Saturday, August 31, 2013
Friday, August 30, 2013
रंगकर्म और मीडिया : विकास की उल्टी प्रक्रिया !
- पुंजप्रकाश
अखबारों ने इस दौरान अपना स्वरूप बदला और धीरे- धीरे उन खबरों को विलुप्त करते गये जो ‘गंभीर’ की श्रेणी में आती थीं । कला-संस्कृति भी यहाँ से विलुप्त हो गई और किसी ने मीडिया के इस कुकर्म का सामूहिक विरोध नहीं किया! अख़बारों के सम्पादक अब केवल सम्पादक नहीं रहे बल्कि नफे-नुकसान का बही-खाता संभालने वाले एक ऐसे जीव के रूप में परिवर्तित हो गए हैं, जिन्हें अपनी कुर्सी बचाए रखने के लिए मुनाफ़े का मंजन घिसते रहना था। नीति साफ थी कि अखबार अब उन्हीं खबरों को छापेगा जो सनसनी पैदा करे । कला-संस्कृति की खबरें कौन पढ़ता है ?
मीडिया मूलतः दो प्रकार का है - प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक। रंगमंच के बारे में विद्वानों का मत है कि यह भी मूलतः दो प्रकार का ही है शौकिया और व्यावसायिक। जात्रा, पारसी, नौटंकी के साथ ही साथ पारंपरिक रंगमंच लगभग लुप्तप्राय हो चुके हैं। हिंदुस्तान में व्यावसायिक रंगमंच कहाँ और कितना है यह एक शोध का विषय हो सकता है! भारतीय रंगमंच का मूल स्वरुप शौकिया ही है। मीडिया का दायरा जहाँ दिन-प्रतिदिन और ज्यादा विस्तृत हो रहा है वहीं रंगमंच का दायरा तमाम सरकारी सहयोगों के बावजूद दिन-प्रतिदिन सिमट रहा है। कैरियरिज़म के वर्तमान दौर में यह सिमटन वैचारिक, सामाजिक, राजनैतिक, व्यक्तिगत आदि स्तरों पर देखी जा सकती है। रंगमंच क्यों? इस छोटे से सवाल का जवाब आज बड़े-बड़े रंगकर्मियों और समाज के पास नहीं है! शायद इसीलिए नाट्य विद्यालयों से निकलनेवाले छात्र एकाएक बेमकसद होकर खाक छानने को अभिशप्त हैं, क्योंकि रंगमंच करने के पीछे उनका उद्देश्य नाट्य विद्यालय में दाखिला लेना था । दाखिला मिल गया, पास- आउट भी हो गए, अब? बिना मकसद के संचालित होने वाला कलाकर्म हर स्तर पर अराजकता और व्यक्तिवाद को ही बढ़ावा देगा, ये तय है।
रंगमंच एक समय में एक स्थान पर होनेवाला कलाकर्म है और मीडिया एक चीज़ को घर-घर पहुंचानेवाला माध्यम। सूचनाएं, न्यूज़ और व्यूज़ के सहारे चलनेवाला मीडिया रंगमंच से और ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को जोड़ने, इसके दस्तावेज़ीकरण, समीक्षात्मक चिंतन में एक प्रखर भूमिका का निर्वाह कर सकता है। उपरोक्त बातें हम केवल प्रिंट मीडिया के सन्दर्भ में कर रहें हैं क्योंकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने अभी तक रंगमंच को कोई खास जगह नहीं दी है। हिंदुस्तान में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अभी नया है और फिलहाल पेड न्यूज़, ब्रेकिंग न्यूज़ और टीआरपी की चपेट में फंसकर गलाकाट प्रतियोगिता में संलग्न है। हमारे यहाँ लगभग हर चीज़ का एक अलग चैनल है सिवाय पारंपरिक कला और रंगमंच के। वैसे प्रिंट मीडिया की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। विज्ञापनों के साथ ही साथ क्रिकेट और सिनेमा की खबरें हर अखबार को अपने कब्ज़े में जकड़ चुकी है, वहीं नाटकों के मंचन से लेकर प्रतिबंध जैसी ख़बरें बमुश्किल ही यहाँ स्थान बना पातीं हैं ।
मीडिया लोकतंत्र का चौथा खम्भा है लेकिन भारतीय सन्दर्भ में यदि लोकतंत्र की बात करें तो ये साफ़ लगता है कि यह अभी वयस्क नहीं हुआ है बल्कि दिन-प्रतिदिन खतरनाक रूप से अराजक होता जा रहा है । असहमति का स्वर अब विद्रोह माना जाता है । क्रिकेट के एक शतक से एक व्यक्ति लखटकिया नायक हो जाता है वहीं पूरा जीवन कला, साहित्य, रंगमंच की सेवा करनेवाला कलाकार और आम आवाम जीवन की मूलभूत सुविधाओं तक से महरूम है । ऐसी स्थिति में लोकतंत्र के खम्भों की क्या हालत होगी इसका अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है। चंद बड़े नामों को छोड़ दें तो पत्रकारों की स्थिति भी कुछ खास अच्छी नहीं है ।
एक वक्त था जब अधिकतर प्रतिष्ठित अखबारों में साप्ताहिक कला और संस्कृति नामक पन्ना प्रकाशित हुआ करता था, जिनमें नाटकों, गीत, संगीत, नृत्य आदि सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर समीक्षात्मक व सूचनात्मक आलेखों का प्रकाशन होता था। तब समाचार का मूल माध्यम अखबार, रेडियो तथा दूरदर्शन हुआ करता था। फिर विचार के अंत (च्वेज डवकमतदपेउ) की घोषणा के साथ उदारीकरण, निजीकरण और बाज़ारवाद का ऐसा दौर आया और उसी के साथ इलेक्ट्रोनिक मीडिया की कुछ ऐसी आंधी चली कि लगा अखबार के दिन गए ! पर ऐसा हुआ नहीं। हाँ, अखबारों ने इस दौरान अपना स्वरूप बदला और धीरे- धीरे उन खबरों को विलुप्त करते गये जो ‘गंभीर’ की श्रेणी में आती थीं । कला-संस्कृति भी यहाँ से विलुप्त हो गई और किसी ने मीडिया के इस कुकर्म का सामूहिक विरोध नहीं किया! अख़बारों के सम्पादक अब केवल सम्पादक नहीं रहे बल्कि नफ़े-नुकसान का बही-खाता संभालने वाले एक ऐसे जीव के रूप में परिवर्तित हो गए हैं जिन्हें अपनी कुर्सी बचाए रखने के लिए मुनाफ़े का मंजन घिसते रहना था। नीति साफ़ थी कि अखबार अब उन्हीं ख़बरों को छापेगा जो सनसनी पैदा करे । कला-संस्कृति की ख़बरें कौन पढ़ता है ?
हिन्दुस्तान में रंगमंच का इतिहास सदियों पुराना है पर रंगमंच पर कोई निष्पक्ष और निरंतर पत्रिका नहीं है, जो हैं उनकी स्थिति न होने जैसी ही है। जहाँ तक सवाल साहित्य की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं का है तो सिनेमा पर तो वे बड़े ही गर्व के साथ विशेषांक निकालते हैं किन्तु रंगमंच व अन्य कलाओं के लिए यहाँ अघोषित रूप से प्रवेश निषेध है! वहीं संगीत नाटक अकादमियां न जाने कब की भ्रष्ट, अराजक और दिशाहीन हो चुकीं हैं । यहाँ अब कला-संस्कृति के नाम पर पैसों के बंदरबांट, कमीशनखोरी के सिवा कुछ नहीं होता है ।
यह एक तरफ़ चीज़ों के तकनीकीकरण का दौर है वहीं सामाजिक चिंतन के स्तर पर व्यक्तिवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद, समुदायवाद, आत्ममुग्धता, वैचारिक दिवालियेपन और सामूहिकता के ह्ास का काल भी है । इससे कोई नहीं बचा न नाटक, न मीडिया, न परिवार और न ही समाज। नाटक करने के लिए नाटक करने और उद्देश्यपूर्ण नाटक करने में बहुत फर्क है। ग्रांट और महोत्सव आधारित रंगमंच के वर्तमान युग में गंभीर चिंतन- मनन, आलोचना- समालोचना, बात-विचार, प्रतिबद्धताएं अब रंगकर्मियों के सिर में दर्द पैदा करने लगी हैं। रंगमंच का सरोकार समाज से हो या न हो किन्तु रंगमंच सामाजिक परिघटनाओं से अछूता रह पायेगा ऐसा सोचना मूर्खता है ।
रंगमंच का एक अति महत्वपूर्ण अंग है नाट्यालोचना, जो अमूमन पत्र-पत्रिकाओं के मार्फ़त ही होती है। वर्तमान में नाट्यालोचना की स्थिति ये है कि नाटकों पर आलोचनात्मक टिपण्णी करने पर रंगकर्मियों ने समीक्षक/आलोचक को सैद्धांतिक या शारीरिक हिंसा से साक्षात्कार करवाया और बहिष्कार तक की घोषणा कर दी ! वहीं दूसरा सच ये कि वो लोग भी नाटकों पर अपनी कलम चलाने से बाज नहीं आते जिनको रंगमंच के सैद्धांतिक और व्यावहारिक पहलुओं की उतनी समझ नहीं कि वो रंगमंच की समीक्षा करें। रंगकर्म वर्तमान में घटित होनेवाला कलामाध्यम है, इसलिए नाट्यालोचना की प्रवृति अन्य कला माध्यमों से ज़रा अलग होती है । साहित्य, फिल्म, चित्रकला, मूर्तिकला ऐसी विधाएं हैं जो अपने पाठकों, दर्शकों, रसिकों के लिए सदा उपलब्ध रहतीं हैं। कोई भी इन्हें पढ़, देखकर इनकी समीक्षा से इतर अपने विचार बना सकता है, किन्तु किसी भी नाट्य प्रस्तुति के प्रदर्शन को उसी स्वरुप में चिरकाल तक जारी रखना संभव नहीं। एक ही दल द्वारा किया गया एक से दूसरा प्रदर्शन कम से कम संवेदनात्मक स्तर पर एक दूसरे से अलग होता है। नाट्य-साहित्य, नाट्य प्रदर्शन का स्वरूप ग्रहण करके ही अपनी पूर्णता को प्राप्त होता है। अगर हम पूर्व प्रदर्शित नाटकों के बारे में जानकारी चाहते हैं तो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उस नाटक की समीक्षा और समाचार महत्वपूर्ण माध्यम होते हैं। इसीलिए नाटकों की खबरनवीसी, आलोचना, समीक्षा आदि एक ऐतिहासिक महत्व का काम हो जाता है। किन्तु यथार्थ ये है कि एक ख़ास तरह की मृगतृष्णा और हड़बड़ी की चपेट में आज रंगकर्मी, नाटककार, आलोचक सब हैं ।
हिंदुस्तान एक ऐसा कृषि - प्रधान सांस्कृतिक देश है जिसके हुक्मरानों और आवाम को न तो कृषि की चिंता है ना ही संस्कृति की । जिस देश की जनता अनगिनत मजबूरियों का बोझ लादे केवल वोट डालके अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जाय वहां इससे बेहतर स्थिति की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। औद्योगिक विकास के पागलपन में एग्रीकल्चर (कृषि) की बात तो खींच तानके कभी-कभार हो भी जाती है पर कल्चर (संस्कृति) की बात ? समाज का कोई भी अंग यदि अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वाह नहीं करता तो निरर्थक है। सार्थक मीडिया और सार्थक रंगमंच का मूल काम व्यवसाय से ज़्यादा लोगों की चेतना जागृत और कोमल करने का होता है, यह पारस्परिक सहयोग से चलनेवाली प्रक्रिया है । निरपेक्षता का भाव समर्थन होता है और विरोध भी । इतिहास किसी को माफ नहीं करता, चाहें वो रंगकर्मी हो, समाज हो या मीडियाकर्मी । विकास का आधार केवल आर्थिक नहीं होता बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक भी होता है जिसकी प्रक्रिया अंदर से शुरू होती है, जो विकास बाहर से थोपा जाय वो विनाश, अराजकता और विस्थापन को बढ़ावा देता है । सनद रहे, मुक्ति अकेले में अकेले की नहीं बल्कि सबके साथ होती है।
अखबारों ने इस दौरान अपना स्वरूप बदला और धीरे- धीरे उन खबरों को विलुप्त करते गये जो ‘गंभीर’ की श्रेणी में आती थीं । कला-संस्कृति भी यहाँ से विलुप्त हो गई और किसी ने मीडिया के इस कुकर्म का सामूहिक विरोध नहीं किया! अख़बारों के सम्पादक अब केवल सम्पादक नहीं रहे बल्कि नफे-नुकसान का बही-खाता संभालने वाले एक ऐसे जीव के रूप में परिवर्तित हो गए हैं, जिन्हें अपनी कुर्सी बचाए रखने के लिए मुनाफ़े का मंजन घिसते रहना था। नीति साफ थी कि अखबार अब उन्हीं खबरों को छापेगा जो सनसनी पैदा करे । कला-संस्कृति की खबरें कौन पढ़ता है ?
मीडिया मूलतः दो प्रकार का है - प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक। रंगमंच के बारे में विद्वानों का मत है कि यह भी मूलतः दो प्रकार का ही है शौकिया और व्यावसायिक। जात्रा, पारसी, नौटंकी के साथ ही साथ पारंपरिक रंगमंच लगभग लुप्तप्राय हो चुके हैं। हिंदुस्तान में व्यावसायिक रंगमंच कहाँ और कितना है यह एक शोध का विषय हो सकता है! भारतीय रंगमंच का मूल स्वरुप शौकिया ही है। मीडिया का दायरा जहाँ दिन-प्रतिदिन और ज्यादा विस्तृत हो रहा है वहीं रंगमंच का दायरा तमाम सरकारी सहयोगों के बावजूद दिन-प्रतिदिन सिमट रहा है। कैरियरिज़म के वर्तमान दौर में यह सिमटन वैचारिक, सामाजिक, राजनैतिक, व्यक्तिगत आदि स्तरों पर देखी जा सकती है। रंगमंच क्यों? इस छोटे से सवाल का जवाब आज बड़े-बड़े रंगकर्मियों और समाज के पास नहीं है! शायद इसीलिए नाट्य विद्यालयों से निकलनेवाले छात्र एकाएक बेमकसद होकर खाक छानने को अभिशप्त हैं, क्योंकि रंगमंच करने के पीछे उनका उद्देश्य नाट्य विद्यालय में दाखिला लेना था । दाखिला मिल गया, पास- आउट भी हो गए, अब? बिना मकसद के संचालित होने वाला कलाकर्म हर स्तर पर अराजकता और व्यक्तिवाद को ही बढ़ावा देगा, ये तय है।
रंगमंच एक समय में एक स्थान पर होनेवाला कलाकर्म है और मीडिया एक चीज़ को घर-घर पहुंचानेवाला माध्यम। सूचनाएं, न्यूज़ और व्यूज़ के सहारे चलनेवाला मीडिया रंगमंच से और ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को जोड़ने, इसके दस्तावेज़ीकरण, समीक्षात्मक चिंतन में एक प्रखर भूमिका का निर्वाह कर सकता है। उपरोक्त बातें हम केवल प्रिंट मीडिया के सन्दर्भ में कर रहें हैं क्योंकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने अभी तक रंगमंच को कोई खास जगह नहीं दी है। हिंदुस्तान में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अभी नया है और फिलहाल पेड न्यूज़, ब्रेकिंग न्यूज़ और टीआरपी की चपेट में फंसकर गलाकाट प्रतियोगिता में संलग्न है। हमारे यहाँ लगभग हर चीज़ का एक अलग चैनल है सिवाय पारंपरिक कला और रंगमंच के। वैसे प्रिंट मीडिया की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। विज्ञापनों के साथ ही साथ क्रिकेट और सिनेमा की खबरें हर अखबार को अपने कब्ज़े में जकड़ चुकी है, वहीं नाटकों के मंचन से लेकर प्रतिबंध जैसी ख़बरें बमुश्किल ही यहाँ स्थान बना पातीं हैं ।
मीडिया लोकतंत्र का चौथा खम्भा है लेकिन भारतीय सन्दर्भ में यदि लोकतंत्र की बात करें तो ये साफ़ लगता है कि यह अभी वयस्क नहीं हुआ है बल्कि दिन-प्रतिदिन खतरनाक रूप से अराजक होता जा रहा है । असहमति का स्वर अब विद्रोह माना जाता है । क्रिकेट के एक शतक से एक व्यक्ति लखटकिया नायक हो जाता है वहीं पूरा जीवन कला, साहित्य, रंगमंच की सेवा करनेवाला कलाकार और आम आवाम जीवन की मूलभूत सुविधाओं तक से महरूम है । ऐसी स्थिति में लोकतंत्र के खम्भों की क्या हालत होगी इसका अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है। चंद बड़े नामों को छोड़ दें तो पत्रकारों की स्थिति भी कुछ खास अच्छी नहीं है ।
एक वक्त था जब अधिकतर प्रतिष्ठित अखबारों में साप्ताहिक कला और संस्कृति नामक पन्ना प्रकाशित हुआ करता था, जिनमें नाटकों, गीत, संगीत, नृत्य आदि सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर समीक्षात्मक व सूचनात्मक आलेखों का प्रकाशन होता था। तब समाचार का मूल माध्यम अखबार, रेडियो तथा दूरदर्शन हुआ करता था। फिर विचार के अंत (च्वेज डवकमतदपेउ) की घोषणा के साथ उदारीकरण, निजीकरण और बाज़ारवाद का ऐसा दौर आया और उसी के साथ इलेक्ट्रोनिक मीडिया की कुछ ऐसी आंधी चली कि लगा अखबार के दिन गए ! पर ऐसा हुआ नहीं। हाँ, अखबारों ने इस दौरान अपना स्वरूप बदला और धीरे- धीरे उन खबरों को विलुप्त करते गये जो ‘गंभीर’ की श्रेणी में आती थीं । कला-संस्कृति भी यहाँ से विलुप्त हो गई और किसी ने मीडिया के इस कुकर्म का सामूहिक विरोध नहीं किया! अख़बारों के सम्पादक अब केवल सम्पादक नहीं रहे बल्कि नफ़े-नुकसान का बही-खाता संभालने वाले एक ऐसे जीव के रूप में परिवर्तित हो गए हैं जिन्हें अपनी कुर्सी बचाए रखने के लिए मुनाफ़े का मंजन घिसते रहना था। नीति साफ़ थी कि अखबार अब उन्हीं ख़बरों को छापेगा जो सनसनी पैदा करे । कला-संस्कृति की ख़बरें कौन पढ़ता है ?
हिन्दुस्तान में रंगमंच का इतिहास सदियों पुराना है पर रंगमंच पर कोई निष्पक्ष और निरंतर पत्रिका नहीं है, जो हैं उनकी स्थिति न होने जैसी ही है। जहाँ तक सवाल साहित्य की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं का है तो सिनेमा पर तो वे बड़े ही गर्व के साथ विशेषांक निकालते हैं किन्तु रंगमंच व अन्य कलाओं के लिए यहाँ अघोषित रूप से प्रवेश निषेध है! वहीं संगीत नाटक अकादमियां न जाने कब की भ्रष्ट, अराजक और दिशाहीन हो चुकीं हैं । यहाँ अब कला-संस्कृति के नाम पर पैसों के बंदरबांट, कमीशनखोरी के सिवा कुछ नहीं होता है ।
यह एक तरफ़ चीज़ों के तकनीकीकरण का दौर है वहीं सामाजिक चिंतन के स्तर पर व्यक्तिवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद, समुदायवाद, आत्ममुग्धता, वैचारिक दिवालियेपन और सामूहिकता के ह्ास का काल भी है । इससे कोई नहीं बचा न नाटक, न मीडिया, न परिवार और न ही समाज। नाटक करने के लिए नाटक करने और उद्देश्यपूर्ण नाटक करने में बहुत फर्क है। ग्रांट और महोत्सव आधारित रंगमंच के वर्तमान युग में गंभीर चिंतन- मनन, आलोचना- समालोचना, बात-विचार, प्रतिबद्धताएं अब रंगकर्मियों के सिर में दर्द पैदा करने लगी हैं। रंगमंच का सरोकार समाज से हो या न हो किन्तु रंगमंच सामाजिक परिघटनाओं से अछूता रह पायेगा ऐसा सोचना मूर्खता है ।
रंगमंच का एक अति महत्वपूर्ण अंग है नाट्यालोचना, जो अमूमन पत्र-पत्रिकाओं के मार्फ़त ही होती है। वर्तमान में नाट्यालोचना की स्थिति ये है कि नाटकों पर आलोचनात्मक टिपण्णी करने पर रंगकर्मियों ने समीक्षक/आलोचक को सैद्धांतिक या शारीरिक हिंसा से साक्षात्कार करवाया और बहिष्कार तक की घोषणा कर दी ! वहीं दूसरा सच ये कि वो लोग भी नाटकों पर अपनी कलम चलाने से बाज नहीं आते जिनको रंगमंच के सैद्धांतिक और व्यावहारिक पहलुओं की उतनी समझ नहीं कि वो रंगमंच की समीक्षा करें। रंगकर्म वर्तमान में घटित होनेवाला कलामाध्यम है, इसलिए नाट्यालोचना की प्रवृति अन्य कला माध्यमों से ज़रा अलग होती है । साहित्य, फिल्म, चित्रकला, मूर्तिकला ऐसी विधाएं हैं जो अपने पाठकों, दर्शकों, रसिकों के लिए सदा उपलब्ध रहतीं हैं। कोई भी इन्हें पढ़, देखकर इनकी समीक्षा से इतर अपने विचार बना सकता है, किन्तु किसी भी नाट्य प्रस्तुति के प्रदर्शन को उसी स्वरुप में चिरकाल तक जारी रखना संभव नहीं। एक ही दल द्वारा किया गया एक से दूसरा प्रदर्शन कम से कम संवेदनात्मक स्तर पर एक दूसरे से अलग होता है। नाट्य-साहित्य, नाट्य प्रदर्शन का स्वरूप ग्रहण करके ही अपनी पूर्णता को प्राप्त होता है। अगर हम पूर्व प्रदर्शित नाटकों के बारे में जानकारी चाहते हैं तो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उस नाटक की समीक्षा और समाचार महत्वपूर्ण माध्यम होते हैं। इसीलिए नाटकों की खबरनवीसी, आलोचना, समीक्षा आदि एक ऐतिहासिक महत्व का काम हो जाता है। किन्तु यथार्थ ये है कि एक ख़ास तरह की मृगतृष्णा और हड़बड़ी की चपेट में आज रंगकर्मी, नाटककार, आलोचक सब हैं ।
हिंदुस्तान एक ऐसा कृषि - प्रधान सांस्कृतिक देश है जिसके हुक्मरानों और आवाम को न तो कृषि की चिंता है ना ही संस्कृति की । जिस देश की जनता अनगिनत मजबूरियों का बोझ लादे केवल वोट डालके अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जाय वहां इससे बेहतर स्थिति की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। औद्योगिक विकास के पागलपन में एग्रीकल्चर (कृषि) की बात तो खींच तानके कभी-कभार हो भी जाती है पर कल्चर (संस्कृति) की बात ? समाज का कोई भी अंग यदि अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वाह नहीं करता तो निरर्थक है। सार्थक मीडिया और सार्थक रंगमंच का मूल काम व्यवसाय से ज़्यादा लोगों की चेतना जागृत और कोमल करने का होता है, यह पारस्परिक सहयोग से चलनेवाली प्रक्रिया है । निरपेक्षता का भाव समर्थन होता है और विरोध भी । इतिहास किसी को माफ नहीं करता, चाहें वो रंगकर्मी हो, समाज हो या मीडियाकर्मी । विकास का आधार केवल आर्थिक नहीं होता बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक भी होता है जिसकी प्रक्रिया अंदर से शुरू होती है, जो विकास बाहर से थोपा जाय वो विनाश, अराजकता और विस्थापन को बढ़ावा देता है । सनद रहे, मुक्ति अकेले में अकेले की नहीं बल्कि सबके साथ होती है।
Wednesday, August 28, 2013
Rally against assault on FTII students by ABVP activists
Pune. Following the dastardly assault on FTII students by ABVP
activists, a rally was organized by the students association of FTII from the
institute premises till Omkareshwar bridge , where activist Shri. Narendra
Dhabolkar was brutally murdered. Simultaneous protests/agitations were
organized in Delhi , Hyderabad ,
Ahmedabad and Chandigarh
by students unions, cultural group, civil society members and artists in
solidarity with the students.
In Pune, the solidarity march comprised of the FTII students
association and representatives of the Swatantra theatre group, Pune Municipal
Kamgari Union, AISA and Yugpath along with members of the FTII administration,
faculty and staff.
The Police had denied permission for the proposed rally
citing Sec 37(1)(3).The permission was only granted at the last minute after
more than 250 people gathered at the FTII gate . For an hour before starting
the march the students and the supporters cried slogans, performed songs and
plays in front of the institute gate.
Following the demonstration, the students took out a
peaceful silent march covering their mouth with black ribbons. The placards and
banner held by the students and supporters spoke of their demands and their
disappointments apart from their anger regarding the state of affairs.
The march that began at FTII reached Omkareshwar chowk
cutting through the city. At the Omkareshwar Chowk a minute’s silence was
observed as a mark of respect to the late Dr. Narendra Dabholkar. Mukta
Manohar, General Secretary of Pune Muncipal Kamgari Union addressing the
gathering congratulated the students for taking a bold initiative and asked the
students to keep the fighting spirit alive in them for a lifetime. The General
Secretary of FTII Student’s Association, Vikas Urs addressed the people
gathered and thanked the police for providing support.
Solidarity March in Delhi was
organized by NSD and supported by students of DU, JNU, Jamia Milia Islamia, Ambedkar College . More than 150 people sang
songs, performed plays and shouted slogans as part of their protest. In Hyderabad
Street plays at different plays were performed.
People in Ahmedabad and Chandigarh
met to condemn the incidents and distributed pamphlets.
A charter of demands will be handed over to the Police, re iterating that the flimsy charges slapped against 6 FTII students
be immediately taken back, amongst other demands.
Vikas Urs,
General Secretary,
FTII Students’ Association,
Monday, August 26, 2013
संस्कृति को अपनी राजनीति तय करनी पड़ेगी
इप्टा के महासचिव
जितेन्द्र रघुवंशी का यह साक्षात्कार ‘परिकथा’ के लिए सचिन श्रीवास्तव ने लिया था।
रंगकर्म के साथ जितेन्द्र जी को लंबा सांगठनिक अनुभव भी है। यह साक्षात्कार नाट्य -लेखन से लेकर नाट्य-प्रस्तुति और अंततः दर्शक-संवाद तक रंगकर्म की विभिन्न प्रक्रियाओं तथा उसके सामाजिक सरोकारों की बारीक पड़ताल करता है। एक प्रतिबद्ध रंगकर्मी के लिए नाट्य-चिंतन के जितने पहलू हो सकते हैं, कमोबेश वे सारे आयाम इस साक्षात्कार में देखे जा सकते हैं:
0जितेन्द्र जी, शुरुआत बिल्कुल प्रारंभिक दौर से करते है। पहले थियेटर के प्रति अपने झुकाव- लगाव के बारे में बताइए।
00 हमारा परिवार शुरू से ही इप्टा से जुड़ा रहा। पिताजी राजेन्द्र रघुवंशी इप्टा के संस्थापक सदस्यों में रहे थे। आगरा में उन्होंने बिशन खन्ना जी के साथ मिलकर 1 मई 1942 को आगरा कल्चरल स्क्वाड की स्थापना की। इन्हें प्रेरणा मिली थी बंगाल कल्चरल स्क्वाड से । इसके बाद 1943 में बंबई में इप्टा के पहले सम्मेलन में वे गये थे। सम्मेलन के बाद आगरा में यह संस्था इप्टा की इकाई के रूप में कार्य करने लगी। हमारी माताजी अरुणा रघुवंशी भी रंगमंच से जुड़ी थीं। वे आगरा में थियेटर से जुड़ने वाली पहली महिला थीं। उन्होंने प्रेमचंद की कृति ’गोदान’ पर आधारित नाटक में धनिया की भूमिका निभायी थी। कलकत्ता में 1952 में इसका एक शानदार प्रदर्शन हुआ था। करीब एक लाख लोगों के सामने इस नाटक का मंचन हुआ था। बताते हैं कि उस वक्त मैं डेढ़ साल का था और माँ का रोल आता था तो मुझे किसी और की गोद में दे दिया जाता था। अपना सीन करने के बाद मां फिर गोद में ले लेती थीं। इस तरह पलना-बढ़ना ही रंगमंच पर हुआ। 1957 के दिल्ली सम्मेलन की कुछ धुँधली यादें हैं मुझे । यहाँ नटराज नगरी बसायी गई थी। बचपन तो इसी तरह बीता, रंग संस्कारों के साथ।
0 इस तरह आपका बचपन ही नाटकों गीतों और इप्टा के साथ बीता लेकिन सघन जुड़ाव कब हुआ? कब तय किया कि इसी तरह से दुनिया में रहना है ?
00 सजग रूप से नाटक से जुड़ाव 1968 में इप्टा की 25वीं सालगिरह पर हुआ। इस मौके पर आगरा में एक बड़ा समारोह आयोजित किया गया था। साथ ही कॉलेज के दिनों में नाटक से लगाव गहरा होता गया। चूंकि हमारा पूरा परिवार ही इप्टा से जुड़ा था, छोटे भाई शैलेन्द्र, दिलीप रघुवंशी और बहन ज्योत्स्ना, परिवार की वधुएँ भावना, कुमकुम एवं दामाद कुं. अजीत कुमार सिंह और हम सभी के बच्चे भी इप्टा और रंगकर्म से जुडे़ हैं , इसके अलावा कुछ और सोचना न तो जरूरी था और न हो सका।
0 वह जो दौर था, जिसे पढ़ते, याद करते हुए हम सभी उत्साह से भर जाते हैं। उस दौर के कौन से चेहरे आपको याद आते हैं? वह याद कैसी है?
00 वास्तव में उन लोगों की याद बहुत वेदनादायक है। वे सभी लोग आज भी याद आते ही हैं। मान लीजिए, उस वक्त कोई गीत या नाटक याद आता था तो किसी को भी फोन करके पूछ लेते थे कि फलाँ गीत किसने लिखा है, या फलाँ नाटक किसका है। आज यह स्थिति नहीं है। जो पहला दौर था इप्टा का या यूँ कहें कि रंग आंदोलन का, उसमें विभिन्न टीमों के लोग कला में तो पारंगत थे ही, वे स्पष्ट राजनीतिक समझ भी रखते थे।
0 किस तरह काम करते थे तब?
00 उस वक्त उन लोगों ने आशु नाटक काफी किये। किसी भी जगह जाते थे तो वहाँ की समस्या देखी और बातचीत करके नाटक की स्क्रिप्ट फाइनल की और पात्र बाँट लिये। इसकी शुरुआत तो 43 में ही हो गई थी, लेकिन 50 के दशक में यह उरूज पर था। अन्य इकाइयों ने भी आशु नाटक किये। इसके लिए बड़ा कलेजा चाहिए। आज नये प्रयोग हो रहे हैं। डायलॉग थियेटर, इनविजिबल थियेटर का भी दौर है। तो इन सबके बीच वे लोग याद आते हैं, जो अपने आप में एक संस्था थे और ऐसे लोग एक-दो नहीं थे । हर इकाई में दर्जनों ऐसे लोग थे।
0 उस दौर में तो इप्टा ही रंग आंदोलन का पर्याय था, तो रंगकर्म से कौन से लोग जुड़ रहे थे तब ? उनके बारे में कुछ बताइये।
00 जहाँ तक आगरा का मामला है, तो यहाँ कुछ परिवार थे। वैसे तो पूरे भारत में ही नाट्यकर्म से जुड़े कुछ परिवार रहे हैं। रंगकर्म है भी सामूहिक कार्य, सो सबसे पहले परिवार को ही जोड़ लिया जाता है। तब बिशन खन्ना जी का परिवार था। वह पिताजी के बहुत अच्छे मित्र थे। बाद में वे फिल्मों में भी गये और खूब नाम कमाया। ’गांधी’ फिल्म में भी उन्होंने काम किया। उनके बड़े भाई श्रीकृष्णचंद्र खन्ना भी अच्छे कलाकार थे। इनके पुत्र अजय खन्ना जी (बाद में सितारवादक के रूप में ख्यात) ने 1950 में लिटिल इप्टा की पहली प्रस्तुति ‘डाकघर’ में काम किया। तब आगरा में इप्टा के साथ बच्चों का संगठन लिटिल इप्टा और महिलाओं का संगठन विप्टा ( वीमेन्स इप्टा ) भी कार्य करते थे। रमा जी, श्यामा जी, चंद्रलेखा जी ने विप्टा की पहली प्रस्तुति जो अमृता प्रीतम की कृति ’पांच बहनें’ पर थीं, में काम किया। इसमें सभी स्त्री पात्र थे। मदनसूदन जी का पूरा परिवार ही इप्टा के साथ जुड़ा हुआ था। उन्होंने ‘अदाकार ’ (कलकत्ता), सत्यजित राय के टीवी सीरियलों व रेडियो में भी काम किया, उनका जल्दी निधन हो गया। उनकी माँ व भाई ओम प्रकाश सूदन भी सहयोग करते थे। बहन डॉ निर्मल चोपड़ा थी। सांरगीवादक इस्माइल बेचैन थे। उनके भाई तबला वादक फैयाज खाँ थे। सितारवादक फड़के जी थे। नृत्य में डी.के. राय व बाबूलाल श्रीवास्तव थे। डॉ. सी. बी. सूद का परिवार था। उनकी बेटी भी रंगकर्म से जुड़ी थीं। डॉत्र रामगोपाल सिंह का परिवार भी था। इसके अलावा जसूजा परिवार था। कुमार जसूजा और उनके भाई स्वदेश जसूजा इप्टा के शुरुआती दिनो में काफी सक्रिय रहे थे। इप्टा का जो आठवाँ सम्मेलन दिल्ली में हुआ था, उसमें उनका बडा योगदान था। स्वदेश जी तैयारी के लिए काफी पहले दिल्ली पहुँच गये थे। वे अच्छे अभिनेता तो थे ही, मंच के पीछे के कार्यों में भी पारंगत थे। अमृतलाल नागर जी का परिवार भी था। वे उत्तरप्रदेश इप्टा के अध्यक्ष भी रहे। उनकी बेटी अचला नागर और बेटे शरद नागर ने भी लंबे समय तक काम किया। इसके अलावा लंबी फेहरिस्त है, विभिन्न विधाओं से जुड़े लोगांे की । ये सभी लोग रंगमंच की शास्त्रीय समझ तो रखते ही थे, उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति में भी माहिर थे। उस दौर में ’चौपाल’ नृत्य नाटिका तैयार की गई थी, उसकी प्रस्तुतियों की तो गिनती ही नहीं है। बाहर जाकर भी कई पीढ़ियों ने वह नाटक किया। ‘गठबंधन’ को तो विश्व शांति परिषद को जूलियो क्यूरी पदक मिला। ये सभी अग्रज हमारे विनम्र प्रणाम के हकदार हैं।
0 आज क्या फर्क देखते हैं, उस दौर में जो रंगकर्म हो रहा था और आज का जो रंगकर्म का परिदृश्य है, उसके बीच कौन- सा साम्य या दूरी है ?
00 हम दो दौरों की तुलना करें तो इप्टा की बहुत बड़ी भूमिका देश के सांस्कृतिक परिदृश्य में है, लेकिन इधर मुझे यह देखकर अचंभा होता है कि इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ -दोनों की भूमिका को 50 और 60 के दौर तक ही समाप्त मान लिया जाता है। अभी दिल्ली में एक बड़ा सेमीनार हुआ, उसमें भी चर्चा का केन्द्र यही था। दूरदर्शन पर चर्चाएँ होती हैं, तो विषय होता है कि इप्टा के समाप्त होने के क्या कारण हैं? देखिये, यह एक अणु की तरह है। एटम कभी खत्म नहीं होता। इप्टा के पिछले दौर में जो लोग जुडे़ थे, वे बहुत बडे नाम हैं। उनमें से बहुत से कलाकार महान हैं। उस दौर में संस्कृतिकर्म का एक ही आंदोलन था। उस समय के सभी सोचने-समझने वाले कलाकार इसमें शामिल थे। बाद में आजादी के बाद नये बदलाव आए और कुछ राजनीतिक भटकाव भी आये तो लोगों ने नई राहें चुनीं। उत्पल दत्त जी, शंभू मित्रा जी, हबीब तनवीर साहब जैसे बड़े लोग इनमें शामिल थे।
0 लेकिन ये लोग अलग हुए तो इप्टा पर नकारात्मक फर्क पडा? क्या इससे आंदोलन कमजोर हुआ ?
00 देखिए, ये सभी उसी परंपरा को आगे बढा रहे थे, उनकी राजनीतिक और सामाजिक भूमि घुमा-फिरा कर वही थी। उनकी कला की जो वैचारिक और सौदर्यशास्त्रीय पंरपरा है, वह एक ही है। बाद में इप्टा से अलग होकर जो काम करने लगे, ये सभी उसी धारा के थे। जैसा कि मैंने पहले कहा कि पहले एक ही आंदोलन था, तो सब उसमें शरीक थे, बाद में कुछ अलग राह पर चल पडे़, लेकिन वे सब उसी धारा के हैं। पानी वही है सभी में। एक -दूसरे को वे प्रभावित भी करते हैं। कुल मिलाकर इप्टा का जो आंदोलन था, उसके अकेले हम ही वारिस नहीं हैं, जो इप्टा के नाम से काम कर रहे हैं। आज ‘जन नाट्य मंच’, ‘जन संस्कृति मंच’, ‘नया थियेटर’, ‘एक्ट वन’, ‘एकजुट’, ‘निशान्त’, ‘सहमत’, ‘समुदाय’, ‘रंगकर्मी’ सहित और भी कई समूह हैं, जो वही काम कर रहे हैं।
0 यह जो 60-70 का दौर था, उसमें वैचारिकता ज्यादा थी। नाट्य दल भी थे और उनका समाज और राजनीति में हस्तक्षेप भी अधिक था। आज तक आते -आते यह बदलाव कैसे आया ?
00 इप्टा ने लगभग 60 के दशक तक एक आंदोलन की तरह काम किया। राष्ट्रीय स्तर पर वह एक नहीं रहा, लेकिन अलग-अलग इकाइयां काम करती रहीं। फिर एक लंबा गैप आता है और 1985 में फिर इप्टा नये सिरे से परिदृश्य में आता है। साठोत्तरी मोहभंग के बाद हताशा, मूल्यों का विघटन, एकाकीपन, संत्रास, ऊब जैसे शब्द खूब चर्चा में हैं, लेकिन यह जो 70 का दशक है, यह नई चेतना का समय है। दुनिया भर में नये आंदोलनों का उभार हुआ। फ्रांस से लेकर भारत तक। भारत में नक्सलबाड़ी चेतना आयी। इस नयी चेतना ने इप्टा के पुनर्निर्माण में भूमिका अदा की। इस तरह इप्टा की भूमिका इस दौर में भी रही। 90- 91 के बाद वाम राजनीति पर आघात भी लगा। बाबरी-ध्वंस और सोवियत- संघ का विघटन इसी दौर में हुआ लेकिन इप्टा इस दौर में भी अपना काम करती रही और बेहतर ढंग से कर रही थी। प्रतीक रूप से इप्टा पर डाक टिकट का जारी होना इसका उदाहरण है। इस दौर में सांस्कृतिक यात्राएं निकाली गईं। आगरा से दिल्ली तक, लखनऊ से अयोध्या तक, काशी से मगहर तक। स्वर्ण-जयंती भी मनाई गयी। याद कीजिए कि इस दौर में जो राष्ट्रीय नाट्य उत्सव हुआ उसमें छह में से तीन नाटक इप्टा के थे। तो रचनात्मक ऊर्जा तो इस दौर में भी रही है। 1985 से आज तक इप्टा का राष्ट्रीय संगठन निरंतर सक्रिय है। उसका विस्तार हो रहा है। 24 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में इप्टा की 600 से ज्यादा इकाइयाँ हैं।
0 तब फिर इस तरह के सवाल क्यों खडे हुए हैं, क्या खामी है?
00 देखिए, यह कह सकते हैं कि पुराने दौर में बड़े कलाकार थे, जो अब नहीं हैं। लेकिन संख्यात्मक रूप से आज ज्यादा अच्छी स्थिति है। इसे आप रंग-आंदोलन की तरह देखिए। पहले इप्टा अकेला संगठन था। आज रंग-आंदोलन में कई रंगमंडलों-संगठनों की भूमिका है। हमारे मित्र राकेश कहते हैं कि हबीब जी की जो एक यूनिट थी, उसने अपनी अलग पहचान बनाई और हम इतनी यूनिटों के बावजूद क्या कर रहें हैं, पहचान नहीं बना पा रहे हैं तो मेरा कहना है कि सही नहीं है कि पहचान नहीं बना पा रहे, ऊँचाई पर नहीं पहुँच रहे लेकिन ज्यादा जरूरी है कि जमीन पर ही विस्तार हो रहा है, यह बड़ी बात है -आज बहुत से युवा और बच्चे रंग आंदोलन में शरीक हो रहे हैं।
0 लेकिन वह युवा फिर चला भी जाता है, दूसरी राह पकड लेता है ?
00 देखिए, युवाओं की भागीदारी के कई स्तर हैं। एक तो वह युवा है, जो ग्लैमर के लिए थियेटर में आता है। उसे कहीं और पहुँचना होता है, सो वह ज्यादा दिन तक टिक नहीं पाता है। यह एक हिस्सा है। दूसरा हिस्सा उन युवाओं का है, जो आत्माभिव्यक्ति के लिए थियेटर की तरफ आते हैं।
0यह तो हुई युवाओं की बात । बच्चों पर जो काम हो रहा है अलग-अलग राज्यों में, उसे आप कैसे देखते हैं ?
00 हिन्दुस्तान के अलग-अलग राज्यों में इप्टा का कलात्मक स्तर अलग है। काम करने का ढंग और हस्तक्षेप का तरीका भी अलग है। यह हालिया दृश्य में पूरे रंग-आंदोलन में है। अशोक नगर, आगरा, भिलाई, रायगढ़ इंदौर, रायबरेली आदि इप्टा की यूनिट में बच्चों पर काम हो रहा है। यह बच्चों की नर्सरी है। यहां बच्चों को सिर्फ नाच-गाना ही नहीं सिखाया जा रहा है, बल्कि उन्हें पूरा रचनात्मक संस्कार दिया जा रहा है। देखिए, अगर एक बच्चा थियेटर से जुड़ता है, तो एक पूरा परिवार रंगमंच से जुड़ जाता है। यह महत्वपूर्ण बात है। एक सिलसिला बनता है, जो जारी रहता है। आज आगरा में लिटिल इप्टा की तीसरी पीढ़ी काम कर रही है। इसमें समर्पण है। वे चाहते हैं कि रोज नाटक हो, कोई बातचीत हो, कोई कहानी ही पढ़ी जाय, लेकिन हम नहीं कर पाते । युवाओं का बड़ा हिस्सा थियेटर को व्यक्तित्व निर्माण का अहम हिस्सा मानता है। अब तो मैनेजमेंट के बड़े कॉलेज भी नुक्कड़ नाटक को अपने वार्षिक समारोह का हिस्सा बनाने लगे हैं।
0 लेकिन उसमें से वैचारिक पक्ष तो लगभग गायब ही रहता है?
00 देखिए, प्रसन्ना जी ने इस संदर्भ में बडी अच्छी बात कही है। इससे पहले बिहार के राष्ट्रीय सम्मेलन में भी उन्होंने यह कहा था कि पहले हम क्रांतिकारी नाटक करते थे, अब नाटक करना ही क्रांतिकारी कार्य है। इसी तरह कविता, पेंटिंग, अच्छी किताब की तलाश, यह सब सकारात्मक है। नाटक से व्यक्ति क्रांतिकारी कार्यों में पांरगत होता है, यह ठीक है। यह करना ही बड़ी बात है। आज के दौर में युवा यहाँ अनुशासन देखता है, सामूहिकता देखता है। जब वह अन्य जगहों से थियेटर की तुलना करता है, तो उसका दृष्टिकोण बनता है। आज आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और पूरी हिन्दी पट्टी में ग्रामीण इकाइयां गठित की जा रही हैं, इनमें लोक कलाकारों को जोड़ा जाना बहुत जरूरी है। युवाओं की भागीदारी भी है। अनुभव बताता है कि शहरों में जो युवा निम्न मध्यवर्गीय घरों से आ रहे हैं, वे थियेटर के लिए ज्यादा टिकाऊ हैं कोई कारीगर है, कोई दर्जी है, कम्प्यूटर हार्डवेयर के काम के जानकार हैं। इस तरह के युवाओं की भी इच्छाएं हैं कि टी.वी. और फिल्मी परदे पर आयें, लेकिन वे अपने भीतर कला को जीवित रखते हैं, क्योकि उनके कार्यों में ही कला की परंपरा है।
0 ऐसे युवा तो कस्बों में होंगे, लेकिन वहां उनके सामने आजीवका का संकट है। अगर उसे कोई राह मिलती है, तो वह बड़े शहरों की तरफ भागता है।
00 हमारे पिताजी कहते थे कि थियेटर करना ज्यादा मुश्किल होता जायेगा। रंगकर्मी को अपनी आजीविका के प्रति सावधान रहना होगा। आप देखिए कि पहले एक आदमी घर में कमाने वाला होता था, जरूरतें कम थीं और बाकी लोग अपनी रुचि के अन्य कार्यो को करते रहते थे। आजीविका का संकट नहीं था, आज है, बहुत बडा संकट है, यह व्यावहारिक दिक्कत है। आजीविका के लिए छोटे शहरों से पलायन हो रहा है, इसका अभी कोई इलाज हमारे पास नहीं है। लेकिन अच्छी बात यह है कि इसमें भी कई शहरों की कला बाहर जा रही है, इसे पॉजिटिव ढंग से देखें।
0 तो क्या अभी जो आप कह रहे थे, कस्बों के मध्यवर्गीय युवा कला सहेजने के लिए बेहतर है?
00 बिल्कुल । दर्शक संख्या के उदाहरण से इसे देखिए। शहर में करीब 1000 निमंत्रण पत्र तो आमतौर पर छपाये ही जाते हैं। वे बँटते भी हैं। एस.एम.एस. का जमाना है, तो वह भी सूचना का साधन है और अखबारो में भी नाटक की सूचना छप ही जाती है। इन सबके बावजूद 1000 की क्षमता वाले हॉल में 700-800 दर्शक पहुचते हैं। दिल्ली, आगरा, लखनऊ, मुंबई, पटना, भोपाल जबलपुर जैसे शहरों में यह हालत है, जो सांस्कृतिक रूप से सचेत शहर माने जाते हैं। अन्य शहरों में तो हालत और भी खराब है। छोटे शहरों में यह संख्या बढ जाती है, वहाँ ज्यादा दर्शक पहुचते हैं। गाँवों में नाटक करने पर तो पूरा ग्रामीण समाज ही दर्शक होता है। तो रास्ता तो यही है। कितने रंगमंडल बनेंगे और वे किस तरह से ग्रामीण समाज से, कस्बाई समाज से अपना लगाव बरकरार रखंेगे, यह जरूरी है। वे ही सर्वाइव करेंगे।
0 बाल इप्टा आगरा में लंबे समय से काम कर रही है, इसके अनुभव को ध्यान में रखते हुऐ क्या देश के स्तर पर बाल रंगमंच के लिए कोई योजना है ?
00 भिलाई में 2006 में एक राष्ट्रीय बाल एवं तरुण नाट्य कार्यशाला का आयोजन किया गया था, जिसमें इप्टा और अन्य संगठनों के लोग भी जुटे थे असम से, दक्षिण भारत से भी लोग आये थे। बच्चों का थियेटर अधिक संभावनापूर्ण है। यह दो तरह का है। स्कूलो में भी अब तो थियेटर को पढ़ाया जा रहा है। दो तरह की प्रस्तुतियां हो रहीं हैं। एक तो रिकार्डेड है, जिसमें संवाद, संगीत रिकार्ड कर अभिनय किया जाता ह,ै दूसरे सीधी प्रस्तुतियां है मंच की। अभी हाल ही में भिलाई सम्मेलन में भी इस पर अलग से एक सत्र रखा गया था। योजना है कि इस साल अंतर्राष्ट्रीय बाल रंगमंच दिवस को पूरे देश में मनाया जाय। अलग-अलग इकाइयाँ बच्चों पर काम कर रही हैं। इनके बीच समन्वय का काम भी है। कई इकाइयाँ बच्चों का मेला आयोजित करती हैं। दक्षिण भारत में बाल रंग मेलों की लंबी परंपरा है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का जो पाठयक्रम है, संस्कार रंग टोली का वह अच्छा पाठयक्रम है। एन.सी.ई.आर.टी में भी एक पाठ्यक्रम तैयार हुआ है, कोशिश है कि इसे स्कूली शिक्षा का हिस्सा बनाया जाए जिससे युवाओं के रोजगार के रास्ते भी खुलेंगे और थियेटर भी सम्पन्न होगा।
0 आज नाटक लिखने वालों की कमी है। हाल ही में प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन में भी आपने यह सवाल उठाया था। इस कमी को पूरा करने के लिए कोई कार्य योजना ?
00 हिन्दी में नाटक लिखने वालों की कमी है। असल में नाटक किसी रचनाकार की प्राथमिकता में नहीं है । हिन्दी के एक बडे़ कवि ने मुझसे पूछा कि इप्टा के गीतों की परंपरा रही है लेकिन अब गीत नहीं आ रहे हैं नाटकों में ? मैं कहता हूं कि आज हमारे कितने कवि हैं, जो गीत लिख रहे हैं? इकाइयाँ अपनी जरूरत के हिसाब से खुद ही गीत तैयार करती हैं और उनकी चलताऊ-सी धुन बनाकर नाटक में इस्तेमाल कर लेती हैं। नाटक के लिए सजग रूप से काम करने की जरूरत है, नाट्य लेखन में भी और गीत लेखन में भी। हमारी कोशिश है कि कोई कार्यशाला की जाय जिसमें लेखक और निर्देशक साथ -साथ हों। इस संबंध में देखते हैं कि कब कोई कार्य योजना बन पाती है। जयपुर में एक नाट्यशाला का प्रस्ताव है। नामवर जी और हंगल साहब ने इस बारे में पहल भी की थी। एक पुरस्कार भी घोषित किया गया था, लेकिन हिन्दी में कम नाटक आये और जो आये वे स्तरीय नहीं थे। दक्षिण की भाषाओं में कुछ अच्छे नाटक तैयार हुए हैं। हमें अनुवाद का भी काम करने की जरूरत है। अच्छी कृतियाँ देशकाल की सीमा से परे होती हैं, यह बात कहने की जरूरत ही नहीं है।
0 पिछला पूरा साल देश और विदेश में राजनीतिक और सामाजिक उथल - पुथल से भरा रहा। इस पर कोई महत्वपूर्ण नाटक दिखाई नहीं दिया। अच्छा और लंबे समय तक याद रहने लायक तो बिल्कुल भी नहीं ?
00 करीब तीन-चार दशक नुक्कड़ नाटक खूब चलन में रहा। यह तुरंत हुई घटनाओं पर प्रतिक्रिया की तरह ही था। अब इसे सरकार और कारपोरेट हाउस ने हथिया लिया है। वे अपने प्रोपेगैंडा में नुक्कड़ का इस्तेमाल करते हैं, तो हमारी दिक्कत यह है कि हमारा नुक्कड़ कैसे इनसे अलग हो ? आज नुक्कड़ नाटको पर नए ढंग से बात करने की जरूरत है। नुक्कड़ का मुहावरा बेहद रटा-रटाया हो गया है। एक रात मैंने 25 नुक्कड नाटक देखे और (कहना नहीं चाहिए लेकिन) तकरीबन मेरी तबियत खराब होने की स्थिति में पहुंच गयी। हमारे नुक्कड़ नाटकों में सत्ता का प्रतीक एक दीन -हीन सा पुलिसवाला होता है या जनता होगी तो गरीब है, गिड़गिड़ा रही है या पिट रही है। तो यह स्टीरियो टाइप है, जो शोषण का स्रोत है, जो पूंजीपति हैं, वह नुक्कड़ नाटक में गायब है।
0 तो दिक्कत कहां है?
00 यह बड़े लेखकों का काम है कि वे लिखें, अच्छे नाटक लिखें। आज के रंग आंदोलन को तो पापुलर कल्चर में भी हस्तक्षेप करना चाहिए, कुछ लोग कर रहे हैं यह अच्छी बात है। हमारे जो नजदीकी लेखक हैं, उनसे हम कहते भी हैं कि हमारे लिए कोई नाटक लिखिए। जावेद सिद्दीकी से, अतुल तिवारी से हमने अनुरोध किया है। जावेद अख्तर साहब ने तो एक बार मंच से नाटक लिखने की घोषणा भी की थी। उन्हें वक्त मिलेगा तो लिखेंगे। इनके पास अलग मुहावरा है, जो नाटक के लिए ताजगी देगा। हम तो चाहते हैं कि मिल जुलकर एक नाटक लिखा जाए, जिसकी एक ही दिन पूरे देश में प्रस्तुति भी हो।
0 नाटको के लिए पूंजी की समस्या हमेशा रही है। हमारे देश में कारपोरेट सत्ता और अन्य संस्थान हैं, जो पूंजी उपलब्ध भी कराते हैं लेकिन गंभीर थियेटर करने वाले समूहों को चाहे वह इप्टा हो जसम हो जनम या अन्य समूह, कहाँ तक कदम बढाने चाहिए? खासकर कारपोरेट पूंजी के सवाल पर आप क्या सोचते हैं ?
00 बहुलवाद भारत जैसे देश में हर स्तर पर है। सब काम कर रहे हैं और करते रहें। महिद्रा थियेटर फेस्टिवल हो रहा है। उसकी भी अपनी तरह की जरूरत है। अकादमी से अगर कोई मदद मिलती है और रंगमंडलों को यह ठीक लगे तो वे लें, लेकिन मेरा तो अनुभव यह है कि अकादमियों की खुद की हालत बहुत अच्छी नहीं है। इन्हें जो फंड मिलता है, वह तो तनख्वाह में ही चला जाता है। संगीत नाटक अकादमी अब तो राष्ट्रीय नाट्योत्सव भी नहीं करती, वह तो नेशनल स्कूल आफ ड्रामा करता है। यह बुनियादी तौर पर अकादमी का काम है। राज्यों में हो या राष्ट्रीय स्तर पर, यह अकादमी को ही करना चाहिए। हालांकि इसे सरलीकृत भी नहीं किया जाना चाहिए। महाराष्ट्र में अकादमी की हालत बहुत अच्छी है। जो पैसा देगा वह अपने शर्तें भी रखेगा। मेरा व्यक्तिगत मत है कि रंग आंदोलन संस्थाओं में ज्यादा पैसा नहीं होना चाहिए। व्यवस्था चलती रहे, यही बहुत है। हाँ, बड़े काम करने हैं, जैसे पीपुल्स थियेटर अकादमी या कोई रंगमंडल बनाना है, तो सहयोग लिया जा सकता है। इन मदो में भी संस्कृति मंत्रालय के पैसे का कुछ ही लोग सही इस्तेमाल कर पाते हैं। कभी इस पर भी कैग की रिपोर्ट आये तो पता चलेगा कि क्या काम हुआ है। बड़ी योजनाओं में पैसा लेना कोई बुरा नहीं है, लेकिन सिर्फ इसी का रोना रोते रहना गलत है। नाट्य प्रस्तुति के लिए पैसे की कमी नहीं है, इसके लिए संस्थाओं पर निर्भर भी नहीं रहना चाहिए। यह सामूहिक ढंग से ही हो, तभी अच्छा है।
0 नाटकों की कार्यशालायें उत्साह बढाती हैं। इन्हें आप किस तरह देखते हैं?
00 कार्यशालायें तो जितनी हों उतना अच्छा। प्रशिक्षण और प्रस्तुति, दोनों तरह की कार्यशालाओं की सख्त जरूरत है। यह एक स्वाभाविक मांग होती है कि किसी कार्यशाला का समापन प्रस्तुति से हो। कई बार प्रस्तुति का दबाव कार्यशाला के प्रशिक्षण को प्रभावित करता है। मेरा मानना है कि दोनों पक्षों को एक साथ करना अनिवार्य नहीं होना चाहिए। अमूमन कार्यशालाओं के समापन में नाटकों की ही प्रस्तुतियां होती हैं। जरूरत है कि कविता, कहानी यहां तक कि निबंध की भी एकल या सामूहिक प्रस्तुतियों को तैयार किया जाए, चूंकि हमारा जोर नाटक की सामाजिक भूमिका पर ज्यादा है, जो होना भी चाहिए, इसलिए विचार और कला दोनों का प्रशिक्षण जरूरी है।
0 कार्यशालाओं की रूपरेखा कैसी होनी चाहिए?
00 एक तो हमारे यहाँ कार्यशालाओं की ही कमी है। उस कार्यशाला के लिए जरूरी पाठयक्रम की भी कमी है। आज थियेटर मैनेजमेंट की सख्त जरूरत है। एक प्रोफेशनल थियेटर को कैसे संचालित किया जाए, इसका प्रबंध कोर्स तो फिर भी उपलब्ध है, लेकिन शौकिया और नुक्कड़ के प्रबंधन पर कोई कोर्स नहीं है। इसकी भी जरूरत है। कोई टीम क्यों नये सिरे से सारी परशानियों से निपटे। उसे पुराने सदस्य अपने अनुभव से पहले ही तैयार कर सकते है। इसे मौखिक के बजाय लिखित ढंग से बताया जाए, तो बेहतर होगा।
0 मौजूदा राजनीति और सामाजिक परिदृश्य बहुत उत्साहित करने वाला नहीं है। ऐसे में नाटक करना और फिर समाज और राजनीति में हस्तक्षेप मुश्किल काम है, तो इस लगभग संस्कृति -विरोधी समय में आप सबसे बड़ी चुनौती क्या मानते है।
00 मेरी नजर में आज के समय और समाज में प्रतिरोध की आवाज की कलात्मक अभिव्यक्ति की समस्या है। वह एक बड़ी दिक्कत है। सबसे बड़ी दिक्कत-आज मसलों की वैचारिक पहचान तो सही होती है, लेकिन चीजें इतनी जटिल हैं कि जब उनकी कलात्मक अभिव्यक्ति की बात आती है तो इन दोनों में साम्य दिखायी नहीं देता। एक ही मुद्दे पर प्रेक्षागृहों में सुबह और दोपहर के सत्रों में जो बातचीत होती है, उसमें लगता है कि हम एक सिरे पर पहँुच गये हैं और समस्या की बारीक पड़ताल कर ली है। बात शाम को ठहर जाती है, जब उन्हंी चिंताओं की कलात्मक अभिव्यक्ति सामने आती है। हमारी वैचारिक चिंताओं का कलात्मक रुपांतरण नहीं हो पाता। मैं मानता हूँ कि अगर हमारी प्रस्तुति प्रभावशाली है तो लोग आयेंगे और नाटक देखेगें। तब न तो धन की समस्या होगी और न ही दर्शकों का रोना होगा। कलात्मक अभिव्यक्ति को हम अपनी परंपरा से भी सीख सकते है। पापुलर कल्चर में हस्तक्षेप और उसके टूल के इस्तेमाल की तरफ भी ध्यान देना ही होगा। आज पापुलर कल्चर में जो दिखाया जा रहा है, वह दिखावटी या यूँ कहें कि संग्रहालय की वस्तु सरीखा है। अपनी अभिव्यक्ति के लिए हमें लोक की ओर जाना पडे़गा। रंग आंदोलन के पिछले दौर में वैचारिक और कलात्मक अभिव्यक्ति में समानता थी, जिसके कारण थियेटर लोक तक पहुँच पाया और ज्यादा हस्तक्षेप कर पाया।
0 तो इसका विकल्प क्या है? यह जो वैचारिकी और कला के बीच की दूरी है, इसके बीच क्या कोई सिरा है, जो दोनों को करीब ला सकता है?
00 मुझे आंध्रप्रदेश की याद आती है। वहाँ लोक में थियेटर घुला हुआ है। आन्ध्रप्रदेश की इप्टा की इकाई के कई गीत वहाँ प्रचलित हैं। ‘नामपल्ली स्टेशन गाड़ी’ गाने का तो बाद में फिल्म में भी इस्तेमाल हुआ। एक गायक हैं, आंध्रप्रदेश के बड़े संगीतकार हैं वंदेमातरम श्रीनिवासन। उनका नाम तो श्रीनिवासन है, लेकिन उनका गीत वंदेमातरम इतना प्रचलित हुआ कि उनका नाम ही वंदेमातरम श्रीनिवासन हो गया। तो इन अनुभवों से, एक-दूसरे के काम से हम सीख सकते हैं। केरल पीपुल्स आर्ट क्लब का सबसे चर्चित नाटक है ‘तुमने मुझे कम्युनिस्ट बनाया’ और यह किसी शौकिया समूह ने नहीं किया है। यह एक प्रोफशलन गु्रप का नाटक है। उनके गीतों के कैसेट वहाँ आम दुकानों पर बिकते हैं, जिस तरह हमारे यहाँ देशी-विदेशी सीडी बिकती हैं।
0हिन्दुस्तानी थियेटर और वर्ल्ड थियेटर के बीच आप कैसे समानताऐं देखते है?
00 मैं रंगमंच को मूलतः तीन भाषाओं हिन्दी, रूसी और अंग्रेजी के माध्यम से जानता हूँ। हिन्दी के रंगकर्मी विश्व रंगमच में जो कुछ घटित हो रहा है , उससे प्रभावित हुए हैं, हालाँकि हमारे थियेटर का मुहावरा विश्व रंगमंच से भिन्न है। हमने देखा है कि विश्व रंगमंच के बहुत से श्रेष्ठ निर्देशक समकालीन भारतीय नाट्य पंरपरा की ओर मुखातिब हुए हैं। इधर यह भी हुआ है कि दुनिया के श्रेष्ठ निर्देशकों की पुस्तकें हिन्दी में आई हैं। जहाँ तक तुलना की बात है तो यह एक जटिल काम है। इसमें गुणवत्ता की कसौटी शामिल होती है। इस लिहाज से हमारा रंगमंच ज्यादा शौकिया है और दुनिया का प्रोफेशनल। इसलिए तुलना तो बनती नहीं है। बाकी दुनिया में भी शौकिया थियेटर हैं, लेकिन उसमें भी फर्क है। जैसे पेरिस में दोनों तरह के गु्रप हैं, एक बिल्कुल प्रोफशनल है और कुछ जेनुइन थियेटर समूह हैं। फ्रांस की सरकार वहाँ जेनुइन ग्रुप्स को कुछ सहायता उपलब्ध कराती है। इस तरह हर जगह अलग-अलग परिस्थितियाँ हैं और इसी से काम का ढंग भी भिन्नता लिये हुए है। इस दौर में हमारा जो रंगमंच छोटी जगह पर ,छोटी संस्थाओं के माध्यम से निरंतरता को बचाये रख पायेगा, वही हस्तक्षेप कर पाएगा और बचा भी रह पाएगा । ब्रेख्त की एक कविता के माध्यम से इसे समझा जा सकता है कि हाथी उँचाई से गिरेगा तो मर जायेगा, कुत्ता गिरेगा तो उसे चोट लगेगी और चींटी गिरेगी तो उसे कुछ नहीं होगा। इसे भी प्रसन्नाजी ने हाल के इप्टा के राष्ट्रीय सम्मेलन में उदधृत किया था, तो हमें तो थियेटर में चीटियों पर ज्यादा भरोसा है।
0 नाटक मंडली नाटक और दर्शक के बीच के रिश्ते के आप कैसे देखते है? इनके बीच संवाद की प्रक्रिया सघन हो या फिर नाटक करने के बाद दर्शक को अपने विवेक पर छोड दिया जाए।
00 नाटक और दर्शक के बीच संवाद की कई शैलियां हैं। नाटक के साथ दर्शको का संवाद तो जरूरी है ही। शुद्व मनोरंजन तक हम नाटक को सीमित नहीं कर सकते। ब्रेख्त कहते हैं कि मनोरंजन की सीमा क्या हो, जरा ध्यान कर लीजिए। हमें तो समाज को वैचारिक रूप से जागृत बनाना है। आज थियेटर का काम लोगों के विवेक को जाग्रत करना है और महज विवेक से भी काम नहीं चलेगा। विवेक के साथ संवेदना भी जरूरी है क्योंकि यदि संवेदना ही नहीं होगी तो कोरा विवेक जड़ बना देगा। नाटक की प्रस्तुति के बाद अंतःक्रिया किस रूप में हो, संवाद कैसा हो, यह सवाल महत्वपूर्ण है। नाटक देखने के बाद तो वहाँ अच्छा कहा ही जाता है। शौकिया थियेटर के लिए यह जरूरी भी है। पहली प्रतिक्रिया उत्साह बढ़ाने वाली होती है, लेकिन रंगमंडलों के एक दो साथियों को जिम्मेदारी के साथ यह ध्यान रखना चाहिए कि उनकी प्रस्तुति कैसी थी। देखिए, कलाकार और प्रस्तुति से जुड़े अन्य साथियों को पता होता है कि उसने क्या किया है। वह खुद ही बता सकता है, लेकिन यह जरूरी नहीं है कि शुरुआत में ही टूट पड़ा जाए। मैं खुद भी सजग रूप से अपने नाटकांे के बाद प्रस्तुति पर टिप्पणी करता हूँ, चाहे वह टुकडो में ही आये क्योंकि एक डेढ़- महीने की मेहनत से कोई नाटक किया जाता है तो उस पर सीधा हमला ठीक नहीं। अगर पोस्टमार्टम करना ही हो तो किसी लेख, कविता, नाटक को लेकर चार लोग बैठ जाइए, थोडी देर बाद इसमें कुछ नहीं बचेगा। हाँ, बात होनी चाहिए, इसमें इनकार नहीं है, लेकिन देखना चाहिए कि कलाकार की सीमा क्या है। शौकिया तौर पर काम करने वाले ने रंगमंच की व्यवस्थित पढाई या प्रशिक्षण तो लिया नहीं होता है तो थोड़ा ठहर कर और आराम से बात करनी चाहिए। दर्शकों के साथ भी यही बात लागू होती है। यह ऑब्जेक्टिविटी जीवन के हर क्षेत्र में जरूरी है।
0 अभी आपने कहा कि नाटकों की कमी है और बड़े लेखको को इस ओर आना होगा। क्या यह सभंव है कि जो रंगकर्म कर रहा है, उससे सीधा जुड़ा है, कलाकार या निर्देशक या दीगर काम करने वाले साथी हैं, वे ही नाटक लिखें। उन्हें नाटक की जरूरत और मंच की क्षमता का भी अंदाजा अधिक होता है।
00 मुझे ऐसा लगता है कि हमारे युवा साथी लिखने-पढ़ने के मामले में बडे आलसी हैं। इप्टा के साथी जो प्रशिक्षण के लिए विभिन्न संस्थानों में जा रहे हैं उनसे मैं यही कहता हूं कि प्रशिक्षण तो मिलेगा ही लेकिन जितना भी समय मिले तो कुछ न कुछ पढ़ो और लिखो। कुछ नहीं तो अपने नाट्यानुभव ही लिखो। हांलांकि सामान्यतः कोई लिखता नहीं है। कार्यशालाओं की बात अलग है, जहां प्रकाशन की व्यवस्था होती है। देखिए, दिमाग तो पढ़ने से ही बनेगा और साहित्य की इसमें भूमिका है। अगर कोई यह सोचे की फिल्म या कोई अच्छे टी.वी सीरियल देखकर वह अपनी समझ विकसित कर कर लेगा, तो यह गलत है। एक कलाकार को चीजें अमूर्तन में समझनी होती हैं। टी.वी. फिल्म में अच्छी से अच्छी कृति एक तय फारमेट में सामने आती है, लेकिन किताब से उसके पात्र अमूर्त ढंग से सामने आते हैं। वे सोचने के लिए जरूरी ईंधन मुहैया कराते हैं। हम उनकी विशेषता, रहन-सहन, कपड़े, कद -आदि की सोचते हैं और उन्हें मूर्त रूप देते हैं, तो यह एक कलाकर को परिष्कृत करता है। इसलिए पढ़ने का, साहित्य का कोई विकल्प नहीं है। अब लिखने की ऐसी स्थिति हो, जहां सामान्य लेखन ही नहीं हो रहा है तो नाटक लिखना तो दुष्कर है। हमने कोशिश की थी कि हमारे कुछ साथी नाटक लिखें। और कुछ नहीं तो अपने- अपने काम-धंधे से जुड़ी बातों को ही तरतीब से लिखें। इस तरह चार-पाँच स्क्रिप्ट सामने आयी थीं। उनमें स्थानीय बोली और काम से संबंधित शब्दावली और वस्तुएं भी आयीं जो सामान्य नाटकों में संभव नहीं थे। कुछ की प्रस्तुति भी हुई। लेकिन उसमें दूसरी प्रस्तुति के लिए जरूरी बदलाव मुश्किल काम है।
0 तो नाट्य लेखन के लिए किस पर निर्भर रहा जाए?
00 नाट्य लेखन वही कर पायेगा जिसके पास लेखन के जरूरी औजार होंगे। बिना औजार के कोई रचना अच्छी कैसे हो सकती है। लेखन के औजारों की गैर मौजूदगी में नाट्य गढना संभव नहीं है। यह शिल्पगत कौशल है। प्रेरणा- प्रतिभा अपनी जगह है, लेकिन जरूरी चीज है, लेखन के औजार।
0 आज नाटक अगर लिखा भी जाता है तो वह तेजी से सामने नहीं आ पाता। अखबारों में तो नाटक छापने लायक स्पेस ही नहीं है। थियेटर पर जो पत्रिकाएं हैं, उनमें आप किस तरह की उम्मीद देखते है ?
00 थियेटर की जो पत्रिकाएं निकल रहीं हैं, उनमें नियमितता और निरंतरता की कमी है। यह जरूर है कि इधर कुछ साहित्यिक पत्रिकाओं ने रंगमंच पर कॉलम शुरू किये हैं। कई अन्य पत्रिकायें भी निकल रहीं हैं, लेकिन उनका वितरण और विपणन कमजोर है। रंगकर्म पर कई अच्छी पत्रिकाएं हैं, जिनके बारे में अन्य क्षेत्रो में पता ही नहीं चल पाता। कई बार तो जिस शहर या कस्बे से पत्रिकाएं निकलती हैं, वहीं के लोगों को जानकारी नहीं होती। मेरा मत है कि नाटक की पत्रिकाएं चल सकती हैं, इसकी बहुत ज्यादा जरूरत है। उसके बेचने या चलाने में भी दिक्कत नहीं आयेगी। बस कमर कसने की जरूरत है। एक और पक्ष है, इप्टा की ही कई पत्रिकाएं निकलती और बंद होती रही हैं। 85 के बाद सुब्रतो बनर्जी के संपादन में इप्टा ने ’जननाट्य’ नामक एक पत्रिका निकाली थी, जो बाद में बंद करनी पड़ी। उन्होंने बताया था कि पत्रिका के लिए रिपोर्ट नहीं मिलती थीं। यह बड़ी दिक्कत है। इकाइयों के जो लिखने-पढ़ने वाले लोग हैं, वे प्रस्तुति से भी जुड़े होते हैं, लेकिन रिपोर्ट के मामले में वे गंभीर नहीं है। अमूमन अखबार की कटिंग आदि ही भेज दी जाती है। नाटकों के विश्लेषण की रिपोर्ट में कमी है। पुराने दौर में इप्टा की प्रस्तुतियों का वर्णन ही नहीं होता था, बल्कि एनालिसिस भी होता था।
0 नए माध्यमों जैसे इंटरनेट और उसी के भीतर फेसबुक ब्लॉग आदि पर आप क्या सोचते हैं?
00 इस बीच वेब पर कुछ काम हुआ है। इप्टा की वेबसाईट भी जल्द ही लांच करने की तैयारी है, हो भी जायेगी ( इप्टा की वेबसाइट इस बीच लांच हो चुकी है-सं.)। लेकिन यह हाथी पालने के समान है। उसे खुराक चाहिए जो कंटेंट पर ही निर्भर है। उनका विश्लेषण भी हो, यह भी समान रूप से महत्वपूर्ण है। आज मैं युवाओं को देखता हूँ। फेसबुक जैसे साधनों पर अभी अल्पज्ञान, आत्ममुग्धता है, कुछ अराजकता भी है। इप्टा की ही करीब 20 कम्युनिटी हैं इंटरनेट पर। मैं मान लेता हूँ कि अभी चलने दिया जाए, कभी जरूरत पडी तो फिर बात की जायेगी। इस अराजकता के बीच भी लोग रिएक्ट कर रहे हैं। बात कर रहे हैं, प्रतिक्रियाऐं आ रही हैं। फिल्म और टी.वी. ने समाज और राजनीति पर कई दुष्प्रभाव डाले हैं, लेकिन एक अच्छी बात हुई है कि इसने दर्शक की रुचि को परिष्कृत किया है। अब देखिए कि सीरियल्स में सास-बहू का दौर बीत गया है।
0 आने वाले समय के प्रति आप आशावान हैं, यह हम सभी जानते हैं । आप अपनी पूरी ऊर्जा के साथ रंग-आंदोलन में सक्रिय हैं , ऐसे में आने वाले वक्त को आप कैसे देखते हैं, किस तरफ जाना ठीक होगा?
00 मैं सचमुच आशावादी हूँ। मित्र कहते हैं कि निराशावाद जिस तरह से बीमारी है, उसी तरह अतिरिक्त आशावाद भी एक बीमारी है। हर तरह की कला और साहित्य का स्वर्णकाल होता है, थियेटर का भी बताया जाता है। जो भी हो, हम तो उसमें नहीं थे, हमारा स्वर्णकाल तो यही है। आज हम चुनौतियों को देख रहे हैं, हस्तक्षेप कर रहे हैं। मुश्किलों से जूझ रहे हैं और सपने देख रहे हैं। ये सपने भी अनंत हैं। भविष्य का जो रास्ता है, वह एक नहीं है। सारा थियेटर क्रांतिकारी या सामाजिक हो जायेगा, इसकी उम्मीद बेमानी है। सभी तरह के फूल खिलें, यह हमारी इच्छा है, लेकिन देश की बहुसंख्यक गरीब जनता को संबोधित रंगमंच विकसित करना जरूरी है। हमें थोडे़ लोगों का विशिष्ट रंगमंच नहीं चाहिए। हमें तो ज्यादा न हो, लेकिन अच्छा हो, सुरुचिपूर्ण हो, सार्थक हो ऐसा थियेटर चाहिए। वह थियेटर जो मुश्किल समय में सिर्फ आनंद ही न दे, बल्कि झकझोरे और सोचने के लिए बाध्य करे। यह अकेले रंगमंच का सवाल नहीं है, सभी कलाओं की सामूहिक चिंता यही है।
0 तो क्या कला के माध्यम से ही बदलाव की दिशा तय की जा सकती है?
00 परिवर्तन में कला की एक सीमित भूमिका ही होती है। बड़ी भूमिका तो सामाजिक और राजनीतिक समूहों की है। अगर सामाजिक संगठन कला को, संस्कृति को अपने एजेंडे पर रखते हैं, तभी व्यापक बदलाव आ सकते हैं। संस्कृतिविहीन राजनीति भी बेहतरी का रास्ता तय नहीं कर सकती है। इसी तरह संस्कृति को अपनी राजनीति तय करनी पड़ेगी। यह दोतरफा है। राजनीति से निरपेक्ष संस्कृति या तो अराजकता लायेगी या फिर फासिज्म और अंधविश्वास बढ़ाने वाले बाबा पैदा करेगी। संस्कृतिकर्मी किसी दल से जुडे़ या नहीं, यह उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता है, लेकिन राजनीतिक समझ होना जरूरी है। राजनीति का भी यह रवैया कि लिखना-पढ़ना, नाटक आदि कार्य गैरजरूरी हैं, गलत है। स्वतंत्रता संग्राम और उसके बाद के काल में हमारे नेता अच्छे लेखक भी थे। वे संस्कृति की समझ भी रखते थे । राजनीति को एक संस्कृति देना ही असल में आज एक मुश्किल काम है। हालांकि यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जीवन में आसानी से कुछ मिलता नहीं है। जे.एन.यू. में एक सेमिनार के दौरान मैंने अपने वक्तव्य में कहा था कि क्या आइत्मातोव की कृतियों से यह दुनिया बेहतर हुई? शायद हां, शायद नहीं? लेकिन इतना तय है कि आइत्मातोव की कृतियाँ न होतीं, तो दुनिया आज से बदतर जरूर होती। अगर कृतियां -कलाऐं नहीं होंगी तो हम हताशा के दौर में चले जायेंगे। इससे बचने के लिए साझा प्रयास की जरूरत है।
जितेन्द्र रघुवंशी का यह साक्षात्कार ‘परिकथा’ के लिए सचिन श्रीवास्तव ने लिया था।
रंगकर्म के साथ जितेन्द्र जी को लंबा सांगठनिक अनुभव भी है। यह साक्षात्कार नाट्य -लेखन से लेकर नाट्य-प्रस्तुति और अंततः दर्शक-संवाद तक रंगकर्म की विभिन्न प्रक्रियाओं तथा उसके सामाजिक सरोकारों की बारीक पड़ताल करता है। एक प्रतिबद्ध रंगकर्मी के लिए नाट्य-चिंतन के जितने पहलू हो सकते हैं, कमोबेश वे सारे आयाम इस साक्षात्कार में देखे जा सकते हैं:
0जितेन्द्र जी, शुरुआत बिल्कुल प्रारंभिक दौर से करते है। पहले थियेटर के प्रति अपने झुकाव- लगाव के बारे में बताइए।
00 हमारा परिवार शुरू से ही इप्टा से जुड़ा रहा। पिताजी राजेन्द्र रघुवंशी इप्टा के संस्थापक सदस्यों में रहे थे। आगरा में उन्होंने बिशन खन्ना जी के साथ मिलकर 1 मई 1942 को आगरा कल्चरल स्क्वाड की स्थापना की। इन्हें प्रेरणा मिली थी बंगाल कल्चरल स्क्वाड से । इसके बाद 1943 में बंबई में इप्टा के पहले सम्मेलन में वे गये थे। सम्मेलन के बाद आगरा में यह संस्था इप्टा की इकाई के रूप में कार्य करने लगी। हमारी माताजी अरुणा रघुवंशी भी रंगमंच से जुड़ी थीं। वे आगरा में थियेटर से जुड़ने वाली पहली महिला थीं। उन्होंने प्रेमचंद की कृति ’गोदान’ पर आधारित नाटक में धनिया की भूमिका निभायी थी। कलकत्ता में 1952 में इसका एक शानदार प्रदर्शन हुआ था। करीब एक लाख लोगों के सामने इस नाटक का मंचन हुआ था। बताते हैं कि उस वक्त मैं डेढ़ साल का था और माँ का रोल आता था तो मुझे किसी और की गोद में दे दिया जाता था। अपना सीन करने के बाद मां फिर गोद में ले लेती थीं। इस तरह पलना-बढ़ना ही रंगमंच पर हुआ। 1957 के दिल्ली सम्मेलन की कुछ धुँधली यादें हैं मुझे । यहाँ नटराज नगरी बसायी गई थी। बचपन तो इसी तरह बीता, रंग संस्कारों के साथ।
0 इस तरह आपका बचपन ही नाटकों गीतों और इप्टा के साथ बीता लेकिन सघन जुड़ाव कब हुआ? कब तय किया कि इसी तरह से दुनिया में रहना है ?
00 सजग रूप से नाटक से जुड़ाव 1968 में इप्टा की 25वीं सालगिरह पर हुआ। इस मौके पर आगरा में एक बड़ा समारोह आयोजित किया गया था। साथ ही कॉलेज के दिनों में नाटक से लगाव गहरा होता गया। चूंकि हमारा पूरा परिवार ही इप्टा से जुड़ा था, छोटे भाई शैलेन्द्र, दिलीप रघुवंशी और बहन ज्योत्स्ना, परिवार की वधुएँ भावना, कुमकुम एवं दामाद कुं. अजीत कुमार सिंह और हम सभी के बच्चे भी इप्टा और रंगकर्म से जुडे़ हैं , इसके अलावा कुछ और सोचना न तो जरूरी था और न हो सका।
0 वह जो दौर था, जिसे पढ़ते, याद करते हुए हम सभी उत्साह से भर जाते हैं। उस दौर के कौन से चेहरे आपको याद आते हैं? वह याद कैसी है?
00 वास्तव में उन लोगों की याद बहुत वेदनादायक है। वे सभी लोग आज भी याद आते ही हैं। मान लीजिए, उस वक्त कोई गीत या नाटक याद आता था तो किसी को भी फोन करके पूछ लेते थे कि फलाँ गीत किसने लिखा है, या फलाँ नाटक किसका है। आज यह स्थिति नहीं है। जो पहला दौर था इप्टा का या यूँ कहें कि रंग आंदोलन का, उसमें विभिन्न टीमों के लोग कला में तो पारंगत थे ही, वे स्पष्ट राजनीतिक समझ भी रखते थे।
0 किस तरह काम करते थे तब?
00 उस वक्त उन लोगों ने आशु नाटक काफी किये। किसी भी जगह जाते थे तो वहाँ की समस्या देखी और बातचीत करके नाटक की स्क्रिप्ट फाइनल की और पात्र बाँट लिये। इसकी शुरुआत तो 43 में ही हो गई थी, लेकिन 50 के दशक में यह उरूज पर था। अन्य इकाइयों ने भी आशु नाटक किये। इसके लिए बड़ा कलेजा चाहिए। आज नये प्रयोग हो रहे हैं। डायलॉग थियेटर, इनविजिबल थियेटर का भी दौर है। तो इन सबके बीच वे लोग याद आते हैं, जो अपने आप में एक संस्था थे और ऐसे लोग एक-दो नहीं थे । हर इकाई में दर्जनों ऐसे लोग थे।
0 उस दौर में तो इप्टा ही रंग आंदोलन का पर्याय था, तो रंगकर्म से कौन से लोग जुड़ रहे थे तब ? उनके बारे में कुछ बताइये।
00 जहाँ तक आगरा का मामला है, तो यहाँ कुछ परिवार थे। वैसे तो पूरे भारत में ही नाट्यकर्म से जुड़े कुछ परिवार रहे हैं। रंगकर्म है भी सामूहिक कार्य, सो सबसे पहले परिवार को ही जोड़ लिया जाता है। तब बिशन खन्ना जी का परिवार था। वह पिताजी के बहुत अच्छे मित्र थे। बाद में वे फिल्मों में भी गये और खूब नाम कमाया। ’गांधी’ फिल्म में भी उन्होंने काम किया। उनके बड़े भाई श्रीकृष्णचंद्र खन्ना भी अच्छे कलाकार थे। इनके पुत्र अजय खन्ना जी (बाद में सितारवादक के रूप में ख्यात) ने 1950 में लिटिल इप्टा की पहली प्रस्तुति ‘डाकघर’ में काम किया। तब आगरा में इप्टा के साथ बच्चों का संगठन लिटिल इप्टा और महिलाओं का संगठन विप्टा ( वीमेन्स इप्टा ) भी कार्य करते थे। रमा जी, श्यामा जी, चंद्रलेखा जी ने विप्टा की पहली प्रस्तुति जो अमृता प्रीतम की कृति ’पांच बहनें’ पर थीं, में काम किया। इसमें सभी स्त्री पात्र थे। मदनसूदन जी का पूरा परिवार ही इप्टा के साथ जुड़ा हुआ था। उन्होंने ‘अदाकार ’ (कलकत्ता), सत्यजित राय के टीवी सीरियलों व रेडियो में भी काम किया, उनका जल्दी निधन हो गया। उनकी माँ व भाई ओम प्रकाश सूदन भी सहयोग करते थे। बहन डॉ निर्मल चोपड़ा थी। सांरगीवादक इस्माइल बेचैन थे। उनके भाई तबला वादक फैयाज खाँ थे। सितारवादक फड़के जी थे। नृत्य में डी.के. राय व बाबूलाल श्रीवास्तव थे। डॉ. सी. बी. सूद का परिवार था। उनकी बेटी भी रंगकर्म से जुड़ी थीं। डॉत्र रामगोपाल सिंह का परिवार भी था। इसके अलावा जसूजा परिवार था। कुमार जसूजा और उनके भाई स्वदेश जसूजा इप्टा के शुरुआती दिनो में काफी सक्रिय रहे थे। इप्टा का जो आठवाँ सम्मेलन दिल्ली में हुआ था, उसमें उनका बडा योगदान था। स्वदेश जी तैयारी के लिए काफी पहले दिल्ली पहुँच गये थे। वे अच्छे अभिनेता तो थे ही, मंच के पीछे के कार्यों में भी पारंगत थे। अमृतलाल नागर जी का परिवार भी था। वे उत्तरप्रदेश इप्टा के अध्यक्ष भी रहे। उनकी बेटी अचला नागर और बेटे शरद नागर ने भी लंबे समय तक काम किया। इसके अलावा लंबी फेहरिस्त है, विभिन्न विधाओं से जुड़े लोगांे की । ये सभी लोग रंगमंच की शास्त्रीय समझ तो रखते ही थे, उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति में भी माहिर थे। उस दौर में ’चौपाल’ नृत्य नाटिका तैयार की गई थी, उसकी प्रस्तुतियों की तो गिनती ही नहीं है। बाहर जाकर भी कई पीढ़ियों ने वह नाटक किया। ‘गठबंधन’ को तो विश्व शांति परिषद को जूलियो क्यूरी पदक मिला। ये सभी अग्रज हमारे विनम्र प्रणाम के हकदार हैं।
0 आज क्या फर्क देखते हैं, उस दौर में जो रंगकर्म हो रहा था और आज का जो रंगकर्म का परिदृश्य है, उसके बीच कौन- सा साम्य या दूरी है ?
00 हम दो दौरों की तुलना करें तो इप्टा की बहुत बड़ी भूमिका देश के सांस्कृतिक परिदृश्य में है, लेकिन इधर मुझे यह देखकर अचंभा होता है कि इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ -दोनों की भूमिका को 50 और 60 के दौर तक ही समाप्त मान लिया जाता है। अभी दिल्ली में एक बड़ा सेमीनार हुआ, उसमें भी चर्चा का केन्द्र यही था। दूरदर्शन पर चर्चाएँ होती हैं, तो विषय होता है कि इप्टा के समाप्त होने के क्या कारण हैं? देखिये, यह एक अणु की तरह है। एटम कभी खत्म नहीं होता। इप्टा के पिछले दौर में जो लोग जुडे़ थे, वे बहुत बडे नाम हैं। उनमें से बहुत से कलाकार महान हैं। उस दौर में संस्कृतिकर्म का एक ही आंदोलन था। उस समय के सभी सोचने-समझने वाले कलाकार इसमें शामिल थे। बाद में आजादी के बाद नये बदलाव आए और कुछ राजनीतिक भटकाव भी आये तो लोगों ने नई राहें चुनीं। उत्पल दत्त जी, शंभू मित्रा जी, हबीब तनवीर साहब जैसे बड़े लोग इनमें शामिल थे।
0 लेकिन ये लोग अलग हुए तो इप्टा पर नकारात्मक फर्क पडा? क्या इससे आंदोलन कमजोर हुआ ?
00 देखिए, ये सभी उसी परंपरा को आगे बढा रहे थे, उनकी राजनीतिक और सामाजिक भूमि घुमा-फिरा कर वही थी। उनकी कला की जो वैचारिक और सौदर्यशास्त्रीय पंरपरा है, वह एक ही है। बाद में इप्टा से अलग होकर जो काम करने लगे, ये सभी उसी धारा के थे। जैसा कि मैंने पहले कहा कि पहले एक ही आंदोलन था, तो सब उसमें शरीक थे, बाद में कुछ अलग राह पर चल पडे़, लेकिन वे सब उसी धारा के हैं। पानी वही है सभी में। एक -दूसरे को वे प्रभावित भी करते हैं। कुल मिलाकर इप्टा का जो आंदोलन था, उसके अकेले हम ही वारिस नहीं हैं, जो इप्टा के नाम से काम कर रहे हैं। आज ‘जन नाट्य मंच’, ‘जन संस्कृति मंच’, ‘नया थियेटर’, ‘एक्ट वन’, ‘एकजुट’, ‘निशान्त’, ‘सहमत’, ‘समुदाय’, ‘रंगकर्मी’ सहित और भी कई समूह हैं, जो वही काम कर रहे हैं।
0 यह जो 60-70 का दौर था, उसमें वैचारिकता ज्यादा थी। नाट्य दल भी थे और उनका समाज और राजनीति में हस्तक्षेप भी अधिक था। आज तक आते -आते यह बदलाव कैसे आया ?
00 इप्टा ने लगभग 60 के दशक तक एक आंदोलन की तरह काम किया। राष्ट्रीय स्तर पर वह एक नहीं रहा, लेकिन अलग-अलग इकाइयां काम करती रहीं। फिर एक लंबा गैप आता है और 1985 में फिर इप्टा नये सिरे से परिदृश्य में आता है। साठोत्तरी मोहभंग के बाद हताशा, मूल्यों का विघटन, एकाकीपन, संत्रास, ऊब जैसे शब्द खूब चर्चा में हैं, लेकिन यह जो 70 का दशक है, यह नई चेतना का समय है। दुनिया भर में नये आंदोलनों का उभार हुआ। फ्रांस से लेकर भारत तक। भारत में नक्सलबाड़ी चेतना आयी। इस नयी चेतना ने इप्टा के पुनर्निर्माण में भूमिका अदा की। इस तरह इप्टा की भूमिका इस दौर में भी रही। 90- 91 के बाद वाम राजनीति पर आघात भी लगा। बाबरी-ध्वंस और सोवियत- संघ का विघटन इसी दौर में हुआ लेकिन इप्टा इस दौर में भी अपना काम करती रही और बेहतर ढंग से कर रही थी। प्रतीक रूप से इप्टा पर डाक टिकट का जारी होना इसका उदाहरण है। इस दौर में सांस्कृतिक यात्राएं निकाली गईं। आगरा से दिल्ली तक, लखनऊ से अयोध्या तक, काशी से मगहर तक। स्वर्ण-जयंती भी मनाई गयी। याद कीजिए कि इस दौर में जो राष्ट्रीय नाट्य उत्सव हुआ उसमें छह में से तीन नाटक इप्टा के थे। तो रचनात्मक ऊर्जा तो इस दौर में भी रही है। 1985 से आज तक इप्टा का राष्ट्रीय संगठन निरंतर सक्रिय है। उसका विस्तार हो रहा है। 24 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में इप्टा की 600 से ज्यादा इकाइयाँ हैं।
0 तब फिर इस तरह के सवाल क्यों खडे हुए हैं, क्या खामी है?
00 देखिए, यह कह सकते हैं कि पुराने दौर में बड़े कलाकार थे, जो अब नहीं हैं। लेकिन संख्यात्मक रूप से आज ज्यादा अच्छी स्थिति है। इसे आप रंग-आंदोलन की तरह देखिए। पहले इप्टा अकेला संगठन था। आज रंग-आंदोलन में कई रंगमंडलों-संगठनों की भूमिका है। हमारे मित्र राकेश कहते हैं कि हबीब जी की जो एक यूनिट थी, उसने अपनी अलग पहचान बनाई और हम इतनी यूनिटों के बावजूद क्या कर रहें हैं, पहचान नहीं बना पा रहे हैं तो मेरा कहना है कि सही नहीं है कि पहचान नहीं बना पा रहे, ऊँचाई पर नहीं पहुँच रहे लेकिन ज्यादा जरूरी है कि जमीन पर ही विस्तार हो रहा है, यह बड़ी बात है -आज बहुत से युवा और बच्चे रंग आंदोलन में शरीक हो रहे हैं।
0 लेकिन वह युवा फिर चला भी जाता है, दूसरी राह पकड लेता है ?
00 देखिए, युवाओं की भागीदारी के कई स्तर हैं। एक तो वह युवा है, जो ग्लैमर के लिए थियेटर में आता है। उसे कहीं और पहुँचना होता है, सो वह ज्यादा दिन तक टिक नहीं पाता है। यह एक हिस्सा है। दूसरा हिस्सा उन युवाओं का है, जो आत्माभिव्यक्ति के लिए थियेटर की तरफ आते हैं।
0यह तो हुई युवाओं की बात । बच्चों पर जो काम हो रहा है अलग-अलग राज्यों में, उसे आप कैसे देखते हैं ?
00 हिन्दुस्तान के अलग-अलग राज्यों में इप्टा का कलात्मक स्तर अलग है। काम करने का ढंग और हस्तक्षेप का तरीका भी अलग है। यह हालिया दृश्य में पूरे रंग-आंदोलन में है। अशोक नगर, आगरा, भिलाई, रायगढ़ इंदौर, रायबरेली आदि इप्टा की यूनिट में बच्चों पर काम हो रहा है। यह बच्चों की नर्सरी है। यहां बच्चों को सिर्फ नाच-गाना ही नहीं सिखाया जा रहा है, बल्कि उन्हें पूरा रचनात्मक संस्कार दिया जा रहा है। देखिए, अगर एक बच्चा थियेटर से जुड़ता है, तो एक पूरा परिवार रंगमंच से जुड़ जाता है। यह महत्वपूर्ण बात है। एक सिलसिला बनता है, जो जारी रहता है। आज आगरा में लिटिल इप्टा की तीसरी पीढ़ी काम कर रही है। इसमें समर्पण है। वे चाहते हैं कि रोज नाटक हो, कोई बातचीत हो, कोई कहानी ही पढ़ी जाय, लेकिन हम नहीं कर पाते । युवाओं का बड़ा हिस्सा थियेटर को व्यक्तित्व निर्माण का अहम हिस्सा मानता है। अब तो मैनेजमेंट के बड़े कॉलेज भी नुक्कड़ नाटक को अपने वार्षिक समारोह का हिस्सा बनाने लगे हैं।
0 लेकिन उसमें से वैचारिक पक्ष तो लगभग गायब ही रहता है?
00 देखिए, प्रसन्ना जी ने इस संदर्भ में बडी अच्छी बात कही है। इससे पहले बिहार के राष्ट्रीय सम्मेलन में भी उन्होंने यह कहा था कि पहले हम क्रांतिकारी नाटक करते थे, अब नाटक करना ही क्रांतिकारी कार्य है। इसी तरह कविता, पेंटिंग, अच्छी किताब की तलाश, यह सब सकारात्मक है। नाटक से व्यक्ति क्रांतिकारी कार्यों में पांरगत होता है, यह ठीक है। यह करना ही बड़ी बात है। आज के दौर में युवा यहाँ अनुशासन देखता है, सामूहिकता देखता है। जब वह अन्य जगहों से थियेटर की तुलना करता है, तो उसका दृष्टिकोण बनता है। आज आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और पूरी हिन्दी पट्टी में ग्रामीण इकाइयां गठित की जा रही हैं, इनमें लोक कलाकारों को जोड़ा जाना बहुत जरूरी है। युवाओं की भागीदारी भी है। अनुभव बताता है कि शहरों में जो युवा निम्न मध्यवर्गीय घरों से आ रहे हैं, वे थियेटर के लिए ज्यादा टिकाऊ हैं कोई कारीगर है, कोई दर्जी है, कम्प्यूटर हार्डवेयर के काम के जानकार हैं। इस तरह के युवाओं की भी इच्छाएं हैं कि टी.वी. और फिल्मी परदे पर आयें, लेकिन वे अपने भीतर कला को जीवित रखते हैं, क्योकि उनके कार्यों में ही कला की परंपरा है।
0 ऐसे युवा तो कस्बों में होंगे, लेकिन वहां उनके सामने आजीवका का संकट है। अगर उसे कोई राह मिलती है, तो वह बड़े शहरों की तरफ भागता है।
00 हमारे पिताजी कहते थे कि थियेटर करना ज्यादा मुश्किल होता जायेगा। रंगकर्मी को अपनी आजीविका के प्रति सावधान रहना होगा। आप देखिए कि पहले एक आदमी घर में कमाने वाला होता था, जरूरतें कम थीं और बाकी लोग अपनी रुचि के अन्य कार्यो को करते रहते थे। आजीविका का संकट नहीं था, आज है, बहुत बडा संकट है, यह व्यावहारिक दिक्कत है। आजीविका के लिए छोटे शहरों से पलायन हो रहा है, इसका अभी कोई इलाज हमारे पास नहीं है। लेकिन अच्छी बात यह है कि इसमें भी कई शहरों की कला बाहर जा रही है, इसे पॉजिटिव ढंग से देखें।
0 तो क्या अभी जो आप कह रहे थे, कस्बों के मध्यवर्गीय युवा कला सहेजने के लिए बेहतर है?
00 बिल्कुल । दर्शक संख्या के उदाहरण से इसे देखिए। शहर में करीब 1000 निमंत्रण पत्र तो आमतौर पर छपाये ही जाते हैं। वे बँटते भी हैं। एस.एम.एस. का जमाना है, तो वह भी सूचना का साधन है और अखबारो में भी नाटक की सूचना छप ही जाती है। इन सबके बावजूद 1000 की क्षमता वाले हॉल में 700-800 दर्शक पहुचते हैं। दिल्ली, आगरा, लखनऊ, मुंबई, पटना, भोपाल जबलपुर जैसे शहरों में यह हालत है, जो सांस्कृतिक रूप से सचेत शहर माने जाते हैं। अन्य शहरों में तो हालत और भी खराब है। छोटे शहरों में यह संख्या बढ जाती है, वहाँ ज्यादा दर्शक पहुचते हैं। गाँवों में नाटक करने पर तो पूरा ग्रामीण समाज ही दर्शक होता है। तो रास्ता तो यही है। कितने रंगमंडल बनेंगे और वे किस तरह से ग्रामीण समाज से, कस्बाई समाज से अपना लगाव बरकरार रखंेगे, यह जरूरी है। वे ही सर्वाइव करेंगे।
0 बाल इप्टा आगरा में लंबे समय से काम कर रही है, इसके अनुभव को ध्यान में रखते हुऐ क्या देश के स्तर पर बाल रंगमंच के लिए कोई योजना है ?
00 भिलाई में 2006 में एक राष्ट्रीय बाल एवं तरुण नाट्य कार्यशाला का आयोजन किया गया था, जिसमें इप्टा और अन्य संगठनों के लोग भी जुटे थे असम से, दक्षिण भारत से भी लोग आये थे। बच्चों का थियेटर अधिक संभावनापूर्ण है। यह दो तरह का है। स्कूलो में भी अब तो थियेटर को पढ़ाया जा रहा है। दो तरह की प्रस्तुतियां हो रहीं हैं। एक तो रिकार्डेड है, जिसमें संवाद, संगीत रिकार्ड कर अभिनय किया जाता ह,ै दूसरे सीधी प्रस्तुतियां है मंच की। अभी हाल ही में भिलाई सम्मेलन में भी इस पर अलग से एक सत्र रखा गया था। योजना है कि इस साल अंतर्राष्ट्रीय बाल रंगमंच दिवस को पूरे देश में मनाया जाय। अलग-अलग इकाइयाँ बच्चों पर काम कर रही हैं। इनके बीच समन्वय का काम भी है। कई इकाइयाँ बच्चों का मेला आयोजित करती हैं। दक्षिण भारत में बाल रंग मेलों की लंबी परंपरा है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का जो पाठयक्रम है, संस्कार रंग टोली का वह अच्छा पाठयक्रम है। एन.सी.ई.आर.टी में भी एक पाठ्यक्रम तैयार हुआ है, कोशिश है कि इसे स्कूली शिक्षा का हिस्सा बनाया जाए जिससे युवाओं के रोजगार के रास्ते भी खुलेंगे और थियेटर भी सम्पन्न होगा।
0 आज नाटक लिखने वालों की कमी है। हाल ही में प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन में भी आपने यह सवाल उठाया था। इस कमी को पूरा करने के लिए कोई कार्य योजना ?
00 हिन्दी में नाटक लिखने वालों की कमी है। असल में नाटक किसी रचनाकार की प्राथमिकता में नहीं है । हिन्दी के एक बडे़ कवि ने मुझसे पूछा कि इप्टा के गीतों की परंपरा रही है लेकिन अब गीत नहीं आ रहे हैं नाटकों में ? मैं कहता हूं कि आज हमारे कितने कवि हैं, जो गीत लिख रहे हैं? इकाइयाँ अपनी जरूरत के हिसाब से खुद ही गीत तैयार करती हैं और उनकी चलताऊ-सी धुन बनाकर नाटक में इस्तेमाल कर लेती हैं। नाटक के लिए सजग रूप से काम करने की जरूरत है, नाट्य लेखन में भी और गीत लेखन में भी। हमारी कोशिश है कि कोई कार्यशाला की जाय जिसमें लेखक और निर्देशक साथ -साथ हों। इस संबंध में देखते हैं कि कब कोई कार्य योजना बन पाती है। जयपुर में एक नाट्यशाला का प्रस्ताव है। नामवर जी और हंगल साहब ने इस बारे में पहल भी की थी। एक पुरस्कार भी घोषित किया गया था, लेकिन हिन्दी में कम नाटक आये और जो आये वे स्तरीय नहीं थे। दक्षिण की भाषाओं में कुछ अच्छे नाटक तैयार हुए हैं। हमें अनुवाद का भी काम करने की जरूरत है। अच्छी कृतियाँ देशकाल की सीमा से परे होती हैं, यह बात कहने की जरूरत ही नहीं है।
0 पिछला पूरा साल देश और विदेश में राजनीतिक और सामाजिक उथल - पुथल से भरा रहा। इस पर कोई महत्वपूर्ण नाटक दिखाई नहीं दिया। अच्छा और लंबे समय तक याद रहने लायक तो बिल्कुल भी नहीं ?
00 करीब तीन-चार दशक नुक्कड़ नाटक खूब चलन में रहा। यह तुरंत हुई घटनाओं पर प्रतिक्रिया की तरह ही था। अब इसे सरकार और कारपोरेट हाउस ने हथिया लिया है। वे अपने प्रोपेगैंडा में नुक्कड़ का इस्तेमाल करते हैं, तो हमारी दिक्कत यह है कि हमारा नुक्कड़ कैसे इनसे अलग हो ? आज नुक्कड़ नाटको पर नए ढंग से बात करने की जरूरत है। नुक्कड़ का मुहावरा बेहद रटा-रटाया हो गया है। एक रात मैंने 25 नुक्कड नाटक देखे और (कहना नहीं चाहिए लेकिन) तकरीबन मेरी तबियत खराब होने की स्थिति में पहुंच गयी। हमारे नुक्कड़ नाटकों में सत्ता का प्रतीक एक दीन -हीन सा पुलिसवाला होता है या जनता होगी तो गरीब है, गिड़गिड़ा रही है या पिट रही है। तो यह स्टीरियो टाइप है, जो शोषण का स्रोत है, जो पूंजीपति हैं, वह नुक्कड़ नाटक में गायब है।
0 तो दिक्कत कहां है?
00 यह बड़े लेखकों का काम है कि वे लिखें, अच्छे नाटक लिखें। आज के रंग आंदोलन को तो पापुलर कल्चर में भी हस्तक्षेप करना चाहिए, कुछ लोग कर रहे हैं यह अच्छी बात है। हमारे जो नजदीकी लेखक हैं, उनसे हम कहते भी हैं कि हमारे लिए कोई नाटक लिखिए। जावेद सिद्दीकी से, अतुल तिवारी से हमने अनुरोध किया है। जावेद अख्तर साहब ने तो एक बार मंच से नाटक लिखने की घोषणा भी की थी। उन्हें वक्त मिलेगा तो लिखेंगे। इनके पास अलग मुहावरा है, जो नाटक के लिए ताजगी देगा। हम तो चाहते हैं कि मिल जुलकर एक नाटक लिखा जाए, जिसकी एक ही दिन पूरे देश में प्रस्तुति भी हो।
0 नाटको के लिए पूंजी की समस्या हमेशा रही है। हमारे देश में कारपोरेट सत्ता और अन्य संस्थान हैं, जो पूंजी उपलब्ध भी कराते हैं लेकिन गंभीर थियेटर करने वाले समूहों को चाहे वह इप्टा हो जसम हो जनम या अन्य समूह, कहाँ तक कदम बढाने चाहिए? खासकर कारपोरेट पूंजी के सवाल पर आप क्या सोचते हैं ?
00 बहुलवाद भारत जैसे देश में हर स्तर पर है। सब काम कर रहे हैं और करते रहें। महिद्रा थियेटर फेस्टिवल हो रहा है। उसकी भी अपनी तरह की जरूरत है। अकादमी से अगर कोई मदद मिलती है और रंगमंडलों को यह ठीक लगे तो वे लें, लेकिन मेरा तो अनुभव यह है कि अकादमियों की खुद की हालत बहुत अच्छी नहीं है। इन्हें जो फंड मिलता है, वह तो तनख्वाह में ही चला जाता है। संगीत नाटक अकादमी अब तो राष्ट्रीय नाट्योत्सव भी नहीं करती, वह तो नेशनल स्कूल आफ ड्रामा करता है। यह बुनियादी तौर पर अकादमी का काम है। राज्यों में हो या राष्ट्रीय स्तर पर, यह अकादमी को ही करना चाहिए। हालांकि इसे सरलीकृत भी नहीं किया जाना चाहिए। महाराष्ट्र में अकादमी की हालत बहुत अच्छी है। जो पैसा देगा वह अपने शर्तें भी रखेगा। मेरा व्यक्तिगत मत है कि रंग आंदोलन संस्थाओं में ज्यादा पैसा नहीं होना चाहिए। व्यवस्था चलती रहे, यही बहुत है। हाँ, बड़े काम करने हैं, जैसे पीपुल्स थियेटर अकादमी या कोई रंगमंडल बनाना है, तो सहयोग लिया जा सकता है। इन मदो में भी संस्कृति मंत्रालय के पैसे का कुछ ही लोग सही इस्तेमाल कर पाते हैं। कभी इस पर भी कैग की रिपोर्ट आये तो पता चलेगा कि क्या काम हुआ है। बड़ी योजनाओं में पैसा लेना कोई बुरा नहीं है, लेकिन सिर्फ इसी का रोना रोते रहना गलत है। नाट्य प्रस्तुति के लिए पैसे की कमी नहीं है, इसके लिए संस्थाओं पर निर्भर भी नहीं रहना चाहिए। यह सामूहिक ढंग से ही हो, तभी अच्छा है।
0 नाटकों की कार्यशालायें उत्साह बढाती हैं। इन्हें आप किस तरह देखते हैं?
00 कार्यशालायें तो जितनी हों उतना अच्छा। प्रशिक्षण और प्रस्तुति, दोनों तरह की कार्यशालाओं की सख्त जरूरत है। यह एक स्वाभाविक मांग होती है कि किसी कार्यशाला का समापन प्रस्तुति से हो। कई बार प्रस्तुति का दबाव कार्यशाला के प्रशिक्षण को प्रभावित करता है। मेरा मानना है कि दोनों पक्षों को एक साथ करना अनिवार्य नहीं होना चाहिए। अमूमन कार्यशालाओं के समापन में नाटकों की ही प्रस्तुतियां होती हैं। जरूरत है कि कविता, कहानी यहां तक कि निबंध की भी एकल या सामूहिक प्रस्तुतियों को तैयार किया जाए, चूंकि हमारा जोर नाटक की सामाजिक भूमिका पर ज्यादा है, जो होना भी चाहिए, इसलिए विचार और कला दोनों का प्रशिक्षण जरूरी है।
0 कार्यशालाओं की रूपरेखा कैसी होनी चाहिए?
00 एक तो हमारे यहाँ कार्यशालाओं की ही कमी है। उस कार्यशाला के लिए जरूरी पाठयक्रम की भी कमी है। आज थियेटर मैनेजमेंट की सख्त जरूरत है। एक प्रोफेशनल थियेटर को कैसे संचालित किया जाए, इसका प्रबंध कोर्स तो फिर भी उपलब्ध है, लेकिन शौकिया और नुक्कड़ के प्रबंधन पर कोई कोर्स नहीं है। इसकी भी जरूरत है। कोई टीम क्यों नये सिरे से सारी परशानियों से निपटे। उसे पुराने सदस्य अपने अनुभव से पहले ही तैयार कर सकते है। इसे मौखिक के बजाय लिखित ढंग से बताया जाए, तो बेहतर होगा।
0 मौजूदा राजनीति और सामाजिक परिदृश्य बहुत उत्साहित करने वाला नहीं है। ऐसे में नाटक करना और फिर समाज और राजनीति में हस्तक्षेप मुश्किल काम है, तो इस लगभग संस्कृति -विरोधी समय में आप सबसे बड़ी चुनौती क्या मानते है।
00 मेरी नजर में आज के समय और समाज में प्रतिरोध की आवाज की कलात्मक अभिव्यक्ति की समस्या है। वह एक बड़ी दिक्कत है। सबसे बड़ी दिक्कत-आज मसलों की वैचारिक पहचान तो सही होती है, लेकिन चीजें इतनी जटिल हैं कि जब उनकी कलात्मक अभिव्यक्ति की बात आती है तो इन दोनों में साम्य दिखायी नहीं देता। एक ही मुद्दे पर प्रेक्षागृहों में सुबह और दोपहर के सत्रों में जो बातचीत होती है, उसमें लगता है कि हम एक सिरे पर पहँुच गये हैं और समस्या की बारीक पड़ताल कर ली है। बात शाम को ठहर जाती है, जब उन्हंी चिंताओं की कलात्मक अभिव्यक्ति सामने आती है। हमारी वैचारिक चिंताओं का कलात्मक रुपांतरण नहीं हो पाता। मैं मानता हूँ कि अगर हमारी प्रस्तुति प्रभावशाली है तो लोग आयेंगे और नाटक देखेगें। तब न तो धन की समस्या होगी और न ही दर्शकों का रोना होगा। कलात्मक अभिव्यक्ति को हम अपनी परंपरा से भी सीख सकते है। पापुलर कल्चर में हस्तक्षेप और उसके टूल के इस्तेमाल की तरफ भी ध्यान देना ही होगा। आज पापुलर कल्चर में जो दिखाया जा रहा है, वह दिखावटी या यूँ कहें कि संग्रहालय की वस्तु सरीखा है। अपनी अभिव्यक्ति के लिए हमें लोक की ओर जाना पडे़गा। रंग आंदोलन के पिछले दौर में वैचारिक और कलात्मक अभिव्यक्ति में समानता थी, जिसके कारण थियेटर लोक तक पहुँच पाया और ज्यादा हस्तक्षेप कर पाया।
0 तो इसका विकल्प क्या है? यह जो वैचारिकी और कला के बीच की दूरी है, इसके बीच क्या कोई सिरा है, जो दोनों को करीब ला सकता है?
00 मुझे आंध्रप्रदेश की याद आती है। वहाँ लोक में थियेटर घुला हुआ है। आन्ध्रप्रदेश की इप्टा की इकाई के कई गीत वहाँ प्रचलित हैं। ‘नामपल्ली स्टेशन गाड़ी’ गाने का तो बाद में फिल्म में भी इस्तेमाल हुआ। एक गायक हैं, आंध्रप्रदेश के बड़े संगीतकार हैं वंदेमातरम श्रीनिवासन। उनका नाम तो श्रीनिवासन है, लेकिन उनका गीत वंदेमातरम इतना प्रचलित हुआ कि उनका नाम ही वंदेमातरम श्रीनिवासन हो गया। तो इन अनुभवों से, एक-दूसरे के काम से हम सीख सकते हैं। केरल पीपुल्स आर्ट क्लब का सबसे चर्चित नाटक है ‘तुमने मुझे कम्युनिस्ट बनाया’ और यह किसी शौकिया समूह ने नहीं किया है। यह एक प्रोफशलन गु्रप का नाटक है। उनके गीतों के कैसेट वहाँ आम दुकानों पर बिकते हैं, जिस तरह हमारे यहाँ देशी-विदेशी सीडी बिकती हैं।
0हिन्दुस्तानी थियेटर और वर्ल्ड थियेटर के बीच आप कैसे समानताऐं देखते है?
00 मैं रंगमंच को मूलतः तीन भाषाओं हिन्दी, रूसी और अंग्रेजी के माध्यम से जानता हूँ। हिन्दी के रंगकर्मी विश्व रंगमच में जो कुछ घटित हो रहा है , उससे प्रभावित हुए हैं, हालाँकि हमारे थियेटर का मुहावरा विश्व रंगमंच से भिन्न है। हमने देखा है कि विश्व रंगमंच के बहुत से श्रेष्ठ निर्देशक समकालीन भारतीय नाट्य पंरपरा की ओर मुखातिब हुए हैं। इधर यह भी हुआ है कि दुनिया के श्रेष्ठ निर्देशकों की पुस्तकें हिन्दी में आई हैं। जहाँ तक तुलना की बात है तो यह एक जटिल काम है। इसमें गुणवत्ता की कसौटी शामिल होती है। इस लिहाज से हमारा रंगमंच ज्यादा शौकिया है और दुनिया का प्रोफेशनल। इसलिए तुलना तो बनती नहीं है। बाकी दुनिया में भी शौकिया थियेटर हैं, लेकिन उसमें भी फर्क है। जैसे पेरिस में दोनों तरह के गु्रप हैं, एक बिल्कुल प्रोफशनल है और कुछ जेनुइन थियेटर समूह हैं। फ्रांस की सरकार वहाँ जेनुइन ग्रुप्स को कुछ सहायता उपलब्ध कराती है। इस तरह हर जगह अलग-अलग परिस्थितियाँ हैं और इसी से काम का ढंग भी भिन्नता लिये हुए है। इस दौर में हमारा जो रंगमंच छोटी जगह पर ,छोटी संस्थाओं के माध्यम से निरंतरता को बचाये रख पायेगा, वही हस्तक्षेप कर पाएगा और बचा भी रह पाएगा । ब्रेख्त की एक कविता के माध्यम से इसे समझा जा सकता है कि हाथी उँचाई से गिरेगा तो मर जायेगा, कुत्ता गिरेगा तो उसे चोट लगेगी और चींटी गिरेगी तो उसे कुछ नहीं होगा। इसे भी प्रसन्नाजी ने हाल के इप्टा के राष्ट्रीय सम्मेलन में उदधृत किया था, तो हमें तो थियेटर में चीटियों पर ज्यादा भरोसा है।
0 नाटक मंडली नाटक और दर्शक के बीच के रिश्ते के आप कैसे देखते है? इनके बीच संवाद की प्रक्रिया सघन हो या फिर नाटक करने के बाद दर्शक को अपने विवेक पर छोड दिया जाए।
00 नाटक और दर्शक के बीच संवाद की कई शैलियां हैं। नाटक के साथ दर्शको का संवाद तो जरूरी है ही। शुद्व मनोरंजन तक हम नाटक को सीमित नहीं कर सकते। ब्रेख्त कहते हैं कि मनोरंजन की सीमा क्या हो, जरा ध्यान कर लीजिए। हमें तो समाज को वैचारिक रूप से जागृत बनाना है। आज थियेटर का काम लोगों के विवेक को जाग्रत करना है और महज विवेक से भी काम नहीं चलेगा। विवेक के साथ संवेदना भी जरूरी है क्योंकि यदि संवेदना ही नहीं होगी तो कोरा विवेक जड़ बना देगा। नाटक की प्रस्तुति के बाद अंतःक्रिया किस रूप में हो, संवाद कैसा हो, यह सवाल महत्वपूर्ण है। नाटक देखने के बाद तो वहाँ अच्छा कहा ही जाता है। शौकिया थियेटर के लिए यह जरूरी भी है। पहली प्रतिक्रिया उत्साह बढ़ाने वाली होती है, लेकिन रंगमंडलों के एक दो साथियों को जिम्मेदारी के साथ यह ध्यान रखना चाहिए कि उनकी प्रस्तुति कैसी थी। देखिए, कलाकार और प्रस्तुति से जुड़े अन्य साथियों को पता होता है कि उसने क्या किया है। वह खुद ही बता सकता है, लेकिन यह जरूरी नहीं है कि शुरुआत में ही टूट पड़ा जाए। मैं खुद भी सजग रूप से अपने नाटकांे के बाद प्रस्तुति पर टिप्पणी करता हूँ, चाहे वह टुकडो में ही आये क्योंकि एक डेढ़- महीने की मेहनत से कोई नाटक किया जाता है तो उस पर सीधा हमला ठीक नहीं। अगर पोस्टमार्टम करना ही हो तो किसी लेख, कविता, नाटक को लेकर चार लोग बैठ जाइए, थोडी देर बाद इसमें कुछ नहीं बचेगा। हाँ, बात होनी चाहिए, इसमें इनकार नहीं है, लेकिन देखना चाहिए कि कलाकार की सीमा क्या है। शौकिया तौर पर काम करने वाले ने रंगमंच की व्यवस्थित पढाई या प्रशिक्षण तो लिया नहीं होता है तो थोड़ा ठहर कर और आराम से बात करनी चाहिए। दर्शकों के साथ भी यही बात लागू होती है। यह ऑब्जेक्टिविटी जीवन के हर क्षेत्र में जरूरी है।
0 अभी आपने कहा कि नाटकों की कमी है और बड़े लेखको को इस ओर आना होगा। क्या यह सभंव है कि जो रंगकर्म कर रहा है, उससे सीधा जुड़ा है, कलाकार या निर्देशक या दीगर काम करने वाले साथी हैं, वे ही नाटक लिखें। उन्हें नाटक की जरूरत और मंच की क्षमता का भी अंदाजा अधिक होता है।
00 मुझे ऐसा लगता है कि हमारे युवा साथी लिखने-पढ़ने के मामले में बडे आलसी हैं। इप्टा के साथी जो प्रशिक्षण के लिए विभिन्न संस्थानों में जा रहे हैं उनसे मैं यही कहता हूं कि प्रशिक्षण तो मिलेगा ही लेकिन जितना भी समय मिले तो कुछ न कुछ पढ़ो और लिखो। कुछ नहीं तो अपने नाट्यानुभव ही लिखो। हांलांकि सामान्यतः कोई लिखता नहीं है। कार्यशालाओं की बात अलग है, जहां प्रकाशन की व्यवस्था होती है। देखिए, दिमाग तो पढ़ने से ही बनेगा और साहित्य की इसमें भूमिका है। अगर कोई यह सोचे की फिल्म या कोई अच्छे टी.वी सीरियल देखकर वह अपनी समझ विकसित कर कर लेगा, तो यह गलत है। एक कलाकार को चीजें अमूर्तन में समझनी होती हैं। टी.वी. फिल्म में अच्छी से अच्छी कृति एक तय फारमेट में सामने आती है, लेकिन किताब से उसके पात्र अमूर्त ढंग से सामने आते हैं। वे सोचने के लिए जरूरी ईंधन मुहैया कराते हैं। हम उनकी विशेषता, रहन-सहन, कपड़े, कद -आदि की सोचते हैं और उन्हें मूर्त रूप देते हैं, तो यह एक कलाकर को परिष्कृत करता है। इसलिए पढ़ने का, साहित्य का कोई विकल्प नहीं है। अब लिखने की ऐसी स्थिति हो, जहां सामान्य लेखन ही नहीं हो रहा है तो नाटक लिखना तो दुष्कर है। हमने कोशिश की थी कि हमारे कुछ साथी नाटक लिखें। और कुछ नहीं तो अपने- अपने काम-धंधे से जुड़ी बातों को ही तरतीब से लिखें। इस तरह चार-पाँच स्क्रिप्ट सामने आयी थीं। उनमें स्थानीय बोली और काम से संबंधित शब्दावली और वस्तुएं भी आयीं जो सामान्य नाटकों में संभव नहीं थे। कुछ की प्रस्तुति भी हुई। लेकिन उसमें दूसरी प्रस्तुति के लिए जरूरी बदलाव मुश्किल काम है।
0 तो नाट्य लेखन के लिए किस पर निर्भर रहा जाए?
00 नाट्य लेखन वही कर पायेगा जिसके पास लेखन के जरूरी औजार होंगे। बिना औजार के कोई रचना अच्छी कैसे हो सकती है। लेखन के औजारों की गैर मौजूदगी में नाट्य गढना संभव नहीं है। यह शिल्पगत कौशल है। प्रेरणा- प्रतिभा अपनी जगह है, लेकिन जरूरी चीज है, लेखन के औजार।
0 आज नाटक अगर लिखा भी जाता है तो वह तेजी से सामने नहीं आ पाता। अखबारों में तो नाटक छापने लायक स्पेस ही नहीं है। थियेटर पर जो पत्रिकाएं हैं, उनमें आप किस तरह की उम्मीद देखते है ?
00 थियेटर की जो पत्रिकाएं निकल रहीं हैं, उनमें नियमितता और निरंतरता की कमी है। यह जरूर है कि इधर कुछ साहित्यिक पत्रिकाओं ने रंगमंच पर कॉलम शुरू किये हैं। कई अन्य पत्रिकायें भी निकल रहीं हैं, लेकिन उनका वितरण और विपणन कमजोर है। रंगकर्म पर कई अच्छी पत्रिकाएं हैं, जिनके बारे में अन्य क्षेत्रो में पता ही नहीं चल पाता। कई बार तो जिस शहर या कस्बे से पत्रिकाएं निकलती हैं, वहीं के लोगों को जानकारी नहीं होती। मेरा मत है कि नाटक की पत्रिकाएं चल सकती हैं, इसकी बहुत ज्यादा जरूरत है। उसके बेचने या चलाने में भी दिक्कत नहीं आयेगी। बस कमर कसने की जरूरत है। एक और पक्ष है, इप्टा की ही कई पत्रिकाएं निकलती और बंद होती रही हैं। 85 के बाद सुब्रतो बनर्जी के संपादन में इप्टा ने ’जननाट्य’ नामक एक पत्रिका निकाली थी, जो बाद में बंद करनी पड़ी। उन्होंने बताया था कि पत्रिका के लिए रिपोर्ट नहीं मिलती थीं। यह बड़ी दिक्कत है। इकाइयों के जो लिखने-पढ़ने वाले लोग हैं, वे प्रस्तुति से भी जुड़े होते हैं, लेकिन रिपोर्ट के मामले में वे गंभीर नहीं है। अमूमन अखबार की कटिंग आदि ही भेज दी जाती है। नाटकों के विश्लेषण की रिपोर्ट में कमी है। पुराने दौर में इप्टा की प्रस्तुतियों का वर्णन ही नहीं होता था, बल्कि एनालिसिस भी होता था।
0 नए माध्यमों जैसे इंटरनेट और उसी के भीतर फेसबुक ब्लॉग आदि पर आप क्या सोचते हैं?
00 इस बीच वेब पर कुछ काम हुआ है। इप्टा की वेबसाईट भी जल्द ही लांच करने की तैयारी है, हो भी जायेगी ( इप्टा की वेबसाइट इस बीच लांच हो चुकी है-सं.)। लेकिन यह हाथी पालने के समान है। उसे खुराक चाहिए जो कंटेंट पर ही निर्भर है। उनका विश्लेषण भी हो, यह भी समान रूप से महत्वपूर्ण है। आज मैं युवाओं को देखता हूँ। फेसबुक जैसे साधनों पर अभी अल्पज्ञान, आत्ममुग्धता है, कुछ अराजकता भी है। इप्टा की ही करीब 20 कम्युनिटी हैं इंटरनेट पर। मैं मान लेता हूँ कि अभी चलने दिया जाए, कभी जरूरत पडी तो फिर बात की जायेगी। इस अराजकता के बीच भी लोग रिएक्ट कर रहे हैं। बात कर रहे हैं, प्रतिक्रियाऐं आ रही हैं। फिल्म और टी.वी. ने समाज और राजनीति पर कई दुष्प्रभाव डाले हैं, लेकिन एक अच्छी बात हुई है कि इसने दर्शक की रुचि को परिष्कृत किया है। अब देखिए कि सीरियल्स में सास-बहू का दौर बीत गया है।
0 आने वाले समय के प्रति आप आशावान हैं, यह हम सभी जानते हैं । आप अपनी पूरी ऊर्जा के साथ रंग-आंदोलन में सक्रिय हैं , ऐसे में आने वाले वक्त को आप कैसे देखते हैं, किस तरफ जाना ठीक होगा?
00 मैं सचमुच आशावादी हूँ। मित्र कहते हैं कि निराशावाद जिस तरह से बीमारी है, उसी तरह अतिरिक्त आशावाद भी एक बीमारी है। हर तरह की कला और साहित्य का स्वर्णकाल होता है, थियेटर का भी बताया जाता है। जो भी हो, हम तो उसमें नहीं थे, हमारा स्वर्णकाल तो यही है। आज हम चुनौतियों को देख रहे हैं, हस्तक्षेप कर रहे हैं। मुश्किलों से जूझ रहे हैं और सपने देख रहे हैं। ये सपने भी अनंत हैं। भविष्य का जो रास्ता है, वह एक नहीं है। सारा थियेटर क्रांतिकारी या सामाजिक हो जायेगा, इसकी उम्मीद बेमानी है। सभी तरह के फूल खिलें, यह हमारी इच्छा है, लेकिन देश की बहुसंख्यक गरीब जनता को संबोधित रंगमंच विकसित करना जरूरी है। हमें थोडे़ लोगों का विशिष्ट रंगमंच नहीं चाहिए। हमें तो ज्यादा न हो, लेकिन अच्छा हो, सुरुचिपूर्ण हो, सार्थक हो ऐसा थियेटर चाहिए। वह थियेटर जो मुश्किल समय में सिर्फ आनंद ही न दे, बल्कि झकझोरे और सोचने के लिए बाध्य करे। यह अकेले रंगमंच का सवाल नहीं है, सभी कलाओं की सामूहिक चिंता यही है।
0 तो क्या कला के माध्यम से ही बदलाव की दिशा तय की जा सकती है?
00 परिवर्तन में कला की एक सीमित भूमिका ही होती है। बड़ी भूमिका तो सामाजिक और राजनीतिक समूहों की है। अगर सामाजिक संगठन कला को, संस्कृति को अपने एजेंडे पर रखते हैं, तभी व्यापक बदलाव आ सकते हैं। संस्कृतिविहीन राजनीति भी बेहतरी का रास्ता तय नहीं कर सकती है। इसी तरह संस्कृति को अपनी राजनीति तय करनी पड़ेगी। यह दोतरफा है। राजनीति से निरपेक्ष संस्कृति या तो अराजकता लायेगी या फिर फासिज्म और अंधविश्वास बढ़ाने वाले बाबा पैदा करेगी। संस्कृतिकर्मी किसी दल से जुडे़ या नहीं, यह उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता है, लेकिन राजनीतिक समझ होना जरूरी है। राजनीति का भी यह रवैया कि लिखना-पढ़ना, नाटक आदि कार्य गैरजरूरी हैं, गलत है। स्वतंत्रता संग्राम और उसके बाद के काल में हमारे नेता अच्छे लेखक भी थे। वे संस्कृति की समझ भी रखते थे । राजनीति को एक संस्कृति देना ही असल में आज एक मुश्किल काम है। हालांकि यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जीवन में आसानी से कुछ मिलता नहीं है। जे.एन.यू. में एक सेमिनार के दौरान मैंने अपने वक्तव्य में कहा था कि क्या आइत्मातोव की कृतियों से यह दुनिया बेहतर हुई? शायद हां, शायद नहीं? लेकिन इतना तय है कि आइत्मातोव की कृतियाँ न होतीं, तो दुनिया आज से बदतर जरूर होती। अगर कृतियां -कलाऐं नहीं होंगी तो हम हताशा के दौर में चले जायेंगे। इससे बचने के लिए साझा प्रयास की जरूरत है।
Saturday, August 24, 2013
रंगकर्म को अपनी आलोचना खुद गढ़नी होगी
-संजय पराते
रंगकर्म भी इसी मीडिया में अपनी जगह तलाश रहा है, लेकिन उसकी यह तलाश इसलिए पूरी नहीं हो रही है, क्योंकि अभी रंगकर्म का कार्पोरेटीकरण उतना नहीं हुआ है। रंगकर्म आज भी जनकर्म से जुड़ा है। जब तक वह जनता से जुड़ा रहेगा, कार्पोरेट नियंत्रित मीडिया में उसको स्थान नहीं मिलेगा। इसीलिए रंगकर्म को अपनी आलोचना खुद गढ़नी होगी।
1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के साथ देश में विकासमान स्वाधीनता आंदोलन के संघर्ष में सांस्कृतिक क्षेत्र में जिस संगठित वामपंथी हस्तक्षेप की शुरूआत हुई थी, मुंबई में 25 मई, 1943 को इप्टा (इंडियन पीपुल्स् थियेटर एसोसियेशन) की स्थापना उसका चरमोत्कर्ष था। इसने देशवासियों की स्वतंत्रता, सांस्कृतिक प्रगति और आर्थिक न्याय की आकांक्षा को मूर्त रूप दिया तथा कला के क्षेत्र को विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के दायरे से बाहर निकालकर मेहनतकशों का, मेहनतकशों के लिए जन-अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। संस्कृति के क्षेत्र में इस वामपंथी हस्तक्षेप ने सांस्कृतिक कायापलट का काम किया। इस धारा ने न केवल परंपरागत कला रूपों की चुनौती दी तथा समाज की पूंजीवादी-सामंती विचार-दृष्टियों को बदला, बल्कि इस दायरे से बंधे कला सर्जकों को भी बदला। इस तरह जो सृजनशीलता सामने आयी, वह अपेक्षाकृत उन्नत संस्कृति की वाहक थी और वर्गीय संस्कृति की पक्षधर भी। इस सृजनशीलता ने मेहनतकशों की संस्कृति को रचने-गढ़ने का काम किया और स्वाधीनता संघर्ष में वामपंथी राजनीति को आम जनता के जेहन में स्थापित करने का काम भी। इस दौर में राजनीति और संस्कृति कर्म एक दूसरे की सहचर थी। इस संस्कृति कर्म ने ‘कला, कला के लिए’ के कलावादी नारे को ठुकराया और ‘कला, जनता के लिए’ के जनवादी नारे को स्थापित किया। इस विशाल सांस्कृतिक आंदोलन ने आम जनता को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ सांस्कृतिक रुप से एकजुट किया। इस आंदोलन ने आम जनता की पिछड़ी हुयी चेतना को बड़े पैमाने पर झिंझोड़ा, आम जनता के पैरों में बंधी रूढ़िवाद और अंधविश्वास की बेड़ियों को तोड़ा, उसे प्रगतिशील, जनवादी चेतना से लैस किया। इसके फलस्वरूप स्वाधीनता आंदोलन के राजनैतिक संघर्ष में वह बड़े पैमाने पर सड़कों पर उतरी। इस राजनैतिक-सांस्कृतिक आंदोलन के विशाल प्रभाव का आंकलन महज इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि स्वाधीनता पश्चात् हुये पहले आम चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी सबसे बड़े विपक्षी दल के रुप में उभरी।
वामपंथ के इस सांस्कृतिक हस्तक्षेप को रुपाकार देने में पी.सी.जोशी व सज्जाद जहीर की महत्वपूर्ण भूमिका थी। इप्टा के पहले सम्मेलन में जो अखिल भारतीय समिति गठित की गई थी, उसके सदस्यों में बंकिम मुखर्जी, एस.ए. डांगे, सज्जाद जहीर तथा अरूण बोस भी शामिल थे, जो क्रमशः अखिल भारतीय किसान सभा, एटक, प्रलेसं तथा ऑल इंडिया स्टूडेन्ट फेडरेशन का प्रतिनिधित्व करते थे। कमेटी के इस स्वरूप से ही यह पता चलता है कि वामपंथ का यह सांस्कृतिक हस्तक्षेप महज संस्कृति कर्म नहीं था, बल्कि हमारे समाज के मेहनतकश तबकों से सांस्कृतिक जुड़ाव के लिये हस्तक्षेप था, जो देश के जन मानस तथा स्वाधीनता आंदोलन को एक निश्चित राजनैतिक दिशा देना चाहता था। इप्टा के स्थापना सम्मेलन में अध्यक्षीय भाषण देते हुए हीरेन मुखर्जी ने आव्हान किया था- ‘‘लेखक और कलाकार आओ, अभिनेता और नाटक लेखक आओ, हाथ और दिमाग से काम करने वाले आओ और स्वयं को आजादी और सामाजिक न्याय की नयी दुनिया के निर्माण के लिये समर्पित कर दो। यदि हम चाहें तो यह आदर्श वाक्य स्वीकार कर लें कि ‘मजदूर इस पृथ्वी के नमक हैं और उनकी नियति या उनके भविष्य का हिस्सा बनना, हमारे युग का सबसे बड़ा साहसपूर्ण कार्य है’।’’ यह इस देश के भविष्य की आवाज थी। इस मायने में यह संस्कृति कर्म एक निश्चित वामपंथी राजनैतिक कर्म भी था।
प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन की इस धारा ने लेखकों और रंगकर्मियों के दायरे से बाहर जाकर भी विभिन्न कला रुपों से जुड़े संस्कृतिकर्मियों को भी बड़े पैमाने पर आकर्षित किया। नृत्य, संगीत, चित्रकला से जुड़े अनगिनत लोग इस सांस्कृतिक आंदोलन का हिस्सा बने। ये सभी लोग वामपंथी या कम्युनिस्ट भी नहीं थे, लेकिन देश और मेहनतकश जनता के प्रति प्रतिबद्ध थे, उनकी तमाम अभिव्यक्तियां शोषण और गुलामी से मुक्ति तथा एक सुंदर, समतापूर्ण समाज के निर्माण की अभिव्यक्तियां बनीं। वे सही मायनों में ‘पृथ्वी के नमक’ का हक अदा करना चाहते थे। यह नमक मेहनतकशों के पसीने से निकलता है और सागर को नमकीन करता है। सागर के इसी खारेपन से वह असीमता प्राप्त करता है। बकौल बलराज साहनी (इप्टा की यादें)- ‘‘मनुष्य की आत्मा, सीमित होने के कारण, असीम की याचक है और समुद्र में से असीम की यह भावना प्राप्त हो सकती है।’’
इप्टा और प्रलेसं की बुनियाद पर विकसित इस प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन ने सर्जनात्मकता की एक बड़ी लहर पैदा की। हमारे देश के नामी-गिरामी संस्कृतिकर्मी, लेखक और कलाकार- ख्वाजा अहमद अब्बास, बलराज साहनी, दमयंती साहनी, शंभु मित्र, तृप्ति भादुड़ी, प्रेम धवन, सरदार जाफरी, सचिन देव बर्मन, मोहन सहगल, कृश्न चंदर, साहिर लुधियानवी, कैफी आजमी, मजरूह सुल्तानपुरी, शंकर शैलेन्द्र, जोहरा सहगल, भूपेन हजारिका, सलिल चौधरी, इस्मत चुगताई, विमल रॉय, हेमंत मुखर्जी, राजेन्द्र सिंह बेदी, ऋत्विक घटक, उत्पल दत्त, ऋषिकेश मुखर्जी व अन्य- इसी आंदोलन की उपज हैं। वे अपने-अपने कला क्षेत्र के अग्रणी हैं। ये सब मिलकर एक आंदोलन को रुपाकार देते हैं।
लैंगिक परिप्रेक्ष्य में इस आंदोलन की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि रंगकर्म और संस्कृति के क्षेत्र में जिस समय महिलाओं की उपस्थिति नगण्य ही थी, इसने बड़े पैमाने पर महिलाओं को संस्कृति कर्म से जोड़ा और पुरुष सत्तावाद को न केवल चुनौती दी, बल्कि उसका अतिक्रमण भी किया। दीना गांधी, शांता गांधी, शीला भाटिया, रेवा राय चौधरी, रेखा जैन, स्नेह सान्याल, उषा भगत आदि ऐसी महिलायें हैं, जो सभ्य परिवारों से आती थीं। समाज की पुरुष सत्तात्मक संरचना उनकी सीमाओं को निर्धारित करती थी- परिवार के अंदर और बाहर भी। उन्होंने दोनों का मुकाबला किया- ‘चरित्रहीनता’ के आरोपों के साथ। इनमें से कईयों का विकास राजनैतिक कार्यकर्ता के रुप में भी हुआ- कम्यून में रहते हुए। अपने राजनैतिक विश्वासों के बल पर ही वे अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर सकीं। लता सिंह ने बताया है (इप्टा की महिलायें)- ‘‘शीला भाटिया के अनुसार, प्रतिबंधों के बावजूद ‘मेरे दिमाग की यहां परवरिश हो रही थी’।’’ कम्यून ने इन महिलाओं को न केवल ‘संस्कारों की जकड़न’ से मुक्त किया बल्कि ‘झिझक और बंधन’ को तोड़कर उनके विश्वास को भी बढ़ाया। कम्यून उनके लिए ‘रंगकर्म की कार्यशाला’ थी।
संगठित वामपंथी आंदोलन में बिखराव आने के साथ ही इस सांस्कृतिक आंदोलन में भी बिखराव आया। इस आंदोलन की संगठित धमक कमजोर पड़ी। देश में फांसीवादी-प्रतिगामी ताकतें मजबूत हुयीं- न केवल राजनैतिक रुप से, बल्कि वैचारिक रुप से भी। लेकिन इसके बावजूद सच यही है कि आज भी देश में जितने भी अग्रणी कला सर्जक हैं, उनमें से बहुमत इसी प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन से ही जुड़े हैं। वे राजनैतिक-आर्थिक- सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में पैदा हो रही नयी चुनौतियों का सामना करने के लिये इस आंदोलन को पुनः संगठित करने की जद्दोजहद में लगे हैं, ताकि इप्टा-प्रलेसं की विरासत को नये परिप्रेक्ष्य में आगे बढ़ाया जा सके। मानव मुक्ति के अभियान में यह वामपंथी विचारधारा की श्रेष्ठता को ही प्रतिबिंबित करता है।
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कला की अन्य विधाओं से रंगकर्म इस मायने में अलग होता है कि यह सामूहिक प्रस्तुति होती है। लेखक, अभिनेता, निर्देशक, गीत-संगीत, मंच सज्जा, रुप सज्जा, प्रकाश व दर्शक-- ये सभी मिलकर नाटक का निर्माण करते हैं। इस कारण एकल नाट्य प्रस्तुति भी व्यक्तिगत नहीं बन पाती। फिल्म जहां निर्देशक का माध्यम है, वहीं नाटक अभिनेता का। लेकिन केवल अभिनेता का नहीं, क्योंकि रंगकर्म सबका साझा प्रयास है। रंगकर्म दर्शकों से सीधे संवाद करता है, जबकि फिल्म को दर्शकों की प्रतिक्रिया का इंतजार होता है। एक मायने में रंगकर्म मानव जाति द्वारा उपलब्ध सभी कला रुपों का सामूहिक निवेश ही होता है।
इप्टा के गठन के बाद हमारे देश के रंगकर्म को जबरदस्त गति मिली। उनके सरोकारों में भी बदलाव आया। अब रंगकर्म स्वान्तः सुखाय की अवधारणा से संचालित नहीं था, बल्कि मनुष्य के सुख-दुख उसके केन्द्र में थे। इप्टा का नारा था-- ‘‘पीपुल्स थियेटर स्टार्स पीपुल’’ (जनता ही जनता के रंगकर्म के केन्द्र में है।)। यह एक निष्प्राण नारा नहीं था, बल्कि कलाकारों को समाज और समाज के प्रति अपने वृहत्तर सामाजिक दायित्वों से अवगत कराता था। आम जनता के पास लोकरंग से जुड़ी एक समृद्ध परंपरा थी। इप्टा ने इस परंपरा को बड़ी कुशलता के साथ आधुनिकता से जोड़ा। चूंकि इस आंदोलन का वामपंथी राजनीति से घनिष्ठ संबंध था, देश के स्वाधीनता आंदोलन में, फासीवाद विरोधी आंदोलन में, शोषण से मुक्ति के लिए सामाजिक क्रांति के आंदोलन में और देश में साझा संस्कृति विकसित करने में इसका योगदान अभूतपूर्व था। जैसा कि भीष्म साहनी (साझा संस्कृति के पक्ष में) ने नोट किया था-- ‘‘इप्टा ने रंगशालाओं की चारदीवारी को लांघकर, जनता तक सीधे पहुंचने का प्रयास किया था। इसने अपनी बात जनता की जुबान में कही। ...इप्टा उन सवालों को उठाता था, जो समाज को उद्वेलित करते थे और उसका नजरिया प्रगतिशील और एकदम नया होता था।
सबसे बड़ी बात यह थी कि वह एक ऐसी विचारधारा से प्रेरित था जो आजादी, धर्मनिरपेक्ष मूल्यों, समानता और सामाजिक न्याय पर आधारित था और इसके मंच का इस्तेमाल पूर्ण समानता और पारस्परिक आदरभाव के आधार पर, देश के सभी हिस्सों के सभी भाषायी और सांस्कृतिक ग्रुप मिल-जुलकर करते थे।’’
इस कालखंड में पतंग का प्रतिशोध, जापान का प्रतिरोध करें (सुकांत भट्टाचार्य), जबानबंदी, नवान्न, शहीद की पुकार, नये जीवन के लिए, अंतिम अभिलाषा जैसे नाटक देश के विभिन्न हिस्सों में बड़े पैमाने पर खेले गये। लेकिन यह रंगकर्म गीत-संगीत के बिना पूरा नहीं होता। जनता से जुड़े विभिन्न विषयों पर क्रांतिकारी गीतों की बाढ़ आयी। लोक संगीत की धुन और लोक नृत्यों की थाप पर यह क्रांति परवान चढ़ी। मैं भूखा हूं, हंगर डांस, कॉल ऑफ द ड्रम, स्पिरिट ऑफ इंडिया, इंडिया इमोर्टल तथा होली नृत्य जैसे नृत्य नाटकों ने पूरे देश में धूम मचाई और भाषा की दीवार को ढहा दिया। ‘बंगाल की आवाज’ नामक कार्यक्रम बड़े पैमाने पर मुंबई, गुजरात और महाराष्ट्र में हुए और बंगाल के अकाल पीड़ितों के लिए जबरदस्त राहत इकट्ठा की गयी। इन कार्यक्रमों ने पूरे देश को वर्गीय भावना से अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट किया। इप्टा की इन गतिविधियों की जानकारी तथा कार्यक्रमों की रिपोर्टिंग पीपुल्स वार, पीपुल्स एज, स्वाधीनता और जनशक्ति जैसे अखबारों में विस्तार से मिलती है।
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मीडिया को आजकल टी.वी. और समाचार पत्रों को तक ही सीमित किया जा रहा है, जबकि इसका अर्थ काफी व्यापक है। रंगकर्म भी मीडिया है, क्योंकि यह विचार, अनुभूतियों और भावों का संचार करता है। लेकिन जैसे-जैसे मीडिया के क्षेत्र में कार्पोरेट क्षेत्र का दखल बढ़ता गया है, वैसे-वैसे अभिव्यक्ति के अन्य स्रोत इलेक्ट्रोनिक और प्रिंट मीडिया पर ज्यादा से ज्यादा निर्भर हो गये हैं। रंगकर्म भी इसी मीडिया में अपनी जगह तलाश रहा है, लेकिन उसकी यह तलाश इसलिए पूरी नहीं हो रही है, क्योंकि अभी रंगकर्म का कार्पोरेटीकरण उतना नहीं हुआ है। रंगकर्म आज भी जनकर्म से जुड़ा है। जब तक वह जनता से जुड़ा रहेगा, कार्पोरेट नियंत्रित मीडिया में उसको स्थान नहीं मिलेगा। इसीलिए मेरा मानना है कि रंगकर्म को अपनी आलोचना खुद गढ़नी होगी।
रंगकर्म के लिए इप्टा के समय से आज का समय और स्थितियां काफी भिन्न हैं। इप्टा का समय नवोन्मेश का दौर था, साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के पराजय का दौर था। आज का समय वैश्वीकरण का, नवउपनिवेशवाद का और साम्राज्यवाद के मजबूत होने का दौर है। आज का समय सोवियत संघ के विखंडन के बाद पनपी निराशा का दौर है। लेकिन आम जनता की वैकल्पिक राजनीति की खोज जारी है, क्योंकि शोषण से मुक्ति की मानवीय आकांक्षा शाश्वत है। इस आकांक्षा को वामपंथ ही स्वर दे सकता है। लेकिन वामपंथ को फिर से इसके लायक बनना होगा कि वह वैश्विक चुनौती का मुकाबला कर सके। इसलिए यह वामपंथ के चिंतन का भी दौर है। इसके लिए इप्टा की समृद्ध विरासत की बुनियाद पर रंगकर्म को एक नये सांस्कृतिक-जागरण का बीड़ा उठाना पड़ेगा। आम जनता से सीधे संवाद के हर मुमकिन रास्ते खोजने होंगे, उसका कुशलता से उपयोग करना होगा। क्या यह सच नहीं है कि हिंदी भाषी क्षेत्रों में वामपंथ की जन सभायें और आम बैठकें सांस्कृतिक शून्यता का शिकार हैं?इसके लिए वामपंथ को रंगकर्म के साथ अपने टूटे रिश्तों को जोड़ने की पहलकदमी करनी होगी। रंगकर्म के लिए जन समर्थन ही कार्पोरेटी मीडिया को जगह देने के लिए बाध्य कर सकता है।
यह मेरे अनुभव की बात है कि आज मीडिया में रंगकर्म को जो भी जगह मिल रही है, वह समीक्षा नहीं, मात्र रिपोर्टिंग होती है। यह रिपोर्टिंग भी नाट्य दलों के ब्रोशर के आधार पर ही होती है। इस रिपोर्टिंग में नाटक की कहानी और पात्रों के नाम भरकर उल्लेख होता है। रंग-समीक्षा तो अखबारों और चैनलों से सिरे से गायब है। मेरा मानना है कि रंग-समीक्षा के बिना रंगकर्म पूरा नहीं होता। यह समीक्षा ही दर्शकों-पाठकों के लिए नाटक को खोलती है, उनकी विचार-दृष्टियों को परिष्कृत करती है और किसी नाटक को उसकी सही जगह भी दिखाती है। पूंजीवादी मीडिया ठीक यही नहीं चाहता, क्योंकि अन्य समाचारों की तरह रंगकर्म भी उनके लिए मात्र एक ‘माल’ है-- अखबारी पन्नों/चैनलों में बेचने के लिए। इस स्थिति का मुकाबला करने के लिए रंग-समीक्षकों को ही आगे आना होगा तथा रंग-समीक्षा को भी नियमित रंगकर्म के दायरे में लाना होगा। इसकी शुरूआत कविता/कहानी गोष्ठियों की तरह नाट्य गोष्ठियों से की जा सकती है। इससे नये उत्कृष्ट नाटकों के चयन और मंचन में भी रंगकर्म को मदद मिलेगी। इसी तरह से रंगकर्म अपनी आलोचना खुद गढ़ सकता है। यह आलोचना जितनी सशक्त होगी, मीडिया पर हावी कार्पोरेटी रवैया भी उतनी ही तेजी से बदलेगा।
छत्तीसगढ़ के विशेष संदर्भ में मैं यह कहना चाहूंगा कि यहां नियमित रंगकर्म का नितांत अभाव है। राजकमल नायक, मिन्हाज असद, जलील रिजवी, मिर्जा मसूद, निसार अली, अजय आठले व राधेश्याम तराने जैसे निर्देशक हैं, जिनकी नाट्य मंडलियों में नये रंगकर्मियों की आवक-जावक लगी रहती है। लेकिन उनके अपने रवैये के कारण रंगकर्मियों को रंगकर्म के प्रति कोई विशेष प्रेरणा नहीं मिलती। ये निर्देशक भी साल में एक-आध प्रस्तुति कर रंगकर्म के प्रति अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं।
इन निर्देशकों में भी जोखिम उठाने का साहस नहीं है। अतः वे रंगमंच पर उन्हीं प्रस्तुतियों को देते हैं, जो कई बार खेली जा चुकी हैं। चूंकि ये नाटक पहले भी कई बार खेले-देखे जा चुके हैं, उन्हें इसे रचने में किसी निर्देशकीय कौशल का परिचय नहीं देना पड़ता। जोखिम के अभाव में वे इन नाटकों का पुनर्पाठ भी नहीं कर पाते। राजेश कुमार जैसे कई नाटककार समसामयिक विषयों पर नाटक लिख रहे हैं, लेकिन रंग-दर्शक इनके स्वाद से वंचित हैं। इस सिलसिले में दिवंगत हबीब तनवीर को याद करना अप्रासंगिक नहीं होगा, जिन्होंने जोखिम उठाया। परंपरा को आधुनिकता के साथ जोड़कर रंगकर्म को एक नयी दिशा दी। इस प्रयास में उन्हें संघी गिरोह के हमलों का भी शिकार होना पड़ा। इसी जोखिम ने उन्हें रंग-मीडिया में स्थापित भी किया।
प्रदेश का अधिकांश रंगकर्म राज्य के सहयोग की बाट जोहता है, जो कि उन्हें मिलनी नहीं है। सरकार का अपना दर्शन प्रगतिशील रंगकर्म से सहयोग की इजाजत नहीं देता, अतः संस्कृति विभाग बजट का रोना रोता रहता है, जबकि फिल्मी गानों के कार्यक्रम और अभिनेत्रियों के नृत्य आयोजन के लिए उसके पास पैसों की कोई कमी नहीं है। नाचा जैसे छत्तीसगढ़ की जो परंपरागत लोक- विधायें हैं, उसका उपयोग वह प्रतिगामी दृष्टि से करता है। अतः लोक दर्शक इसका भरपूर मजा तो लेता है, लेकिन साथ ही वह प्रतिगामी जीवन-दृष्टि को भी ग्रहण करते जाता है।
इप्टा जैसी संस्थायें रंग-क्षेत्र की शून्यता को अपने वार्षिक नाट्य समारोहों के जरिये तोड़ने का प्रयास करती है, लेकिन वे ठहरे जल में फेंके गये कंकड़ से पैदा लहरों के ही समान है। नुक्कड़ नाटकों के जरिये वर्ष भर दर्शकों से संवाद करने की इप्टा की परंपरा का तो लोप ही हो चुका है। चूंकि रंगकर्म अब जनता से संवाद नहीं कर रहा है, रंगकर्म के नाम पर गिने-चुने रंग-मंचन हो रहे हैं। राजधानी में एक आधुनिक प्रेक्षागृह बनाने की मांग, केवल ‘मांग’ तक सीमित होकर रह गयी है। इप्टा के वार्षिक समारोहों में इस मांग को दोहराने की रस्म-अदायगी जारी है।
रंगकर्म के क्षेत्र में वर्तमान की चुनौती यही है कि रस्म-अदायगी की जड़ता से उबरकर रंगों को उसके विस्तार में प्रवाहित किया जाये। धुप्प अंधकार से भरपूर रोशनी की ओर बढ़ा जाये। रंगों को प्रिज्मों से गुजारकर उसकी सर्जनात्मकता और गतिशीलता को आम जनता के बीच रखा जाये। रंगकर्म एक आश्रित कला न बने, बल्कि जनकर्म बनकर अपनी आलोचना खुद गढ़े-- जन मीडिया के दरबार में। इस रंगकर्म को सीधे-सीधे अपना राजनैतिक रिश्ता भी तय करना होगा। क्या समग्र वामपंथ इस चुनौती को स्वीकार कर पायेगा?
रंगकर्म भी इसी मीडिया में अपनी जगह तलाश रहा है, लेकिन उसकी यह तलाश इसलिए पूरी नहीं हो रही है, क्योंकि अभी रंगकर्म का कार्पोरेटीकरण उतना नहीं हुआ है। रंगकर्म आज भी जनकर्म से जुड़ा है। जब तक वह जनता से जुड़ा रहेगा, कार्पोरेट नियंत्रित मीडिया में उसको स्थान नहीं मिलेगा। इसीलिए रंगकर्म को अपनी आलोचना खुद गढ़नी होगी।
1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के साथ देश में विकासमान स्वाधीनता आंदोलन के संघर्ष में सांस्कृतिक क्षेत्र में जिस संगठित वामपंथी हस्तक्षेप की शुरूआत हुई थी, मुंबई में 25 मई, 1943 को इप्टा (इंडियन पीपुल्स् थियेटर एसोसियेशन) की स्थापना उसका चरमोत्कर्ष था। इसने देशवासियों की स्वतंत्रता, सांस्कृतिक प्रगति और आर्थिक न्याय की आकांक्षा को मूर्त रूप दिया तथा कला के क्षेत्र को विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के दायरे से बाहर निकालकर मेहनतकशों का, मेहनतकशों के लिए जन-अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। संस्कृति के क्षेत्र में इस वामपंथी हस्तक्षेप ने सांस्कृतिक कायापलट का काम किया। इस धारा ने न केवल परंपरागत कला रूपों की चुनौती दी तथा समाज की पूंजीवादी-सामंती विचार-दृष्टियों को बदला, बल्कि इस दायरे से बंधे कला सर्जकों को भी बदला। इस तरह जो सृजनशीलता सामने आयी, वह अपेक्षाकृत उन्नत संस्कृति की वाहक थी और वर्गीय संस्कृति की पक्षधर भी। इस सृजनशीलता ने मेहनतकशों की संस्कृति को रचने-गढ़ने का काम किया और स्वाधीनता संघर्ष में वामपंथी राजनीति को आम जनता के जेहन में स्थापित करने का काम भी। इस दौर में राजनीति और संस्कृति कर्म एक दूसरे की सहचर थी। इस संस्कृति कर्म ने ‘कला, कला के लिए’ के कलावादी नारे को ठुकराया और ‘कला, जनता के लिए’ के जनवादी नारे को स्थापित किया। इस विशाल सांस्कृतिक आंदोलन ने आम जनता को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ सांस्कृतिक रुप से एकजुट किया। इस आंदोलन ने आम जनता की पिछड़ी हुयी चेतना को बड़े पैमाने पर झिंझोड़ा, आम जनता के पैरों में बंधी रूढ़िवाद और अंधविश्वास की बेड़ियों को तोड़ा, उसे प्रगतिशील, जनवादी चेतना से लैस किया। इसके फलस्वरूप स्वाधीनता आंदोलन के राजनैतिक संघर्ष में वह बड़े पैमाने पर सड़कों पर उतरी। इस राजनैतिक-सांस्कृतिक आंदोलन के विशाल प्रभाव का आंकलन महज इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि स्वाधीनता पश्चात् हुये पहले आम चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी सबसे बड़े विपक्षी दल के रुप में उभरी।
वामपंथ के इस सांस्कृतिक हस्तक्षेप को रुपाकार देने में पी.सी.जोशी व सज्जाद जहीर की महत्वपूर्ण भूमिका थी। इप्टा के पहले सम्मेलन में जो अखिल भारतीय समिति गठित की गई थी, उसके सदस्यों में बंकिम मुखर्जी, एस.ए. डांगे, सज्जाद जहीर तथा अरूण बोस भी शामिल थे, जो क्रमशः अखिल भारतीय किसान सभा, एटक, प्रलेसं तथा ऑल इंडिया स्टूडेन्ट फेडरेशन का प्रतिनिधित्व करते थे। कमेटी के इस स्वरूप से ही यह पता चलता है कि वामपंथ का यह सांस्कृतिक हस्तक्षेप महज संस्कृति कर्म नहीं था, बल्कि हमारे समाज के मेहनतकश तबकों से सांस्कृतिक जुड़ाव के लिये हस्तक्षेप था, जो देश के जन मानस तथा स्वाधीनता आंदोलन को एक निश्चित राजनैतिक दिशा देना चाहता था। इप्टा के स्थापना सम्मेलन में अध्यक्षीय भाषण देते हुए हीरेन मुखर्जी ने आव्हान किया था- ‘‘लेखक और कलाकार आओ, अभिनेता और नाटक लेखक आओ, हाथ और दिमाग से काम करने वाले आओ और स्वयं को आजादी और सामाजिक न्याय की नयी दुनिया के निर्माण के लिये समर्पित कर दो। यदि हम चाहें तो यह आदर्श वाक्य स्वीकार कर लें कि ‘मजदूर इस पृथ्वी के नमक हैं और उनकी नियति या उनके भविष्य का हिस्सा बनना, हमारे युग का सबसे बड़ा साहसपूर्ण कार्य है’।’’ यह इस देश के भविष्य की आवाज थी। इस मायने में यह संस्कृति कर्म एक निश्चित वामपंथी राजनैतिक कर्म भी था।
प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन की इस धारा ने लेखकों और रंगकर्मियों के दायरे से बाहर जाकर भी विभिन्न कला रुपों से जुड़े संस्कृतिकर्मियों को भी बड़े पैमाने पर आकर्षित किया। नृत्य, संगीत, चित्रकला से जुड़े अनगिनत लोग इस सांस्कृतिक आंदोलन का हिस्सा बने। ये सभी लोग वामपंथी या कम्युनिस्ट भी नहीं थे, लेकिन देश और मेहनतकश जनता के प्रति प्रतिबद्ध थे, उनकी तमाम अभिव्यक्तियां शोषण और गुलामी से मुक्ति तथा एक सुंदर, समतापूर्ण समाज के निर्माण की अभिव्यक्तियां बनीं। वे सही मायनों में ‘पृथ्वी के नमक’ का हक अदा करना चाहते थे। यह नमक मेहनतकशों के पसीने से निकलता है और सागर को नमकीन करता है। सागर के इसी खारेपन से वह असीमता प्राप्त करता है। बकौल बलराज साहनी (इप्टा की यादें)- ‘‘मनुष्य की आत्मा, सीमित होने के कारण, असीम की याचक है और समुद्र में से असीम की यह भावना प्राप्त हो सकती है।’’
इप्टा और प्रलेसं की बुनियाद पर विकसित इस प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन ने सर्जनात्मकता की एक बड़ी लहर पैदा की। हमारे देश के नामी-गिरामी संस्कृतिकर्मी, लेखक और कलाकार- ख्वाजा अहमद अब्बास, बलराज साहनी, दमयंती साहनी, शंभु मित्र, तृप्ति भादुड़ी, प्रेम धवन, सरदार जाफरी, सचिन देव बर्मन, मोहन सहगल, कृश्न चंदर, साहिर लुधियानवी, कैफी आजमी, मजरूह सुल्तानपुरी, शंकर शैलेन्द्र, जोहरा सहगल, भूपेन हजारिका, सलिल चौधरी, इस्मत चुगताई, विमल रॉय, हेमंत मुखर्जी, राजेन्द्र सिंह बेदी, ऋत्विक घटक, उत्पल दत्त, ऋषिकेश मुखर्जी व अन्य- इसी आंदोलन की उपज हैं। वे अपने-अपने कला क्षेत्र के अग्रणी हैं। ये सब मिलकर एक आंदोलन को रुपाकार देते हैं।
लैंगिक परिप्रेक्ष्य में इस आंदोलन की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि रंगकर्म और संस्कृति के क्षेत्र में जिस समय महिलाओं की उपस्थिति नगण्य ही थी, इसने बड़े पैमाने पर महिलाओं को संस्कृति कर्म से जोड़ा और पुरुष सत्तावाद को न केवल चुनौती दी, बल्कि उसका अतिक्रमण भी किया। दीना गांधी, शांता गांधी, शीला भाटिया, रेवा राय चौधरी, रेखा जैन, स्नेह सान्याल, उषा भगत आदि ऐसी महिलायें हैं, जो सभ्य परिवारों से आती थीं। समाज की पुरुष सत्तात्मक संरचना उनकी सीमाओं को निर्धारित करती थी- परिवार के अंदर और बाहर भी। उन्होंने दोनों का मुकाबला किया- ‘चरित्रहीनता’ के आरोपों के साथ। इनमें से कईयों का विकास राजनैतिक कार्यकर्ता के रुप में भी हुआ- कम्यून में रहते हुए। अपने राजनैतिक विश्वासों के बल पर ही वे अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर सकीं। लता सिंह ने बताया है (इप्टा की महिलायें)- ‘‘शीला भाटिया के अनुसार, प्रतिबंधों के बावजूद ‘मेरे दिमाग की यहां परवरिश हो रही थी’।’’ कम्यून ने इन महिलाओं को न केवल ‘संस्कारों की जकड़न’ से मुक्त किया बल्कि ‘झिझक और बंधन’ को तोड़कर उनके विश्वास को भी बढ़ाया। कम्यून उनके लिए ‘रंगकर्म की कार्यशाला’ थी।
संगठित वामपंथी आंदोलन में बिखराव आने के साथ ही इस सांस्कृतिक आंदोलन में भी बिखराव आया। इस आंदोलन की संगठित धमक कमजोर पड़ी। देश में फांसीवादी-प्रतिगामी ताकतें मजबूत हुयीं- न केवल राजनैतिक रुप से, बल्कि वैचारिक रुप से भी। लेकिन इसके बावजूद सच यही है कि आज भी देश में जितने भी अग्रणी कला सर्जक हैं, उनमें से बहुमत इसी प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन से ही जुड़े हैं। वे राजनैतिक-आर्थिक- सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में पैदा हो रही नयी चुनौतियों का सामना करने के लिये इस आंदोलन को पुनः संगठित करने की जद्दोजहद में लगे हैं, ताकि इप्टा-प्रलेसं की विरासत को नये परिप्रेक्ष्य में आगे बढ़ाया जा सके। मानव मुक्ति के अभियान में यह वामपंथी विचारधारा की श्रेष्ठता को ही प्रतिबिंबित करता है।
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कला की अन्य विधाओं से रंगकर्म इस मायने में अलग होता है कि यह सामूहिक प्रस्तुति होती है। लेखक, अभिनेता, निर्देशक, गीत-संगीत, मंच सज्जा, रुप सज्जा, प्रकाश व दर्शक-- ये सभी मिलकर नाटक का निर्माण करते हैं। इस कारण एकल नाट्य प्रस्तुति भी व्यक्तिगत नहीं बन पाती। फिल्म जहां निर्देशक का माध्यम है, वहीं नाटक अभिनेता का। लेकिन केवल अभिनेता का नहीं, क्योंकि रंगकर्म सबका साझा प्रयास है। रंगकर्म दर्शकों से सीधे संवाद करता है, जबकि फिल्म को दर्शकों की प्रतिक्रिया का इंतजार होता है। एक मायने में रंगकर्म मानव जाति द्वारा उपलब्ध सभी कला रुपों का सामूहिक निवेश ही होता है।
इप्टा के गठन के बाद हमारे देश के रंगकर्म को जबरदस्त गति मिली। उनके सरोकारों में भी बदलाव आया। अब रंगकर्म स्वान्तः सुखाय की अवधारणा से संचालित नहीं था, बल्कि मनुष्य के सुख-दुख उसके केन्द्र में थे। इप्टा का नारा था-- ‘‘पीपुल्स थियेटर स्टार्स पीपुल’’ (जनता ही जनता के रंगकर्म के केन्द्र में है।)। यह एक निष्प्राण नारा नहीं था, बल्कि कलाकारों को समाज और समाज के प्रति अपने वृहत्तर सामाजिक दायित्वों से अवगत कराता था। आम जनता के पास लोकरंग से जुड़ी एक समृद्ध परंपरा थी। इप्टा ने इस परंपरा को बड़ी कुशलता के साथ आधुनिकता से जोड़ा। चूंकि इस आंदोलन का वामपंथी राजनीति से घनिष्ठ संबंध था, देश के स्वाधीनता आंदोलन में, फासीवाद विरोधी आंदोलन में, शोषण से मुक्ति के लिए सामाजिक क्रांति के आंदोलन में और देश में साझा संस्कृति विकसित करने में इसका योगदान अभूतपूर्व था। जैसा कि भीष्म साहनी (साझा संस्कृति के पक्ष में) ने नोट किया था-- ‘‘इप्टा ने रंगशालाओं की चारदीवारी को लांघकर, जनता तक सीधे पहुंचने का प्रयास किया था। इसने अपनी बात जनता की जुबान में कही। ...इप्टा उन सवालों को उठाता था, जो समाज को उद्वेलित करते थे और उसका नजरिया प्रगतिशील और एकदम नया होता था।
सबसे बड़ी बात यह थी कि वह एक ऐसी विचारधारा से प्रेरित था जो आजादी, धर्मनिरपेक्ष मूल्यों, समानता और सामाजिक न्याय पर आधारित था और इसके मंच का इस्तेमाल पूर्ण समानता और पारस्परिक आदरभाव के आधार पर, देश के सभी हिस्सों के सभी भाषायी और सांस्कृतिक ग्रुप मिल-जुलकर करते थे।’’
इस कालखंड में पतंग का प्रतिशोध, जापान का प्रतिरोध करें (सुकांत भट्टाचार्य), जबानबंदी, नवान्न, शहीद की पुकार, नये जीवन के लिए, अंतिम अभिलाषा जैसे नाटक देश के विभिन्न हिस्सों में बड़े पैमाने पर खेले गये। लेकिन यह रंगकर्म गीत-संगीत के बिना पूरा नहीं होता। जनता से जुड़े विभिन्न विषयों पर क्रांतिकारी गीतों की बाढ़ आयी। लोक संगीत की धुन और लोक नृत्यों की थाप पर यह क्रांति परवान चढ़ी। मैं भूखा हूं, हंगर डांस, कॉल ऑफ द ड्रम, स्पिरिट ऑफ इंडिया, इंडिया इमोर्टल तथा होली नृत्य जैसे नृत्य नाटकों ने पूरे देश में धूम मचाई और भाषा की दीवार को ढहा दिया। ‘बंगाल की आवाज’ नामक कार्यक्रम बड़े पैमाने पर मुंबई, गुजरात और महाराष्ट्र में हुए और बंगाल के अकाल पीड़ितों के लिए जबरदस्त राहत इकट्ठा की गयी। इन कार्यक्रमों ने पूरे देश को वर्गीय भावना से अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट किया। इप्टा की इन गतिविधियों की जानकारी तथा कार्यक्रमों की रिपोर्टिंग पीपुल्स वार, पीपुल्स एज, स्वाधीनता और जनशक्ति जैसे अखबारों में विस्तार से मिलती है।
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मीडिया को आजकल टी.वी. और समाचार पत्रों को तक ही सीमित किया जा रहा है, जबकि इसका अर्थ काफी व्यापक है। रंगकर्म भी मीडिया है, क्योंकि यह विचार, अनुभूतियों और भावों का संचार करता है। लेकिन जैसे-जैसे मीडिया के क्षेत्र में कार्पोरेट क्षेत्र का दखल बढ़ता गया है, वैसे-वैसे अभिव्यक्ति के अन्य स्रोत इलेक्ट्रोनिक और प्रिंट मीडिया पर ज्यादा से ज्यादा निर्भर हो गये हैं। रंगकर्म भी इसी मीडिया में अपनी जगह तलाश रहा है, लेकिन उसकी यह तलाश इसलिए पूरी नहीं हो रही है, क्योंकि अभी रंगकर्म का कार्पोरेटीकरण उतना नहीं हुआ है। रंगकर्म आज भी जनकर्म से जुड़ा है। जब तक वह जनता से जुड़ा रहेगा, कार्पोरेट नियंत्रित मीडिया में उसको स्थान नहीं मिलेगा। इसीलिए मेरा मानना है कि रंगकर्म को अपनी आलोचना खुद गढ़नी होगी।
रंगकर्म के लिए इप्टा के समय से आज का समय और स्थितियां काफी भिन्न हैं। इप्टा का समय नवोन्मेश का दौर था, साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के पराजय का दौर था। आज का समय वैश्वीकरण का, नवउपनिवेशवाद का और साम्राज्यवाद के मजबूत होने का दौर है। आज का समय सोवियत संघ के विखंडन के बाद पनपी निराशा का दौर है। लेकिन आम जनता की वैकल्पिक राजनीति की खोज जारी है, क्योंकि शोषण से मुक्ति की मानवीय आकांक्षा शाश्वत है। इस आकांक्षा को वामपंथ ही स्वर दे सकता है। लेकिन वामपंथ को फिर से इसके लायक बनना होगा कि वह वैश्विक चुनौती का मुकाबला कर सके। इसलिए यह वामपंथ के चिंतन का भी दौर है। इसके लिए इप्टा की समृद्ध विरासत की बुनियाद पर रंगकर्म को एक नये सांस्कृतिक-जागरण का बीड़ा उठाना पड़ेगा। आम जनता से सीधे संवाद के हर मुमकिन रास्ते खोजने होंगे, उसका कुशलता से उपयोग करना होगा। क्या यह सच नहीं है कि हिंदी भाषी क्षेत्रों में वामपंथ की जन सभायें और आम बैठकें सांस्कृतिक शून्यता का शिकार हैं?इसके लिए वामपंथ को रंगकर्म के साथ अपने टूटे रिश्तों को जोड़ने की पहलकदमी करनी होगी। रंगकर्म के लिए जन समर्थन ही कार्पोरेटी मीडिया को जगह देने के लिए बाध्य कर सकता है।
यह मेरे अनुभव की बात है कि आज मीडिया में रंगकर्म को जो भी जगह मिल रही है, वह समीक्षा नहीं, मात्र रिपोर्टिंग होती है। यह रिपोर्टिंग भी नाट्य दलों के ब्रोशर के आधार पर ही होती है। इस रिपोर्टिंग में नाटक की कहानी और पात्रों के नाम भरकर उल्लेख होता है। रंग-समीक्षा तो अखबारों और चैनलों से सिरे से गायब है। मेरा मानना है कि रंग-समीक्षा के बिना रंगकर्म पूरा नहीं होता। यह समीक्षा ही दर्शकों-पाठकों के लिए नाटक को खोलती है, उनकी विचार-दृष्टियों को परिष्कृत करती है और किसी नाटक को उसकी सही जगह भी दिखाती है। पूंजीवादी मीडिया ठीक यही नहीं चाहता, क्योंकि अन्य समाचारों की तरह रंगकर्म भी उनके लिए मात्र एक ‘माल’ है-- अखबारी पन्नों/चैनलों में बेचने के लिए। इस स्थिति का मुकाबला करने के लिए रंग-समीक्षकों को ही आगे आना होगा तथा रंग-समीक्षा को भी नियमित रंगकर्म के दायरे में लाना होगा। इसकी शुरूआत कविता/कहानी गोष्ठियों की तरह नाट्य गोष्ठियों से की जा सकती है। इससे नये उत्कृष्ट नाटकों के चयन और मंचन में भी रंगकर्म को मदद मिलेगी। इसी तरह से रंगकर्म अपनी आलोचना खुद गढ़ सकता है। यह आलोचना जितनी सशक्त होगी, मीडिया पर हावी कार्पोरेटी रवैया भी उतनी ही तेजी से बदलेगा।
छत्तीसगढ़ के विशेष संदर्भ में मैं यह कहना चाहूंगा कि यहां नियमित रंगकर्म का नितांत अभाव है। राजकमल नायक, मिन्हाज असद, जलील रिजवी, मिर्जा मसूद, निसार अली, अजय आठले व राधेश्याम तराने जैसे निर्देशक हैं, जिनकी नाट्य मंडलियों में नये रंगकर्मियों की आवक-जावक लगी रहती है। लेकिन उनके अपने रवैये के कारण रंगकर्मियों को रंगकर्म के प्रति कोई विशेष प्रेरणा नहीं मिलती। ये निर्देशक भी साल में एक-आध प्रस्तुति कर रंगकर्म के प्रति अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं।
इन निर्देशकों में भी जोखिम उठाने का साहस नहीं है। अतः वे रंगमंच पर उन्हीं प्रस्तुतियों को देते हैं, जो कई बार खेली जा चुकी हैं। चूंकि ये नाटक पहले भी कई बार खेले-देखे जा चुके हैं, उन्हें इसे रचने में किसी निर्देशकीय कौशल का परिचय नहीं देना पड़ता। जोखिम के अभाव में वे इन नाटकों का पुनर्पाठ भी नहीं कर पाते। राजेश कुमार जैसे कई नाटककार समसामयिक विषयों पर नाटक लिख रहे हैं, लेकिन रंग-दर्शक इनके स्वाद से वंचित हैं। इस सिलसिले में दिवंगत हबीब तनवीर को याद करना अप्रासंगिक नहीं होगा, जिन्होंने जोखिम उठाया। परंपरा को आधुनिकता के साथ जोड़कर रंगकर्म को एक नयी दिशा दी। इस प्रयास में उन्हें संघी गिरोह के हमलों का भी शिकार होना पड़ा। इसी जोखिम ने उन्हें रंग-मीडिया में स्थापित भी किया।
प्रदेश का अधिकांश रंगकर्म राज्य के सहयोग की बाट जोहता है, जो कि उन्हें मिलनी नहीं है। सरकार का अपना दर्शन प्रगतिशील रंगकर्म से सहयोग की इजाजत नहीं देता, अतः संस्कृति विभाग बजट का रोना रोता रहता है, जबकि फिल्मी गानों के कार्यक्रम और अभिनेत्रियों के नृत्य आयोजन के लिए उसके पास पैसों की कोई कमी नहीं है। नाचा जैसे छत्तीसगढ़ की जो परंपरागत लोक- विधायें हैं, उसका उपयोग वह प्रतिगामी दृष्टि से करता है। अतः लोक दर्शक इसका भरपूर मजा तो लेता है, लेकिन साथ ही वह प्रतिगामी जीवन-दृष्टि को भी ग्रहण करते जाता है।
इप्टा जैसी संस्थायें रंग-क्षेत्र की शून्यता को अपने वार्षिक नाट्य समारोहों के जरिये तोड़ने का प्रयास करती है, लेकिन वे ठहरे जल में फेंके गये कंकड़ से पैदा लहरों के ही समान है। नुक्कड़ नाटकों के जरिये वर्ष भर दर्शकों से संवाद करने की इप्टा की परंपरा का तो लोप ही हो चुका है। चूंकि रंगकर्म अब जनता से संवाद नहीं कर रहा है, रंगकर्म के नाम पर गिने-चुने रंग-मंचन हो रहे हैं। राजधानी में एक आधुनिक प्रेक्षागृह बनाने की मांग, केवल ‘मांग’ तक सीमित होकर रह गयी है। इप्टा के वार्षिक समारोहों में इस मांग को दोहराने की रस्म-अदायगी जारी है।
रंगकर्म के क्षेत्र में वर्तमान की चुनौती यही है कि रस्म-अदायगी की जड़ता से उबरकर रंगों को उसके विस्तार में प्रवाहित किया जाये। धुप्प अंधकार से भरपूर रोशनी की ओर बढ़ा जाये। रंगों को प्रिज्मों से गुजारकर उसकी सर्जनात्मकता और गतिशीलता को आम जनता के बीच रखा जाये। रंगकर्म एक आश्रित कला न बने, बल्कि जनकर्म बनकर अपनी आलोचना खुद गढ़े-- जन मीडिया के दरबार में। इस रंगकर्म को सीधे-सीधे अपना राजनैतिक रिश्ता भी तय करना होगा। क्या समग्र वामपंथ इस चुनौती को स्वीकार कर पायेगा?
Tuesday, August 20, 2013
सदी बोल रही है
-नासिर अहमद सिंकदर
सन् 1912 को सहारनपुर में जन्मी, ज़ोहरा सहगल की 2013 में प्रकाशित आत्मकथा-पुस्तक ‘करीब से’ में ‘मंच और फिल्मी पर्दे’ से जुड़ी उनकी बेशकीमती यादें दर्ज हैं। यह एक सूचनात्मक वाक्य भर नहीं है। किसी भी लेखक का व्यक्तित्व और संघर्षशील जीवन मिलकर, और रचनात्मक होकर आत्मकथा का रूप लेते हैं। जाहिर है, ज़ोहरा सहगल जैसी आला शख्सियत और सौ बरस लंबा या एक सदी का जीवन मिलकर, और रचनात्मक होकर कैसी आत्मकथा रचेंगे- इस किताब को पढ़कर महसूस किया जा सकता है।ज़ोहरा सहगल की यह आत्मकथा दलित लेखकों द्वारा लिखित आत्मकथाओं की तरह नहीं है, जहाँ आत्मकथा का स्वरूप व्यक्तिगत ज्यादा होता है, तथा आत्मकथा का मूल आधार सामाजिक उत्पीड़न होता है और संघर्ष भी इसी के समानांतर उभरता है। न यह आत्मकथा उन प्रसिद्ध लेखिकाओं की तरह लिखी गई है, जिसमें अपने प्रेम संबंधों को आम करना मकसद होता है। दरअसल ज़ोहरा सहगल एक प्रतिबद्ध और जागरूक महिला रही हैं। वे इप्टा की सदस्य भी रहीं। यही वजह है कि उनकी यह आत्मकथा ‘आत्म’ की कथा होते हुए भी सामाजिक परिवेश रचती है। उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता और जागरूकता का परिचय भी इस किताब में मिलता है।मशहूर उर्दू शायर फिराक गोरखपुरी का एक शे‘र है - ‘‘हर उक्द-ए-तकदीरे जहां खोल रही है/हां ध्यान से सुनना यह सदी बोल रही है।’’ इस किताब में बहुत ‘करीब से’ ‘उक्द-ए-तकदीरे-जहां’ खोलती, ज़ोहरा सहगल की जुबानी ‘सदी बोल रही है’। किताब में ज़ोहरा सहगल ने अपने एक सदी के जीवन के सफरनामें की स्मृतियों को कालखण्ड में विभाजित करते हुए उपशीर्षकों के माध्यम से व्यक्त किया है। इन यादों का शीर्षक भी उन्होंने अपने जीवन और जीवन की घटनाओं से जोड़ा है। मसलन किताब के पहले खण्ड ‘1919-1929 बचपन और लाहौर’ में उन्होंने अपने जन्म, बचपन तथा शिक्षा आदि का जिक्र किया है। इस खण्ड में लाहौर का जिक्र इसलिए है कि यहां उन्होंने क्वीन मेरीज कॉलेज में दाखिला लिया था तथा मात्र दस साल की उम्र में ‘जैक एण्ड द बीन स्टॉक’ नामक स्कूली नाटक में जैक की भूमिका निभाई थी और अंग्रेजी अध्यापिका मिस हार्वे से वाहवाही पाई थी।
‘1930-1933 यूरोप और डांस स्कूल’ शीर्षक से दूसरे खण्ड में पढ़ाई के बाद पायलट बनने से इन्कार और डांस प्रशिक्षण हेतु जर्मन के विगमेन स्कूल में दाखिला तथा प्रशिक्षण के बाद पुनः भारत पहुँचने तक का जिक्र किया है। इस खण्ड में उन्होंने अपने विदेश दौरे की अधिकतर यादों को मेफसिस (ज़ोहरा सहगल के मामा) को लिखे पत्रों के माध्यम से व्यक्त किया है। वे 1933-1935 तक भारत में ही रहीं, जिसे उन्होने ष्पहली वापसीष् शीर्षक के अन्तर्गत रखा है। यहां उन्होंने अपने लाहौर के बचपन के स्कूल में प्रिंसिपल मिस कोक्स के कहने पर डांस शिक्षिका के रूप में भी कार्य किया। दो साल बाद मशहूर नृत्य निर्देशक उदयशंकर के डांस ग्रुप में शामिल होने का न्योता मिला। इस ग्रुप के साथ उन्होंने पहली बार 8 अगस्त 1935 को कलकत्ता के द न्यू एम्पायर थिएटर में नृत्य प्रस्तुत किया। इसके बाद उन्होंने इसी ग्रुप के साथ बर्मा, सिंगापुर, मलय प्रायद्वीप, रंगून, क्वालालम्पुर, बेल्जियम, हालैंड, डेनमार्क, पोलैंड, स्विटजरलैण्ड, इटली आदि देशों में नृत्य प्रदर्शित किए। उदय शंकर बैले कम्पनी के साथ पूरे यूरोप के नृत्य प्रदर्शन को विस्तार से उन्होंने ‘उदयशंकर बैले कम्पनी’ (1735 -1938) शीर्षक के अन्तर्गत रखा है। इसके बाद वे पुनः भारत आईं जिसे उन्होंने किताब के खण्ड में ‘दूसरी वापसी’ कहा है।
"1943-1945 प्यार शादी और एक बार फिर लाहोर" शीर्षक खण्ड में अपने वैवाहिक जीवन पर बातें करती हैं तथा लाहौर पहुंचकर ज़ोरेश नामक डांस स्कूल खोलती हैं। लेकिन कुछ दिनों बाद पुनः बंबई पहुंचती हैं। 1945 से 1959 तक के अपने 15 वर्षों को वे पृथ्वी थिएटर और इप्टा के माध्यम से याद करती हैं। पृथ्वी थिएटर के नाटकों ‘गद्दार’, ‘आहूति’, ‘पठान’ आदि में अभिनय तथा इप्टा से जुडे़ पृथ्वीराज कपूर, बलराज और दमयंती साहनी, कृष्ण चंदर, इस्मत चुगताई, सलिल चौधरी, रविशंकर, डेविड, आगा खान जैसे कई लेखकों, गीतकारों, संगीतकारों को वे याद करती हैं। वे अपनी संस्मरण यात्रा में इप्टा के संस्थापक अनिल डि सल्वा को भी याद करना नहीं भूलतीं। वे उस वक्त इप्टा की अन्य राज्यों की इकाइयों का भी जिक्र करती हैं। 1947 में वे इप्टा की उपाध्यक्ष बनीं। इस दौरान इप्टा के साथियों को जब सरकार की ओर से परेशान किया गया तो उन्होंने, अंतरिम भारत सरकार के उपाध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू को पत्र भी लिखा। वे अपनी आत्मकथा में तत्कालीन इप्टा की दो महत्वपूर्ण उपलब्धियां भी बताती हैं। पहली- ‘धरती के लाल फिल्म’ का निर्माण तथा दूसरी- जवाहरलाल नेहरू की किताब ‘दि डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ पर आधारित बैले। उन्होंने इस खण्ड में पृथ्वी थिएटर के बनने की पूरी प्रक्रिया को भी लिखा है। पृथ्वी थिएटर के ‘शकुंतला’, ‘दीवार’, ‘पठान’, ‘गद्दार’, ‘आहूति’, ‘कलाकार’, ‘किसान’ नाटकों के कथानक को भी बयान किया है। पृथ्वी थिएटर के अंतिम नाटक ‘किसान’ का पहला शो 26.10.56 को हुआ द्य
‘1959-1962 दिल्ली’ खण्ड में उनके पारिवारिक संघर्ष की कहानी है। 1962 के वर्ष को उन्होंने मास्को बाकू, बर्लिन, डेसडेन, प्राग शीर्षक के तहत तथा 1962-1973 को ‘लंदन: मंच और फिल्मी पर्दा’ शीर्षक के तहत लिखा। 1974 से वे भारत में ही रहते हुए सक्रिय रहीं। तथा 1976 से 1996 तक लंदन में भी कई फिल्मों में अभिनय किया। वे आज भी भारतीय सिनेमा और रंगमंच में सक्रिय हैं। वीरजारा, चीनी कम, संावरिया जैसी हाल की (2006) कई फिल्मों में उन्होंने अभिनय किया। इस खण्ड ष्पिछले दशकष् में उन्होंने अपने बच्चों के पारिवारिक जीवन का भी उल्लेख किया है।
अपनी इस किताब में ज़ोहरा सहगल ने अपने पूर्वजों का इतिहास भी लिखा है और एक तरह से वंशावली भी दी है। नवाबी खानदान से लेकर 33 पीढ़ी पूर्व नौंवी हिजरी में क्वास अब्दुल राशिद के यहूदी मजहब को छोड़कर पैगम्बर के हाथों इस्लाम कुबूल करने तक का जिक्र किया है। परिवार के इतिहास के 33 पीढ़ियों का तजकिरा किताब में है। तो 34 वीं पीढ़ी (ज़ोहरा सहगल के बाद) किस मजहब की बनी ? यह हिन्दुस्तान में जब तब बदअमनी के बीज बोने वालों को सोचना चाहिए। वैसे भी इस किताब में लेखिका ने अपने जीवन का फलसफा कुछ यूं व्यक्त किया है: ‘‘आखिरकार धर्म एक खूंटी ही तो है, जिस पर जरूरत के समय टँगा जा सके। लेकिन मेरा विश्वास है कि यह खूंटी, यह सहारा इनसान को अपने भीतर ढूंढना चाहिए।’’ (पृष्ठ 7)
ज़ोहरा सहगल ने अपनी आत्मकथा को लिखने का मकसद कुछ यूं बयान किया है- ‘‘ मेरे लिए इस किताब को लिखने की खास वजह एक ऐसा काम हाथ में लेेना था जिसमें मैं खुद को डुबा सकूँ, साथ ही मैं अपनी जिन्दगी में जो कुछ हुआ उन सब बातों को पूरी तरह से भूल जाने से पहले ही लिख डालना चाहती थी। इनमें से बहुत सारी बातें बहुत पुरानी हैं, ऐसा लगता है वो सब किसी और जन्म में हुआ था, इसके बावजूद कुछ यादें इतनी जीवन्त हैं जैसे कल ही की बात हो।’’ (पृष्ठ 23) ऊपर दिए गए इस किताब का सार संक्षेप उन्हें इस मकसद में कामयाब बनाता है।
कुल मिलाकर ज़ोहरा सहगल ने अपनी आत्मकथा में सौ साला जिन्दगी की कभी बहुत पुरानी तथा कभी एकदम जीवन्त- आज ही की लगने वाली यादों को दर्ज किया है। इन यादों में उनके बचपन, शिक्षा, परवरिश, शादी-ब्याह, देश विदेश की यात्राएँ, नृत्य प्रशिक्षण, पृथ्वी-थिएटर, इप्टा, सिनेमा, ब्रिटिश रंगमंच आदि से जुडे़ कई प्रसंग हैं। कुल 12 खण्डों में विभाजित इस पुस्तक का महत्वपूर्ण खण्ड उदय शंकर बैले कप्पनी की यादों और पृथ्वी थिएटर तथा इप्टा की यादों का खण्ड है। इस किताब में पृथ्वी थिएटर द्वारा मंचित सभी नाटकों के कथानक भी विस्तार से मौजूद है, तथा लेखिका के नाम पृथ्वीराज कपूर के पत्र इस किताब की महत्वपूर्ण उपलब्धि हैं। किताब के पूरे खण्ड पढ़कर यह बात भी उभरती है कि वे जीवन भर नृत्य और अभिनय को लेकर सक्रिय रहीं
इस आत्मकथा के जीवन प्रसंग किस्सागोई के अंदाज में प्रस्तुत किए गए हैं। दूसरे खण्ड यूरोप और डांस स्कूल की यादों को उन्होंने जहां पत्रों के माध्यम से रखा वहीं नवें खण्ड ‘मास्को, बाकू, बर्लिन, डेªसडेन, प्राग’ को डायरी फार्म में लिखा। जीवन प्रसंगों के बीच में फ्रांसिसी मुहावरे, वेदों आदि के उद्धरण से वे रूपक भी तैयार करती हैं।
आत्मकथा का अंत जोहरा सहगल के इस टीस भरे वाक्य से होता है: सच बोलूं तो मैं बहुत कुछ और कर सकती थी। मुझमें कुछ हुनर था और मुझे वह मौके मिले जो मेरी पीढ़ी की बहुत-सी औरतों को नहीं मिले। मैंने उनका क्या किया ? ‘जोरेश’ में भागीदार के बतौर काम करने के अलावा मैंने कभी भी अपना खुद का कोई काम शुरू नहीं किया। पहले मैं उदयशंकर और उसके बाद पृथ्वीराज कपूर जैसे कलाकारों के साथ जुड़ी और उनकी मशहूरी की रोशनी का ही लुत्फ लेती रही।. . . . . यह सच है कि मैंने शारीरिक और मानसिक तौर पर बहुत कड़ी मेहनत की, लेकिन मैं अपने लिए और भी बड़ा नाम कमा सकती थी अगर मैंने अपना कोई थिएटर ग्रुप या स्कूल शुरू किया होता’’ (पृष्ठ 241) वे जब यह सब कहती हैं तो मुझे गिरीश करनाड के ‘तुगलक’ नाटक का अंत याद आता है। मुहम्मद का बरनी से कहा संवाद- ‘‘जो चाहे मेरी दरियादिली, मेरी सखावत, मेरी जिन्दादिली सब कुछ लूट के ले भागे फिर भी मैं रहूंगा बरनी, मेरे साथ मेरा अपना मैं रहेगा और मेरी सनक रहेगी।’’ सचमुच इस किताब के माध्यम से जोहरा सहगल रहेंगी और हमारे साथ रहेंगी।
कलाकार इप्टा की ओर इस तरह से खिंचे चले आते थे जैसे मधुमक्खियाँ शहद की ओर
चालीस के दशक की शुरुआत से ही मुंबई में प्रतिभाशाली लेखकों ने मिलकर प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन यानी प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) नाम से एक साझा मंच बनाया था। ख्वाजा अहमद अब्बास, मुल्कराज आनंद, सरदार जाफरी और राजेन्द्र सिंह बेदी जैसे नामचीन लेखक इस मंच के चमकते सितारे थे। सिलोन (बरास्ता बंगलौर) से एक युवा पत्रकार अनिल डि सिल्वा के दिमाग में एक थियेटर आन्दोलन शुरू करने का विचार आया और लोगों को ऐसा जँचा कि पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन की नींव पड़ गयी।
इप्टा एक स्वयंसेवी संगठन था जिसका मकसद पैसा कमाना न होकर समाज के मौजूदा शासकों के अन्याय के खिलाफ कलाकारों की आवाज को एक मंच मुहैया करना था। चाहे वह गीत हों, कविताएँ हों, बैले हों या नाटक-सभी का मकसद अन्याय के खिलाफ आवाज उठाना था। उस दौर का हर कलाकार जिसका थोड़ा -बहुत भी नाम हो, इप्टा में शामिल था। कलाकार इप्टा की ओर इस तरह से खिंचे चले आते थे जैसे मधुमक्खियाँ शहद की ओर। संगठन में कला के हर क्षेत्र की बड़ी से बड़ी शख्सियतें शामिल थीं।
हालाँकि इप्टा के हर एक सदस्य का नाम ले पाना मुमकिन नहीं है लेकिन आज इतने सालों बाद याद करने पर कुछ नाम जो मुझे याद आ रहे हैं, वो इस तरह हैं- मंचीय कलाकारों में पृथ्वीराज कपूर, बलराज और दयमंती साहनी, दिना गांधी, हबीब तनवीर, चेतन और उमा आनंद, उजरा और हामिद बट, कृष्ण धवन, सफदर मीर, हिमा केसरकोडी, रोमेश थापर, सरजूू पांडे, शैकत कैफी शामिल थे। यह बस मुट्ठी भर लोगों के नाम ही हैं। लेखकों में बहले बताए जा चुके नामों के अलावा कृश्न चंदर, करतार सिंह दुग्गल, इस्मत चुगताई, विश्वमित्र आदिल, बलवंत गार्गी और बहुत सारे और मशहूर लेखक इप्टा से जुड़े थे। डांस करने वालों में शान्ति और गुल बर्धन, नरेन्द्र शर्मा, शांता गांधी, देवेन्द्र शंकर, सचिन शंकर और प्रभात गांगुली वगैरह थे। संगीतकारों में रविशंकर, सलिल चौधरी, सचिन देव बर्मन, शिशिर बर्मन, नागेन डे, जतिन्द्रनाथ कोलोइ और अवनी दास गुप्ता शामिल थे।
फिल्मी दुनिया के नुमाइन्दों में डेविड, मुबारक, शाहिद लतीफ श्याम और आगा खान थे और इप्टा के मकसद को अपनी कविताओं के जरिये लोगों तक पहुँचाने वाले कवियों में हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय, फैज अहमद फैज, कैफी आजमी, मजाज, मखदूम, साहिर लुधियानवी, सुमित्रानंदन पंत, नियाज हैदर, अख्तरूल ईमान और प्रेम धवन शामिल थे। बिनॉय रॉय, उनकी बहन और अमर शेख जैसे लोकगायक अपनी जबरदस्त आवाजों से सुनने वालों की भीड़ पर जादू का-सा असर करते थे। कहने का मतलब यह कि हर कलाकार किसी न किसी तरह से इप्टा से जुड़ा हुआ था।
एक केंद्रीय समिति संगठन का कामकाज सँभालती थी और हर दो या तीन साल बाद एक अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का नामांकन करती थी। हम लोग दिन में अपने-अपने कामों को निपटाने के बाद शाम को मिला करते थे और सामाजिक सरोकारों के लिये सबमें ऐसा जज्बा होता था कि इप्टा के लिये अपना समय देने में कोई गुरेज नहीं होता था। कभी‘-कभी, अगर हमारी किस्मत अच्छी हुई तो हमारे शो थियेटर में होते थे वरना अक्सर हम बड़े हॉल किराये पर लेते थे जो सस्ते पड़ते थे। हमारे बहुत सारे शो सड़कों और नुक्कड़ों पर, यानी जहाँ भी देखने वाले जमा हो सकें, होते थे।
इस तरह के नेशनल थियेटर का यह विचार इतना प्रभावशाली था कि जल्दी ही देश के दूसरे बड़े शहरों में इसकी शाखाएँ खुल गईं। इनमें से कलकत्ता इप्टा सबसे आगे था जिसमें उत्पल दत्त, शम्भू मित्रा और तृप्ति मित्रा जैसी अभिनय और निर्देशन की बहुत ही नामचीन हस्तियाँ शामिल थीं। जैसे बॉम्बे इप्टा आम लोगों तक अपनी बात पहुँचाने के लिये महाराष्ट्र की लोकशैली ‘तमाशा’ व ‘पवाडा’ का इस्तेमाल करता था वैसे ही कलकत्ता में कलाकार बंगाल की ‘जात्रा’ लोकशैली को आधार बनाकर शो तैयार करते थे। उस समय भारत अपनी आजादी की लड़ाई के आखिरी दौर से गुजर रहा था तो जाहिरा तौर पर इप्टा के गानों और नाटकों के विषय काफी इंकलाबी और वामपन्थी हुआ करते थे जो हम सबको मिल-जुलकर काम करने के लिये प्रेरित करते थे।
मैं बॉम्बे आने के एकदम बाद ही इप्टा में शामिल हो गई थी और इसके नाटकों में काफी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती थी। 1947 के दौरान इप्टा के कुछ लोगों को सरकार की ओर से परेशान किये जाने के वाकये हुए, कुछ खास नाटकों पर रोक लगा दी गई, कलाकारों को गिरफ्तार किया गया। उस समय देश में अन्तरिम भारत सरकार थी और जवाहरलाल नेहरू उसके उपाध्यक्ष बनाए गए थे। मैं भी उसी दौरान इप्टा की उपाध्यक्ष चुनी गयी थी। और मैंने पंडित नेहरू को बहुत ही बेवकूफाना तरीके से बेबाकी दिखाते हुए एक चिट्ठी लिखी-‘‘ मैं यह खत बतौर एक उपाध्यक्ष दूसरे उपाध्यक्ष को लिख रही हूँ....’’ मैंने उन्हें इप्टा के सदस्यों के साथ हो रही ज्यादतियों के बारे में बताते हुए उनसे मदद की गुजारिश की।
सोचो जरा मेरी गुस्ताखी! हालाँकि उन्होंने बहुत ही जिम्मेदाराना जवाब देते हुए कहा कि उन्हें कलाकारों के साथ हो रहे व्यवहार के बारे में पता नहीं था ओर वह देखेंगे कि इस बारे में क्या किया जा सकता है और हुआ भी वही, कुछ समय बाद ही इप्टा की दिक्कतें खत्म हो गईं।
(साभार: राजकमल प्रकाशन)
लेखिका: जोहरा सहगल
अनुवाद: दीपा पाठक
मूल्य: रु. 495/-
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन, 1-बी,नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली
Friday, August 9, 2013
मुक्तिकामी जनसंघर्ष को लेनी होगी परिवर्तन की पहल: मनीन्द्र नाथ ठाकुर
पटना/4 अगस्त 2013
"राष्ट्रवाद, धर्म और नागरिक को पुनर्भाषित करने की आवश्यकता है और प्रक्रिया को अकादमिक बहसों के सहारे नहीं, बल्कि जनसंघर्षों में शामिल कार्यकर्ताओं, संस्कृतिकर्मियो और साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों को साथ आना होगा. पूरा राजनीतिक, अकादमिक और चिंतन दर्शन पूंजीवाद के संक्रमण में है. इसलिए आवश्यक है कि जनसंघर्ष में शामिल लोग अपने संघर्ष को मुक्तिकामी बदलाव की ओर तेज़ करें".
ललित किशोर सिन्हा स्मृति व्याख्यान के छठे आयोजन में 'राष्ट्रवाद, धर्मं और नागरिक' विषय पर अपनी बात रखते हुए राजनीति अध्ययन केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविध्यालय के सहायक प्रोफ़ेसर डा० मनीन्द्र नाथ ठाकुर ने उक्त बातें कहीं. वर्तमान आर्थिक, सामाजिक और राजनीति के राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य पर चर्चा करते हुए डा० ठाकुर ने कहा कि कल कल जो शब्द हमें आंदोलित-रोमांचित करते थें, उनकी परिभाषा को इस प्रकार पूँजीवाद ने परिवर्तित कर दिया है या किया जा रहा है; जिसका आज उपयोग करने से ना सिर्फ हम हिचकते हैं बल्कि परहेज भी करने लगे हैं. उन्होंने कहा कि आज जनहित और राज
हित में संघर्ष का समय है. राजसत्ता थोड़े ही लोगों के पास है और वे जनहित के शोषण, दोहन में लगे हैं. जो शब्द हमें कल तक आन्दोलित करते थें आज वे हमारे रहे ही नहीं। समाज में सिविल सोसाइटी को विश्व बैंक ने एक नयी परिभाषा में बांध दिया है जो राजसत्ता के साथ खड़ा हुआ सा नज़र आता है. आज राष्ट्रवाद शब्द के कई मायने हमारे पास हैं. गाँधी का राष्ट्रवाद मुक्तिकामी था. हिटलर का राष्ट्रवाद एक व्यक्तिवादी अधिनायक राष्ट्रवाद था. 1947 के बाद भारत में राष्ट्रवाद का सन्दर्भ बदला। राष्ट्र निर्माण का नारा लगा. एक कायदा, एक अनुशासन का राष्ट्रवाद बनाना शुरू हुआ. जब सत्ता ख़तरे में होती तो इन्दिरा गाँधी बोलती "राष्ट्र ख़तरे में है" और पंजाब की सरकार को सत्ता का खतरा होता तो सरकार कहती "क़ौम ख़तरे में है". दरअसल यह ख़तरा राष्ट्र को नहीं, बल्कि ऊँची इमारतों, कल-कारखानों में रहने वाले थोड़े से शासक आदि को होता है. आज़ादी के बाद देश निर्माण का संकल्प पूंजीपति के निर्माण का संकल्प थ. 1980 आते-आते हिन्दुस्तान में दो वर्ग उभर कर आया था - अतिपूंजीवाद और पूंजीवाद। सत्ता के जुड़े कुछेक लोग लाभ ले रहे हैं और जनता शोषित हो रही है. यह साफ़ नज़र आ रहा है कि राजसत्ता में शामिल लोगों की गाँधी टोपी उतर गई है और धर्म व धर्मनिरपेक्षता की आड़ में विदेशी पूँजी का कब्ज़ा हो गया. राष्ट्रवाद का इस्तेमाल राजसत्ता को बचाने में किया जा रहा है और धर्मं को इस पुरे प्रकरण में टूल की तरह प्रयोग में लाया जा रहा है.
बिहार के ताज़ा राजनीतिक प्रकरण और जदयू-भाजपा के 17 साल पुराने गठबंधन की टूट पर चर्चा करते हुए डा० ठाकुर ने कहा कि यह काफी आश्चर्य का विषय है कि कैसे विश्व बैंक इस राजनीतिक घटनाक्रम को देख रहा है. आज बिहार में विश्व बैंक के 20 हज़ार रूपये का क़र्ज़ है और वर्ष 2005 की विश्व बैंक की रिपोर्ट में सुझाये गए मॉडल पर ही नीतीश जी की विकास गाथा लिखी जा रही है. एक ओर जहाँ विश्व बैंक नरेन्द्र मोदी पर अपना ध्यान और पूँजी लगाये है, वहीँ दूसरी ओर बिहार में इस प्रकार के राजनीतिक प्रकरण पर सन्नाटा चिंतन और समझने का विषय है. इस पूरे घटनाक्रम को देखने, समझने और इस विमर्श करने की ज़रुरत है. 11% का जीडीपी ग्रोथ और गैर-उत्पादक गतिविधियों में राजसत्ता का निवेश बिहार को कहाँ ले जाएगा; यह सोचने और इसपर बोलने की ज़रुरत है. इस सम्बन्ध में बिहार इप्टा की यह काफ़ी महत्वपूर्ण है और जनसंघर्ष की प्रासंगिकता को एक बार फिर से रेखांकित करता है. यह सवाल ज़रूर पूछें कि बिहार का विकास कहाँ पर हो रहा है.
राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि देश में पूंजीवाद का विकृत स्वरुप खुल कर दिख रहा है. पूँजीवाद राष्ट्रीय नीतियों और चर्चाओं को निर्देशित कर रहा है. जब इस पर संकट आता है या विरोध की कोई आवाज़ निकलती तो उसे धर्म और राष्ट्रवाद की सीमाएं लाद दी जाती है. इस पुरे सन्दर्भ में हमारी भूमिका क्या होगी और हम किसके साथ मिलकर अपने मुक्तिकामी जनसंघर्ष को आगे बढाएँगे? धर्म के सन्दर्भ में अपनी बात रखते हुए उन्होंने कहा कि धर्म को वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ देखना और मानना चाहिए क्योंकि यही वह जगह है जहाँ से हम तर्क कर सकते है. हिन्दुस्तानी अवाम धर्म को मानता नहीं बल्कि धर्म के साथ जीता है.
स्थानीय अनुग्रह नारायण सिन्हा सामजिक अध्ययन संस्थान में आयोजित इस कार्यक्रम की शुरुआत बिहार इप्टा के कार्यकारी अध्यक्ष व वरीय संगीतकार सीताराम सिंह के गायन से हुई. उन्होंने कैफ़ी आज़मी की नज़्म 'सोमनाथ' से कार्यक्रम का आगाज़ किया। बिहार इप्टा संरक्षक मंडल के साथी व शिक्षाविद प्रो० विनय कुमार कंठ व्याख्यान की अध्यक्षता करते हुए कहा कि इप्टा की नायक जनता है और रंगकर्म, संगीत, गीत, नृत्य के माध्यम से जनता की बात रखी जाती है. जो बातें समाज में होती है, घटती है, इप्टा उसको प्रस्तुत करता है. इप्टा के लिए संस्कृतिकर्म महज कर्म नहीं बल्कि एक खास समझ और सोच के की गई सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है. इप्टा के एक दौर में जहाँ धर्म के साथ थोड़ी दूरी रखी जाती थी, मार्क्सवादी विचारधारा के दौर में धर्म के प्रति एक दूरी थि. लेकिन समय बदला है इप्टा ने धर्म के साथ विमर्श करना शुरू किया है. गाँधी को भी अपने साथ लिया है. बिहार इप्टा का 15 से 'हे राम' कार्यक्रम का आयोजन और कुछ साल पहले 'मुझे कहाँ ले आये हो कोलम्बस' नाटक की प्रस्तुति (जहाँ धर्म/आस्था का बिम्व है) इप्टा
के बढ़ते दायरे का द्योतक है. धर्म कहीं से भी जीवन से अलग नहीं है. गाँधी ने धर्म को अपने साथ केंद्र में रखा है. जिन्ना और आज़ाद ने धर्म को अपने तरीके से देखा। धर्म परम्परा और संस्कृति का अंग है, तो इसे कैसे संस्कृतिकर्म से अलग करके देखा जा सकता है. उन्होंने आगे कहा की राष्ट्रवाद और धर्म की अवधारणा पारम्परिक है. अधिकतर लोग मानते हैं कि राष्ट्रवाद और धर्म की अवधारणा आधुनिक है. अकादमिक स्तर पर समाजशास्त्र राष्ट्रवाद को राज्य केन्द्रित अवधारणा के रूप में देखता है. राष्ट्रवाद को राज्य से काट कर नहीं देख सकते हैं. ऐसी परिस्थिति में राज्य, राष्ट्रवाद को अलग नहीं देख सकते है. और तब जब राष्ट्र जनविरोधी हो जाये, तो राष्ट्रवाद को समझना होगा। भारत में एक दौर राष्ट्रवाद उपनिवेशवाद के विरोध में आया था किन्तु आज राष्ट्रवाद एनडीए और यूपीए की राजनीति में आ गया है. आज राष्ट्रवाद को धर्म के दायरे में लाकर एक ख़तरा पैदा किया गया है. जो राष्ट्र की अवधारणा के लिए भी ख़तरा है और यह खतरा धर्म को लेकर बांटने, विभाजन पर आधारित है. इसी सन्दर्भ किसी भी व्यक्ति को नागरिक मान लेना कितना सही है? मैं शिक्षा पर काम करता हूँ और ऐसी शिक्षा देने में विश्वास करता हूँ जो अच्छा नागरिक बनाये. परन्तु यह अच्छा नागरिक कौन है, जो राष्ट्र के विरोध में कुछ ना बोले, राजनीतिक फैसलों को हर परिस्थिति में स्वीकार करे या कोई जो विरोध करने वाला, अपनी आवाज़ रखने वाला अच्छा नागरिक है.
कार्यक्रम का संचालन करते हुए पटना इप्टा के कार्यकारी अध्यक्ष तनवीर अख्तर ने ललित किशोर सिन्हा स्मृति व्याख्यान श्रृंखला और धर्म व् राजनीति के सम्बन्ध में इप्टा की समझ को रखा.
इस दौरान कवि आलोक धन्वा, अरुण कमल, प्रगतिशील लेखक संघ से कर्मेंदु शिशिर, बिहार इप्टा अध्यक्ष समी अहमद, न्यूरोसर्जन डा० सत्यजीत, अभिनेता जावेद अख्तर खां, फीरोज़ अशरफ़ खां, सहित बड़ी संख्या में विभिन्न संगठनो के बुद्धिजीवी, साहित्यकार, प्राध्यापक, संस्कृतिकर्मी और युवा उपस्थित थें. धन्यवाद ज्ञापन रुपेश ने किया।
आयोजन के सहभागी इस्ट एंड वेस्ट एडुकेशनल सोसाइटी, अल-खैर चैरिटेबल ट्रस्ट, कोशिश, पुनश्च और अनुपम समाज सेवा संस्थान थे. इस अवसर पर पटना इप्टा की सचिव डा० उषा वर्मा ने बताया कि डा० मनीन्द्र के व्याख्यान वीडियो रिकार्डिंग करवाई गई है और यह इप्टा बिहार की सारी इकाइयों के माध्यम से पूरे बिहार में दिखाई जायेगी।
Thursday, August 8, 2013
अनुभव की प्रयोगशाला में आवाजाही का कवि : पवन करण
महेश कटारे |
कुछ दूर से ही सही, मैं पवन करण की रचना यात्रा का साक्षी रहा हूँ। निम्न मध्यवर्गीय परिवार और सचमुच ही पिछड़ी जाति में जन्में इस कवि के पास न वंश परंपरा के साहित्य संस्कार मिले न वह गुरू परंपरा ही नसीब हुई जिसका उल्लेख हो सके । इसलिए यही कहा जा सकता है कि उन्होंने कविता का पाठ जीवन की पाठशाला से सीखा।
अपने पहले काव्य संग्रह 'इस तरह मैं' से ही इन्हें एक संभावनाशील कवि के तौर पर पहचाना जाने लगा था क्योंकि वहाँ कुम्हार के आँवा से निकले घड़े की तरह आँच सोखकर, भीतर तलहटी में स्मृतियों की राख चिपकाए, अनपढ़ मुँह के बाहर आती बोली के झिझकते शब्दों में, अभाव का उत्सव खेलते जीवन के दृश्य का दिखाई दिये थे। उन दृश्यों में कुछ कविताओं के सहारे झांकते हुए पवन करण के रचना संसार को टोहना शायद अधिक उपयुक्त होगा। जैसे एक कविता है 'सांझी'- सांझी कच्चे घरों की दीवार पर गोबर से बनाई जाती है और गाँव की लड़कियाँ इसे कुंआर के महीने में चढती शरदऋतु के बीच खेलती हैं। 'सांझी' लोक जीवन के सृजन उल्लास की कलात्मक अभिव्यकित ही नहीं, सामूहिक साझेदारी का प्रशिक्षण भी है। उसका एक अंश है:
"देखें कि इन्होंने जो गोबर से
साँझी की आँखें बनाई हैं।
उन आँखों में कितने सपने भरे हैं
कितने गुलाबी हैं
उन आँखों में कितने सपने भरे हैं
कितने गुलाबी हैं
गोबर से बनी साँझी के होंठ
गोबर से बनी बिंदिया कैसी चमक रही है
कितनी खुशबूदार है
गोबर से बनी बिंदिया कैसी चमक रही है
कितनी खुशबूदार है
गोबर के फूलों की माला
कितना लकदक है गोबर का पेड़
गोबर की चिड़िया भर रही है उड़ान कितनी ऊँची
कि कितने मीठे हैं
कितना लकदक है गोबर का पेड़
गोबर की चिड़िया भर रही है उड़ान कितनी ऊँची
कि कितने मीठे हैं
साँझी की देह पर जड़े
मिटटी के बताशे।"
लगता है जैसे लडकियों के हाथों में प्रकृति की प्राणवत्ता आ बैठी हो - रूप, रस, गंध, स्पर्श के सपनों को आकार देने। इसी क्रम में कुछ और कविताओं के अंश है जो कवि के प्रस्थान और अस्थान के अनुमान में सहायक है। चूल्हा कविता से पंक्तियां हैं-
"इसकी आग में मैं अपना इतिहास बांचता हूं
लोग इसे सिर्फ चूल्हा समझते हैं
मेरी नजरों में इसकी तौल पुरखे के बराबर है
इसकी राख में मुझे अपनी भूख दबी मिलती है"
इस तरह मैं एक प्रकार से वह पालना है जिसमें कवि पवन करण के पाँव दिख जाते हैं। गोकि अब पाँवों का उतना महत्व नहीं रहा। तकनालोजी ओर मैनेजमेन्ट के प्रशिक्षण ने पाँव तो क्या, बहुत जगहों पर आदमी को ही हाशिये पर सरका दिया है। पर मैं एक कविता की कुछ पंक्तियां भी रखना चाहता हूँ -
"उस अकेली वीरान औरत के पास जिसे हम बूढ़ी माँ कहकर बुलाते हैं
एक एलबम है
(जिसे) रखती है वह संदूक में सँभलकार
मगर जब भी एलबम खुलती है
खुलती है वह निर्जन औरत
मगर जब भी एलबम खुलती है
खुलती है वह निर्जन औरत
खुलता है उसका भयावह सूनापन
उस औरत का दिल सीने में नहीं संदूक में बंद एलबम में धड़कता है।"
('एलबम कविता से )
उस औरत का दिल सीने में नहीं संदूक में बंद एलबम में धड़कता है।"
('एलबम कविता से )
इस आरंभिक संग्रह की 'पिता' कविता से बस कुछ पंक्तियां और .....
"पिता भले ही न कहते हों
साग रोटी में अब वो स्वाद
नहीं आता उन्हें
जब माँ थी
जब माँ थी
तब, पिता बहार की तरह थे।"
ऐसी ही अनेक कविताएँ पहले संग्रह से पाठकों तक पहुँची और इस बात की गवाह बनीं कि सामाजिक और स्थितिगत दवाबों के बीच छटपटाती अभिव्यक्ति जब विफलता के मौन की उँगली पकड़ती है तब उसे आश्वस्त करने का माध्यम बनती है कविता।
इनका दूसरा काव्य संग्रह 'स्त्री मेरे भीतर' बहुत चर्चित हुआ। इसकी एक विशेषता तो यह थी कि यहाँ सदाशयी संकोच व औपचारिकता से आगे बढ़कर अपने भीतर को खखोलते, खँगारते हुए बहन, बेटी, पत्नी, माँ और सहकर्मी जैसे विविध स्त्री रूपा को परंपरा की सीप में बंद समाज से अलग हटकर स्त्री विमर्श के नये, बेबाक कोण से समझने की कोशिश की गई। कुछ इस तरह ..
"वह जो मेरे भीतर बैठी हैं, मुँह सिए चुपचाप
किसी दृश्य के लिए मानते हुए
जिम्मेदार मुझे होते हुए देखना चाहती है मेरे साथ संगसार
किसी घटना के लिए थूकना चाहती है मेरे मुँह पर
किसी अन्याय के लिए चढ़ा देना चाहती है मुझे वह फाँसी।"
अर्थात यह कुछ कहने से पहले कुछ कर डालने वाली चाह की स्त्री है। यह स्त्री घर की दहलीज लाँघकर कालेज होती हुई किसी आफिस की कुर्सी तक भले पहुँच गई हो किन्तु सूरज की डूबती किरणों से पहले उसे देहरी के भीतर पहुँच जाना होता है। घर से मिली छूट के साथ कोई भय भी लगातार उसके पीछे-पीछे चलता रहता है। इसलिए कि तरूणाई की सीढ़ी पर पहला पाँव रखते ही लड़की 'स्त्री दिखने लगती है। 'एक खूबसूरत बेटी का पिता' कविता में अपेक्षाकृत आधुनिकता का हामी पिता भी अपने भय से मुक्त नहीं हो पाता-
"दरअसल उन तमाम पिताओं की तरह मेरा भय भी यही है कि
मैं एक खूबसूरत बेटी का पिता हूँ
और ..
मेरी बेटी की खूबसूरत चुभती हुई है।"
पवन करण |
आशय यही कि पवित्र वर्जनाओं की मानसिक सुरक्षा में जीते हुए, उन्हें फलांगने की कामना रखती लड़की या स्त्री को अभी भी किसी उदार आर्शीवाद की अपेक्षा है। मध्य-वर्गीय भद्रलोक की वर्जनाओं से भिड़ंत की धमक वाली ये कविताएँ पाठक के संवेदनतंत्र में कुछ अलग ही प्रकार से हलचल पैदा करती हैं। क्योंकि कि भारतीय समाज अभी दैहिक स्वाद के लिए जिज्ञासु बेटी, उस स्वाद की स्मृतियों के पृष्ठ उलटती पलटती अधेड़ विधवा, प्यार करती हुई माँ को अपने संस्कारों के बीच जगह नहीं दे पाया है। 'प्यार करती हुई माँ, बहन का प्रेमी जैसी कविताएँ वर्जनाओं को लाँघकर अपनी देह के स्वीकार की सामाजिक रहनुमाई का हिस्सा बन जाती हैं। कवि जरूरत के ऐसे सुख का अधिकार माँ, बेटी, बहन को ही नहीं पत्नी को भी देने का पक्षधर है।
इस तरह 'स्त्री मेरे भीतर' की कविताओं ने भद्रलोक के काव्य वितान में छेद करते हुए प्रेम और देह के बीच खड़ी की गई झीनी, रोमांटिक चादर को किनारे सरकाया है। पवन करण के कहने की कला भाषा के सहज संबोधन में निहित है जिसके कारण पाठक चालाक शब्दों और उनकी चमक में चौंधियाने से बचता है जो भाषा हनन में बड़ाई मानकर कविता के परदेशी शिल्प सजाते हैं। विश्वसनीयता की आश्वसित ही 'प्यार में डूबी माँ कविता की ये पंकितयाँ लिखवाती है -
''इन दिनों उसे देखकर लगता ही नहीं
कि यह औरत तुम्हारी विधवा है
इन दिनों मे उसे प्रेम करते ही नहीं
अपने प्रेम को छिपाते और बचाते भी देख रही हूँ
यह छिपाना और बचाना एक स्त्री का अपनी पहले की उम्र में लौटकर नया हो जाना भी है।"
इन दिनों मे उसे प्रेम करते ही नहीं
अपने प्रेम को छिपाते और बचाते भी देख रही हूँ
यह छिपाना और बचाना एक स्त्री का अपनी पहले की उम्र में लौटकर नया हो जाना भी है।"
'अस्पताल के बाहर टेलीफोन' पवन करण का तीसरा काव्य सग्रंह है। यहाँ पहुँचते हुए रचनाकार की नाप, परख भी होने लगती है कि कवि आगे बढ़ा है या वस्तु और प्रविधि मे एक जगह खड़े होकर कदमताल कर रहा है? संग्रह की शीर्षक कविता को ही लें तो हम पाते हैं कि उसमें एक कथा है - गाँव के आदमी का बेटा अस्पताल में मर गया है। इस मरने की अनेक अंर्तकथाएं संभव हैं जैसे दवा के अभाव में मरा, डाक्टरों की लापरवाही से मरा, अपनी हताशा में आत्मवध चुना या और भी कुछ .............। पर एक बात उभरकर आती है कि अस्पताल की व्यवस्था ठीक नहीं हैं। इसमें बदलाव होना चाहिए। बीमारी का सही निदान हो। लोग जीवन की खुशी के साथ घर लौटें। गो कि यह टेलीफोन एक सूचना का सार्वजनिक माध्यम है किन्तु इसका लाभ सीमित लोग ही उठाते हैं। दायरे से दूर का आदमी इस माध्यम से उम्मीद भले ही पाल लें पर वह पूरी नहीं होगी। इस प्रकार यह कविता एक मार्मिक प्रसंग के जरिये विकास की विडंबना का चेहरा बना देती है। 'पिता की आँख में पराई औरत', 'कभी रहा है प्रेम तो अब भी होगा' या 'मुझ नातवां के बारे में पाँच प्रेम कविताएँ' भी हमें पहले से अलग नजरिये के साथ मिलती हैं। 'बाजार' नाम की कविता में वह कहते हैं -
''वह प्रभावशाली ढंग से बजाता है हमारे दरवाजे की घंटी
हम उसकी गोरी चमड़ी के प्रकाश में
इस तरह डूब जाते हैं कि उससे पूछ ही नहीं पाते वजह
और चला आता है घर के भीतर
इस तरह अनायास और अदत्त अधिकार के बावजूद
सिर्फ अपने आने की सूचना का संकेत भर देकर
बाजार हमारे घर में बैठ घर की आवश्यकताएँ तय करने लगता है
हमारा रहन सहन, हमारी जीवन पद्धति को निर्वासित करते हुए
आलस, अनुत्पादकता और चौंध मारती लालसा को स्थापित कर देता है।"
बाजार के इस बारीक यथार्थ को पवन करण ने बहुत सहजता से व्यक्त कर दिया है।
एक खूब दिलचस्प कविता है - 'लात-मंत्री' मुलाहिजा कीजिये -
''मुख्यमंत्री ने अपने पैरों में उनसे कई दिनों तक
नाक रगड़वा लेने के बाद उन्हें मंत्री पद सौंपा है।
मंत्री बनने के बाद आज वे पहली दफा
प्रदेश की राजधानी से अपने शहर में पधार रहे हैं।
अखबार भरे पड़े हैं उनके स्वागत की अपीलों से।"
यह आज का राजनीतिक यथार्थ है, सामाजिक यथार्थ है और मुक्तिबोध के अनुसार एक 'नीच ट्रेजेडी' है, लोकतंत्र की। निर्मल वर्मा जिस यथार्थ को कहानी में 'झाड़ी में छिपे पक्षी को तरह बताते हैं उस यथार्थ को पवन करण बहुत सरलता से पकड़कर झाड़ी के ऊपर बिठा देते हैं कि यह है, देखो। देश मे सामाजिक और राजनीतिक उद्वेलन के दो बड़े कारक रहे हैं- एक है मण्डल आयोग दूसरा छह दिसम्बर का बाबरी काण्ड। मण्डल आयोग के जातिवादी फलितार्थो पर तो इस कवि ने मुखरता नहीं दिखाई है पर बाबरी काण्ड के बाद उठी सांप्रदायिक लपटों से आहत तन मन की टोह शिददत से की है। दरअसल भारतीय वर्णवाद ने मुस्लिम समाज को धीरे-धीरे एक वर्ण के रूप में स्वीकार कर लिया था। जैसे ब्राम्हणों में कई जाति के ब्राम्हण हैं और क्षत्रियों में कई किस्म के छत्रिय उसी प्रकार वैश्यों में अनेक प्रकार तथा शूद्रों की विभिन्न जातियाँ हैं। हैं सभी हिन्दू या सनातनी। उसी प्रकार एक वर्ण मुस्लिम मान लिया गया पर था वह अपने ही भारतीय। राजनीतिक लोलुपता ने 'अलग पहचान की बात उठाकर इसे अलगाना शुरू किया और बात छह दिसंबर तक पहुँच गई। खैर पवन करण कि एक कविता है -'पहलवान", उसकी कुछ पंकितयाँ हैं -
अपनी सैलून में भी, उन्होंने कुछ पहलवानों की
तस्वीरें लगा रखी हैं जिनमें एक तस्वीर
मशहूर पहलवान गामा की भी है।
तस्वीरें लगा रखी हैं जिनमें एक तस्वीर
मशहूर पहलवान गामा की भी है।
गामा को हमारे यहाँ विश्वविजयी पहलवान कहा जाता था। कोई न जानता था, न कहता था कि उनका जन्म दतिया के किसी मुसिलम परिवार में हुआ था। सुना है कि उनके मुसलमान होने का पता हजारों गाँवों को तब लगा जब उनके पाकिस्तान जाने बाबत सुना गया। हालाँकि उनसे गण्डा बँधवाने वाले सैकड़ों हिन्दुओं ने उन्हे नमाज पढ़ते देखा था पर वह तो ईश आराधना है। कोई किसी ढंग से करता है कोई किसी ढंग से। राजनीति ने इस सामाजिक समरसता में पलीता लगा दिया। हिन्दू, मुसलमान लड़के आदि कविताएँ सहज मानवीय स्तर पर अपनी संवेदना उदघाटित करती हैं। 'मुसलमान लड़के' कविता में वह कहते हैं -
'डरता हूँ, ऐसा न हो, अपना दुख कहते-कहते
अपने लोगों के फंदों में उसकी तरह न उलझ जाएँ वे
जैसे मुझे हिन्दू को अपने जाल में फांसने
नाना प्रकार के ताने बुन रहे है मेरे लोग'
अपने लोगों के फंदों में उसकी तरह न उलझ जाएँ वे
जैसे मुझे हिन्दू को अपने जाल में फांसने
नाना प्रकार के ताने बुन रहे है मेरे लोग'
कवि का डर कतई बाजिब है। विगत बीस वर्ष में चेहरों और वेशभूषा से मुसलमान दिखने का चलन जिस तेजी से बढ़ा है, वह शुभ तो कतई नहीं हैं।
'मुझ नातवां के बारे में: पाँच प्रेम कविताएँ'। नातवां से आशय अप्रबल, सामर्थ्यहीन....। ये कविताएँ 'स्त्री मेरे भीतर' का अगला चरण हैं। पाँच कविताऐं आपस के पाँच प्रश्नों का आधार लेकर बुनी गई हैं जिसमें प्रेम और प्रेमियों पर सामाजिक सोच का लेखा जोखा है और प्रेम जैसे पुरातन पद मे नये समसामयिक आयाम जोड़ती हैं।
पवन करण का पहला कविता संग्रह ' इस तरह मैं' वर्ष 2000 में आया था और ताजा संग्रह 'कहना नहीं आता (2012) है। वहाँ से यहाँ तक की इस काव्य यात्रा में 'स्त्री' तत्व एक केन्द्रीय भाव की भाँति संग चलता रहा है गोकि उनमें साथ ही साथ और भी विषय है जैसे बाजार, सांप्रदायिकता, दोस्त, पिता, कविता। पवन करण की कविता मध्यवर्गीय नैतिकता का ध्वंस करती है। उन्होंने अपनी कहन के शब्द, मुहावरे, औजार सड़क और गलियों से उठाएं हैं, अत: भाषा में भद्रकाव्य के घूँघट न होने से वह नये अनुभव का आस्वाद देती है। कविताएँ कहीं भी कवि के 'मैं को अस्वीकार नहीं करती अत: रचनात्मक संघर्ष द्विस्तरीय हो जाता है-व्यकितगत जो आंतरिक है और बाह्रा जो सामाजिक है।
'कहना नहीं आता' में तुलसीदास की कविता 'विवेक एक नहिं मोरे' वाली भक्तिकालीन विनम्रता नहीं अपितु यह भाव निहित है कि 'क्योंकि मैं ऐसा हूँ इसलिऐ मुझे कहना नहीं आता' -
जिनके पास कहने को है
जो कहना चाहते हैं
जिन्हें कहना नहीं आता
मैं उनमें से एक हूँ।
जिन्हें कहना नहीं आता
मैं उनमें से एक हूँ।
इस प्रकार उनकी कविताएँ लटपट भाषा वाले वृहत्तर समाज की अगुआई में खड़ी हो जाती हैं। हाँ इतना अवश्य है कि चार संग्रहों के बारह वर्षों में 'स्त्री मुग्धा से प्रौढा हो लेती है और भाषा भी....।' सो उनके 'कहने' की कड़ी पूछ परख लाजिमी है।
संपर्क :
महेश कटारे
निराला नगर, सिंहपुर रोड,
मुरार, ग्वालियर - 474006 (म.प्र.)
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