Thursday, May 31, 2018

हमारे साथी बलराज

* जावेद अख्तर खां

1 मई, 2018 को बलराज साहनी के जन्म के 105 साल पूरे हो जाएँगे. आज उनको हम एक बेहतरीन कलाकार और संवेदनशील इंसान के रूप में याद करते हैं. मानव-चरित्रों के संवेदनशील अंकन से ही उनकी अभिनय-कला इतनी ऊँचाई तक पहुँच सकी, लेकिन साथ ही उस अभिनय में एक बारीकी और गहराई भी है, जैसाकि ख़ुद बलराज साहनी ने लिखा है—‘अभिनय-कला में एक गहराई होनी चाहिए,’ और यह आती है गहरी मानवीय संवेदनशीलता और सक्रिय सामजिक संलग्नता से. इसलिए उनकी संजीदा-जीवंत अभिनय-कला या उनके ख़ुद के जीवन की सरगर्मी हमें धड़कती हुई कई मानव-ज़िंदगियों की ओर ले जाती है. धरती के लाल, हमलोग, सीमा, गर्म कोट, हीरा-मोती, भाभी, हक़ीक़त, काबुलीवाला, दो रास्ते, अनुराधा, वक़्त, संघर्ष, दो बीघा ज़मीन, गर्म हवा-जैसी फिल्मों में उनके अभिनय में ये ही मानव-ज़िंदगियाँ धड़कती हैं. बहुत कम ऐसे अभिनेता हैं, जो जितने अपने अभिनय की सूक्ष्मता-निखार-विविधता से जाने जाते हैं, उतने ही अपने लगावों से. इसलिए आज भी बलराज अपने अभिनय की सहजता-मार्मिकता के लिए जितनी शिद्दत से याद किए जाते हैं, उतनी ही शिद्दत से वे एक बेहतरीन और ज़िम्मेदार नागरिक और इंसान के तौर पर याद किए जाते हैं. यह ‘नागरिकता’ और ‘इंसानियत’ या व्यक्तित्व की यह भलमनसाहत, करोड़ों जन की पीड़ा से एकात्म होने की यह चाहत ही हमें उनके और ज़्यादा क़रीब ले जाती है. ऐसे व्यक्तित्व पर समय अपनी धूल नहीं डालता, बल्कि जैसे वह स्वयं उसको और निखार कर हमारे सामने ला देता है, ताकि हम यह याद रख सकें कि हम दरअसल किसके वारिस हैं. ‘दो बीघा ज़मीन’ में उनके अविस्मरणीय अभिनय के बारे जब उनसे पूछा गया, तो उन्होंने जवाब दिया—मुझ पर दुनिया को एक ग़रीब, बेबस आदमी की कहानी बताने की ज़िम्मेदारी डाली गई है, और मैं इस ज़िम्मेदारी को उठाने के योग्य होऊँ या न होऊँ, मुझे अपनी ऊर्जा का एक-एक क़तरा इस ज़िम्मेदारी को निभाने में ख़र्च करना चाहिए. जब किसी विदेशी फिल्म समीक्षक ने उनके अभिनय की अद्वितीयता पर यह टिप्पणी की कि ‘बलराज साहनी के अभिनय में एक जीनियस की छाप है’, तो बलराज ने कहा—यह जीनियस उस रिक्शेवाले की देन है.और जब किसी दूसरे समीक्षक ने यह टिप्पणी की कि ‘बलराज साहनी के चेहरे पर एक पूरी दुनिया दिखाई देती है’, उन्होंने पूरी विनम्रता से कहा—यह दुनिया उस रिक्शेवाले की थी. दरअसल यही बलराज साहनी के अभिनय की विरासत है.

बलराज साहनी की विरासत का एहसास हमें और ज़्यादा ज़िम्मेदार बनाता है, अपनी अभिव्यक्ति की ईमानदारी के प्रति और सामाजिक ज़िम्मेदारी के प्रति भी. इसलिए उनकी विरासत या धरोहार केवल यह नहीं है कि ‘अभिनय-कला’ को कितनी बारीकी से प्रस्तुत किया जाए, यह अकेली ‘अभिनय की बारीकी’ उनकी विरासत की एकांगी समझ देती है. अभिनय की बारीकी हमें अब भी कई जगह देखने को मिल ही जाती है, रंगमंच से लेकर सिनेमा जगत में. संभव है, जैसाकि बलराज साहनी अपने सक्रिय जीवन-काल में स्वयं अनुभव करते थे और यह उन्होंने लिखकर बताया भी है कि उनसे बेहतरीन अभिनेता मौजूद हैं, आज भी कई समर्थ अभिनेता हमें दिख ही जाते हैं, लेकिन समय जिस तरह बलराज साहनी के अभिनेता-व्यक्तित्व को हमारे सामने और भी ज्यादा निखार कर सामने ला देता है, वह मौजूदा दौर में अभिनेता की कला और उसकी सामाजिक-राजनीतिक ज़िम्मेदारी को समझने में हमें और भी ज्यादा सजग बनाता है.

अपने साठ साल के जीवन में बलराज साहनी तैंतीस की उम्र में फिल्मों में आए. लेकिन इसके पहले उन्होंने जीवन का भरपूर अनुभव हासिल किया. अपनी जन्मस्थली रावलपिंडी से लाहौर, शिमला, कलकत्ता, शान्तिनिकेतन, लन्दन से बम्बई तक का सफ़र उतार-चढ़ाव से भरा था. समृद्ध व्यापार घराने में जन्मे बलराज ने फ़ाकाकशी के दिन भी देखे, आर्य समाज से कांग्रेस की राजनीतिक गतिविधियों तक पहुँचे, वर्धा के आश्रम में गाँधी के निकट रहे, खादी पहनी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर के सान्निध्य में रहते शान्तिनिकेतन में अध्यापकी की, चार सालों तक लन्दन में बीबीसी के संवाददाता और उदघोषक रहे, ‘इप्टा’ के संपर्क में आकर वे मार्क्सवाद और कम्युनिस्ट पार्टी के नज़दीक आए. पंजाबी उनकी मातृभाषा थी, संस्कृत उन्हें बचपन में घुट्टी में मिली, उर्दू उनकी सहज भाषा थी, अंग्रेज़ी नाटकों में वे स्कूल-कॉलेज के दिनों में अभिनय करते, बंगला उन्होंने शान्तिनिकेतन में सीखी और आख़िरी दिनों तक कई भाषाओँ को सीखने की उनकी ललक बनी रही. इस तरह वे एक बहुत बड़ी दुनिया से जुड़े. इस दुनिया में ग़ैर-बराबरी है, युद्ध है, नफ़रत और हिंसा है, साथ ही न्याय के लिए लड़नेवाले लोग भी हैं, जिनके साथ उन्होंने ख़ुद को जोड़ा. वे ग़रीबी, दुःख, लाचारी, विस्थापन में गुज़र कर रहे लोगों के क़रीब गए, यही वजह है कि वे ऐसे कलाकार बन सके. यही लगाव उन्हें गाँधी तक ले गया और वे ‘इप्टा’ का अंग बने. यही जज़्बा सिने-जगत के इस मशहूर कलाकार को सड़कों पर ले आया, जहाँ उन्होंने मानवता की खिदमत के लिए अपने कलाकार-साथियों के साथ अपने दामन फैलाए.

बलराज साहनी एक विलक्षण अभिनेता तो थे ही, वे एक गम्भीर लेखक-विचारक भी थे. शुरू में तो वे लेखन में ही पूरी तरह रम जाना चाहते थे, लेकिन तब शायद भारतीय सिनेमा का वह अध्याय अधूरा रहता, जो दरअसल यथार्थवादी-समाजवादी-नए सपनों का है. हिन्दी-अंग्रेजी में लेखन करते हुए जीवन के अंतिम दिनों में वे पूरी तरह पंजाबी भाषा में लेखन में रम गए थे. मेरा पाकिस्तानी सफ़रनामा, मेरा रूसी सफ़रनामा, गैरजज़्बाती डायरी, सिनेमा और स्टेज, मेरी फ़िल्मी आत्मकथा, एक सफ़र, एक दास्तान-जैसी पुस्तकें हिन्दी और पंजाबी दोनों भाषाओँ के साहित्य की निधियाँ हैं. उन्होंने ‘कुर्सी’, ‘क्या यह सच है, बापू’ जैसे कुछ नाटक भी लिखे, ‘बाज़ी’ जैसी चर्चित फिल्म का लेखन किया, इस तरह उन्होंने अपने लेखकीय व्यक्तित्व को पूरी तरह कभी दबने नहीं दिया. 

बलराज साहनी का रंगमंच, रेडियो और सिनेमा का लंबा अनुभव था, और उन्होंने एक सजग बुद्धिजीवी की तरह इन कला-माध्यमों की विशिष्टताओं को समझा था. अपने व्यावहारिक अनुभवों को समेटते हुए उन्होंने कई जगह व्याख्यान दिए, छोटे-बड़े कई लेख लिखे. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के दीक्षांत-समारोह में दिया गया उनका व्याख्यान तो उनकी प्रखर बौद्धिकता की एक नज़ीर ही है, कई ट्रेड यूनियन के मंच पर दिए उनके व्याख्यान उनकी प्रतिबध्दता की मिसाल हैं. इन व्याख्यानों-लेखों से गुज़रते हुए अपने समय के सर्वाधिक जागरूक संस्कृतिकर्मी की मेधा समझ में आती है और यह भी समझ आता है कि उनके अभिनय की गहराई का सम्बन्ध उनकी इस सजग बौद्धिकता से है. इसी सजग बौद्धिकता से वे अभिनय–कला की बारीकी को समझ सके, अपनी कमजोरियों को पहचानना सीखा, महान कलाकारों की क़द्र की, अपने अभिनय को निखारने के लिए श्रम किया, अभिनेता की सामाजिक-राजनीतिक भूमिका को समझा. इस आलेख में हम बलराज साहनी के इस पक्ष को भी समझने का प्रयास करेंगे.

जैसा पहले कहा गया—बलराज साहनी ने रंगमंच, सिनेमा और रेडियो—तीनों माध्यम में काम किया, ख़ास तौर पर रंगमंच और सिनेमा में तो उन्होंने अपनी अभिनय-कला को बुलंदियों तक पहुँचा दिया. हालाँकि सिनेमा के सन्दर्भ में उन्हें इस बात का कई बार अफ़सोस रहा कि निर्देशन के क्षेत्र में वे अपनी सामाजिक जवाबदेही का काम ज़्यादा बेहतर तरीक़े से निभा सकते थे, लेकिन जिन दर्शकों-समीक्षकों ने फिल्मों में उनका अभिनय देखा है, उन्होंने हमेशा उनकी कला का बहुत ऊँचा मूल्यांकन किया है, साथ ही वे दर्शक-समीक्षक यह भी महसूस करते रहे हैं कि बलराज की अभिनय-कला विशिष्ट अंदाज़ की है, जिसका सम्बन्ध अपने समय और समाज से है. बलराज साहनी ने ख़ुद अपना मूल्यांकन जैसा भी किया हो (वे अपने काम के ख़ुद एक प्रखर आलोचक थे), सिने-दर्शकों के लिए वे आज भी सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति सजग एक संवेदनशील अभिनेता ही हैं. ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि बलराज मानते थे कि कलाकर्म, चाहे वह रंगमंच की कला हो, या सिनेमा की कला, उसकी सचाई इस बात में निहित है कि वह (अभिनय) पूरी मेहनत से, पूरी आज़ादी और इस एहसास के साथ किया जाए कि इससे समाज को लाभ होगा. वे कहते हैं—हमारे पुरखों ने तो यहाँ तक कहा है कि जीना भी कला है और मरना उससे भी बड़ी कला है, बशर्ते कि मनुष्य गाँधी या भगत सिंह की तरह मर सके.  गाँधी, या भगत सिंह की तरह मरने का बलराज साहनी का आशय क्या है, यह अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है, दरअसल यह अपनी कला को निरंतर ऊँचे आदर्शों से जोड़े रखना ही है.

बलराज साहनी जानते थे कि भले ही सिने-जगत में अभिनेता ‘स्टार’ की छवि पा ले, किन्तु अंततः उसकी कला एक कला का नाम नहीं, बल्कि यह अनगिनत कलाओं के समूह का नाम है—वास्तव में फिल्म एक सामूहिक कला है, जिसमें हज़ारों विभिन्न कलाकार शरीक होते हैं. इसी तरह नाटक भी एक सामूहिक कला है. बलराज साहनी ने जो अनुभव अर्जित किया, उसने उन्हें इस नतीजे पर पहुँचाया कि बिना सामुदायिक बोध और भ्रातृत्व भाव के ये कलाएँ सृजनात्मक नहीं रह जातीं—फ़िल्म और नाटक दोनों की कामयाबी का रहस्य यही है कि कलाकारों ने किस हद तक मिलकर, ख़ुशी से, भ्रातृभाव से, कंधे से कंधा मिलाकर काम किया है. ... नाटक मंडलियाँ अपने-आप में एक बिरादरी हैं. यह बिरादरी जितनी मज़बूत होगी, अपनी सामूहिक रचना और सामाजिक ज़िम्मेदारी को जितना ज़्यादा महसूस करेगी, उतना ही उसका काम सफल होगा.

अभिनय की सहजता और स्वाभाविकता, सजीवता, चरित्रांकन की स्पष्टता और सटीकता, यथार्थवादिता, कलात्मक संयम और संवेदनशीलता—ये अभिनेता बलराज साहनी की कुछ विशिष्टताएँ हैं. ‘अभिनय’ को लेकर उनकी कुछ मान्यताएँ बहुत स्पष्ट थीं. उनके छोटे भाई हिन्दी के मूर्द्धन्य कथाकार-नाटककार-अभिनेता भीष्म साहनी ने अपने संस्मरण में बताया है कि बलराज के आरंभिक स्कूल-कॉलेज के दिनों में उन्हें ऐसे प्रतिभावान अध्यापक मिले, जिन्होंने यह राह उन्हें दिखाई और वे आरम्भ से ही अभिनय की सहजता-स्वाभाविकता के क़ायल हो गए. अपने वक्तव्य और लेखन में बलराज साहनी बार-बार हैमलेट’ का वह संवाद ज़रूर उद्धृत करते, जिसमें हैमलेट अभिनेताओं को उनकी कला के बारे में बता रहा है—देखो, स्टेज पर खड़े होकर इस तरह बोलो कि सुनने वाले को रस आए, यह नहीं कि उनके कान फट जाएँ. तुम अभिनेता हो, ढिंढोरची नहीं. और देखो, हाथ को तलवार की तरह मार-मारकर हवा को मत चीरना. अभिनेता को चाहिए कि वह अपने मन को हमेशा क़ाबू में रखे, चाहे उसके अंदर भावनाओं के तूफ़ान क्यों न उठ रहे हों. जो अभिनेता अपनी भावनाओं को क़ाबू में रखकर उन्हें संयम से व्यक्त नहीं कर सकता, उसे चौराहे पर खड़ा करके चाबुक मारनी चाहिए. ... और देखो, फीके भी मत पड़ जाना. ‘अंडर एक्टिंग’ करना भी अच्छा नहीं होता. ख़ुद अपनी सूझ-बूझ को अपना उस्ताद बनाओ, और उसी के अनुकूल चलो. अपनी चाल-ढाल को, अपने संकेतों को शब्दों के अनुकूल बनाओ, और शब्दों को संकेतों के अनुकूल...  

‘रंगमंच’ और ‘सिनेमा’ के अभिनय की टेक्नीक के फ़र्क को बलराज बखूबी समझते थे, लेकिन दोनों का वास्तविक उद्देश्य, उनकी दृष्टि में, साधारण जन के जीवन में नयी उत्प्रेरणा लाना है, इसको लेकर वे बहुत स्पष्ट थे. वे यह मानते थे—सिनेमा जैसी शक्तिशाली कला को केवल व्यापारिक ढंग से इस्तेमाल किया जाए, तो बड़े ख़तरनाक नतीजे निकल सकते हैं. वे ‘टेक्नीक’ की दृष्टि से अत्यंत सजग अभिनेता थे. उनके हिसाब से रेडियो, रंगमंच और सिनेमा तीनों अलग-अलग माध्यम या साधन हैं. इन माध्यमों की विशिष्ट ‘टेक्नीक’ की जानकारी और उसे अभिनय में साधना हर अभिनेता की कलात्मक ज़िम्मेदारी है. अक्सर वे इसकी तुलना ‘निशाने पर वार करने वाले बम को ले जाने वाले साधन’ से करते, वे कहते, जैसे रॉकेट, हवाई जहाज़ या किसी और साधन से सही निशाने पर बम को पहुँचाया जाता है, बम अपने निशाने पर पहुँचकर फट जाता है, वैसे ही फिल्म, रंगमंच या रेडियो में किया जानेवाला अभिनय है, ‘साधन’ को तो समझना अनिवार्य है—अभिनेता जो कुछ रंगमंच पर करता है, अगर फिल्म के लिए उसे कैमरे के सामने हू-ब-हू दुहरा दे, तो उसका नतीजा अस्वाभाविक और हास्यास्पद होगा. अभिनेता स्वयं से कहेगा—मैं वही व्यक्ति हूँ, और मेरे हाव-भाव भी वही हैं, जो रंगमंच पर थे; लेकिन क्या बात है कि दर्शक पसंद नहीं कर रहे? इसका जवाब है कि फ़िल्म के लिए अभिनय करते समय सही निशाने पर पहुँचने के लिए उसे किसी दूसरे साधन का प्रयोग करना चाहिए था, और अभिनय-शैली को उसके अनुसार बदलना चाहिए था... बलराज साहनी ने ‘काबुलीवाला’ की भूमिका रंगमंच पर भी की, फ़िल्म में भी और रेडियो-नाटक में भी. उनका इन तीनों माध्यमों का भिन्न अनुभव बहुत महत्वपूर्ण है. हर बार माध्यम बदलते ही अभिनय-सम्बन्धी नई समस्याओं को सुलझाना पड़ता है. रंगमंच पर अभिनय करते समय सारे दर्शकों का ध्यान अपनी ओर खींचे रखने के लिए अतिरिक्त शारीरिक सक्रियता की ज़रूरत होती है, फ़िल्म में रंगमंच की-सी हरकत अभिनय को बिगाड़ देती है, क्योंकि यहाँ उस अभिनेता को केवल कैमरा ही देख रहा होता है और, ...रेडियो-नाटकों में मैं हमेशा संवाद वाला कागज़ सामने रखकर ही बोला करता था. वह कागज़ मुझे श्रोताओं, स्टूडियो और वहाँ के साज़-सामान से निर्लिप्त रखता था. रंगमंच पर जो प्रभाव मैं अपनी शारीरिक हरकतों से पैदा करता था, संवाद वाला कागज़ सामने देखकर मैं वही प्रभाव अपनी आवाज़ द्वारा पैदा करने लगता था.

बलराज साहनी अभिनेता की अद्वितीयता के क़ायल नहीं थे. वे उन सारे कामों को ‘कला’ मानते थे, जो व्यक्तिगत ईमानदारी और सचाई से किये जाएँ, जिनको करते समय लगातार अपने कामों को सुधारने-ऊपर उठाने के लिए कड़े श्रम करने का जज़्बा हो और जो व्यापक मानव-समाज के लिए उत्प्रेरक हो—उनकी दृष्टि में तब ऐसा हर काम ‘कला’ है. वे ‘कलाकार जन्मजात होता है’ के सिद्धांत को सिरे से नकारते हैं—मैं आज तक जन्मजात कलाकार होने के सिद्धांत को मान नहीं सका हूँ. मैं इस सिद्धांत को न केवल अस्वीकार करता हूँ, बल्कि कलाकार के लिए बहुत हानिकारक मानता हूँ, क्योंकि यह उसे अहंकारी, आडंबर, आत्म-प्रदर्शन और आलस्य का शिकार बना देता है.

बलराज साहनी पर ‘समाजवाद’ का गहरा असर था. ‘इप्टा’ के आन्दोलन से जुड़ने के दौरान वे मार्क्सवादी विचारधारा और कम्युनिस्ट पार्टी के संपर्क में आए. रवीन्द्रनाथ ठाकुर, गाँधी, जवाहरलाल नेहरू और भगत सिंह उनके आदर्श थे. यही कारण है कि उनके व्यक्तित्व में गहरी मानवीयता-सादगी-ऊँचा आदर्श दीखता है. वे मानते थे कि कलाकारों में दोस्ती और बराबरी का रिश्ता होना चाहिए. यही वजह है कि फ़िल्मी जीवन की चमक-दमक और स्टारडम की छवि उनमें वितृष्णा जगाती, हालाँकि वे स्वयं उसका एक हिस्सा रहे थे, वे बार-बार यह प्रयास करते कि उन सैकड़ों छोटे-छोटे कलाकारों, टेक्नीशियनों, कामगारों से जुड़ सकें, जिनकी वजह से यह फ़िल्मी दुनिया कायम है. यह सबको मालूम है कि स्वतंत्रता-प्राप्ति के तुरंत बाद वे अपनी राजनीतिक-सामजिक-ट्रेड यूनियन गतिविधियों और ‘इप्टा’ से अपने सक्रिय जुड़ाव के कारण पुलिस की निगरानी में थे और ‘हलचल’ की शूटिंग उन्होंने अपनी गिरफ़्तारी के दिनों में की थी. आज़ादी के 25 साल बीत जाने के बाद भी गैर-बराबरी, भेद-भाव और साधारण जन के जीवन में अभाव-दुःख का बने रहना उन्हें बहुत विचलित करता—समाजवाद के दावे करनेवाली सरकार आज भी कलाकारों के साथ वैसा ही सलूक कर रही है, जैसाकि अंग्रेज़ों के ज़माने में होता था. हालाँकि कि वे खुद पं. नेहरू से अत्यधिक प्रभावित थे, एक स्थान पर तो उन्होंने लिखा है कि समाजवाद की उनकी अवधारणा हू-ब-हू वही है, जो पं. नेहरू की है. लेकिन, दरअसल वे एक जाग्रत मस्तिष्क वाले ऐसे कलाकार थे, जिसने कभी भी विचारधारा या व्यक्तित्व के प्रभाव में आस-पास के यथार्थ से आँखें नहीं मूँद लीं, उन्हें यदि अपनी राष्ट्रीय सरकार में कोई खोट नज़र आई, तो उसे अनदेखा कभी नहीं किया. एक समय तो उन्होंने ‘इप्टा’ की कम्युनिस्ट पार्टी पर निर्भरता की कठोर आलोचना की. वे इस मामले में बिलकुल स्पष्ट थे कि कलाकार को स्वाधीनचेता होना चाहिए और जनता के दुःख के नज़दीक होना चाहिए. आज़ादी के पच्चीस साल बाद की यह टिप्पणी उनकी आलोचना की धार को सामने लाती है—आज देश की सामाजिक अथवा राजनीतिक हालत बहुत ही ख़राब हो चुकी है. वे पहले के तूफ़ान ख़त्म हो चुके हैं. हर तरफ़ निराशा और किंकर्तव्यविमूढ़ता नज़र आती है. हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन की तमाम बुनियादी कमज़ोरियाँ सामने आ रही हैं. ...नाटक का उद्देश्य है, जनता का मार्ग-दर्शन. ऐसे समय में जबकि हमारे देश में भूख, ग़रीबी और शोषण का हाहाकार मचा हुआ है, किसी भी कलाकार को टेक्नीक के रेशमी खोल में बंद हो जाने का अधिकार नहीं है. ऐसा करके वह अपनी कला का अपमान करता है....

(इप्टा प्लैटिनम जुबली वर्ष के तहत पटना इप्टा और नटमंडप के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित कार्यक्रम "हमारे साथी बलराज" कार्यक्रम के दौरान चर्चा हेतु वरिष्ठ अभिनेता डॉ० जावेद अख़्तर खां (संपर्क:ई-मेल: javednatmandap@gmail.com)द्वारा प्रस्तुत आलेख। आलेख लखनऊ से प्रकाशित होने वाली पत्रिका। ....... से साभार प्रस्तुत। विस्तृत चर्चा देखने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें:https://www.youtube.com/watch?v=yQRmesWyoOk&t=1s)

Wednesday, May 30, 2018

मुंगेली की सड़कों पर बांस गीत की मधुर तान

-डॉ. दीपक पाचपोर
अपने गृहनगर मुंगेली के रास्तों पर मैं इसी 28 तारीख को भटक रहा था कि मुझे पंजूराम बरेठ मिल गए, जो घूम-घूमकर छत्तीसगढ़ का लोक वाद्य बांस बजाते हैं और उसकी धुन पर गाते भी हैं। यह परंपरा धीरे-धीरे समाप्त हो रही है। ज्यादातर इसका प्रचलन अब गांवों में सिमटकर रह गया है। यदुवंशियों की यह सदियों पुरानी परंपरा है पर संगीत के क्षेत्र में बॉलीवुड और पाश्चात्य तौर-तरीकों के अतिक्रमण ने इसे विलुप्ति की कगार पर पहुंचा दिया है। अब इस क्षेत्र में बहुत कम लोग रह गए हैं। किसी के मरने पर होने वाले दशगात्र या बच्चे के जन्म होने के छठवें दिन होने वाले छठी समारोह में बांस गीत के कलाकारों को आमंत्रित कर उनसे गायन व बांस बजवाया जाता है। पंजूराम को छत्तीसगढ़ की लोक परंपरा में वर्षों से चली आ रही कंठी राऊत, अजमन-कईना, रमला-कईना की कथाएं कंठस्थ हैं। वे इन्हें ही गाकर और उस पर बांस पर धुनें छेड़कर सुनाते हैं। पंजूराम को इसमें महारत है और उन्हें सुनना स्वयं को लोक जीवन से आबद्ध करना है।
वैसे तो पंजूराम बिलासपुर के अचानकपुर (चकरभाठा) के हैं पर वे बचपन से ही अपने पिता जूठेरराम के साथ मुंगेली, तखतपुर, बिलासपुर और उसके आसपास के गांवों में बांस गीत सुनाकर अपना पेट पालते आए हैं। अब भी वे पिता के सौंपे बांस और उनकी कला विरासत को संभाल रहा है। उन्होंने अपने पुत्र अर्जुन (25 वर्ष) को भी यही कला सिखाई है और उसका भी यही पेशा है। उनका भरा-पूरा परिवार है।
वे बताते हैं कि उनके पिताजी भी मुंगेली की दुकानों और घरों में घूम-घूमकर बांस गीत बजाते थे और गाते थे। विशेषकर दीवाली और दशहरे में उनकी अच्छी कमाई होती थी। पर ज्यादातर लोक परंपराओं की तरह अब यह कला भी धीरे-धीरे कम हो रही है। अब तो गिने-चुने दुकानदार ही उन्हें पैसे देते हैं। अलबत्ता, गांवों में उन्हें ज्यादा काम मिल जाता है। दशगात्र और छठी में हैसियत के अनुसार हजार से दो हजार रूपये 24 घंटे में मिल जाते हैं। साथ में कुछ कपड़े और अनाज भी। उनका मानना है कि अब तो नए-नए उपकरणों के कारण प्रत्यक्ष या जीवंत गायन के कार्यक्रम काफी कम रह गए हैं। वे कहते हैं- “घर-घर मा आइस मोबाईल-टीवी, बिगड़िन मियां-बीवी”।
पंजूराम कहते हैं कि सरकार को इसे संरक्षित करने के लिए ठोस उपाय करने चाहिए वरना यह परंपरा और बहुत ही मधुर वाद्य यंत्र भी एक दिन लुप्त हो जाएगा। इसे बजाने वाले और इसकी धुन पर गाने वाले बचेंगे ही नहीं। चूंकि इससे आजीविका नहीं चलती इसलिए इसके कलाकारों को दूसरे काम करने पड़ते हैं। यह परंपरा पहले से कम होती जा रही है इसलिए बांस गायकों की आय भी लगातार घट रही है। नईं पीढ़ी तो इससे विमुख ही हो रही है। छत्तीसगढ़ सरकार की ओर से कुछ प्रयास जरूर किए जा रहे हैं पर वे और बढ़ाए जाने होंगे। उन्होंने बताया कि इसे एक बार जो भी बजाना शुरू करता है उसके लिए जरूरी है कि उसका वह नियमित अभ्यास करता रहे वरना कई तरह की शारीरिक समस्याएं होने लगती हैं, विशेषकर सीने में दर्द या सांस लेने में दिक्कत होती है।
आवश्यकता है पंजूराम जैसे कलाकारों को ज्यादा से ज्यादा सुना जाए और उनकी आय कम से कम इतनी हो कि वे अपने परिवार और लोक वाद्य की इस समृद्ध विरासत को बचाए रख सकें।

शब्दांकन व फोटो: डॉ. दीपक पाचपोर

Tuesday, May 29, 2018

जन नाट्य रचना प्रक्रिया पर सीमा-हरिओम से बातचीत

इंदौर। सीमा और हरिओम राजोरिया  मध्य प्रदेश में भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की गतिविधियों के लिए जाने जाते हैं। अशोकनगर जैसे एक छोटे से शहर में रहते हुए उन्होंने लगातारकरीब ढाई दशकों से इप्टा के आदर्शों के मुताबिक प्रगतिशील जनसंस्कृति के विकास में अपना सहभाग किया है। अशोकनगर इकाई ने पिछले २५ वर्षों में एक और दो महीने के १४ नाट्य शिविर  आयोजित किये हैं जिनसे हज़ारों नए रंगकर्मी तैयार हुए हैं और उनसे सैकड़ों गुना अधिक दर्शक नाटक के ज़रिये उच्चतर मानवीय मूल्यों और कलाओं से संस्कारित  हुए हैं।  वे और उनके साथी निरंतरता, प्रयोगधर्मिता और चुनौतीपूर्ण संस्कृतिकर्म के लिए जाने जाते हैं।

३१ मई, २०१८ को वे इंदौर में हमारे साथ होंगे और हम उनसे जन नाट्य आंदोलन के अनुभवों को, इस आंदोलन के समक्ष मौजूद चुनौतियों और संभावित समाधानों पर एक-दूसरे के  विचारों को साझा करेंगे। 

हरिओम नाट्य लेखक, निर्देशक, गायक और अभिनेता होने के साथ ही हिंदी के एक समर्थ समकालीन कवि के रूप में भी जाने जाते हैं। तो उनकी मौजूदगी का लाभ लेकर हम उनकी कविताएँ भी सुनेंगे। उनकी रचना प्रक्रिया पर बातचीत सुनते हुए नए रचनाकार लाभान्वित होंगे।

स्थान- कैनरिस आर्ट गैलरी, 577/1 -ए, महात्मा गाँधी मार्ग, ट्रेजर आइलैंड के सामने इंदौर।
समय - 31 मई, 2018 को शाम 6 से 9 तक। 

Friday, May 25, 2018

इप्टा की 75 वीं जयंती पर इप्टा अशोकनगर का आयोजन

भारतीय जन नाट्य संघ ( इप्टा ) की अशोकनागर इकाई ने  आज सुबह 8 बजे स्थानीय संस्कृति गार्डन में इप्टा के 75 साल पूरे होने पर एक महत्वपुर्ण आयोजन किया । भारतीत जन नाट्य संघ (इप्टा ) की स्थापना 25 मई ,1943 को मुंबई में हुई थी । इस अवसर पर बच्चों ने कालबेलिया लोकनृत्य का प्रदर्शन रूबी सूर्यवंशी के निर्देशन में किया । परम्परा के अनुसार 60 से ज़्यादा बच्चों ने जनगीत गायन किया ।
राष्ट्रीय इप्टा के 75 साल पूर्ण होने पर
इप्टा के राष्ट्रीय उप सचिव तथा दिल्ली इप्टा के महासचिव मनीष श्रीवास्तव ने इप्टा की स्थापना को लेकर 1943 के समय देश के राजनैतिक - सामाजिक हालातों का उल्लेख किया । जब बंगाल के भीषण अकाल में लाखों लोग भूख से मर रहे थे तब इप्टा ने सबसे पहले उन अकाल पीड़ितों के साथ अपना स्वर मिलाया था और वामिक जौनपुरी के गीत भूखा है बंगाल को गा - गा कर देश भर में यात्राएं की थीं  । इप्टा का नारा था इप्टा के नाटकों
की नायक स्वयं जनता है । उन्होंने कहा कि गुलाम भारत में गरीब जनता , किसान और शोषित जनों के संघर्ष को  इप्टा के रंगकर्मियों ने अपने गीतों और नाटकों  का विषय बनाया । आज़ादी की लड़ाई और जनता के अधिकारों की लड़ाई में आमजन के साथ इप्टा ने सांस्कृतिक स्तर पर हमेशा हस्ताक्षेप किया है  ।इस अवसर पर अनिल दुबे , सुरेंद्र रघुवंशी  , पंकज दीक्षित , विनोद शर्मा आदि ने भी अपने विचार रखे । गोष्ठी का संचालन हरिओम राजोरिया ने किया । इस अवसर पर इप्टा द्वारा  1 मई  से 27 मई तक चलने वाली बाल एवं किशोर नाट्य शाला में शामिल बच्चे और शहर के अनेक रंगकर्मी उपस्थित रहे । 

 बच्चों की नाट्य कार्यशाला का समापन आयोजन 27 मई को किया जाएगा जिसमें  पूर्व मध्य काल के अग्रगण्य कवि कबीर के जीवन पर एकाग्र भीष्म साहनी द्वारा लिखित नाटक " कबिरा खड़ा बाज़ार में " का मंचन आदित्य निर्मलकर के निर्देशन में किया जाएगा  । बच्चे और इप्टा के रंगकर्मी कार्यक्रम की अंतिम तैयारी में जुटे हैं ।

नट सम्राट' का स्त्रीविरोधी पक्ष

- राजेश कुमार
कहने में कोई शक नहीं कि लखनऊ में 24 मई 2018 की शाम नाटक 'नट सम्राट' से अधिक अभिनेता आलोक चटर्जी के नाम थी। ये नाटक पहले भी एक स्थानीय निर्देशक द्वारा इसी प्रेक्षागृह में किया गया था, लेकिन दर्शकों का वो उबाल नहीं था जो कल देखने को मिला। निर्देशक जयंत देशमुख कितने अच्छे चित्रकार हैं, सेट डिज़ाइनर हैं, दर्शक को इससे मतलब नहीं था, उन्हें तो 'नट सम्राट ' आलोक चटर्जी को देखना था क्योंकि उनके दिमाग में नट सम्राट की जो छवि बैठी है, काफी कुछ उन्हें    आलोक चटर्जी में दिखता है। यू ट्यूब और अपने व्यवहारिक जीवन में जिस तरह नजर आते हैं, काफी कुछ इसकी झलक नट सम्राट  में दिखती है। वेलवलकर की जिंदगी और आलोक चटर्जी की जिंदगी में काफी साम्य भी दिखता है। जैसा कि अक्सर आलोक चटर्जी  गोल्ड मेडलिस्ट होने और रंगमंच की प्रतिबध्दता की चर्चा करते हैं, उसी तरह वेलवलकर भी अपनी रंगमंच की उपलब्धियों पर बार - बार स्ट्रेस देते दिखते हैं। बल्कि वेलवलकर कहते भी हैं कि बुढ़ापे में व्यक्ति के पास थोड़ा अहंकार होना भी चाहिए। शायद आलोक भी इस नाटक में इस भाव को पूर्णरूप से जी रहे हैं। और उनके लिए ये मुश्किल भी नहीं है, क्योंकि वास्तविक जीवन में भी इसी किरदार को जीते भी हैं। निर्देशक जयंत देशमुख ने भी शायद इसी छवि को देखकर इस भूमिका के लिए चयन भी किया होगा। इससे उनका काम आसान भी हो गया है। और वो आलोक चटर्जी के एंट्री पर ही दिख जाता है। पहले संवाद से ही आलोक चटर्जी का जादू दर्शकों पर चल जाता है। कुछ भी आलोक बोलते हैं, दर्शक तालियां बजाने लगते हैं। अर्थात दर्शक आलोक के वशीकरण मंत्र  में आ गए हैं। फिर तो काम आसान हो जाता है। बैठ जा तो दर्शक बैठ जाते हैं। खड़ी हो जा तो खड़े हो जाते हैं। उनको सोचने को मौका ही नहीं देते है। भावनाओं, कोरी संवेदनाओं में इतना डुबो दो की इससे इतर कुछ सोचने का मौका ही न मिले। उन्हें तटस्थ ही न होने दे। उन्हें अपने इमोशन में इतना इन्वॉल्व कर दे कि जिधर चाहे उधर मोड़ दे। ये महज संयोग नहीं है कि वेल्वलकर की जिंदगी में जो दो महत्वपूर्ण चोट पहुंचती है , दोनों स्त्रीजाति की तरफ से है। रिटायर होने के बाद ( अमूमन कलाकार कभी रिटायर नहीं होता है। सरकारी नॉकरी की तरह रिटायर की कोई उम्र नहीं होती है। वेल्वलकर का रिटायरमेंट लेना तथ्यपरक नहीं लगता है। किंग लियर जब वृद्ध होता है तो सत्ता का विभाजन किया था। कलाकार की कोई वजह न हो तो कार्य करते रहता है। ऐसे अनगिनत उदाहरण हमारे बीच हैं।) वेल्वलकर दस वर्ष अपने पुत्र के फ्लैट में रहता है, लेकिन वहां से निकलने की वजह नाटककार और निर्देशक ने जो दिखाई है वो बहू है। सनातनी सोच की तरह पुत्र तो ठीक है, उसे बहू ने बहका दिया है। अभिनेता जब बहुत सारी लिबर्टी इस नाटक में लेता है, पुत्र को कुछ भी कहने में उसकी सारी इम्प्रोविस कला चूक जाती है। आलोक पितृसत्ता पर हमला ही नहीं करते हैं। वही दुहराव दृश्य में है, इस बार आलोक चटर्जी का सारा गुस्सा , सारा आक्रोश, लाउडनेस, ओवर एक्सप्रेशन दामाद पर नहीं उतरता है, जो उपभोक्ता और बाजारवाद का जीता जागता नमूना है, बल्कि इस बार भी लेखक, निर्देशक और महान कलाकार का गुस्सा पुनः स्त्री पर ही उतरता है। जब नाटक में अभिनेता द्वारा कई प्रासंगिक संवादों को जोड़ा गया है तो क्या निर्देशक, आज का नट सम्राट इसको आज के समय से जोड़ नहीं सकता था ? लेकिन आज का नट सम्राट क्यों जोड़ेगा? वो तो परंपरावादी, यथास्थितिवादी है, बहुत कुछ हिंदूवादी भी है ( जिसका ढिंढोरा अक्सर पीटते रहते हैं), वो भला वेल्वलकर के चरित्र में स्त्री विमर्श के नए संदर्भों को क्यों लाएगा? वेल्वलकर एक अभिनेता है, लेकिन आलोक चटर्जी की कलाई में बंधा कलावा जो नाटक के प्रारंभ से अंत तक है, क्या साबित करना चाहते है? क्या कलावा का मिथ उन्हें पता है ?और कलाकार का कोई धर्म , कोई जाति नहीं होती है। उस चरित्र को निभाना उसका धर्म होता है। दामाद ने भी कलावा पहना है, उसकी मनोदशा सबको ज्ञात है। उसके बारे में कुछ कहना नहीं है। लेकिन नाटक में आहार्य का क्या सिद्धान्त है, उन्हें तो पता होगा। एनएसडी के गोल्ड मेडलिस्ट है। हर दृश्य में ड्रेस तो बदलता है, लेकिन कलावा वही रहता है। आवाज वही रहती है। कभी झुक जाते हैं तो कभी तन जाते हैं।पहले दृश्य के बदलते झुक गए थे, फिर आगे के दृश्य में भूल गए कि कितना झुकना है। जबकि उनकी पत्नी लगातार कमजोर होती गयी हैं (लाजवाब अभिनय किया है रश्मि मजूमदार ने) , नट सम्राट जो पहले दृश्य से बीमारी से ग्रस्त है, कमजोर होने के अपेक्षा और मजबूत होते गए है। शायद रामदेव का प्रोडक्ट सेवन कर रहे हो? करे भी क्यों नहीं, वो तो ताल ठोक कर कहते हैं, मैं इसी धारा का हूं, और रहूंगा भी। कोई कलाकार जब किसी संसदीय पार्टी का भोपू बन जाता है, तो उसका असर उसके अभिनय पर भी आता है।
इस शहर में भी कई नट सम्राट है जो पाश्यात्य नास्ट्रोलीजिया में वेल्वलकर कई तरह आज भी जी रहे हैं। अगल - बगल क्या घट रहा है, किसान क्यों आत्महत्या कर रहे हैं, फासीवाद किस तरह दस्तक दे रहा है, इन नट सम्राटों के लिए कोई चिंता का विषय नहीं है। वैसे भी सम्राट शब्द में सामंतवाद का गंध है। आज अगर आप नाटक कर रहे हैं तो जनता के बीच जाइये। नट बनना है तो जन नट बनिये। नट नायक बनिये।सम्राट का जमाना गया। कब के इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया गया है।

इप्टा आख़िर इप्टा ही है.........

आज 25 मई को देश का धड़कता युवा सांस्कृतिक संगठन इप्टा 75 साल पूरा कर 76वें साल का आग़ाज़ कर रहा है। यह कोई असाधारण घटना नही है कि औपनिवेशीकरण, साम्राज्यवाद व फासीवाद के विरोध का उद्देश्य लेकर कुछ कलाकार, साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ता मुंबई में इक्कठ्ठा होते हैं और ‘इप्टा’ की स्थापना 25 मई 1943 को होती है। ‘इप्टा’ का यह नामकरण सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक होमी जहाँगीर भाभा करते हैं और यह संस्था बहुत जल्द मुंबई के दायरे को पार करती पूरे हिन्दुस्तान में कलाकारों को जोड़ लेती है। इप्टा एक खास एतिहासिक पृष्ठभूमि से जुड़ी और लगातार 75 सालों से देश गांव-नगर, गली-मुहल्लों में नाटक, गीत, नृत्य के साथ सक्रिय है।

वर्ष 2015 के अक्टूबर में जब इप्टा के राष्ट्रीय सम्मेलन में संघ परिवार से जुड़े कुछ लोगों के हमला किया और मंच पर चढ़ कर ‘भारत माँ की जय’ का नारा लगाने की जबरदस्ती की। देशद्रोहियों की सूची में इप्टा को शामिल कर दिया। इप्टा के मंच पर कब्जा करने की कोशिश करने वाले अतिउत्साही युवक शायद भूल गये कि यह वही इप्टा है जिसके लिए पंडित रविषंकर ने ‘सारे जहां से अच्छा....’ की धुन बनाई, जिसे पूरा हिन्दुस्तान गाते हुए नौजवान हुआ है। यह वही इप्टा है, जिसने 14 अगस्त, 1947 की मध्य रात्रि को जश्ने आज़ादी के मौके पर कोरस गान किया कि 
‘‘झूम-झूम के नाचो आज, गाओ ख़ुशी के गीत।
झूठ की आखिर हार हुई, सच की आखिर जीत।
आज से इन सुंदर खेतों पे भूख ना उगने पाए,
फैक्टरियों में मंडराए ना बेकारी के साये,
देश का यह धन-दौलत है, ये सारे कौम की पूंजी,
आज किसी आगे दामन इस फैलाये रे।’’

इसी इप्टा के मख़दुम मोहिउद्दीन ने लिखा ‘कहो हिन्दुस्तान की जय’ और पूरे देश में इप्टा के लोगों ने जनघोष की तरह गाया।

इप्टा के लिए यह कोई नई परिघटना नहीं थी। 1947 की 20 दिनों की रेल हड़ताल के दौरान भी इप्टा पर प्रतिबंध लगा। उसी समय शंकर शैलेन्द्र ने कहा कि
‘‘ हर जोर जुल्म की टक्कर में, हड़ताल हमारा नारा है !
तुमने माँगे ठुकराई हैं, तुमने तोड़ा है हर वादा
छीनी हमसे सस्ती चीजें, तुम छंटनी पर हो आमादा
तो अपनी भी तैयारी है, तो हमने भी ललकारा है
हर जोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है ! ’’

आज भी ये गीत संघर्ष के गीत है और मजदूर आन्दोलन के प्रतीक बन गये हैं। इप्टा के गीत फिल्मों में गाये जाते हैं। 

विभाजन की आग में झुलस रहे देश को इप्टा की मंडलियों ने सांप्रदायिक सौहार्द और क़ौमी एकता के लिए आवाज़ बुलंद की। सलिल चौधरी ने देश के साथ कोरस बनकर यह गाया कि 
"ओ मेरे देशवासी रे.... काली नदी को करे पार 
आओ रे राम भाई, आओ रहीम भाई
काली नदी को करें पार। 
बीच इस देश के 
शैतान ले आये हैं दंगे फ़सादों की बाढ़ 
डूबा सैलाब में सारे वतन का मान।" 
   
80-90 के दशक में जब देश पर साम्प्रदायिकता और अलगाववाद का साया छाया तो फिर इप्टा बोल पड़ी। सलिल चौधरी और हेमांगू विश्वास ने बंगाल और असम के लोकगीत को देशप्रेम के लिए पूरे देश में जन संगीत का तोहफा दिया। देश एक बार फिर से गुनगुनाया-
‘‘दिशाएं लाख हो उनके रास्ते हों भले
चले कोई दाहिने कोई बायें चले,
एक ही मंजिल, नाना तरंगे
जागों मेरे देश, शांति खिले जग-जग में ऐसा मेरा देश
चाहे अलग हमारे भाषा औ वेश।’’

अलगाववाद के खिलाफ इप्टा के लोग पंजाब के गली-मुहल्लों और गांवों घूम-घूम के नाटक करते। कैफी आज़मी, ए.के.हंगल, दीना पाठक आदि दिग्गज पंजाब के लिए युवाओं के साथ एक कतार में खड़े थें। आज भी चंडीगढ़ की सड़कों पर 'मदारी आया'  नाटक की याद करते लोग मिल जायेगे। 

रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के विवाद के काले साये के खिलाफ कबीर, नजीर, मीराबाई, रसखान और तुलसी के भक्ति-सूफी को लिये इप्टा के कलाकार सड़कों पर उतर आयें। प्रेम, सहिष्णुता और भाईचारा के पक्ष में आवाज़ बुलंद की। कैफी आज़मी का दूसरा बनवास इप्टाकर्मियों का नया नारा बना-
‘‘ पाँव सरयू में अभी राम ने धोये भी न थे
कि नजर आये वहाँ खून के गहरे धब्बे
पाँव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे
राम ये कहते हुए अपने दुआरे से उठे
राजधानी की फजा आई नहीं रास मुझे
छह दिसम्बर को मिला दूसरा बनवास मुझे‘‘

इस समय देशभर में इप्टा की 600 से भी अधिक इकाइयां सक्रिय हैं। अखिल भारतीय स्तर पर 25 मई 1943 को बंबई (अब मुंबई) में स्थापित इप्टा की स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर भारत सरकार ने विशेष डाक टिकट जारी किया। 

इप्टा के सफर में बहुत से नामचीन लोगों ने अपना योगदान दिया है, जिनमें से कुछ नाम पं. रविशंकर, हबीब तनवीर, कैफी आजमी, शबाना आजमी, सलिल चैधरी, शैलेन्द्र, साहिर लुधियानवी, राजेन्द्र रघुवंशी, बलराज साहनी, भीष्म साहनी, दीना पाठक, शंभु मित्रा, हेमांगु विश्वास, संजीव कुमार, रामेश्वर सिंह कश्यप उर्फ लोहा सिंह, पं0 सियाराम तिवारी, विन्ध्यवासिनी देवी, कविवर कन्हैया, ललित किशोर सिन्हा, फारूख शेख, एम. एस. सथ्यू, शबाना आज़मी, अंजन श्रीवास्तव, रणबीर सिंह, परवेज अख़्तर, तनवीर अख़्तर, हिमांशु राय, राकेश, आदि हैं। 

इप्टा, इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन का संक्षेप है। हिन्दी में इसे‘भारतीय जन नाट्य संघ’, असम व पश्चिम बंगाल में ‘भारतीय गण नाट्य संघ’ व आन्ध्रप्रदेश में प्रजा नाट्य मंडली के नाम से जाना गया। इसका सूत्र वाक्य है ‘पीपुल्स थियेटर स्टार्स द पीपुल‘ यानी, ‘जनता के रंगमंच की नायक जनता है।’ प्रतीक चिन्ह सुप्रसिद्ध चित्रकार चित्त प्रसाद की कृति नगाड़ावादक है, जो संचार के सबसे प्राचीन माध्यम की याद दिलाता है।

इप्टा के 50 साल पूरे होने पर पटना में स्वर्ण जयंती समारोह 24-27 दिसम्बर, 1994 में आयोजित किया था, जिसमें पूरा देश चार दिनों के लिए पटना आ बसा। इप्टा के 75वें साल जश्न एक फिर से पटना में इप्टा प्लैटिनम जुबली समारोह 27 से 31 अक्टूबर, 2018 को आयोजित होना है। एक बार फिर पूरे देश की सांस्कृतिक विविधता अपनी विरासत के साथ मिलेंगी।

अपने 75 सालों में इप्टा ने कई उतार चढ़ाव देखें और संघर्ष किया है। घर-बाहर आलोचनाएँ सही हैं। देशद्रोही, वैचारिक सवाल झेले हैं परन्तु इप्टा का इतिहास और वर्त्तमान भारत की संस्कृति का इतिहास और वर्त्तमान है। कलाकर्म का सामाजिक दायित्व इप्टा की ही देन है, जिस पर पूरा देश गौरव करता है। चाहे वह नाटक हो, गीत-संगीत-नृत्य हो या पेंटिंग-सिनेमा इप्टा की सोच सांगठनिक दायरे से आगे निकल कर एक आंदोलन बन चुका है। 

इप्टा के 75 साल सिर्फ इतिहास को याद करना नहीं बल्कि आज की उन सामाजिक-सांस्कृतिक चुनौतियों से मुकाबला करने के लिए तैयार होना भी है जो दमन और शोषण के पैरोकार हैं। आइये एक बार फ़िर ज़िन्दगी के लिए ज़िंदा रहने के गीत गाये। इप्टा के पैरोकार बने। उस विरासत का हिस्सा बने जो हमारे पुरखों ने देश प्रेम और इंसानियत के लिए बनाया था। अपनी आने वाली पीढ़ी को वही तोहफ़ा सहेज और सवांर कर दे जाएँ जिसके बल पर वे भी आज़ादी से प्यार और देश से प्रेम कर सकें। कदम से कदम मिला कर चल सकें। सवाल पूछने और सवाल-दर-सवाल करने की ऊर्जा बनाये रख सकें। इप्टा ज़िन्दाबाद और ज़िन्दाबाद रहेगा।  

Thursday, May 24, 2018

रवि तनेजा और कोणार्क

-संगम पांडेय

रवि तनेजा की प्रस्तुति कोणार्क अकेला ऐसा नाटक है जिसे मैंने देखने के पहले ही पढ़ रखा था। कुछ लोग इसे व्यवस्थित ढंग से लिखा गया हिंदी का पहला आधुनिक नाटक भी मानते हैं। हालाँकि कई साल पहले इसके लेखक जगदीशचंद्र माथुर पर हुई एक गोष्ठी में यह बात सामने आई कि इसे खेला बहुत कम गया है। कुल दो-तीन मंचनों का होना ही पता चल पाया। इसकी एक वजह शायद इस नाटक का प्रथमदृष्टया भारीभरकम डिजाइन है। पीरियड नाटकों में पेश आने वाले कास्ट्यूम और सेट डिजाइन के जाहिर झंझटों के अलावा कथानक के तेवरों को समेट पाने के लिहाज से भी कोणार्क के पात्र उतने आसान नहीं हैं। मुझे कॉलेज के सिलेबस में इसे पढ़ने की दो ही बातें याद रहीं—एक तो इसका सम्मोहन, दूसरा यह कि इसमें रंग-निर्देश काफी मात्रा में हैं।
रवि तनेजा ने इसे दिल्ली के एक स्कूल के छात्रों के लिए मंचित किया था, जो कि बड़े मंच पर साधनों की प्रचुरता में खेली गई काफी भव्य प्रस्तुति थी। स्कूल की लड़कियों को उन्होंने कोणार्क-प्रांगण की मूर्तियों की तरह खड़ा किया था। बाद में उन्होंने इसे अपने ग्रुप ‘कॉलिजिएट ड्रामा सोसाइटी’ के लिए भी तैयार किया, जिसे पिछले बुधवार को मैंने तिबारा देखा। कोणार्क एक कलाकार के कमिटमेंट की कहानी है, जिसमें मेहनतकशों के दर्द को भी जोर-शोर से उठाया गया है। इसके अलावा बिछड़ने-मिलने और लॉकेट से अपने सगे को पहचान लेने का परवर्ती सिनेमाई फार्मूला इसमें बहुत पहले ही आजमा लिया गया था। रवि तनेजा कैसे इस संयोग, साजिश और जज्बातों से बनी थीम को मंच पर पूरी उत्तेजना में पेश करते हैं इसे देखकर ही जाना जा सकता है। कोणार्क मंदिर और मूर्तियों की छवियों को उन्होंने काफी बेहतर तरीके से माहौल बनाने में इस्तेमाल किया है।
रवि तनेजा चरणदास सिद्धू के नाटकों को, जिनमें भीषण हकीकतों को पूरी भीषणता के साथ पेश किया गया है, वर्षों से पूरी पाएदारी के साथ खेल रहे हैं। मैंने ‘भजनो’ और ‘बाबा बंतू’ जैसे कड़े यथार्थ वाले उनके निर्देशित कम से कम एक दर्जन नाटक अवश्य ही देखे होंगे। सिद्धू साहब के नाटकों में समाज का अँधेरा इतना घना है कि असह्य हो उठता है। लेकिन रवि तनेजा ने सिद्धू साहब के नाटकों की बार-बार सफल प्रस्तुतियाँ की हैं। उन्होंने उनके कटु-तिक्त पात्रों को एक क्लासिक ऊँचाई के साथ मंच पर बरता है। यह वे कैसे करते हैं यह एक अलग विषय है, पर काफी दिनों तक मुझे ऐसा लगता था कि शायद ये यथार्थवाद ही उनका अपना फ्लेवर है। इस धारणा को वे बीच-बीच में कुछ अन्य प्रस्तुतियों से तोड़ते रहे और आखिर ‘कोणार्क’ के जरिए पूरी तरह धराशायी कर दिया है।...

Wednesday, May 23, 2018

जबलपुर में इप्टा की राष्ट्रीय समिति की बैठक संपन्न

जबलपुर में इप्टा की राष्ट्रीय समिति की बैठक
 इप्टा की स्थापना का यह 75वां वर्ष है। इस अवसर पूरे देश में इप्टा और सम्बद्ध संगठनों द्वारा कार्यक्रमों का आयोजन किया जा रहा है। इसी उपलक्ष्य में पटना में 27 से 31 अक्टूबर 2018 तक इप्टा की 75वीं वर्षगांठ को मनाने के लिए एक भव्य उत्सव आयोजित हो रहा है। इस उत्सव को योजनाबद्ध तरीके से आयोजित करने हेतु और उसके विभिन्न पहलुओं पर चर्चा हेतु भारतीय जननाट्य संघ इप्टा की नेशनल कमेटी की मीटिंग जबलपुर में 19-20 मई को आयोजित की गई।
इस महत्वपूर्ण बैठक हेतु इप्टा के महासचिव राकेश व वेदा राकेश 15 मई को ही जबलपुर आ गये। 17 मई को उड़ीसा से सुशांत महापात्र व कृष्णप्रिया मिश्रा पहुंच गये। 18 मई की सुबह से प्रतिनिधियों का आना शुरू हो गया। आसाम से प्रमोद भुइंया और उनकी पत्नी इला सुबह 5 बजे पंहुच गये। मुम्बई से नवीन नीरज दोपहर को पंहुचे। झारखंड से शैलेन्द्र कुमार, उपेन्द्र और शीतल भी दोपहर को पंहुच गये। दोपहर को वायुयान से केरल से उपाध्यक्ष टी वी बालन और एन बालाचन्द्रन पंहुचे। 18 मई की ही शाम को कर्नाटक के साथी शणमुख स्वामी और रामाकृष्णा पंहुच गये। कोलकाता से साथी अभिताभ चक्रवर्ती भी पंहुच गये। रायगढ़ से अजय व उषा आठले रात तक जबलपुर पंहुच गये। 18 मई की शाम आजमगढ से लोककलाकार बैजनाथ यादव व चंडीगढ से बलकार सिद्धू, कंवलनैन सिंह सेखों और डा स्वराज संधू पंहुचे। 19 की सुबह दो बजे पटना से तनवीर अख्तर, संजय, फिरोज, संजीव कुमार और आसिफ पंहुच गये। 19 की सुबह दिल्ली से मनीष श्रीवास्तव, अमिताभ पांडेय, नूर ज+हीर और मलांचा चक्रवर्ती, जयपुर से इप्टा के अध्यक्ष रणबीर सिंह जी, अशोकनगर से हरिओम राजौरिया, पंजाब से इंदरजीत सिंह, जगदीश सिंह, सरबजीत कौर और प्रो डा अमन भोगल, आगरा से भावना जितेन्द्र रघुवंशी, ज्योत्सना रघुवंशी, दिलीप रघुवंशी, मुक्तिकिंकर, रायबरेली से संतोष डे, छतरपुर से शिवेन्द्र शुक्ला, भिलाई से राजेश श्रीवास्तव, मणिमय मुखर्जी, तेलंगाना से लक्ष्मीनारायण, जेकब, उत्तराखंड से वी के डोभाल, इंदौर से विनीत तिवारी और विजय दलाल, शहडोल से वी के नामदेव, रीवां से डा विद्याप्रकाश और चन्द्रशेखर व रायपुर से निसार अली पंहुचे।
19 की सुबह से ही उत्सव का सा माहौल बन गया था। देश के चारों कोनों से पंहुचे प्रतिनिधि 17 प्रदेशों व केन्द्रशासित राज्यों से इस बैठक में सदस्यगण आए। इसी से इस बैठक के महत्व का पता चलता है। चाय नाश्ते के दौर के बीच में सभी एक दूसरे से हालचाल जानते रहे। सभी की चिंताएं एक सी थीं।
19 मई की सुबह 10.30 बजे राष्ट्रीय समिति की बैठक प्रारंभ हुई। मंच पर इप्टा के अध्यक्ष रणबीर सिंह, उपाध्यक्षगण तनवीर अख्तर, हिमांशु राय, टी वी बालन,अमिताभ चक्रवर्ती और महासचिव राकेश आसीन थे। महासचिव राकेश ने प्रारंभिक उद्बोधन देते हुए देश के सांस्कृतिक हालात पर बातचीत की और बैठक का एजेंडा बताया। इप्टा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और राष्ट्रीय समिति की जबलपुर बैठक के मेजबान हिमांशु राय ने सभी प्रतिनिधियों का स्वागत किया और आशा व्यक्त की कि यह बैठक एक यादगार बैठक होगी। इसमें लिए गए निर्णय हमारे भविष्य की दिशा और कार्यक्रम तय करने में सफल होंगे। इस अवसर पर रायपुर से आए निसार अली ने आम आदमी की पीड़ा को व्यक्त करते हुए छत्तीसगढ़ी में नाचा गम्मत का एक अंश प्रस्तुत किया।
इसके पश्चात् एजेंडे पर बिन्दुवार विचार शुरू हुआ जिसमें बहुत से संगठनात्मक फैसले लिए गए और जिम्मेदारियां सौंपी गई। यह प्रयास किया जा रहा है कि 75 वीं वर्षगांठ के अवसर पर भारत के सांस्कृतिक इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली शख्सियतों पर मोनोग्राफ प्रकाशित किए जाएं। इप्टा के सेन्ट्रल स्क्वैड के सदस्यों, इप्टा के जन्म से लेकर अबतक महत्वपूर्ण योगदान देने वाले कलाकारों, साहित्यकारों को इस तरह स्मरण किया जाए। इप्टा के इतिहास में देश के विभिन्न प्रदेशों और शहरों में किए गये कामों का भी दस्तावेजीकरण किया जाए। हर प्रदेश की इप्टा का इतिहास लिखा जाए।
पटना में होने वाले सम्मेलन की तैयारियों पर विस्तार से चर्चा हुई। उसका एक प्रारंभिक खाका तनवीर अख्तर ने प्रस्तुत किया जिस पर अनेक सुझाव आए। यह भी तय किया गया कि इप्टा से सहमति रखने वाले देश के सभी साहित्यकारों, कलाकारों, चि+त्रकारांे, संगीत व गायन, लोककलाओं के कलाकारों व फिल्म व टी वी से जुड़े कलाकारों, निर्देशकों फोटोग्राफर्स, फिल्मकार सभी को सम्मेलन में ससम्मान आमंत्रित किया जाए ताकि इप्टा का एक उदार और व्यापक स्वरूप बन सके। विभिन्न विधाओं पर केन्द्रित कार्यक्रम व सम्मेलन आयोजित किए जाने की संभावनाओं पर विचार हुआ।
19 मई को विवेचना ने राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया। विषय था - आज का समय और रंगकर्म की चुनौतियां। इस विषय पर इप्टा के महासचिव राकेश (लखनऊ), वरिष्ठ रंगकर्मी तनवीर अख्तर (पटना) व शैलेन्द्र कुमार (पलामू,झारखंड), साहित्यकार व रंगकर्मी नूर ज+हीर (दिल्ली ) और इप्टा के अध्यक्ष श्री रणवीर सिंह (जयपुर) ने अपने विचार व्यक्त किए। इसमें देश भर से आए रंगकर्मियों ने शिरकत की।
19 मई को रात्रि को भोजन के उपरांत देर रात तक अनौपचारिक चर्चाएं चलती रहीं। गायन और नृत्य भी होता रहा। उधर इप्टा के पदाधिकारी दूसरे दिन की कार्यवाही पर बात करते रहे।
20 मई की सुबह 10 बजे से सत्र आरंभ हुआ। इसमें इप्टा के प्रकाशनों, पटना के उत्सव की तैयारियों पर चर्चा हुई। विभिन्न प्रदेशों ने पटना में जाने वाले प्रतिनिधियों की संख्या और प्रस्तुत किए जाने वाले कार्यक्रमों के बारे में बताया।
इप्टा की वेबसाइट, स्क्रिप्ट बैंक, आदि पर विस्तार से चर्चा हुई। इप्टा के पटना उत्सव के प्रचार प्रसार पर काफी बातचीत हुई। इसमें मुम्बई से पधारे नवीन नीरज ने नेशनल कमेटी सदस्यों को वेबसाइट और फिल्म निर्माण व अन्य के बारे में विस्तार से समझाया। इनका उपयोग किस तरह से किया जाए इस पर बात हुई।
दोपहर तीन बजे अध्यक्ष रणवीर सिंह व महासचिव राकेश द्वारा नेशनल कमेटी की बैठक के सफल आयोजन हेतु विवेचना,जबलपुर का आभार व्यक्त किया गया। सभी सदस्यों का जिन्होंने लंबी दूरी तय करके प्रचंड गर्मी में यात्रा कर इस बैठक में शिरकत की उसके लिए आभार व्यक्त किया गया। यह आशा व्यक्त की गई कि भारतीय जननाट्य संघ ( इप्टा ) भविष्य में खूब विस्तारित और प्रसारित होगा। पटना का उत्सव बेहद सफल होगा। सभी सदस्य इसकी तैयारियों में जुट जाएं।
अंत में इंदौर सम्मेलन के पश्चात् दिवंगत दुनिया और देश की महत्वपूर्ण हस्तियों को श्रद्धांजलि अर्पित कर दो मिनट का मौन रखा गया और भारतीय जननाट्य संघ की नेशनल कमेटी की 19 व 20 मई 2018 को जबलपुर में आयोजित बैठक समाप्त हुई।
विवेचना जबलपुर के लिए यह गौरव की बात थी कि जबलपुर को इप्टा की नेशनल कमेटी मीटिंग के लिए चुना गया। विवेचना की ओर से इसे सुव्यवस्थित तरीके से आयोजित किया गया। रहने खाने व बैठक की व्यवस्थाएं पूर्णतः व्यवस्थित रहीं। सभी मेहमानों ने जबलपुर में बिताये समय का खूब आनंद लिया। अच्छी चर्चाएं हुईं। जबलपुर की इस बैठक के आयोजन में हिमांशु राय, वसंत काशीकर, बदरीश पांडे, साहिल सेठी, रितिक गौतम और अजय धाबर्डे ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

नए संदर्भों के साथ 'हवालात'

इप्टा लखनऊ ने 23 मई को "जन एकता जन अधिकार आंदोलन "द्वारा आयोजित किसान,मजदूर एवं महिलाओं की रैली में 22 कैसरबाग में अपने नाटक "हवालात"का प्रदर्शन करते हुए प्लैटिनम जुबली कार्यक्रम श्रृंखला की शुरुआत की। प्रख्यात कवि एवं नाटककार सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के इस नाटक को आज के सन्दर्भों से जोड़ा गया है। नाटक में भगवा सिंह,धर्मवीर एवं कसाब अली नामक तीन भटके हुए नवयुवक हैं जो गोरक्षा एवं हिन्दू तथा मुस्लिम कट्टरता के आधार पर इसलिए निर्दोष लोगों की हत्या करते हैं ताकि उन्हें प्रसिद्ध मिल सके इसलिए वोह एक महिला पुलिस दरोगा से हवालात ले जाने की गुहार लगाते हैं।बहुत सारी मनोरंजक एवं नाटकीय घटनाओं के बीच यह युवक अपने उद्देश्य में सफल नहीं होते हैं। नाटक में दरोगा के रूप में रजनी, तथा तीन नवयुवकों की भूमिकाये अनुज,शेखर तथा बबलू खान ने निभाईं हैं।नाटक का निर्देशन युवा रंगकर्मी इच्छाशंकर ने किया है।इस नाटक का प्रदर्शन 24 मई को शाम 5 बजे केनरा बैंक सर्किल ऑफिस गोमतीनगर तथा 25 मई इप्टा स्थापना दिवस के अवसर पर शाम 6.30बजे इप्टा कार्यालय 22 केसरबाग में होगा साथ ही युवा संगीतकार एवं गायक कमलाकांत के निर्देशन में जनगीतों की प्रस्तुति भी होगी।

Monday, May 21, 2018

आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक

-हनुमन्त किशोर

विवेचना जबलपुर द्वारा दिनांक १९ /५/२०१८ को गोपाल सदन ,दमोह नाका जबलपुर में 'आज का समय और रंगकर्म की चुनौतियां ' शीर्षक से राष्टीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया |

जिसकी अध्यक्षता भारतीय जन नाट्य  संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष रणवीर सिंह ने की |विषय प्रवर्तन संस्कृति कर्मी नूर ज़हीर ने किया | उन्होंने अपमी बात प्रतीक रूप में एक  कथा के  जरिये प्रस्तुत की | कथा जंगल के राजा शेर की है जिसकी शेरनी की सोने की अंगूठी उसके बेड रूम से चोरी हो जाती है | शेर चोर का पता लगाने के लिए जंगल के जीव जंतुओं को अपने दरबार में तलब करता है | हाथी-बन्दर-भालू -चीता सभी बड़े जानवर डरे सहमे से शेर के दरबार की तरफ चले जा रहे होते हैं कि पता नहीं शेर उनकी क्या दुर्गत करेगा .....वहीँ एक चूहा सबसे आगे नाचता गाता ..अलमस्त चला जा रहा होता ..किसी ने चूहे से पूछा "तुम्हे दूसरे जीवों की तरह डर नहीं लग रहा?'

चूहे ने जवाब दिया ...कि डर तो बाद की बात है ..पहले तो ख़ुशी इस बात की है शेर ने हमे इस काबिल तो समझा कि हम उसके बेड रूम में घुसकर उसकी शेरनी की अंगूठी चुरा सकते हैं .." नूर ज़हीर ने कहा कि आज का रंगकर्म पूरे परिदृश्य में भले लघुतम इकाई दिखाई दे रहा हो लेकिन यदि वह अपनी भूमिका सही ढंग से निभाता है तो वह कितना भी छोटा हो सत्ता के आगे मेटर करेगा ...और यही रंगकर्म की शक्ति और उसका औचित्य  है |

इप्टा के राष्टीय महा सचिव साथी राकेश ने चार्ल्स डिकेंस की 'ए  टेल  आफ टू सिटीज ' के रूपक के  माध्यम से समय की विडम्बना को परिभाषित किया जो एक साथ बुद्धिमत्ता और मूर्खता ..क्रान्ति और भ्रान्ति.. संघर्ष और सौदे  का चरम है | ब्रेख्त के गेलेलियो और शहीद भगत सिंह के ट्रायल  के हवाले से उन्होंने वैज्ञानिक और क्रांतिकारी चेतना के आत्म संघर्ष और बलिदान को व्याख्यायित करते हुये श् अपनी संस्कृतिक  यात्रा के निष्कर्ष साझा  किये |

शैलेन्द्र कुमार  ने  संस्कृति की स्वावलंबन की जगह संस्कृति  के अंतर अवलंबन को यथार्थ निरुपित  किया |शैलेन्द्र कुमार ने ग़ालिब के शेर ' आह को  चाहिए एक उम्र असर होने तक ..' को भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम १८५७ के परिप्रेक्ष्य में रखते हुए अपना वक्तव्य शुरू किया और फैज़ की  शायरी के हवाले से अपनी परिणति तक पहुंचाया |

पटना इप्टा के साथी तनवीर अख्तर ने रंगकर्मी को जनता की सुनने और जनता से सीखने के सूत्र को स्पष्ट करते हुए उस पर अमल की फौरी ज़रूरत पर बल दिया |

अध्यक्षीय उद्बोधन में राष्ट्रीय अध्यक्ष साथी रणवीर सिंह ने रंगकर्म की चुनोती को नाटककार की अनुपस्थिति से रेखांकित करते हुए नाटककार की वापसी की जरूरत बताई |
जयपुर के और राष्ट्रीय रंगकर्म को  विश्लेषित करते हुए रणवीर सिंह ने सांस्कृतिक नीति के विचलन को उद्घाटित किया |

संचालन विवेचना के हिमाशुं राय और आभार प्रदर्शन विवेचना के निर्देशक वसंत काशीकर ने किया |

हमारे समय की व्याख्या और समय के साथ रंगकर्म के समीकरण को समझने की दिशा में  यह गोष्ठी उपयोगी रही और लम्बे समय तक याद की जाती रहेगी .

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Tuesday, May 15, 2018

अस्‍सीवें साल में गिरीश कर्नाड


- रामचंद्र गुहा

अपनी पीढ़ी के ज्यादातर भारतीयों की तरह गिरीश कार्नाड को मैंने भी पहली बार श्याम बेनेगल की किसी फिल्म में ही देखा था। सामने देखना अलग ही अनुभव था, जब उन्हें दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में अकेले बैठ भोजन करते देखा। यह 1990 की बात है। सब उन्हें देख रहे थे, पहचान रहे थे, फिर भी कोई उन्हें डिस्टर्ब नहीं कर रहा था। यह शायद उनके व्यक्तित्व का असर था।.
1995 में पत्नी सुजाता के साथ मैं बेंगलुरु आ गया। गिरीश कार्नाड भी पत्नी सरस के साथ यहीं रहते थे। एक कॉमन दोस्त ने परिचय कराया, तो मिलने-जुलने का सिलसिला चल पड़ा। हम ज्यादातर एक-दूसरे के घर पर ही मिलते। कार्नाड अपने शुरुआती क्लासिकल नाटकों से ही मिथकों और इतिहास का नया रूपाकार गढ़ते हुए रंगमंच में अभिनय अनुकूलन की मिसाल बन चुके थे। उन्होंने फिल्में कम कर दी थीं और रचनात्मकता के नए दौर में थे। लंदन के नेहरू सेंटर का निदेशक रहते हुए विश्व रंगमंच के श्रेष्ठतम से रूबरू हो रहे थे।
इसी दौरान हमने उनके दो चर्चित नाटक फ्लावर्स व ब्रोकेन इमेज देखे। ब्रोकेन इमेज दो ऐसी बहनों की प्रतिद्वंद्विता की कहानी थी, जिनमें से एक अंग्रेजी और दूसरी कन्नड़ लेखिका थी। नाटक ने साहित्य की दुनिया में एक नई बहस छेड़ दी, जिसका दूसरा सिरा चर्चित लेखक यूआर अनंतमूर्ति तक जाता था। अनंतमूर्ति भाषा को लेकर बहुत सतर्क और सक्रिय थे। उन्हें लगता था कि भाषाई लेखकों को उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता या अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीयों की अपेक्षा उन्हें कम भुगतान मिलता है। .
अनंतमूर्ति के साथ कार्नाड की तमाम असहमतियां थीं। एक बड़ा कारण शायद इनमें से एक का अतिशय भाषा आग्रह रहा हो, जबकि दूसरे के लिए यह लोकप्रियता का मामला था। अनंतमूर्ति की प्राय: राजनेताओं से करीबी और उनकी कथित राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं भी कार्नाड को अखरती थीं, जबकि उनकी महत्वाकांक्षा साहित्य और सौंदर्यशास्त्र था। .
मुझे लगता है कि अनंतमूर्ति के भीतर कन्नड़ के प्रति एक खास तरह की तड़प थी। कारवां पत्रिका के लिए अनंतमूर्ति के साथ साहित्य, राजनीति व कुछ अन्य मुद्दों पर अपना वह संवाद याद आ रहा है, जिसका आयोजन एक बड़े होटल में था। सवाल-जवाब का दौर शुरू हुआ। एकदम पीछे की कुरसियों से एक हाथ उठा। मैंने देखा कि यह तो कार्नाड हैं, जो न जाने कब आकर सबसे पीछे बैठ गए थे। लेकिन बुजुर्ग अनंतमूर्ति इतनी दूरी से उन्हें न पहचान सके। कार्नाड ने एक बहुत सधा हुआ सवाल किया (शुक्र है कि इसमें आक्रामकता नहीं थी), अनंतमूति मेरी ओर घूमे और गर्मजोश-आश्वस्ति के अंदाज में बोले - ‘गिरीश बैंडिडेयर!'(तो गिरीश भी आ गया)।.
अनंतमूर्ति की तुलना में कार्नाड प्राय: जुलूसों, नारेबाजी, नेताओं की सार्वजनिक निंदा-तारीफ या मांगपत्रों पर हस्ताक्षर करने से बचते हैं, लेकिन तमाम समकालीनों की अपेक्षा वह कहीं ज्यादा बहुजनवादी और सहिष्णु भारत के मुखर समर्थक हैं। अनंतमूर्ति की तरह उन्हें भी धार्मिक कट्टरता से नफरत है। जून 2017 में उत्तर भारत में अल्पसंख्यकों को मार देने की कुछ घटनाओं के बाद देश के तमाम हिस्सों की तरह बेंगलुरु में भी इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के छात्रों ने टाउन हॉल की सीढ़ियों पर ‘नॉट इन माई नेम' जैसा प्रतिरोध आयोजित किया। भारी भीड़ वाले इस इलाके में कम से कम आधा किलोमीटर पहले गाड़ी पार्क करके ही विरोध मार्च तक पहुंचा जा सकता था। .
मेरे लिए तो ऐसे विरोध प्रदर्शन में शामिल होना सामान्य बात थी। लेकिन कार्नाड का घर काफी दूर है। शाम के वक्त कम से कम डेढ़ घंटे की ड्राइव तो करनी ही पड़ेगी। वह अस्सी के करीब पहुंच चुके थे। अस्वस्थ भी थे और हर वक्त एक छोटा सिलेंडर साथ लेकर चलना पड़ता था, जिससे जुड़ी पाइप नाक के रास्ते फेफड़ों तक ऑक्सीजन पहुंचाती थी। .
कोई सोच भी नहीं सकता था कि गिरीश कार्नाड इन हालत में वहां आएंगे। मैंने भी नहीं सोचा था। हम लोग खामोशी से खड़े थे कि अचानक कोई मेरे बाईं ओर आकर खड़ा हो गया। यह गिरीश कार्नाड थे। कार से उतरने के बाद उन्हें कम से कम दस मिनट तो पैदल चलना ही पड़ा होगा। वह भी इस हालत में। वह आए, खड़े हो गए और बगल वाले सज्जन का प्लेकार्ड हाथ में ले लिया। उन्हें अपने बीच देख पहली पंक्ति में खड़े कुछ मुस्लिम खासे उत्साहित व आश्वस्त दिखे- ‘तो, गिरीश सर भी आ गए'। उनके लिए तो वहां मौजूद हर हिंदू, मुसलमान या ईसाई का महत्व था, लेकिन इस शख्स का वहां होना उनके लिए बहुत खास बन गया। .
इस वर्ष की शुरुआत में मैं गिरीश के गृहनगर धारवाड़ गया। उनके प्रकाशक मनोहर ग्रंथ माला ने एक साहित्य उत्सव का आयोजन किया था। उत्सव के एक दिन पहले कार्नाड मुझे सुभाष रोड के एक पुराने मकान की दूसरी मंजिल पर अपने प्रकाशक के दफ्तर ले गए। यही वह जगह थी, जहां 50 से भी ज्यादा साल पहले वह अपने पहले, लेकिन बाद में बहुचर्चित नाटक ययाति की पांडुलिपि देने आए थे। तब से अब तक कार्नाड के सारे नाटक और उनकी बायोग्राफी मनोहर ग्रंथमाला ने ही प्रकाशित किए हैं। .
गिरीश कार्नाड न अपनी राजनीति का प्रदर्शन करते हैं, न देशभक्ति का। फिर भी वह अपने अंदाज में न सिर्फ गृहनगर के लिए समर्पित हैं, बल्कि देश-दुनिया पर भी पैनी नजर रखते हैं। मुझे तो दूसरा कोई नहीं दिखता, जिसे उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक के कला माध्यमों, मसलन- संगीत, साहित्य, नृत्य, लोक और दृश्य कलाओं के साथ ही अपनी गहन क्लासिकी परंपरा की भी इतनी पैनी समझ हो। वह कम से कम छह भारतीय भाषाओं में लिख, पढ़ और बोल सकते हैं।.
अगर उन्होंने अब तक ऐसी कोई किताब नहीं लिखी, तो इसका कारण उनके लिए मौलिक और रचनात्मक लेखन का ज्यादा महत्वपूर्ण होना है। उन्होंने कन्नड़ में अपनी आत्मकथा लिखी और प्रकाशित कराई, लेकिन अंग्रेजी अनुवाद से मना कर दिया। शायद वह नहीं चाहते कि मेरे जैसे तमाम लोग इसे पढ़ें, या शायद यह कि उनके मन में अब भी तमाम मौलिक विषय गूंज रहे होंगे, जिन्हें वह पहले पढ़ाना चाहते हों। .
इसी 19 मई को वह अपना अस्सीवां जन्मदिन मनाएंगे। हम प्रार्थना कर सकते हैं कि गिरीश कार्नाड जैसे महान इंसान दिमाग और शरीर से इतने स्वस्थ रहें कि हमारे सामने वे सारे नाटक आ सकें, जिनकी विषय-वस्तु उनके दिमाग में घूम रही है, जिन्हें वह लिखना और हम सब देखना चाहते हैं।
साभार -
https://www.livehindustan.com/…/story-ramchandra-guha-artic…

Wednesday, May 2, 2018

अभिनय की बारीकियां सिखाता हुआ अभिनेता

आज हिंदुस्तान के हर शहर और कस्बे में नाट्य संस्थाए और रंगकर्मी मौजूद है | इन रंगमंच के अभिनेताओं में उत्साह तो अपने चरम पर है पर केवल उत्साह ही किसी को दक्ष अभिनेता नहीं बना देता और दक्षता प्रशिक्षण से आती है | अभिनेता का प्रशिक्षित होना इन दिनों के रंगमंच के लिए दिनो दिन आवश्यक होता जा रहा है | हर अभिनेता प्रशिक्षण संस्थान तक नहीं पहुच पाता है पर पहुचना चाहता है , प्रशिक्षित होना चाहता है पर उसके पास साधन नहीं है | ऐसे अभिनेताओं को निराश होने की कतई ज़रूरत नहीं है , घर बैठे वे अभिनय की बारिकिया सीख सकते है , अभिनेता चाहे रंगमंच का हो या फिल्म का आपका यह शिक्षक आपको इतना संवार देगा कि इस विधा में आप एक निपुण अभिनेता बन कर उभर सकते है | आप के रंग गुरु का नाम है " बलराज साहनी " |
मै यहाँ बात उनके जन्म स्थान , उनके संघर्ष , उनके लेखन की नहीं करूंगा जबकि बलराज जी हर विधा में निपुण थे , मै यहाँ उनके अभिनय की चर्चा करूँगा | एक अभिनेता के अभिनय की समीक्षा | जब बलराज साहनी जी अभिनय कर रहे थे तब उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि वे अभिनय सिखा भी रहे है | मैंने उन्हें मंच पर अभिनय करते नहीं देखा लेकिन उनकी बहुत सी फिल्मे देखी है जिसमे उनके निराले अंदाज़ चौकाते है और दिमाग में यह बात उभरती है कि यह आदमी तो अपने आप में अभिनय का प्रशिक्षण केंद्र है | इसे अभिनय करते देख अभिनय की बारिकियाँ सीखी जा सकती है |
अगर हम बलराज जी की फिल्म "वक्त" देखे तो उस एक ही फिल्म में बलराज साहनी जी के अभिनय में कई शेड नज़र आते है और एक ही बलराज साहनी एक ही फिल्म में तीन अलग अलग अभिनेता दिखाई देते  है | एक अतिउत्साह से लबरेज़ व्यापारी जो सफलता के मद में चूर है | इस फिल्म में बलराज जी ने आँखों से अभिनय किया था , उनकी आँखों से मानो कामयाबी टपक रही हो , उनकी आँखों में सफलता का घमंड आसानी से पढ़ा जा सकता था , फिर अगले ही क्षण जब वे दोस्तों की फरमाइश पर प्रेम गीत "ए मेरी ज़ोहरा जबी –तुझे मालूम नहीं " गाते है तो एक प्रेम में डूबे हुए आशिक नज़र आते है , यहाँ बलराज जी की आँखों में शोखियाँ और मस्ती देखी जा सकती है , एक ऐसा दिलफेक आशिक बन जाते है जिसे दीवाना मस्ताना कहा जाता है | उसके बाद जब उनका सब कुछ लुट जाता है तब उनकी आँखों में बेबसी , अकेलापन और बर्बादी की ऐसी दास्ताँ नज़र आती है कि दर्शक रो पड़ता है | बी.आर.चोपड़ा की इस फिल्म में बलराज जी ने यह साबित किया था कि अभिनय में आँखों का क्या योगदान होता है |
फिल्म नील कमल में बलराज साहनी जी ने वहीदा रहमान के पिता का रोल किया था जिसकी बेटी अपने ससुराल में परेशान है | बेटी का दुःख बाप के चेहरे पर बहुत ही कलात्मकता के साथ उन्होंने उतारा था | बलराज जी की हर फिल्म में अभिनय की शैली विकसित होती नज़र आती है | अगर हम एक छात्र की तरह उसे समझने का प्रयास करे तो उनके अन्दर ऐसी ऐसी बारीकियां नज़र आएगी जिन्हें एक नया अभिनेता आत्मसात कर ले तो उसे अपनी भूमिका समझने और उसे निभाने में बहुत हद तक मार्ग दर्शन मिल सकता है | बलराज साहनी के अभिनय को देखते समय अगर हम कुछ नोट्स तैयार करे तो वह इस प्रकार हो सकते है –
बलराज जी का अंदाज़ हमे यह बताता है कि अभिनय के दरमियान हमारा शरीर पूरी तरह नियंत्रित होना चाहिए , भाषा के लहजे में शालीनता का पुट होना बहुत आवश्यक है | उच्चारण में खोट तो स्वीकार हो ही नहीं सकती | बलराज जी की शाला में एक अभिनेता सबसे पहले यह समझता है कि उसे संवाद बोलने की ज़रा भी जल्दबाज़ी नहीं करनी है | पहले शरीर को तैयार करो , संवाद पहले तुम्हारी "बाड़ी लेंग्वेज" से कहे जायेगे , फिर तुम्हारी आँखे दर्शको से बात करेगी , फिर अपने सम्पूर्ण आकार को पात्र के प्रकार में ढाल लेने के बाद बारी आती है संवाद बोलने की |
संवाद बोलने के लिये बलराज जी का ध्वनी और प्रवाह कमाल का था | बात ऊँची आवाज़ में कहना तो कितनी ऊँची आवाज़ में कहना , धीमा बोलना है तो किस हद तक धीमा बोलना है ? हंसना है तो अधिक से अधिक कितना हंसना है , रोना है तो कम से कम कितना रोना है ? बलराज साहनी ने किसी भी फिल्म में बलराज साहनी की तरह नहीं बोला बल्कि अपनी हर फिल्म में उन्होंने उस पात्र की तरह कहा है जिसे वे परदे पर जी रहे थे | अगर मुस्कान से काम चल जाये तो खिलखिलाकर क्यों हसना और सिसकने भर से दर्द स्पष्ट हो जाये तो दहाड़े मार कर क्यों रोना ? यह फार्मूला था बलराज जी के अभिनय का जिसे हर अभिनेता को आत्मसात करना चाहिए | बलराज जी को अभिनय करते देखो तो यह भी महसूस होता है कि यह अभिनेता कभी भी पूरी तरह निर्देशक पर निर्भर नहीं रहा होगा | हर अभिनेता को अपनी तैयारी स्वयं करनी चाहिए जिस पर निर्देशक हल्की पालिश भर करेगा तभी अभिनेता खिल पाता है |
फिल्म धूल का फूल में बलराज जी का एक छोटे बच्चे के प्रति स्नेह ही फिल्म का कथानक था | जब बलराज जी ने कथावस्तु सुनी होगी तो उन्होंने ज़रूर पहले स्वयं को उस चरित्र को जीने के लिए मानसिक रूप से तैयार किया होगा | इस फिल्म में अभिनय का नया ही अंदाज़ सामने आया था और वह था – कुछ नहीं बोल कर सब कुछ बोल देना , कुछ नहीं देख कर सब कुछ देख लेना , कुछ नहीं जान कर सब कुछ जान लेना , कुछ नहीं पाकर सब कुछ पा लेना और कुछ नहीं खो कर सब कुछ खो देना | इस फिल्म में उन्हें देख कर यह भी सीखा जा सकता है कि कैसे पात्र के अनुसार अपनी चाल निर्धारित करना |
बलराज साहनी ने अनेको बार सिर्फ अपने चलने के अंदाज़ से बदलाव लाया है | धूल का फूल और इज्जत में एक रईस आदमी के किरदार में सिर्फ उनकी चाल में ही एक भव्यता नज़र आती थी लेकिन जब हम उनकी फिल्म दो बीघा ज़मीन देखते है ,जिसमे वो गाँव छोड़ कर शहर जा रहे है और बैगराउंड में गीत " कोई निशानी छोड़ जा , कोई कहानी बोल जा , मौसम बीता जाये – मौसम बीता जाये " सुनाई देता है वह पूरा दृश्य बलराज जी के चलने के अंदाज़ पर ही फिल्माया गया था | फिल्म वक्त के लाला की भूमिका में शरीर में जो अकड़ नज़र आती है , वही शरीर दो बीघा ज़मीन में बीमार होने पर कैसा निढाल हो जाता है | अभिनय का यह अंतर फिल्म "दो रास्ते" और "हकीकत" में भी देखा और समझा जा सकता है |

हम जब बलराज जी की पूरी फिल्म देख चुके हो और फिर दुबारा उस चरित्र और अभिनेता के बारे में विचार करे तो सबसे पहले ध्यान जाता है अभिनय करते समय उनका संयम | यह अभिनेता अपने को कितना संभाल कर प्रस्तुत करता था , कितना केल्कुलेट अंदाज़ होता था उनका | उनके संवादों की अदायगी में अनुशासन को समझा जा सकता है | यह संयम और अनुशासन यू ही नहीं आ जाता है , इसे बाकायदा अभ्यास के द्वारा अपनी आदत में पिरोया जाता है | इस तरह का संयम और अनुशासन एक अभिनेता के लिए गंभीरता पूर्वक सीखने का हुनर है |
बलराज साहनी जी का ज़िक्र हो और ज़िक्र न हो फिल्म गर्म हवा का तो फिर वह ज़िक्र , ज़िक्र हरगिज़ माना न जाएगा | इस फिल्म की चर्चा के बिना यह चर्चा मुकम्मल हो ही नहीं सकती | सथ्यू जी की यह बेमिसाल फिल्म में अभिनेताओं में ज़बरदस्त टक्कर थी | ए.के.हंगल, जलाल आगा ,युनुस परवेज़ ,फारूक शेख ने इस फिल्म में अपना सर्वश्रेष्ठ किया था | कैफ़ी आज़मी साहब ने बेहतरीन संवाद रचे थे और दी थी एक यादगार सूफी रचना "मौला सलीम चिश्ती – आका सलीम चिश्ती " | बेहद संवेदनशील विषय पर बनी यह फिल्म में बेहतरीन फ़ोटोग्राफ़ी के साथ एक और अहम् हिस्सा था बलराज साहनी का | इस फिल्म में तो उन्होंने बोला भी बहुत कम था , चला भी ज़्यादा नहीं था , उन्हें पूरा का पूरा दिखाया भी कम ही गया था | पर्दे पर बस एक चेहरा उभरता और वह तीन चार अल्फाज़ बोल हट जाता | हट जाता लेकिन देखने वालो के ज़हन में रह जाता , वहाँ से हटाये न हटता | वह चेहरा जिसमे उम्मीदों का दरिया था , निराशा का सूखा था , सच्चाई का भरोसा था , अपनों से खाया हुआ धोखा था | सथ्यू जी ने जो  फिल्म बनाई थी बलराज साहनी के अभिनय की ऊँचाइयों ने उसे क्लासिकल में तब्दील कर दिया था | फिल्म और थियेटर में अभिनय की शुरुआत करने वालो को बलराज साहनी की यह फिल्म जो यू ट्यूब पर उपलब्ध है उसे बार बार हज़ार बार देखनी चाहिए , यह अभिनेता आपका मार्ग दर्शक बन जाएगा और संवार देगा आपका भविष्य |

अखतर अली
आमानाका ,कुकुर बेडा
रायपुर ( छत्तीसगढ़ )
मो.न. 9826126781
ई मेल – akakhterspritwala@yahoo.co.in