Friday, August 4, 2017

ग़ज़ल दो संस्कृतियों का मिलन है

- हरेराम समीप 
'विकल्प' साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था, फरीदाबाद द्वारा महाकवि तुलसीदास और महान कथाकार प्रेमचन्द जयंती के अवसर पर पुस्तक लोकार्पण, चर्चा का आयोजन 'आर्य समाज सेक्टर 7 के सभागार में किया गया, जिसकी अध्यक्षता अलवर से पधारे हिन्दी के प्रख्यात आलोचक एवं कवि डाक्टर जीवन सिंह 'मानवी' ने की. श्री हरेराम समीप की दो पुस्तक- 'समकालीन हिन्दी ग़ज़लकार एक अध्ययन' तथा 'आँखें खोलो पार्थ' दोहा संग्रह के लोकार्पण के उपरांत अलवर से पधारे गजलकार व समीक्षक श्री विनय मिश्र ने अपने बीज वक्तव्य की शुरुआत दोहा संग्रह के शीर्षक दोहे की विस्तृत व्याख्या से की, दोहा था-

कुरुक्षेत्र है ये नया फिर है नया यथार्थ 
शत्रु खड़ा है सामने आँखें खोलो पार्थ 

इसके बाद पिछले चालीस वर्षों में हुए हिन्दी ग़ज़ल के विकास और हिंदी ग़ज़ल आलोचना के महत्वपूर्ण बिन्दुओं और उपलब्धियों का उल्लेख किया जिसमें अस्सी के दशक में प्रकाशित 'शब्द कारखाना पत्रिका' के ग़ज़ल विशेषाक में नचिकेता जी के ४२ पृष्ठीय आलेख को ऐतिहासिक और एक मील का पत्थर बताया, जिसकी टिप्पणियाँ आज भी प्रासंगिक हैं. ग़ज़ल आलोचना की महत्वपूर्ण पुस्तकों में डा शिवशंकर मिश्र की एक प्रमाणिक पुस्तक 'हिंदी ग़ज़ल की भूमिका' के महत्व की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि उससे अच्छी किताब अभी दूसरी नहीं है. उन्होंने श्री ज्ञानप्रकाश विवेक की दो आलोचना पुस्तकों- हिन्दी ग़ज़ल की विकास यात्रा और हिन्दी ग़ज़ल-दुष्यंत के बाद और डॉ. सायमा बानो के शोधग्रन्थ 'हिन्दी ग़ज़ल पहचान और परख' के योगदान का भी उल्लेख किया . श्री नचिकेता के सम्पादन में आये ग़ज़ल संग्रह 'अष्टछाप' तथा पिछले वर्ष आए ''अलाव' पत्रिका के समकालीन ग़ज़ल आलोचना विशेषांक का भी ज़िक्र किया और लोकार्पित पुस्तक 'समकालीन हिन्दी ग़ज़लकार एक अध्ययन' के महत्व पर बात की. उन्होंने कहा कि इस ग्रन्थ में हिन्दी के 25 चर्चित ग़ज़लकारों की रचनाधर्मिता पर विस्तार से अध्ययन किया गया है साथ ही यह सलाह भी दी कि इन ग़ज़लों की समीक्षा के साथ यदि इन्हीं ग़ज़लकारों की दस दस ग़ज़लों का संग्रह भी आए तो एक समग्र जानकारी पाठकों के सामने उपलब्ध हो जाएगी .

कार्यक्रम का संचालन करते हुए कोटा से पधारे प्रसिध्द संस्कृतिकर्मी एवं गीतकार श्री महेंद्र नेह ने हिन्दी ग़ज़ल की जनधर्मिता और वर्तमान परिदृश्य पर विस्तार से चर्चा करते हुए श्री हरेराम समीप के जीवन और लेखन की जानकारी दी और उनकी कुछ चर्चित रचनाओं से उपस्थित श्रोताओं को परिचित कराया और उनके रचनात्मक सरोकारों को उजागर किया. गाज़ियाबाद से पधारे श्री अवधेश कुमार सिंह ने लोकार्पित दोहा संग्रह 'आँखें खोलो पार्थ' पर अपनी समीक्षा पढ़ी और डाक्टर भावना शुक्ल ने समीप के रचनाकर्म पर अपनी बात रखी.

वरिष्ठ और चर्चित कवि श्री लक्ष्मीशंकर बाजपेयी ने दोहा संग्रह के अनेक दोहे पढ़ते हुए कहा कि इस संग्रह में जीवन से जुड़े अनेक विषय हैं, समीप की नजर बार बार पिछड़े और दुखीजनों की तरफ जाती है -

बचपन में जिसकी कलम वक्त ले गया छीन
बाल पेन वह बेचता बस में 'दस के तीन'

इसके बाद श्री बाजपेयी जी ने समकालीन ग़ज़ल परिदृश्य पर बहुत सार्थक विचार रखे. दुष्यंत के समय से अब तक हिंदी ग़ज़लकारों के सामने आती रहीं चुनौतियों पर स्वयं अपने अनुभव बताते हुए उन्होंने कहा कि हिंदी ग़ज़लें कहते हुए तब उन्हें उर्दू शायरों और हिन्दी कवियों की भीषण उपेक्षा मिलती थी, उनसे बेतुके सवाल किये जाते थे. इसके बावजूद हिंदी ग़ज़ल ने इतने कम समय में जो अपनी पुख्ता जमीन तैयार की है वैसी दुनिया के साहित्य की किसी विधा ने नहीं बनाई है . दुष्यंत की ग़ज़लों के प्रभाव से अब उर्दू ग़ज़ल का भी चेहरा बदल रहा है . ग़ज़ल की भाषा का भी कोई मसला नहीं रह गया है . उन्होंने कहा कि अब हिन्दी ग़ज़ल का एक ही लक्ष्य है और वह है हिन्दी ग़ज़ल की साहित्यिक मान्यता पाना. उन्होंने सवाल किया कि जब पंजाबी, गुजराती, मराठी और अन्य भाषाओँ में लिखी जाने वाली ग़ज़ल को भरपूर मान्यता मिल रही है तब हिंदी में ही उसकी उपेक्षा क्यों हो रही है, यह विचारणीय है.

समीप के दोहा संग्रह पर बात करते हुए जयपुर से पधारे प्रखर आलोचक श्री शैलेन्द्र चौहान ने कहा कि वही रचनाकार समाज में बढ़ती विरूपता का पर्दाफाश कर सकता है जिसके सरोकार समाज के वंचित, शोषित, दलित वर्ग के प्रति हैं वरना लेखन एक पाखंड से कम नहीं है. समीप अपनी रचनाओं में लगातार उन पर बात करने वाले रचनाकार हैं, इस दोहा संग्रह में भी उन्होंने संघर्षरत आमजन की बात की है और उसकी यूँ उम्मीद बंधाये रखी है-

उजड़ जाए तो गम नहीं उसको नहीं मलाल
चिड़िया अपना घोंसला बुन लेती हर साल

वरिष्ठ गजलकार व सम्पादक श्री रामकुमार कृषक ने तुलसी जयंती पर स्मरण करते हुए उनके रचना संघर्ष का उल्लेख करते हुए कहा कि जैसे कबीर ने समाज में प्रत्यक्ष संघर्ष करते हुए रचनाकर्म किया उसी तरह तुलसी ने लोकधर्मिता को अपने महाकाव्य के माध्यम से पुनर्स्थापित व पुनर्संस्कारित किया ठीक उसी तरह प्रेमचंद ने भी अपने समय के समाज का चित्रण करते हुए हमें सन्देश दिया कि रचनाकार में प्रतिरोध की चेतना मौजूद रहना बहुत जरुरी है और आज यह परम्परा कवि श्री हरेराम समीप तक जाती है जो अपनी रचनाओं में समय से प्रतिरोध करते हैं . हिन्दी ग़जल में उपस्थित इस प्रतिरोध के सन्दर्भ में वे दुष्यंत के एक मशहूर शेर का हवाला देते हैं - 

"तू किसी रेल सी गुजरती है ,
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ" 

यह हवाला देते हुए वे कहते हैं कि लोग इस शेर को प्रेम के संदर्भ में देखते हैं जबकि यह कोई स्त्री या नारी नहीं है बल्कि दुष्यंत के रचनाकाल को देखें तो यह रेल वास्तव में तत्कालीन व्यवस्था है जो आम इंसान को जिसके संकट का अहसास करा रही है, पुल सा थरथराना यही है. इस तरह हिंदी ग़जल आज प्रतिपक्ष की भूमिका में अपने समय के सभी खतरे उठाने के लिए तैयार है. अर्थात हम कह सकते हैं कि भगतसिंह हिंदी ग़ज़ल की चेतना में मौजूद है. विकास के बीच गाँवों का जो क्षय हुआ है वहाँ बच्चे शहर आकर यहां झुग्गियों में रह रहे हैं, स्त्रियों पर अत्याचार , बाजारीकरण आदि ग़ज़ल के विषय बने हैं. राष्ट्रवाद का जो बाजारीकरण हुआ है वह भी ग़जल का विषय है. इस विडम्बनापूर्ण समय में हिन्दी ग़जल की जो आलोचना यात्रा शुरू हुयी है इसमें समीप शामिल हैं इसके लिए वह बधाई के पात्र हैं .

कृषक जी के वक्तव्य के बीच सभा में उपस्थित कुछ विद्वानों ने प्रश्न उठाये कि साहित्यिक चर्चा में राजनीतिक विषय नहीं उठाने चाहिए थे, तभी अपने अध्यक्षीय भाषण में अलवर से पधारे आलोचक डॉ. जीवन सिंह ने इसी विषय पर केन्द्रित जो प्रभावपूर्ण और धाराप्रवाह वक्तव्य दिया कि सौ से अधिक उपस्थित श्रोता मंत्रमुग्ध हो कर तालियों से उनका समर्थन करने लगे. डॉ. जीवन सिंह ने कहा कि साहित्य जीवन की व्याख्या करता है और राजनीति उससे कभी अलग नहीं रही है. यह केवल नजरिये की बात है कि आप चीज़ों को किस तरह देखते हैं. उन्होंने तुलसीदास के एक दोहे से कहा कि जिस तरह के लोगों के बीच वह उसी तरह समझ लिया जाता है . साहित्य और राजनीति के अन्तर्सम्बन्धों पर उद्धरण देकर समझाते हुए आपातकाल में बाबा नागार्जुन की कविताओं का उल्लेख किया और कहा कि राजनीति कोई बुरी चीज़ नहीं है . अगर बुरी होती तो महात्मा गाँधी राजनीति में क्यों आते ? और भी लोग क्यों आते ? हिन्दी ग़ज़ल के बारे में उन्होंने कहा कि हिन्दी ग़ज़ल अपने समय से संवाद है . जो अन्तर्विरोध रहे हैं, जो परेशानियाँ रही हैं, जो दिक्कतें रही हैं ... ग़ज़ल उनसे सम्वाद करती है . ग़ज़ल तो दो संस्कृतियों का मिलन है, सामासिक संस्कृति का प्रतीक है... इस्लाम और हिन्दू धर्म मिला तो ग़ज़ल की रचना हुई. इसलिए यह बहुत बड़ी विधा है जो सामासिक संस्कृति से निर्मित हुई है .

अंत में हरेराम समीप और संस्था के सदस्यों ने प्रमुख विद्वानों का शाल उढ़ाकर अभिनन्दन किया और सभी का आभार व्यक्त किया . इस तरह कार्यक्रम में आज की हिन्दी ग़ज़ल तथा आधुनिक दोहा विधा पर एक सार्थक विमर्श सम्पन्न हुआ जिसमें श्री नीरज जी ( गजल शोध ग्रन्थ के प्रकाशक) भावना प्रकाशन दिल्ली , जबलपुर, नोएडा, दिल्ली और फरीदाबाद नगर के अनेक कवि कथाकार और लेखकों ने शिरकत की.
प्रस्तुति-
हरेराम समीप 
9871691313

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