Thursday, May 11, 2017

'अजबदास की अजब दास्तान' : सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ की प्रस्तुति

-राजेश चन्द्र
रिष्ठ रंग-निर्देशक सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ द्वारा निर्देशित नाटक 'इन्साफ़ का घेरा' उर्फ़ "अजबदास की अजब दास्तान" देखने का सुअवसर कल शाम श्रीराम सेन्टर, मंडी हाउस में मिला। भारतेन्दु नाट्य अकादमी, लखनऊ द्वारा 8-10 मई, 2017 तक श्रीराम सेन्टर, दिल्ली में आयोजित 'भारतेन्दु नाट्य उत्सव' की यह दूसरी प्रस्तुति थी। भारतेन्दु नाट्य अकादमी के प्रथम और द्वितीय वर्ष के छात्रों को लेकर तैयार की गयी इस प्रस्तुति पर तत्काल ज़्यादा तो नहीं, पर इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि निर्देशक की पकड़ शुरू से अन्त तक नाटक के समस्त कार्य-व्यापार पर दीख रही थी। पात्रों के चरित्र-चित्रण बहुत प्रभावी थे, खास कर अजबदास (आशुतोष शुक्ला एवं नागेन्द्र सिंह), ऊषा (पूजा ध्यानी), भतीजा (अनन्त शर्मा), पंडित (आकाश तिवारी) और भाई (सचिन शर्मा) के! इन सभी ने चरित्रानुकूल आंगिक तथा वाचिक 'मैनरिज़्म' का सहारा लेकर कथ्य में निहित विडम्बना और तनाव को गहराई दी तथा नाटक के अभिप्राय का भी सूक्ष्म संप्रेषण किया। जन्म देने वाली मां के बनिस्बत पालन करने वाली मां के योगदान और अधिकार का पक्ष लेकर नाटककार ब्रेख़्त एक तरह से नाटक में यह सन्देश देते हैं कि उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व उसका अधिक सिद्ध होता है, जो ज़्यादा श्रम लगा कर उत्पादकता का सृजन और संरक्षण करता है। ब्रेख़्त के शब्दों में "घोड़े तभी फलदायी होंगे, जब वे अच्छे सवारों के हाथ में हों, उसी तरह भूमि भी तभी अधिक फलदायिनी होगी, जब वह अच्छे किसानों को दी जाये।" इस तरह प्रस्तुति मेहनतकश वर्ग के प्रति एक स्पष्ट पक्षधरता प्रदर्शित करती है।


निर्देशक ने प्रस्तुति को भारतीय परिवेश और संवेदनाओं के अनुरूप बनाने के लिये काफ़ी मेहनत की है। रूपान्तरण में भारतीय परिवेश और संवेदना का इतना गहरा समावेश मिलता है कि नाटक के अंत तक यह पता ही नहीं चलता, कि हम एक विदेशी नाटक देख रहे हैं। यह कोई साधारण कौशल नहीं है। इस लिहाज से नाटक का रूपान्तरण श्रेष्ठ सिद्ध होता है। साथ में लोक शैलियों को संगीत में उचित स्थान देकर निर्देशक ने सार्थक पहल की है, जिसका सकारात्मक प्रतिफल भी प्रस्तुति के समग्र प्रभाव में दृष्टिगोचर होता है। अभ्यास और लयात्मकता के तालमेल के अभाव में संगीत का वैसा चमत्कारिक प्रभाव नहीं क़ायम हो सका, जिसकी सम्भावना प्रचुरता में थी! गायन मंडली के मुख्य गायक की अपनी मंडली के प्रदर्शन से नाराज़गी दर्शकों के संज्ञान में आते रहने से एक क़िस्म का दृष्टिभंग उत्पन्न होता था, और संगीत का आस्वाद भी थोड़ा बिगड़ जाता था। परन्तु यह गायन अथवा संगीत की नहीं बल्कि तालमेल की कमी थी, यह भी साफ़-साफ़ परिलक्षित होता था! वरिष्ठ रंगकर्मी आतमजीत ने प्रस्तुति के लिये ऐसे गीत-संगीत की परिकल्पना की, जिसने प्रस्तुति की मार्मिकता और उसके राजनीतिक सन्देश को घनीभूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

प्रस्तुति की एक प्रमुख ख़ासियत यह थी कि इसमें किसी तामझाम, शोर अथवा कोरी भावुकता के प्रदर्शन के बिना ही सादगी के साथ एक राजनीतिक सन्देश सम्प्रेषित हो रहा था। ब्रेख़्त की इस शैली को सहजतापूर्वक आत्मसात् करने में निर्देशक का कौशल सराहनीय माना जा सकता है। प्रकाश-परिकल्पना (मनोज मिश्रा) में भी चमत्कार पैदा करने की अपेक्षा दृश्यों को सघनता और स्पष्टता देने का प्रयास स्तुत्य है। मंच का कलात्मक और दृश्य-विधान (भारतेंदु कश्यप) भी अत्यंत प्रायोगिक और आम तौर पर सांकेतिकता लिये हुए था, जिससे अभिनेताओं को अधिक 'स्पेस' और उन्मुक्तता हासिल होती थी। अभिनय में लोक नाटकों वाली त्वरा और खिलंदड़पन का पुट था, जिसने अंत तक प्रस्तुति को बांध कर रखा और बहुत दिनों बाद दिल्ली के दर्शकों को सहजता और आत्मीयता के नाट्य-अनुभव से गुज़रने का अवसर प्राप्त हुआ।

"कॉकेशियन चॉक सर्किल" या 'इन्साफ़ का घेरा' नाटक ब्रेख़्त ने 1944 में लिखा था, जब वे अमेरिका में रह रहे थे। 1933 में हिटलर के सत्तारूढ़ होने के बाद उन्होंने जर्मनी छोड़ दी थी, लेकिन अमेरिका पहुंचने से पहले उन्होंने यूरोप के विभिन्न स्थानों पर प्रवास किया। अमेरिका में ब्रेख़्त 1941 से 1947 तक रहे। उनका यह नाटक इस बात का एक श्रेष्ठ उदाहरण है कि किस प्रकार ब्रेख़्त ने फ़ासीवाद की ख़िलाफ़त और मार्क्सवाद की प्रतिष्ठा के लिये एक चीनी दंतकथा का सृजनात्मक उपयोग किया! सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ अपनी प्रस्तुति में गायन मंडली को भगवा वस्त्र पहना कर फ़ासीवाद की उपस्थिति और प्रभाविता को संकेतित भर करते हैं, उस पर कोई सवाल नहीं खड़ा करते। ब्रेख़्त का यह संभवत: एकमात्र नाटक है, जिसमें वे सुखद अंत की स्थापना करते हैं जहां शालीनता और अच्छाई की प्रतिष्ठा होती है।

ब्रेख़्त बहुत साफ़-सरल शब्दों और सहज जीवन-स्थितियों के माध्यम से अपना अभिप्राय दर्शकों के समक्ष रखते हैं। नाटक के सुखद अंत तक पहुंचने की यात्रा संघर्षों और जीवन के झंझावातों से भरी है, जिसमें गृहयुद्ध की स्थितियां हैं, लालच का कारोबार है, अशिष्टता और भ्रष्टाचार है! कथा के केन्द्र में ऊषा नाम की एक विनीत और ममत्व से भरे हृदय वाली लड़की है, जो गवर्नर की विधवा द्वारा उपेक्षित बच्चे की परवरिश का निर्णय लेती है, और उसे लेकर पहाड़ों की ओर भाग निकलती है। उसके पीछे सैनिक हैं, उसका प्यार पीछे छूट गया है, पर बच्चे की रक्षा के लिये वह अपने जीवन और प्यार तक को दांव पर लगा देती है। कथाक्रम में हमारा सामना ऐसे कई दृश्यों और पात्रों से होता है, जो कभी ऊषा के लिये चुनौतियों की तरह तो कभी सहायक की तरह उपस्थित होते हैं। नाटकीय रूप से बदलते घटनाक्रम से प्रस्तुति में तनाव पैदा होता है और दर्शकों की उत्सुकता भी बढ़ती है। सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ इन दृश्योंं में सौन्दर्य, नाटकीयता और सच्चाई के ऐसे क्षण रचने में कामयाब रहे हैं, जो सहज रूप से उन्हें एक दृष्टिसम्पन्न निर्देशक के तौर पर बार-बार स्थापित करते हैं।

'इन्साफ़ का घेरा' एक आशा की कहानी है। लगातार भ्रष्ट और निर्मम होती दुनिया में यह आशा जगाती हुई कि हम बिना किसी को कष्ट पहुंचाये, बिना हिंसा के भी जीवन जी सकते हैं!



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