Friday, January 31, 2014
नफरत व घृणा के खिलाफ "दो मिनट का सत्याग्रह"
महात्मा गाँधी के 66वें शहादत दिवस पर भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा), पटना ने 29 एवं 30 जनवरी, 2014 को भिखारी ठाकुर रंगभूमि गाँधी मैदान में दो दिवसीय कार्यक्रम "हे राम....... बापू को बिहारी जन का सलाम" का आयोजन किय कार्यक्रम में प्रथम दर्शक के ...रूप में बोलते हुए वरिष्ठ पत्रकार नसीरुद्दीन ने कहा कि गाँधी सनातनी हिन्दू थे पर उन्होंने अपने जीवन और कर्म में सभी धर्मों का बराबर सम्मान किया। उन्होंने सत्य, अहिंसा, क्षमा, करुणा और प्रेम को अपने जीवन और सामाजिक दायरे में समेटने
की कोशिश की उनकेलिए राजसत्ता का तात्पर्य एक समावेशी न्याय के साथ विकास का सिद्धांत था। जहाँ हर नागरिक देश-राष्ट्र के विकास का सहभागी हो। परन्तु आज की राजसत्ता और राजनीतिक शक्तियाँ बार-बार गाँधी और उनके विचारों का क़त्ल कर रहीं हैं। हाल के मुज़फ्फरपनगर के दंगे में जो कुछ हुआ वह शर्मनाक है। आज के सन्दर्भ में गाँधी प्रासंगिकता को रेखांकित करते हुए श्री नसीरूद्दीन ने कहा कि आज गाँधी को याद करने का मतलब अपने बच्चों को बेख़ौफ़ ज़िन्दगी देना है, ख़ुद से पड़ोसी से प्रेम करना है और ऐसे माहौल में जीना जहाँ कोई नफरत या घृणा ना हो।
इस अवसर पर बोलते हुए बिहार इप्टा के सचिव फीरोज़ अशरफ खां ने कहा कि 30 जनवरी, 1948 को गाँधी को गोली मार दी गयी थी, क्योंकि वे सांप्रदायिक शक्तियों के अस्तित्व के लिए खतरा बन गए थें। गाँधी की हत्या केवल एक राजनीतिक विचार की हत्या नहीं थी बल्कि सैकड़ों सालों की साझी सांस्कृतिक विरासत पर हमला था,
इस अवसर पर बोलते हुए बिहार इप्टा के सचिव फीरोज़ अशरफ खां ने कहा कि 30 जनवरी, 1948 को गाँधी को गोली मार दी गयी थी, क्योंकि वे सांप्रदायिक शक्तियों के अस्तित्व के लिए खतरा बन गए थें। गाँधी की हत्या केवल एक राजनीतिक विचार की हत्या नहीं थी बल्कि सैकड़ों सालों की साझी सांस्कृतिक विरासत पर हमला था,
जिसे गाँधी ने अपने सीने पर गोली खा कर झेला और इस विरासत को अक्षुण्ण रखा; परन्तु अफ़सोस है कि उनकी विरासत को अपनाने का दावा करने वाली राजनीतिक ने ही इसे खण्डित करने का काम किया है। समाज में एक स्पेस पैदा कर दिया, जिसका फायदा सांप्रदायिक फासीवादी ताक़तें नफरत और घृणा फैलाने के लिए उठा रहीं हैं। नहीं तो क्या गाँधी के हत्या के लिए षड्यंत्र करने के आरोपी रहे वीर सावरकर का चित्र संसद में लगाई जाती? आज स्थिति यह है कि गाँधी के हत्यारे उन्हें अपने स्वार्थ के लिए अपना रहे हैं तो ऐसे में ये सवाल हमें खुद पूछना चाहिए कि "गाँधी को किसने मारा? गाँधी को क्यों मारा?
वरीय संस्कृतिकर्मी विनोद कुमार 'वीनू' ने कहा कि गाँधी की कोशिश एक ऐसे हिन्दुस्तान की स्थापना थी, जहाँ का ग़रीब से ग़रीब आदमी यह महसूस करे कि यह देश उसका है और इसकी तक़दीर बनाने में उसकी भागीदारी रही है। वह हिन्दुस्तान ऐसा होगा जहाँ ना कोई बड़ा होगा ना कोई छोटा, जहाँ सब जाति, धर्म, सम्प्रदाय के लोग एकता के सूत्र में बंधेंगे। वैसे हिंदुस्तान में कोई छूआ-छूत नहीं होगा।
पटना इप्टा के अध्यक्ष डॉ० सत्यजीत ने कहा कि इप्टा ने जनता को नायक माना है और गाँधी भारत के पहले राजनितिक पुरुष थें जिसने जनता को अपना नायक मानकर आज़ादी के लिए संघर्ष किया था, इसलिए हम हर साल गाँधी को याद करते हैं।
पटना इप्टा के अध्यक्ष डॉ० सत्यजीत ने कहा कि इप्टा ने जनता को नायक माना है और गाँधी भारत के पहले राजनितिक पुरुष थें जिसने जनता को अपना नायक मानकर आज़ादी के लिए संघर्ष किया था, इसलिए हम हर साल गाँधी को याद करते हैं।
बिहार इप्टा के संरक्षक एवं वरीय शिक्षाविद विनय कुमार कंठ ने कहा कि गाँधी ने हिंदुस्तानी विरासत को विस्तार देने का काम किया था, जो गैर-लोकतान्त्रिक शक्तियों को मंज़ूर नहीं था, इसलिए वे मार दिए गए। आज पूरी हिंदुस्तानी विरासत गहरे संक्रमण से गुजर रही है। आम आदमी को छोड़ कर कोई संस्कृति कोई लोकतंत्र ज़िंदा नहीं रह सकता है। सामाजिक कार्यकर्त्ता और प्राध्यापक भारती एस० कुमार ने साम्प्रदायिकता की राजनीति पर कटाक्ष करते हुए कहा कि आसन्न लोकसभा चुनाव भारत के लोकतंत्र के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि भाजपा ने अपने सांप्रदायिक चेहरे को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाकर पेश किया है और उसके विरोध में कोई सशक्त उम्मीदवार नहीं है। अब देखना यह है कि भारतीय जनता क्या निर्णय लेती है? इस दो दिवसीय आयोजन में बिहार इप्टा के महासचिव तनवीर अख्तर, पटना इप्टा की सचिव उषा, हसन इमाम, सीताराम सिंह, उदय कुमार, नीरज ने भी सम्बोधित किया।
दो दिवसीय कार्यक्रम की शुरुआत कबीर की रचना "झीनी-झीनी बीनी चदरिया" के गायन से हुई. वरिष्ठ संगीतकार सीताराम सिंह ने कैफी आज़मी की नज़म "सोमनाथ" और "दूसरा बनवास" का गायन किया। इस अवसर पर नटमंडप द्वारा "शपथ" कविता का पाठ मोना झा ने किया। विस्तार कालिदास रंगालय के कलाकारों ने नीरज के निर्देशन में "भ्रष्टाचार महोत्सव" नाटक की प्रस्तुति की। हीरावल-जन संस्कृति मंच के साथी राजन कुमार ने निराला और गोरख पाण्डेय की रचनाओ का गायन किया। पटना इप्टा द्वारा हरिशंकर परसाई की रचना पर आधारित नाटक "महात्मा गाँधी को चिट्ठी पहुंचे" और तनवीर अख्तर के निर्देशन में "समरथ को नहिं दोष गोसाई" नाटक का मंचन किया गया।
आयोजन के दूसरे दिन कलाकारों और नागरिकों ने 11.00 से 11.02 बजे तक राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को श्रद्धांजलि दी और नफरत व घृणा के खिलाफ "दो मिनट का सत्याग्रह" किया।
इसके उपरांत उपस्थित कलाकारों और नागरिकों ने बापू की प्रतिमा पर माल्यार्पण किया और धर्मनिरपेक्ष हिंदुस्तान का संकल्प लिया। मैत्रयी कुहू ने नागार्जुन की रचना "तर्पण" का सस्वर पाठ किया। सुरेश कुमार हज्जू ने निर्देशन में एच०एम०टी० के कलाकारों ने "गाँधी" नाटक मंचित किया। प्रेरणा ने हसन इमाम के निर्देशन में "खोजत भये अधेड़" नाटक प्रस्तुत किया। पटना इप्टा ने सीताराम सिंह संगीत संयोजन में सूफी- भक्ति कवियों के गीतों की सांगीतिक प्रस्तुति "प्रेम राग" और तनवीर अख्तर के निर्देशन में नाटक "ख़ुदा हाफ़िज़" की प्रस्तुति की। सदा, खगौल ने उदय कुमार के निर्देशन में "धर्म का अफीम" नाटक मंचित किया। अंत में हरिशंकर परसाई की रचना पर आधारित नाटक "महात्मा गाँधी को चिट्ठी पहुंचे" का मंचन किया गया । बापू के शहादत दिवस पर आयोजित कार्यक्रम का समापन 'हम होंगे कामयाब……' के गायन से हुई।
फीरोज़ अशरफ खां
17th Muktibodh National Drama Festival from Feb 8-11 in Raipur
RAIPUR: Terrance Mann once said, "Movies will make you famous; television will make you rich; but theatre will make you good." The 17th Muktibodh National Drama Festival from February 8 to 11 in the Maharashtra Mandal brings the biggest names in theatre to Raipur.
The festival has Nadira Babbar, Prabeer Guha, and Vivechana Rangmandal performing this year. Nadira Babbar is also the winner of the prestigious Kumodh Devras award and is bringing her team to perform 'Bombay Meri Jaan' this year, which is a must see for all theatre enthusiasts.
The festival is organized by Indian Peoples' Theatre Association (IPTA) which was formed in 1943 to encourage and support amateur theatre in all its forms and in particular, through drama festivals in India. Organized in remembrance of famous Hindi litterateur Gajanand Madhav Muktibodh, Muktibodh Drama Festival, over the years, has emerged as a leading drama festival in the country with a large number of participants attending the event. "Theatre is a reviving form of art," says Subhash Mishra, the organizer of the festival in Raipur, "It is very difficult to perform in front of a live audience and the trend seems to be growing again."
To stand in front of an audience and perform without a single hitch requires immense amount of practice. Theatre is without any cuts or any repeat takes, so that one cannot go over and correct a previous mistake, it is true acting, he added.
Mishra said, "The tradition of theatre obviously goes long back, but the true hub of it lies in Calcutta. Not only do people come to watch plays in great numbers, there is also a long standing practice of attending script readings. We, in the festival, also have discussion forums, before and after certain plays to understand the plays more in depth."
There are various people around Chhattisgarh who perform and pursue theatre as a passion. Ajay and Usha Aatle, Yogendra Chaubey (Gudi's director), Dinesh Choudhary are all theatre enthusiasts who perform all over Chhattisgarh.
The festival has Nadira Babbar, Prabeer Guha, and Vivechana Rangmandal performing this year. Nadira Babbar is also the winner of the prestigious Kumodh Devras award and is bringing her team to perform 'Bombay Meri Jaan' this year, which is a must see for all theatre enthusiasts.
The festival is organized by Indian Peoples' Theatre Association (IPTA) which was formed in 1943 to encourage and support amateur theatre in all its forms and in particular, through drama festivals in India. Organized in remembrance of famous Hindi litterateur Gajanand Madhav Muktibodh, Muktibodh Drama Festival, over the years, has emerged as a leading drama festival in the country with a large number of participants attending the event. "Theatre is a reviving form of art," says Subhash Mishra, the organizer of the festival in Raipur, "It is very difficult to perform in front of a live audience and the trend seems to be growing again."
To stand in front of an audience and perform without a single hitch requires immense amount of practice. Theatre is without any cuts or any repeat takes, so that one cannot go over and correct a previous mistake, it is true acting, he added.
Mishra said, "The tradition of theatre obviously goes long back, but the true hub of it lies in Calcutta. Not only do people come to watch plays in great numbers, there is also a long standing practice of attending script readings. We, in the festival, also have discussion forums, before and after certain plays to understand the plays more in depth."
There are various people around Chhattisgarh who perform and pursue theatre as a passion. Ajay and Usha Aatle, Yogendra Chaubey (Gudi's director), Dinesh Choudhary are all theatre enthusiasts who perform all over Chhattisgarh.
Courtesy : The Times of India
Sunday, January 26, 2014
इप्टा संहति:पुराने साथियों के साथ गाना-बजाना-खाना
पटना में इप्टा का इतिहास उतना ही लम्बा है जितना देश के आज़ाद होने का. इतिहास अपने सात दशक को पूरा करने की ओर अग्रसर है. जननाट्य आन्दोलन का जो कारवाँ 1947 में पटना में सांगठनिक ढाँचे में आया था लगातार कभी तेज़ रफ़्तार से तो कभी माध्यम ताल में चलता रहा है. इस कदमताल के दौरान हज़ारों साथी आयें साथ चलें। अपने साथ जो कुछ बेहतर था, श्रेष्ठ था उसे नाटक, गीत, संगीत, नृत्य, मंच, वेष-भुषा, कविता, पोस्टर, टिकट, कार्ड, बात-विचार आदि के द्वारा इप्टा के मंच से प्रस्तुत किया। इस कदमताल के साथी जुड़ते रहें, अपने जीवनयात्रा की राह में थोड़े व्यस्त हुए. फिर नए साथी जुड़े और कारवाँ आगे, आगे बढ़ता रहा. पटना में इप्टा आंदोलन के नए पुराने साथी विगत 28 एवं 29 दिसम्बर, 2013 को मिलें और "गाना-बजाना-खाना" किया. अवसर था "इप्टा संहति' के आयोजन का. पटना युवा आवास के परिसर में पटना इप्टा के साथी जुड़े 90 के पूर्वार्द्ध से जुड़े हरेक साथी का संपर्क सूत्र ढूंढा गया. एक से दूसरे का संपर्क साधा, दूसरे से तीसरे का, चौथे, पाँचवे से यह सूत्र पचास-सौ तक पहुँच गया. फिर चर्चा का दौर चला, एक से दो विचार मिलें। प्रयोजन आयोजन पर चर्चा की गई. सहमति बनी, बजट तैयार हुआ और तय हुआ कि 2 दिन मिलेंगे और 'खाना', 'बजाना' व 'गाना' करेंगे।
शनिवार की सर्द सुबह से ही लोग आने लगे. पुराने दिनों को याद करते हुए, उन हरेक पल को याद करते हुए लोगों आना शुरू हुआ. हर चेहरे के साथ गुदगुदाते, मीठे पल. नाटक का वह सीन, यह पात्र और वह शो. मुस्कान के साथ बीते दिन सिनेमा के तरह जीवित हो रहे थे. हाल चाल पूछने के पहले ही पुराने संवाद, गीत होंठो पर आने लगे. साथ में परिवार - पति. पत्नी और बच्चे। कुछ अचकचाये जाने- अनजाने चेहरों को पहचान का अभिवादन कर और स्वीकार रहे थें. तो यही ----अंकल हैं, यही वह आँटी हैं. बिलकुल रंगमंच सा माहौल. जैसे कोई सम्मेलन या नाट्य मंचन हो. सामने स्टेज बना हुआ है. पुरानी गतिविधियों के बैनर, पोस्टर आदि लगे हैं. प्रॉपर्टीज, नाटक के कपडे टंगे हैं. अदालत से एक कटघरा बना है. तभी श्रीकांत किशोर की आवाज़ सुनील किशोर के साथ गूँजती है "सब बैठें अब शुरू करते हैं". फिर शुरू हुआ सिलसिला जिसका सब इंतज़ार कर रहे थें - "इप्टा संहति". पटना इप्टा की सचिव उषा वर्मा ने ग़ुलाब भेंट किया स्वागत दिल से स्वागत। फिर सीताराम सिंह का रोमांचित कर देने वाला गायन।
अब 'आप बीती' की बारी थी. एक एक कर सब आयें रश्मि सिन्हा, श्रीकांत किशोर, सोनल झा, सुबोध कुमार चौधरी, मनोज वर्मा, सुमन जोशी, दिग्विजय द्विवेदी, रविन्द्र कुमार प्रियदर्शी, फ़रीद खान, नूतन तनवीर, नुपूर, फीरोज़, दीप नारायण, विनोद कुमार, अपूर्वानन्द, राजेश कुमार, निवेदिता झा, विष्णुपद मनु, रामनाथ, मोना, पारस, सीताराम सिंह, पूर्वा भारद्वाज, आशीष झा, ग़ौस अली, इश्तियाक़, संजय मुखर्जी, संजीव सुमन, आशुतोष मिश्रा, संजय सिन्हा और तनवीर अख्तर. सबने इप्टा के अनछूहे पल को साझा किया. साथ गाना गया और खाया भी. बातें करते-करते कब शाम आ गई पता ही नहीं चला. अँधेरा और ठण्ड दोनों बढ़ने लगें. मजमा बातें करते हुए युथ हॉस्टल के आँगन में आ पहुँचा.
तनवीर अख्तर ने माइक संभाली और कहा "गाना होगा, बजाना होगा साथ ही एक छोटा सा नाटक".
फिर शुरू हुआ "तू ज़िन्दा है तो ज़िंदगी की जीत पर यकीन कर, अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर"; शंकर शैलेन्द्र के इस गीत से शुरू हुआ शाम का सफ़र. सभी गाते हुए एक दूसरे के मुहं देख रहें थें "अरे इसको भी पूरा याद है!". फिर सलिल चौधरी का नैया पार लगा और एक छोटा सा नाटक "ख़ुदा हाफ़िज़". सबके मन मचलने लगे बोल उठें ताल सजें और एक के बाद के पुराने बोल निकलने लगें शब्द चलने लगे. नाटकों के गीत, जनगीत, संवाद और अपना अंदाज़. सब एक साथ. शरीर तो थकने का नाम ही नहीं ले रहा था पर समय का क्या बड़ा निर्दयी और रामजी उससे ज्यादा. "जल्दी चलिए खाना ठंडा हो रहा है". "ठंडा हो गया तो फिर गर्म नहीं होगा", "आप कहेंगे की रामजी ने ख़राब खाना बना दिया" "ज़ल्दी चलो". खैर कोई उपाय ना था रात का भोजन हुआ और फिर सोना। कल सुबह जो उठना था. पर नींद किसे आने वाली थी.
तनवीर अख्तर ने माइक संभाली और कहा "गाना होगा, बजाना होगा साथ ही एक छोटा सा नाटक".
फिर शुरू हुआ "तू ज़िन्दा है तो ज़िंदगी की जीत पर यकीन कर, अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर"; शंकर शैलेन्द्र के इस गीत से शुरू हुआ शाम का सफ़र. सभी गाते हुए एक दूसरे के मुहं देख रहें थें "अरे इसको भी पूरा याद है!". फिर सलिल चौधरी का नैया पार लगा और एक छोटा सा नाटक "ख़ुदा हाफ़िज़". सबके मन मचलने लगे बोल उठें ताल सजें और एक के बाद के पुराने बोल निकलने लगें शब्द चलने लगे. नाटकों के गीत, जनगीत, संवाद और अपना अंदाज़. सब एक साथ. शरीर तो थकने का नाम ही नहीं ले रहा था पर समय का क्या बड़ा निर्दयी और रामजी उससे ज्यादा. "जल्दी चलिए खाना ठंडा हो रहा है". "ठंडा हो गया तो फिर गर्म नहीं होगा", "आप कहेंगे की रामजी ने ख़राब खाना बना दिया" "ज़ल्दी चलो". खैर कोई उपाय ना था रात का भोजन हुआ और फिर सोना। कल सुबह जो उठना था. पर नींद किसे आने वाली थी.
आ गया रविवार 29 दिसंबर 2013. नाश्ते के बाद मिलें और 'यहाँ से देखें' की बात. श्रीकांत किशोर ने 1998 तक के सफ़र को ताज़ा किया तो संजय ने 2000 से 2012 तक की गतिविधियों को रखा. लगा जैसे पूरा इतिहास पढ़ा जा रहा है. पर यह तो कल ही था जब हम नाटक करते थें और इतना समय बीत गया. राजेश कुमार ने पुरानी तस्वीरों के द्वारा एक फ़िल्म दिखाई तो सुनील किशोर ने दूसरी। जावेद अख्तर खां, अलका, आशुतोष, इश्तियाक़ और सारे साथियों ने इप्टा के जनगीत गायें। कबीर, ख़ुसरो, मख़दूम, सलिल चौधरी और भी कई सारे पुराने साथ-साथ गए हुए गीत.
इसके साथ ही आ पहुँचे नन्द किशोर नवल, वसी अहमद, आलोक धन्वा, समी अहमद, संतोष कुमार, भारती एस० कुमार, नीति रंजन झा, अंजना प्रकाश, रवि प्रकाश, डा० सत्यजीत, डा० शकील. सबने सुना, हर छोटे बोलें, अपने इप्टा की बात और बड़े बुजुर्ग सिर्फ सुनें. वे भी मुग्ध थें कई पीढ़ियों को एक साथ देखते हुए.
गाते-बजाते पता ही नहीं चला कि समय कब बीत गया अब विदाई का समय था. पर इस वादे के साथ कि फिर मिलेंगे , अब संपर्क में रहेंगे, आयें या ना आयें गतिविधियों की सूचना ज़रूर दें. मैं वहाँ रहते हुए क्या सहयोग कर सकता हूँ, एक आदमी एक-एक संवाद. गूँजते रहें. 2 दिनों का आयोजन तो ख़त्म हुआ पर हज़ारों यादें ताज़ा हुईं। नए साथियों का पुराने साथियों के प्यारा सा साक्षात्कार।
- फीरोज़ अशरफ़ खां
Friday, January 24, 2014
संकल्प झूठ के इस आडम्बर को ख़त्म करने का है
नव वर्ष की चुनौती सच को सामने लाने की है. रोजाना हो रहे धुआँधार झूठ के विज्ञापन ने जनता को भ्रमित कर रखा है. यह राजनीति और पूंजीपतियों का अवसरवादी गठजोड़ है और वे अपने फ़ायदे के लिए आमजन की भावनाओं और उम्मीदों का मज़ाक उड़ा रहे हैं. आज सच बोलने का ख़तरा बढ़ा है और सच को झूठ बनाकर पेश किया जा रहा है. इस वर्ष का संकल्प झूठ के इस आडम्बर को ख़त्म करने का है और जनशक्ति को मजबूत करना है.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए पटना इप्टा के कार्यक्रम "बोल के लब आज़ाद हैं" की शुरुआत करते हुए बिहार इप्टा के महासचिव तनवीर अख्तर ने उक्त बातें कहीं. श्री अख्तर ने गत वर्ष मुम्बई,महाराष्ट्र में डा० नरेंद्र दाभोलकर की हत्या सच बोलने के ख़तरे का ताज़ा उदाहरण है. जन के बीच झूठ के इस खेल को जनता के सामने लाने की कोशिश कभी देशद्रोह तो कभी हत्या के खुनी खेल से जुड़ जाती है. जिस प्रकार कट्टरपंथी ताक़तों ने दाभोलकर की हत्या की, वह निंदनीय है और हम इप्टाकर्मी ऐसे किसी भी प्रयास को जो चेतनागामी विचार की राह रोकते हैं, हानि पहुँचते को, उनको जनविरोधी मानते हैं और उनका विरोध करते हैं. श्री अख्तर ने चुनाव के नाम पर समुदाय के बीच वैमनस्यता फैलाने की साजिश की चर्चा करते हुए कहा कि आज एक व्यक्ति को दूसरे पर शक करना, अविश्वास करना सिखाया जा रहा है. [पुरे समुदाय को अपने हितों में इस्तेमाल करने के लिए देश को एक रंग में रँगने का अभियान चलाया जा रहा है. अहँकार और घृणा के स्वर से देश को कमज़ोर करने का यह अभियान है. इप्टा ने जिस प्रकार 1942 में बंगाल के अकाल के खिलाफ पूंजीवाद के बुर्जुआ षड़यंत्र को जनसहयोग से तोड़ा था; उसी प्रकार आगामी लोकसभा चुनाव में जनवादी ताक़तों को जनविरोधी शक्तियों के खिलाफ मजबूत करेगा।
बिहार इप्टा सचिव मंडल के साथी डा० फ़ीरोज़ अशरफ खान ने दर्शकों को सम्बोधित करते हुए कहा कि आज जब पूरा देश नए साल का जश्न मना रहा है, तो उसी समय इप्टा के कलाकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के गीत गा रहें हैं. यह इप्टा की भारतीय संविधान और देश की साझी सांस्कृतिक विरासत के लिए प्रतिबद्धता और संकल्प का प्रतीक है. आज के दिन 1 जनवरी 1989 को रंगकर्मी सफ़दर हाशमी और मज़दूर रामबहादुर पर क़ातिलाना हमला किया गया था. हमले में मज़दूर रामबहादुर की मौत मौक़े पर ही हो गई और सफ़दर ने अगले दिन दम तोड़ दिया था. उस वक़्त पटना के सारे संस्कृतिकर्मियों ने बोलने,नाटक करने की आज़ादी के लिए एक मंच पर आकर अभिव्यक्ति की आज़ादी के गीत गायें। 'कलाकार संघर्ष समिति' के बैनर तले संस्कृतिकर्मियों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साझे संकल्प की जो शुरुआत की थी इप्टा वर्षों से इस दिन संस्कृतिकर्म के दायित्व के रूप में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संकल्प दिवस के रूप में मना रहा है. हमारा यह आयोजन कलाकारों की एकजुटता का भी आह्वान करता है. डा० खान ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सम्बन्ध में अपनी बात रखते हुए कहा कि देश की प्रमुख राजनीतिक ताक़तें रोजाना करोड़ों रुपये ख़र्च कर रैलियां आयोजित कर रहीं हैं और ना सिर्फ शहरों, नगरों, महानगरों की मैदानों में बल्कि तमाम प्रकार की सोशल मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से विज्ञापन की तरह प्रचारित प्रसारित करवाये जा रहे हैं. सवाल यह कि जब देश दुनिया गम्भीर मंदी और आर्थिक संकट से जूझ रहा है तो राजनीतिक दलों के इतना पैसा कहाँ से आ रहा है. निश्चित तौर पर यह पैसा आम जनता का है जो पूंजीपतियों के द्वारा साबुन की टिकिया से लेकर प्याज तक अधिक कीमत वसूल कर प्राप्त किया जा रहा है. राजनीतिक विज्ञापनों का यह प्रचार इन्ही अवसरवादी गठजोड़ का परिणाम है, जो चुनाव के 100 रुपये किलो प्याज बिकवाते हैं और चुनाव के बाद 20 रुपये तक पहुंचा देते हैं. हमारा संस्कृतिकर्म इसी गठजोड़ का पर्दाफाश करता है. यही इप्टा के गीतों नाटकों की अभिव्यक्ति हैं.
भिखारी ठाकुर रंगभूमि, गाँधी मैदान, पटना में इप्टा की ओर से तीन नाटक मंचित हुए. जन नाट्य मंच, दिल्ली के आलेख "समरथ को नहीं देश गुसाईं" नाटक को कलाकारों ने तनवीर अख्तर के निर्देशन में प्रस्तुत किया। मदारी जमूरा शैली में यह नाटक ना सिर्फ महँगाई के कारणों की बेसाख्ता पडताल करता बल्कि मुनाफ़ाखोरी के लिए नेता, व्यापारी और प्रशासन के गठजोड़ की पोल खोलता है. नाटक में राजीव रंजन, चुनमुन कुमार, सोनू कुमार रजक, मदन मोहन, अखिलेश्वर, विकास कुमार गोविन्द ने अभिनय किया। साम्प्रदायिक दंगे के दौरान होने वाले रिश्तों की पड़ताल करते नाटक "आदाब" की प्रस्तुति मार्मिक ढंग से की गई. समरेश बसु के द्वारा लिखे गए इस नाटक को राजीव रंजन और चुनमुन कुमार ने रोचक ढंग से प्रस्तुत किया साथ ही मदन मोहन ने सूत्रधार के रूप नाटक के सन्देश का विस्तार किया।
नुक्कड़ नाटक के क्षेत्र में मंचन का कीर्तिमान गढ़ने वाले नाटक "मैं बिहार हूँ" को भी पटना इप्टा के कलाकारों ने प्रस्तुत किया और नए साल में बिहार के विकास के सन्दर्भों को जानने, समझने और बोलने का आह्वान किया। दैनिक हिन्दूस्तान के पत्रकार श्रीकांत के राजनीतिक आलेख पर आधारित इस नाट्य प्रस्तुति को दीपक कुमार, मदन मोहन, विकास, सुमित ठाकुर, चुनमुन, सोनू, राजीव, पियूष सिंह एवं अखिलेश्वर ने तनवीर अख्तर के निर्देशन में प्रस्तुत किया।
इस अवसर पर पटना इप्टा की सचिव उषा वर्मा ने भी दर्शकों को सम्बोधित किया और इप्टा से जुड़ने का आह्वान किया।
फ़ीरोज़ अशरफ़ खां
Thursday, January 23, 2014
सारा आकाश तुम्हारा है
कार्यशाला के कलाकार |
साहित्य,सिनेमा और समाज विषय पर बोलते हुए डा.मुकुल श्रीवास्तव ने रेखांकित किया कि हर लेखक-कलाकार का अपना विधागत परिप्रेक्ष्य होता है,जिसमें वह समाज को देखने की कोशिश करता है.अतीत और वर्तमान के साथ यह बहुत महत्वपूर्ण है कि हम भविष्य के किस समाज की कल्पना कर रहे हैं.समांतर सिनेमा एक नयी कला-दृष्टि लेकर आया.डा.जितेन्द्र रघुवंशी ने हाल में दिवंगत समर्थ साहित्यकार राजेन्द्र यादव के साहित्यिक और वैचारिक अवदान का स्मरण किया.साथ ही उनके अपनी जन्मभूमि आगरा से आत्मीय रिश्तों का उल्लेख किया.डा.विजय शर्मा ने उनके उपन्यास पर आगरा में बनी फिल्म "सारा आकाश" की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डाला.
प्रो. राजेन्द्र कुमार |
आयोजन का विशेष आकर्षण थी 1969 की यह फिल्म और उस पर चर्चा .बासु चटर्जी निर्देशित इस फिल्म के छायाकार के.के.महाजन व संगीतकार सलिल चौधरी थे .विभिन्न भूमिकाएं राकेश पांडे,तरला मेहता,दीना पाठक,ए.के. हंगल,मधु चक्रवर्ती ,नंदिता ठाकुर,जलाल आगा,मणि कॉल एवं स्थानीय कलाकारों ने अभिनीत कीं .चर्चा का समापन करते हुए वरिष्ठ आलोचक प्रो.राजेन्द्र कुमार ने कहा कि फिल्म यह आव्हान करती है कि हम रूढ़िवादी संस्कारों के प्रेत से स्त्री के जीवन को मुक्त कराएँ.इसमें चित्रित यथार्थ आज पांच दशक बाद बदला हुआ है लेकिन मानसिकता नहीं बदली.डा.प्रियम अंकित,डा.रणवीर ,डा.नीलम यादव,डा.प्रदीप वर्मा अदि की उपस्थिति उल्लेखनीय थी.
रांगेय राघव स्मृति पर्व पर विचार गोष्ठी का आयोजन
आगरा में 19 जनवरी को रांगेय राघव स्मृति पर्व के रूप में गोवर्धन होटल के ओंकार हाल में ‘वर्ग चेतना के अनसुने स्वर’ विषय पर एक विचार संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी का उद्देश्य रांगेय राघव के लेखन और उनकी प्रगतिशील विचार धारा पर चिंतन करना था। संगोष्ठी में बतौर मुख्य वक्ता के रूप में प्रो. प्रदीप सक्सेना पूर्व विभागाध्यक्ष हिंदी विभाग अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ने शिरकत की।
प्रो. गोविंद रजनीश ने रांगेय राघव के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए अपने अनुभवों को साझा किया। जितेंद्र रघुवंशी ने इप्टा और रांगेय राघव के सहकर्म पर राजेंद्र रघुवंशी व कुमार जसूजा के संस्मरण पढ़े। दलित कवि मलखान सिंह ने अपनी कविताओं का पाठकर उन्हें रांगेय राघव की स्मृति को समर्पित किया। वहीं प्रो. प्रदीप सक्सेना ने उन के लेखन का मूल्याकंन करने की आवश्यकता जाहिर की। साथ ही उन्होंने अपने संभाषण में कहा कि रांगेय राघव ने जहां अपना जीवन बिताया, जिस कॉलेज में अध्ययन किया, आज उसी कॉलेज में उनके लेखन को छोड़िए, स्मृति में एक कार्यक्रम तक आयोजित नहीं किया गया। उन्होंने राम विलास शर्मा और रांगेय राघव के आपसी मतभेदों पर सवाल खड़े किये. हिंदी में नवजागरण के प्रश्न पर दोनों के मत अलग थे। उनका और उनके लेखन का मूल्यांकन नहीं हो पाया। आज यह जरूरी है कि हम दोनों के मतों का वैज्ञानिक और तर्कपूर्ण विश्लेषण करें न कि किसी अंधश्रद्धा का अनुसरण । यहीं किसी भी लेखक का सच्चा सम्मान है। रांगेय राघव को अभी तक यह सम्मान नहीं मिला है।
इस अवसर पर हुई चर्चा में प्रो.राजेंद्र कुमार,सोम ठाकुर,सरोज गौरिहार,शशि तिवारी,अर्जुन सवेदिया,खुशीराम शर्मा,मुकेश अग्रवाल तथा बाहर से आये लेखकों दामोदर,सुमित कुमार,दिलीप कनेरिया,शैलेन्द्र एवं संजीव माथुर ने भाग लिया .इप्टा के कलाकारों ने राघव जी की कविताओं की प्रस्तुति की . संगोष्ठी का संचालन डॉ.विजय शर्मा ने और धन्यवाद ज्ञापन डॉ. सूरज बड़त्या ने किया।
Friday, January 10, 2014
डोंगरगढ़ : राष्ट्रीय नाट्य समारोह के नौवें अध्याय का कैनवास
भारत अपने चंद शहरों में नहीं बल्कि सात लाख गांवों में बसता है, लेकिन हम शहरवासियों का ख्याल है कि भारत शहरों में ही है और गांव का निर्माण शहरों की ज़रूरत पूरा करने के लिए हुआ है । – गांधी.
प्राकृतिक सुंदरता से लबरेज़ छत्तीसगढ़ का क़स्बा डोंगरगढ़, आज मूलतः बमलेश्वरी मंदिर के लिए प्रसिद्ध है । हम पुस्तकों में पढ़ते हैं कि मुल्क की पहचान उसकी कला-संस्कृति से होती है, किन्तु कला के नाम से कोई स्थान प्रसिद्ध हो, ऐसी भारतीय परम्परा नहीं है शायद ! इतिहास की पुस्तकें इस बात की गवाह हैं कि किसी ज़माने में यह क़स्बा ढोलक उद्योग (बनाने) के लिए भी प्रसिद्ध रहा है । किन्तु वर्तमान विकास की उल्टी प्रक्रिया ने बड़े से बड़े लघु व कुटीर उद्योगों की हवा निकाल दी,आजीविका के लिए गांव से शहर की ओर पलायन बढ़ा है,तो ढोलक कब तक बचता और बजता भला । अब विकास का रास्ता आर्ट-कल्चर-एग्रीकल्चर के रास्ते नहीं बल्कि मशीनी उद्योगों, आर्थिक मुनाफ़े और विस्थापन की गली से गुज़रता है ! मशीनीकरण की आंधी में जीवंत कला-संस्कृति के विकास की अवधारणा लगभग अस्तित्वहीन है । विकास के वर्तमान मॉडल में कला-संस्कृति का स्थान कहां है यह एक ‘शोध’ का विषय हो सकता है ! मानसिक और सांस्कृतिक विकास की बात तक अब कौन करता है ! क्या किसी पार्टी के चुनावी घोषणापत्रों तक में कला-संस्कृति, साहित्य आदि के विकास पर एक भी शब्द खर्च किए जाते हैं ?
ऐसे क्रूर समय में विकल्प, डोंगरगढ़ के नाट्य समारोह में शिरकत एक सार्थक उर्जा का संचार कर जाती है । जनपक्षीय कलाकारों को“जन से कला और कला से जन” का संवेदनशील और सार्थक रिश्ते से रु-ब-रु होने का अवसर मिलता है । रंगमंच की यह उत्सवधर्मिता निरुदेश्य, रूटीनी, दिखावटी, ज़रूरत से ज़्यादा खर्चीली और थोपी हुई नहीं है, बल्कि यहाँ कला, कलाकार, कलाप्रेमी व आमजन एक दूसरे की सार्थकता और ज़रूरत हैं । भाग लेनेवाले दलों के कलाकार साजो-सामान समेत लोकल ट्रेनों तक की यात्रा करके अपने नाटकों का प्रदर्शन करने का जूनून रखते हैं तो कलाप्रेमी भी उन्हें निराश नहीं करते । अपनी तमाम सीमाओं और मजबूरियों के बावजूद यहाँ कला केवल सतही मनोरंजन, विलासिता और अपने को “विशेष” साबित करने का माध्यम नहीं बल्कि कला और कलाकार की रचनात्मक सार्थकता और सामाजिक सरोकरता का माध्यम बनकर उभरता है ।
सब्ज़ी बेचनेवाली बाई नाटक शुरू होने से एक घंटा पहले अपना बोरिय-बिस्तर समेटकर, खाना-वाना खाकर दर्शकदीर्घा में विराजमान हो जाती है नाटक देखने के लिए, रात आठ बजे से बारह बजे तक नाटक देखती है, जनगीत सुनती है और दूसरे दिन उन नाटकों और गीतों पर अपनी सरल और बेवाक प्रतिक्रिया देती है । यह प्रक्रिया बड़े-बड़े कार्पोरेटी अख़बारों में अपनी रोज़ी-रोटी के लिए संघर्ष करते“बुद्धिजीवीनुमा” नाट्य-समीक्षकों के रूटीनी लेखन से एकदम अलग है । ऐसा करनेवाली यह अकेली दर्शक हो ऐसा नहीं है बल्कि ज़्यादातर लोग दिन भर अपना काम करते हैं जिससे उनकी जीविका चलती है और शाम होते ही नाटक के लिए पंडाल में हाज़िर । तमाम वर्ग के दर्शकों से पंडाल खचाखच भर जाता है और पूरे प्रदर्शन के दौरान दर्शक दीर्घा में ऐसा कुछ नहीं होता जिससे नाट्यकला की गरिमा को ज़रा सा भी धक्का लगे । इसके पीछे वजह मात्र इतनी है कि जो लोग भी यहाँ आए हैं वो नाटक देखने आए हैं – इत्मीनान से । महानगरों की अफरातफरी यहाँ अभी पुरी तरह पहुंची नहीं, जो इत्मीनान कस्बों को हासिल है वो शहरों को कहां !
क़स्बा ! यहाँ अन्य लाख समस्याएं हो सकती है किन्तु रिश्ते बड़े जीवंत होते हैं । कहां क्या हो रहा है सबको पता है और सब एक दूसरे को जानते-पहचानते और यथासंभव मतलब भी रखते हैं । इसका मतलब यह नहीं कि ये स्थान हिंदी फिल्म के गांव की तरह एकदम ‘पवित्र’ है । मानव जीवन के समक्ष चुनौतियाँ यहाँ भी हैं – बिना चुनौतियों के जीवन कैसा ?
ऐसे क्रूर समय में विकल्प, डोंगरगढ़ के नाट्य समारोह में शिरकत एक सार्थक उर्जा का संचार कर जाती है । जनपक्षीय कलाकारों को“जन से कला और कला से जन” का संवेदनशील और सार्थक रिश्ते से रु-ब-रु होने का अवसर मिलता है । रंगमंच की यह उत्सवधर्मिता निरुदेश्य, रूटीनी, दिखावटी, ज़रूरत से ज़्यादा खर्चीली और थोपी हुई नहीं है, बल्कि यहाँ कला, कलाकार, कलाप्रेमी व आमजन एक दूसरे की सार्थकता और ज़रूरत हैं । भाग लेनेवाले दलों के कलाकार साजो-सामान समेत लोकल ट्रेनों तक की यात्रा करके अपने नाटकों का प्रदर्शन करने का जूनून रखते हैं तो कलाप्रेमी भी उन्हें निराश नहीं करते । अपनी तमाम सीमाओं और मजबूरियों के बावजूद यहाँ कला केवल सतही मनोरंजन, विलासिता और अपने को “विशेष” साबित करने का माध्यम नहीं बल्कि कला और कलाकार की रचनात्मक सार्थकता और सामाजिक सरोकरता का माध्यम बनकर उभरता है ।
सब्ज़ी बेचनेवाली बाई नाटक शुरू होने से एक घंटा पहले अपना बोरिय-बिस्तर समेटकर, खाना-वाना खाकर दर्शकदीर्घा में विराजमान हो जाती है नाटक देखने के लिए, रात आठ बजे से बारह बजे तक नाटक देखती है, जनगीत सुनती है और दूसरे दिन उन नाटकों और गीतों पर अपनी सरल और बेवाक प्रतिक्रिया देती है । यह प्रक्रिया बड़े-बड़े कार्पोरेटी अख़बारों में अपनी रोज़ी-रोटी के लिए संघर्ष करते“बुद्धिजीवीनुमा” नाट्य-समीक्षकों के रूटीनी लेखन से एकदम अलग है । ऐसा करनेवाली यह अकेली दर्शक हो ऐसा नहीं है बल्कि ज़्यादातर लोग दिन भर अपना काम करते हैं जिससे उनकी जीविका चलती है और शाम होते ही नाटक के लिए पंडाल में हाज़िर । तमाम वर्ग के दर्शकों से पंडाल खचाखच भर जाता है और पूरे प्रदर्शन के दौरान दर्शक दीर्घा में ऐसा कुछ नहीं होता जिससे नाट्यकला की गरिमा को ज़रा सा भी धक्का लगे । इसके पीछे वजह मात्र इतनी है कि जो लोग भी यहाँ आए हैं वो नाटक देखने आए हैं – इत्मीनान से । महानगरों की अफरातफरी यहाँ अभी पुरी तरह पहुंची नहीं, जो इत्मीनान कस्बों को हासिल है वो शहरों को कहां !
क़स्बा ! यहाँ अन्य लाख समस्याएं हो सकती है किन्तु रिश्ते बड़े जीवंत होते हैं । कहां क्या हो रहा है सबको पता है और सब एक दूसरे को जानते-पहचानते और यथासंभव मतलब भी रखते हैं । इसका मतलब यह नहीं कि ये स्थान हिंदी फिल्म के गांव की तरह एकदम ‘पवित्र’ है । मानव जीवन के समक्ष चुनौतियाँ यहाँ भी हैं – बिना चुनौतियों के जीवन कैसा ?
अतुल बुधौलिया डोंगरगढ़ स्टेशन पर उतरकर जैसे ही ऑटोवाले से बमलेश्वरी मंदिर प्रांगण चलने को कहते हैं ऑटोवाला झट से कह उठता है - “नाटक देखने आए हैं क्या सर ?” टाटानगर के प्रवीन और नवीन करीब पन्द्रह घंटे की ट्रेन यात्रा कर नाटक देखने पहुंचे हैं यहाँ और ट्रेन का टिकट भी अपनी जेब से कटाई है । यह इनका तीसरा साल है जब वे यहाँ नाटक देखने आए हैं । नाट्य समारोह तक ये यहीं मंच के पीछे एक कमरे में रहेंगें । यदि सब सही रहा तो हर साल आएगें । दोनों नाटक देखते हुए प्रोजेक्शन तथा मंच परे के अन्य कई काम संभाल कर समारोह की सफलता में योगदान करते हैं । नाट्यकला के प्रति इन दोनों नवयुवकों का ये कौन सा भाव है और इससे इन्हें क्या हासिल होगा, आप खुद ही तय करें ।
शहर में घुसते ही हर तरफ़ नाट्य समारोह के पोस्टर स्वागत में तैनात हैं, एक रिक्शा भी घूम रहा है जो घूम-घूमकर नाट्य समारोह की लिखित व मौखिक सूचना लोगों तक लगातार पहुंचा रहा है । यह प्रचार का एक पुराना, कारगर और जीवंत तरीका है । प्रचार के इस तरीके से न जाने कितनी यादें जुड़ी हैं, जिसे लोग नॉस्टाल्जिया का नाम दे सकते हैं । वैसे भी व्यक्तिगत भावनात्मक स्मृतियों दूसरों के लिए नॉस्टाल्जिया ही तो हैं । आज के समय बहुतेरे लोग रंगमंच जैसी विधा के प्रति निःस्वार्थ समर्पण और जनपक्षीयता के विचार को भी एक प्रकार का नॉस्टाल्जिया ही मानते हैं !
अखबार में शीर्षक है “माँ बमलेश्वरी के दरबार में सजेगा इप्टा का नाम ।” पढ़कर भले ही फार्स लगे किन्तु इसमें कुछ भी झूठ नहीं है । सच भी कभी-कभी फार्स होता है और फार्स भी कभी-कभी सच । ज्ञातव्य हो कि तमाम चुनौतियों का सामना करते हुए इप्टा की डोंगरगढ़ इकाई सन 1983 से लगातार सक्रिय है, जिसकी वजह से यहां रंगमंच की एक समृद्ध परम्परा विकसित हुई है । यहां इप्टा नाटकों का पर्याय है और जनसहयोग से रंगकर्म करती रही है । भारतीय रंगमंच में इप्टा का क्या योगदान है यह यहाँ अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है ।
शहर में घुसते ही हर तरफ़ नाट्य समारोह के पोस्टर स्वागत में तैनात हैं, एक रिक्शा भी घूम रहा है जो घूम-घूमकर नाट्य समारोह की लिखित व मौखिक सूचना लोगों तक लगातार पहुंचा रहा है । यह प्रचार का एक पुराना, कारगर और जीवंत तरीका है । प्रचार के इस तरीके से न जाने कितनी यादें जुड़ी हैं, जिसे लोग नॉस्टाल्जिया का नाम दे सकते हैं । वैसे भी व्यक्तिगत भावनात्मक स्मृतियों दूसरों के लिए नॉस्टाल्जिया ही तो हैं । आज के समय बहुतेरे लोग रंगमंच जैसी विधा के प्रति निःस्वार्थ समर्पण और जनपक्षीयता के विचार को भी एक प्रकार का नॉस्टाल्जिया ही मानते हैं !
अखबार में शीर्षक है “माँ बमलेश्वरी के दरबार में सजेगा इप्टा का नाम ।” पढ़कर भले ही फार्स लगे किन्तु इसमें कुछ भी झूठ नहीं है । सच भी कभी-कभी फार्स होता है और फार्स भी कभी-कभी सच । ज्ञातव्य हो कि तमाम चुनौतियों का सामना करते हुए इप्टा की डोंगरगढ़ इकाई सन 1983 से लगातार सक्रिय है, जिसकी वजह से यहां रंगमंच की एक समृद्ध परम्परा विकसित हुई है । यहां इप्टा नाटकों का पर्याय है और जनसहयोग से रंगकर्म करती रही है । भारतीय रंगमंच में इप्टा का क्या योगदान है यह यहाँ अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है ।
नाट्योत्सव का यह नौवां संस्करण है और हर बार यह बमलेश्वरी मंदिर प्रांगण में ही आयोजित होता है । बमबलेश्वरी मंदिर संचालन समिति न केवल अपना प्रांगण नाट्योत्सव के आयोजन के लिए उपलब्ध कराती है बल्कि ज़रूरत पड़ने पर कई अन्य सहयोग भी प्रसन्नतापूर्वक प्रदान करती है । एक धर्म का पोषक, दूसरा जनवाद का ! एक तरफ़ आरती चल रही है वहीं दूसरी तरफ़ उसके तुरंत बाद जनवादी जनगीतों का गायन भी शुरू होगा । क्या इसे ही उदार सह-अस्तित्व कहा जाता है ? इसका जवाब शायद विचारकों-बुद्धिजीवियों और संतों के पास होगा क्योंकि इनके पास सृष्टि के सारे सवालों का जवाब होता है ! बहरहाल नाट्योत्सव के समय यह जगह जितना गुलज़ार और कलामय होता है, बाकि दिन तो कला के लिहाज से बस एक सन्नाटा ही पसरा रहता है यहाँ ! भारतीय रंगमंच के अग्रिणी निर्देशक हबीब तनवीर के रंगकर्म का एक अध्याय डोंगरगढ़ और यहाँ की पहाड़ी के पास स्थित रणचंडी मंदिर से जुड़ता है ! इस अध्याय का ज़िक्र फिर कभी ।
आयोजन में बाहर की टीमें भी हैं पर आयोजन का स्वरूप ऐसा है कि मेहमान-मेजबान में फर्क कर पाना मुश्किल है । एक जैसे विचार वालों की बीच वैसे भी इस तरह का फर्क करना आसान नहीं होता । आयोजन स्थल पर सब अपने-अपने काम में लगे हैं । थ्रू मिनिमम, क्रिएट मैक्सिमम का सिद्धांत चलता है यहाँ । कोई कनात लगा रहा है, कोई राशन का सामान ला रहा है, कोई बांस काट रहा है, कोई पोस्टर-बैनर लगा रहा है, कोई मंच सजा रहा है, कोई दरी बिछा रहा है, कोई प्रकाश उपकरण लगा रहा है तो कोई ध्वनि, कोई लाल-लाल कुर्सियां सजा रहा है, कोई इस काम में लगा है, कोई उस काम में लगा है – ये सब डोंगरगढ़ के रंगकर्मी और नागरिक हैं जो आयोजन को सफल बनाने में जुटे हैं । वहीं दूसरी तरफ़ स्टेज पर आज प्रस्तुत होने वाले नाटकों का सेट, लाईट आदि का काम भी तो चल रहा है ।
यहाँ लाइटें नहीं मिलतीं, भिलाई से मंगाया गया है । शरीफ अहमद की लाइटें हैं । वही इप्टा वाले शरीफ अहमद जो पूरी तरह नाटक को समर्पित थे और एक सड़क दुर्घटना में इनकी दुखद मृत्यु हुई थी । खैर, शरीफ भाई का विस्तृत ज़िक्र फिर कभी । नुरूद्दीन जीवा, राजेश कश्यप, महेन्द्र रामटेके, निश्चय व्यास, गुलाम नबी, दिनेश नामदेव, राधेकृष्ण कनौजिया के साथ ही सब बाल इप्टा के लड़के-लड़कियां दिनेश चौधरी, राधेश्याम तराने, मनोज गुप्ता और अविनाश गुप्ता के नेतृत्व में अपने-अपने मोर्चे पर तैनात हैं । राधेकृष्ण कन्नौजिया टेंट का काम करके जीविका चलाते हैं और नाटकों में अभिनय भी करते हैं । जोश से लबरेज़ मितभाषी मतीन अहमद डोंगरगढ़ के मजे हुए अभिनेता हैं । आजीविका के लिए पान की गुमटी लगाते हैं और इस आयोजन में खान-पान की पूरी व्यवस्था चुपचाप और पूरी जवाबदेही से निभाते हैं । दिन भर भागदौड़ करने के बाद शाम को जनगीत के गायन में शरीक होते हैं और फिर नाटक में मुख्य भूमिका भी तो निभाते हैं । मज़ाल कि थकान का कोई नामोनिशान भी उनके चहरे पर कभी झलके । जिस काम में जी लगे उसमें थकान नहीं, आनंद है ।
पहले यह आयोजन हर दो साल में होता है किन्तु अब हर साल । इसका इंतज़ार केवल रंगकर्मी ही नहीं, दर्शक भी करते हैं । आयोजन स्थल पर जबलपुर के रंगकर्मी-चित्रकार विनय अम्बर भी अपने नाट्य दल के साथ आए हैं जो कभी स्थानीय बाल रंगकर्मियों के स्केच बना रहे हैं तो कभी किसी कविता पर आधारित कविता पोस्टर बनाकर उपहार दे रहें हैं । एक पोस्टर मुझे भी दिया गया जिस पर पवन करण की खूबसूरत कविता ‘पानी’ अंकित है । बगल में बैठे पवन करण अपनी कविता पर पोस्टर बनते देख शायद अंदर ही अंदर मुस्कुरा रहे हैं । इधर मैं उनकी कविता की सरलता पर मुग्ध था । हम तीन, फिर क्या था, चल पड़ा बातों का सिलसिला । दुनिया भर की बातें ! बातों-बातों में पता चला कि विनय अम्बर को एक बार ट्रेन के शौचालयों को पेंट करने का जूनून सवार हुआ । वो चलती ट्रेन के शौचालयों में घुस जाते और कविताओं की पंक्तियों व स्केच से उन्हें सजा देते । यह काम संपन्न करने के पश्चात् वो शौचालय के बाहर चुपचाप खड़े होकर लोगों की प्रतिक्रियाओं का अध्ययन करते । ट्रेन के शौचालय कैसी ‘कलाकारी’ से भरी रहती हैं यह बात हम सब जानते हैं और वहां जब हमारा सामना अच्छी कविता या स्केच से हो तो अमूमन क्या प्रतिक्रिया होगी इस बात की सहज कल्पना भी हम कर सकते हैं । यह आइडिया रेलवे नियमों के हिसाब से कितना क़ानूनी और गैर-कानूनी है, से ज़्यादा मज़ा मुझे यह सोचकर आ रहा था कि कितना क्रिएटिव आइडिया है । ऐसी क्रिएटिविटी के लिए यदि कानून में बदलाव लाने की ज़रूरत है तो यथाशीघ्र लाना चाहिए । क्या यह ज़रुरी है कि साहित्य सदा कागजों पर छपकर मुनाफ़ाखोर प्रकाशकों के मार्फ़त ही जन तक पहुंचे या फिर लाइब्रेरियों में कैद रहे ? जिस प्रकार नाट्य सहित्य को रंगकर्मी जन तक ले जाते हैं उसी प्रकार क्या इस तरह के गंभीर प्रयास से साहित्य को जनसुलभ क्यों नहीं बनाया जा सकता है ? आखिर यह जगह क्यों “ताकतवाला क्लिनिक” और बीमार मानसिकतावाले लोगों के लिए कोरे कैनवास का काम करता रहे ! साहित्य शिलालेखों और भोजपत्रों से होते हुए कागज़ तक पंहुचा, यहाँ से दरो-दीवार तक पहुंचे तो बुराई क्या है ?
बहरहाल, इस साल यह 3 दिवसीय आयोजन संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार और डोंगरगढ़ इप्टा के सहयोग से विकल्प, डोंगरगढ़ (छत्तीसगढ़) ने 9 वें राष्ट्रीय नाट्य समारोह नाम से किया, जिसका उद्घाटन हिंदी के चर्चित कवि पवन करण ने किया । इन्होनें अपने उद्घाटन वक्तव्य में एक कस्बे में नाट्यप्रेमियों के उत्साह व उपस्थिति से गदगद होते हुए कला और समाज के अंतरसंबधों पर प्रकाश डाला । इस आयोजन में आयोजकों द्वारा पवन करण के जनगीतों की पोस्टर प्रदर्शनी भी लगाई गई थी । गीतों की पारंपरिक शैलियों जैसी सरलता व गहनता, दिनेश चौधरी की कल्पनाशीलतापूर्ण पोस्टर परिकल्पना ने उपस्थित दर्शकों-पाठकों को अपनी तरफ़ आकर्षित किया । नाट्य प्रस्तुति प्रारंभ होने के पूर्व काफी संख्या में लोग इस पोस्टर प्रदर्शनी को देख, पढ़ और समझ रहे थे । इस पोस्टर प्रदर्शनी का ज़िक्र करते हुए इप्टा, डोंगरगढ़ के कलाकार राजेन्द्र भगत का ज़िक्र न किया जाय तो बात अधूरी रह जाएगी,जिन्होंने अपने हाथों से बांस का बड़ा ही खूबसूरत स्टैंड बनाया था । राजेन्द्र भगत अपनी आजीविका के लिए बांस का काम करते हैं और एक अच्छे ढोलक वादक व गायक हैं । यहां के सारे कलाकार अपनी आजीविका के लिए दूसरे-दूसरे काम करते हैं । बहरहाल, इस पोस्टर प्रदर्शनी में पवन करण लिखित कामवालियों का गीत,विधायक का गीत, थाने का गीत, अखबार बांटने वालों का गीत, रेल के जनरल डिब्बे का गीत, अंग्रेजी का गीत, प्रधानमंत्री का गीत, बेरोजगारों का गीत, सब्जी वाले का गीत, पत्रकार का गीत, छोटू का गीत, संसद का गीत, खेत का गीत आदि जनगीतों को शामिल किया गया था । जिनके भी मन में यह सवाल उठता है कि हिंदी का एक चर्चित कवि एकाएक जनगीत क्यों लिखने लगा उन्हें यह पोस्टर प्रदर्शनी तथा प्रदर्शनी देख रहे लोगों की प्रतिक्रियाओं से अवगत होना चाहिए । यहाँ कविता केवल पढ़ी ही नहीं देखी, सुनी और मनोज गुप्ता के नेतृत्व में गाई भी जा रही थी । इधर पवन करण जो इस आयोजन के मुख्य अतिथि थे अपनी सहज, सरल और दोस्ताना व्यक्तित्व के कारन कब मित्रवत हो गए पता ही न चला । हम गेस्ट हॉउस से नहा धोकर दस बजे सुबह के आसपास आयोजन स्थल पर पहुँचते फिर नाटक, देश, दुनियां, समाज, कविता, कहानी, चुटकुले आदि पर बात के साथ ही सामूहिक खाने और खासकर शानदार सब्ज़ियों पर फ़िदा हो जाते । यहाँ की मंगौड़ी के साथ चाय का क्या कहना । हम प्रस्तुतियों पर बात करते हुए जब वापस गेस्ट हॉउस पहुँचते तो रात के बारह कब के बज चुके होते ।
माहौल ऐसा कि यहाँ बहुत सारे “मैं” मिलकर “हम” हो रहे थे । इस “हम” में जो मज़ा और जिस भावना का वास होता है उसे रस और रसिक के सिद्धांत से नहीं समझा जा सकता । भावना, बुद्धि और विवेक से परे नहीं होती । मुक्तिबोध लिखते हैं “ज्ञान और बोध के आधार पर ही भावना की इमारत खड़ी है । यदि ज्ञान और बोध की बुनियाद गलत हुई, तो भावनाओं की इमारत भी बेडौल और बेकार होगी ।”
यह आयोजन कला के रंगमंच के शास्त्रीय अवधारणाओं पर कितना खरा उतरता है सवाल इसका नहीं है बल्कि मूल बात यह है कि रंगमंच नामक कला अपनी सामाजिक सरोकारों के साथ खड़ा है कि नहीं । यह सामाजिक सरोकारता कोई अलग से लादी गई चीज़ नहीं होती बल्कि मानव, मानवीयता और मानव समाज के प्रति संवेदनशील नज़रिया होता है । दरियो फ़ो कहते हैं “एक रंगमंचीय, एक साहित्यिक, एक कलात्मक अभिव्यक्ति जो अपने समय के लिए नहीं बोलती, उसकी कोई प्रासंगिकता नहीं ।”
आयोजन में बाहर की टीमें भी हैं पर आयोजन का स्वरूप ऐसा है कि मेहमान-मेजबान में फर्क कर पाना मुश्किल है । एक जैसे विचार वालों की बीच वैसे भी इस तरह का फर्क करना आसान नहीं होता । आयोजन स्थल पर सब अपने-अपने काम में लगे हैं । थ्रू मिनिमम, क्रिएट मैक्सिमम का सिद्धांत चलता है यहाँ । कोई कनात लगा रहा है, कोई राशन का सामान ला रहा है, कोई बांस काट रहा है, कोई पोस्टर-बैनर लगा रहा है, कोई मंच सजा रहा है, कोई दरी बिछा रहा है, कोई प्रकाश उपकरण लगा रहा है तो कोई ध्वनि, कोई लाल-लाल कुर्सियां सजा रहा है, कोई इस काम में लगा है, कोई उस काम में लगा है – ये सब डोंगरगढ़ के रंगकर्मी और नागरिक हैं जो आयोजन को सफल बनाने में जुटे हैं । वहीं दूसरी तरफ़ स्टेज पर आज प्रस्तुत होने वाले नाटकों का सेट, लाईट आदि का काम भी तो चल रहा है ।
यहाँ लाइटें नहीं मिलतीं, भिलाई से मंगाया गया है । शरीफ अहमद की लाइटें हैं । वही इप्टा वाले शरीफ अहमद जो पूरी तरह नाटक को समर्पित थे और एक सड़क दुर्घटना में इनकी दुखद मृत्यु हुई थी । खैर, शरीफ भाई का विस्तृत ज़िक्र फिर कभी । नुरूद्दीन जीवा, राजेश कश्यप, महेन्द्र रामटेके, निश्चय व्यास, गुलाम नबी, दिनेश नामदेव, राधेकृष्ण कनौजिया के साथ ही सब बाल इप्टा के लड़के-लड़कियां दिनेश चौधरी, राधेश्याम तराने, मनोज गुप्ता और अविनाश गुप्ता के नेतृत्व में अपने-अपने मोर्चे पर तैनात हैं । राधेकृष्ण कन्नौजिया टेंट का काम करके जीविका चलाते हैं और नाटकों में अभिनय भी करते हैं । जोश से लबरेज़ मितभाषी मतीन अहमद डोंगरगढ़ के मजे हुए अभिनेता हैं । आजीविका के लिए पान की गुमटी लगाते हैं और इस आयोजन में खान-पान की पूरी व्यवस्था चुपचाप और पूरी जवाबदेही से निभाते हैं । दिन भर भागदौड़ करने के बाद शाम को जनगीत के गायन में शरीक होते हैं और फिर नाटक में मुख्य भूमिका भी तो निभाते हैं । मज़ाल कि थकान का कोई नामोनिशान भी उनके चहरे पर कभी झलके । जिस काम में जी लगे उसमें थकान नहीं, आनंद है ।
पहले यह आयोजन हर दो साल में होता है किन्तु अब हर साल । इसका इंतज़ार केवल रंगकर्मी ही नहीं, दर्शक भी करते हैं । आयोजन स्थल पर जबलपुर के रंगकर्मी-चित्रकार विनय अम्बर भी अपने नाट्य दल के साथ आए हैं जो कभी स्थानीय बाल रंगकर्मियों के स्केच बना रहे हैं तो कभी किसी कविता पर आधारित कविता पोस्टर बनाकर उपहार दे रहें हैं । एक पोस्टर मुझे भी दिया गया जिस पर पवन करण की खूबसूरत कविता ‘पानी’ अंकित है । बगल में बैठे पवन करण अपनी कविता पर पोस्टर बनते देख शायद अंदर ही अंदर मुस्कुरा रहे हैं । इधर मैं उनकी कविता की सरलता पर मुग्ध था । हम तीन, फिर क्या था, चल पड़ा बातों का सिलसिला । दुनिया भर की बातें ! बातों-बातों में पता चला कि विनय अम्बर को एक बार ट्रेन के शौचालयों को पेंट करने का जूनून सवार हुआ । वो चलती ट्रेन के शौचालयों में घुस जाते और कविताओं की पंक्तियों व स्केच से उन्हें सजा देते । यह काम संपन्न करने के पश्चात् वो शौचालय के बाहर चुपचाप खड़े होकर लोगों की प्रतिक्रियाओं का अध्ययन करते । ट्रेन के शौचालय कैसी ‘कलाकारी’ से भरी रहती हैं यह बात हम सब जानते हैं और वहां जब हमारा सामना अच्छी कविता या स्केच से हो तो अमूमन क्या प्रतिक्रिया होगी इस बात की सहज कल्पना भी हम कर सकते हैं । यह आइडिया रेलवे नियमों के हिसाब से कितना क़ानूनी और गैर-कानूनी है, से ज़्यादा मज़ा मुझे यह सोचकर आ रहा था कि कितना क्रिएटिव आइडिया है । ऐसी क्रिएटिविटी के लिए यदि कानून में बदलाव लाने की ज़रूरत है तो यथाशीघ्र लाना चाहिए । क्या यह ज़रुरी है कि साहित्य सदा कागजों पर छपकर मुनाफ़ाखोर प्रकाशकों के मार्फ़त ही जन तक पहुंचे या फिर लाइब्रेरियों में कैद रहे ? जिस प्रकार नाट्य सहित्य को रंगकर्मी जन तक ले जाते हैं उसी प्रकार क्या इस तरह के गंभीर प्रयास से साहित्य को जनसुलभ क्यों नहीं बनाया जा सकता है ? आखिर यह जगह क्यों “ताकतवाला क्लिनिक” और बीमार मानसिकतावाले लोगों के लिए कोरे कैनवास का काम करता रहे ! साहित्य शिलालेखों और भोजपत्रों से होते हुए कागज़ तक पंहुचा, यहाँ से दरो-दीवार तक पहुंचे तो बुराई क्या है ?
बहरहाल, इस साल यह 3 दिवसीय आयोजन संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार और डोंगरगढ़ इप्टा के सहयोग से विकल्प, डोंगरगढ़ (छत्तीसगढ़) ने 9 वें राष्ट्रीय नाट्य समारोह नाम से किया, जिसका उद्घाटन हिंदी के चर्चित कवि पवन करण ने किया । इन्होनें अपने उद्घाटन वक्तव्य में एक कस्बे में नाट्यप्रेमियों के उत्साह व उपस्थिति से गदगद होते हुए कला और समाज के अंतरसंबधों पर प्रकाश डाला । इस आयोजन में आयोजकों द्वारा पवन करण के जनगीतों की पोस्टर प्रदर्शनी भी लगाई गई थी । गीतों की पारंपरिक शैलियों जैसी सरलता व गहनता, दिनेश चौधरी की कल्पनाशीलतापूर्ण पोस्टर परिकल्पना ने उपस्थित दर्शकों-पाठकों को अपनी तरफ़ आकर्षित किया । नाट्य प्रस्तुति प्रारंभ होने के पूर्व काफी संख्या में लोग इस पोस्टर प्रदर्शनी को देख, पढ़ और समझ रहे थे । इस पोस्टर प्रदर्शनी का ज़िक्र करते हुए इप्टा, डोंगरगढ़ के कलाकार राजेन्द्र भगत का ज़िक्र न किया जाय तो बात अधूरी रह जाएगी,जिन्होंने अपने हाथों से बांस का बड़ा ही खूबसूरत स्टैंड बनाया था । राजेन्द्र भगत अपनी आजीविका के लिए बांस का काम करते हैं और एक अच्छे ढोलक वादक व गायक हैं । यहां के सारे कलाकार अपनी आजीविका के लिए दूसरे-दूसरे काम करते हैं । बहरहाल, इस पोस्टर प्रदर्शनी में पवन करण लिखित कामवालियों का गीत,विधायक का गीत, थाने का गीत, अखबार बांटने वालों का गीत, रेल के जनरल डिब्बे का गीत, अंग्रेजी का गीत, प्रधानमंत्री का गीत, बेरोजगारों का गीत, सब्जी वाले का गीत, पत्रकार का गीत, छोटू का गीत, संसद का गीत, खेत का गीत आदि जनगीतों को शामिल किया गया था । जिनके भी मन में यह सवाल उठता है कि हिंदी का एक चर्चित कवि एकाएक जनगीत क्यों लिखने लगा उन्हें यह पोस्टर प्रदर्शनी तथा प्रदर्शनी देख रहे लोगों की प्रतिक्रियाओं से अवगत होना चाहिए । यहाँ कविता केवल पढ़ी ही नहीं देखी, सुनी और मनोज गुप्ता के नेतृत्व में गाई भी जा रही थी । इधर पवन करण जो इस आयोजन के मुख्य अतिथि थे अपनी सहज, सरल और दोस्ताना व्यक्तित्व के कारन कब मित्रवत हो गए पता ही न चला । हम गेस्ट हॉउस से नहा धोकर दस बजे सुबह के आसपास आयोजन स्थल पर पहुँचते फिर नाटक, देश, दुनियां, समाज, कविता, कहानी, चुटकुले आदि पर बात के साथ ही सामूहिक खाने और खासकर शानदार सब्ज़ियों पर फ़िदा हो जाते । यहाँ की मंगौड़ी के साथ चाय का क्या कहना । हम प्रस्तुतियों पर बात करते हुए जब वापस गेस्ट हॉउस पहुँचते तो रात के बारह कब के बज चुके होते ।
माहौल ऐसा कि यहाँ बहुत सारे “मैं” मिलकर “हम” हो रहे थे । इस “हम” में जो मज़ा और जिस भावना का वास होता है उसे रस और रसिक के सिद्धांत से नहीं समझा जा सकता । भावना, बुद्धि और विवेक से परे नहीं होती । मुक्तिबोध लिखते हैं “ज्ञान और बोध के आधार पर ही भावना की इमारत खड़ी है । यदि ज्ञान और बोध की बुनियाद गलत हुई, तो भावनाओं की इमारत भी बेडौल और बेकार होगी ।”
यह आयोजन कला के रंगमंच के शास्त्रीय अवधारणाओं पर कितना खरा उतरता है सवाल इसका नहीं है बल्कि मूल बात यह है कि रंगमंच नामक कला अपनी सामाजिक सरोकारों के साथ खड़ा है कि नहीं । यह सामाजिक सरोकारता कोई अलग से लादी गई चीज़ नहीं होती बल्कि मानव, मानवीयता और मानव समाज के प्रति संवेदनशील नज़रिया होता है । दरियो फ़ो कहते हैं “एक रंगमंचीय, एक साहित्यिक, एक कलात्मक अभिव्यक्ति जो अपने समय के लिए नहीं बोलती, उसकी कोई प्रासंगिकता नहीं ।”
चीजें तकनीक नहीं विचार की वजह से क्रांतिकारी होती हैं और क्रांतिकारी होने के अर्थ “पकाऊ” होना तो कदापि नहीं होता । भारतीय रंगमंच का जो मूल चरित्र है उसमें तकनीक और शस्त्र बाद में आता है अभाव और चुनौतियां पहले ही मोड़ पे खड़ी मिलती हैं । अभाव श्रृजन की जननी है इस बात में कितनी सत्यता है, मालूम नहीं । वैसे भी सत्य-असत्य का व्यावहारिकता से नैतिक सम्बन्ध ज़रा कम ही होता है और इनके कई पहलू भी होते हैं । आदर्शवादी होना अच्छा है लेकिन आदर्श व्यवहारिक हो यह भी उतना ही ज़रुरी हो जाता है । चौबे दा (योगेन्द्र चौबे) कंधे पर हाथ रखते हुए कहते हैं “हर जगह अपनी महानता साबित करने के लिए नाटक नहीं किया जाता ।” सच भी है । कई बार सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक परिस्थियां कला, साहित्य, संस्कृति के अनुकूल होती हैं, तो कई बार परिस्थियों के अनुकूल ढलना होता है । लोक व्यवहार तो यही कहता है । आदर्श होता नहीं बनाया जाता है, गढा जाता है । गढने के इसी हुनर को हम कला कहते हैं, शायद । यह एक भ्रम है कि राजधानियों और शहरों में ही कला, संस्कृति, साहित्य आदि की आधुनिक मुख्यधाराएं प्रवाहित होती है और बाकि जगह ‘मूढ़’ बस्ते हैं । यहाँ से निकला जाय तो इन विधाओं के हमें कालिदास भले न मिलें पर कबीर आज भी भरे पड़े हैं ।
बहरहाल, आयोजन का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है - आयोजन - 9 वां राष्ट्रीय नाट्य समारोह । दिनांक - 21 से 23 दिसम्बर 2013 । आयोजक – विकल्प, डोंगरगढ़ । स्थान – बमलेश्वरी मंदिर प्रांगण । नाट्य प्रस्तुतियां – प्लेटफार्म (प्रस्तुति - इप्टा, भिलाई, लेखक व निर्देशक – शरीफ अहमद), बापू मुझे बचा लो (प्रस्तुति - इप्टा, डोंगरगढ़, लेखक – दिनेश चौधरी,निर्देशक – राधेश्याम तराने), बल्लभपुर की रूपकथा (प्रस्तुति - विवेचना रंगमंडल, जबलपुर, लेखक – बादल सरकार, निर्देशक –प्रगति विवेक पाण्डे), व्याकरण (प्रस्तुति - इप्टा, रायगढ़, परिकल्पना, संगीत व निर्देशन – हीरा मानिकपुरी), कोर्ट मार्शल (प्रस्तुति - इप्टा, गुना, लेखक – स्वदेश दीपक, निर्देशक – अनिल दुबे), इत्यादि (बाल इप्टा, डोंगरगढ़, लेखक – राजेश जोशी, निर्देशक – पुंज प्रकाश) एवं गधों का मेला (प्रस्तुति - नाट्य विभाग, खैरागढ़ विश्वविद्यालय, लेखक – तौफ़ीक-अल-हकीम, निर्देशक – डॉक्टर योगेन्द्र चौबे), विशेष आकर्षण – पवन करण की कविताओं की कलात्मक पोस्टर प्रदर्शनी ।
बहरहाल, आयोजन का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है - आयोजन - 9 वां राष्ट्रीय नाट्य समारोह । दिनांक - 21 से 23 दिसम्बर 2013 । आयोजक – विकल्प, डोंगरगढ़ । स्थान – बमलेश्वरी मंदिर प्रांगण । नाट्य प्रस्तुतियां – प्लेटफार्म (प्रस्तुति - इप्टा, भिलाई, लेखक व निर्देशक – शरीफ अहमद), बापू मुझे बचा लो (प्रस्तुति - इप्टा, डोंगरगढ़, लेखक – दिनेश चौधरी,निर्देशक – राधेश्याम तराने), बल्लभपुर की रूपकथा (प्रस्तुति - विवेचना रंगमंडल, जबलपुर, लेखक – बादल सरकार, निर्देशक –प्रगति विवेक पाण्डे), व्याकरण (प्रस्तुति - इप्टा, रायगढ़, परिकल्पना, संगीत व निर्देशन – हीरा मानिकपुरी), कोर्ट मार्शल (प्रस्तुति - इप्टा, गुना, लेखक – स्वदेश दीपक, निर्देशक – अनिल दुबे), इत्यादि (बाल इप्टा, डोंगरगढ़, लेखक – राजेश जोशी, निर्देशक – पुंज प्रकाश) एवं गधों का मेला (प्रस्तुति - नाट्य विभाग, खैरागढ़ विश्वविद्यालय, लेखक – तौफ़ीक-अल-हकीम, निर्देशक – डॉक्टर योगेन्द्र चौबे), विशेष आकर्षण – पवन करण की कविताओं की कलात्मक पोस्टर प्रदर्शनी ।
Friday, January 3, 2014
"संवेदनशील अभिनेता और सजग व्यक्तित्व के धनी थे फ़ारूख शेख"
पटना/29 दिसम्बर 2013
"देश ने प्रतिभा संपन्न, संवेदनशील कलाकार और सजग राजनीतिक चेतना वाले व्यक्तित्व को खो दिया है. फ़ारूख़ शेख के असामयिक निधन से कला जगत स्तब्ध है और उनकी क्षति अपूरणीय है."
'इप्टा संहति 2013' के अवसर पर देश के विभिन्न कोने से पटना इप्टा से जुड़े रहे सदस्यों के जमावड़े ने फ़िल्म, टेलीविज़न और रंगमंच के अभिनेता फ़ारूख़ शेख के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए उक्त बातें कहीं। पटना युवा आवास में आयोजित शोक सभा में इप्टाकर्मियों ने फ़ारूख शेख को याद किया। फ़ारूख के साथ लखनऊ में हुए विस्तृत भेंट की चर्चा करते हुए पटना इप्टा के कार्यकारी अध्यक्ष तनवीर अख्तर ने कहा कि फ़ारूख ने भेंट के दौरान यह बताया था कि उन्हें इप्टा आंदोलन से प्यार है और इप्टा से देश को संस्कृतिकर्म में सक्रिय हस्तक्षेप की अपेक्षा है. एम० एफ० हुसैन की जीवनी पर तैयार पटना इप्टा की प्रस्तुति को ना सिर्फ़ उन्होंने सराहा बल्कि एक रचनात्मक उपलब्धि भी कहा. श्री अख्तर ने 'गर्म हवा' में उनके अभिनय की चर्चा करते हुए कहा कि पहली ही फ़िल्म से फ़ारूख ने गंभीर अभिनय की जो शुरुआत की उसे पूरी ज़िन्दगी निभाया।
उपाध्यक्ष फीरोज़ अशरफ़ खां ने रंगमंच में फ़ारूख शेख़ की दखल की चर्चा करते हुए शबाना आज़मी के साथ अभिनीत नाटक "तुम्हारी अमृता" का उल्लेख किया और कहा कि फ़ारूख ने रंगमंच को कभी भी सेलिब्रिटी के शौक के रूप में नहीं लिया बल्कि पूरी गंभीरता एवं समर्पण के साथ प्रस्तुत किया. वरिष्ठ इप्टाकर्मी श्रीकांत ने अस्सी के दशक की फ़ारूख और दीप्ति नवल की हिट जोड़ी को याद किया और कहा कि उनका ना होना एक बार फिर से सार्थक सिनेमा और सिनेमा जनसरोकार पर विमर्श का स्पेस बनाता है.
इस अवसर पर सुबोध कुमार, राजेश कुमार, सुनील किशोर, उषा वर्मा, सीताराम सिंह, आदि ने अपनी बातें रखी और एक महान कलाकार को याद किया।