Friday, June 1, 2018

समय-समाज के सवालों से कटता रंगकर्म

-राजेश चन्द्र

अमेरिका जैसे देश में ब्लैक थियेटर मूवमेन्ट या 'अश्वेत रंग आन्दोलन' का एक समृद्ध और गौरवशाली इतिहास है, और उसके महत्व और प्रासंगिकता से इनकार करना सम्भव नहीं है। अपने देश में भी महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु में दलित रंगमंच एक समानान्तर रंगमंच की तरह दशकों से मौजूद है और उसने अलग धाराओं के रंगमंच पर भी गुणात्मक रूप से काफी प्रभाव डाला है। हमारे यहां हिन्दी रंगमंच में लोग पढ़ते नहीं। अगर पढ़ते तो उन्हें पता होता कि भारत में दलित रंगमंच की शुरुआत सबसे पहले हिन्दी में ही हुई और यही से महाराष्ट्र होते हुए वह देश के दूसरे हिस्सों में पहुंचा। पेरियार ललई से लेकर माताप्रसाद और स्वामी अछूतानन्द हरिहर जैसे समर्थ नाटककारों और सामाजिक चिन्तकों ने दलित रंगमंच की मज़बूत बुनियाद रखी और उसे एक आन्दोलन का व्यापक स्वरूप दिया, सैकड़ों नाटक लिखे गये, गांव-गांव में दशकों तक उनके हज़ारों प्रदर्शन भी हुए, पर जातिवादी, सवर्णवादी और ब्राह्मणवादी इतिहासकारों एवं आलोचकों ने उनके योगदान को न सिर्फ़ अनदेखा किया, बल्कि उसकी कहीं शिनाख़्त तक नहीं होने दी। उनका यह भय समझ से परे नहीं है। इस भय का नज़ारा हमें आज भी ख़ूब होता रहता है, जब भी दलित रंगमंच की चर्चा छिड़ती है।

हिन्दी के रंगकर्मियों से अधिक कूपमंडूक रंगकर्मी शायद ही कहीं मिलें। उनका समय-समाज से, भारतीय भाषाओं के और विश्व साहित्य से, दर्शन और समाजशास्त्र की दुनिया में नित्य हो रहे बदलावों से कोई रिश्ता ही नहीं बनता। हाशिये के समाजों को लेकर दुनिया भर में कितना कुछ लिखा जा रहा है। पढ़ना-समझना चाहें तब न। आज कल इन्टरनेट पर भी दुनिया भर की सामग्री मौजूद है। ज्ञान की भूख होनी चाहिये। हम रात-दिन अनुदान लेने-निपटाने की फ़िक्र में रहेंगे तो दिमाग़ को नया कुछ भी जानने का अवकाश कहां मिलेगा! अपने इतिहाबोध से, परंपरा से, मनुष्यता की वैज्ञानिक वैचारिकी से, समाजशास्त्र और दर्शन से पीछा छुड़ा कर बाज़ार के अलावा और कहीं नहीं पहुंचा जा सकता।

विडम्बना देखिये कि जो रंगकर्मी या आलोचक जितना ही हमारे यहां स्थापित होता जाता है, वह जनता से, समय-समाज के सवालों से उतना ही कटता जाता है। अध्ययन से कोई नाता न रहे, तो समीक्षक की दृष्टि किसी नाट्य-प्रस्तुति के बाह्य आवरण में ही उलझ कर रह जाती है, वह उसके तड़क-भड़क में फंस जाता है और समीक्षक से प्रचारक की भूमिका में आ जाता है। कथ्य और उसकी वैचारिकी तक, उसके समाजशास्त्र और राजनीति तक जाने की वह ज़हमत ही नहीं उठाता। वरना किसी औसत और मूल्यहीन नाट्य प्रस्तुति के बारे में लिखते या बोलते हुए क्या कोई समीक्षक ऐसा कह सकता है कि जिसने यह नाटक नहीं देखा, उसका जीवन व्यर्थ हो गया ? नाटक और रंगमंच की दुनिया में एक से बढ़ कर एक सृजनात्मक उत्कृष्टताएं सामने आ रही हैं, आती रहती हैं, पर आपको जानकारी नहीं होगी तो आप ऐसे ही अनर्थकारी निष्कर्ष निकालते रहेंगे!

रंगकर्मी आज स्थापित कहां होना चाहता है? कहां पर मान्यता चाहता है? क्या जनता के बीच? नहीं। वह सारी कवायद करता है कि संस्कृति विभाग में, एनएसडी और अकादमियों में उसका दबदबा हो जाये, भारंगम तथा दूसरे महोत्सवों में उसका हर नाटक लग जाये, उसे किसी सरकारी कमिटि में रख लिया जाये, कोई पुरस्कार कहीं से भी और किसी भी तरह से मिल जाये बस! जनता से, दर्शकों से किसी रंगकर्मी को कोई सरोकार हो तो वह ग्रांट को ध्यान में रख कर नाटक क्यों चुने? महोत्सवों में झंडा गाड़ने की फिक्र में अपने काम से, विचारथारा से समझौता क्यों करे? सरकार और सरकारी संस्थानों का दरबार क्यों करे?

हिन्दी रंगमंच का बहुलांश आज भटकाव का शिकार है। पुनरुत्थानवादी विषयों वाले नाटक, मिथकों पर आधारित और वर्णवाद, ब्राह्मणवाद को प्रतिष्ठित करने वाले नाटक ज़्यादा हो रहे हैं क्योंकि इसके माध्यम से आप विशिष्ट वर्गों और सत्ताधारी वर्ग को साधना चाहते हैं। उनकी नज़र में आना चाहते हैं। ताक़त की दुनिया का हिस्सा होना चाहते हैं। रंगकर्मियों में सत्ताधारी राजनीतिक दल का भोंपू बनने की प्रवृत्ति पहले भी थी, पर इस बात का लिहाज़ रखा जाता था कि किसी फ़ासिस्ट, साम्प्रदायिक, मनुवादी, घृणा की राजनीति करने वाले और संविधान-विरोधी दल या संगठन से उनका कोई सम्बंध न रहे। आज तो इतनी बेहयाई चल रही है कि रंगकर्मी खुल कर घृणा और सामाजिक विभेद पैदा करने वाले दलों और संगठनों की शरण में दौड़ लगा कर पहुंचने की होड़ में हैं। ऐसा किसी वैचारिक कारण से नहीं बल्कि जल्दी से जल्दी धन और ऐश्वर्य के असीमित साधन इकट्ठा कर लेना ही उनका इकलौता मक़सद है। इसलिये वे भी बदलती सत्ता के साथ कदमताल करते हैं। सत्ता कांग्रेस की हुई तो कांग्रेस के साथ, भाजपा की हुई तो भाजपा के साथ. ये प्रवृत्तियां रंगमंच के लिये अत्यंत घातक सिद्ध हो रही हैं। केवल यह कह देने से कि रंगमंच पहले से ही दलित कला की हैसियत रखता है, या वंचितों का पक्षधर है, आज काम नहीं चलने वाला है। हमें यह भी देखना होगा कि तथाकथित वंचितों के पक्षधर रंगमंच में समाज के दलित, आदिवासी, पिछड़े, स्त्रियों की उपस्थिति कितनी है? यह उपस्थिति भागीदारी के तौर पर भी देखनी होगी और विषय के तौर पर भी। जो लोग रंगमंच की मुख्यधारा को संचालित-निर्देशित करते हैं, उनमें से कितने दलित हैं, कितने आदिवासी, कितनी स्त्रियां हैं? दलित और आदिवासी यदि विषय के तौर पर, चरित्र के तौर पर इस मुख्यधारा में आ रहे हैं तो उनका चित्रण किस तरह से किया जा रहा है? क्या उनके साथ बराबरी का व्यवहार हो रहा है? क्या उनके मुद्दों को ईमानदारी से और केन्द्रीयता के साथ लाया जा रहा है? उनके प्रति नाटककार, निर्देशक और अभिनेता का नज़रिया और बर्ताव कितना सम्मानपूर्ण है? क्या दलितों-वंचितों और आदिवासियों का हम हमेशा दीन-हीन, बेचारे के रूप में चित्रण करते हैं? क्या उनकी जीवन-स्थितियों के प्रति हम दया और करुणा का भाव प्रदर्शित कर रहे हैं? दलितों को आज आपकी दया और करुणा की ज़रूरत नहीं है। वे उस पर रात-दिन थूकते हैं। वे मानवोचित गरिमा और सम्मान चाहते हैं। बराबरी का हिस्सा और व्यवहार चाहते हैं। आप नहीं देंगे तो वे छीन लेंगे। अगर आपका रंगमंच उन्हें यह सब नहीं दे सकता तो दलितों के लिये आपका रंगमंच बेकार है। वे अपना रंगमंच बना रहे हैं और बना लेंगे। आप अपने ब्राह्मणवादी, सवर्णवादी और मर्दवादी रंगमंच की ख़ैर मनायें।

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