Friday, May 31, 2013

मध्यवर्ग का बदलता चरित्र : अनिल राजिमवाले

विगत 26 अप्रेल 2013 को कॉमरेड अनिल राजिमवाले का व्याख्यान रायगढ़ इप्टा और प्रलेस के संयुक्त आयोजन में हुआ था। इसके बाद 27 तथा 28 अप्रेल को रायगढ़ इप्टा द्वारा वैचारिक कार्यशाला भी आयोजित की गयी। अनिल जी ने मध्यवर्ग के बदलते चरित्र पर विस्तार से रोशनी डाली। उनके व्याख्यान का लिप्यांतरण, उषा आठले के सौजन्य से :


ज के भारत की कई विशेषताओं में एक विशेषता यह है कि मध्यवर्ग एक ऐसा उभरता हुआ तबका है, जिसकी संख्या, जिसका आकार और जिसकी अंतर्विरोधी भूमिका बढ़ती जा रही है। इस विषय को लेकर कई तरह के मत प्रकट किए जा रहे हैं, चिंताएँ प्रकट की जा रही हैं, आशाएँ प्रकट की जा रही हैं। और कभी-कभी यह देखने को मिलता है कि प्रगतिशील और वामपंथी आंदोलन के अंदर एक प्रकार की आशंका भी इस बात को लेकर प्रकट की जा रही है।

जिसे हम मध्यम वर्ग कहते हैं, मिडिल क्लास, हालाँकि इसे मिडिल क्लास कहना कहाँ तक उचित है, यह भी एक शोध कार्य का विषय है - यह हमारे समाज का, दुनिया के समाज का काफी पुराना तबका रहा है। इतिहास में इसने हमारे देश में और दुनिया में बहुत महत्वपूर्ण भूमिकाएँ अदा की हैं, इसे मैं रेखांकित करना चाहूँगा। आप सब औद्योगिक क्रांति और उस युग के साहित्य से परिचित हैं। मार्क्स और दूसरे महान विचारकों, जिनमें वेबर और दूसरे अनेक समाजशास्त्रियों ने इस विषय पर काफी कुछ अध्ययन किया है, लिखा है। इसलिए मध्यवर्ग एक स्वाभाविक परिणाम है, वह दरमियानी तबका, जो औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप  पैदा हुआ। इसका चरित्र अनेक सामाजिक-सांस्कृतिक कारणों और कारकों से तय होता है। जब इस दुनिया में पूंजीवाद आया, और जब हमारे देश में भी जब पूँजीवाद आया तो उसकी देन के रूप में मध्यवर्ग आया - उसका एक हिस्सा मिडिलिंग सेक्शन्स थे। फ्रेंच में एक शब्द आता है - बुर्जुआ, जो अंग्रेजी में आ गया है और बाद में हिंदी में भी आ गया है। दुर्भाग्य से आज क्रांतिकारी या चरम क्रांतिकारी लोग हैं, वे इस शब्द का उपयोग गाली देने के लिए इस्तेमाल करते हैं। बुर्जुआ का अर्थ होता है मध्यम तबका। यह मध्यवर्ग तब पैदा हुआ जब यूरोप में सामंती वर्ग और मज़दूर वर्ग के बीच में एक वर्ग पैदा हुआ।

अगर आप फ्रांसिसी क्रांति और यूरोपीय क्रांतियों पर नज़र डालें तो इसमें सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों और क्रांतियों में मध्यम वर्ग की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका नज़र आती है। मध्यम वर्ग वह वर्ग था, जिसने उस दौर में सामंती मूल्यों, सामंती संस्कृति, और सामंती परम्पराओं के खिलाफ़ विद्रोह की आवाज़ उठाई। जिसका एक महान परिणाम था 1779 की महान फ्रांसिसी क्रांति। फ्रांसिसी क्रांति एक दृष्टि से मध्यम वर्ग के नेतृत्व में चलने वाली राज्य क्रांति के रूप में इतिहास में दर्ज़ हो चुकी है। सामंतवाद विरोधी क्रांतियाँ तब होती हैं, जब पुराने संबंध समाज को जकड़ने लगते हैं, परंपराएँ जकड़ने लगती हैं और जब मशीन पर आधारित उत्पादन, नई संभावनाएँ खोलता है। हमारे यहाँ भी भारत में अंग्रेजों के ज़माने में एक विकृत किस्म की औद्योगिक क्रांति हुई थी आगे चलकर। यूरोप पर अगर नज़र डाली जाए तो यूरोप में बिना मध्यम वर्ग के किसी भी क्रांति की कल्पना नहीं की जा सकती है। महान अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ, विचारधारा को जन्म देने वाले विद्वान मुख्य रूप से मध्यवर्ग से ही आए थे। वॉल्टेयर, रूसो, मॉन्टिस्क्यो, एडम स्मिथ, रिकार्डो, मार्क्स, एंगेल्स, हीगेल, जर्मन दार्शनिक, फ्रांसिसी राजनीतिज्ञ, इंग्लैण्ड के अर्थशास्त्रियों ने औद्योगिक क्रांति के परिणामों का अध्ययन और विश्लेषण कर नई ज्ञानशाखाओं को जन्म दिया। सामाजिक विज्ञानों के क्षेत्र में, साहित्य में, प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में - चार्ल्स डार्विन को कोई भुला नहीं सकता, न्यूटन तथा अन्य वैज्ञानिकों ने हमारी विचार-दृष्टि, हमारा दृष्टिकोण बदलने में सहायता की है। और इसलिए जब हम औद्योगिक क्रांति की बात करते हैं तो यह मध्यम तबके के पढ़े-लिखे लोग, जो अभिन्न रूप से इस नई चेतना के साथ जुड़े हुए हैं। ऐसा इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ था। यह भी एक विचारणीय विषय है कि औद्योगिक क्रांति से पहले का जो मानव-विकास का युग रहा है, उसमें जो बुद्धिमान लोग रहे हैं और औद्योगिक क्रांति के युग में जो बुद्धिमान विद्वान पैदा हुए हैं, उनमें क्या अंतर है? उन्होंने क्या भूमिका अदा की है? मैं समझता हूँ कि जो पुनर्जागरण पैदा हुआ, जो एक नई आशा का संचार हुआ, जो नए विचार पैदा हुए - समाज के बारे में, समानता के बारे में, प्राकृतिक शक्तियों को अपने नियंत्रण में लाने, सामाजिक शक्तियों पर विजय पाने, कि ये जो आशाएँ पैदा हुईं इससे बहुत महत्वपूण्र किस्म की खोजें हुईं और इनसे मानव-मस्तिष्क का विकास, मानव-चेतना का विकास इससे पहले उतना कभी नहीं हुआ था, जितना औद्योगिक क्रांति के दौरान हुआ। और इसका वाहक था - मध्यम वर्ग। इस मध्यम वर्ग की खासियत यह है, उस के साथ एक फायदा यह है कि वह ज्ञान के संसाधनों के नज़दीक है। इसपर गहन रूप से विचार करने की ज़रूरत है। जब हम मध्यम वर्ग के एक हिस्से को बुद्धिजीवी वर्ग कहते हैं, इंटिलिजेंसिया, जो ज्ञान के स्रोतों, उन संसाधनों के नज़दीक है, यह उनका इस्तेमाल करता है, जो समाज के अन्य वर्ग नहीं कर पाते हैं, दूर हैं। पूँजीपति वर्ग उत्पादन में लगा हुआ है, पूँजी कमाने में लगा हुआ है और उसके लिए ज्ञान का महत्व उतनी ही दूर तक है, जिससे कि उत्पादन हो, कारखाने लगें, यातायात के साधनों का प्रचार-प्रसार हो, उसी हद तक वह विज्ञान का इस्तेमाल करता है। अन्यथा उसे उतनी दिलचस्पी नहीं भी हो सकती है और हो भी सकती है।

वैसे मार्क्स ने मेनिफेस्टो में पूँजीपति वर्ग को अपने ज़माने में सामंतवाद के साथ खड़ा करते हुए कहा था कि यह एक क्रांतिकारी वर्ग है, जो निरंतर उत्पादन के साधनों में नवीनीकरण लाकर समाज का क्रांतिकारी आधार तैयार करता है। और समाज का नया आधार तैयार करते हुए शोषण के नए स्वरूपों को जन्म देता है। दूसरी ओर मज़दूर वर्ग मेहनत करने में लगा हुआ है, किसान मेहनत करने में लगा हुआ है और अपनी जीविका अर्जन करने में, अपनी श्रमशक्ति बेचने में, मेहनत बेचने में लगा हुआ है। इसलिए मध्यम वर्ग की भूमिका बढ़ जाती है। क्योंकि मध्यम वर्ग ज्ञान के, उत्पादन के, संस्कृति क,े साहित्य के उन स्रोतों के साथ काम करता है, जो सामाजिक विकास का परिणाम होते हैं। फैक्ट्री में क्या होता है, उसका अध्ययन; खेती में क्या होता है, उसके परिणामों का अध्ययन; विज्ञान में क्या होता है, उसके परिणामों का अध्ययन; राज्य क्या है, राजनीति क्या है, राजनीतिक क्रांतियाँ कैसी होनी चाहिए या राजनीतिक परिवर्तन कैसे होने चाहिए; जनवादी मूल्य या जनवादी संरचनाएँ कायम होनी चाहिये कि नहीं होनी चाहिये - इस पर मध्यम वर्ग ने कुछ एब्स्ट्रेक्ट थिंकिंग की। इसलिए बुद्धिजीवियों का कार्य हमेशा ही रहा है, खासकर आधुनिक युग में, कि वह जो राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक घटनाएँ होती हैं, उस का सामान्यीकरण करते हैं, उनसे जनरलाइज़्ड नतीजे निकालते हैं। फ्रांसिसी क्रांति नहीं होती, अगर वॉल्टेयर और रूसो के विचार क्रांतिकारियों के बीच प्रसारित नहीं होते। रूसी क्रांति नहीं होती, अगर लेनिन के विचार, या अन्य प्रकार के क्रांतिकारी विचार या मार्क्स के विचार जनता के बीच नहीं फैलते। और हम सिर्फ मार्क्स और लेनिन का ही नाम न लें, बल्कि इतिहास में ऐसे महान बुद्धिजीवी, ऐसे महान विचारक पैदा हुए हैं, जिन्होंने हमारे मानस को, हमारी चेतना को तैयार किया है। आज हम उसी की पैदाइश हैं। कार्ल ट्रात्स्की, डेविड रिकार्डो, बर्नस्टीड, रोज़ा लक्ज़मबर्ग, ब्रिटिश पार्लियामेंटरी सिस्टम, इससे संबंधित जो एक पूरी विचारों की व्यवस्था है; आधुनिक दर्शन, जिसे भौतिकवाद और आदर्शवाद के आधार पर श्रेणीबद्ध किया जाता है। और अर्थशास्त्र से संबंधित सिद्धांत - आश्चर्य और कमाल की घटनाएँ हैं कि अर्थशास्त्र जैसा विषय, जो पहले अत्यंत ही सरल हुआ करता था, पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के साथ, उस उत्पादन पद्धति का एक एक तंतु वह उजागर करके रखता है, जिससे कि हम पूरी अर्थव्यवस्था को स्पष्ट रूप से देख पाते हैं, यह बुद्धिजीवियों का काम है। या अर्थशास्त्रियों ने ये महान काम इतिहास में किये हैं। समाजशास्त्रियों ने हमें समाज के बारे में बहुत कुछ बताया है। यह मंच मुख्य रूप से संस्कृति और लेखन का मंच है, सांस्कृतिक और साहित्यिक हस्तियाँ इतिहास में किसी के पीछे नहीं रही हैं। मैक्सिम गोर्की, विक्टर ह्यूगो, दोस्तोव्स्की जैसी महान हस्तियों ने, ब्रिटिश लिटरेचर, फ्रेंच लिटरेचर, रूसी लिटरेचर ने खुद हमारे देश में भी पूरी की पूरी पीढ़ियों को तैयार किया है। इसलिए मैं कहना चाहूँगा कि बुद्धिजीवी समाज की चेतना का निर्माण करता है, समाज की चेतना को आवाज़ देता है। लेकिन वह आवाज़ देता है - सामान्यीकृत, जनरलाइज़ कन्सेप्शन्स के आधार पर; सामान्यीकृत प्रस्थापनाओं के आधार पर, यहाँ बुद्धिजीवी तबका बाकी लोगों से अलग है।

बहुत सारे लोग यह कहते हुए पाए जाते हैं कि ये बुद्धिजीवी है, मध्यम वर्ग के लोग हैं, पढ़े-लिखे लोग हैं, इनका जनता से कोई सरोकार नहीं है। मैं इस से थोड़ा मतभेद रखता हूँ। जनता से सरोकार तो होना चाहिए, इसमें कोई दो राय नहीं है। लेकिन जनता से सरोकार किस रूप में होना चाहिए? मसलन, मार्क्स क्या थे? मार्क्स का जनता से सरोकार किस रूप में था? मार्क्स या वेबर या स्पेंसर या रॉबर्ट ओवेन या हीगेल या ग्राम्शी - इनका जनता से गहरा सरोकार था। मसलन मार्क्स का ही उदाहरण ले लें। और अगर मैं मार्क्स का उदाहरण ले रहा हूँ तो अन्य सभी बुद्धिजीवियों का उदाहरण भी ले रहा हूँ कि उन्होंने बहुत अध्ययन किया। मेरा ख्याल है, उन्होंने ज़्यादा समय मज़दूर बस्तियों में बिताने की बजाय पुस्तकालयों में जाकर समय बिताया - किताबों के बीच। लेकिन लाइब्रेरी में किताबों के बीच समय बिताते हुए उन्होंने जनता नामक संरचना, जनसमूह, समाज और प्रकृति के बारे में जो अमूर्त विचार थे, जितना अच्छा मार्क्स ने प्रकट किया है, उतना अच्छा और किसी ने नहीं किया है। और कार्ल मार्क्स इसीलिए युगपुरुष कहलाते हैं क्योंकि उनके विचार में पूरे युग का सार - द एसेन्स ऑफ दि एज - को उन्होंने पकड़ा, समझा और प्रकट किया। मज़दूर वर्ग पहले भी संघर्षशील था लेकिन मार्क्स के सिद्धांतों ने या अन्य सिद्धांतकारों के सिद्धांतों ने संघर्षशील जनता को नए वैचारिक हथियार प्रदान किए। और मैं समझता हूँ कि बुद्धिजीवियों का यह सबसे बड़ा कर्तव्य है। बुद्धिजीवी का यह कर्तव्य हो सकता है, होना चाहिए कि वह झंडे लेकर जुलूस में शामिल हो, और नारे लगाए ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ के, लेकिन मैं यह नहीं समझता हूँ कि इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगा देने से ही बुद्धिजीवी क्रांतिकारी हो जाता है। क्रांति की परिभाषा ये है - औद्योगिक क्रांति ने जो सारतत्व हमारे सामने प्रस्तुत किया कि क्या हम परिवर्तन को समझ रहे हैं! समाज एक परिवर्तनशील ढाँचा है, प्रवाह है। और प्रकृति भी एक परिवर्तनशील प्रवाह है, जिसके विकास के अपने नियम हैं, जिसकी खोज मार्क्स या डार्विन या न्यूटन या एडम स्मिथ ने की और जब उन्होंने की तो इनसे मज़दूरों को, किसानों को मेहनतकशों को परिवर्तन के हथियार मिले। इसलिए सामाजिक और प्राकृतिक परिवर्तन जब सिद्धांत का रूप धारण करता है, तो वह एक बहुत बड़ी परिवर्तनकारी शक्ति बन जाता है। और उसी के बाद हम देखते हैं कि वास्तविक रूप में, वास्तविक अर्थों में क्रांतिकारी, परिवर्तनकारी मेहनतकश आंदोलन पैदा होता है। मेहनतकशों का आंदोलन पहले भी था, लेकिन ये उन्नीसवीं सदी में ही क्यों क्रांतिकारी आंदोलन बना? इसलिए, क्योंकि एक ऐसा वर्ग पैदा हुआ, जिसकी स्थिति उत्पादन में क्रांतिकारी थी। यह खोज मार्क्स की थी, जो उन्होंने विकसित की ब्रिटिश राजनीतिक अर्थव्यवस्था से। ब्रिटिश साहित्य या फ्रेंच साहित्य इस बात को प्रतिबिम्बित करता है कि कैसे मनी-कमोडिटी रिलेशन्स, वस्तु-मुद्रा विनिमय, दूसरे शब्दों में आर्थिक संबंध - मनुष्यों के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक, धार्मिक संबंधों को तय करते हैं। अल्टीमेट एनालिसिस! आखिरकार। यह उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के बुद्धिजीवियों की बहुत बड़ी खोज थी। दोस्तोव्स्की ने एक जगह लिखा है, बहुत इंटरेस्टिंग है - ‘नोट्स फ्रॉम द प्रिज़न हाउस’ में उन्होंने लिखा है कि एक कैदी भाग रहा है, भागने की तैयारी कर रहा है साइबेरिया से, कैम्प से। वह पैसे जमा करता है। उनका कमेंट है, ‘‘मनी इज़ मिंटेट फ्रीडम’’ - ‘‘सिक्का मुद्रा के रूप में ढाली गई आज़ादी है।’’ कितने गहरे रूप में पूँजीवादी युग में मुक्ति, व्यक्ति और वर्ग की आज़ादी को सिर्फ एक लाइन में फियोदोर दोस्तोव्स्की ने अपनी किताब में प्रदर्शित किया है।

इसीलिए कहा गया है कि साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब है। अगर मज़दूर वर्ग को समझना है तो इस बात को समझेंगे। हालाँकि साहित्य में मेरा कोई दखल नहीं है मगर अगर मज़दूर ओर किसानों को समझना है तो विश्व साहित्य को समझना पड़ेगा। उसका अध्ययन करना पड़ेगा। क्योंकि साहित्य समाज का दर्पण होता है, प्रतिबिम्ब होता है, जो समय के अंतर्विरोधों और टकरावों के बीच, गति के बीच व्यक्ति के संघर्षों को चरित्रों के रूप में प्रतिबिम्बित करता है और जो लेखक या लेखिका या कवि या कवयित्री इन बिंदुओं को समझ लेते हैं, वे महान साहित्यकारों की श्रेणी में आ जाते हैं। ये है मध्यम वर्ग और मध्यम वर्ग द्वारा रचित महान साहित्य।
साथियो, एक बात की ओर अक्सर ही इशारा किया जाता है बातचीत के दौरान, कि मार्क्स ने यह बात कही थी कि जैसे-जैसे पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली आगे बढ़ती जाएगी, मध्यम वर्ग दो हिस्सों में बँटता जाएगा। लेनिन ने भी इस ओर इशारा किया है। मध्यम वर्ग एक ढुलमुल वर्ग है। वह बनना तो चाहता है पूँजीपति, लेकिन सारे तो पूँजीपति नहीं बन सकते। यह संभव नहीं है। इसीलिए ज़्यादातर मध्यम तबके या छोटे उत्पादक या टीचर, डॉक्टर, वकील या दूसरे मध्यम वर्ग के तथाकथित हिस्से आम मेहनतकशों की ओर धकेले जाते हैं। यह पूँजीवाद का अंतर्विरोध है। इस बात की ओर मार्क्स और अन्य विद्वानों की रचनाओं में इशारा किया गया है कि कैसे दरमियानी तबके हैं, जब हम पूँजीवाद की बात करते हैं तो पूँजीवाद में केवल एकतरफ पूँजीपति और दूसरी ओर सिर्फ मेहनतकश वर्ग नहीं होता है, इन दोनों से भी बड़ा एक तबका होता है, जिसे हम दरमियानी तबका कहते हैं, मध्यम वर्ग कहते हैं। उनमें हमेशा अंतर्विरोधी परिवर्तन होता रहता है। उनका झुकाव आज यहाँ है तो कल वहाँ है, तो परसो और कहीं, उसके एक हिस्से के रूझान इस तरफ है तो दूसरे हिस्से के रूझान दूसरी तरफ हैं। लेकिन दुर्भाग्य से या सौभाग्य से, दुनिया का या हमारे देश का भी ज़्यादातर राजनैतिक नेतृत्व मध्यम तबके से ही आया है।  हिटलर का जब उदय हो रहा था जर्मनी में, तो मिडिल क्लास उसका बहुत बड़ा आधार था और उसे हिटलर से बहुत आशाएँ थीं।

जब पूँजीवाद शोषण करता है, खासकर बड़ा पूँजीवाद, तो मज़दूर वर्ग से ज़्यादा नाराज़गी इसी मध्यम वर्ग को होती है। उसके थोड़े-थोड़े, छोटे-छोटे विशेषाधिकार भी, या सम्पत्ति भी अगर उसके हाथ से निकल जाए तो विद्रोह की भावना से वह भर जाता है। विद्रोह भी कई प्रकार के होते हैं। एक विद्रोह अपने लिए होता है, व्यक्ति के लिए, अपनी सम्पत्ति, अपने मकान के लिए होता है, अपनी ज़मीन के लिए होता है। एक विद्रोह समुदाय के लिए होता है। एक विद्रोह इस या उस पूँजीपति को हटाने के लिए होता है और एक विद्रोह जो होता है, वह व्यवस्था को बदलने के लिए किया जाता है। इसमें अंतर किया जाना चाहिए। और यह अंतर करने का काम बुद्धिजीवियों का है। इसीलिए समाजवाद भी कई प्रकार के होते हैं - ये आज की बात नहीं है, बहुत पुरानी बात है। इन समाजवादों को आप एक जगह नहीं ला सकते। सर्वहारा समाजवाद होता है, पूँजीवादी समाजवाद होता है, सामंती समाजवाद होता है, मध्यवर्गीय समाजवाद होता है, टुटपूँजिया समाजवाद होता है, बदलता हुआ - परिवर्तनीय समाजवाद होता है। जो हमारा औद्योगिक समाज है, वह लगातार व्यक्तियों में परिवर्तन लाता है और उनको अपनी वर्तमान स्थिति से वंचित करता है, यह बात सही है। इसीलिए पढ़े-लिखे लोग, छात्र, नौजवान, टीचर, नेता, मध्यम तबके के लोग नाराज़ रहते हैं जो आखिरकार विद्रोह की भावना का रूप धारण करता है। लेकिन यह विद्रोह दो प्रकार का हो सकता है - पूँजीवाद का नाश कर के उसकी जितनी उपलब्धियाँ हैं, उन्हें हम नष्ट कर सकते हैं। उसने जो प्रगतिशील काम किया है इतिहास में, उसे नष्ट करके उसकी जगह प्रतिक्रियावादी सत्ता कायम कर सकते हैं। इसे ही फासिज़्म कहते हैं। मुसोलिनी और हिटलर ने यही किया था। एंटोनियो ग्राम्शी नाम के बहुत बड़े इटालियन दार्शनिक हो चुके हैं। उन्होंने बड़े अच्छे तरीके से इस मध्यवर्गीय प्रक्रिया और फासिज़्म के मध्यवर्गीय आधार को उजागर किया है। लेकिन ग्राम्शी तो स्वयं फासिज़्म विरोधी बुद्धिजीवी थे और ग्राम्शी और तोग्लियाकी जैसे महान विचारकों ने फासिज़्म का पर्दाफाश किया। लेकिन वे इटली या जर्मनी में फासिज़्म को रोक नहीं सके क्योंकि बुद्धिजीवियों के दूसरे तबके फासिज़्म से, फासिज़्म की चमक दमक से चमत्कृत थे। यह अंतर्विरोध इस तबके में होता है लेकिन फिर भी फासिज़्म से लड़ने का बीड़ा मध्यवर्गीयों ने ही उठाया, उनके बुद्धिजीवियों ने उठाया, उनके बुद्धिजीवियों ने उठाया। ऐसे बुद्धिजीवियों को ग्राम्शी ने कहा है - आर्गेनिक इंटिलेक्चुअल - जो मेहनतकशों का, आम जनता का, आम लोगों के हितों का, मेहनतकश जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसीलिए मैं इस बात पर ज़ोर देना चाहूँगा कि किसी भी प्रस्थापना को यांत्रिक रूप से नहीं लिया जाना चाहिए। मार्क्स और लेनिन खास परिस्थितियों में, खास प्रक्रिया का विश्लेषण कर रहे थे। लेकिन साथ-साथ त्रात्स्की ने भी एक बात कही कि इज़ारेदार पूँजीवाद के विकास के साथ मध्यवर्ग बढ़ रहा है योरोपीय देशों में। यह बात और भी कई विचारकों ने कही है। बाद का इतिहास यह साबित करता है - खासकर प्रथम विश्वयुद्ध एवं द्वितीय महायुद्ध के बीच का जो इतिहास है और उसके बाद का इतिहास, कि उनकी यह बात सही है। जहाँ इज़ारेदार पूँजीवाद विनाश करता है, वहीं गैरइज़ारेदार पूँजीवाद उत्पादन के साधनों का विकास भी करता है। और उत्पादन के साधनों और संचार साधनों के विकास के साथ, अखबारों के विकास के साथ, यातायात के साधनों के विकास के साथ मध्यवर्ग का जन्म होता है, आगे विकास होता है। इसीलिए इंग्लैण्ड, अमेरिका या फ्रांस जैसे देशों में और स्वयं तत्कालीन सोवियत संघ में भी बुद्धिजीवियों ने एक बहुत बड़ी भूमिका अदा की है - बहुत बड़ी संख्या में। रोम्यां रोला जैसे महान लेखक, इलिया एहरेनबर्ग, शोलोखोव या मैक्सिम गोर्की या हमारे देश में राहुल सांकृत्यायन हो, इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

इसीलिए बुद्धिजीवियों की भूमिका इतिहास में घटी नहीं है, बल्कि बढ़ी है, उनकी संख्या बढ़ी है। विज्ञान और तकनीक के विकास में, अर्थतंत्र और अर्थशास्त्र के विकास ने हमारे सामने नए तथ्य लाए हैं। इन तथ्यों का अध्ययन करना बुद्धिजीवियों की बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। और इसीलिए विचारधारा की लड़ाई चलती है। हम अक्सर विचारधारा की लड़ाई या विचारधारा के संघर्ष की बात करते हैं। लेकिन एक बात को, कम से कम मेरे व्यक्तिगत विचार से, हम भूल जाते हैं, इस बात को दरकिनार करते हैं, खासकर उस सच्चाई को, जब हम कहते हैं कि विचारधारा या विचार, चाहे वे किसी भी किस्म के हों, वे हमारे मानस या मस्तिष्क से जुड़े होते है और इसलिए यह सीधे मध्यवर्ग से भी जुड़े होते हैं। मध्यवर्ग ने ही फासीविरोधी चेतना पैदा की है और उसका विरोध किया है। भारत के आज़ादी का आंदोलन अगर देखा जाए तो उसमें पढ़े-लिखे लोगों की भूमिका निर्णायक रही। हमारे यहाँ पश्चिमी शिक्षा अंग्रेजों ने लागू की - सीमित रूप में, और अंग्रेजों के राज में कुछ मुट्ठी भर विश्वविद्यालय, कॉलेज, स्कूल बने, उनमें शिक्षित वर्ग पैदा हुआ। यह शिक्षित वर्ग राष्ट्रवाद, राष्ट्रीयता और उसका एक हिस्सा आगे चलकर समाजवाद का वाहक बना। हमारे देश में वह इतिहास पैदा हुआ, वह संस्कृति पैदा हुई, वह साहित्य पैदा हुआ, जिसने साम्राज्यवादविरोध की आवाज़ बुलंद की, जनता को शिक्षित किया। उस साहित्य के बिना हमें आज़ादी नहीं मिलती। राहुल सांकृत्यायन की रचनाएँ पढ़कर आज भी नौजवान, बिना किसी प्रगतिशील लेखक संघ या पार्टी के, क्रांतिकारी और समाजवादी विचारों की ओर झुकते हैं, यह सच्चाई है। और इसीलिए प्रिंटेड वर्ड्स, मुद्रित साहित्य में बड़ी ताक़त होती है, वो ताक़त हथियारों में नहीं होती, आर्म्स और आर्मामेंड्स में वह ताकत नहीं होती है, जो किताबों, अखबारों और छपी हुई रचनाओं में होती है क्योंकि वह बच्चों से लेकर बड़ों तक, पीढ़ी दर पीढ़ी हमारी चेतना का विकास करती हैं, हमें तैयार करती हैं, हमें मानव बनाती हैं।

और इसीलिए मध्यवर्ग बहुत महत्वपूर्ण स्थिति में है आज । आज इसका चरित्र बदल रहा है। यह एक अंतर्विरोधी वर्ग है। इसमें विभिन्न रूझानें हैं, इसका विकास द्वंद्वात्मक है। लेकिन इतना समझना या कहना काफी नहीं है। इतना कह लेने के बाद, समझ लेने के बाद इसमें यह अनिश्चितता कैसे कम की जाए, इसके नकारात्मक रूझानों को कैसे कम किया जाए और सकारात्मक रूझानों को कैसे मजबूत किया जाए? मेरा ख्याल है कि सचेत और सोद्देश्य आंदोलन बुद्धिजीवियों की, जो अपने को सोद्देश्य होने का दावा करते हैं, उनकी यह बड़ी जिम्मेदारी है।

साथियो, मैं इस बात पर जोर देना चाहूँगा कि आज हम एक अन्य औद्योगिक क्रांति से गुज़र रहे हैं। हम बड़े सौभाग्यशाली हैं, हमारी आँखों के सामने दुनिया बदल रही है। किसी जमाने में, औद्योगिक क्रांति के जरिए खेती की जगह मशीन का युग आया था। उसमें पूरा शतक या दो शतक लग गए थे। लेकिन आज कुछ दशकों के अंदर, तीस-चालीस वर्षों में ये परिवर्तन हुए हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, खासकर पिछले तीस-चालीस वर्षों के अंदर दुनिया में वो परिवर्तन हुए है और चल रहे हैं, जो इतिहास में आज तक नहीं हुए हैं। ये परिवर्तन विज्ञान से संबंधित हैं, ये परिवर्तन तकनीक से संबंधित हैं। आज का विज्ञान बहुत जल्दी तकनीक में बदल जाता है। पहले विज्ञान को तकनीक में बदलने के लिए सौ साल लगते थे अगर, या दो सौ साल लगते थे, वहीं आज दस साल, पाँच साल, दो साल, एक साल के अंदर-अंदर विज्ञान तकनीक में बदल जाता है। आज से तीन-चार दशकों पहले हम इलेक्ट्रॉनिक युग की एक कल्पना-सी करते थे, दूर से बात करते थे, वो चीज़ हमें योरोप की चीज़ लगती थी लेकिन आज वह हमारे देश के विकास का अभिन्न अंग बन चुका है। और न सिर्फ हमारे देश का, बल्कि पूरी दुनिया की जो अर्थव्यवस्था है, पूरे दुनिया का जो समाज है, उसका निर्णायक तत्व वैज्ञानिक-तकनीकी क्रांति है। निर्णायक तत्व इसलिए है, कई कारणों से है कि वैज्ञानिक-तकनीकी क्रांति हमारी चेतना को तैयार करती है, हमारी चेतना का निर्माण कर रही है।    

किसी जमाने में आजादी के दीवाने भगतसिंह या कम्युनिस्ट पार्टी के लोग और कांग्रेस पार्टी के लोग कंधे पर झोला लटकाए, कुछ पतली-पतली किताबें लेकर गाँव में जाया करते थे और ज्ञान फैलाया करते थे। बड़े-बड़े नेताओं ने आज़ादी के आंदोलन में यह काम किया है। वे भी बुद्धिजीवी थे। उन्होंने ज्ञान दिया कि आज़ादी के लिए कैसे लड़ा जाए और आज़ादी के बाद नए भारत का निर्माण कैसे करें - वे सपने थे। कई लोग कहते हैं कि वे सपने टूट गए। खैर, यह एक अलग विषय है। आज वह जमाना गया। हालाँकि आज भी वे इलाके ज़रूर हैं, जहाँ झोला लेकर जाना पड़ता है, जहाँ पैदल चलना होता है। लेकिन आज सूचना, जानकारी, ज्ञान लोगों तक वर्षों में नहीं, घंटों, मिनटों और सेकंडों में पहुँच जाता है। इसका हमारे समाज के ढाँचे पर बहुत बड़ा असर पड़ रहा है। हमारा सामाजिक ढाँचा बदल रहा है और बहुत तेज़ी से बदल रहा है। पिछले दस वर्षों में भारत बदल चुका है। अगर हम प्रगतिशील हैं (प्रगतिशील वह है, जो सबसे पहले परिवर्तनों को पहचानता है) तो शर्त यह है कि इस परिवर्तन को हमें समझना पड़ेगा। यह परिवर्तन चीन में हो रहा है, नेपाल में हो रहा है, वेनेजुएला में, ब्राजील, क्यूबा में हो रहा है और योरोप और अमेरिका में तो हो ही रहा है। इसीलिए आज के आंदोलनों का चरित्र दूसरा है। आज मध्यम वर्ग बड़ी तेज़ी से बेहिसाब फैल गया है। इसलिए पुराने सूत्रों को ज्यों का त्यों लागू करना सही नहीं होगा। उसमें परिवर्तन, सुधार, जोड़-घटाव करना पड़ेगा। मसलन, आज बड़े कारखानों का युग जा चुका है। चिमनियों से धुआँ छोड़ने वाले कारखाने इतिहास के पटल से जा रहे हैं। उनके स्थान पर इलेक्ट्रॉनिक कारखाने आ रहे हैं। मज़दूर वर्ग की संरचना बदल रही है। आप लोग औद्योगिक नगरी में रहते हैं, आपको ज़्यादा अच्छीतरह पता है कि कम्प्यूटरों का किसतरह इस्तेमाल हो रहा है, इलेक्ट्रॉनिक्स का किसतरह इस्तेमाल हो रहा है प्रोडक्शन में। और इलेक्ट्रॉनिक्स का इस्तेमाल करने का मतलब है सूचना का इस्तेमाल करना। सूचना का इस्तेमाल करने का अर्थ ही है मध्यवर्ग का बदलना, मध्यवर्गीय चेतना का बढ़ना, मध्यम तबकों का बढ़ना। यह बात मज़दूर वर्ग पर भी लागू है। पब्लिक सेक्टर का मज़दूर या मज़दूर वर्ग और कारखाने से बाहर दफ्तर में काम करने वाले, विश्वविद्यालय, कॉलेजों या अन्य जगहों में काम करने वाले कर्मचारी, पदाधिकारी और जो भी लोग हैं, जिन्हें हम आम तौर पर मिडिल क्लास की कैटेगरी में रखते हैं; इन दोनों के बीच का अंतर कम हो रहा है। न सिर्फ मध्यम वर्ग की संख्या बढ़ती जा रही है, स्वयं मज़दूर वर्ग का संरचनात्मक ढाँचा, उसकी संरचना भी बदल रही है। वह अब सीधे तौर पर प्रोडक्शन के साथ काम नहीं कर रहा है। और इसीलिए हमारे सामने यह महत्वपूर्ण टास्क है कि इस बदलते हुए का, परिवर्तन का विश्लेषण करना। अब समस्या यह है, संकट यह है कि ये जो नए तबके हैं, युवा वर्ग है, ये उस इतिहास को नहीं जानते हैं। इन्होंने उन उत्पादन के साधनों से काम नहीं किया है। गाँव खाली हो रहे हैं। गाँव की जो खेती है, पंजाब-हरियाणा जैसी जगहों में, उसमें इलेक्ट्रॉनिक उपकरण लग रहे हैं। हमारा जो काम करने का तरीका है कम्प्यूटर, इंटरनेट, ईमेल के साथ, वह दूसरा रूप धारण कर रहा है।

अभी मैं अपनी अगली किताब के लिए फैक्ट्रियों का अध्ययन कर रहा हूँ। देखकर आश्चर्य होता है। पूरे हॉल में आठ सौ स्पीकर्स लगे हुए हैं। गुजरात की एक फैक्ट्री है, उसके पहले गुंटूर की एक फैक्ट्री, उसके बाद पंजाब की एक फैक्ट्री में जाने का मौका मिला। पूरे हॉल के अंदर मुश्किल से दस-बारह वर्कर होंगे। लंच अवर चल रहा था। खाना-वाना खाकर एक-एक बिस्तर लेकर वे लोग लेटे हुए थे। मालिक और मैनेजर उनके सामने से गुज़र रहे थे। थोड़ी देर में उनका आराम करने का समय खत्म होने वाला था और वे लोग काम पर आने वाले थे। मार्क्स ने जब पूंजी लिखी तो लिखने के पहले आरम्भ में उसकी एक आउटलाइन या रूपरेखा लिखी, जिसे साहित्य में ‘ग्रुंड्रिस’ के रूप में जाना जाता है, यह ‘पूंजी की रूपरेखा कहलाती है। उसमें वे लिखते हैं कि अगर प्रोडक्शन ऑटोमेटेड होता है, तो मज़दूर, मज़दूर से ऑब्ज़र्वर के रूप में बदल जाता है। वह मशीन चलाता नहीं, मशीन चलती है और मज़दूर का काम है - उसकी देखरेख करना, उसका ध्यान रखना। आज जो इलेक्ट्रॉनीकरण हो रहा है, उसके जरिये इसमें भी भारी परिवर्तन हो रहे हैं।

साथियो, आज इस देश में तीस करोड़ या चालीस करोड़ मध्यमवर्ग का हिसाब लगाया जा रहा है। हमारे देश की एक चौथाई से एक तिहाई आबादी मध्यवर्ग की हो गई है, बनती जा रही है। क्या हम इस सच्चाई से इंकार कर सकते हैं? इनके बीच भी तरह-तरह की विचारधाराएँ काम करती हैं। कम से कम सौ-डेढ़ सौ चैनल्स काम कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ जैसे छोटे से राज्य में, जो पिछड़ा हुआ माना जाता था और अभी भी है, यहाँ से भारी संख्या में अखबार निकलते हैं, पत्र-पत्रिकाएँ निकलती हैं। हमारे देश में बड़े पैमाने पर सूचना की भूमिका बढ़ती जा रही है। छोटी से छोटी खबर बड़ी बनकर या बनाकर लोगों के सामने आती है। जब हम बुद्धिजीवियों या इंटेलिजेंसिया की बात करते हैं तो विचारों या विचारधाराओं का टकराव निर्णायक बनता जा रहा है। इस बात पर मैं ज़ोर देना चाहता हूँ। प्रगतिशील शक्तियाँ अगर इसकी उपेक्षा करती हैं, इस परिवर्तन की - जो परिवर्तन अंतर्विरोधी है, जिसमें बहुत सारी गलत बातें हैं। जैसे बहुत सारी गलत रूझानें हैं उसीतरह बहुत सी सही रूझानें भी हैं। इन्हें सही रूझानों की ओर झुकाया जा सकता है। अगर हम नए उत्पादन के साधनों को बड़े इजारेदारों के हाथ में छोड़ देते हैं तो समाज की जकड़न बढ़ जाती है। अगर नए उत्पादन के साधनों को मेहनतकश मध्यवर्ग और बुद्धिजीवी इस्तेमाल करता है सही तरीके से, तो बड़ी पूंजी की जकड़न कमज़ोर पड़ती है। वैज्ञानिक-तकनीकी क्रांति ने यह संभव बना दिया है कि जो उत्पादन, जो काम, पहले इस पूरे भवन में हुआ करता था, वह पाँच बाय पाँच के एक छोटे कमरे में हो सकता है। और इसीलिए छोटे पैमाने के उत्पादन की भूमिका बढ़ गई है। घर में बैठकर पढ़ने और काम करने की भूमिका बढ़ गई है। छोटे कार्यालयों की भूमिका बढ़ गई है। यातायात बहुत तेज़ी से बढ़ा है। इस चर्चा को आगे बढ़ाया जाए तो कहा जा सकता है कि देश और दुनिया के पैमाने पर स्थान और काल मिलकर एक नए स्थान और काल का निर्माण कर रहे हैं। That is collapse of Time and Space- जब टाइम और स्पेस कोलॅप्स करता है, तब चेतना का निर्माण नए तरीके से होता है। नया मध्यमवर्ग इसकी देन है - अंतर्विरोधों से भरा हुआ। इसीलिए मैं समझता हूँ कि आज नए सिरे से विश्लेषण की आवश्यकता है। इतिहास में पहली बार दुनिया के ज़्यादातर लोग शहरों में रहने लगे हैं। बहुत जल्दी भारत और चीन के लोग भी, पचास प्रतिशत या आधे से अधिक लोग शहरों में रहने लगेंगे। अब शहरों में ज़्यादातर औद्योगिक कामकाजी वर्ग ही नहीं रहता है, बल्कि मध्यम वर्ग रहता है। उनके बीच संगठन कैसे किया जाए? उनके बीच प्रगतिशील विचारों का प्रसार कैसे किया जाए? ये हमारे सामने चुनौती हैं। फ्लैटों में, कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटियों में, शहरीकृत इलाकों में, यहाँ तक कि उन हिस्सों में भी, जहाँ शहरीकरण हो गया है, हम अपने नए विचारों को कैसे पहुँचाएँ? इसमें इलेक्ट्रॉनिक तरीका भी शामिल है - यह प्रगतिशील ताकतों के सामने बहुत बड़ी चुनौती है। इन विचारों के टकराव में अगर थोड़ी भी देर होती है तो जिन्हें हम गैरवैज्ञानिक विचार कहते हैं, वे बहुत जल्दी पनपते हैं। इसकी शिकायत करने से काम नहीं चलेगा। यह शिकायत का सवाल नहीं है। सवाल इस बात का है कि हम इन वस्तुगत परिवर्तनों को देख रहे हैं या नहीं देख रहे हैं? इसलिए आज एक नए किस्म के बुद्धिजीवी की ज़रूरत है। जो बढ़ते हुए मध्यवर्ग से, जो देश की नीतियाँ निर्मित करता है या कम से कम प्रस्थापित करता है या प्रस्थापनाएँ तैयार करता है, उसमें इनपुट्स डालता है, चेतना को फैलाता है, उसकी बहुत बड़ी सामाजिक भूमिका है, उसके अंतर्विरोध हैं, उसकी कमियाँ हैं - उनका इस्तेमाल प्रगतिशील आंदोलन कैसे करता है! इनके बीच हम अपना साहित्य कैसे ले जाएँ? कितना है हमारा साहित्य इनके बीच? अगर हम छोड़ दें तो पूंजीवाद इनका इस्तेमाल करता है। वह तो करेगा ही। क्यों नहीं करेग कर ही रहा है।  प्रगतिशील ताकतों के पास कितने टीवी चैनल्स हैं? कितने अखबार प्रगतिशील तबके निकालते हैं? सन् 1907 में जर्मन डेमोक्रेटिक पार्टी, जो मज़दूरों की पार्टी थी जर्मनी की, एक सौ सात दैनिक अखबार निकालती थी। जर्मनी एक छोटा सा देश है, हमारे एक राज्य के बराबर। आज हमारे यहाँ कितने प्रगतिशील दैनिक अखबार निकलते हैं? कितने चैनल्स हैं, कितने ब्लॉग्स हैं? कितने ई-मेल और ई-स्पेस पर हमारा दखल है? हम प्रगतिशील साहित्य को कितने लोगों तक पहुँचा रहे हैं? या लोगों तक केवल त्रिशूल ही पहुँच रहा है? क्योंकि हमने जगह खाली छोड़ रखी है त्रिशूल पहुँचाने के लिए, कि पहुँचाओ भाई त्रिशूल! जतिवाद करने के लिए खुला मैदान छोड़ा हुआ है, इसकी जिम्मेदारी हमारे ऊपर भी है। रजनी पामदत्त ने एक जगह लिखा है कि Fascism is the punishment for not carries out Revolution उसी तर्ज़ पर आज हम कह सकते हैं कि प्रतिक्रियावादी विचारों का प्रसार, हमारे द्वारा काम नहीं करने या उचित तरीके से नहीं समझने की सजा है। जब इसतरह के संगठन वैज्ञानिक समझ रखने का दावा करते हैं तो उन्हें यह समझना चाहिए कि विज्ञान वो है, जो आने वाली घटनाओं की दिशा को भी पहले से समझ ले। इसीलिए मैं इस बात पर भी ज़ोर देना चाहूँगा कि तेज़ी से बदलती दुनिया में प्रगतिशील बुद्धिजीवियों का सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य है - भारत के मध्यवर्ग के बीच ज़्यादा से ज़्यादा काम करना। इसके अलावा भी उन्हें मज़दूरों, किसानों के बीच काम करना है ताकि भारत के जनता की चेतना, बुद्धिजीवियों की चेतना विज्ञान और सामाजिक शास्त्रों के सिद्धांत और नए सिद्धांतों की रचना कर सके। पुराने सिद्धांतों को, पुरानी बातों को बार-बार तोता रटंत की तरह दोहराते जाना काफी नहीं है। यह नुकसानदेह है। अब नए सिद्धांतों की रचना कितनी कर रहे है - नए सिद्धांतों की? क्या हममें वो सैद्धांतिक हिम्मत है? क्या हममें वह वैचारिक या विचारधारात्मक हिम्मत है? क्या हममें हिम्मत है कि हम नए वैज्ञानिक विचारों की रचना करें? जो आज के वैज्ञानिक, तकनीकी और इलेक्ट्रॉनिक क्रांति के अनुरूप हो? हम जितना इस नई चेतना का निर्माण करेंगे, उतना ही मध्यवर्ग के बीच और सबके बीच हम प्रगतिशील विचारों का प्रसार कर सकेंगे।

                         


































Wednesday, May 29, 2013

हरिशंकर परसाई की कवितायें

परसाई जी को आपने खूब पढ़ा होगा। मैंने भी। पर कभी उनकी कवितायें पढ़ी हैं? 

आज अचानक उनकी दो कविताएं नजर में आ गयीं। अपनी कविताई पर परसाई जी कहते हैं, ‘शुरू में मैंने दो-तीन कविताएँ लिखी थीं पर मैं समझ गया कि मुझे कविता लिखना नहीं आता। यह कोशिश बेवकूफी है। कुछ लोगों को यह बात कभी समझ में नहीं आती और वे जिंदगी भर यह बेवकूफी किए जाते हैं।’ आपकी राय क्या है? - संपादक

जगत के कुचले हुए पथ पर भला कैसे चलूं मैं ?

किसी के निर्देश पर चलना नहीं स्वीकार मुझको
नहीं है पद चिह्न का आधार भी दरकार मुझको
ले निराला मार्ग उस पर सींच जल कांटे उगाता
और उनको रौंदता हर कदम मैं आगे बढ़ाता

शूल से है प्यार मुझकोफूल पर कैसे चलूं मैं?

बांध बाती में हृदय की आग चुप जलता रहे जो
और तम से हारकर चुपचाप सिर धुनता रहे जो
जगत को उस दीप का सीमित निबल जीवन सुहाता
यह धधकता रूप मेरा विश्व में भय ही जगाता

प्रलय की ज्वाला लिए हूंदीप बन कैसे जलूं मैं?

जग दिखाता है मुझे रे राह मंदिर और मठ की
एक प्रतिमा में जहां विश्वास की हर सांस अटकी
चाहता हूँ भावना की भेंट मैं कर दूं अभी तो
सोच लूँ पाषान में भी प्राण जागेंगे कभी तो

पर स्वयं भगवान हूँइस सत्य को कैसे छलूं मैं?


क्या किया आज तक क्या पाया?

मैं सोच रहासिर पर अपार
दिनमासवर्ष का धरे भार
पलप्रतिपल का अंबार लगा
आखिर पाया तो क्या पाया?

जब तान छिड़ीमैं बोल उठा
जब थाप पड़ीपग डोल उठा
औरों के स्वर में स्वर भर कर
अब तक गाया तो क्या गाया?

सब लुटा विश्व को रंक हुआ
रीता तब मेरा अंक हुआ
दाता से फिर याचक बनकर
कण-कण पाया तो क्या पाया?

जिस ओर उठी अंगुली जग की
उस ओर मुड़ी गति भी पग की
जग के अंचल से बंधा हुआ
खिंचता आया तो क्या आया?

जो वर्तमान ने उगल दिया
उसको भविष्य ने निगल लिया
है ज्ञानसत्य ही श्रेष्ठ किंतु
जूठन खाया तो क्या खाया?

साभार : हिंदी समय वाया जानकीपुल.काम

Tuesday, May 28, 2013

बच्चों के बारे में कुछ बड़ी बातें

ज इप्टा के बाल रंग शिविर समापन की सुबह है, आज सुबह जल्दी उठकर व्यायाम करवाने नहीं जाना था, परन्तु रात एक बजे सोने के बाद भी नींद पांच बजे खुल गई । बिस्तर में पड़े पड़े एक -एक करके बच्चों के चेहरे याद आ रहे हैं ।

इस तरह के शिविर पता नहीं बच्चों के लिए कितने जरूरी हैं मुझे अंदाज नहीं, परन्तु बड़ों को साल भर की धूल धंवास झड़ाने का यह सरलतम ढंग है । लगातार एकरस दुनिया में जीना और रोज रोज बूढे़ होते जाना । बड़े लोगों की ब्रम्हज्ञान से भरी फिजूल बहसें, ...... आगे बढ़ते से लगना पर कोल्हू के बैल सी गति ।किताबों के ढ़ेर पर जीवन में सब कुछ अस्पर्शित । सत्य असत्य के दावे । सही जीवन दृष्टि के सबसे बेहतर अनुयायी और व्याख्याकार होने की सनक, जीवन को सबसे श्रेष्ठ दृष्टि से जानने का भ्रम .... इन सबसे दूर .... शुद्ध जीवन , अनछुआ, जैसा है वैसा है, अगले पिछले के मायाजाल से कोसों दूर.... चेहरे में ही, समय में ठहरे होने का बोध लिए बच्चों का संसार । हमें भी समय में ठहरा देता है । उम्र घटती सी लगती है । ठोस हो गये जीवन में कुछ तरल होने लगता है । यहां कुछ भी स्थूल नहीं था । सब कुछ वायवीय । धुंआ- धुंआ सा । जैसे जो होने को है मुझे पता है । जैसे मैं सब कुछ समझ रहा हूं । और साथ में यह भी कि यहां घास का एक तिनका भी नहीं समझा जा सकता । बच्चों के सानिध्य ने जैसे शरीर के सारे रासायनकि अनुपात बिगाड़ दिये हों । सारी समझ व्यर्थ- सी लग रही है, जीवन का रहस्य जैसा है खुद को उसमें वैसा ही छोड़ देने का, बिना किसी पक्ष विपक्ष के इसके समग्र स्वीकार का एक अतिरेक पता नहीं क्या कर रहा है ? एक लहर जैसी उठ रही है । जैसे फिर से प्रेम हुआ हो । जैसे फिर से जिसे कहा न जा सके । जैसे फिर से कुछ पिघलना चाहता हो ।

उन्हे कुछ भी पता नहीं था कि वे किस प्रक्रिया में अनजाने ही सम्मिलित हो गये हैं । यहां घटी घटनाएं अब उनके खून में बह रही हैं । यहां कि पूरी गतिविधियां अब उनके अवचेतन स्मृति कोश में संग्रहीत है । वे अब वैसे नहीं रहे जैस यहां आने के दिन थे । अब पता नहीं आने वाले समय में होने वाली घटनाओं को सुलझाते वक्त यह स्मृति कोश कितनी दखलंदाजी करेगा । पर इतना तय है कि सबकुछ बदल गया है । उनके लिए तो सबकुछ अवचेतन था, परन्तु हम तो यहां सब होता देख रहे थे । होश में विचारों को जीवन का हिस्सा बनते । हम तो पशुओं की तरह खाए अन्न को निकाल कर चबाने की क्षमता की तरह, शब्दों और घटनाओं की रौंथ करने की क्षमता से लैस हैं । यह सब देखने से हमें हमारे जीवन की वे घटनाएं याद आती हैं जो होते समय बिल्कुल ही साधारण थीं, जिनमें कोई संगीत नहीं था । वे आगे जाकर बड़ी बड़ी घटनाओं के लिए आधार बनीं । आज उन साधारण सी बेजान घटनाक्रमों में जैसे पार्श्व संगीत बज रहा हो । बच्चों के संसर्ग ने जैसे सबकुछ महिमामय बना दिया । बस इतना जरूर लग रहा है कि वे इसे होते हुये नहीं देख पा रहे वे इसके परिणाम ही देखेंगे और हम जैसे इस सारे समय को पतंग के मंजे की तरह छू छू कर छोड़ रहे हों ।

बच्चों में अनंत प्रतिभा और अनंत संभावनाएं लगतीं हैं । डर लगता है । किसी जटिल मशीन के किनारे बैठकर हम पता नहीं कौनसा तार हिला दें जो मशीन को बदल दे । प्रकृति से जो उसकी संभावनाएं थीं उन्हे छेड़ना जैसे अरबों तंतुओं के मस्तिष्क की सर्जरी करना हो । हमारा यह दायित्व है कि आगामी जीवन हेतु उन्हे शिक्षित करते समय न्यूनतम नुकसान पहुंचाएं । स्वयं को बच्चों के बीच रहने लायक बना पाना भी अब एक दुरूह साधना है । शायद यह ही हमें एक पूरा आदमी बनाने की दिशा में ले चले इसलिये इस समय इसका ही आमंत्रण आज मन में है ।यह भी शायद एक अच्छी जीवन विधि बने कि स्वयं को बच्चों की दुनिया के लायक बनाना ।

- विनोद शर्मा 
अशोक नगर

70th foundation year of IPTA celebrated at Cuttack.

Chief Guest Sashibhusan Behera, MP 
Indian People’s Theatre Association (IPTA), Cuttack, Odisha, has celebrated the 70th foundation year on 25th May 2013 at Sriramchandra Bhawan, Cuttack. About 250 eminent writers, artists, social activists, political figures, women, youths, Advocates and common people attended the celebration. Member of Parliament Mr. Sashi bhusan Behera was the Chief Guest and inaugurated the function by lighting the lamp. Professor Abani kumar Baral, one of the founder members of IPTA in Odisha was the chief Speaker. The meeting was presided by Mr. Shyamal kumar Mukherjee. Mr. Ramesh Padhi, the state Secretary of IPTA, Mr. Puranjan Roy, President IPTA Cuttack and Mrs. Krushnapriya Mishra, Secretary, IPTA, Cuttack made the presidium.

Explaining the objective of the celebration, Mr. Nikunja Bhutia, Executive member of IPTA, Cuttack welcomed the participants and requested the Guests and office bearers to the presidium. The meeting was started with the opening chorus song led by Mrs. Rita Mukherjee and Susant Mohapatra. The Secretary IPTA, Cuttack, Mrs. Krushnapriya Mishra presented the Annual Report before the house. The chief Guest Mr. Sashi Bhusan Behera Memer Parliament praised the role of IPTA for social changes and extended his hand for cultural movement. The chief speaker Mr. Abani Kumar Baral told the glorious history of IPTA in Odish and in India. He gave the instance how IPTA played major role during the freedom struggle in Odisha by giving the example of Gadjat Andolan where Baji Rout, Raghu, Hurshi and so many youths were became martyrs.
Scene from play 'IZAT'
After the address of the guests Gana Sangita (Jatri Chalichhi, Ratri Pahi Chhi Re) was sung by the IPTA chorus group written by eminent poet, writer Mr. Manoj Das followed by dance the programme. 

The main attraction of the celebration was the Drama IZZAT written and directed by Mr. Puranjan Roy based on the current grievous issues of discrimination, rape and atrocity on women. The Drama gave the massage to society to end the injustice towards women and girl child.

Dr. Prasant Mishra, Laxmidhar Dash Advocate, Laxmidhar Mahalik, Niharika Dash, Sasmita Beura, Mr. Simon, Bhramarbar Sahu, Bipin Bihari Padhi, Shyamal Karmakar, Swetashri Padhi, Vina Karmakar, Laxmi karmakar, Mr. Premanada Swain, Mr, Majhi, have participated and supported the celebration a success event .
- Krushnapriya Mishra,
Secy. IPTA, Cuttack
Cell- 09439366882

People’s Art Festival held at Hyderabad

Hdyerabad. A.P. Praja Natya Mandli, Kala Utsavalu (People’s Art Festival) held at Hyderabad in the month of last January. Sri Thotakura Prasad, President, Telugu Association, North America has inaugurated the festival. Sri Madala Ranga Rao, Film Producer and Actor has hoisted the IPTA flag.

Sri Allu Aravind (Famous Film Producer, Geetha Arts) has presided over the inauguration session. Sri Vandemataram Srinivas (Music Director), Sri N. Shankar (Film Director), Sri Nalluri Venkateshwarlu, Sri K. Pratap Reddy were addressed the session.

The Photo Exhibition inaugurated by Sri Thammareddy Bharadwaja (Film Producer and Director). Seminars organized in morning sessions, Folk Art performed in the afternoon and Stage p Plays enacted in the evenings of three days programme schedule.      

The following folk art forms and stage plays were performed in the three days festival : Folk Art Forms- Dappula Nrutyam, Yakshaganam, Palle Kalalu, Suddulu, Jalari Nrutyam, Koyadora, Pittaladora, Chekka Bajana, Pillam gattu and Tappetagullu.
   
 The Stage Play performed by the groups are, Evvaniche Janichu, Halikulu Semama, Puttadibomma Poornmma, Pandu Vennala, Ayudam and Bhabagotham. A street play Sagam-jagam was also played.

On final day Praja Vaggeyyakarula (Singing self poetry) pata-mata were compiled by Ch. Jacob. The following writers cum singers addressed and rendered their songs : Andesree, Suddala Ashokteja, Jayaraj, Nissar and Vangapandu Prasad.


Sri K. Swami, Vice President A.P. Prajanatyamandali coordinated the programmes . Sri Vatti Vasanthkumar , Minister of Tourism & Cultural affairs was the chief guest for the valedictory function. Sri Chada Venkat Reddy. Ex-MLA was honorable guest and Sri K. Pratapa Reddy, Vice President, IPTA has presided  over the function. Sri Nalluri Venkeshwarlu, Vice President, IPTA organized the all three days festivals well.

Leadership of A.P. Prajanatyamandali Sri Puli Sambashiva Rao, Chandra Naik, Palle Narsimha, Ghani, Kondal Rao, Nissar, P. Nalini, Nazeer, K. Laxminarayana, Poul and Janakiram were conducted the festivals successfully.

-Ch. Jacob
National Committee Member, IPTA 

Monday, May 27, 2013

सांस्कृतिक आंदोलन की परंपरा है इप्टा


 भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के 70वें स्थापना दिवस पर इप्टा दिल्ली राज्य समिति का आयोजन


सामाजिक सरोकारों से जुड़कर कला कैसे उस सांस्कृतिक आंदोलन में तब्दील हो जाती है, जो हर दौर में सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से एक बेहतर दुनिया के निर्माण में सतत प्रयत्नशील रहता है, यह भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के 70 वर्ष के इतिहास में बखूबी दिखाई देता है। ‘जनता के रंगमंच की नायक स्वयं जनता होती है’ सूत्रवाक्य के साथ चलने वाले इप्टा ने इस 25 मई को ‘जन संस्कृति दिवस’ के रूप में अपना 70वाँ स्थापना दिवस मनाया। इस अवसर पर हिन्दी भवन में इप्टा की दिल्ली राज्य समिति द्वारा आयोजित कार्यक्रम में शामिल संस्कृतिकर्मियों में इप्टा की सांस्कृतिक-वैचारिक विरासत को आगे बढ़ाने का जज़्बा दिखाई दिया।

कार्यक्रम की शुरुआत हुई दिल्ली में इप्टा की संस्थापक सदस्य सुश्री सरला शर्मा से बातचीत की वीडियो प्रस्तुति के साथ। 93 वर्षीय सरला शर्मा स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों के कारण कार्यक्रम में शामिल नहीं हो सकीं थीं। इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव जितेन्द्र रघुवंशी व दिल्ली इप्टा के प्रतिनिधिमंडल ने उन्हें घर जाकर सम्मानित किया और दिल्ली में इप्टा की शुरुआत व गतिविधियों पर बातचीत की। जन संस्कृति दिवस के अवसर पर सुश्री शर्मा ने देशभर के सभी साथियों को शुभकामना संदेश देते हुए कहा कि जनगीत शुरुआत से ही जनता के बीच पहुँचने और संवाद स्थापित करने का सशक्त माध्यम रहे हैं, जो इप्टा की पहचान भी हैं। आज गीत-संगीत में जिस तरह का सतहीपन और फिल्मीपना लोगों के बीच मौजूद है, उससे बचते हुए ऐसे गीत रचे जाने की ज़रूरत है, जो लोगों को अपनी बात लगें और लोग उन्हें विचार की तरह लें। उन्होंने कहा कि आज जबकि जन संस्कृति के इस आंदोलन को आगे बढ़ा रहे तमाम संस्कृतिकर्मियों पर मौकापरस्त ताक़तें कई तरह से हमले कर इसे ख़त्म करने की कोशिश में लगी हुई हैं, ऐसे में ज़रूरी है कि हम वह हर संभव प्रयास करें जो इन कोशिशों को नाकाम कर इस आंदोलन को आगे बढ़ाएं। इसके लिए हमारे बीच के लेखक, गीतकार, संगीतकार, रंगकर्मी सभी को सम्मिलित रूप से प्रयास करना होगा। सुश्री सरला शर्मा के हुई बातचीत के महत्वपूर्ण अंश वीडियो माध्यम द्वारा प्रदर्शित किए गए। कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए इप्टा के बिल्कुल नये साथियों ने विपुल पचौरी के निर्देशन में ‘कांधे धरी है पालकी’, ‘बता मोरे रामा बता मोरे अल्ला’, ‘अब मचल उठा है दरिया’ व ‘हल्ला हो, मन में हमारे हल्ला हो’ आदि जनगीतों की प्रस्तुति दी। इप्टा की वार्षिक पत्रिका ‘इप्टानामा’ के पहले अंक का विमोचन भी इस कार्यक्रम में किया गया।

यह वर्ष इप्टा की शुरुआत के समर्पित साथी और मशहूर अभिनेता बलराज साहनी का जन्म शताब्दी वर्ष भी है। बलराज साहनी के इप्टा से जुड़ाव और उनकी भूमिका को रेखांकित करते हुए अर्थशास्त्री व इप्टा मध्य प्रदेश की अध्यक्ष मण्डल सदस्य डॉ. जया मेहता ने एक आलेख पढ़ा। बीबीसी की नौकरी छोड़कर पूरी तरह इप्टा का सक्रिय कार्यकर्ता बन जाना, मज़दूर वर्ग के साथ काम, बंगाल के अकाल और नाविक विद्रोह के दौरान की उनकी गतिविधियों और ‘धरती के लाल’, ‘दो बीघा ज़मीन’ आदि फिल्मों से जुड़े संदर्भों का ज़िक्र करते हुए डॉ. जया मेहता ने बलराज साहनी के जीवन के कई ऐसे पहलुओं पर रौशनी डाली, जो उन्हें महज़ एक अभिनेता होने के अलावा सामाजिक सरोकारों से जुड़े रंगकर्मी, राजनीतिक कार्यकर्ता, विचारक और जन पक्षधरता के सिपाही के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। दिल्ली इप्टा के प्रांतीय सचिव मनीष श्रीवास्तव ने इप्टा की गतिविधियों व वैचारिक धरातल की बात करते हुए कहा कि इप्टा से जुड़कर चीजों को देखने का जो नज़रिया हमें मिला है, जो अनुभव हमने साझा किए हैं और सरला जी व बलराज साहनी जैसे तमाम साथियों की गतिविधियों और अनुभवों से जो सीख और ऊर्जा हमें मिली है, उससे लगता है कि हमारा अपना जीवन 70 वर्ष का हो गया है और यही अनुभव व ऊर्जा हमें निरंतर आगे बढ़ते रहने की समझ व हौसला दोनों देते हैं।

क़तई ज़रूरी नहीं कि बातचीत दोनों तरफ़ से हो। एकतरफ़ा बातचीत कहीं ज़्यादा मानीखेज़ हो सकती है। आज सरला जी से हुई मुलाकात कुछ-कुछ ऐसी ही थी। तक़रीबन एक घंटे चली बातचीत में हम बस सुन रहे थे, गुन रहे थे। भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के शुरुआती और दिल्ली इप्टा के संस्थापक सदस्यों में से एक सरला जी 93 वर्ष की आयु में, बीमारी के बावजूद जिस उत्साह से अपने अनुभव हमसे साझा कर रही थीं उसमें कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं महसूस हुई, गुंजाइश की तो बात ही छोड़िए। श्रोता बने रहना ही ज़रूरी लग रहा था, मगर उनके उम्मीदों से भरे अनुभवों ने हमें सिर्फ़ श्रोता कहां रहने दिया था। तक़रीबन एक घंटे की यह बातचीत समाप्त करके जब उठे तो लगा...... हमारी उम्र भी सौ बरस जितनी ही है !
वरिष्ठ आलोचक व प्रलेसं के राष्ट्रीय अध्यक्ष मंडल सदस्य विश्वनाथ त्रिपाठी ने सांस्कृतिक आंदोलन की परंपरा पर अपनी बात रखते हुए कहा कि कला का कोई भी रूप हो वह जीवन से जुड़ा है। जिस तरह किसी गीत की धुन सृजन में गुनगुनाई जाती है, कोई नाटक या कहानी लिखते हुए उसके पात्रों के जीवनानुभवों से गुज़रा जाता है उसी तरह जीवन की बेहतर परिस्थितियों के निर्माण और बदलाव का प्रयास होता है। जब कला इस प्रयास से जुड़ जाती है तो सांस्कृतिक आंदोलन की शुरुआत होती है और आंदोलन की परंपरा बनती है। आंदोलन की यही परंपरा इप्टा है। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव जितेन्द्र रघुवंशी ने कहा कि 1943 के शुरु हुए इप्टा के बारे में कुछ लोगों का मानना है कि 1960 के दशक तक यह समाप्त हो गया। इस धारणा के चलते इप्टा का इतिहास 60 के दशक तक सीमित कर दिया जाता है, लेकिन ऐसा है नहीं। वैचारिक धरातल पर जन्में सांस्कृतिक आंदोलन इस तरह समाप्त नहीं हो जाते। भले ही बीच में कुछ समय के लिए हमारी गतिविधियाँ कुछ धीमी गति से आगे बढ़ी हों, लेकिन 80 के दशक से आज तक पूरे देश में मौजूद इप्टा की इकाईयाँ निर्बाध रूप से सक्रिय हैं और अपनी गतिविधियों को पूरी गति से अंजाम दे रही हैं। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज जब हम इप्टा का 70वाँ स्थापना दिवस मना रहे हैं, तब कई राज्यों में इप्टा की इकाईयों में नाट्य शिविर संचालित हैं, जिनमें जनता के सरोकारों से जुड़े रंगकर्म की बुनियाद मजबूत की जा रही है। उन्होंने कहा कि आज के इस आयोजन में शामिल इप्टा व इप्टा के सरोकारों से जुड़े तमाम साथियों की मौजूदगी इस बात को स्पष्ट करती है कि हमारे इस वैचारिक-सांस्कृतिक आंदोलन का भविष्य भी हमारे इतिहास की तरह ही सार्थक और गौरवपूर्ण होगा। इप्टा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य अमिताभ पाण्डे ने दिल्ली में इप्टा की आगामी गतिविधियों के बारे में संक्षिप्त जानकारी दी और कहा कि अनुभवी साथियों का मार्गदर्शन और नये साथियों की ऊर्जा देखकर हम आश्वस्त हैं कि इप्टा की जनपक्षधरता की परंपरा को आगे बढ़ाने में हम सफल होंगे।


कार्यक्रम के अंतिम चरण में भारतीय महिला फेडरेशन की साथी सुश्री दीप्ति ने कविता पाठ किया और इप्टा जामिया के साथी फैयाज़ द्वारा मोहम्मद वसीम के निर्देशन में माइम (मूकाभिनय) प्रस्तुत किया गया। इसके उपरांत इप्टा के साथी और फिल्मकार एम. एस सथ्यू के जीवन और कलाकर्म पर मसूद अख़्तर निर्मित वृत्तचित्र ‘कहाँ-कहाँ से गुज़रे’ प्रदर्शित किया गया। कार्यक्रम का समापन करते हुए दिल्ली इप्टा के प्रांतीय सचिव मनीष श्रीवास्तव ने कार्यक्रम में शामिल हुए सभी साथियों का धन्यवाद ज्ञापन किया। कार्यक्रम में इप्टा की जेएनयू, जामिया व केन्द्रीय इकाई के साथियों के अलावा कई अन्य रंगकर्मी, चित्रकार, फिल्मकार व पत्रकार भी सम्मिलित हुए।

- रजनीश ‘साहिल’
संपर्क - 9868571829


'इप्टानामा' के प्रथम वार्षिकांक का लोकार्पण

भारतीय जन नाट्य संघ की वेब-पत्रिका 'इप्टानामा' के प्रथम वार्षिकांक का लोकार्पण जन संस्कृति दिवस के अवसर पर 25 मई 13 को एक साथ दो स्थानों पर किया गया।

नयी दिल्ली के हिंदी भवन में जन संस्कृति दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में पत्रिका का लोकार्पण विश्वनाथ  त्रिपाठी, जितेन्द्र रघुवंशी, जया राय व अमिताभ पांडेय ने किया। इससे पूर्व इप्टा की संस्थापक सदस्या कामरेड सरला शर्मा का उनके घर में ही जाकर सम्मान किया गया। 93 वर्षीया कामरेड सरला शर्मा ने मुंबई में 25 मई 1943 को इप्टा के स्थापना सम्मेलन में दिल्ली की प्रतिनिधि सदस्या के रूप में भागीदारी की थी।

उधर भिलाई में जन संस्कृति दिवस के अवसर पर 20 दिवसीय बाल रंग शिविर के समापन समारोह में 'इप्टानामा' का लोकार्पण लेखक के सुधाकरन ने किया। इस अवसर पर इप्टा की राष्ट्रीय कार्यसमिति के सदस्य सुभाष मिश्र, वरिष्ठ रंगकर्मी सुदीप्तो चक्रवर्ती व विजय दलवी तथा भिलाई इप्टा के सहयोगी वी.के. मोहम्मद भी मौजूद थे। भिलाई इप्टा के बाल कलाकारों ने इस अवसर पर जनगीत, नाटक व नृत्य का मनमोहक प्रदर्शन किया।

हिंदी भवन, नयी दिल्ली
'इप्टानामा' की मुद्रित प्रति में कुल 252 पृष्ठ हैं, जिसे 6 खण्डों में बांटा गया है। 'दस्तावेज' खण्ड में कैफी आजमी, राजेन्द्र रघुवंशी व बलराज साहनी के लेख हैं। 'समाज व संस्कृति' खण्ड में इप्टा के कार्यकारी अध्यक्ष रणबीर सिंह  तथा जयप्रकाश व अजय आठले को पढ़ा जा सकता है। आमने-सामने खण्ड में वरिष्ठ कवि राजेश जोशी व इप्टा के महासचिव जितेन्द्र रघुवंशी के अत्यंत उपयोगी साक्षात्कार हैं। 'रंगकर्म व मीडिया' खण्ड में पुंजप्रकाश व संजय पराते के विचारों को पढ़ा जा सकता है। 'संगे-मील' खण्ड में ए.के. हंगल, चित्तप्रसाद, सुनील जाना, बलराज साहनी व कामतानाथ पर क्रमश: रमेश राजहंस, अशोक भौमिक, विनीत तिवारी, रश्मी दोराईस्वामी व राकेश के संस्मरणों को पढ़ा जा सकता है। इसी खण्ड में कुछ अन्य विभूतियों का -जिनकी जन्मशती मनायी जा रही है-  स्मरण किया गया है। इनमें हेमांग बिस्वास, हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय, सआदत हसन मंटो, विष्णु प्रभाकर, अली सरदार जाफरी, अश्क, मख्दूम आदि के नाम शामिल हैं।

सिविक सेंटर, भिलाई
आयोजन की कठिनाइयों तथा अनुदान की विवशता व शर्तों के बहाने सांस्कृतिक राजनीति की चर्चा करते हुए उषा आठले व हनुमंत किशोर के लेख 'अनुदान और आयोजन' खण्ड में देखे जा सकते हैं। अंतिम खण्ड में विविध विषयों को समाहित करते हुए प्रगतिशील आंदोलन के 75 बरस पर शकील सिद्दीकी, रंगकर्म के प्रयोग पर प्रोबीर गुहा तथा जोहरा सहगल की आत्मथा 'करीब से' पर  नासिर अहमद सिकंदर की पुस्तक चर्चा को जगह दी गयी है। आखिर में छत्तीसगढ के सुविख्यात नाट्य रचनाकार प्रेम साइमन का नाट्य आलेख 'अरण्य-गाथा' है, जो रंगकर्मियों व नाटक मंडलियों के लिये अत्यंत उपयोगी साबित हो सकता है। 

Sunday, May 26, 2013

दलित, शोषित व पीड़ित की संस्कृति ही जनसंस्कृति है

इप्टा की जबलपुर इकाई विवेचना ने 25 मई को जनसंस्कृति दिवस मनाया। इस अवसर पर सुविख्यात पत्रकार जयंत वर्मा ने मुख्य वक्ता के रूप में बोलते हुए कहा कि जब हम जनसंस्कृति की बात करते हैं तो आज के संदर्भ में इस जनसंस्कृति में जन कौन है। क्या ये जन वो है जो शहरों में समस्त सुविधाओं को भोगता हुआ आम आदमी बना हुआ है या वो है जो शहरों और गांवों में अपने पेट भरने की लड़ाई में दिन रात जूझ रहा है। हमें किस संस्कृति के लिये चिंतित होना चाहिए। गांवों और शहरों में दलित, शोषित पीड़ित जन ही भारत का असली जन है जिसकी आय 20 रूपये से भी कम है। कलाएं श्रम के संगीत से पैदा होती हैं। चाहे वो खेतों में काम करने वाला किसान हो या किसी भवन को बनाता मजदूर हो या किसी कोयला खदान में काम करने वाला मेहनतकश हो। भारत में हम जिन कलाओं को अपनी उपलब्धि के रूप में पेश करते हैं वो तो दरअसल हमारे देश के मेहनतकश वर्ग के द्वारा रची गई हैं। चाहे वो गीत हों, संगीत हो या नृत्य हो।

इस अवसर पर बोलते हुए श्री जयंत वर्मा ने देश के विभिन्न हिस्सों में सास्कृतिक स्तर पर हो रही घटनाओं का भी विस्तार से जिक्र किया। जयंत वर्मा विभिन्न प्रदेशों के ग्रामीण इलाकों में जाकर वहां के लोगों की समस्याओं की पड़ताल करते रहते हैं। उनका अनुभव संसार बहुत व्यापक है।

इसके पूर्व विवेचना के सचिव और इप्टा के राष्टीय सचिव मंडल के सदस्य हिमांशु राय ने इप्टा की शुरूआत और इतिहास के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि इस वर्ष इप्टा की स्थापना को सत्तर वर्ष पूरे हो रहे हैं। इस संगठन ने देश के स्वाधीनता संग्राम में जमकर हिस्सा लिया। आजादी के बाद मची देश की उथलपुथल में इप्टा ने साम्प्रदायिक सद्भाव और शांति की अलख जगाई। इप्टा में देश के सर्वश्रेष्ठ कलाकार शामिल हुए और उन्होंने अपना सर्वश्रेष्ठ काम इप्टा के लिए किया।

कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रो अरूण कुमार ने की। प्रो अरूण कुमार ने इस अवसर पर कहा कि इप्टा ने देश के सांस्कृतिक आंदोलन को एक नई दिशा दी। इप्टा से प्रेरणा लेकर हजारों नौजवानों ने कला जगत में अपना योगदान दिया। इसका कारण यह भी है कि इप्टा की शुरूआत ही बंगाल के भयानक दुर्भिक्ष से प्रभावित होकर हुई थी। इस अकाल में लाखों लोग बंगाल की सड़कों पर भूख प्यास से मर गए थे। तब बंगाल के कलाकार पूरे देश में बंगाल का हाल बताने निकले थे। यही इप्टा के बनने की पृष्ठभूमि है। इप्टा के इतने वर्षों तक सक्रिय रहने का कारण इसका आम आदमी से जुड़ाव है।

इस अवसर पर इन्दु श्रीवास्तव ने अपनी ग़ज़लें सुनाईं। उनकी गजलों को श्रोताओं ने बहुत पसंद किया।
संजय गर्ग ने बलराज साहनी द्वारा लिखे गये दो आलेख पढ़े। विवेचना के कलाकारों ने दो बीघा जमीन, सीमा और क्क्त फिल्म के जो गीत बलराज साहनी पर फिल्माए गए थे उन्हें प्रस्तुत किया।

कार्यक्रम का संचालन बांके बिहारी ब्यौहार ने किया। वसंत काशीकर ने आभार व्यक्त करते हुए कहा कि रंगमंच साम्प्रदायिकता और फासीवाद से संघर्ष का हथियार है। विवेचना के इस कार्यक्रम में शहर के सभी रंगकर्मी शामिल हुए।
हिमांशु राय

Saturday, May 25, 2013

जन संस्कृति दिवस के बहाने एक बहस


बीतेंगे कभी तो दिन आखिर,ये भूख और बेकारी के
टूटेंगे कभी तो बुत आखिर, दौलत की इजारेदारी की
जब एक अनोखी दुनिया की, बुनियाद उठाई जायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी ...
‘जन संस्कृति दिवस’ जनता के सरोकारों से जुड़े संस्कृति कर्मियों का स्मरण और पतनोन्मुख ‘बिग बॉस नुमा’ पापुलर कल्चर के विकल्प की तलाश का अवसर है, जो ‘इप्टा’ की स्थापना के परिप्रेक्ष्य में मनाया जाता है | जिसने पहली बार जनता को अपने नाटकों में नायक की तरह प्रस्तुत किया था |

आज से 60-70 साल पहले ‘इप्टा’ ने रंगमंच और कला को उसकी सामंती और व्यासायिक जकड़ बंदी से आजाद कर उसे जनता का जनता के लिए बनाया था | के. ए. अब्बास , बलराज साहनी, दीना पाठक ,शंभु मित्रा, सलिल चौधरी ,जोहरा सहगल और राजेंद्र रघुवंशी सहित देश भर में हज़ारो संस्कृति कर्मी मंच पर और मंच से परे चौपाल और चौराहों पर भी जनता के स्वप्न और संघर्षो को अपने नाटक और जनगीत के जरिये सजीव कर रहे थे | कला की पुरानी इजारेदारी खत्म हुई थी और लोक संस्कृति ने नये राजनैतिक , सामाजिक सवालों से साक्षात्कार करते हुये एक नया अवतार लिया था जिसे ‘जन संस्कृति’ कहा गया | जिसमें जनता के साथ जुड़कर समानता और स्वतंत्रता के लिए जारी संघर्षों से कदम मिलाकर चलने का माद्दा था | यहाँ तक कि वो इन मोर्चो पर अवाम का नेतृत्व कर रही थी | पहली बार ‘प्रेमचंद’ के साहित्य के संदर्भ कही गयी बात संस्कृति के संदर्भ में भी सही हो रही थी और वो राजनीति के आगे चलने वाली मशाल बन गयी थी | ‘नवान्न’ , ‘मैना गुजरी’, जैसे नाटक और सलिल चौधरी के ‘नवजीवानेर गान’ जैसे संगीत ने कला का नया सौंदर्यशास्त्र रच दिया था |

कला एक आंदोलन में और कलाकार एक एक्टिविस्ट में कैसे बदल जाता है ...यह उस दौर में इप्टा के संस्कृति कर्मियों को देखकर समझा जा सकता था | कालांतर में इप्टा का आंदोलन बिखरा ज़रूर लेकिन जो प्रतिमान और कसौटियाँ उसने स्थापित की थी वे आज भी यथावत हैं | ‘जन्म’ और ‘जसम’ जैसे कला संघठनों से लेकर ‘कबीर कला मंच’ और ‘ग़दर’ जैसों के भूमिगत संघठनो की प्रेरणा कला और संघर्ष के जिस स्रोत तक पहुँचती है वह ‘इप्टा’ ही है | आज पूँजी के नाना प्रपंचो ने कला को भी अपना शिकार बनाया है , जिसकी छवि कला के उत्सवीकरण में दिखती है | सरकारी या गैर सरकारी इमदाद की वैशाखियों पर खड़े औने- पौने नाट्य दल भी नगरों और महानगरों में नाट्य उत्सव आयोजित कर रहे है | जिनमें बैंड बाजा बारात सभी है ....सिवाय उस अवाम को छोड़कर जिसको लेकर दावेदारी की जाती है |

‘ग्रांट’ की लालसा ने निर्देशक को मेनेजर और नाटक को ‘ब्रोशर’एक्टिविटी तक सीमित कर दिया है | ये फेस्टिवल जनता के पैसो से जनता के नाम पर मिडिलक्लास की गुदगुदाहट बनकर रह गये हैं | यहाँ ‘भूख और रोटी’ भी ऐसे कलात्मक बिम्ब के साथ आते हैं कि बैचनी की जगह मनोरंजन का सबब बन जाते है | वे इस चेतावनी को भूल चुके है कि जहाँ ज्यादा कला होगी परिवर्तन नहीं होगा | शायद उनका लक्ष्य भी परिवर्तन करना नहीं बल्कि उसका भ्रम बनाये रखना है | इसलिए जनता से कटे होने का उनमे कोई मलाल भी नहीं दिखता |

यद्यपि ऐसे समय में ‘अस्मिता’ जैसे नाट्य दल भी है जो बगैर किसी सरकारी या गैर सरकारी खैरात के अपना मोर्चा संभाले हुये हैं | कभी ‘समागम रंगमंडल’ जबलपुर ने भी नारा दिया था ‘दर्शक ही आयोजक है’| आयोजक उनका अपने दर्शक को | वहीँ ‘प्रवीर गुहा’ जैसे निर्देशक भी एक उदहारण हैं कि ‘ग्रांट’ लेकर भी किस तरह से जनता के थियेटर को जनता के बीच ले जाया जा सकता है -विचारधारा से विचलित हुए बगैर | बहरहाल आज जन संस्कृति दिवस के बहाने यही पहल होनी चाहिये कि जन संस्कृति में जन की सीधी भागीदारी हो और उसे माल संस्कृति के विकल्प बतौर पेश किया जाये | जन संस्कृति विचार और प्रतिरोध की संस्कृति का है  और भविष्य के संघर्ष की रूपरेखा यहीं से तय होगी |

- हनुमंत किशोर