना की। रूप वही था, मक़सद वही था जो इप्टा का था। हर स्टेट में एक यूनिट हो, हर स्टेट की एक समिति हो, हर तीसरे साल राश्ट्रीय चुनाव हों...वगैरह। मगर एक बहुत गहरा फ़र्क़ था। इप्टा के उस वक्त जो मेंबर थे, तकरीबन सभी पार्टी से जुड़े विचारों से कमिटेड थे और सब क्रिएटिव आर्टिस्ट थे। भारतीय नाट्य संघ ज्यादातर शौकिया था। मगर कमलादेवीजी के लीडरशिप में सारे हिंदुस्तान पर छाया हुआ था। इंटरनेशनल थिएटर इंस्टीट्यूट ;प्ज्प्द्ध यूनेस्को का मेंबर था। भारतीय नाट्य संघ ने एशियन थिएटर इंस्टीट्यूट शुरू किया जो आगे चलकर नेशनल ड्रामा स्कूल बन गया।

            इप्टा काफी दिनों तक बंद रही। कहीं-कहीं पर थोड़ा बहुत काम होता था। 1984.85 में आगरा  में एक कांफ्रेंस बुलाई गयी और वहां इस बात का ज़िक्र हुआ की जो कुछ भी थिएटर के नाम  पर हो रहा है उसके मुक़ाबिले में एक संस्था होनी चाहिए। क्यों न इप्टा को, जो चिंगारी की शक्ल में मौजूद थी, उसे हवा दे कर पूरे हिंदुस्तान में आग की तरह फैलाई जाये। मैं पुपल जयकार और उनके तमाम साथियों का शुक्रिया अदा करना चाहूँगा कि अगर उन्होंने भारत-महोत्सव जैसा फेस्टिवल न करवाया होता तो शायद इप्टा की फिर से शुरुआत नहीं होती। आज इप्टा फिर अपने पुराने मिजाज़ में मौजूद है। सिवाय गुजरात के हर स्टेट में इस की यूनिट हैं। हज़ारों की तादाद में कलाकार जुड़े हुए हैं। इप्टा आईटीआई यूनेस्को की एसोसिएट मेंबर भी है।


आपने कारपोरेट द्वारा सबको खरीदे जाने की बात कही। इस संदर्भ में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल जैसे आयोजनों को आप किस निगाह से देखते हैं?
ब जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल शुरू हुआ था तो उसकी सूरत दूसरी थी। छोटी-छोटी सभाएं होती। वहां सुननेवाले आते। विद्वान अपनी बात कहते और सवालों का जवाब देते। बाद में इस जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को एक इवेंट मैनेजर को दे दिया गया, जिसे किसी भी भाशा के साहित्य से कोई लेना देना नहीं है। यह एक भीड़ जुटाने का तमाशा है। आज सुननेवाले कोई नहीं अपने को सजधज के दिखानेवाले हैं। एक भीड़ है जिसे दर्शक कहा जाता है। इस भीड़ को सब्जेक्ट की कोई जानकारी नहीं। लेखक को पहचानते नहीं, उसका लिखा पढ़ा नहीं। स्टेज पर कुछ लोग होते हैं, जो आपस में बेतुके सवाल-जवाब करते हैं, जिसे आज टॉक शो कहा जाता है। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल इज़ स्पॉन्सर्ड बाई फॉरेन कम्पनीज व्हिच आर ब्लैक लिस्टेड इन मेनी कन्ट्रीज। मेरी नज़रों में यह महज एक तमाशा है, साहित्य और समाज की तौहीन है। ग़ालिब के लफ़्ज़ों में
बक रहा हूँ जुनूँ में क्या-क्या कुछ
कुछ न समझे  खुद करे कोई।

जयपुर में-और पूरे राजस्थान में -खासतौर पर संगीत के मामले में लोक और शास्त्रीय, दोनों परंपराओं की शानदार विरासत रही है। इन दोनों कलारूपों के बीच अंतरसंबंधों पर आप कुछ कहना चाहेंगे?
प सही फरमा रहे हैं। लोक और शास्त्रीय संगीत की शानदार परम्परा यहाँ रही है। हर स्टेट में, चाहे छोटी या बड़ी, राजस्थान में ही नहीं सारे हिंदुस्तान में, राज दरबार में बड़े-बड़े उस्ताद और पंडित मुलाजिम रहे हैं। इन्हीं उस्तादों, संगीतकारों, नृत्यकारो से ही हर स्टेट के राज दरबार की हैसियत का अनुमान लगाया जाता था। राजस्थान के हर स्टेट और ठिकानो में संगीतकार होते थे। जयपुर में तो बहुत बड़ा गुणीजनखाना था। इसी गुणीजन खाने के साथ एक रामप्रकाश थिएटर 1876 में बना जो उस वक्त की थिएटर कंपनी थी। हर कलाकार सरकार का मुलाज़िम था। अच्छी बड़ी तनख्वाह मिलती, बुढ़ापे में पेंशन मिलती और उनका स्वर्गवास होने के बाद उनके लड़के को नौकरी मिलती ताकि परम्परा आगे चलती रहे।

            पहला हमला इस परम्परा पर तब हुआ जब अंग्रेजों की हुकूमत ने इन राजाओं को अंग्रेजी पढ़ा कर अंग्रेज बनाया। इस कदर अंग्रेजी तहजीब हावी हुई की शास्त्रीय संगीत इनके कानो को बुरा लगने लगा। शास्त्रीय संगीत के बोल और राग इनके समझ में नहीं आते थे। शास्त्रीय वादन की जगह पर हर पेलेस में पियानो ने जगह ली। बॉलरूम की धुनें और गॉड सेव द किंग बजने लगे। रही-सही परंपरा जो बची थी वो आज़ादी के बाद खत्म हो गयी। राजाओं के हाल बेहाल हुए और नए राजाओं को संगीत का शौक नहीं था। यह एक फ़िज़ूल खर्च का काम बन गया। डॉलर कमाने के लिए, विदेशी पर्यटनों को रिझाने का साधन बन गया। जितनी तबाही पर्यटन विभाग ने मचायी और किसी ने नहीं। आर्ट और कल्चर को हर तरह से बर्बाद किया। बड़े-बड़े संगीतकार राजस्थान छोड़ कर मुंबई, कोलकत्ता और दिल्ली जा बसे। अब बुलाये जाते हैं तो वो महज़ एक दिखावा है। न संगीत की जानकारी है, न महफ़िल में बैठने की तहज़ीब। दाद कहाँ दी जाये, कैसे दी जाये यह तक नहीं मालूम।

            पुराने जमाने में लोक संगीत, जो आदिवासी जंगल में गाते या अलग-अलग समाजों में शादी और त्यौहार में गाते-बजाते-नाचते उस में किसी भी तरह की कोई दखलअंदाजी नहीं थी। सब साथ मिलकर भाग लेते। मगर आज पर्यटन विभाग और कुछ कलाफ़रोशों ने इन आदिवासी लोक कलाकारों को खुल कर एक्सप्लॉइट किया और आज भी कर रहे हैं। अपनी तरह से उसे टूरिस्ट ओरिएंटेड बनाने में काफी कुछ बदलाव किये जाते हैं। राजस्थान में शायद सब से ज्यादा लांगौर मंगनियारों के संगीत में हुआ और हो रहा है। लांगा कबीर और मीरा के भजन गाते हैं मगर वो इस वजह से नहीं गवाए जाते की विदेशी मेहमानो की समझ में नहीं आएगा। कोई ताज्जुब नहीं की यह परम्परा बिलकुल बर्बाद हो जाये, क्यों की नयी पीढ़ी को यह भजन गाना नहीं आएगा। यही डांस के साथ हो रहा है। आज कालबेलिया डांस बहुत मशहूर है, मगर यह कालबेलिया डांस है ही नहीं। इसी तरह से घूमर, तेरताली, चारी डांस में भी काफी कुछ बदला जा रहा है। शास्त्रीय और लोक-कला और कल्चर कलाफ़रोशों के हाथों बिक चुका है। समाज के मुहाफ़िज़ों को इस बात की कोई फिक्र नहीं ,सरकार को महज़ दिखावा करना है जो बराबर करती है।

इप्टा में जो बिखराव आया क्या उसकी एक वजह बड़े कलाकारों की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षायें थी? यह सवाल इस तरह से भी किया जा सकता है कि जो काम हबीब तनवीर ने नया थियेटर बनाकर किया क्या वही काम इप्टा के जरिये संभव नहीं था।
 प्टा में जो भी बिखराव आया था उस की वजह न तो पाबन्दी थी और न ही व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं। इप्टा कम्युनिस्ट पार्टी का एक अहम हिस्सा थी। इसी वजह से पार्टी इप्टा पर बरगद की तरह छायी हुई थी, यह क्रिएटिव आर्टिस्ट को कभी मंज़ूर नहीं होता। क्रिएटिव आर्टिस्ट को अपनी बात कहने की आजादी चाहिए, जैसा वो कहना चाहे वैसा वो कह सके। उसे हुकुम नहीं चाहिए की इस तरह से कहो। खास करके यही वजह थी कि बड़े-बड़े कलाकार, दुनिया की बड़ी- बड़ी हस्तियां इप्टा को छोड़ कर अपने अलग-अलग ग्रुप बना कर काम करने लगे। उदय शंकर, शम्भू मित्र, उत्पल दत्त, भूपेन हज़ारिका, जसवंत ठक्कर, शांता गांधी, हबीब तनवीर वगैरह ने अपने अपने थिएटर ग्रुप्स बनाये और आज़ादी से काम करने लगे। मगर उन तमाम लोगों की विचारधारा वही रही। हाँ, एक बात हो सकती है कि आज़ादी के साथ-साथ वामपंथी होने का दाग़ दिखाई ना दे ! इनकी संस्थाओं का नाम बहुत मशहूर हुआ। इन सब की विचारधारा और मक़सद वही रहा जो इप्टा का था। मगर अफ़सोस इस बात का है कि असल तरह से पेशेवर भी नहीं हो सके। कभी भी इस बात की फिक्र नहीं की कि उनके बाद आगे क्या होगा।

            जिस व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की बात कर रहे हैं, वो आज के मौजूदा शौकिया थिएटर में है। इप्टा  लेफ्टिस्ट मानी जाती है। भला वो  राइटिस्ट सरकार से या फोर्ड फाउंडेशन जैसी और संस्थाओं से अनुदान कैसे ले सकती है? इप्टा में अनुशासन है, कुछ बंदिशें हैं उन  से वो निजात चाहते हैं। आपने हबीब भाई के नया थिएटर की बात की। नहीं, उस वक्त पुराने कलाकारों में से कोई नहीं कर सकता था- उस की ज़रुरत ही नहीं थी। उस वक्त हबीब भाई ने भी कभी नहीं सोचा था। उस ज़माने में लोक का इतना बोलबाला भी नहीं था। थिएटर पर साफ़ तौर से वेस्टर्न थिएटर की छाप थी। हबीब भाई पर भी शुरुआती दौर में वेस्टर्न थिएटर का ही इन्फ्लुएंस था। दिल्ली में जब हिंदुस्तानी थिएटर बना तो हबीब उस के साथ जुड़े और कई नाटकों का निर्देशन किया। जब उस पर पर्दा गिरा तो हबीब भाई को बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा। मैं उस दौर में उनके साथ क़रीब से जुड़ा हुआ था। उन्होंने सोवियत लैंड अखबार में नौकरी की। सिनेमा और थिएटर  की समीक्षा लिखते थे। भारतीय नाट्य संघ की पत्रिका नाट्य के लिए दिल्ली के थिएटर पर लिखते थे। दिन भर दफ्तर में काम  करने के बाद फिल्म देखना, फिर नाटक देखना, उसी वक्त उन पर लिखना और देर से घर जाना यह रोज़ का काम था। उन्होंने थिएटर में कई एक्सपेरिमेंट किये। एक पेशेवर थिएटर कंपनी खोलने की भी कोशिश की मगर साथियों ने साथ नहीं दिया। रुस्तम सोहराब नाटक के रिहर्सल हुए मगर शो नहीं हो सका। दूरदर्शन की नौकरी की मगर एक दिन वहां से भी छोड़ना पड़ा क्योंकि वो लेफ्टिस्ट थे। एक वक्त ऐसा आया था कि वो टूटने लगे थे। नाचा के कलाकारों को ले कर आये। एक नाटक किया जिस में आफताब और कुसुम हैदर जैसे कलाकारों और नाचा के कलाकारों का मिलान था। कमानी थिएटर में उसका शो हुआ। एक तरफ आफताब और कुसुम हैदर जैसे उच्च घराने के सोफिस्टिकेटेड लोग और दूसरी तरफ ठेठ जंगल के-गाँवों के कलाकार। वे एक-दूसरे से दूर रहते थे। जब नाचा का कलाकार कुसुम के पास जाता तो ऐसा लगता था कि उसके पसीने की बू कुसुम को सता रही है। जब हबीब भाई ने मुझ से पूछा की नाटक कैसा लगा तो मैंने उन्हें यही बताया था। पेशेवर  कलाकारों और एमेच्योर कलाकारों का साथ नहीं हो सकता, यह हबीब को मालूम हो गया था।

            हबीब जब पूरी तरह से तंग आ चुके थे तो वो अपने घर छत्तीसगढ़ गए। वहां घूम-घूम करके तीजन बाई और बाकी तरह तरह के अजीबो-ग़रीब कलाकारों को लेकर आए। दिल्ली में। AIFACs  थिएटर में उन सब को स्टेज पर पेश किया। एक दिन हबीब भाई की मेरी मुलाकात बैंक में हुयी। उन्होंने मुझ से पूछा ‘‘मेरा शो तुम्हें कैसा लगा?’’ मैंने जवाब दिया हबीब भाई, यह तुम्हारा काम नहीं, यह सुरेश अवस्थी का काम है। इस शो में हबीब कहीं भी दिखाई नहीं देता।’’ हबीब को मेरी बात नागवार गुज़री।

            एक दिन लक्ष्मीनारायणलाल, कमलेश्वर, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना और हम कुछ और दोस्त त्रिवेणी में कॉफ़ी हाउस में बैठे थे। हबीब के शो की ही बातें हो रही थी। मैंने मज़ाक में कह दिया कि ‘‘हबीब ने थिएटर में वो काम किया जो रामायण में हनुमान ने किया था।’’ सर्वेश्वर ने मेरे रिमार्क को दिनमान में छाप दिया। मुझे कई महीनो तक हबीब की नाराज़गी झेलनी पड़ी। मगर हमारी दोस्ती की नींव इतनी गहरी थी कि एक दिन मैं और ओ.पी. कोहली उनसे मिले तो उन्होंने मुझेे अपने गले से लगा लिया।

            जब फोर्ड फाउंडेशन ने स्कीम की कि लोक रंगमंच को मॉडर्न थिएटर में मिलाने से भारतीय रंगमंच शक्तिशाली हो जायेगा तो मैं उस वक्त राजस्थान संगीत नाटक अकादमी का वर्किंग प्रेसीडेंट था (ऐसा लगता है कि मेरी क़िस्मत में वर्किंग प्रेसीडेंट होना ही लिखा है!)। मैं इस स्कीम के सख्त खिलाफ था। कई आर्टिकल्स भी लिखे। मगर हबीब भाई ने फोर्ड फाउंडेशन से रिपर्टरी चलाने के लिए ग्रांट ले ली। हम दोनों में शिकवा -शिकायत भी हुयी। कई औरों ने भी ली। कुछ ने लोक से उस की ताम-झाम ली, संगीत लिया और बिलावजह उसे अपने नाटकों में इस्तेमाल किया। कुछ ने उन्हीं के पास जाकर काम किया। यूँ कहूँ तो ठीक होगा की उन्हें एक्सप्लॉइट ही किया। हबीब भाई ही एक ऐसे शख्स थे, जिन्होंने अपने अनुभव, अपने टैलेंट को काम में लिया और नाचा के कलाकारों से ही अपनी रिपर्टरी बनायी और उन्हीं के साथ काम किया। हबीब ने ऐसे कलाकारों को साथ लिया जिन्हें टीवी और फिल्मों में जाने की कोई तमन्ना नहीं थी। वो ईमानदारी और वफादारी से थिएटर के थे और हबीब ने भी उनके साथ अपनापन, ईमानदारी और वफादारी निभायी। ऐसा करना औरों के बस की बात नहीं थी। सारी दुनिया में नाम कमाया। यह दूसरे नहीं कर सके। कई लोगों ने फोर्ड फाउंडेशन की ग्रांट ली थी। कइयों का ईमान गया, कइयों की विचारधारा। क्या बात थी कि सिर्फ हबीब भाई ने अपना थिएटर बनाया, विचारधारा को भी नहीं छोड़ा। यह काम और क्यों नहीं कर सके। हबीब ने किसी और नाटककार का नाटक नहीं खेला, उसने कहानी का भी नाटक नहीं किया। हबीब मुक़म्मिल तौर पर थिएटर आर्टिस्ट थे। वो नाटककार थे, वो डायरेक्टर थे, वो एक्टर थे, वो शायर थे, वो ग़रीबों के मसीहा थे, वो एक सच्चे इंसान थे। हबीब भाई में अगर कोई कमज़ोरी थी तो वो हिसाब -किताब, एकाउंट्स करने की। मगर बाद में जब सर पर आन पड़ी तो वो भी सीख लिया था। जो काम हबीब भाई ने किया वो मुश्किल काम था मगर वही कर सकते थे और कोई नहीं। हो भी सकता है कि ज़माने में कभी कोई आए जो कर सके मगर अभी कोई नहीं है। इप्टा न पहले कर सकती थी और न आज कर सकती है। जो वो कर सकती है अगर उसे खूबसूरती से कर ले तो बहुत है।

आप इप्टा के वर्किंग प्रेसीडेंट भी हैं। इस नाते संगठन में क्या कमजोरी देखते हैं जिन पर फौरन काम किये जाने की जरूरत है?
दिनेश भाई, यह अपने बड़ा टेढ़ा सवाल पूछा है!


Tuesday, October 28, 2014

विवेचना जबलपुर का इक्कीसवां राष्ट्रीय नाट्य समारोह


.हिमांशु राय की रपट
विवेचना के नाट्य समारोह का यह 21 वां साल था। नाट्यगृह तरंग को रोशनी और रंगारंग बोर्ड से सजाया गया था जो अपनी भव्यता के कारण सभी को आकर्षित कर रहा था। विवेचना के इक्कीसवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह का उद्घाटन जाने माने अभिनेता व निर्देशक श्री अशोक बांठिया ने किया।  इस अवसर पर विवेचना के हिमांशुु राय, वसंत काशीकर, बांके बिहारी ब्यौहार, अनिल श्रीवास्तव उपस्थित थे। मध्यप्रदेश विद्युत मंडल परिवार की ओर से श्री मनु श्रीवास्तव सी एम डी, श्री डी के गुप्ता महासचिव क्रीड़ा परिषद व श्री शैलेन्द्र महाजन, एस पी हरिनारायणाचारी मिश्र, कलेक्टर शिवनारायण रावला उपस्थित थे। श्री अशोक बांठिया ने कहा कि विवेचना का यह समारोह और इसी कारण जबलपुर पूरे देश में जाना जाता है। हिमांशु राय ने नाट्य समारोह और इसमें आमंत्रित नाटकों व निर्देशकों के बारे में बताया। श्री बांकेबिहारी ब्यौहार ने संचालन किया।

ठहाकों के बीच संपन्न हुआ कंजूस नाटक का मंचन

नाट्य समारोह के उद्घाटन के पश्चात् विवेचना के कलाकारों ने ’कंजूस’ नाटक का मंचन किया। यह नाटक फ्रेंच नाटक कार का लिखा 350 साल पुराना हास्य नाटक है जिसके मंचन पूरी दुनिया में होते रहे हैं। हजरत आवारा के द्वारा किए गए इस रूपांतर के मंचन एन एस डी रिपर्टरी ने भी किए हैं।

मिर्ज़ा सख़ावत बेग बुजुर्ग हैं पर दूसरी शादी की ख़्वाहिश रखते हैं। मगर वो चाहते हैं कि लड़की कमउम्र हो, कमखर्च हो और साथ में दहेज भी लाए। उनके पास बहुत पैसा भी है और वो उसे छुपा कर रखते हैं। उनका लड़का फरूख और लड़की अजरा भी शादी लायक हैं उनके भी अपने सपने हैं। पर मिर्जा सखावत बेग की उनकी शादियों के लिए भी अपनी चालें हैं। वो पैसा बचाने के लिए अपनी लड़की अजरा की शादी एक बुजुर्ग असलम से करने की तैयारी में हैं। और एक गरीब लड़की मरियम से खुद शादी करने की फिराक में हैं जो उनके लड़के फरूख की मंगेतर है। इसी बीच नाटकों में संयोगों और गड़बड़ियों की बारिश शुरू हो जाती है। ऐसे ताने बाने और जोड़ तोड़ बनते हैं दर्शक लोट पोट हो जाते हैं। 

नाटक में मिर्जा बने आशीष नेमा, फरजीना बनी दीपा सिंह और अल्फू के रोल में विनय शर्मा ने खूब प्रभावित किया। अजरा के रोल में दीप्ति सिंह, फरूख बने ब्रजेन्द्र सिंह, नम्बू के रोल अक्षय ठाकुर नासिर बने आयुष राय मरियम बनी खूशबू जेठवा, हवलदार बने सीताराम सोनी और असलम के रोल में संजय जैन दलाल बने सौरभ पाठक खूब जमे। नाटक में तपन बैनर्जी का निर्देशन चुस्त था। दर्शकों को हंसाने में कामयाब रहे। संजय गर्ग की मंच व्यवस्था अनुकूल थी।

नियति, भाग्य और कर्म की लड़ाई है मानव जीवन

दूसरे दिन 9 अक्टूबर 2014 को जयपुर की संस्था नाट्यकुलम ने अशोक बांठिया के निर्देशन में ’नियति’ नाटक का भव्य मंचन कर दर्शकों को रसविभोर कर दिया। यह नाटक ग्रीक त्रासदी नाटक ’राजा इडिपस’ का हिन्दी रूपांतर है। यह नाटक ग्रीस का हजारों साल पुराना नाटक है परंतु अपनी कथावस्तु और दर्शन के कारण नाट्य जगत में बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इस नाटक में से यह जाहिर होता है कि कर्म बहुत अच्छा होने के बावजूद नियति किस तरह अपना खेल खेलती है। भारतीय दर्शन कर्म और भाग्य की बात करता है। क्या इंसान केवल नियति का खिलौना है और कोई अदृश्य शक्ति हमें नियंत्रित करती है ? इसीलिए मनुष्य अपने कर्माें से अपनी आत्मा के उत्थान के लिए प्रयासरत रहता है। सोफोक्लीज़ ने अपनी अमर रचना के माध्यम से नियति को अंतिम सत्य माना है और मनुष्य को मात्र एक अभागा प्राणी।

राजा इंदीवर इडिपस अकाल, महामारी और तबाही से जूझ रही अपनी प्रजा के लिये व्यथित था। करसन सिंह भैरव देवता से यह खबर लाता है कि इस तबाही का कारण एक अभिशप्त आत्मा है। अपराधी को देशनिकाला दिये जाने या फांसी पर लटकाये जाने पर ही विनाश से बचा जा सकता है। भविष्यवक्ता त्रिकाल बाबा इंदीवर को बताता है कि एक व्यक्ति जिसने अपने पिता की हत्या की है, अपनी मां से शादी की है और जो अपने बच्चों का भाई है, वही असल अपराधी है। और जब तक उसे दंड नहीं दिया जाएगा, इस देश को आपदा से कोई नहीं बचा सकता। इंदीवर जो एक दूसरे देश से आया है उस आदमी को पकड़ने की प्रतिज्ञा करता है। 

यहां से एक ईमानदार,समर्पित इंदीवर जो एक राजा है उसका संघर्ष नियति के साथ शुरू होता है। उसकी खोज परत दर परत नए नए सत्य उद्घाटित करती है। वो राज्य में उस पापी को खोजने के लिए जमीन आसमान एक कर देता है। फिर धीरे धीरे सत्य उद्घाटित होता है। वो ये कि घटनाओं के उपर उसका कोई बस नहीं था। लेकिन सचाई यही है अपराधी वही है। उसी ने अपने पिता की हत्या की और उसी ने अपनी मां से शादी की। हालांकि अनजाने में कहानी बहुत नाटकीय और रहस्यमयी तरीके से नियति के खेल को सामने लाती है।
नाटक में इंदीवर की प्रमुख भूमिका को अंतरिक्ष नागरवाल ने बहुत दमदारी से निभाया। रानी के रोल में गरिमा पारिख और करसन सिंह के रोल में योगेन्द्र सिेह ने प्रभावशाली अभिनय किया।

नाटक का संगीत पक्ष बहुत मजबूत था। गुरमिंदर सिंह पुरी ने अपने संगीत और गायन से नाटक को बहुत उंचाई पर पंहुचाया। नाटक में पूरे स्टेज पर भव्य सैट लगाया गया था जो नाटक के चरित्र के अनुरूप था। नाटक मंे लाइट और कास्ट्यूम बहुत प्रभावशाली थे। नियति एक पूर्ण नाटक साबित हुआ जिसका हर पक्ष बहुत सशक्त था। इसमें सिद्धहस्त प्रशिक्षित कलाकार नहीं थे परंतु सभी ने बहुत सशक्त अभिनय किया। इंदीवर के रोल में अंतरिक्ष नागरवाल ने अपने अभिनय से हर दर्शक को प्रभावित किया। नाटक का सैट ग्रीक नाटकों की तर्ज पर बहुत भव्य था। नाटक के अंत में निर्देशक अशोक बांठिया को श्री हरि भटनागर की पेन्टिग स्मृतिचिन्ह के रूप में प्रदान की गई। नाटक के आरंभ में निर्देशक अशोक बांठिया का अभिनंदन श्रीमती गोपाली चन्द्रमोहन और श्रीमती गीता तिवारी ने किया।

टी वी की बहस में सार्थकता की खोज

तीसरेे दिन 10 अक्टूबर 2014 को मुखातिब थियेटर ग्रुप मुम्बई ने इश्तियाक आरिफ खान के निर्देशन में ’सार्थक बहस’ का मंचन कर दर्शकों का खूब मनोरंजन किया। यह एक व्यंग्य नाटक है पर इसमें इतना कुछ सार्थक कहा गया कि दर्शक लगातार तीखे व्यंग्य का आनंद लेता रहा। नाटक की विशिष्टता इसकी कथा की बुनावट और कलाकारों के अभिनय मंे है। 
भारत के ऐतिहासिक नाटककार भास के द्वारा लिखित नाटक ’कर्णभारम’ और ’उरूभंगम’ का मंचन एक गांव में हुआ। टी वी चैनल केजी टी वी एक कार्यक्रम में यह दिखा रहा था कि उस नाटक के कारण गांव में विवाद हुआ। मीडिया यह दिखा रहा था कि किस तरह से एक मामूली विवाद एक बड़े झगड़े का रूप ले लेता है और जिसके कारण कई लोग बुरी तरह घायल हो जाते हैं। उस इलाके की शांति खतरे में पड़ जाती है। के जी टी वी द्वारा बहस में शामिल होने के लिए कई विद्वानों को बुलाया गया है। पर किस तरह से यह बहस हास्यास्पद हो जाती है यह इस नाटक का विषय है।

पूरे नाटक में टी वी की बहस ही चलती रहती है। इसमें बैठे विद्वान लगातार बोलते रहते हैं। विषय पर कोई नहीं बोलता न कर्णभारम और उरूभंगम नाटकों से किसी को कोई मतलब है। सबसे हास्यास्पद स्थिति तब होती है जब टी वी चैनल के संवाददाता के माध्यम से उस गांव के लोगों को पता चलता है कि गांव मंे झगड़ा हो गया है। क्योंकि कोई झगड़ा हुआ ही नहीं था। कलाकारों को बार बार टी वी पर बोलने के लिए कहा जाता है मगर बोलने नहीं दिया जाता क्यांेकि तब तक आमंत्रित विशेषज्ञ आपस में लड़ने लगते हैं। अलग अलग वि़द्वानांे की भूमिका कलाकारों ने बहुत अच्छे से निभाई और इस सार्थक बहस का परिणाम ये हुआ कि दर्शक बहुत जागरूक होकर प्रेक्षागृह से निकलता है। निर्देशक ने हास्य और व्यंग्य के बहाने दर्शकों तक यह बात पंहुचाने की कोशिश की कि टी वी की बहसों से प्रभावित होकर वे कोई भावनात्मक निर्णय न लें क्योंकि ये बहसें भी इन चैनलों के व्यापार का एक हिस्सा हैं और इनका यथार्थ से कोई संबंध हो यह जरूरी नहीं। निर्देशक का कहना है कि मीडिया जिसकी जिम्मेदारी है कि वो देश को एक सुचिन्तित दिशा दे वही उसे एक भ्रमित, अस्तव्यस्त और अराजकता से भरा देश बना रहा है। हम अपनी धारणा बनाने के बजाए मीडिया से प्रभावित धारणा बना रहे हैं। हमारा हीरो कौन हो ? क्या खाएं ? परिवार और मित्रों के साथ कहां जाएं ? क्या पहनें ? टायलेट में क्या इस्तेमाल करें ? किससे शादी करें ? इस जैसे सभीे प्रश्न भी अब मीडिया ही तय कर रहा है। मीडिया के लिए केवल टीआरपी महत्वपूर्ण है चाहे देश में आग ही क्यों न लग जाए।

नाटक का निर्देशन बहुत कल्पनापूर्ण था। टी वी चैनल का सैट लगाया गया था। सभी कलाकारों ने बहुत सटीक अभिनय से अपनी छाप छोड़ी। वेशभूषा नाटक के अनुरूप थी। नाटक के अंत में नरेश मलिक सहनिर्देशक को श्री हरि भटनागर की पेन्टिग स्मृतिचिन्ह के रूप में प्रदान की गई।

औरंगजेब के भव्य मंचन से दर्शक अभिभूत 

चैाेथे दिन न्यू देहली थियेटर वर्कशाॅप ग्रुप के द्वारा ’औरंगजेब’ नाटक का मंचन किया गया। नाटक की भव्य प्रस्तुति वर्षों याद रखी जाएगी। औरंगजेब का किरदार निभा रहे महेन्द्र मेवाती ने अपने अभिनय से दर्शकों को निराला अनुभव दिया। यह नाटक भारत के आज के नाटकों का सर्वाधिक चर्चित नाटक है। इसके जबलपुर में मंचन हेतु विवेचना वर्षों से प्रयासरत थी। इंदिरा पार्थसारथी के इस तमिल नाटक का हिन्दुस्तानी रूपंातर शाहिद अनवर ने किया है। 

सन् 1657 में जब शाहजहां बीमार हुआ तो उनके चार बेटों के बीच उत्तराधिकार की लड़ाई छिड़ गई। दारा शिकोह और औरंगजे+ब प्रमुख दावेदार थे और शाहजहां की दोनों लड़कियां जहांनारा और रोशनआरा क्र्रमशः दारा और औरंगजेब का समर्थन कर रहीं थीं। शाहजहां स्वयं दारा के पक्ष में था जोकि अकेला ही उस दौरान आगरा में था। शाहजहां के काले संगमरमर के महल के ख्वाब को पूरा करने के लिए दारा तैयार था। उस समय का मुगल दरबार राजनैतिक पैंतरेबाजियों का अखाड़ा बना हुआ था। 

नाटक औरंगजेब के दो जासूसों की बातचीत से शुरू होता है जो बताते हैं कि उन पर भी नजर रखी जा रही है। ये औरंगजेब के शक्की स्वभाव का बयान है। नाटक में इतिहास के उन हिस्सों को लिया गया है जो उस समय औरंगजेब, दाराशिकोह और शाहजहां के बीच के द्वंद्व को ठीक तरह से उभारते हैं। 

नाटक उस समय महल के अंदर चल रहे उतार चढ़ाव पर पैनी नजर डालता है। इस सत्ता संघर्ष के सभी खिलाड़ी अलग अलग स्वभाव और अलग अलग राह के राही है। शाहजहां रूमानी और अपने आप में खोये हुए हैं। औरंगजेब मजहबी हैं तो दारा बहुलता के हामी हैं। नाटक शाहजहां और औरंगजेब, दारा और औरंगजेब, जहांनारा और रोशनआरा के बीच के अंतर को पकड़ने की कोशिश करता है। शाहजहां अतीत में तो दारा भविष्य और औरंगजेब वर्तमान में रहता है।औरंगजेब की जीत उसकी जमीनी सच्चाई से करीब होने पर है मगर उम्र के आखिरी पड़ाव में वो बिल्कुल अकेला है अपने से सवाल पूछता हुआ। उसका राज्य बिखर रहा है और वो कुछ नहीं कर पा रहा है।

निर्देशक के एस राजेन्द्रन ने बताया कि औरंगजेब नाटक इतिहास के किरदारों और महलों के अंदर चल रही शतरंजी चालों को सामने लाता है। एक ढहते साम्राज्य का सबसे ज्यादा फायदा सत्ता के गलियारों में घूमने वाला अवसरवादी उच्च वगै और मिलिट्री उठाती है और ये वर्ग अपने फायदे के सभी समझौते करने को तैयार रहता है। शाहजहां की दोनों पुत्रियां अपने अपने पसंदीदा भाई की तरफ से अपनी अपनी चालें चलती हैं। ये माहौल का परिणाम था जो उस दौरान मुगल दरबार के गलियारों और तख्त के आसपास मौजूद था।
इस नाटक का मुख्य तत्व हमें वह आधार प्रदान करता है जिससे हम सत्ता के शीर्ष पर बैठे चरित्रों की मनोदशा, उनके डर, उनकी चिन्ताओं को समझ सकें जो परिस्थितियों के संकट पर घिरते जाने के साथ साथ और भी घनी होती जाती हैं। यह नाटक इमरजेंसी लगने के पहले सन् 1974 में लिखा गया। यह नाटक अन्य चीजों के अलावा एक देश एक भाषा एक धर्म के सिद्धांत की आलोचनात्मक पड़ताल करता है। औरंगजेब की आज के समय में कहीं ज्यादा राजनैतिक और सांस्कृतिक प्रासंगिकता है।

नाटक में औरंगजेब बने महेन्द्र मेवाती ने अभिनय का कीर्तिमान स्थापित किया। औरंगजेब के व्यक्तित्व और उसकी विचित्रताओं, उसकी मनोदशा को मेवाती ने सच्ची अभिव्यक्ति दी। दारा के रूप में इमराज राजा नाटक के दूसरे नायक नजर आते हैं। जहांनारा बनी आशिमा खन्ना बहुत शानदार थीं। रोशनारा बनी प्रियंका शर्मा, शाहजहां बने नीलेश दीपक ने कमाल का अभिनय किया। नाटक सैट भव्य था और शाहजहंा के महल का पूर्ण आभास कराता था। नाटक के अंत में निर्देशक के एस राजेन्द्रन को श्री हरि भटनागर की पेन्टिग स्मृतिचिन्ह के रूप में प्रदान की गई।

Saturday, October 18, 2014

इप्टा भिलाई की चौथी अंतर महाविद्यालयीन नाट्य प्रतियोगिता सम्पन्न



युवाओं को वैचारिक सोच के साथ रंगमंच से जोड़ने और उन्हें मंच प्रदान करने के उद्देश्य से आयोजित चतुर्थ इप्टा अंतर महाविद्यालयीन नाट्य प्रतियोगिता का समापन १२ अक्टूबर 2014 को नेहरू सांस्कृतिक भवन सेक्टर 1 में सम्पन्न हुआ। समापन समारोह के मुख्य अतिथि छत्तीसगढ़ इप्टा के वरिष्ठ साथी सुभाष मिश्रा थे।  इस अवसर पर प्रसिद्ध भजन,ग़ज़ल गायक प्रभञ्जय चतुर्वेदी भी विशेष रूप से उपस्थित थे। 

इप्टा भिलाई द्वारा आयोजित इस महत्वपूर्ण नाट्य प्रतियोगिता में दुर्ग-भिलाई के सात महाविद्यालयों के कुल १०१ छात्र -छात्राओं ने भागीदारी की। दिनाँक 12 अक्टूबर 2014 को पहली प्रस्तुति साईं महाविद्यालय की "ताज महल का टेंडर" तथा अंतिम प्रस्तुति स्वामी श्री स्वरूपानंद सरस्वती महाविद्यालय की "रोशनी" थी । लाल फीताशाही और कार्पोरेट स्तर पर भ्रष्ट्राचार तथा राजनीति से लेकर खेल संघों में व्याप्त भाई भतीजावाद पर करारे व्यंगों पर आधारित इन नाटकों के अलावा महिला उत्पीड़न,नारी स्वतंत्रता,भ्रूण हत्या जैसे विषयों पर गर्ल्स कॉलेज दुर्ग का नाटक "आधी आबादी का पूरा हिस्सा"सेंट थॉमस कॉलेज का "नारी तो है कुदरत का उपहार"एवं शासकीय विश्वनाथ यादव तामस्कर स्नातकोत्तर महाविद्यालय का नाटक "औरत एक कोलाज़" एक सैनिक की व्यथा पर आधारित रस्तोगी नर्सिंग कॉलेज का नाटक "सिपाही की माँ" तथा समाज में व्याप्त विसंगतियों पर आधारित कल्याण कॉलेज का नाटक "प्यासा आदमी" दर्शकों के बीच काफी सराहे गये। मराठी रंगमंच की वरदा जोशी,मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ इप्टा के वरिष्ठ साथी सतीश शर्मा तथा दृष्टिकोण नाट्य संस्था के सुब्रत शर्मा इस स्पर्धा के निर्णायक थे। 

इप्टा के वरिष्ठ साथियों ख्वाजा अहमद अब्बास,बलराज साहनी,कैफ़ी आज़मी,हबीब तनवीर,ए के हंगल आदि के नाम से घोषित सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुतिओं एवं अभिनेता,अभिनेत्री पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुति का प्रथम पुरस्कार (पांच हज़ार रु नकद +ट्राफी तथा प्रमाणपत्र) रस्तोगी कॉलेज ऑफ़ नर्सिंग के नाटक "सिपाही की माँ" को,द्वितीय पुरस्कार (तीन हज़ार रु नकद +ट्राफी तथा प्रमाणपत्र) कल्याण कॉलेज के नाटक "प्यासा आदमी को और तृतीय पुरुस्कार (दो हज़ार रु नकद +ट्राफी तथा प्रमाणपत्र) गर्ल्स कॉलेज के नाटक "औरत एक कोलाज़ "को दिया गया। शासकीय विश्वनाथ यादव तामस्कर स्नातकोत्तर महाविद्यालय के नाटक "औरत एक कोलाज़"को स्पेशल जूरी अवार्ड से नवाजा गया । 

सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का प्रथम पुरस्कार पुष्पा तांडे (सिपाही की माँ ),द्वितीय पुरस्कार नेहा साहू ( औरत एक कोलाज़ ),तृतीय पुरस्कार चित्रिका मानिकपुरी ( आधी आबादी का पूरा हिस्सा) तथा सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का प्रथम पुरस्कार किसन सिन्हा (प्यासा आदमी ),द्वितीय पुरस्कार दिलेश्वर साहू (औरत एक कोलाज़ ),तृतीय पुरस्कार भाविक रूपड़ा (प्यासा आदमी ) को तथा नागेश्वर(ताज महल का टेंडर ) एवं तनुश्री सेनगुप्ता (औरत एक कोलाज़ )को सान्तवना पुरस्कार प्राप्त हुए । नाटकों के विषय, प्रस्तुतीकरण और प्रतिभागियों की सक्रियता को देखकर उम्मीद है इस आयोजन से दुर्ग - भिलाई के युवाओं में रंगमंच के प्रति एक विचार के साथ रूचि पैदा होगी । 

राजेश श्रीवास्तव

Thursday, October 9, 2014

जन आंदोलन जनता का सबसे बड़ा हथियार है : आेम पुरी

अभिनेता ओमपुरी से मो. जाकिर हुसैन  की बातचीत

व्यवस्था के खिलाफ अपनी फिल्मों में उन्होंने शुरूआती दौर में जो आक्रोश दिखाया था, आज भी वैसा ही तेवर उनमें मौजूद है। फिल्म अभिनेता और सामाजिक कार्यकर्ता ओम पुरी आज भी मानते हैं कि व्यवस्था बदलने के लिए जन आंदोलन बेहद जरुरी है। पर्यावरण जैसे मुद्दों से लेकर  वह ‘निर्भया’ जैसे बड़े आंदोलन के हिमायती हैं। 4-5 अक्टूबर को छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर हुए वाइल्ड लाइफ फिल्म फेस्टिवल शिरकत करने ओम पुरी खास तौर पर  आए थे। दो दिन के व्यस्त कार्यक्रम के बाद फुरसत पाते ही ओमपुरी ने बातचीत  के लिए वक्त निकाला। इस दौरान उन्होंने साफगोई के साथ बहुत कुछ अपनी कही और कुछ आज के मुद्दों पर बात की। उनसे हुई बातचीत इस प्रकार है :

0 तीन अलग-अलग दशकों में यहां के तीन दौरे...अब तक छत्तीसगढ़ को किस तरह बदलता हुआ पाते हैं आप? 
00 मैं तीन दशक में तीन बार यहां आया। 1981 में तो ‘सद्गति’ शूटिंग के लिए हम लोग ट्रेन से आए थे। तब छत्तीसगढ़ के गांव में जाने का मौका मिला था। उसके बाद 2007 में आया तो एयरपोर्ट पर उतरा। इस बार भी एयरपोर्ट से होटल और शहर तक चौड़ी-चौड़ी सड़कें बन चुकी हैं और चारों तरफ  शहर फैल चुका है। कई बड़े होटल बन गए हैं। शहर ने काफी ग्रो किया है। बिल्डिंगें बन गईं और मॉल भी तन गए। 

0 मतलब बिल्डिंग और शॉपिंग मॉल अब तरक्की का पैमाना है..? 
00 नहीं ऐसा नहीं है....मुझे बहुत गर्व नहीं होता इस मॉल कल्चर पर। मॉल तो गरीब आदमी को  चिढ़ाते हैं कि देख..बे...

0 छत्तीसगढ़ के श्रमिक नेता स्व.शंकर गुहा नियोगी से आप प्रभावित रहे हैं। उन्हें कैसे याद करते हैं? 
00 हां, उनसे वाकिफ था मैं। सोते वक्त उन्हें खिड़की से फायर कर मारा गया। मुझे खबर लगी तो बहुत तकलीफ हुई थी। मजदूरों के लिए बहुत काम किया था उन्होंने। आज उनके संगठन का क्या हाल है, मुझे नहीं पता। 

0 छत्तीसगढ़ में ‘सद्गति’ की शूटिंग का दौर कैसे याद करते हैं आप? 
00 बहुत सी यादें हैं। हमारे डायरेक्टर सत्यजीत रे साहब के साथ मैं, स्मिता पाटिल, मोहन अगाशे , गीता सिद्धार्थ सहित पूरी यूनिट रायपुर में जयस्तंभ चौक के एक होटल में रुके थे। होटल से लगा एक सिनेमा हॉल था, जहां उस वक्त ‘एक दूजे के लिए’ फिल्म लगी हुई थी। रोज सुबह 7 बजे हम लोग महासमुंद के लिए रवाना हो जाते थे। महासमुंद बड़ी शांत जगह है। मुझे याद है एक गांव था जहां हमनें लगातार 20 दिन तक शूटिंग की, बड़े अच्छे से काम हुआ। रोज शूटिंग पूरी कर शाम 7 बजे तक हम लोग होटल लौटते थे। थकान इतनी होती थी कि खाना खाते ही नींद आ जाती थी लेकिन सिनेमा हॉल में चल रही पिक्चर की आवाज मेरे कमरे की दीवारों और खिड़कियों से टकराती रहती थी। एक दिन रे साहब ने छुट्टी दी तो मैनें राज टॉकीज में जाकर वह फिल्म देखी। (इस बातचीत के दौरान मौजूद रहे वरिष्ठ पत्रकार सुदीप ठाकुर ने जब इस दौरान बताया कि बात राज टॉकीज और होटल मयूरा की हो रही है तो ओमपुरी को भी तुरंत याद आ गया और बोल पड़े-हां मयूरा होटल था वो)

0 छत्तीसगढ़ की लोकेशन पर ‘सद्गति’ फिल्म का आधार क्या था? 
00 देखिए, मुंशी प्रेमचंद ने अपनी कहानी ‘सद्गति’ गांव को केंद्र में रख कर लिखी थी। उसमें छत्तीसगढ़ की जगह यूपी-बिहार का भी गांव होता तो भी दिक्कत नहीं होती। वो फिल्म तो किसी भी गांव की लोकेशन पर बनाई जा सकती थी। मुझे जहां तक याद आ रहा है, सत्यजीत रे साहब कलकत्ते से अपने किसी परिचित के बुलावे पर यहां लोकेशन देखने आए थे और मुंबई-हावड़ा ट्रेन रूट पर सीधा रास्ता होने की वजह से लोकेशन उन्हे जंच गई थी। बस इतनी सी बात है। मुझे सत्यजीत रे साहब ने ‘आक्रोश’ में देखने के बाद  ‘सद्गति’ के लिए साइन किया था।  फिर इसमें छत्तीसगढ़ के बहुत से कलाकारों ने भी काम किया। मेरी बेटी धनिया का किरदार निभाने वाली ऋचा मिश्रा की आज भी मुझे याद है। छोटी सी बच्ची थी वो..अब तो बड़ी हो गई है।

0 जंगल और गांव की लोकेशन पर आपने बहुत सी फिल्में की है। यह संयोग था या फिर आपकी पसंद..? 
00 संयोग ही कह सकते हैं क्योंकि उस दौर में तो जैसी फिल्में मिली, हमें करनी ही थी। वैसे निजी तौर पर कुदरत के करीब रहना मुझे ज्यादा पसंद है। कुछ चेहरा-मोहरा भी वैसा ही है कि शुरूआती दौर में फिल्म बनाने वाले भी मुझे लेकर जंगल, गांव या दलित से जुड़े मुद्दे पर ही फिल्म बनाना चाहते थे। इसमें कई बार धोखे भी हुए। 1978 की बात है, एक सज्जन रस्किन बांड की कहानी ‘द लास्ट टाइगर’ पर फिल्म बनाना चाहते थे। मुझे, टॉम आल्टर और एक नए चेहरे नरेश सूरी को उन्होंने लिया। स्क्रिप्ट शायद प्रसिद्ध व्यंग्यकार शरद जोशी लिख रहे थे। हमारी 10 लोगों की टीम को वो सज्जन संथाल परगना (आज के झारखंड) में जंगल के अंदर 25 किमी दूर एक गांव में ले गए। वहां दो कमरे के एक कच्चे मकान में उन्होंने मुझे ठहरा दिया। अंदर जाकर देखता हूं तो उपर छत ही नहीं है। नीचे खटिया बिछाने जा रहा हूं तो पास से एक सांप रेंगते हुए आगे बढ़ रहा है। खैर, रात किसी तरह कटी लेकिन, सुबह वो जनाब खुद ही गायब हो गए। दोपहर तक हम लोगों ने इंतजार किया लेकिन जब वो नहीं आए तो हम लोगों ने 25 किमी पैदल सफर तय कर सर्किट हाउस तक पहुंचे और उस पूरी फिल्म के प्रोजेक्ट से ही तौबा कर ली। 

0 फिल्मों की शूटिंग के जरिए जंगलों और गांवों को कितना देख या समझ  पाए? 
00 फिल्में ही क्यों। जब भी मौका मिलता है मैं जंगल और गांव ही जाना पसंद करता हूं। अपने देश के ज्यादातर रिजर्व फारेस्ट में जा चुका हूं। अपने करियर के शुरूआती दौर में 1977 में किसी डाक्यूमेंट्री फिल्म के लिए बस्तर के किसी गांव में भी आया था। एक आदिवासी के झोपड़े के बाहर...चांदनी रात में खुला आसमान..क्या अद्भुत दृश्य था मैं बता नहीं सकता। मुझे लगा यही तो जन्नत है। पत्ते के बने दोने में छक कर महुआ पिया। मुझे तो महुआ चढ़ गया था।  

0 पर्यावरण को बचाने भारतीय फिल्म जगत अपना योगदान कैसे दे सकता है? 
00 हमारा फिल्म जगत तो फिल्में ही बना सकता है। प्रकाश झा ने ‘चक्रव्यूह’ बनाई थी नक्सल मूवमेंट के बारे में। ऐसे ही पर्यावरण पर भी बड़े पैमाने पर फिल्म बनाई जा सकती है जिसमें शिकारी, फारेस्ट गार्ड, भ्रष्ट नेता, उद्योग जगत और समाज के दूसरे किरदार शामिल किए जा सकते हैं। क्योंकि हमारे जंगल इन्हीं तत्वों के गठजोड़ से बरबाद हो रहे हैं। ऐसी फिल्में जरुर बनाई जानी चाहिए, जिससे समाज में और ज्यादा जागरुकता आए। 

0...लेकिन बड़े बजट की फिल्में तो दूर की बात है। फिलहाल तो पर्यावरण को लेकर जो डाक्यूमेंट्री बनती है, उन्हें दर्शक नसीब ही नहीं होते? 
00 हमारे डाक्यूमेंट्री फिल्म मेकर तो अच्छे मन और बड़े पैशन के साथ डाक्यूमेंट्री बनाते हैं। सच है कि दर्शक इन्हें मिलते नहीं। इसलिए सबसे पहले तो हमारे नेताओं को ऐसी डाक्यूमेंट्री फिल्में दिखानी चाहिए। तब ही ये नेता समझेंगे कि हमारी नीतियों में कहां खराबी है। पर अफसोस कि उनके पास समय ही नहीं होता और वो दूसरी समस्याओं में उलझे रहते हैं। साफ कहूं तो यह पर्यावरण मंत्री की जवाबदारी है कि वो ऐसी फिल्मों को न सिर्फ देखे बल्कि दूरदर्शन के माध्यम से इसे प्रसारित भी करवाए। जिससे ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पर्यावरण की वास्तविकता पहुंचे। 

0 जंगलों में शिकार पर कानूनन रोक के बावजूद क्या अब तक हालात नहीं बदले हैं? 
00 अगर हालात सुधरे होते तो आज संसार चंद जैसा शिकारी इतने सालों तक जंगल में जानवरों को अंधाधुंध तरीके से मारता न रहता। संसार चंद कोई टारजन नहीं था। मुमकिन है कि इन जैसे शिकारियों की कारगुजारी में फॉरेस्ट विभाग, कुछ एनजीओ और कुछ नेता भी इन्वाल्व होंगे। मुझे तो बचपन से उन तस्वीरों को देखकर बड़ा गुस्सा आता है, जिसमें ये बड़े-बड़े राजा-महाराजा शेर और दूसरे शिकार पर पैर रख कर बंदूक हाथ में लेकर नजर आते हैं। मैं तो कहता हूं अरे, नामर्दों अगर इतने ही बड़े शिकारी हो तो जाओ ना जंगल में निहत्थे। उसके बाद करो आमने-सामने की लड़ाई। 

0 शहरीकरण तो बढ़ता ही जाएगा। ऐसे में एक आम शहरी अपना पर्यावरण बचाने क्या योगदान दे सकता है? 
00 शहर में रहने वाले सभी लोगों से मुझे कहना है कि लकड़ी का कम से कम इस्तेमाल करो। क्योंकि आखिर लकड़ियां भी तो जंगल से ही आती है। मैं शहरों में देखता हूं आलीशान कोठियों से लेकर आम घरों तक में छत से लेकर टाइल्स तक ढेर सारी लकड़ियां इस्तेमाल होती है। इसे बंद करना होगा। अपने फिल्म वालों को भी मैं कहता हूं कि शूटिंग के दौरान अगर पेड़ की कोई टहनी बाधा बन रही है तो उसे बिना सोचे-समझे काट देते हैं। जबकि इसे बांधा जा सकता है। अभी हमारे मुंबई में एक बड़ा गलत काम हो रहा है। सड़क बनाने के दौरान बड़े-बड़े पेड़  के नीचे की जमीन पूरी की पूरी कांक्रीट से पक्की कर दी जा रही है। आखिर पेड़ की जड़ों तक पानी कैसे पहुंचेगा। कोई इन सरकारों को समझाए। तल्ख़ियां तो बहुत सी है लेकिन एक छोटी सी अपील मैं करना चाहता हूं कि कम से कम आप अपने बच्चों के जन्मदिन पर एक पौधा हर साल लगाकर अच्छी शुरूआत तो कर सकते हैं। 

0 आप खुद भी जन आंदोलनों में सक्रिय रहे हैं, ऐसे में आज के दौर में पर्यावरण जैसे मुद्दे पर जन आंदोलनों का क्या भविष्य देखते हैं आप? 
00 देखिए, जन आंदोलन तो जनता का सबसे बड़ा हथियार है।  दिल्ली में जब निभर्या वाला मामला हुआ। नौजवानों में इतना जोश आया कि वो अन्याय के खिलाफ सड़कों पर उतर आए। सर्दी के मौसम में उन पर ठंडा पानी फेका जा रहा है लेकिन वो हिले नहीं बल्कि सरकार को हिला दिया। नतीजा देखिए, नया कानून बन गया। तो पर्यावरण बचाने के लिए भी ऐसे ही जन आंदोलन की जरुरत है। जैसे गांधी जी और जयप्रकाश नारायण जी ने लोगों को एकजुट कर आंदोलन खड़ा किया, ठीक वैसा ही दबाव हो तो पर्यावरण और प्रदूषण जैसे मुद्दे पर सरकार जरूर जागेगी। 

0 लेकिन जिस अन्ना आंदोलन में आपने मंच साझा किया, आपको नहीं लगता कि वह पूरा का पूरा आंदोलन भटक कर खत्म हो गया? 
00 अन्ना आंदोलन कहां भटका? आखिर केजरीवाल तो अन्ना आंदोलन की ही उपज है। उसे तो जनता ने चीफ मिनिस्टर बनाया। पूरा हिंदुस्तान हिल गया था कि ये ‘आप’ पार्टी है कौन। सबके होश उड़ गए थे कि ‘आप’  तो अब नेशनल पार्टी बन जाएगी। लेकिन उसको (केजरीवाल को)अकल नहीं थी...भाग गया कुर्सी छोड़ कर। उसे बैठना चाहिए था,लड़ता वो जनता के हक के लिए...लेकिन, मुझे नहीं लगता उसका भविष्य उज्ज्वल है। 

0 आपको लगता है कि चर्चित हस्तियों के जीवन पर लिखी गई किताबें बिना विवाद के हाथों-हाथ नहीं बिक सकती? 
00 इस सवाल से मेरा क्या लेना-देना और आप मुझसे यह क्यों पूछ रहे हैं, मैं नहीं समझ पा रहा। 

0 आपकी पत्नी नंदिता पुरी ने आपकी बायोग्राफी लिखी,उस पर   खूब बवेला मचा तो किताब चर्चा में आ गई, इसलिए..
00(टोकते हुए) मैं उस पर कोई बात नहीं करना चाहता। उस मुद्दे को मैं पीछे छोड़ आया हूं। यहां छत्तीसगढ़ में पर्यावरण पर कार्यक्रम में आया हूं। उससे जुड़ा कोई सवाल हो तो जरुर पूछिए या कुछ और भी..। 

0 छत्तीसगढ़ में फिल्म सिटी की गुंजाइश देखते हैं क्या..? 
00 फिल्म सिटी तो बाद की बात है। पहले आप फिल्में तो बेहतरीन बनाइए। फिल्म सिटी तो और भी कई स्टेट में बनाई गई। उनका क्या हश्र हो रहा है, सबको मालूम है। इसलिए फिल्म सिटी की तो बात ही ना करें।