Thursday, May 31, 2018

हमारे साथी बलराज

* जावेद अख्तर खां

1 मई, 2018 को बलराज साहनी के जन्म के 105 साल पूरे हो जाएँगे. आज उनको हम एक बेहतरीन कलाकार और संवेदनशील इंसान के रूप में याद करते हैं. मानव-चरित्रों के संवेदनशील अंकन से ही उनकी अभिनय-कला इतनी ऊँचाई तक पहुँच सकी, लेकिन साथ ही उस अभिनय में एक बारीकी और गहराई भी है, जैसाकि ख़ुद बलराज साहनी ने लिखा है—‘अभिनय-कला में एक गहराई होनी चाहिए,’ और यह आती है गहरी मानवीय संवेदनशीलता और सक्रिय सामजिक संलग्नता से. इसलिए उनकी संजीदा-जीवंत अभिनय-कला या उनके ख़ुद के जीवन की सरगर्मी हमें धड़कती हुई कई मानव-ज़िंदगियों की ओर ले जाती है. धरती के लाल, हमलोग, सीमा, गर्म कोट, हीरा-मोती, भाभी, हक़ीक़त, काबुलीवाला, दो रास्ते, अनुराधा, वक़्त, संघर्ष, दो बीघा ज़मीन, गर्म हवा-जैसी फिल्मों में उनके अभिनय में ये ही मानव-ज़िंदगियाँ धड़कती हैं. बहुत कम ऐसे अभिनेता हैं, जो जितने अपने अभिनय की सूक्ष्मता-निखार-विविधता से जाने जाते हैं, उतने ही अपने लगावों से. इसलिए आज भी बलराज अपने अभिनय की सहजता-मार्मिकता के लिए जितनी शिद्दत से याद किए जाते हैं, उतनी ही शिद्दत से वे एक बेहतरीन और ज़िम्मेदार नागरिक और इंसान के तौर पर याद किए जाते हैं. यह ‘नागरिकता’ और ‘इंसानियत’ या व्यक्तित्व की यह भलमनसाहत, करोड़ों जन की पीड़ा से एकात्म होने की यह चाहत ही हमें उनके और ज़्यादा क़रीब ले जाती है. ऐसे व्यक्तित्व पर समय अपनी धूल नहीं डालता, बल्कि जैसे वह स्वयं उसको और निखार कर हमारे सामने ला देता है, ताकि हम यह याद रख सकें कि हम दरअसल किसके वारिस हैं. ‘दो बीघा ज़मीन’ में उनके अविस्मरणीय अभिनय के बारे जब उनसे पूछा गया, तो उन्होंने जवाब दिया—मुझ पर दुनिया को एक ग़रीब, बेबस आदमी की कहानी बताने की ज़िम्मेदारी डाली गई है, और मैं इस ज़िम्मेदारी को उठाने के योग्य होऊँ या न होऊँ, मुझे अपनी ऊर्जा का एक-एक क़तरा इस ज़िम्मेदारी को निभाने में ख़र्च करना चाहिए. जब किसी विदेशी फिल्म समीक्षक ने उनके अभिनय की अद्वितीयता पर यह टिप्पणी की कि ‘बलराज साहनी के अभिनय में एक जीनियस की छाप है’, तो बलराज ने कहा—यह जीनियस उस रिक्शेवाले की देन है.और जब किसी दूसरे समीक्षक ने यह टिप्पणी की कि ‘बलराज साहनी के चेहरे पर एक पूरी दुनिया दिखाई देती है’, उन्होंने पूरी विनम्रता से कहा—यह दुनिया उस रिक्शेवाले की थी. दरअसल यही बलराज साहनी के अभिनय की विरासत है.

बलराज साहनी की विरासत का एहसास हमें और ज़्यादा ज़िम्मेदार बनाता है, अपनी अभिव्यक्ति की ईमानदारी के प्रति और सामाजिक ज़िम्मेदारी के प्रति भी. इसलिए उनकी विरासत या धरोहार केवल यह नहीं है कि ‘अभिनय-कला’ को कितनी बारीकी से प्रस्तुत किया जाए, यह अकेली ‘अभिनय की बारीकी’ उनकी विरासत की एकांगी समझ देती है. अभिनय की बारीकी हमें अब भी कई जगह देखने को मिल ही जाती है, रंगमंच से लेकर सिनेमा जगत में. संभव है, जैसाकि बलराज साहनी अपने सक्रिय जीवन-काल में स्वयं अनुभव करते थे और यह उन्होंने लिखकर बताया भी है कि उनसे बेहतरीन अभिनेता मौजूद हैं, आज भी कई समर्थ अभिनेता हमें दिख ही जाते हैं, लेकिन समय जिस तरह बलराज साहनी के अभिनेता-व्यक्तित्व को हमारे सामने और भी ज्यादा निखार कर सामने ला देता है, वह मौजूदा दौर में अभिनेता की कला और उसकी सामाजिक-राजनीतिक ज़िम्मेदारी को समझने में हमें और भी ज्यादा सजग बनाता है.

अपने साठ साल के जीवन में बलराज साहनी तैंतीस की उम्र में फिल्मों में आए. लेकिन इसके पहले उन्होंने जीवन का भरपूर अनुभव हासिल किया. अपनी जन्मस्थली रावलपिंडी से लाहौर, शिमला, कलकत्ता, शान्तिनिकेतन, लन्दन से बम्बई तक का सफ़र उतार-चढ़ाव से भरा था. समृद्ध व्यापार घराने में जन्मे बलराज ने फ़ाकाकशी के दिन भी देखे, आर्य समाज से कांग्रेस की राजनीतिक गतिविधियों तक पहुँचे, वर्धा के आश्रम में गाँधी के निकट रहे, खादी पहनी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर के सान्निध्य में रहते शान्तिनिकेतन में अध्यापकी की, चार सालों तक लन्दन में बीबीसी के संवाददाता और उदघोषक रहे, ‘इप्टा’ के संपर्क में आकर वे मार्क्सवाद और कम्युनिस्ट पार्टी के नज़दीक आए. पंजाबी उनकी मातृभाषा थी, संस्कृत उन्हें बचपन में घुट्टी में मिली, उर्दू उनकी सहज भाषा थी, अंग्रेज़ी नाटकों में वे स्कूल-कॉलेज के दिनों में अभिनय करते, बंगला उन्होंने शान्तिनिकेतन में सीखी और आख़िरी दिनों तक कई भाषाओँ को सीखने की उनकी ललक बनी रही. इस तरह वे एक बहुत बड़ी दुनिया से जुड़े. इस दुनिया में ग़ैर-बराबरी है, युद्ध है, नफ़रत और हिंसा है, साथ ही न्याय के लिए लड़नेवाले लोग भी हैं, जिनके साथ उन्होंने ख़ुद को जोड़ा. वे ग़रीबी, दुःख, लाचारी, विस्थापन में गुज़र कर रहे लोगों के क़रीब गए, यही वजह है कि वे ऐसे कलाकार बन सके. यही लगाव उन्हें गाँधी तक ले गया और वे ‘इप्टा’ का अंग बने. यही जज़्बा सिने-जगत के इस मशहूर कलाकार को सड़कों पर ले आया, जहाँ उन्होंने मानवता की खिदमत के लिए अपने कलाकार-साथियों के साथ अपने दामन फैलाए.

बलराज साहनी एक विलक्षण अभिनेता तो थे ही, वे एक गम्भीर लेखक-विचारक भी थे. शुरू में तो वे लेखन में ही पूरी तरह रम जाना चाहते थे, लेकिन तब शायद भारतीय सिनेमा का वह अध्याय अधूरा रहता, जो दरअसल यथार्थवादी-समाजवादी-नए सपनों का है. हिन्दी-अंग्रेजी में लेखन करते हुए जीवन के अंतिम दिनों में वे पूरी तरह पंजाबी भाषा में लेखन में रम गए थे. मेरा पाकिस्तानी सफ़रनामा, मेरा रूसी सफ़रनामा, गैरजज़्बाती डायरी, सिनेमा और स्टेज, मेरी फ़िल्मी आत्मकथा, एक सफ़र, एक दास्तान-जैसी पुस्तकें हिन्दी और पंजाबी दोनों भाषाओँ के साहित्य की निधियाँ हैं. उन्होंने ‘कुर्सी’, ‘क्या यह सच है, बापू’ जैसे कुछ नाटक भी लिखे, ‘बाज़ी’ जैसी चर्चित फिल्म का लेखन किया, इस तरह उन्होंने अपने लेखकीय व्यक्तित्व को पूरी तरह कभी दबने नहीं दिया. 

बलराज साहनी का रंगमंच, रेडियो और सिनेमा का लंबा अनुभव था, और उन्होंने एक सजग बुद्धिजीवी की तरह इन कला-माध्यमों की विशिष्टताओं को समझा था. अपने व्यावहारिक अनुभवों को समेटते हुए उन्होंने कई जगह व्याख्यान दिए, छोटे-बड़े कई लेख लिखे. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के दीक्षांत-समारोह में दिया गया उनका व्याख्यान तो उनकी प्रखर बौद्धिकता की एक नज़ीर ही है, कई ट्रेड यूनियन के मंच पर दिए उनके व्याख्यान उनकी प्रतिबध्दता की मिसाल हैं. इन व्याख्यानों-लेखों से गुज़रते हुए अपने समय के सर्वाधिक जागरूक संस्कृतिकर्मी की मेधा समझ में आती है और यह भी समझ आता है कि उनके अभिनय की गहराई का सम्बन्ध उनकी इस सजग बौद्धिकता से है. इसी सजग बौद्धिकता से वे अभिनय–कला की बारीकी को समझ सके, अपनी कमजोरियों को पहचानना सीखा, महान कलाकारों की क़द्र की, अपने अभिनय को निखारने के लिए श्रम किया, अभिनेता की सामाजिक-राजनीतिक भूमिका को समझा. इस आलेख में हम बलराज साहनी के इस पक्ष को भी समझने का प्रयास करेंगे.

जैसा पहले कहा गया—बलराज साहनी ने रंगमंच, सिनेमा और रेडियो—तीनों माध्यम में काम किया, ख़ास तौर पर रंगमंच और सिनेमा में तो उन्होंने अपनी अभिनय-कला को बुलंदियों तक पहुँचा दिया. हालाँकि सिनेमा के सन्दर्भ में उन्हें इस बात का कई बार अफ़सोस रहा कि निर्देशन के क्षेत्र में वे अपनी सामाजिक जवाबदेही का काम ज़्यादा बेहतर तरीक़े से निभा सकते थे, लेकिन जिन दर्शकों-समीक्षकों ने फिल्मों में उनका अभिनय देखा है, उन्होंने हमेशा उनकी कला का बहुत ऊँचा मूल्यांकन किया है, साथ ही वे दर्शक-समीक्षक यह भी महसूस करते रहे हैं कि बलराज की अभिनय-कला विशिष्ट अंदाज़ की है, जिसका सम्बन्ध अपने समय और समाज से है. बलराज साहनी ने ख़ुद अपना मूल्यांकन जैसा भी किया हो (वे अपने काम के ख़ुद एक प्रखर आलोचक थे), सिने-दर्शकों के लिए वे आज भी सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति सजग एक संवेदनशील अभिनेता ही हैं. ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि बलराज मानते थे कि कलाकर्म, चाहे वह रंगमंच की कला हो, या सिनेमा की कला, उसकी सचाई इस बात में निहित है कि वह (अभिनय) पूरी मेहनत से, पूरी आज़ादी और इस एहसास के साथ किया जाए कि इससे समाज को लाभ होगा. वे कहते हैं—हमारे पुरखों ने तो यहाँ तक कहा है कि जीना भी कला है और मरना उससे भी बड़ी कला है, बशर्ते कि मनुष्य गाँधी या भगत सिंह की तरह मर सके.  गाँधी, या भगत सिंह की तरह मरने का बलराज साहनी का आशय क्या है, यह अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है, दरअसल यह अपनी कला को निरंतर ऊँचे आदर्शों से जोड़े रखना ही है.

बलराज साहनी जानते थे कि भले ही सिने-जगत में अभिनेता ‘स्टार’ की छवि पा ले, किन्तु अंततः उसकी कला एक कला का नाम नहीं, बल्कि यह अनगिनत कलाओं के समूह का नाम है—वास्तव में फिल्म एक सामूहिक कला है, जिसमें हज़ारों विभिन्न कलाकार शरीक होते हैं. इसी तरह नाटक भी एक सामूहिक कला है. बलराज साहनी ने जो अनुभव अर्जित किया, उसने उन्हें इस नतीजे पर पहुँचाया कि बिना सामुदायिक बोध और भ्रातृत्व भाव के ये कलाएँ सृजनात्मक नहीं रह जातीं—फ़िल्म और नाटक दोनों की कामयाबी का रहस्य यही है कि कलाकारों ने किस हद तक मिलकर, ख़ुशी से, भ्रातृभाव से, कंधे से कंधा मिलाकर काम किया है. ... नाटक मंडलियाँ अपने-आप में एक बिरादरी हैं. यह बिरादरी जितनी मज़बूत होगी, अपनी सामूहिक रचना और सामाजिक ज़िम्मेदारी को जितना ज़्यादा महसूस करेगी, उतना ही उसका काम सफल होगा.

अभिनय की सहजता और स्वाभाविकता, सजीवता, चरित्रांकन की स्पष्टता और सटीकता, यथार्थवादिता, कलात्मक संयम और संवेदनशीलता—ये अभिनेता बलराज साहनी की कुछ विशिष्टताएँ हैं. ‘अभिनय’ को लेकर उनकी कुछ मान्यताएँ बहुत स्पष्ट थीं. उनके छोटे भाई हिन्दी के मूर्द्धन्य कथाकार-नाटककार-अभिनेता भीष्म साहनी ने अपने संस्मरण में बताया है कि बलराज के आरंभिक स्कूल-कॉलेज के दिनों में उन्हें ऐसे प्रतिभावान अध्यापक मिले, जिन्होंने यह राह उन्हें दिखाई और वे आरम्भ से ही अभिनय की सहजता-स्वाभाविकता के क़ायल हो गए. अपने वक्तव्य और लेखन में बलराज साहनी बार-बार हैमलेट’ का वह संवाद ज़रूर उद्धृत करते, जिसमें हैमलेट अभिनेताओं को उनकी कला के बारे में बता रहा है—देखो, स्टेज पर खड़े होकर इस तरह बोलो कि सुनने वाले को रस आए, यह नहीं कि उनके कान फट जाएँ. तुम अभिनेता हो, ढिंढोरची नहीं. और देखो, हाथ को तलवार की तरह मार-मारकर हवा को मत चीरना. अभिनेता को चाहिए कि वह अपने मन को हमेशा क़ाबू में रखे, चाहे उसके अंदर भावनाओं के तूफ़ान क्यों न उठ रहे हों. जो अभिनेता अपनी भावनाओं को क़ाबू में रखकर उन्हें संयम से व्यक्त नहीं कर सकता, उसे चौराहे पर खड़ा करके चाबुक मारनी चाहिए. ... और देखो, फीके भी मत पड़ जाना. ‘अंडर एक्टिंग’ करना भी अच्छा नहीं होता. ख़ुद अपनी सूझ-बूझ को अपना उस्ताद बनाओ, और उसी के अनुकूल चलो. अपनी चाल-ढाल को, अपने संकेतों को शब्दों के अनुकूल बनाओ, और शब्दों को संकेतों के अनुकूल...  

‘रंगमंच’ और ‘सिनेमा’ के अभिनय की टेक्नीक के फ़र्क को बलराज बखूबी समझते थे, लेकिन दोनों का वास्तविक उद्देश्य, उनकी दृष्टि में, साधारण जन के जीवन में नयी उत्प्रेरणा लाना है, इसको लेकर वे बहुत स्पष्ट थे. वे यह मानते थे—सिनेमा जैसी शक्तिशाली कला को केवल व्यापारिक ढंग से इस्तेमाल किया जाए, तो बड़े ख़तरनाक नतीजे निकल सकते हैं. वे ‘टेक्नीक’ की दृष्टि से अत्यंत सजग अभिनेता थे. उनके हिसाब से रेडियो, रंगमंच और सिनेमा तीनों अलग-अलग माध्यम या साधन हैं. इन माध्यमों की विशिष्ट ‘टेक्नीक’ की जानकारी और उसे अभिनय में साधना हर अभिनेता की कलात्मक ज़िम्मेदारी है. अक्सर वे इसकी तुलना ‘निशाने पर वार करने वाले बम को ले जाने वाले साधन’ से करते, वे कहते, जैसे रॉकेट, हवाई जहाज़ या किसी और साधन से सही निशाने पर बम को पहुँचाया जाता है, बम अपने निशाने पर पहुँचकर फट जाता है, वैसे ही फिल्म, रंगमंच या रेडियो में किया जानेवाला अभिनय है, ‘साधन’ को तो समझना अनिवार्य है—अभिनेता जो कुछ रंगमंच पर करता है, अगर फिल्म के लिए उसे कैमरे के सामने हू-ब-हू दुहरा दे, तो उसका नतीजा अस्वाभाविक और हास्यास्पद होगा. अभिनेता स्वयं से कहेगा—मैं वही व्यक्ति हूँ, और मेरे हाव-भाव भी वही हैं, जो रंगमंच पर थे; लेकिन क्या बात है कि दर्शक पसंद नहीं कर रहे? इसका जवाब है कि फ़िल्म के लिए अभिनय करते समय सही निशाने पर पहुँचने के लिए उसे किसी दूसरे साधन का प्रयोग करना चाहिए था, और अभिनय-शैली को उसके अनुसार बदलना चाहिए था... बलराज साहनी ने ‘काबुलीवाला’ की भूमिका रंगमंच पर भी की, फ़िल्म में भी और रेडियो-नाटक में भी. उनका इन तीनों माध्यमों का भिन्न अनुभव बहुत महत्वपूर्ण है. हर बार माध्यम बदलते ही अभिनय-सम्बन्धी नई समस्याओं को सुलझाना पड़ता है. रंगमंच पर अभिनय करते समय सारे दर्शकों का ध्यान अपनी ओर खींचे रखने के लिए अतिरिक्त शारीरिक सक्रियता की ज़रूरत होती है, फ़िल्म में रंगमंच की-सी हरकत अभिनय को बिगाड़ देती है, क्योंकि यहाँ उस अभिनेता को केवल कैमरा ही देख रहा होता है और, ...रेडियो-नाटकों में मैं हमेशा संवाद वाला कागज़ सामने रखकर ही बोला करता था. वह कागज़ मुझे श्रोताओं, स्टूडियो और वहाँ के साज़-सामान से निर्लिप्त रखता था. रंगमंच पर जो प्रभाव मैं अपनी शारीरिक हरकतों से पैदा करता था, संवाद वाला कागज़ सामने देखकर मैं वही प्रभाव अपनी आवाज़ द्वारा पैदा करने लगता था.

बलराज साहनी अभिनेता की अद्वितीयता के क़ायल नहीं थे. वे उन सारे कामों को ‘कला’ मानते थे, जो व्यक्तिगत ईमानदारी और सचाई से किये जाएँ, जिनको करते समय लगातार अपने कामों को सुधारने-ऊपर उठाने के लिए कड़े श्रम करने का जज़्बा हो और जो व्यापक मानव-समाज के लिए उत्प्रेरक हो—उनकी दृष्टि में तब ऐसा हर काम ‘कला’ है. वे ‘कलाकार जन्मजात होता है’ के सिद्धांत को सिरे से नकारते हैं—मैं आज तक जन्मजात कलाकार होने के सिद्धांत को मान नहीं सका हूँ. मैं इस सिद्धांत को न केवल अस्वीकार करता हूँ, बल्कि कलाकार के लिए बहुत हानिकारक मानता हूँ, क्योंकि यह उसे अहंकारी, आडंबर, आत्म-प्रदर्शन और आलस्य का शिकार बना देता है.

बलराज साहनी पर ‘समाजवाद’ का गहरा असर था. ‘इप्टा’ के आन्दोलन से जुड़ने के दौरान वे मार्क्सवादी विचारधारा और कम्युनिस्ट पार्टी के संपर्क में आए. रवीन्द्रनाथ ठाकुर, गाँधी, जवाहरलाल नेहरू और भगत सिंह उनके आदर्श थे. यही कारण है कि उनके व्यक्तित्व में गहरी मानवीयता-सादगी-ऊँचा आदर्श दीखता है. वे मानते थे कि कलाकारों में दोस्ती और बराबरी का रिश्ता होना चाहिए. यही वजह है कि फ़िल्मी जीवन की चमक-दमक और स्टारडम की छवि उनमें वितृष्णा जगाती, हालाँकि वे स्वयं उसका एक हिस्सा रहे थे, वे बार-बार यह प्रयास करते कि उन सैकड़ों छोटे-छोटे कलाकारों, टेक्नीशियनों, कामगारों से जुड़ सकें, जिनकी वजह से यह फ़िल्मी दुनिया कायम है. यह सबको मालूम है कि स्वतंत्रता-प्राप्ति के तुरंत बाद वे अपनी राजनीतिक-सामजिक-ट्रेड यूनियन गतिविधियों और ‘इप्टा’ से अपने सक्रिय जुड़ाव के कारण पुलिस की निगरानी में थे और ‘हलचल’ की शूटिंग उन्होंने अपनी गिरफ़्तारी के दिनों में की थी. आज़ादी के 25 साल बीत जाने के बाद भी गैर-बराबरी, भेद-भाव और साधारण जन के जीवन में अभाव-दुःख का बने रहना उन्हें बहुत विचलित करता—समाजवाद के दावे करनेवाली सरकार आज भी कलाकारों के साथ वैसा ही सलूक कर रही है, जैसाकि अंग्रेज़ों के ज़माने में होता था. हालाँकि कि वे खुद पं. नेहरू से अत्यधिक प्रभावित थे, एक स्थान पर तो उन्होंने लिखा है कि समाजवाद की उनकी अवधारणा हू-ब-हू वही है, जो पं. नेहरू की है. लेकिन, दरअसल वे एक जाग्रत मस्तिष्क वाले ऐसे कलाकार थे, जिसने कभी भी विचारधारा या व्यक्तित्व के प्रभाव में आस-पास के यथार्थ से आँखें नहीं मूँद लीं, उन्हें यदि अपनी राष्ट्रीय सरकार में कोई खोट नज़र आई, तो उसे अनदेखा कभी नहीं किया. एक समय तो उन्होंने ‘इप्टा’ की कम्युनिस्ट पार्टी पर निर्भरता की कठोर आलोचना की. वे इस मामले में बिलकुल स्पष्ट थे कि कलाकार को स्वाधीनचेता होना चाहिए और जनता के दुःख के नज़दीक होना चाहिए. आज़ादी के पच्चीस साल बाद की यह टिप्पणी उनकी आलोचना की धार को सामने लाती है—आज देश की सामाजिक अथवा राजनीतिक हालत बहुत ही ख़राब हो चुकी है. वे पहले के तूफ़ान ख़त्म हो चुके हैं. हर तरफ़ निराशा और किंकर्तव्यविमूढ़ता नज़र आती है. हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन की तमाम बुनियादी कमज़ोरियाँ सामने आ रही हैं. ...नाटक का उद्देश्य है, जनता का मार्ग-दर्शन. ऐसे समय में जबकि हमारे देश में भूख, ग़रीबी और शोषण का हाहाकार मचा हुआ है, किसी भी कलाकार को टेक्नीक के रेशमी खोल में बंद हो जाने का अधिकार नहीं है. ऐसा करके वह अपनी कला का अपमान करता है....

(इप्टा प्लैटिनम जुबली वर्ष के तहत पटना इप्टा और नटमंडप के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित कार्यक्रम "हमारे साथी बलराज" कार्यक्रम के दौरान चर्चा हेतु वरिष्ठ अभिनेता डॉ० जावेद अख़्तर खां (संपर्क:ई-मेल: javednatmandap@gmail.com)द्वारा प्रस्तुत आलेख। आलेख लखनऊ से प्रकाशित होने वाली पत्रिका। ....... से साभार प्रस्तुत। विस्तृत चर्चा देखने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें:https://www.youtube.com/watch?v=yQRmesWyoOk&t=1s)

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