Tuesday, July 25, 2017

अपने अभिनय से फिर 'काल तुझसे होड़ है मेरी' लिख रहे हैं आलोक चटर्जी

-पवन करण
आज से लगभग दस—बारह बरस पहले 'तानसेन संगीत समारोह ग्वालियर' में पंडित जसराज के गायन में खोये हुए मुझे लगा जैसे आसमान की तरफ अपना मुंह उठाकर वे गा नहीं रहे बल्कि समय को चुनौती दे रहे हैं.....यही बात कल यहां नटसम्राट में आलोक चटर्जी को अभिनय करते देखकर तीब्रता से महसूस हुई...जैसे वे काल से होड़ ले रहे हों। 'काल तुझसे होड़ है मेरी' ये कविता प्रसिद्ध कवि स्वर्गीय शमशेर बहादुर सिंह की है लेकिन आलोक चटर्जी को मंच पर देखकर लगता है जैसे वे इन दिनों अपने अभिनय की कलम से इसे पुन: लिख रहे हैं। नाटक समाप्त हो जाने के बाद आलोक चटर्जी से बात तो नहीं हो सकी मगर मिलाने के नाम पर उनका हाथ अपने हाथों में लेकर उनकी उस मिट्टी को टटोलने की इच्छा जरूर थी जिससे वे बने हैं

कोई अभिनेता अपने अभिनय से एक बेहद पीड़ादायी, संवेदनशील और मार्मिक नाट्य—कथानक पर खास तौर से खासी संख्या में सभागार में उपस्थित युवा दर्शकों को इस हद तक उन्मादित कर सकता है कि वे उसके अभिनय की प्रशंषा में बजने वालीं तालियों को क्रम न टूटने दें ये स्मृतिजन्य दृश्य भी कल यहां देखने को मिला। ऐसा मैंने दूसरी बार देखा...पहली बार तब जब जब इंदिरा गांधी आदिवासी कला संग्रहालय भोपाल में आगरा बाजार के मंचन के बाद मैंने तालियों की अटूट गड़गड़ाहट के बीच हबीब तनवीर को हाथ जोड़े खड़े देखा था।

कल सभागार में कई दर्शकों की आंखें भी झर रही थी। स्वयं के द्वारा अपने आसुओं को  ताली बजाते पकड़ा मैने भी । निसंदेह ये कथ्य से अधिक आलोक चटर्जी के अभिनय के प्रभाव से निकले थे। उर्दू के सम्मानीय शायर शकील ग्वालियरी का एक शेर है

बजा रहा था साज कोई बंद कमरे में
लरज रही थीं छतें सात आसमानों की
 
कल आलोक चटर्जी नाट्यमंदिर ग्वालियर में अपने अभिनय का साज बजा रहे थे और सभागार की छत ही नहीं दीवारें भी लरज रही थीं। लगा जैसे दर्शकों को ही नहीं सभागार की कुर्सियों, परदों और दीवारों को भी कई बरसों से इस बात की प्रतीक्षा थी कि उसके ग्रीनरूम से मेकअप कर आलोक चटर्जी मंच पर आयेगें और अपने अभिनय से उन्हें नया जीवन देकर चले जायेंगे। और कल ऐसा हुआ भी।

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