Thursday, November 28, 2013

‘इप्टा’ लखनऊ का 'सिनेमा के 100वर्ष एवं बलराज साहनी जन्म शताब्दी समारोह'

खनऊ 15 नवम्बर, 2013.  भारत में सिनेमा के आगमन के तीन दशकों के भीतर ही 1943 में इप्टा की स्थापना के साथ ही यथार्थवादी एवं हस्तक्षेपकारी सिनेमा का बीज पड़ गया था, जो 1946 में ‘‘धरती के लाल’’ के रूप में सामने आया।

     उक्त वक्तव्य प्रख्यात सिने एवं नाट्य निर्देशक, इप्टा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एम.एस. सथ्यु  ने 15 नवम्बर, 2013 को ‘इप्टा’ लखनऊ द्वारा आयोजित ‘‘सिनेमा के सौ वर्ष’’ तथा बलराज साहनी जन्म शताब्दी समारोह के अवसर पर दिया। उन्होंने कहा कि यह स्वाभाविक ही था कि ख्वाजा अहमद अब्बास ने ‘इप्टा’ की पहली फिल्म ‘धरती के लाल’ के लिए बंगाल के अकाल पीडि़त किसानों के त्रासद यथार्थ को विषयवस्तु के रूप में चुना। इस फिल्म से ही बलराज साहनी ने अपने बेजोड़ यथार्थवादी अभिनय से अपनी पहचान बनायी। उसी समय चेतन आनन्द ने ‘नीचा नगर’ के माध्यम से इस धारा को और भी पुष्ट किया। उन्होंने कहा कि उन्हें इस बात पर संतोष है कि उन्होंने इसी धारा से जुड़कर अपने फिल्म एवं रंगजीवन की शुरूआत की। उन्होंने कहा कि उनकी फिल्म ‘गर्म हवा’ को इस्मत चुगताई द्वारा दी गयी विषयवस्तु के अलावा बलराज साहनी के अभिनय ने एक सार्थक फिल्म बनाया। उन्होंने कहा कि ‘इप्टा’ एक मात्र ऐसा सांस्कृतिक संगठन है ,जो पिछले सात दशकों से लगातार सक्रिय है, लेकिन उसे अपनी सृजनात्मक क्षमता को और भी बढाने की जरूरत है।इस सार्थक संवाद का संचालन नाटककार तथा उ.प्र.इप्टा के महामंत्री व राष्ट्रीय सचिव राकेश ने किया।   

     एम.एस. सथ्यु  से सम्वाद के फौरन बाद जानी मानी अर्थशास्त्री संस्कृतिकर्मी एवं एक्टिविस्ट जया मेहता तथा लेखक, संस्कृतिकर्मी विनीत तिवारी द्वारा बलराज साहनी पर बनाए गए वृत्त चित्र का प्रदर्शन किया गया। धरती के लाल, दो बीघा जमीन तथा गर्म हवा के विविध दृश्यों में बलराज साहनी के अभिनय उनके स्वयं के अनुभवों को प्रभावशाली कर्मेन्द्री से जोड़कर बनाए गए इस वृत्तचित्र का दिलचस्प पहलू यह भी है कि कुछ भी फिल्माएं बिना यह वृत्तचित्र बलराज साहनी के जीवन एवं उनकी जीवन दृष्टि को बेहद सफलता से दर्शाता है। सामूहिकता से अकेलेपन की ओर जाने की त्रासदी को जया और विनीत ने धरती के लाल तथा दो बीघा जमीन के दृश्यों के माध्यम से दर्शाया है। जहां आजादी के पहले धरती के लाल में अकालग्रस्त गांव से किसान सामूहिक रूप से पलायन करते हैं और वापसी भी सामूहिक रूप से करते हैं वहीं आजादी के बाद बनी दो बीघा जमीन में जमीन से बेदखल किसान अकेले ही शहर पलायन करता है जहां वह रिक्शा चलाने के लिए अभिशप्त होता है। दो बीघा जमीन में घोड़ा-गाड़ी और बलराज साहनी द्वारा हाथ से खींचने वाले रिक्शे के बीच की दौड़, तेज दौड़ाने के लिए तांगेवाले द्वारा घोड़े पर बार-बार चाबुक की मार और बलराज साहनी के रिक्शे पर बैठी सवारी द्वारा दो आने और कहते हुए पैसे की मार को जितने प्रभावशाली ढंग से विमल राय ने फिल्माया है उतनी ही कुशलता से जया और विनीत ने कमेन्ट्री के साथ इसे अपने वृत्त चित्र में जोड़ा है। विभाजन के बाद देश में अल्पसंख्यकों को लगातार अपनी देशभक्ति को प्रमाणित करते रहने की त्रासदी को उकेरते हुए एम.एस. सथ्यु  ने गरीबी, बेरोजगारी ने तथा सभी समस्याओं के जवाब में सामूहिक आन्दोलन के जिस संदेश पर गर्म हवा को समाप्त किया, वह अभी भी कला प्रेमियों के लिए एक ताजे झोंके की तरह लगता है, जिसे बार-बार देखना और महसूस करना ताजगी देता है। गर्म हवा के इन दृश्यों को भी जया और विनीत ने रेखांकित किया है। कुल मिलाकर लखनऊ के कला प्रेमियों के लिए यह एक सार्थक शाम थी।

Wednesday, November 27, 2013

बलराज साहनी : जो बात तुझमें है तेरी तस्वीर में नहीं

भिनय महान कहलाएगा बशर्ते अभिनेता किरदार को ऐसे निभाये कि उसका अपना व्यक्तित्व तिरोहित हो जाय, वह ना रहे, निभाया गया किरदार ही रहे। इस पंक्ति को पढ़कर किसी को कबीर याद आ जायें तो क्या अचरज- ‘जब मैं था तब हरि नहीं- अब हरि हैं हम नाहीं ’! अचरज कीजिए कि बलराज साहनी के अभिनय की ऊंचाई को ठीक-ठीक इसी कसौटी पर महान ठहराया जाता है, यह भूलते हुए कि कबीर का समय बलराज साहनी के समय से अलग है, और ठीक इसीलिए 15 वीं सदी के भक्त का अपनी भाव-वस्तु से जो तादात्म्य संभव रहा होगा वह शायद बीसवीं सदी के किसी अभिनेता का अपने किरदार के साथ संभव ना भी हो । आख़िर चेतना का वस्तूकरण, व्यक्तित्व का विघटन, संवेदना का विच्छेद जैसे पद बीसवीं सदी के मनुष्य को समझने-समझाने की गरज से आये थे। अचरज कीजिए कि खुद बलराज साहनी ने भी अपनी तरफ़ से अभिनय की महानता की कसौटी प्रस्तुत करने की कोशिश की तो किरदार के साथ अभिनेता के एकात्म को ज़रुरी शर्त माना, भले ही अभिनय के दौरान उन्हें इससे तनिक अलग भी अनुभव हुआ हो। इस आलेख का विषय बलराज साहनी के इस ‘अलग अनुभव ’ की तरफ़ संकेत मात्र करना है, ताकि इस आम सहमति को तनिक प्रश्नाकुल होकर कुरेदा जा सके कि किरदार से अभिनेता का एकात्म ही अभिनय की महानता की एकमात्र कसौटी है।

आम सहमति यही है कि ‘ बलराज साहनी कई चेहरों वाला अभिनेता ’ थे। ‘ कई चेहरों वाला अभिनेता ’ कहने के पीछे मंशा यह बताने की होती है कि “अधिकतर अभिनेता विभिन्न पात्रों के रोल करने पर भी अपने ख़ुद के चेहरे को छिपा नहीं पाते हैं और सही अर्थों में उन पात्रों को साकार करने में असमर्थ रहते हैं..” जबकि बलराज साहनी ने विभिन्न पात्रों की भूमिका इस तरह निभायी कि “ ख़ुद की शख़्सियत को उन पात्रों में उजागर नहीं होने दिया, इसीलिए वे पात्र इतने सजीव होकर होकर साकार हुए। ”(1) । बलराज साहनी के अभिनय के संदर्भ में ‘ कई चेहरों वाला अभिनेता ’ का रुपक इतना प्रभावशाली है कि थोड़े हेर-फेर के साथ हर समीक्षक इस बात को दोहराना जरुरी समझता है। मिसाल के लिए जन्मशती के इस साल में बलराज साहनी के अभिनय की विशेषता को याद करते हुए एक सुधी समीक्षक ने उनकी तुलना यूनान के पौराणिक पात्र प्रोतेउस से की क्योंकि एक तो वह किसी के पकड़ में नहीं आता और आ भी जाय तो “ऐसी रफ़्तार से इतने वास्तविक-से चोले बदलने लगता है कि पकड़नेवाला घबरा कर उसे छोड़ देता है और वह फिर फ़रार हो जाता है। ”(2)कमोबेश ऐसी ही बात अपने इस सहोदर भाई के बारे में भीष्म साहनी भी कहते हैं- “ बलराज की सफलता का राज था कि वे किसी किरदार को निभाते वक्त उसमें अपना दिल ही नहीं, आत्मा भी झोंक देते थे। काबुलीवाला फ़िल्म करते वक्त उन्होंने पठान काबुलीवाला के जीवन को नजदीक से जानने के लिए उसका गहन अध्ययन किया। यही कारण है कि जब आप बलराज की किसी फ़िल्म को याद करते हैं, तो बलराज याद नहीं आते वह किरदार याद आता है। हर किरदार अपने आप में अलग नजर आता है। अभिनेता बलराज गायब हो जाता है। वह अपनी पहचान को किरदार में घुला देते थे। यह इस कारण होता था क्योंकि वे किरदार से गहरे स्तर पर जुड़ जाते थे. बलराज कहते थे कि एक्टिंग सिर्फ कला नहीं है, यह एक विज्ञान भी है.”(3)

भीष्म साहनी ने जिस बात को संक्षेप में लिखा है, उसका विस्तार बलराज साहनी पर केंद्रित ख्वाजा अहमद अब्बास के एक संस्मरण में मिलता है। इस संस्मरण में अभिनेता बलराज साहनी से जुड़ी कई कहानियां हैं, ऐसी कहानियां जो अभिनय के प्रति बलराज साहनी की निष्ठा का साक्ष्य तो हैं ही, पाठक के मन में अभिनेता बलराज के प्रति श्रद्धा-भाव जगाती हैं। अब्बास साहब लिखते हैं- “ 1945 में इप्टा ने जब फ़िल्म धरती के लाल बनायी, जिसमें सारे के सारे गैर-पेशेवर अभिनेता-अभिनेत्री थे, उसके लिए लंबे-तड़ंगे तथा नफीस बलराज साहनी ने, जो बीबीसी में दो बरस काम करने के बाद कुछ ही अर्सा हुए लंदन से वापस लौटे थे,खुद को ऐसे आधे-पेट खाकर गुजर करते बंगाली किसान में बदला,जैसे वह अकाल के मारे लाखों किसानों में से ही एक हों। वह महीनों तक सिर्फ एक वक्त खाकर गुजारा करते रहे थे ताकि कैमरे के सामने उनकी अधनंगी देह,अपने भूख के मारे होने की गवाही दे। और हर रोज कैमरे के सामने जाने से पहले वह अपनी धोती,समूचे शरीर और चेहरे पर भी,कीचड़ मिले पानी का छिडक़ाव कराते थे ताकि हर तरह से अकिंचनता प्रकट हो। ”(4)

‘दो बीघा ज़मीन’ के बारे में तो ख़ैर, यह बात प्रसिद्ध है ही कि इस फ़िल्म के किरदार को निभाने के लिए बलराज साहनी कई हफ्ते तक कलकत्ता में रिक्शा खींचने वालों की बस्ती में रहे थे। यहां उन्होंने रिक्शा खींचने के लिए खुद को प्रशिक्षित ही नहीं किया था बल्कि रिक्शा खींचने वालों के तौर-तरीके भी सीखे थे। ‘दो बीघा ज़मीन ’ के किरदार को निभाने के लिए बलराज साहनी ने क्या-क्या किया इसका एक ब्यौरा खुद बलराज साहनी की जबानी सुनिए- “बम्बई शहर से बाहर जोगेश्वरी के इलाके में उत्तर प्रदेश और बिहार के भैंसे पालने वाले भैया लोगों की बहुत बड़ी बस्ती है। मैं अगले दिन से वहां के चक्कर लगाने लगा। मैं भैया लोगों के साथ बैठता, उनकी बातें सुनता, उन्हें काम करते हुए देखता। वे कैसे चलते हैं, क्या पहनते हैं, क्या खाते हैं, कैसे उठते-बैठते हैं- यह सब मैं बड़े गौर से देखता और अपने मन में बैठाता। भैया लोगों को सिर पर गमछा लपेटने का बहुत शौक होता है और हर कोई उसे अपने ही ढंग से लपेटता है। मैंने भी एक गमछा खरीद लिया और घर में उसे सिर पर लपेटने का अभ्यास करने लगा। लेकिन वह खूबसूरती पैदा न होती। मेरे सामने यह एक बहुत बड़ी समस्या थी, जिसे हल करने की मैंने पूरी कोशिश की। ‘दो बीघा जमीन’ में मेरी सफलता ज्यादातर इसी अध्ययन का नतीजा है।”(5)

एक बार फिर से प्रसंग पर लौटते हुए बात ख्वाजा अहमद अब्बास के संस्मरण की करें। अब्बास साहब ने तफ्सील से बताया है कि बलराज साहनी द्वारा अभिनीत किरदार अगर प्रसिद्ध हुए तो इसलिए कि उनका अभिनय कौशल “मानव व्यवहार के सहानुभूतिपूर्ण प्रेक्षण और यथार्थवाद के लिए गहरे लगाव,ब्यौरों के प्रति तथा चरित्र व व्यक्तित्व एक एक-एक रग-रेशे के प्रति आश्यचर्यजनक ईमानदारी ” से भरा था। अब्बास साहब लिखते हैं- “काबुलीवाला में,रवींद्रनाथ टैगोर के रचे बहुत ही भोले पठान के प्यारे से पात्र को साकार करने के लिए,उन्होंने रावलपिंडी में गुजरे अपने बचपन की स्मृतियों को फिर से जगाया था,जहां सीमांत क्षेत्र से आने वाले पठान सहज ही और रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा होते थे। इसके अलावा उन्होंने स्थानीय पठानों से संपर्क कर उनसे उनकी बोल-चाल सीखी थी,उनका प्रिय साज़ रबाब बजाना सीखा था और पश्तो के गीत गाना सीखा था। उन्होंने पठानों की हिंदुस्तानी की बोल-चाल की ध्वनि और उसके लालित्य को सीखा था। ..वर्षों तक वह जहां भी जाते थे, उनके चाहने वाले उनका स्वागत काबुलीबाला के बोलने के तरीके की उनकी प्रस्तुति की नकल कर के किया करते थे। ” (6) । इसी तरह इप्टा के नाटक आखिरी शमा में बलराज साहनी द्वारा अभिनीत मिर्जा गालिब के चरित्र के की तैयारी के बारे में अब्बास साहब ने लिखा है कि “इस पात्र की प्रस्तुति को पूर्णतम बनाने में.. उन्होंने अपने दोस्तों से देहली की उर्दू इस तरह सीखी थी, वह इस जुबान में वैसे ही बोल सकते थे, जैसे गालिब बोलते रहे होंगे। उन्होंने मुशाइरा शैली में शाइरी पढ़ने की नफीस कला भी घोंटकर पी ली थी। गालिब के पात्र की उनकी प्रस्तुति इतनी विश्वसनीय तथा जीवंत थी कि गालिब के एक महान पारखी तथा गालिब साहित्य के विद्वान ने कहा था: ‘‘जाहिर है कि महान शायर को मैंने कभी देखा तो नहीं था, पर मैं इतना जरूर जानता हूं कि गालिब ऐसे ही नजर आते,ऐसे ही शायरी पढ़ते और नाटक में चित्रित विभिन्न हालात में उनकी ऐसी ही प्रतिक्रिया रही होती।’’(7)

बलराज साहनी के अभिनय के बारे में प्रचलित ये सत्यकथाएं क्या एक अभिनेता के कौशल का साक्ष्य मात्र हैं, या इन कथाओं की एक अंदरुनी राजनीति है? क्या इन कथाओं के भीतर एक प्रेरणा यह सिद्ध करने की है कि अभिनय तभी श्रेष्ठ हो सकता है जब अभिनेता निभाये जा रहे किरदार की वास्तविक ज़िंदगी में उतरकर उसके सुख-दुःख को भोगे? दूसरे शब्दों में, क्या बलराज साहनी के अभिनय-कौशल को सिद्ध करने के लिए बहुधा उद्धृत की जाने वाली इन कथाओं के भीतर एक मंशा यह साबित करने की होती है कि यह कलाकार समाजवादी समाज-रचना के सिद्धांतों के प्रति निष्ठावान था और उसकी अभिनय कौशल एक तो इस निष्ठा का ही सबूत है और दूसरे उसका अभिनय-कौशल समाजवादी समाज-रचना की दिशा में किया गया कृत्य होने के नाते महान है ? लग सकता है कि यहां महानता की बड़ी और जटिल कथा का एक छोटे-से वाक्य में लाघवीकरण हो रहा है, मगर ऊपर की कथाओं में इस प्रश्न का उत्तर हां में देने के पर्याप्त साक्ष्य मौजूद हैं। मिसाल के लिए, जिस सुधी समीक्षक ने बलराज साहनी के अभिनय कौशल को सराहते हुए उसकी तुलना रुप बदलने वाले पौराणिक पक्षी प्रोतेऊस से की है, उसने लिखा है कि नैचुरल एक्टिंग की यह सिफअत वैसे तो अशोक कुमार और मोतीलाल में भी मौजूद थी, लेकिन “अशोक कुमार और मोतीलाल की सीमा यह थी वे ऊँचे या दरमियानी समाजी दरजे से अलग दिख नहीं पाते थे – उनमें आप उन्हें जो चाहे बना डालिए. उनके चेहरे सिर्फ़ ख़वास के रहे, अवाम के न बन पाए. हिंदी सिनेमा की इस ख़ला को भरा बलराज साहनी ने.” (8)

भीष्म साहनी अपने सहोदर भाई के अभिनय-कौशल को जब याद करते हैं तो यह जोड़ना जरुरी समझते हैं कि “ इससे ( किरदार के साथ एकात्म) बढ़कर भी शायद एक चीज थी, वह था बलराज का सामाजिक सरोकार। वे किसी किरदार को उसके सामाजिक संदर्भो से जोड़ कर देखते थे. उन्होंने मार्क्सवाद के महत्व को स्वीकार किया ”। और अपनी बात की पुष्टि में एक वाक़ये का ज़िक्र करते हैं कि कैसे ‘दो बीघा ज़मीन” की शूटिंग के दौरान बलराज साहनी मुलाकात कलकत्ते में बिहार से आये एक रिक्शेवाले से हुई और उन्होंने उसे फ़िल्म की कहानी सुनाई तो वह यह कहकर रोने लगा कि- “यह तो बिल्कुल मेरी कहानी है. उसके पास भी दो बीघा ज़मीन थी, जो उसने एक जमींदार के पास गिरवी रखी थी और वह उसे छुड़ाने के लिए पिछले पंद्रह साल से कलकत्ता में रिक्शा चला रहा था. हालांकि उसे उम्मीद नहीं थी कि वह उस ज़मीन को कभी हासिल कर पायेगा. इस अनुभव ने उन्हें बदल कर रख दिया। उन्होंने ख़ुद से कहा कि ‘मुझ पर दुनिया को एक गरीब, बेबस आदमी की कहानी बताने की जिम्मेदारी डाली गयी है, और मैं इस जिम्मेदारी को उठाने के योग्य होऊं या न होऊं, मुझे अपनी ऊर्जा का एक-एक कतरा इस जिम्मेदारी को निभाने में खर्च करना चाहिए ’।(9)

और ख्वाजा अहमद अब्बास के जिस संस्मरण का जिक्र आलेख में ऊपर आया है वह तो लिखा ही गया है इस पैरोकारी के साथ कि- “अगर भारत में कोई ऐसा कलाकार हुआ है जो ‘‘जन कलाकार’’ के ख़िताब का हकदार है, तो वह बलराज साहनी ही हैं। उन्होंने अपनी ज़िंदगी के बेहतरीन साल, भारतीय रंगमंच तथा सिनेमा को घनघोर व्यापारिकता के दमघोंटू शिकंजे से बचाने के लिए और आम जन के जीवन के साथ उनके मूल, जीवनदायी रिश्ते फिर से कायम करने के लिए समर्पित किए थे। ” फ़िल्म के पर्दे पर बलराज साहनी का चेहरा ‘ख्वास का नहीं अवाम का चेहरा ’ बन सका तो इसलिए कि ‘उन्होंने मार्क्सवाद के महत्व को स्वीकार किया था ’- ख्वाजा अहमद अब्बास का उपरोक्त संस्मरण शायद इस बात को सबसे दमदार ढंग से प्रस्तुत करता है। उनका तर्क है- “ बलराज साहनी कोई यथार्थ से कटे हुए बुद्धिजीवी तथा कलाकार नहीं थे। आम आदमी से उनका गहरा परिचय (जिसका पता उनके द्वारा अभिनीत पात्रों से चलता है), स्वतंत्रता के लिए तथा सामाजिक न्याय के लिए जनता के संघर्षों में उनकी हिस्सेदारी से निकला था। उन्होंने जुलूसों में, जनसभाओं में तथा ट्रेड यूनियन गतिविधियों में शामिल होकर और पुलिस की नृशंस लाठियों और गोलियां उगलती बंदूकों को सामना करते हुए यह भागीदारी की थी। गोर्की की तरह अगर जिंदगी उनके लिए एक विशाल विश्वविद्यालय थी, तो जेलों ने जीवन व जनता के इस चिरंतन अध्येता, बलराज साहनी के लिए स्नातकोत्तर प्रशिक्षण का काम किया था। ”(10)

समाजवादी सिद्धांतों के प्रति निष्ठा ने बलराज साहनी को श्रेष्ठ अभिनेता बनने की ज़मीन मुहैया करायी, ऐसा सिर्फ उनके अभिनय को सराहने वाले सुधी समीक्षक ही नहीं बल्कि ख़ुद बलराज साहनी भी मानते हैं, लेकिन किसी घोषणा के अंदाज में नहीं बल्कि उस संयम के साथ जो उनके अभिनय की एक खास पहचान है। वे लिखते हैं- “यह कहना कि कलाकार को हर समय अपनी कला का ही ध्यान रहता है, और देश या समाज की समस्याओं से वे बिल्कुल अलग रहते हैं, बड़ी भारी भूल है। अभिनेता जनता के सामने जीवन नहीं पेश करता,दूसरों के जीवन की तस्वीर पेश करता है। हमलोग फ़िल्म में मैंने एक पढ़े-लिखे बेरोजगार नौजवान का पार्ट अदा किया, दो बीघा जमीन में एक दुःखी किसान का, औलाद में एक घरेलू नौकर का, सीमा में एक विद्वान समाज सेवक का, टकसाल में करोड़पति का और काबुली वाला में एक मुफलिस पठान का। सब रोल एक दूसरे से जुदा थे। अगर मैं किसानों, मजदूरों, पठानों वग़ैरह का जीवन क़रीब से जाकर नहीं देखता तो कभी यह संभव नहीं हो सकता था कि मैं यह पार्ट अदा कर सकता। अगर उन्हें क़रीब से देखना उचित था तो उनके जीवन की आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं को जानना और समझना भी मेरा फ़र्ज़ था, तभी मैं उनके दिलों की धड़कनों को अपनी आंखों और अपने शब्दों में अभिव्यक्त कर सकता था, वरना बात अधूरी रह जाती। ” (11)

“जीवन की आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं को” जाने-समझे बगैर किसी अभिनेता के लिए किरदार को निभा पाना संभव नहीं- इस निष्कर्ष पर बलराज साहनी कैसे पहुंचे ? क्या इस वजह से कि अभिनेता बनने के बावजूद उनका खुद के बारे में ख्याल यही रहा कि वे प्राथमिक रुप से एक साहित्यकार हैं ? शायद हां, क्य़ोंकि वे अपने साहित्यकार होने और अभिनेता होने को अनिवार्य-संबंध की एक कड़ी के रुप में देखते थे। इस बात को अलग-अलग रुपों में उन्होंने स्वीकार किया है कि “अगर मैं साहित्यकार ना होता तो इतना अच्छा अभिनेता नहीं बन पाता..”। (12) । फ़िल्म-अभिनेता बनने के पीछे जो कारण उन्होंने गिनाये हैं उसमें एक है पैसों की तंगी तो दूसरा है, साहित्य की दुनिया से बेवजह ठुकरा दिए जाने का मलाल। अपने बारे में वे किंचित गर्व से बताते हैं कि विलायत(बीबीसी लंदन में एनाऊंसर की नौकरी के लिए) जाने से “पहले मेरी कहानियां ’हंस’ में बाकायदा प्रकाशित होती रहती थी. मैं उन भाग्यशाली लेखकों में से था, जिनकी भेजी हुई कोई भी रचना अस्वीकृत नहीं हुई थी। ” बीबीसी में नौकरी के दौरान उन्होंने एक भी कहानी नहीं लिखी और जब भारत लौटने पर इस “टूटे अभ्यास” को जारी रखने के लिए उन्होंने एक कहानी हंस पत्रिका में भेजी तो वह लौटा दी गई। ख़ुद उन्हीं के शब्दों में- “मेरे स्वाभिमान को गहरी चोट लगी. इस चोट का घाव कितना गहरा था, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उसके बाद मैंने कोई कहानी नहीं लिखी .चेतन के फ़िल्मों में काम करने के निमन्त्रण ने जैसे इस चोट पर मरहम का काम किया. फ़िल्मों का मार्ग अपनाने का कारण यह अस्वीकृत कहानी भी रही। (13)

फ़िल्मों में अभिनय करते हुए पच्चीस से ज़्यादा बरसों के गुजर जाने के बावजूद अपने बारे में उनकी मान्यता यही रही कि वे प्राथमिक रुप से एक लेखक हैं। अपने “फिल्मी जीवन की पचासवीं वर्षगांठ” पर उन्होंने लिखा कि देश के बंटवारे के काऱण मुझे पिता के धन-दौलत के आश्रय से वंचित रहना पडा और पांवों पर खड़ा होने की मजबूरी ने मुझसे जो कई काम करवाये( मिसाल के लिए फ़िल्म डिवीजन की डाक्यूमेंटरी फ़िल्मों में कमेंटरी बोलना, विदेशी फ़िल्मों की हिन्दी डबिंग में भाग लेना, गुरुदत्त द्वारा निर्देशित फ़िल्म बाजी की पटकथा और संवाद लिखना) और फ़िल्मों में काम करना भी इसी मजबूरी का हिस्सा था। फ़िल्म बाज़ी के सफल होने के बाद इस फ़िल्म के निर्माता चेतन आनंद ने उन्हें एक फ़िल्म की कथा लिखने और उसे निर्देशित करने का न्योता दिया था और उन्होंने लिखा है कि-“आज मुझे अफसोस होता है कि चेतन आनंद की इतनी अच्छी पेशकश मैंने क्यों ना शुक्रगुज़ारी के साथ क़बूल की ” क्योंकि बलराज साहनी के ही शब्दों में- “लेखक और निर्देशक बनना मेरे जैसे आलसी स्वभाव के व्यक्ति को ज़्यादा रास आता। ”(14)

खुद को प्राथमिक तौर पर लेखक मानने वाले बलराज साहनी के लिए साहित्य का उद्देश्य है- “असलियत के सामने आईना रख देना ” यानी जीवन की हू-ब-हू तस्वीर पेश करना। इस सोच के अनुकूल वे नाटको-फ़िल्मों और उनमें किए जाने वाले अभिनय के बारे में भी यही मानते थे कि उसमें कुछ भी ऐसा नहीं किया जाना चाहिए जो “कहीं भी वास्तविकता और असलियत पर अत्याचार ” सरीखा हो। कविताई में जिसे अतिशयोक्ति कहा जाता है, वही फ़िल्मों में मेलोड्रामा कहलाता है- अगर इस पंक्ति को ठीक मानें तो कहा जा सकता है कि बलराज साहनी ने अपने लिए अभिनय की जो निजी कसौटी तय की थी वह हिन्दी फ़िल्मों की इतिहास-प्रदत्त या कह लें स्वभावगत विशेषता यानी मेलोड्रामेटिक बनावट के प्रतिपक्ष में तैयार की हुई कसौटी है। यह अकारण नहीं है कि एक तरफ वे कंपनियों के पेश किए हुए नाटकों को कलात्मकता से शून्य रचना मानते हैं क्योंकि सामूहिक जीवन के मामले में “अंदर से खोखली” और बाहर के सामाजिक जीवन से बहुत गहरे ना जुड़े होने के कारण ऐसी रचना पेश नहीं कर पायीं जिनका “ असलियत से संबंध” हो और अपने दौर की फ़िल्मों को अलिफ़-लैला नुमा “उन्हीं पुराने दकियानूसी नाटकों के रुपांतरण ” मानकर उनके “दीर्घजीवी होने पर” वह शुबहा करते हैं। अलिफ़-लैला यानी फैंटेसी की दुनिया अगर अपने को अतिशयोक्ति(मेलोड्रामा) में साकार करती हो, तो इसके लिए बलराज साहनी के व्याकरण में कोई जगह नहीं जान पड़ती। कम से कम अपनी तरफ से उन्होंने अभिनय की जो कसौटी प्रस्तुत की है, उसको पढ़कर तो यही लगता है।

गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर से अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. और फिर शांतिनिकेतन में थोड़े दिन तक अंग्रेज़ी-साहित्य का अध्यापन करने वाले बलराज साहनी अभिनय का प्रतिमान प्रस्तुत करना हो तो शेक्सपीयर के नाटक हैमलेट के तीसरे अंक को याद करते हैं जिसमें नायक हैमलेट बादशाह के दरबार में नाटक पेश करने वाले अभिनेताओं को उपदेश देते हुए कहता है- “देखो स्टेज पर खड़े होकर इस तरह बोलो कि सुनने वालों को रस आये, यह नहीं कि उनके कान फट जायें। तुम अभिनेता हो, ढिंढोरची नहीं। और देखो, हाथ को कुल्हाड़े की तरह मार-मारकर हवा को मत चीरना। अभिनेता को चाहिए कि वह अपने मन को हमेशा काबू में रखे,चाहे उसके अन्दर भावनाओं के तूफान क्यों ना उठ खड़े हों। जो अभिनेता अपनी भावनाओं को क़ाबू में रखकर उन्हें संयम से व्यक्त नहीं कर सकता, उसे चौराहे पर खड़ा करके चाबुक मारना चाहिए।..”

“..और देखो फीके भी मत पड़ जाना। अंडर ऐक्टिंग करना भी अच्छा नहीं होता। ख़ुद अपनी समझ-बूझ को अपना उस्ताद बनाओ और उसी के अनुकूल चलो। अपने चाल-ढाल को, अपने संकतो के शब्दों के अनुकूल बनाओ और शब्दों को संकेतों के अनुकूल और बराबर ख्याल रखो कि कहीं भी वास्तविकता और असलियत पर अत्याचार ना हो। अगर कहीं भी अतिशयोक्ति से काम लिया तो नाटक का सारा मनोरथ ही खत्म हो जाएगा।। याद रखो, सैकड़ों वर्षों से नाटक का मनोरथ एक ही रहा है और भविष्य में भी वही रहेगा- असलियत के सामने आईना रख देना ताकि अच्छाई अपना रुप देख सके, उतार-चढ़ाव भी उस आईने में साफ दिखाई दें..”

उनकी पेशकश में चुनौती है कि – “जरा इन पंक्तियों की कसौटी पर आप अपने देखे हुए नाटकों और फ़िल्मों को परखिए और देखिए कि वे किस हद तक पूरी उतरती हैं..” (15)

आलेख के इस आख़िरी भाग में आइए, देखने की कोशिश करें कि क्या बलराज साहनी के सिनेमाई अनुभव के भीतर कोई फांक है, दूसरे शब्दों में क्या उनके सिनेमाई अनुभव का कोई हिस्सा अभिनय के बारे में तय किए गए अपने ही प्रतिमान को नकारता हुआ-सा प्रतीत होता है ? इस सिलसिले में पहली बात “स्वाभाविक अभिनय” से जुड़ती है। भले ही बलराज साहनी की मान्यता यह रही हो कि ‘अभिनय अगर स्वाभाविक हो तो उसे हर कोई पसंद करता है ’(और यह मान्यता बहसतलब है) लेकिन ऐसा कहने के साथ-साथ यह जोड़ना भी ज़रूरी समझते हैं कि “स्वाभाविक अभिनय एक तरह से भ्रांति पैदा करने वाली चीज है, क्योंकि दर्शकों को स्वाभाविक लगने वाला अभिनय करते समय हो सकता है, अभिनेता को कई अस्वाभाविक बातें करनी पड़ें। उसका दृष्टिकोण दर्शक के दृष्टिकोण से भिन्न होता है…”।(16) प्रश्न पूछा जा सकता है कि क्या दृष्टिकोण का यह अलगाव निभाये गए किरदार से दर्शक का एकात्म स्थापित करने में कहीं से बाधक नहीं होता ? और दूसरी बात, कलाकार अगर अपने अभिनय को स्वाभाविक बनाने के लिए कुछ अस्वाभाविक चीजें करता है तो फिर इस अस्वाभाविकता का उस भोगे हुए यथार्थ से क्या रिश्ता है जिसे खुद बलराज साहनी ने अभिनय की प्रामाणिकता के लिए जरुरी माना है ?

इस प्रश्न का सही उत्तर तो खैर हमेशा अनिर्णय की स्थिति में रहेगा कि लोकप्रियता किसी कला की महानता की एकमात्र कसौटी है या नहीं , परंतु यह बात मान ली जानी चाहिए कि कला अगर स्वान्तः सुखाय नहीं है तो फिर उसे लोक-स्वीकृति की तलब हमेशा लगी रहेगी। यह बात कम से कम फ़िल्म सरीखे जन-माध्यम के लिए तो कही ही जा सकती है क्योंकि इसका विराट दर्शक-वर्ग ‘अज्ञातकुलशील’ होता है और फ़िल्म बनाने वाले के सामने हमेशा इस बात की चुनौती होती है कि वह इस ‘ अज्ञातकुलशील ’ दर्शक की रुचि का कोई औसत मान निकालकर उस पर खड़ा उतरने की कोशिश करे। अभिनेता के दृष्टिकोण और दर्शक के दृष्टिकोण में अंतर स्वीकार करने वाले बलराज साहनी जब फ़िल्म की लोकप्रियता के बारे सोचते हैं, तो आश्चर्यजनक तौर पर अभिनय के बारे में तय किए गए अपने ही प्रतिमान से बिल्कुल अलग बात कहते हैं, कुछ ऐसी बात जो असलियत के सामने आईने रखने वाले उनके यथार्थवाद की जगह अतिरंजना और अतिशयोक्ति को प्रतिष्ठित करता प्रतीत होता है। मिसाल के लिए, अभिनय-कला शीर्षक निबंध में एक जगह उनका कहना है-“हम पढ़े-लिखे अभिनेता पुराने अभिनेताओं पर नाक-मुंह चढ़ाते हैं। हम कहते हैं कि उनका अभिनय स्वाभाविक नहीं था, उनमें बनावट होती थी, और वे बात को बहुत ज्यादा बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते थे। लेकिन उनके अभिनय का सही मूल्यांकन करने के लिए हमें यह देखना चाहिए कि उनका दर्शकों पर कैसा प्रभाव पडता था। वे जो भाव अभिव्यक्त करते थे, वे प्रायः सच्चे होते थे, और उनकी अभिनय शैली बहुत प्रभावशाली होती थी। बाल-गंधर्व जैसे अभिनेता अपनी शैली के बहुत बड़े उस्ताद थे। आगा हश्र के नाटक दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देते थे। ” (17)

बात बढ़ा-चढ़ाकर पेश की जाय, सच्चाई तो भी रह सकती है, ऐसी प्रभावशील सच्चाई जो मंत्रमुग्ध कर दे- ऐसा अनुभव बलराज साहनी को कई बार हुआ। इसका एक साक्ष्य उनकी आत्मकथा के शुरुआती कुछ पन्नों पर ही मौजूद हैं। अपने स्कूली दिनों को याद करते हुए वे लिखते हैं उन दिनों मैंने ‘हीर-रांझा’ और ‘अनारकली’ नाम की फिल्में देखी थीं और अनारकली के रुप में अभिनेत्री सुलोचना के सौन्दर्य से अभिभूत हो उठा था। अनारकली को जिन्दा दफ्न करने के दृश्य को याद करके मैं रो उठा था। अनारकली की दर्दनाक मौत की पीड़ा में छटपटाते बलराज की हालत यह थी -“ यदि मुझसे कोई कहता कि यह सब तो सिनेमा के ट्रिक का मामला है और कोई भी ईंट सुलोचना के चेहरे को ढंकने के लिए नहीं रखी गई तो मैं उसे थप्पड़ मार देता, जहां तक मेरा सवाल है, सुलोचना मर चुकी थी और मेरे लिए जीवन में कोई आनंद शेष नहीं रह गया था..लेकिन सुलोचना तो जिन्दा थी और कई फिल्मों में उसने मेरे साथ काम भी किया। जब भी मैं उसके प्रति अपने इस किशोरवय के प्रेम का जिक्र करता तो वह इसे हंसी में उड़ा देती। आज जबकि मैं खुद एक फ़िल्म स्टार हूं तो उसकी इस हंसी का मतलब समझ सकता हूं लेकिन तो भी यह ख्याल मैं अपने दिल से नहीं निकाल पाता कि किसी दिन उससे कहूंगा कि वह सिर्फ मूर्खतापूर्ण आसक्ति भर नहीं था बल्कि प्रेम का मेरा पहला सच्चा अनुभव था..। ” (18)

और दूसरा साक्ष्य है फ़िल्म ‘दो बीघा जमीन” की लोकप्रियता के संबंध में की गई उनकी टिप्पणी। इस फ़िल्म से जुड़ी यादों को बलराज साहनी अपनी “आखिरी सांसों तक सहेजकर” रखना चाहते थे। बावजूद इसके इस फ़िल्म का यथार्थवाद उन्हें खटकता था। उन्हें मलाल रहा कि दो बीघा जमीन को जैसी सराहना बुद्धिजीवियों में मिली वैसी आम जनता के बीच नहीं। और इसकी व्याख्या करते हुए उन्होंने इस फ़िल्म में दो दोष गिनाये हैं। एक तो यह कि इस फ़िल्म का नायक कभी भी “उस अन्याय और अत्याचार के खिलाफ आवाज बुलंद नहीं करता, जिसका उसे सामना करना होता है , ” और दूसरे यह कि “ वह अपने दोस्तों और सहकर्मियों को खुद से दूर कर देता है ” जबकि एक औसत दर्शक जो खुद को हीरो के जूते में रख कर देखना चाहता है। वह कभी भी “ खुद को इस तरह के आत्मपीड़क और अंतर्मुखी हीरो के साथ जोड़ कर देखना ” नहीं चाहेगा। इस दोष का जिम्मेदार वे सारी प्रगतिशील कला और साहित्य की उस आदत को मानते हैं जो “विदेशी मूल्य और वाद पर खड़ा उतरना चाहते हैं ना कि उन मूल्यों पर, जो हमारी अपनी धरती की उपज हैं। दो बीघा जमीन की तकनीक भी विश्व प्रसिद्ध इतालवी निर्देशक की फ़िल्म बाइसिकिल थीफ और उसमें प्रदर्शित किये गये यथार्थवाद से प्रभावित थी। यही वह कारण था कि रूसियों ने भले ही दो बीघा जमीन के बारे में अच्छी बातें कहीं, लेकिन उन्होंने अपनी सारी प्रशंसा और सम्मान राजकपूर की फ़िल्म आवारा के लिए सुरक्षित रख लिया, बल्कि वे आवारा के प्रति दीवाने से हो गये।.. हालांकि हमने उम्मीद की थी समाजवाद के इस मक्का में लोग कहीं ज्यादा सुसंस्कृत और उन्नत कला को सम्मान देंगे , लेकिन रूसियों को आवारा के प्रति उनकी दीवानगी के लिए कसूरवार नहीं माना जा सकता। खास तौर से यह देखते हुए कि आवारा में कितने बेजोड़ तरीके से भारतीय जीवन की धड़कन को पकड़ा गया है।” (19)

इस विन्दु पर संस्कृति-मनोविज्ञानी सुधीर कक्कड़ की याद आना लाजिमी है जो लिखते हैं कि सिनेमा भारतीय उपमहाद्वीप में रहने वाले लोगों के साझा स्वप्नों(फैंटेसी) का वाहक है और एक ऐसा वैकल्पिक जगत मुहैया कराता है, जहां हम यथार्थ से अपने पुराने संघर्ष को जारी रख सकते हैं। हमारे फ़िल्म-जगत में फ़िल्म दर फ़िल्म स्वप्नों की ऐसी भारी मात्रा में नियमितता आश्चर्य में डालती है। एक तरह से जिंदगी की वास्तविक समस्याओं के ऐसे जादुई हल, भारतीय जनमानस में गहरी जमी ऐसे समाधानों की इच्छा की ओर इशारा करते हैं।.. कोई भी समझदार भारतीय यह नहीं मानता कि सिनेमा में वास्तविक जिंदगी का अंकन होता है। ” (20)

संदर्भ :

1. बलराज-संतोष साहनी समग्र, संपादक डा. बलदेवराज गुप्त, प्रचारक ग्रंथावली परियोजना, हिन्दी प्रचारक संस्थान, वाराणसी में संकलित सुखवीर का बलराज साहनी एक चेहरा, कई चेहरे शीर्षक आलेख।
2. नवभारत टाईम्स में प्रकाशित विष्णु खरे का लेख जो चवन्नी चैप नामक ब्लॉग पर ‘बलराज साहनी पर विष्णु खरे ’ शीर्षक से उपलब्ध है
3 अखरावट ब्लॉगस्पॉट पर भीष्म साहनी की नजर से बलराज साहनी- शीर्षक पोस्ट
4 देखें पुंजप्रकाश ब्लॉग स्पॉट पर जनकलाकार बलराज साहनी- ख्वाजा अहमद अब्बास शीर्षक पोस्ट
5. लाईवहिन्दुस्तान डॉट कॉम पर 5 मई 2012 को प्रकाशित दो ‘ बीघा जमीन की एक तलाश ’ शीर्षक पोस्ट
6. देखें पुंजप्रकाश ब्लॉग स्पॉट पर जन-कलाकार बलराज साहनी- ख्वाजा अहमद अब्बास शीर्षक पोस्ट
7 उपरोक्त, वही
8 चवन्नी चैप नामक ब्लॉग पर विष्णु खरे का आलेख, उपरोक्त
9. अखरावट ब्लॉग सपॉट पर- भीष्म साहनी की नजर से बलराज साहनी शीर्षक पोस्ट
10.( देखें- लाईवहिन्दुस्तान डॉट कॉम पर, उपरोक्त)
11. देखें- बलराज-संतोष साहनी समग्र, संपादक डा. बलदेवराज गुप्त, प्रचारक ग्रंथावली परियोजना, हिन्दी प्रचारक संस्थान, वाराणसी में संकलित ‘फिल्मी-दुनिया ’ नामक निबंध
12 देखें- बलराज-संतोष साहनी समग्र में- सुखबीर का आलेख, उपरोक्त)
13. देखें चवन्नीचैप ब्लागस्पाट पर क्यों अभिनेता बने बलराज साहनी शीर्षक पोस्ट
14. देखें- बलराज-संतोष साहनी समग्र में “अपने फिल्मी जीवन की पचासवीं वर्षगांठ पर ” शीर्षक आलेख
15. देखें बलराज-संतोष साहनी समग्र में सिनेमा और स्टेज नामक निबंध
16. देखें बलराज-संतोष साहनी समग्र में अभिनय कला नामक निबंध
17. बलराज-संतोष साहनी समग्र में अभिनय-कला नामक निबंध
18. देखें बलराज साहनी- ऐन ऑटोबॉयग्राफी, हिन्द पॉकेट बुक्स, 1979, दिल्ली
19. अखरावट ब्लागस्पॉट पर मेरी निगाह में सिनेमा : बलराज साहनी, सत्यजीत रे, अडूर गोपालकृष्णन नामक पोस्ट
20. अखरावट बलॉगस्पॉट पर सिनेमा पर सुधीर कक्कड़: भारतीय सिनेमा दिवास्वप्नों पर पलता है.. शीर्षक पोस्ट

(चन्दन श्रीवास्तव, मूलतया छपरा(बिहार) के निवासी, पिछले पंद्रह सालों से दिल्ली में। पहले आईआईएमसी और फिर जेएनयू में पढ़ाई। “उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हिन्दी लोकवृत्त का निर्माण” शीर्षक से पीएचडी के बाद दिल्ली के कॉलेजों में छिटपुट अध्यापन, फिर टीवी चैनल की नौकरी और अब विकासशील समाज अध्ययन पीठ(सीएसडीएस) की एक परियोजना इंक्लूसिव मीडिया फॉर चेंज से जुड़े हैं। इनसे chandan@csds.in पर संपर्क किया जा सकता है। )

साभार- नया पथ  व tirchhispelling.wordpress.com

Tuesday, November 26, 2013

हिंदी साहित्य ने नाटक को अछूत विधा मान लिया है


वरिष्ठ कवि राजेश जोशी का रंगकर्म से गहरा संबंध रहा है। उन्होंने कई नाटक भी लिखे हैं। मध्यप्रदेश में इप्टा के पुनर्गठन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। वह मध्यप्रदेश इप्टा के पहले अध्यक्ष थे। उन्होंने रंग आंदोलन, 80 के दशक के नाटक, इप्टा एवं अन्य वाम संगठनों की भूमिका आदि विषयों पर ‘इप्टानामा’ के लिए मध्यप्रदेश इप्टा के वर्तमान अध्यक्ष हरिओम राजोरिया से लंबी बातचीत की। इस बातचीत के दौरान बसंत सकरगाय और सचिन श्रीवास्तव भी मौजूद थे। प्रस्तुत हैं बातचीत के अंशः

हरिओम राजोरियाः राजेश जी इप्टा के पुनर्गठन और प्रगतिशील आंदोलन में इप्टा की भूमिका के बारे में कुछ बताएं?

राजेश जोशी: मध्यप्रदेश में प्रगतिशील लेखक संघ 1974 में बन गया था। लगभग 80 तक आते आते अच्छी स्थिति बन गई थी। तब हरिशंकर परसाई अध्यक्ष और ज्ञानरंजन महासचिव थे। इसी दौरान यह महसूस हुआ कि सिर्फ लेखक संगठन से काम नहीं चलेगा। कोई सांस्कृतिक आंदोलन बनाना है, तो परफॉर्मिंग आर्ट से जुड़ना पड़ेगा। लंबा अरसा हो गया था, जो इप्टा बनी थी, वह खत्म हो चुकी थी। कुछ जगहों पर, जैसे आगरा में राजेंद्र रघुवंशी और मुंबई में कुछ लोग थे। ऐसे माहौल में सोचा गया कि मध्यप्रदेश में इप्टा का पुनर्गठन किया जाये। मध्यप्रदेश में इप्टा का पुनर्गठन हुआ। इसी क्रम में आगे चलकर दिल्ली के अजय भवन में इप्टा के पुराने साथी एके हंगल, राजेंद्र रघुवंशी, कैफी आजमी और भी बहुत से लोग इकट्ठे हुए। वहां इप्टा की नेशनल बॉडी गठित की गई। चूंकि नया गठन हो रहा था, तो बहुत से नए लोग जुड़ रहे थे। शुरूआत में कुछ युवा निर्देशकों को जोड़ा गया। अलखनंदन जुड़े, उन्होंने शरद बिल्लौरे का ‘‘अमरू का कुर्ता’’ किया था। मुकेश शर्मा जुड़े। विवेचना जबलपुर जुड़ी। यही समय था जब नुक्कड़ नाटकों का दौर शुरू हुआ। जनम दिल्ली में नुक्कड़ नाटक कर रही थी। भारत भवन में भी नुक्कड़ नाटक पर एक बड़ा सेमिनार हुआ था। नेमी जी भी आये थे। 2-3 दिन प्रदर्शन और विमर्श हुआ। इप्टा के साथ कई छोटे-छोटे ग्रुप इस दौरान नुक्कड़ नाटक कर रहे थे। विवेचना ने ‘‘इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर’’ और परसाई की अन्य रचनाओं पर नुक्कड़ किये। एक किस्म से नुक्कड़ नाटकों का मूवमेंट था यह। प्रिसीनियम थियेटर उस वक्त कम हो रहा था, लेकिन नुक्कड़ नाटक खूब खेले जा रहे थे। इसका हिन्दी के नाटक लेखन पर एक प्रभाव पड़ा। उस दौर में जो कवि-कहानीकार थे, उन्हें लगा कि नाटक लेखन में भी कुछ किया जाना चाहिए। मैंने भी उसी दौर में नाटक लिखे। काफी नये लोग आ रहे थे नाटक लेखन में। सुरेश स्वप्निल, सनत कुमार, असगर वजाहत आदि कई लेखकों ने छोटे-छोटे नाटक लिखे।
इसी बीच एक दूसरी घटना हुई। सरकार ने शिक्षा अभियान के लिए बड़े पैमाने पर कलाकारों को जोड़ा। इससे एक नुकसान हुआ कि आंदोलनधर्मी कलाकार और नाटककार शिक्षा के आंदोलन की तरफ मुड़ गये। जो एक राजनीतिक नाट्य आंदोलन तैयार हो रहा था, वह सुधारवादी शासकीय अभियान की भेंट चढ़ गया।

हरिओम राजोरिया: उस वक्त इप्टा के काम के बारे में बतायें, और भारत भवन की क्या भूमिका थी तब के भोपाल के थियेटर में?

राजेश जोशी: उस वक्त भोपाल में शरद जोशी थे। वे ओम शिवपुरी के गु्रप का ‘‘आधे अधूरे’’ और हबीब साहब के ग्रुप ‘‘नया थियेटर’’ के नाटक करववा चुके थे। तब तक भारत भवन नहीं बना था। एमैच्योर थियेटर था, छोटे-छोटे ग्रुप थे, जो सीमित संसाधनों में काम कर रहे थे। फिर भारत भवन बना। रंगमंडल बना। रंगमंडल के बहुत से कलाकार एमैच्योर थियेटर से लिये गये थे। जयंत देशमुख, अलखनंदन आदि भी इन्हीं में से थे। इस तरह एमैच्योर थियेटर के अच्छे कलाकार भारत भवन चले गये। तो जो एमैच्योर थियेटर बन रहा था, उसे झटका लगा। लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है। एक अंतराल के बाद एमैच्योर थियेटर पुनः नई ऊर्जा के साथ शुरू हुआ।

हरिओम राजोरिया: तो यह दो-तरफा प्रक्रिया थी। कुछ चीजें बन रही थीं, और कुछ टूट रही थीं। और फिर नये सिरे से बन रही थीं?
राजेश जोशी: बिल्कुल। जैसे रंगमंडल टूटा, तो वहां से जो लोग निकले, उन्होंने अपने ग्रुप बनाये। संगीत नाटक अकादमी ने नये डायरेक्टर के लिए नए नाटक करने के लिए ग्रांट देना शुरू किया। उसका भी प्रभाव पड़ा। लेकिन हां, उसका असर कस्बों तक नहीं हुआ। शहर तक ही सीमित रहा। इस ग्रांट के तहत नये नाटक लिखे गये, क्योंकि यह फैलोशिप की शर्त थी। इससे एक दिलचस्प बात यह हुई कि नाटक लेखक और नाटक ग्रुप के बीच रिश्ता बना।

हरिओम राजोरियाः यह तो बहुत महत्वपूर्ण काम था?
राजेश जोशी: हां, नाटक मंडलियों के साथ मिलकर परफॉर्मिंग स्क्रिप्ट बनती थीं। जो लेखक ग्रुप के साथ जुड़े थे, उनका नाट्य लेख प्रदर्शन के लिहाज से बेहतर रहा। वैसे इसके नकारात्मक और सकारात्मक दोनों तरह के प्रभाव हुए।

हरिओम राजोरियाः आपने अशोकनगर में कहा था कि संस्कृत में जब तक कोई कवि नाटक नहीं लिखता था, तो उसे कवि नहीं माना जाता था। आज संभवतः नाटक की स्थिति सबसे दयनीय है। कहानी के नाट्य रूपांतरण और उपन्यास के नाट्य आलेखों के कारण कमी तो नहीं है, लेकिन निर्देशक का रोल अहम हो गया है, लेखक की स्थिति में बदलाव कैसे होगा?

राजेश जोशी: यह तो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय बनने के साथ ही हो गया था। नाटक में निर्देशक का महत्व बढ़ गया था। हिंदी में तो नाटक लेखक को लगभग साइड लाइन कर दिया गया। इससे जो कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, नाटक लेखन की तरफ आ सकते थे, वे धीरे-धीरे नाटक से दूर हो गए और नये नाटककार नहीं आये। मुझे याद है नेमी जी ने श्री राम सेंटर में प्ले राइट वर्कशॉप करवाई थी। 80 के दशक के शुरूआत की बात है। उसमें नाटक लिखे जाते थे। आपको पहले एक नाटक लिखके देना होता था। पहली वर्कशाप में रामेश्वर प्रेम, नाग बोडस, विनोद शाही, शानी जी के बेटे और मैं थे। वहां एक्सपर्ट्स का एक पैनल बैठता था। तब एक्सपर्ट तीन लोग- श्यामानंद जालान, सतीश आलेकर और नेमी जी थे। नाटक की स्क्रिप्ट श्री राम सेंटर की रैपेटरी के कलाकार पढ़ते थे। कलाकारों, एक्सपर्ट्स और नाटक लेखक के बीच बहस होती थी स्क्रिप्ट पर। लेखक नोट्स लेकर स्क्रिप्ट में सुधार करता था। उसमें एक नाटक चुना जाता था, जिसका मंचन होता था। ऐसी तीन वर्कशॉप हुईं। बाद में असगर वजाहत, रमेश उपाध्याय आदि भी आये। इस दौरान वहां कई नाटक लिखे गये। असगर तो पहले से ही नाटक लिख रहे थे। बाद में भी उन्होंने नाटक लिखे। रमेश उपाध्याय ने शुरू में नाटक लिखे थे, लेकिन बाद में दूर होते गये। शायद जो लोग आ सकते थे, वो इसीलिए दूर होते गये कि लेखक का महत्व ही कम हो गया और फिर तो नाटक की जरूरत ही नहीं रही। कहानी की जाने लगी, उपन्यास होने लगे, बल्कि कहानी की नाट्य स्क्रिप्ट भी नहीं, सीधे कहानी का ही मंचन होने लगा। देवेंद्र राज अंकुर जी ने इसकी पूरी अवधारणा विकसित की। इन सबके बीच नाटक लिखने का आकर्षण कम हुआ है। वहीं नाटक लिखना एक मुश्किल काम भी हुआ है।

बसंत सकरगाय: लेकिन इसी दौर में मराठी और बांग्ला में कई नाटककार हुए?
राजेश जोशी: वहां बाकायदा नाटककार हैं। मराठी में उन्हें महत्व मिला। हिंदी में यह सिलसिला नहीं रहा। मोहन राकेश ‘‘आधे-अधूरे’’ लिख चुके थे, उसके बाद हिंदी में एक ही लेखक पूरी तरह नाटक को समर्पित था, वे थे सुरेंद्र वर्मा, जो उपन्यासकार भी थे। मैंने एक गोष्ठी में कहा भी था कि कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि हिंदी में मोहन राकेश के बाद सबसे बड़े नाटककार को नाटक के लिए साहित्य अकादमी नहीं दिया गया, बल्कि उनके एक कमतर उपन्यास ‘‘मुझे चांद चाहिए’’ के लिए साहित्य अकादमी दिया गया। इस तरह नाटक लेखन को ही कहीं न कहीं पीछे धकेला गया।

सचिन श्रीवास्तव: थियेटर में इसका क्या असर पड़ा, खासकर आज के दौर में?

राजेश जोशी: नाट्यशास्त्र को पांचवा वेद इसीलिए कहा गया है कि उसमें सब कुछ है- नृत्य, आख्यान, संगीत, कविता, प्रदर्शन। नाटक ही एक ऐसी विधा है, जिसे पूर्ण विधा कहा जा सकता है। इसमें सब संभव है। दूसरे एक अच्छी बात है कि, सिनेमा में कलाकार लार्जर देन लाइफ दिखाई देता है, अपने कद से बड़ा और मीडिया में अपने कद से काफी छोटा। नाटक ही एक ऐसी जगह है जहां कलाकार अपने असल कद में दिखता है। नाटक में रीटेक की गुंजाइश नहीं है। उसे टुकड़ों में नहीं किया जा सकता। मंच पर सब कुछ दिखाई देता है, गलती भी। तो यह कठिन विधा है, और दिलचस्प भी। मीडिया में काम करने के कारण नये कलाकारों पर खराब असर हुआ है। नये बच्चे जो नाटक में आ रहे हैं, वे चलना भूल गये हैं, क्योंकि मीडिया में तो कमर तक ही दिखाया जाता है। वे बोलने को ही नाटक समझने लगे हैं। ज्यादा से ज्यादा भाव मुद्राएं कर ली जाती हैं। बॉडी लैंग्वेज के लिए वहां जगह नहीं है। फिल्म में तो फिर भी अभिनेता की बॉडी लैंग्वेज दिख जाती है, मीडिया में इसकी गुंजाइश नहीं। कई बार बड़े-बड़े अभिनेताओं को हाथ का इस्तेमाल पता नहीं होता। पहले ऐसे मौके आने पर हाथ में कोई प्रॉपर्टी पकड़ा दी जाती थी। पहले माइक नहीं था, तो आवाज थ्रो करनी पड़ती थी। अच्छे ऑडिटोरियम में तो काम चल जाता है, लेकिन आवाज की कमी आज खलती है।

1973 में ब.व. कारंत के निर्देशन में एक रंगशिविर, भोपाल में आयोजित किया गया था। मणि मधुकर का पहला नाटक ‘‘रसगंधर्व’’ इसमें खेला गया था। वह उसका पहला शो था। उस शिविर में आये अभिनेताओं को पहली बार आवाज और तरह-तरह की एक्सरसाइज करवाई गयीं थीं। नाटक में इस तरह की एक्सरसाइज का क्या महत्व है, यह पहली बार यहां के कलाकारों ने जाना था।

हरिओम राजोरियाः जहां नाटक थे, वहां यह बंद हो गई हैं, लेकिन एनएसडी वगैरह में बढ़ी भी हैं?

राजेश जोशी: जब आपके पास कथ्य नहीं होगा, तो गिमिक्स होगा, चमत्कार होगा। अच्छी स्क्रिप्ट के अभाव में संगीत, गाने, कपड़े और एक्सरसाइज के गिमिक्स होंगे। नाटक के साथ यह दिक्कत है। यदि स्क्रिप्ट ताकतवर होगी तो कम साधनों में भी एक बेहतर नाटक संभव होगा, तब साधन नाटक को और अधिक ताकतवर बनायेंगे।

हरिओम राजोरिया: लोक के इस्तेमाल को नाटक में आप किस तरह देखते हैं?

राजेश जोशी: हमारे यहां लोक भी एक रूढ़ि बन गया है। लोक की शैलियों का इस्तेमाल तो हुआ, लेकिन धीरे- धीरे नाटक लोक का प्रदर्शन बन गये। इतना अधिक कि गाने बजाने को ही थियेटर मान लिया गया। लोक का संतुलित इस्तेमाल जरूरी है, उपयोग तक यह ठीक है, लेकिन लोक का इस्तेमाल करने वाले उसी को नाटक मान बैठे।एक नेशनल फेस्टिवल में राजस्थान के एक ग्रुप ने शुद्ध गणगौर के त्यौहार का जस का तस नाटक कर दिया। मैं अंतरंग से बाहर निकला और नेमी जी भी निकले। मैंने उनसे कहा कि, ‘‘ठीक है, तो अगली बार से लोग सत्यनारायण की कथा करेंगे। जब गणगौर का नाटक हो सकता है, तो सत्यनारायण की कथा भी हो सकती है। यह क्या हो रहा है, और आप कुछ बोलते क्यों नहीं? आप आलोचक हैं, तो इस पर भी कुछ कहिये।’’
लोक के नाम पर इतना पतन हुआ कि कर्मकांड के परफॉर्मेंस को नाटक मान लिया गया।

हरिओम राजोरिया: छोटी जगहों में के थियेटर का जो आंदोलनात्क स्वरूप है, लेकिन वहां संसाधनों की समस्या है। कारपोरेट-सरकार की सहायता और आंदोलनकारी संगठनों की भूमिका पर आप क्या कहेंगे?

राजेश जोशी: संगीत नाटक अकादमी ने नाटक तैयार करने के लिए जो किया था, उसका यहां आते-आते स्वरूप बदल गया है। अब कारपोरेट हाउस या सरकार यह बता रही हैं कि ऐसा नाटक करें, वैसा नाटक करें। पहले नाटक के माध्यम से होने वाले विरोध से संस्थाएं व सरकारें डरती थीं, क्योंकि यह राजनीतिक विधा भी है। जनता पर इसका सीधा प्रभाव होता है। अब सरकारें खुद नाटक करा रही हैं। अब थियेटर सजावटी सा हो गया है। इस सजावटी नाटक का नुकसान यह हुआ है कि इसमें न कोई सोशल मैसेज है, न पॉलिटिकल। ऐसे नाटक होने लगे हैं, जो किसी के लिए असुविधा पैदा नहीं करते। सबके लिए सुविधाजनक हैं। मध्यप्रदेश में एक फेस्टिवल होता है हर साल। आदि विद्रोही के नाम से। उसमें कोई भी स्वतंत्रता संग्राम की घटना उठा ली जाती है, और छोटी सी स्क्रिप्ट के साथ कोई भी ग्रुप नाटक कर देता है, तो यह आसान हो गया है। उसे न तो कोई बड़े प्रोस्पेक्टिव में करता है, और न ही उसका कोई राजनीतिक मैसेज होता है। एक राष्ट्रवादी किस्म का मैसेज दे दिया जाता है।

असल में, नाटक थोड़ा महंगा पड़ता है, तो उसे हर जगह कुछ न कुछ सहायता मिलती है। हमारे यहां सरकारें और कारपोरेट हाउस हावी हो गये हैं। एक अवार्ड है, उसकी शर्तों में स्पष्ट रूप से लिखा है कि इसमें राजनीति, हिंसा और सेक्स नहीं हो। इस तरह अब यह बताया जाने लगा है कि आप इस तरह का नाटक लिखिये। इससे भयानक कुछ भी नहीं हो सकता नाटक के लिए। गनीमत है कि इसका बहुत असर अभी नाटक वालों पर नहीं होता है, होता तो हमारे पास विजय तेंदुलकर, बादल सरकार नहीं होते, भारतेंदू भी नहीं होते। नाटक ऐसी विधा नहीं है कि इसे सरकारें कंट्रोल कर सकें।

हरिओम राजोरिया: नाटक के राजनीतिक उपयोग में इप्टा, जलेस, जसम आदि संगठनों की भूमिका क्या होनी चाहिए?

राजेश जोशी: इप्टा और जनम तो जब बने तो उनका यह मूल उद्देश्य ही था कि हमें नाटक का इस्तेमाल सामाजिक-राजनीतिक चेतना के प्रसार के लिए करना है। यदि आप एक-डेढ़ घंटे का नाटक करते हैं, तो सीधे 200-400 लोगों को संबोधित करते हैं। थियेटर में आज सबसे ज्यादा जरूरत प्रतिबद्ध राजनीतिक नाटक की ही है। इप्टा और जनम जैसे संगठन ही थियेटर को बचा सकते हैं। ग्रांट लेकर थियेटर करने वाले समूहों से तो उम्मीद करना मुश्किल है।

हरिओम राजोरिया: मध्यप्रदेश में इप्टा की कई ईकाइयां बाल और किशोर शिविर लगा रही हैं, जिसमें नाटक के साथ कविता, संगीत आदि की समझ के साथ एक संपूर्ण कलाकार जिसमें कमिटमेंट भी हो, तैयार करने की कोशिश की जा रही है, इस बारे में आपकी क्या राय है?
राजेश जोशीः जरूरी काम तो यही है। मुझे लगता है इसके साथ नाटक-लेखक वर्कशॉप भी होनी चाहिए। पहले जो नुक्कड़ नाटक होते थे, उनमें पूरा ग्रुप साथ बैठकर उस पर बात करके उसके सारे आयाम पर बहस करता था और फिर कोई एक आदमी उसकी स्क्रिप्ट बनाता था। फिर उस पर बात होती थी कि इसके क्या असर समाज पर होंगे। अभी एफडीआई का मुद्दा है, परमाणु समझौता, महंगाई आदि कई मुद्दे हैं, इन पर नाटक लिखा जा सकता है। यह एक तरीका है। दूसरे जो हमारे लेखक हैं, उनसे कहें कि वे एक नाटक हमारे लिये लिखें। इस तरह जो तीन-चार स्क्रिप्ट सामने आएं, उन पर बात हो। परफॉर्मेंस से जुड़े लोगों के बीच भी विचार-विमर्श हो तो भी एक स्क्रिप्ट निकल सकती है।

सचिन श्रीवास्तव: कलाकार नाटक के बाद फिल्मों-सीरियल्स की तरफ चले जाते हैं, क्या यह खतरा है?
राजेश जोशी: हम कलाकार तो बना सकते हैं, लेकिन आजकल मीडिया या फिल्म की तरफ भी खिंचाव है। होगा यह कि वे तैयार होकर फिल्म या मीडिया की तरफ चले जायेंगे। कोई फिल्म वाला जरा सी देर में भीड़ लगा लेता है और कलाकार का भीड़ के दृश्य के बीच एक छोटा सा शॉट होता है, हद से हद दो-एक संवाद। कई बार तो यह कुछ सेकेंड का होता है। यह शूटिंग कई दिन चलती हैं, और नाटक के लोग इसमें इस्तेमाल हो रहे हैं। हम सिर्फ अभिनेता तैयार करेंगे, तो यह दिक्कत आएगी।

कलाकारों को लगता है कि छोटे-छोटे सीन करके बड़े स्तर पर पहुंच जायेंगे और कुछ कर लेंगे। कुछ थियेटर के लोग फिल्म या मीडिया में गये, और उन्हें बड़े चांस भी मिले। इसलिए नये कलाकार थियेटर को जंपिंग पैड की तरह लेते हैं। थोड़ा-बहुत नाटक सीखने के बाद उनका ध्येय सिनेमा होता है, या सीरियल।

महाराष्ट्र और बंगाल में थियेटर की स्थिति अच्छी है, वहां फिल्म से नाटक में भी लोग आते हैं। इसलिए हमें पहले अपनी स्थिति मजबूत करनी होगी। यह प्रक्रिया है। हालांकि थियेटर का कलाकार फिल्म में जाकर लौटेगा नाटक की ही ओर। तो हम अपना काम क्यों बंद करें। असल में तो मीडिया में काम बहुत कम है। वहां वे थोड़ा थककर भी आते हैं, और वापस आकर थियेटर को ही बढ़ाते हैं। वहां चांस नहीं है, एक सीरियल में अगर अच्छी भूमिका मिल भी गई और 10-20 एपीसोड कर भी लो, तो आगे काम की गारंटी नहीं होती। ऐसे कई उदाहरण हैं। रंगमंडल के कलाकार वहां गये और लौटे। इसलिए आतंकित होने की जरूरत नहीं है।

हरिओम राजोरिया: हिंदी नाटक का भविष्य क्या है? पत्रिकाओं में भी नाटक की जगह सिमट गई है। क्या आप और अन्य लेखकों को नाट्य लेखन की तरफ आना चाहिए?

राजेश जोशी: हिंदी साहित्य ने तो नाटक को साहित्य की विधा मानने से ही इनकार कर दिया है। आप देखेंगे कि आलोचना में भी नाटक कहीं नहीं है। ‘‘समकालीन भारतीय साहित्य’’ में भी नाटक छपना बंद हो गया है। नाटक की कोई किताब आती है, तो उसकी समीक्षा दिखाई नहीं देती। नाटक पर कोई लेख कभी-कभार छप जाता है। नाटक पर एक दो पत्रिकाएं हैं, लेकिन उनमें भी नाटक नहीं छप रहे हैं। समीक्षाएं भी नहीं हैं, न तो नाटक की किताब पर, और न ही खेले गये नाटक की। इसलिए हमें नाट्य समीक्षक और आलोचक तैयार करने पड़ेंगे। हिंदी में नाटक की किताब भी नहीं आ रही है, जबकि नाटक अधिक बिकते हैं। क्योंकि अब कोई ग्रुप किसी नाटक को लेता है, तो उसकी 10-20 प्रतियां एक साथ लेता है, उसकी फोटीकॉपी नहीं कराता है। वह सीधे जितने कलाकार हैं, उतनी प्रतियां ही खरीदता है।

इसके लिए जरूरी है कि कुछ तरीके निकाले जायें। नाटकों की साधारण कागज पर सस्ती छपाई हो। आज हमारे पास कई पत्रिकाएं हैं। हिंदी में लघु पत्रिका संगठन भी है, तो क्यों नहीं हम इन्हें क्लासीफाइड करते। करीब 100 पत्रिकाएं हैं हिंदी में, लेकिन नाटक की एक भी नहीं है। एक खाका बना लिया है कि 10 पेज कहानी के, 10 पेज कविता के, कुछ आलोचना के, तो नाटक के क्यों नहीं? संगठनों को इसके लिए लड़ना चाहिए कि संगठन की जो पत्रिकाएं हैं, उनका कम से कम साल में एक अंक नाटक का निकले। कविता, फिल्म, दूसरी भाषाओं पर केंद्रित अंक निकाले जाते हैं, लेकिन नाटक पर केंद्रित अंक के बारे में आज तक नहीं सोचा गया। सिर्फ ‘‘उत्तरार्ध’’ ने एक पूरा अंक नुक्कड़ नाटक पर निकाला था, जिसमें नाटक छापे थे। वह आधार बन गया था। उसे दो-तीन बार री-प्रिंट किया गया था। हमारे साहित्यिक संगठनों ने मान लिया है कि नाटक अछूत विधा है।

बसंत सकरगाय: अखबारों में भी नाटक की जगह कम हो गई है?

राजेश जोशी: अब अखबार में समीक्षा की जगह ही नहीं है। ब्रोशर से निर्देशक और कलाकार के नाम ले लिये जाते हैं। चार लाइनों के साथ एक बड़ा सा फोटो लगाकर समीक्षा से निजात पा ली जाती है।

हरिओम राजोरिया: एक कवि और कहानीकार के नाटक में क्या अंतर होता है?क्या एक कवि ज्यादा बेहतर नाटककार हो सकता है?

राजेश जोशी: नहीं, मोहन राकेश, सुरेंद्र वर्मा और असगर वजाहत उदाहरण हैं। यह सभी गद्यकार हैं। हालांकि गद्यकार और कवि के बीच फर्क तो है। नाटक कविता के ज्यादा नजदीक है। शुरूआत में तो काव्य नाटक ही लिखे गये। हिंदी में हालांकि स्थिति अलग है। ‘‘अंधायुग’’ को छोड़ दें, तो कोई स्तरीय काव्य नाटक नहीं लिखा गया। कई और लिखे गये, लेकिन उस टक्कर का कोई नहीं है। 20वीं सदी के बड़े नाटककार कवि थे। लोर्का और ब्रेख्त जैसे कई नाम हो सकते हैं।

एक कवि अलग तरह का नाटक लिखता है। हमें अपने कवियों और कहानीकारों को थोड़ा एप्रोच करना होगा, तो चीजों को बदला जा सकता है। शुरू में थोड़ा बिचकेंगे, लेकिन आखिरकार अच्छे नाटक सामने आएंगे। नाटक लिखने में थोड़ा वक्त भी लगता है। मैं खुद भी ‘‘जादू जंगल’’ की कहानी को दो साल तक सुनाता रहा। एक दिन शरद जी ने डांटा कि तुम कभी नाटक नहीं लिख सकते, क्योंकि जो सुना देता है वह नाटक नहीं लिख पाता। मुझे ग्लानि हुई, सोचा कि मैं क्या कर रहा हूं। असल में हिम्मत नहीं होती थी, क्योंकि नाटक एक तकनीकी विधा भी है। कविता कहानी भी मुश्किल विधा होंगी, लेकिन नाटक थोड़ा ज्यादा मुश्किल है। मैंने खुद इसे भुगता है। नाटक लिखने में मेहनत ज्यादा लगती है। एक नाटक लिखने के बाद चार साल तक मैंने नहीं लिखा। बंशी कौल से मित्रता हुई, तो लिखने का सिलसिला फिर से शुरू हो गया।

हरिओम राजोरिया: फिर इसे खेला जाए यह भी जरूरी है, कई नाटक लिखे गये लेकिन मंचित नहीं हुए?

राजेश जोशी: हां, यह होता है। आपने बहुत मेहनत की और नाटक लिख लिया और फिर ग्रुप नहीं मिल रहा है। भारत भवन में प्ले राइट एट रेसीडेंस फैलोशिप दी गई थी। उसमें साल भर रहकर लेखक लिखता था। जरूरी नहीं कि वह वहीं रहे, लेकिन साल भर में नाटक देना होता था। इसमें सबसे पहले रामेश्वर प्रेम आये। उन्होंने वहां ‘‘शस्त्र संतान’’ लिखा। दूसरी बार नाग बोडस आये। उन्होंने ‘‘बीहड़’’ लिखा। लेकिन ये नाटक दो साल तक मंचित नहीं हुए। जबकि रंगमंडल की जिम्मेदारी थी कि उन्हें करे। नाटक खेला नहीं जायेगा, तो उसकी कमियां भी पकड़ में नहीं आयेंगी। नाटक पढ़ने की नहीं किये जाने और देखे जाने की विधा है।



Tuesday, November 19, 2013

फैज़ाबाद : "साम्प्रदायिकता और साहित्य का प्रतिरोध" विषय पर विचार गोष्ठी

फैज़ाबाद, 17.11. 2012। प्रगतिशील लेखक संघ की जिला इकाई के तत्वावधान में स्थानीय तरंग पैलेस के सभागार में साम्प्रदायिकता और साहित्य का प्रतिरोध विषय पर विचार गोष्ठी और एक काव्यपाठ का आयोजन किया गया। इस कार्यक्रम में वाराणसी से प्रगतिशील लेखक संघ के संजय श्रीवास्तव और लखनउ से जाने माने साहित्यकार शकील सिद्दीकी, बस्ती से सुपरिचित कवि हरीश दरवेश और बहुत से स्थानीय कवि-साहित्यकारों ने भागीदारी की।

विचार गोष्ठी में अपने विचार व्यक्त करते हुए प्रख्यात लेखक शकील सिद्दीकी, ने कहा कि हमारे समय में साम्प्रदायिक शकितयां केवल हमारी भावनाओं से खेलती है जिसका उददेश्य राजनीतिक लाभ उठाना भर है। वे वास्तव में जनता के हितों के लिए कुछ भी नहीं करती हैं। ऐसे में हमारी साझी विरासत का बहुत अधिक महत्व है। यह साझी संस्कृति सामान्य जनता के रोजमर्रा के जीवन में दिखायी देती है। यह जनता की अमनपसंदगी की वजह से है। यह जीवन को एक साथ जीने की एक प्रकार की मजबूरी भी होती है। लेखकों, साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों को इसे मजबूरी नहीं बनने देना चाहिए। यह हमारी संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग होना चाहिए। साम्प्रदायिकता जनविरोधी और राष्ट्रविरोधी होती है। उन्होंने अपने वक्तव्य के दौरान इंशा की कविता भी उधृत की-

सीधी मन को आ दबोचें
मीठी बातें सुन्दर बोल
मीर, नजीर, कबीर और इंशा
सारा एक घराना हो

उन्होंने यह भी कहा कि लेखकों को सामाजिक संवाद में विश्वास रखना चाहिए। प्रगतिशील लेखक संघ के उ.प्र. महासचिव संजय श्रीवास्तव ने कहा कि रचना और संस्कृतिकर्म से जुड़े लोगों को पूरी शिद्दत से आगे आना चाहिए और समाज में अपनी भूमिका सुनिर्धारित करनी चाहिए। साम्प्रदायिक लोग देश की जनता में प्रचलित धर्मप्राण तत्वों का प्रयोग अपने संकीर्ण राजनीतिक हितों के लिए करते हैं। साम्प्रदायिकता के विरुद्ध संघर्ष के लिए लोकतत्व का परिष्कार जरूरी है तथा साझा संस्कृति को आगे बढा़ना होगा।

इससे पूर्व कवि डा. अनिल सिंह ने कहा कि साहित्य में पलायनवादी और अवसरवादी प्रवृतितयां हावी हो रही हैं जिससे साम्प्रदायिकता के विरुद्ध साहित्य का स्वर हल्का हुआ है। सुपरिचित लेखक आर. डी. आनन्द ने कहा कि साम्प्रदायिकता के पैरोकार सतत सक्रिय रहते हैं जबकि साम्प्रदायिकता का विरोध साम्प्रदायिकता के उभर जाने पर ही होता है। धर्मनिरपेक्ष लोगों की सतत सक्रियता ही समान्तर संस्कृति को जन्म दे सकती है।

कार्यक्रम के प्रारम्भ में डा. रघुवंशमणि ने साहित्य में प्रतिरोध और साम्प्रदायिकता के प्रतिरोध पर प्रकाश डालते हुए कार्यक्रम में आये हुए अतिथियों का स्वागत किया। कार्यक्रम के प्रथम सत्र का संचालन अयोध्या प्रसाद तिवारी ने किया और अध्यक्षता प्रसिद्ध कवि दयानन्द सिंह मृदुल ने की।कार्यक्रम के दूसरे सत्र में काव्यपाठ हुआ जिसमें हरीश दरवेश, साहिल भारती, स्वपिनल श्रीवास्तव, अमान फैज़ाबादी, इस्लाम सालिक, रघुवंशमणि, सौमित्र, दयानन्द सिंह मृदुल आदि कवियों ने भागीदारी की। इस सत्र का संचालन इस्लाम सालिक ने किया।कार्यक्रम के अन्त में दलित लेखक ओमप्रकाश वल्मीकि के निधन पर शोक प्रस्ताव किया गया और दो मिनट का मौन रखा गया।

Tuesday, November 12, 2013

बलराज साहनी व नरेन्द्र दाभोलकर को समर्पित आज़मगढ़ फिल्मोत्सव

जमगढ़। 18, 19 और 20 अक्टूबर, 2013 को ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ का 33वाँ आयोजन नेहरू हाल आज़मगढ़ में दूसरे आज़मगढ़ फिल्मोत्सव के रूप में सम्पन्न हुआ। द ग्रुप, जन संस्कृति मंच और आजमगढ़ फिल्म सोसाइटी द्वारा आयोजित यह कार्यक्रम इस बार ‘इप्टा’ के संस्थापकों में से एक और महान अभिनेता बलराज साहनी के शतवार्षिकी तथा अन्ध आस्था के खिलाफ वैज्ञानिक चेतना के लिए संघर्ष करने वाले डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर की स्मृति को समर्पित किया गया। इस फिल्मोत्सव की थीम धार्मिक उन्माद और अन्ध आस्था के खिलाफ, अभिव्यक्ति की आजादी एवं लोकतंत्र की  रक्षा तथा जल जंगल जमीन के लिए प्रतिरोध की संस्कृति को बनाया गया।

फिल्मोत्सव का उद्घाटन जन संस्कृति मंच के संस्थापक सदस्य एवं प्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक ने किया। इस अवसर पर अशोक भौमिक ने ‘प्रतिरोध की संस्कृति’ और भारतीय चित्रकला’ पर दृश्य प्रदर्शन के साथ एक रोचक व्याख्यान दिया। उन्होंने प्रगतिशील भारतीय चित्रकारों चित्त प्रसाद, जैनुल आबेदीन, सोमनाथ होड़ द्वारा बंगाल के अकाल, तेभागा व तेलंगाना आन्दोलन और बांग्लादेश की आजादी के संघर्ष पर बनाये चित्रों के माध्यम से भारतीय चित्रकला में प्रतिरोध की संस्कृति की विवेचना की। उन्होंने कहा कि आज की चित्रकला और जनता के बीच सम्बन्ध बहुत कमजोर हो गया है, इसलिए समकालीन चित्रकारों का एक वर्ग जनता के संघर्ष और प्रतिरोध की पहचान नहीं कर पा रहा है। चित्त प्रसाद, सोमनाथ होड़, जैनुल आबेदीन, कमरुल हसन न सिर्फ जनता और उसके आन्दोलन से घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे बल्कि उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता भी जनता के साथ थी। उन्होंने आगे कहा कि आज  की चित्रकला को पूँजीपति वर्ग ने हाईजैक कर लिया है जिसका आम आदमी के संघर्षों से कोई वास्ता नहीं है। इस जटिल समय में भी कुछ चित्रकार बाजार की ताकत के खिलाफ संघर्ष करते हुए गरीब जनता के पक्ष में चित्र बना रहे हैं, जिन्हें सामने लाना जरूरी है।

उद्घाटन सत्र में स्वागत वक्तव्य देते हुए जय प्रकाश नारायण ने कहा कि आजमगढ़ की धरती प्रतिरोध की धरती है जिसका इतिहास और वर्तमान जनविरोधी और प्रतिगामी शक्तियों के खिलाफ संघर्षो से भरा है। नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या की घटना का जिक्र करते हुए उन्होने कहा कि आज सत्ता और जन विरोधी ताकतें जनता के पक्ष में काम कर रही प्रगतिशील और जनवादी ताकतों को कुचलना चाहती है, जिसके खिलाफ संगठित प्रतिरोध जरूरी है। जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय सचिव मनोज कुमार सिंह ने इस मौके पर ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ की वर्ष 2006 में शुरू हुई यात्रा का विस्तार से परिचय दिया और कहा कि प्रतिरोध का सिनेमा शोषित, उत्पीड़ित जनता के पक्ष में खड़ा सिनेमा है और वह सत्ता एवं कारपोरेट, मीडिया घरानों द्वारा उपेक्षित और दबा दिये जा रहे सच को जनता के सामने ला रहा है।

इस तीन दिवसीय फिल्मोत्सव में उद्घाटन फिल्म के रूप में डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर को समर्पित प्रसिद्ध भौतिक विज्ञानी स्टीफेन हाकिंस द्वारा प्रस्तुत टी.वी. प्रोग्राम- ‘क्यूरिआसिटी : डिड गॉड क्रियेट द यूनिवर्स’ दिखाई गयी। पहले दिन का समापन सत्र बलराज साहनी को समर्पित किया गया। इस उपलक्ष्य में एम.एस. सथ्यु की फिल्म ‘गर्म हवा’ दिखाई गयी। यह ‘इप्टा’ के कलाकारों द्वारा अभिनीत फिल्म है और इसके गीत और संवाद कैफ़ी आज़मी के हैं जो स्वयं ‘इप्टा’ के संस्थापक सदस्य थे। ‘‘गर्म हवा’’ साम्प्रदायिक विभाजन की त्रासदी पर बनी एक क्लासिक फिल्म है। दूसरे दिन जिन फिल्मों का प्रदर्शन हुआ उनमें शार्ट फिल्म ‘प्रिण्टेड रेनबो, दस्तावेजी फिल्म बिदेसिया इन बम्बई,  न्यूज़ वीडिओ ‘मुजफ्फरनगर टेस्टीमोनियल्स’, दस्तावेजी फिल्म ‘खयाल दर्पणः पाकिस्तान में शास्त्रीय संगीत की खोज के मायने’ शामिल रहीं। शाम को भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष पर प्रतिरोध का सिनेमा ने गुरूदत्त के अवदान को याद करते हुए उनकी फिल्म ‘प्यासा’ का प्रदर्शन किया।

बच्चों के सत्र में किस्सागोई का मजा
तीसरे दिन का एक पूरा सत्र बच्चों की रचनात्मकता और उनसे मुखातिब फिल्म और किस्से-कहानियों का रहा। इसकी शुरूआत बच्चों द्वारा बनाये चित्रों से हुई। आयोजन हॉल में बच्चों ने अपनी पसन्द के चित्र बनाये। चित्र बनाने के लिए सामग्री फिल्मोत्सव आयोजन समिति की ओर से वितरित की गयी। बच्चों द्वारा बनाये इन चित्रों को कार्यक्रम स्थल पर प्रदर्शित भी किया गया जिसका अवलोकन दर्शकों के साथ-साथ फिल्मोत्सव में आये अतिथियों संजय मट्टू, यूसुफ सईद, नकुल साहनी, संजय जोशी, भगवान स्वरूप कटियार, मनोज सिंह, अशोक चौधरी, सौरभ वर्मा, आलोक श्रीवास्तव, जितेन्द्र राव, राजन पाण्डे, मीना राय, राम नरेश, बैजनाथ, इन्द्रेश मैखुरी, मदन चमोली एवं अतुल सती आदि ने किया। इसके बाद दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापक और अंग्रेजी समाचार वाचक संजय मट्टू ने अपनी आकर्षक किस्सागोई से बच्चों को मंत्रमुग्ध कर दिया। बच्चों के साथ-साथ उपस्थित अभिभावक और सामान्य दर्शक भी संजय मट्टू द्वारा किस्सा सुनाने की जीवंत आकर्षक शैली के मोहपाश से अपने को बचा नहीं पाये। संजय मट्टू का किस्सा जल जंगल जमीन और बच्चों की दुनियां पर केन्द्रित रहा। इसके पश्चात बच्चों के लिए दो फिल्मों का प्रदर्शन भी हुआ। पहली फिल्म लुइस फॉक्स की ‘सामान की कहानी’ (द स्टोरी ऑफ स्टफ) और दूसरी फिल्म राजन खोसा की ‘गटटू’ थी। दोनों फिल्में बच्चों के द्वारा खूब पसन्द की गयीं।

नियामगिरि हम सबका है  
तीसरे दिन लंच के बाद ‘नियामगिरि वर्डिक्ट’ और ‘उत्तराखण्ड आपदाः जिम्मा किसका’ प्रदर्शित हुई। ‘नियामगिरि वर्डिक्ट’ में उड़ीसा के नियामगिरि में जल जंगल जमीन के लिए चल रहे संघर्ष को दिखाया गया है। नियामगिरि में दुनिया के सबसे शुद्ध बाक्साइट के पहाड़ हैं जिसमें डोंगरिया कोंध अपने गांव बसाकर रहते हैं। यह फिल्म दिवंगत समाजवादी कार्यकर्ता किशन पटनायक द्वारा लांजीगढ़ में दिये भाषण से शुरू होती है। इसके बाद आन्दोलन के कई दृश्यों से होती हुई यह पहुंचती है वर्तमान में जब सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार राज्य सरकार द्वारा नियामगिरि के 112 गांवों में से 12 गांवों में ग्राम सभाएं करायी जा रही है। इन ग्रामसभाओं में जिला जज और मीडिया के सामने सभी गांवों के लोग खुलकर उड़ीसा सरकार, प्रशासन व वेदान्ता के खिलाफ और नियामगिरि को बचाने के पक्ष में बोल रहे हैं। यह फिल्म आदिवासी आन्दोलन की गवाह है जिसमें कुछ समाजवादी, साम्यवादी सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा आदिवासियों के साथ एकमेक होते हुए कारपोरेट घरानों और तानाशाहीपूर्ण सरकार के खिलाफ इंकलाब की आवाज को बुलन्द किया गया है।

फिल्मों के बीच आपदा की सुध
‘उत्तराखण्ड में आपदाः जिम्मा किसका’ में उत्तराखण्ड से आये सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता इन्द्रेश मैखुरी, मदन चमोली और अतुल सती ने अपनी दृश्यात्मक प्रस्तुतियों से उत्तराखण्ड आपदा के लिए जिम्मेदार कारकों पर प्रकाश डाला। इन प्रस्तुतियों से उत्तराखण्ड से आयी इस टीम ने कारपोरेट मालिकों द्वारा जल जंगल जमीन जैसी प्राकृतिक सम्पदा की बेतहाशा लूट और सरकारों की इसमें मिलीभगत को उघारा।तीसरे दिन की शाम गोरखपुर फिल्म सोसाइटी और लखनऊ फिल्म सोसाइटी की फिल्म के नाम रही। लखनऊ में रह रहे अवामी शायर तश्ना आलमी के जीवन और शायरी पर भगवान स्वरूप कटियार और अवनीश सिंह की फिल्म ‘अतश’ दिखाई गयी। समापन फिल्म के रूप में संजय जोशी द्वारा निर्देशित और मनोज सिंह व अशोक चौधरी द्वारा निर्मित फिल्म ‘सवाल की जरूरत’ दिखाई गयी। दोनों फिल्में साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद के बढ़ते खतरे से उत्पन्न मानवीय चिन्ताओं को केन्द्र में रखती हैं। ‘सवाल की जरूरत’ फिल्म सामाजिक-राजनीतिक चिन्तक तथा गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के संरक्षक रहे स्व. रामकृष्ण मणि त्रिपाठी से की गयी बातचीत पर आधारित है। आजमगढ़ में जन्मे, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पढ़े और गोरखपुर विश्वविद्यालय में अध्यापक रहे रामकृष्ण मणि त्रिपाठी ने साम्प्रदायिकता की राजनीति पर अपनी बेबाक राय रखी है। इसके अतिरिक्त आज के दौर में उपस्थित आवाम की दिक्कतों और राजनीति की दिशा को लेकर भी उनकी टिप्पणियां मानीखेज हैं।
वैकल्पिक जन सांस्कृतिक मेले की शुरुआत  
तीन दिन तक चलने वाला यह फिल्मोत्सव धार्मिक आयोजनों, त्योहारों और मेलों के बीच एक वैकल्पिक जन सांस्कृतिक मेले के रूप में अपनी अलग पहचान बनाने में सफल रहा। इसमें दिखाई गयी फिल्मों और दर्शकों से फिल्मकारों के संवाद ने इस फिल्मी मेले को जीवंत बना दिया। अशोक भौमिक के उद्घाटन वक्तव्य और प्रतिरोध की चित्रकला पर दृश्यात्मक प्रस्तुतियों ने दर्शकों को उनके अपने जीवन के चित्रों से रूबरू कराया। अपने प्रभावशाली प्रदर्शन से उन्होंने दूसरे आजमगढ़ फिल्मोत्सव को यादगार बना दिया। नकुल साहनी के न्यूज़ वीडियो ‘मुजफ्फरनगर टेस्टीमोनियल्स’ को सर्वाधिक दर्शक मिले और साम्प्रदायिकता के बढ़ते खतरों पर सार्थक संवाद भी हुआ।

मुजफ्फरनगर का सच
‘मुजफ्फरनगर टेस्टीमोनियल्स’ ने जहां राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा चलाये जा रहे दुष्प्रचार पर एक लगाम लगायी वहीं उत्तर प्रदेश की सपा सरकार और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की मिलीभगत को भी उघारा। दर्शकों से चर्चा के दौरान यह बात भी उभर कर आयी कि हिन्दूवादी साम्प्रदायिक राजनीति अब सिर्फ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके राजनीतिक संगठन भारतीय जनता पार्टी तक ही नहीं सीमित है बल्कि कांग्रेस पार्टी द्वारा भी लगातार यह काम किया जा रहा है और भारतीय राष्ट्र को हिन्दूवादी मिथों और आदर्शों से परिभाषित किया जा रहा है।दर्शकों से संवाद के दौरान नकुल साहनी ने बताया कि मुजफ्फनगर हिंसा दंगा नहीं था बल्कि वह एक नरसंहार था जिसके लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ कई महीनों से अपनी तैयारी कर रहा था और इसमें दूसरे प्रदेशों से उसके प्रशिक्षित लोग शामिल थे। इसे पूरी तरह से गुजरात 2002 की तरह अंजाम दिया गया। नकुल साहनी ने करीब 70,000 मुस्लिम विस्थापन को लेकर मीडिया की चुप्पी को भी सामने रखा। उन्होंने दर्शकों के सवाल का जबाब देते हुए कहा कि जितने सरकारी शिविर हैं उसमें सिर्फ एक शिविर ऐसा था जिसमें 500 हिन्दू या गैर मुस्लिम शरणार्थी थे जिन्होंने इस आशंका से गांव छोड़ा था कि मुस्लिम-बहुल गांव में कहीं उनके ऊपर हमला न हो जाय। इन सरकारी शिविरों के अलावा मुस्लिम शरणार्थियों की एक बड़ी संख्या मदरसों में है। ऐसे ही लोनी स्थित एक मदरसे में नकुल साहनी ने पीडि़तों से बयान लिये। लोनी में करीब 10 हजार मुस्लिम शरणार्थी अब भी मौजूद हैं।नकुल साहनी की इस फिल्म में दर्शक दीर्घा जहां पूरी तरह से भरी हुई थी वहीं इसे देखने मुस्लिम युवक और युवतियां तथा बुर्कानशीं औरतें भी आयीं। इस फिल्म का यह असर था कि फिल्म के बाद दो दिन नकुल साहनी इस फिल्म की माँग करने वालों से घिरे रहे, चूँकि इसकी कोई डी.वी.डी. नहीं थी लिहाजा उन्होने पेन ड्राइव में इसे उपलब्ध कराया।

ख्याल दर्पण के बहाने पाकिस्तान में मौसिकी की खोज
इस फिल्म के तुरन्त बाद प्रदर्शित यूसुफ सईद की फिल्म ‘ख्याल दर्पणः पाकिस्तान में शास्त्रीय संगीत की खोज के मायने’ ने लम्बी होने के बावजूद जहां खूब दर्शक बटोरे वहीं सर्वाधिक प्रशंसा भी इसी फिल्म को मिली। दर्शकों से सबसे लम्बा संवाद भी युसुफ सईद के साथ हुआ 10 मिनट के निर्धारित संवाद को 30 मिनट तक बढ़ाया गया। यूसुफ सईद की इस फिल्म ने इस मिथ को तोड़ा कि शास्त्रीय संगीत सिर्फ हिन्दू संगीत है और उसके कोई आम सरोकार नहीं होते। शास्त्रीय संगीत सिर्फ बड़े-बड़े होटलों में 16वीं सदी के दरबारों के स्थानापन्न के रूप में नहीं बल्कि आम लोगों के बीच उनके सरोकारों से भी आगे बढ़ सकता है और उसका विस्तार भी हो सकता है।

जन मेले में जनता की भागीदारी
‘प्रतिरोध का सिनेमा’ के इस तीन दिवसीय दूसरे आजमगढ़ फिल्मोत्सव की खासियत यह रही कि फिल्मोत्सव प्रारम्भ होने से एक दिन पहले शासन द्वारा नेहरू हाल में आयोजन करने से मना कर दिया गया। इसी समय उड़ीसा समेत आधा देश फायलीन तूफान से जूझ रहा था, आजमगढ़ में भी चार दिनों से मेघों ने डेरा डाल दिया था और जब-तब वे बरस पड़ते थे। इन विपरीत परिस्थितियों के बावजूद आयोजन समिति ने यह चुनौती स्वीकार की और उद्घाटन के लिए सिविल लाइन्स स्थित एक निजी अस्पताल के हाल को चुना। उद्घाटन के समय डेढ़ घण्टे की जोरदार बारिश ने 2 बजे के उद्घाटन को साढ़े तीन बजे पहुँचा दिया। इन सबके अलावा जहरीली शराब से 45 लोगों के काल कवलित हो जाने का साया भी आजमगढ़ पर एक बड़ी विपति की तरह आया था। इसके बावजूद अशोक भौमिक के व्याख्यान और प्रस्तुति के समय पूरा हॉल भर गया था। अगले दो दिन का आयोजन स्थल पुनः नेहरू हाल था जिससे फिर से पूरा सेटअप फिर करना पड़ा। तीसरा दिन और चौंकाने वाला रहा। आरक्षण समर्थकों की महारैली फिल्मोत्सव आयोजन स्थल के ठीक बगल शहीद कुंवर सिंह उद्यान में प्रस्तावित थी जिसके चलते पूरा आयोजन स्थल पुलिस छावनी में बदल गया। कर्फ्यू जैसा माहौल,यहां तक कि पैदल आने के मुख्य रास्तों को भी बन्द कर दिया गया फिर भी दर्शक अपने बच्चों के साथ गली-कूचों से होकर या पुलिस को धता बताकर फिल्मोत्सव तक पहुंचे। संजय मट्टू की किस्सागोई तक 200 बच्चे और उनके अभिभावक आ चुके थे। शाम चार बजे पुलिस की रोक हटते ही दर्शक आने शुरू हो गये और ‘अतश’ तथा ‘सवाल की जरूरत’ दोनों फिल्मों को दर्शकों के साथ-साथ वाहवाही भी खूब मिली। अन्त में डॉ. निशा सिंह यादव द्वारा सितार वादन की प्रस्तुति और दर्शकों द्वारा फिल्मोत्सव की समीक्षा से इस बेहद सफल फिल्मोत्सव का समापन हुआ। आयोजन स्थल पर अशोक भौमिक द्वारा प्रस्तुत चित्रों की प्रदर्शनी तथा समकालीन जनमत, गोरखपुर फिल्म सोसाइटी तथा द ग्रुप के पुस्तकों एवं फिल्मों के स्टाल भी लगे। ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ ने अपने इस तैंतीसवें आयोजन से एक तरफ जहाँ ‘इप्टा’ की विरासत को नये तकनीकी युग के अनुकूल आगे बढ़ाने का काम कियावहीं कारपोरेट मीडिया के विकल्प के रूप में भी खुद को स्थापित किया है। यह एक आवश्यक जन सांस्कृतिक कार्रवाई के बतौर भी अपनी पहचान बनाने की तरफ बढ़ रहा है।
-दुर्गा सिंह, सह संयोजक, आजमगढ़ फिल्म फेस्टिवल
भड़ास4मीडिया से साभार

Sunday, November 10, 2013

जाना राजस्थानी भाषा के भारतेंदु का

- उदयप्रकाश

ज का दिन मेरे जीवन के सबसे दुखद और शोकग्रस्त दिनों में से एक है. समय भी कैसे-कैसे आकस्मिक खेल खेलता है. इसीलिए इसे 'नियति के व्यतिक्रम का कर्त्ता' कहा गया है. भारतीय साहित्य का वह महान कथाकार, जिसे मैं अपने पिता जैसा मानता था और जिसने किसी घने, छांह भरे बादल की तरह विपत्तियों और दुखों की तपती हुई लपटों के पलों में भी मेरे जीवन को शीतलता, स्नेह की नम बौछारें और किसी भी रचनाशील वैयक्तिकता के लिए प्राणवायु की तरह अनिवार्य गरिमा और शक्ति दी....

वह महान कथाकार, जिसका समूचा जीवन कठिनाइयों, संघर्षों, शोक और वियोगों से भरा रहा, जिसने चार वर्ष की आयु में सामंती हिंसा के शिकार बने अपने पिता का टुकड़ों में कटा शरीर देखा फिर भयावह आर्थिक संकटों के बीच अपने परिवार का संपोषण करता रहा, जिसने एक के बाद एक पुत्र, प्रपौत्र, पत्नी और परिजनों के आकस्मिक वियोग के आघात सहे....

वह अपूर्व साहित्यकार जिसका जीना, सांस लेना, चलना-फिरना सब कुछ शब्दों और वाक्यों की अनंत-अबूझ गलियों-पगडंडियों में निरंतर यात्राएं करते हुए बीता...

वह महानतम व्यक्तित्व जिसने वर्णव्यवस्था के विष से बजबजाते समाज की घृणा, उपेक्षा, षड़यंत्र और अपमानों के बीच सृजन के उन शिखरों को नापा, जिस तक पहुंचना तो दूर, तमाम सत्ता-पूंजी की ताकतों से लदे-पदे लेखकों की दृष्टि तक नहीं जा सकती ...जो अपने जीते जी, जोधपुर से १०५ किलोमीटर दूर बोरुंदा गांव में रहते हुए, एक ऐसा पवित्र पाषाण बना, जिसे छूना हमारे समय के विभिन्न कलाओं के व्यक्तित्वों के लिए, किसी तीर्थ जैसा हो गया....मणिकौल, प्रकाश झा, अमोल पालेकर से लेकर कई फ़िल्मकार पैदल चल कर इस रचनाकार की ड्योढ़ी तक पहुंचे और उनकी कहानियों पर अंतरराष्ट्रीय ख्याति की फ़िल्में बनाईं. 

वह कथाकार, जो राजस्थानी भाषा का भारतेंदु था, जिसने उस अन्यतम भाषा में आधुनिक गद्य और समकालीन चेतना की नींव डाली. हमारे समय का वह वाल्मीकि या व्यास, जिसने राजस्थान की विलुप्त होती लोक गाथाओं की ऐसी पुनर्रचना की, जो अन्य किसी के लिए लगभग असंभव थी...

वही विजयदान देथा, जिन्हें सब प्यार और आदर के साथ 'विज्जी' कहते थे, आज अचानक अनुपस्थित हो गये. वे अपना एक मिथक रच कर विदा हुए हैं. 'काल का व्यतिक्रम' मैंने इसीलिए शुरू में कहा था, क्योंकि सुबह मैं 'मोहन दास' के जर्मन भाषा में अनूदित होने को लेकर आप सब दोस्तों के साथ खुश हो रहा था..और ..अब ..शब्द तक इस आघात में साथ छोड़ रहे हैं. असंख्य स्मृतियां हैं उनकी. सन १९८२-८३ से. साहित्य अकादमी के लिए उन पर एक वृत्त-चित्र भी मैंने निर्मित की थी. मैं पूरी ईमानदारी से आप सबके सामने यह कहना चाहता हूं कि मैंने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के प्रति समूची वस्तुपरकता और अनिवार्य समर्पण के साथ यह फ़िल्म बनाई थी -'बिज्जी'. अकादमी की आर्काइव्स में यह फ़िल्म होगी. कुछ साल पहले उनकी नौ कहानियों पर दूरदर्शन के लिए, १० लघु फिल्में भी निर्देशित-निर्मित की थीं, जो स्वयं उन्हें बहुर पसंद थीं....
..और हां, अभी तीन-चार साल पहले ही एक और छोटी-सी फिल्म, जिसकी कापी तक मेरे पास नहीं है -'आथर इन दि एज़ आफ़ मोबाइल्स', जयपुर लिटरेचर फ़ेस्टिवल के लिए, अंग्रेज़ी की सुप्रसिद्ध कथाकार नमिता गोखले जी के कहने पर. उनके ही कहने पर और मेरे आग्रह पर 'पेंगुइन इंडिया' ने विजयदान देथा का कथा संग्रह, क्रिस्टी मेरिल के अनुवाद में प्रकाशित की थी.

यहां जो कुछ भी मैं लिख रहा हूं, वह गहरे शोक से घिरे हुए लड़खड़ाते हुए कमज़ोर शब्द हैं...! 'बिज्जी' का जाना हम सबके बीच से और खासतौर पर मेरे रचनात्मक जीवन ही नहीं, असली ज़िंदगी के बीच से किसी ऐसी उपस्थिति का अचानक अनुपस्थित हो जाना है, जिसके बिना मैं अभी कुछ सोच नहीं पा रहा हूं....

उनके पुत्र महेंद्र देथा, कैलाश कबीर, भतीजे प्रकाश देथा, उनके साथी इसरार खान, भैरूंमल ...और उनके समस्त परिजनों को इस दुख की घड़ी में सांत्वना ...!

(फेसबुक से साभार)

Saturday, November 9, 2013

Comrade Abanai Kumar Boral is no more

BHUBANESWAR:  Hero of many struggles, eminent educationist, writer, artist trade unionist and leader of teacher organisations and former  secretary of Odisha CPI Comrade Abani Kumar Boral is no more. He breathed his last at his Bhubaneswar residence today at about 11.00 am. He was 79 years old.
During his life time Abani Babu, as he was known through out the country, came in contact with AISF while still he was a student at Cuttack. He joined the democratic Youth Federation and organized the formation of IPTA and actively participated in the Janata Rangmanch as an artist, organizer and director. He also was active in the then ISCUS and AIPSO organization activities very actively and contributing to NUA DUNIA, weekly organ of the CPI in Odisha.
He joined in Khurda College as a lecturer which was founded by Prananath Pattanaik, freedom fighter and Communist Party leader. He organized the college teacher’s organization and also the Federation of all teachers elementary, secondary and college teachers into one strong unity known as Sikshak Mahasangh and led many a struggles. The teachers community under his strong leadership  won many battle and got direct payment of salaries, government recognition to  private schools and colleges, their grant in aid and other working conditions. He represented the Indian Teachers as the vice president of World Teacher’s Federation. He also visited many countries of Asia, Europe and America as teacher leader.
He believed in Marxism-Leninism and strongly advocated for strong communist unity. He was the state secretary of CPI Odisha and member of the national council of CPI for a long period. On his demise, the working class of the country lost a strong leader and internationalist.

The Red Flag of Bhagabati Bhavan, CPI state head quarters at Bhubaneswar was lowered paying respect to the departed leader. Many people, workers, leaders of different political parties and mass organizations payed their last respect to the departed leader at Bhagabati Bhavan, where his body was kept in the afternoon clad in red flag.

THE AGENDA OF FACISM

RANBIR SINH
Kautilaya in Arthsastra,verse:34 has said;”In the happiness of the subjects lies the happiness of the king, and in what is beneficial to the subjects his benefit. What is dear to himself is not beneficial to the king but what is dear to the subjects is beneficial to him.”
Narendra Modi has not adhered to the sagacious advice of Kautilaya, probably he is blissfully ignorant of Arthsastra of Kautilaya. The burning of the train, which some what remains a mystery, can not under any circumstances be the excuse for the genocide in Gujrat in 2002.For the wise, kind hearted King or the C.M. now, all his subjects following different religions, caste, creed and colour all should be equal. Modi has not succeeded in achieving happiness for all. Even today the lips of the people are sealed in fear, heads are hung low in shame, eyes are full of fear and do no communicate. One can not express his opinion, it may be Hindu or Muslim. It is shocking to know that the play JISNE LAHORE NAHIN DEKEHYA written by Asghar Wajahat was not permitted to be staged in Ahmedabad. I may ask all those who praise him and expect miracles from him, would they like to live in a place where the lips are sealed and fear dominates the entire atmosphere. It is the beauty of the Indian culture, right from the earliest period, that it imbibes all religions, and culture and thus enriches its national culture .In the words of R.S.Sharma ;”Ancient Indian history is interesting because many races and tribes intermingle in early India. The pre-Aryans ,the Indo-Aryans, the Greeks ,the Scythians, the Huns, the Turks, and others made India their home. Each ethnic group contributed its mite to the evolution of the Indian social system, art and architecture, language, and literature. All these peoples and their cultural traits commingled so inextricably that currently they can be clearly identified in their original form.”
Narendra Modi a product of the RSS ideology, mercilessly destroyed the cultural fabric of Gujrat, and the efforts are being made openly to do the same on the national level.
I am not going to use the word “secular” as it has been vulgarized by many. According to the spokesman of BJP, it is Hindutava, meaning all those non- Hindus will live like Hindus .A senior correspondent of a well known T.V. channel, has called it as “Sickular”. I prefer to call the India culture as the ”Ganga-Jamani” culture, where the culture, rituals, religion, way of life, of all different communities are closely weaved together without any interference. The call of hindutava by RSS is extremely dangerous. It will create enmity among different sections of society, mistrust and fear in the hearts of all, and it will it apart India into shreds and weaken it. The destruction will be much more than it happened after the battle of Mahabharata.
One senior leader of BJP, who is also in the line to become the Prime Minister, has given the statement, that Sardar Patel was secular because he rebuilt the temple of Somnath as a part of Hindutava.
The project of rebuilding the temple of Somnath was actually initiated by K.M.Munshi and Jam Sahib Digvijaysinhji of Jamnagar. No doubt Sardar Patel helped them. But in the eyes of K.M.Munsi, Digvijaysinhji and Sardar Patel Somnath was not just a Hindu temple, but it was an important part of the Ganga-Jamani culture and was a rich cultural heritage of India. For Sardar Patel and others, Somnath was as important as Jama Masjid ,and the shrine of Nizamuddin Auliya at Delhi and the Dargah of Khwaja Muinuddin Chishti at Ajmer. This is exactly the difference between Sardar Patel and RSS, and the difference between Hindutava and Ganga-Jamani culture.
RSS from its very birth has followed the dictum of Goebels , that, repeat the untruth hundered times and it will turn into truth. They are shamelessly polluting the minds of the people by showering false stories .Why the RSS ,leaders of BJP do not admit that it was Sardar Patel as the Home Minister in the cabinet of Jawaharlal Nehru, who banned RSS  for ever taking a pledge from it that it will never enter the politic arena. A BJP leader recently in a interview to the T.V. channel shameless said that the ban was lifted because there was no proof. What a great lie! Was the murder of Gandhiji  not a strong proof.?
RSS has completely sidelined BJP. All the leaders have been reduced as mansabdars  of the court of Nagpur. It is RSS who has declared Modi as the Prime ministrial candidate, because it feels that he is capable to deliver the Hindutava. But this is nothing else but throwing dust into the eyes of the people. Using the Goebels tactics and winning over the media they have successfully brain washed the people. One can understand about the uneducated people ,but the so called educated ones to fall into the trap is surprising.
In the democratic governments the oppsition makes a shadow cabinet. Each member is assigned a particular portfolio. He or she studies the working of the ministry, and when the chance comes then the shadow cabinet takes over. May I ask RSS or BJP who will be the members of the cabinet of Narendra Modi, or RSS had already decided to crown Modi as the Dictator with the specific orders to impose Hindutava. To RSS Hindutava is exactly the same as Aryanism of Hitler .I am surprised that this question is never asked or discussed in the debates conducted by the several T.V.Channels. Media is an important part of the society and it must play a very positive role, and not be irresponsible and create a doubt of their sincerity.
To use the name of Sardsar Patel in this cheap manner is shameless and dangerous. When the statue will be unveiled the throne of RSS at Nagpur will shiver on fear. The statue will give sleepless nights to the mansabdars of the RSS court, when people will ask the question; is this the man who banned RSS?.What will they answer when the people will ask why RSS was banned. The murder of Mahatma Gandhi is a black spot on their hands which all the waters of the Arabian sea will not be able to wash it.
It is the time when all anti-fascist parties and intellectuals should come out in open and join hands to fight fascism and crush its head, burn it and bury deep into the earth, never to rise again.