Wednesday, March 29, 2017

' मुग़ले आज़म ' के संस्मरण

-महेंद्र नेह
मित्रो , आज विश्व रंगमंच दिवस पर आपको रंगमंच के शिखर पुरुष प्रथ्वीराज कपूर के साथ तीन दिन तक निरंतर रहने , सीखने और उनके अनुभवों की साझेदारी का जो अवसर मिला , उसके कुछ संक्षिप्त अंश सुनाना चाहूँगा .

हुआ यूं कि मेरे नाट्य गुरू डॉ. बृज वल्लभ मिश्र की नियुक्ति कोटा में 1968 में निर्मित रिवॉल्विंग थियेटर - श्रीराम रंगमंच पर निर्देशक के पद पर होगयी . उनसे अपनी पसंद के कुछ कलाकार लाने को कहा गया तो वे मथुरा से मुझे तथा आगरा से सुरेन्द्र मोहन भाटिया को ले गए .

मिश्राजी के बड़े भाई गोपाल मुनि धार्मिक फिल्मों के साथ पृथ्वी थियेटर के भी प्रमुख कलाकार थे . बृज वल्लभ जी भी फिल्मों में काम करते थे , बाकी समय पापा जी के पास रंगमंच पर .......

कोटा में नियुक्ति होने पर मिश्राजी ने पापा जी से मंच देखने का आग्रह किया. उन्होंने इन शर्तों पर अपनी स्वीकृति दी कि वे कोई पब्लिक शो नहीं देंगे और केवल मंच के कलाकारों के साथ रहेंगे , मंच के अन्दर किसी अन्य को आने की अनुमति भी नहीं होगी . ऐसा ही हुआ .

प्रथ्वीराज जी अक्स़र मंच पर पालथी मार कर बैठ जाते और कहते मैं बूढा बैल हूँ , लेकिन वह बैल नहीं ,जिसने प्रथ्वी को अपने सींगों पर उठा रखा है . खूब हंसाते . नित्य एक घंटा सितार बजाते , एक दिन कहा - आओ , आज मैं आपलोगों को सितार सुनाता हूँ . उन्होंने सितार बजाने में पूरी ऊर्जा लगा दी , पसीने पसीने होगये ....हमसे पूछा कैसा लगा ? हमने कहा बहुत अच्छा , खूब तालियाँ भी बजाईं , वे बोले -क्या खाक अच्छा ? मै सितार बजा रहा था और अन्दर अन्दर रो रहा था ...अब कितना जियूँगा ? हद से हद ८-१० वर्ष , लेकिन फिर भी इस जीवन में रवि शंकर तो नहीं बन पाऊंगा .

उन्होंने एक और दुर्लभ सस्मरण सुनाया -पृथ्वी थियेटर के कलाकारों का ग्रुप किसान व् पठान नाटक लेकर लम्बी यात्राओं पर निकला हुआ था . एक दिन उनकी आवाज़ अचानक बंद होगई . हर संभव इलाज करा ने पर भी कोई लाभ न हुआ. आयोजकों ने कहा आज के शो के टिकिट बाँटें या नहीं ? उन्होंने इशारे से हाँ कर दी , मुख्य भूमिका पापा जी की ही थी . परदा उठने का समय हो गया , सभी ने कहा कि शो के केंसिल होने की घोषणा कर दें , पापाजी ने कहा रुको , मैं मेरे आराध्य शिव से आज्ञा लेलूँ ...उसके बाद उन्होंने परदा खोलने का इशारा कर दिया , मंच पर पहुंचते ही आवाज़ लौट आई , शानदार शो हुआ और परदा गिरते ही आवाज़ फिरसे बंद ! बोले - अगले दिन मुझे राज कपूर ने बंबई बुलाकर गले का ऑपरेशन कराया और फिर मेरे गले से वह भर्राई हुई आवाज़ निकली , जिसे आप लोगों ने' मुग़ले आज़म ' में सुना है , मेरी ओरिजनल आवाज़ फिर कभी वापस न आ सकी .......

हबीब के शहर मे तनवीरी प्रस्तुति

 - Akhter Ali 
रायपुर, 27 मार्च. 

निसार अली का रंगमंच केवल मनोरंजन का रंगमंच नही बल्कि सामाजिक जिम्मेदारी का निर्वाह भी रहा है, नाटक के माध्यम से संदेश भी जाता है ताे यह अतिरिक्त उपलब्धि है जाे आज इप्टा रायपुर की प्रस्तुति के बाद निसार अली के हिस्से मे आई | रंगमंच दिवस आैर मुकितबाेध जन्म शताब्दी के संयुक्त अवसर पर मुक्तिबाेध जी के दाेनाे पुञाे की मौजूदगी मे यह नाटक देखना सुखद अनुभूति रहा |

निसार काफ़ी समय से छत्तीसगढ़ की लाेकशैली नाचा गम्मत पर गंभीरता पूर्वक काम कर रहे है, यह वही शैली है जिसे हबीब तनवीर साहब ने अपनाया था आैर फिर रंगमंच का इतिहास गढ़ दिया |निसार का अंदाज़ हबीब तनवीर के अंदाज़ से मेल खाता दिखा, यह आलोचना नही प्रशंसा है, वही लय, वही सुर, वही इम्पराेवाईज़ेशन का तरीका, वही मंच के हर काेने का इस्तेमाल, बात अपनी पर तरीका दर्शकाे की पसंद का, कुल मिलाकर ब्रह्मराक्षस का शिष्य सीमित साधन मे अपना प्रभाव पूरी ताकत के साथ जमाने मे सफल रहा |

निसार पटकथा लेखन एवं निर्देशक के अतिरिक्त गुरु जी की भूमिका मे बेहद प्रभावशाली लगे, देह की भाषा, सीमित मूव्हमेंट, प्रभाव पूर्ण संवाद संप्रेषण, एक अनुभवी अभिनेता के तमाम गुणाे से लबरेज़ रहे निसार | अभिनय के लिहाज़ से शेखर शिखर पर रहे पर गुरू की पहली पदचाप से ही दर्शक उस पर निसार हाे गये |

नाटक - ब्रह्मराक्षस का शिष्य 
कहानी - मुक्तिबाेध
नाटय रूपांतरण एवं निर्देशक - निसार अली 
इप्टा रायपुर की प्रस्तुति |

कानपुर: विश्व रंगमंच दिवस पर गोष्ठी

कानपुर, 27 मार्च 17 । विश्व रंगमंच दिवस के अवसर पर आज अनुकृति रंगमंडल ने मजदूर सभा भवन ग्वालटोली में गोष्ठी आयोजित की। गोष्ठी को संबोधित करते हुए वरिष्ठ रंगकर्मी डा. ओमेन्द्र कुमार ने कहा कि हर साल 27 मार्च को विश्व रंगमंच दिवस मनाया जाता है।1961 में अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच संस्थान (आईटीआई), फ्रांस ने इसकी शुरुआत की थी। वैसे विश्व में सर्वाधिक प्राचीन भारतीय रंगमंच हैं, भरत मुनि ने देवताओं के मनोरंजन के लिए  लगभग 400 ईसा पूर्व पंचम वेद नाट्य शास्त्र की रचना की थी। 

उन्होंने कहाकि भरतमुनि रचित प्रथम नाटक का अभिनय, जिसका कथानक 'देवासुर संग्राम' था, देवों की विजय के बाद इन्द्र की सभा में हुआ था। नाट्य शास्त्र में के 37 अध्यायों में न नाट्य रचना के नियमों का आकलन किया गया है बल्कि अभिनेता रंगमंच और प्रेक्षक इन तीनों तत्वों की पूर्ति के साधनों का विवेचन होता है।

रंगकर्मी कृष्णा सक्सेना ने बताया कि भरतमुनि ने नाट्य शास्त्र में रंगमंच अभिनेता अभिनय नृत्य गीत वाद्य, दर्शक, दशरूपक और रस निष्पत्ति से संबंधित सभी तथ्यों का विवेचन किया है। नाट्य शास्त्र के मुताबिक नाटक की सफलता केवल लेखक की प्रतिभा पर आधारित नहीं होती बल्कि विभिन्न कलाओं जैसे दृश्य रचना, वेशभूषा, संगीत, प्रकाश और कलाकारों के सम्यक के सहयोग से ही होती है।नाट्य कर्मी राजीव तिवारी ने कहाकि नाट्य के प्रमुख अंग चार हैं - वाचिक, सात्विक, आंगिक और आहार्य। उक्ति-प्रत्युक्ति की यथावत् अनुकृति वाचिक अभिनय का विषय है। 

विजयभान सिंह ने बताया कि नाटक का मुख्य उद्देश्य ऐहिक जीवन की नाना वेदनाओं से परिश्रांत जनता का मनोरंजन है। इसके प्रवर्तक स्वयं प्रजापति हैं जिन्होंने ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गीत, यजुर्वेद से अभिनय तथा अथर्ववेद से रस का परिग्रह कर सार्ववर्णिक पंचम वेद का प्रादुर्भाव किया। उमा महादेव ने सुप्रीत हो लोकानुरंजन के हेतु लास्य एवं तांडव का सहयोग देकर इसे संपूर्णता प्रदान की।

सुरेश श्रीवास्तव ने बताया कि संस्कृत भाषा महान कवि और नाटक कार कालीदास ने भारत की पौराणिक कथाओं और दर्शन को आधार बनाकर रचनाएं की और उनकी रचनाओं में भारतीय जीवन और दर्शन के विविध रूप और मूल तत्व निरूपित हैं। कालिदास अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण राष्ट्र की समग्र राष्ट्रीय चेतना को स्वर देने वाले कवि माने जाते हैं और कुछ विद्वान उन्हें राष्ट्रीय कवि का स्थान तक देते हैं।
अभिज्ञानशाकुंतलम्, मेघदूतम, मालविकाग्निमित्रम कालिदास की प्रसिद्ध रचनाएं हैं। 

जौली घोष ने कहाकि कालिदास के परवर्ती कवि बाणभट्ट ने उनकी सूक्तियों की विशेष रूप से प्रशंसा की है। छठीं सदी ईसवी में बाणभट्ट ने अपनी रचना हर्षचरितम् में कालिदास का उल्लेख किया है। डा. ओमेन्द्र ने बताया कि कालिदास उज्जयिनी के राजा विक्रमादित्य के समकालीन हैं और उनके नवरत्नों में से एक थे।
गोष्ठी में अनिल निगम, महेश चंद, सम्राट यादव, श्रषि, प्रशांत, योगेश, आकाश, सुनीत व विकास ने भी विचार रखे।

दुनिया एक रंगमंच है, मगर हम सब कठपुतलियां नहीं हैं

-बादल सरोज

वैसे तो बकौल विलियम शेक्सपीयर (फ़िल्म आनन्द से हिंदी में मशहूर हुआ संवाद ) "ये दुनिया एक रंगमंच है और हम सब इस रंगमंच की कठपुतलियां हैं ।" मगर ये कुछ ज्यादा ही सरलीकरण है । दुनिया के बारे में बाकी फलसफा फिर कभी, अभी सिर्फ इतना कि हाँ, दुनिया एक खूब विशाल रंगमंच है, मगर हम सब इसकी कठपुतलियां नहीँ है । वे भी नहीं जिन्हें पक्का यकीन है कि उनकी डोर किसी ऊपरवाले के हाथों में हैं ।
दुनिया एक रंगमंच है और इसे जीने लायक बनाने में अन्य अनेक माध्यमों के साथ साथ रंगमंच की भी एक भूमिका है । 

पता नहीं भवभूति या कालिदास या डायोनेसुस या स्तानिस्लाव्स्की या ब्रेख्त या पिंग डायनेस्टी के जमाने की शैडो पपेट्री के संस्थापक/संस्थापिका क्या मानते थे, एक दर्शक के नाते हम जैसों के लिए रंगमंच है : मनोभावों और स्थितियों की अपेक्षाकृत कलात्मक प्रस्तुति/आवेगों और उद्वेगों का , इस मकसद से , व्यवस्थित और सायास प्रस्तुतीकरण ताकि जो दरअसल उस समय नहीं है उसे होता हुआ दिखाया जा सके/ रूपकों और बिम्बों और मुद्राओं और भंगिमाओं के जरिये ऐसा कथोपकथन जिसे अन्यथा समझाने के लिए न जाने कितने हजार शब्दों की आवश्यकता होती ।

और सबसे बढ़कर इन सबका आक्रोश की अभिव्यक्ति, विरोध, प्रतिरोध की कार्यवाही के रूप में इस तरह उपयोग कि पटकथा और संवाद लिखने वाले, बोलने वाले , कर दिखाने वाले के हाथ से निकल कर करोड़ों लोगों का कहा , बोला , किया बन जाए । नाटक की भाषा में बोलें तो ऐसा प्रॉम्पटर जिसे एक पूरा युग दोहराये । बुरे के विरोध में कमजोर से कमजोर की भागीदारी करवाने की ताकत । सफ़दर हाशमी के शब्दों में जब कोई दर्शक नुक्कड़ नाटक के किसी संवाद पर हँस रहा होता है, या किसी बात पर ताली बजा रहा होता है तब दरअसल वह खुद एक प्रतिरोध की कार्यवाही में शिरकत कर रहा होता है । 

70 के दशक में कलकत्ता में कुछ लाख लोगों के बीच उत्पल दत्त के नाटक - जो बांग्ला में था - को देखते हुए वे हिलोरें अनुभव की थीं जो एक साथ लाखों चेहरों पर कभी गुस्सा, कभी जोश, कभी संकल्प बिखेर जाती थीं । उनके बाद जिन दूसरे बड़े से मिले वे थे ब ब कारंथ जिन्हें किशोर से उन्मुक्त मन के साथ न जाने कितने रूपों में देखा कितनी भूमिकायें निबाहते देखा । तीसरे थे चरणदास चोर !! वन एंड ओनली हबीब तनवीर साब । हमारे अहद के कमाल के रंगकर्मी । जिनके लिए रंगमंच विचार भी था औजार भी था ।और विचार वही ज़िंदा रहते हैं जिनके लिए लोग मरने की हिम्मत रखते हैं । 

सफ़दर हाशमी ऐसे ही, हमारे लिए इस दौर के सबसे बड़े रंगकर्मी । जो अपनी शहादत से जन गण के रंगमंच को जीवन दे गए हैं । दधीचि की तरह अपनी हड्डियों का वज्र दे गए हैं । सफदर जो एक कमिटेड सर्जक थे और बहुमुखी दोस्त तथा आदर्श भी ।(निजी जीवन में रंगकर्म से वास्ता इससे भी ज्यादा गहरा है । जो ल म्बी दूरी तय करते करते क्लाइमेक्स में नीना Neena Sharma तक आया है जो खुद रंगकर्म से होते हुए राजनीतिक सहकर्मी और मित्र बनी।)

मानव समाज में नाटक की विधा का उदगम कब , कैसे, कहाँ से हुआ पता नहीं । मगर इतना पक्का पता है कि भाषा के आविष्कार से भी हजारों साल पहले किसी स्त्री ने किया होगा इसका पहला सरल और भदेस उपयोग : किसी रोते हुए बच्चे को मनाने के लिए आवाज निकाल कर, आँख मटकाते, मुंह बनाते हुए । किसी बड़े होते बच्चे को हाथों पैरों की मुद्राओं से नदी पार करना या पेड़ चढ़ना सिखाते हुए । किसी गुलाम ने निर्दयी मालिक की पीठ के पीछे उसकी नकल उतारते हुए बनाया होगा उसका मजाक - निकाली होगी कोई आवाज़ और अपने विरोध को कुछ इस तरह दी होगी परवाज़ । कही और देखते हुए, छुपते छुपाते हुए इशारों में दिया होगा अपने प्रिय को उलाहना या आमन्त्रण ।

रंगमंच यही सब सिखाता है । रंगमंच मनुष्य बनाता है ।इसलिये विश्वास है कि बाज़ार की किसी लिप्सा या मुनाफे की किसी हवस का शिकार होकर मरेगा नहीं रंगमंच : जरूरत हुयी तो एक बार फिर सुसज्जित और महंगे थिएटरों से नीचे उतरेगा । किसी गोंड या भील के गाँव, किसी मजदूर की बस्ती, किसी किसान के खलिहान, किसी महिला की आँखों में छुपे सपने की तरह बस जायेगा, फिर उभर कर आयेगा ।
क्योंकि 

दुनिया एक रंगमंच है, मगर हम सब कठपुतलियां नहीं है ।
(2017 के विश्व रंगमंच दिवस पर रंगमंच की हिफाज़त में खड़े, उससे जुड़े सभी परिचित मित्रों को शुभकामनायें- इस वर्ष मिली युवा रंगकर्मी सिग्मा Sigmaa Upadhyay के नाम थोड़ी सी एक्सट्रा भी )

जम्मू में नुक्कड़ नाटक 'वक्त कम, काम ज्यादा' की प्रस्तुति


Jammu. EK SATH RANG MANDAL today presented it's 239 th MONDAY THEATRE under MONDAY THEATRE SERIES with Vijay Malla ' new progressive nukkad" WAQET KUM KAAM ZIYADA" at pacca Talab Park near Rehari Chungi Jammu.

Time is limited and work is to be done within time is a big problem among young generation when they donot know what to do ? It is a big challenge for those who lack basic planning and Time Table in their day to day work. Romesh is a student has liking for sports also but unable to attend games as well as studies at a time. He thinks that if he will play games he can not do justice to his studies. He is surprised to see his friend Ashok who plays game as well gets good marks in studies. Every time he is getting good marks in exams and is also known as best sports man in the college.

Romesh decides to consult his grand father Triloki Nath who has retired as principal and was a good sportsman in his college days, Triloki nath, Romesh's grand father asks Romesh to give him details of his daily programme when he attends studies and when he needs to participate in games ?

But unfortunately Romesh could not make out the details of his time table . Now Triloki Nath explains Romesh that you can not get success without planning daily time table and fix time for every work .Triloki nath further explains him that unless and untill you will not chalkout your engagements of daily routine. He says, Sports is also important as education is, but it needs only balance of your timing.

Romesh is convienced and satisfied with such suggestions and decides to attend games and studies with planning and time table.This nukkad was an eye opener for our young students who can learn how to utilize their minimum time for maximum work. A large number of people witnessed this Nukkad ,
Actors who acted were Anuroop Pathania,Prabal Sharma,Qurat-Ul-ain,Raju Mad,Ashok Sharma,Ayush Sharma and Vijay malla.THIS NUKKAD WAS WRITTEN AND DIRECTED BY VIJAY MALLA AND ASSISTED BY ANUROOP PATHANIA

विश्व रंगमंच दिवस : इप्टा इंदौर द्वारा नाटकों का मंचन

इंदौर. विश्व नाट्य दिवस पर आज इप्टा की इंदौर इकाई द्वारा शहीद भवन इंदौर पर एक कार्यक्रम आयोजित किया गया। इप्टा इंदौर के बच्चों द्वारा जनगीत, पाश की कविता सबसे खतरनाक होता है..और श्री हरेप्रकाश उपाध्याय Hareprakash Upadhyayकी कविता.. आम जन के लिए.. की अभिनय प्रस्तुति की गयी। श्री गुलरेज के निर्देशन में नाटक-'नाटक तो होगा ही' और स्त्री उत्पीड़न पर केंद्रित 'मूक अभिनय' नाटिका प्रस्तुत की गयी। सुश्री सारिका श्रीवास्तव Sarika Shrivastavaके मार्गदर्शन में छोटे बच्चों द्वारा 'भगत सिंह के आखिरी बारह घंटों' के घटनाक्रम पर केंद्रित अभिनय पाठ किया गया। 

संचालन,संयोजन सुश्री सारिका श्रीवास्तव ने किया। विश्व नाट्य दिवस पर समकालीन परिदृश्य में रंग कर्म के महत्व पर श्री अरविन्द पोरवाल Arvind Porwalने संबोधित किया। आभार श्री विजय दलाल ने माना। इस अवसर पर सर्वश्री वसन्त शिन्त्रे, सुरेश उपाध्याय, अतुल लागू, ब्रजेश कानूनगो,चुन्नीलाल वाधवानी,कामना शर्मा, सहित अनेक इप्टा,प्रलेस के साथी और प्रबुद्धजन उपस्थित थे।
इसी अवसर के कुछ चित्र Vineet Tiwari और मित्रों के लिए ।

Sunday, March 26, 2017

World Theatre Day Message 2017 by Isabelle Huppert

So, here we are once more. Gathered again in Spring, 55 years since our inaugural meeting, to celebrate World Theatre Day. Just one day, 24 hours, is dedicated to celebrating theatre around the world. And here we are in Paris, the premier city in the world for attracting international theatre groups, to venerate the art of theatre. Paris is a world city, fit to contain the globes theatre traditions in a day of celebration; from here in France’s capital we can transport ourselves to Japan by experiencing Noh and Bunraku theatre, trace a line from here to thoughts and expressions as diverse as Peking Opera and Kathakali; the stage allows us to linger between Greece and Scandinavia as we envelope ourselves in Aeschylus and Ibsen, Sophocles and Strindberg; it allows us to flit between Britain and Italy as we reverberate between Sarah Kane and Prinadello. Within these twenty-four hours we may be taken from France to Russia, from Racine and Moliere to Chekhov; we can even cross the Atlantic as a bolt of inspiration to serve on a Campus in California, enticing a young student there to reinvent and make their name in theatre. 

Indeed, theatre has such a thriving life that it defies space and time; its most contemporary pieces are nourished by the achievements of past centuries, and even the most classical repertories become modern and vital each time they are played anew. Theatre is always reborn from its ashes, shedding only its previous conventions in its new-fangled forms: that is how it stays alive. 

World Theatre Day then, is obviously no ordinary day to be lumped in with the procession of others. It grants us access to an immense space-time continuum via the sheer majesty of the global canon. To enable me the ability to conceptualise this, allow me to quote a French playwright, as brilliant as he was discreet, Jean Tardieu: When thinking of space, Tardieu says it is sensible to ask “what is the longest path from one to another?”...For time, he suggests measuring, “in tenths of a second, the time it takes to pronounce the word ‘eternity’”…For space-time, however, he says: “before you fall asleep , fix your mind upon two points of space, and calculate the time it takes, in a dream, to go from one to the other”. It is the phrase in a dream that has always stuck with me. It seems as though Tardieu and Bob Wilson met. We can also summarise the temporal uniqueness of World Theatre day by quoting the words of Samuel Beckett, who makes the character Winnie say, in his expeditious style: “Oh what a beautiful day it will have been”. When thinking of this message, that I feel honoured to have been asked to write, I remembered all the dreams of all these scenes. As such, it is fair to say that I did not come to this UNESCO hall alone; every character I have ever played is here with me, roles that seem to leave when the curtain falls, but who have carved out an underground life within me, waiting to assist or destroy the roles that follow; Phaedra, Araminte, Orlando, Hedda Gabbler, Medea, Merteuil, Blanche DuBois….Also supplementing me as I stand before you today are all the characters I loved and applauded as a spectator. And so it is, therefore, that I belong to the world. I am Greek, African, Syrian, Venetian, Russian, Brazilian, Persian, Roman, Japanese, a New Yorker, a Marseillais, Filipino, Argentinian, Norwegian, Korean, German, Austrian, English – a true citizen of the world, by virtue of the personal ensemble that exists within me. For it is here, on the stage and in the theatre, that we find true globalization. 

On World Theatre Day in 1964, Laurence Olivier announced that, after more than a century of struggle, a National Theatre has just been created in the United Kingdom, which he immediately wanted to morph into an international theatre, at least in terms of its repertoire. He knew well that Shakespeare belonged to the world. In researching the writing of this message, I was glad to learn that the inaugural World Theatre Day message of 1962 was entrusted to Jean Cocteau, a fitting candidate due to his authoring of the book ‘Around the World Again in 80 Days’. This made me realise that I have gone around the world differently. I did it in 80 shows or 80 movies. I include movies in this as I do not differentiate between playing theatre and playing movies, which surprises even me each time I say it, but it is true, that’s how it is, I see no difference between the two.
Speaking here I am not myself, I am not an actress, I am just one of the many people that theatre uses as a conduit to exist, and it is my duty to be receptive to this - or, in other words, we do not make theatre exist, it is rather thanks to theatre that we exist. The theatre is very strong. It resists and survives everything, wars, censors, penury. 

It is enough to say that “the stage is a naked scene from an indeterminate time” – all’s it needs is an actor. Or an actress. What are they going to do? What are they going to say? Will they talk? The public waits, it will know, for without the public there is no theatre – never forget this. One person alone is an audience. But let’s hope there are not too many empty seats! Productions of Ionesco’s productions are always full, and he represents this artistic valour candidly and beautifully by having, at the end of one of his plays, and old lady say; “Yes, Yes, die in full glory. Let’s die to enter the legend…at least we will have our street…”

World Theatre Day has existed for 55 years now. In 55 years, I am the eighth woman to be invited to pronounce a message – if you can call this a ‘message’ that is. My predecessors (oh, how the male of the species imposes itself!) spoke about the theatre of imagination, freedom, and originality in order to evoke beauty, multiculturalism and pose unanswerable questions. In 2013, just four years ago, Dario Fo said: “The only solution to the crisis lies in the hope of the great witch-hunt against us, especially against young people who want to learn the art of theatre: thus a new diaspora of actors will emerge, who will undoubtedly draw from this constraint unimaginable benefits by finding a new representation”. Unimaginable Benefits – sounds like a nice formula, worthy to be included in any political rhetoric, don’t you think?...

As I am in Paris, shortly before a presidential election, I would like to suggest that those who apparently yearn to govern us should be aware of the unimaginable benefits brought about by theatre. But I would also like to stress, no witch-hunt! 

Theatre is for me represents the other it is dialogue, and it is the absence of hatred. ‘Friendship between peoples’ – now, I do not know too much about what this means, but I believe in community, in friendship between spectators and actors, in the lasting union between all the peoples theatre brings together – translators, educators, costume designers, stage artists, academics, practitioners and audiences. Theatre protects us; it shelters us…I believe that theatre loves us…as much as we love it… 

I remember an old-fashioned stage director I worked for, who, before the nightly raising of the curtain would yell, with full-throated firmness ‘Make way for theatre!’ – and these shall be my last words tonight.

About the Author

Isabelle Huppert studied Russian at the National Languages and oriental Civilizations Institute whilst taking dramatic art classes at the School of la rue Blanche and the National Conservatory of Dramatic Art. She was the student of preeminent teachers Jean-Laurent Cochet and Antoine Vitez.

She received attention for her earliest film appearances in movies such as Les Valseuses by Bertrand Blier, Aloise by Liliane de Kermadec and Le Juge et l'Assassin by Bertrand Tavernier. For her performance in La Lentellière by Claude Goretta, she received the Best Hope Award from the British Academy of Film and Television (BAFTA). Her collaborative efforts with Claude Chabrol have enabled her to perform outstandingly across a number of film dramas, such as; comedy (Rien ne va plus), drama (Une affaire de femmes), and film noir (Merci pour le chocolat). Her deftness and deep understanding of acting have also enabled her to give life to roles in literary adaptations (Madame Bovary) and political fictions (L'Ivresse du pouvoir). She has received several awards for her performances under the direction of Claude Chabrol: the Interpretive Prize at the Cannes Film Festival for Violette Nozière, the Best Actress award at the Venice Film Festival for Une affaire de femmes, and at the Moscow Festival for Madame Bovary, as well as receiving the Interpretive Award and the César for Best Actress at Venice for her part in La Cérémonie.

She has worked with many high-profile directors and artists domestically such as Jean-Luc Godard, André Téchiné, Maurice Pialat, Patrice Chéreau, Michael Haneke, Raoul Ruiz, Benoit Jacquot, Jacques Doillon, Christian Vincent, Laurence Ferreira Barbosa, Olivier Assayas, Francois Ozon/Anne Fontaine Ionesco, Joachim Lafosse, Serge Bozon/Catherine Breillat, Guillaume Nicloux, and Samuel Benchetrit. Isabelle Huppert has also worked with major international directors such as Michael Cimino, Joseph Losey, Otto Preminger, the Taviani brothers, Marco Ferreri, Hal Hartley, David O'Russell, Werner Schroeter and Andrzej Wajda – as well as Rithy Panh, Brillante Mendoza, Joachim Sort and Hong Sang Soo.

The Venice Film Festival awarded her a Special Golden Lion of the Jury which recognized her entire career as well as her performance in Patrice Chéreau’s Gabriell.
She has also twice been awarded the prestigious Interpretive Award at the Cannes Film Festival (the second time for La Pianiste by Michael Hanake). Her involvement at Cannes has also seen her fulfill the role of juror and ceremonial mistress, and for the 62nd edition of the festival she was president of the jury.

In addition to cinema Isabelle Huppert has had a distinguished career in theatre, both in France and internationally. She plays under the direction of Bob Wilson (Orlando by Virginia Woolf/Quartett by Heiner Muller), Peter Zadek (Measure for Measure by William Shakespeare), Claude Régy, (4.48 Psychosis by Sarah Kane, Jeanne au bucher by Claudel). She also interprets Médée d'Euripide directed by Jacques Lassalle, notably at the Festival d'Avignon; Hedda Gabler by Henrik Ibsen directed by Eric Lacascade, and A Tramway based on Tennessee Williams’ work, directed by Krzysztof Warlikowski at the Théâtre de l'Odéon, which went on to have a successful European and World Tour. Other notable works include The Maids by Jean Genet, directed by Benedict Andrews, in which she appeared alongside Cate Blanchett at the Sydney Theatre Company and the New York City Centre as part of the Lincoln Center Festival; Les Fausses Condidences de Marivaux, directed by Luc Bondy, at the Théâtre de l'Odéon which again went on to have a successful European tour. This season, she has performed Phaedra(s) by Wajdi Mouawad, Sarah Kane and J.M. Coetzee, directed by Krzysztof Warlikowski, on a European and international tour.

In cinema, several of her films have recently been released, L’avenir by Mia Hansen Love, Tout de suite maintenant by Pascal Bonitzer and Elle by Paul Verhoeven (presented at the 2016 Cannes Film Festival), Souvenir by Bavo Devurne. In 2017 her fourth film with Michaël Haneke, Happy End, will be released, along with a project directed by Serge Bozon called Madame Hyde. She recently received several awards in the United States including the Gotham Award and the Golden Globe for Elle, a role which as lead her to be nominated for the Best Actress Oscar.

Isabelle Huppert is an Officer of the National Order of the Legion of Honor, an Officer of the National Order of Merit and a Commander in the Order of Arts and Letters.



Circulated in India by IPTA

Friday, March 24, 2017

Before the sun-set: Play by IPTA Chandigarh

Indian People's Theatre Association ( IPTA)
-Chandigarh  paid a rich tribute to the martyrs of 23rd March, 1931 ( Shaheed-e-Aazam S. Bhagat Singh, Rajguru & Sukhdev) on 23 March, 2017 at Village Hallo Majra, U.T., Chandigarh  by presenting a play on the ideology &  about last days of  the  revolutionary martyrs :    CHHIPPANN TON PEHLAAN (Before the sun-set) : Written by Shiromani Naatak-kaar Davinder Daman. Directed by : Balkar Sidhu.  The cast include Jasdeep Singh, Manpreet Singh, Ravneet  Kaur, Varun Narang, Sunny Dhillon & Balkar Sidhu.courtes Background Singers : Harpreet Singh Honey & Simranjit Kaur. The event was organised by Shaheed Bhagat Singh Youth Club, Hallo Majra. -(Photos courtesy​ : Ravneet Kaur & Manpreet Singh).

Thursday, March 23, 2017

IPTA, Chandigarh is paying tribute to the martyrs

Chandigarh. Indian People' Theatre Association ( IPTA)-Chandigarh is paying rich tribute to the martyrs of 23rd March, 1931 ( Shaheed-e-Aazam Bhagat Singh, Rajguru & Sukhdev) on 23 March, 2017 at Village Hallo Majra, U.T., Chandigarh at 5.00 PM by presenting a play on the ideology & about last days of the revolutionary martyrs : CHHIPPANN TON PEHLAAN (Before the sun-set) : Written by Shiromani Naatak-kaar Davinder Daman. Directed by : Balkar Sidhu. 

The cast include Jasdeep Singh, Manpreet Singh, Ravneet Kaur, Varun Narang, Sunny Dhillon & Balkar Sidhu. Background Singers : Harpreet Singh Honey & Simranjit Kaur. Music by Lovepreet Singh.

हमसईद, सईद की याद, सईद के सरोकार

प्रस्तुति-शशिभूषण
इंदौर, 19 मार्च, 2017 . दिल्ली से शुरुआत कर भोपाल में पत्रकारिता कर चुके और इन्दौर के पत्रकारिता जगत में बहुत कम समय में ही काफ़ी लोगों का प्यार और इज्जत हासिल कर लेनेवाले, भाषा पर अच्छी पकड़ रखनेवाले, देश दुनिया से लेकर शहर-मोहल्ले की दुरुस्त जानकारी रखनेवाले, पायनियर, डेकन क्रॉनिकल, हिन्दुस्तान टाइम्स आदि में अनेक वर्षों तक जनपक्षधर, हस्तक्षेपकारी पत्रकारिता करनेवाले पत्रकार सईद खान को विगत 13 मार्च को गुज़रे हुए एक साल पूरा हुआ। सईद की स्मृति को ज़िंदा रखने, यादों को ताज़ा रखने, खुशी-खुशी याद करने के लिए 19 मार्च 2017 को इन्दौर के प्रेस क्लब में ‘सईद की याद...सईद के सरोकार..: हमसईद’ कार्यक्रम आयोजित हुआ। इस कार्यक्रम का उद्देश्य कोरी श्रद्धान्जलि के स्थान पर सईद को ऐसे याद करना था कि उन सरोकारों को अपने भीतर फिर से जीवित महसूस करना जिन्होंने सईद को ईमानदार, विश्वसनीय एवं सबका चहेता बनाया। दुखद है कि आम लोगों के जीवन को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले सईद का 46-47 वर्ष की आयु में पिछले वर्ष कैंसर से जूझते हुए असमय निधन हुआ। जब सईद लिवर कैंसर से जीवन की लड़ाई लड़ रहे थे तब उनके चाहने वालों और दोस्तों ने ‘हमसईद’ सहायता समूह बनाया था।

सईद खान का परिचय देते हुए इन्दौर प्रेस क्लब के महासचिव नवनीत शुक्ला ने कहा- सईद, दोस्त, साथी पत्रकार ही नहीं हमारे लिए सलाहकार जैसे भी थे। हर हाल में किसी भी अवसर पर उनकी सलाहे हमें उबारती थीं, आगे बढने का हौसला देतीं थीं औऱ समृद्ध करतीं थीं। हमने तय किया है कि उनकी स्मृति में इंदौर प्रेस क्लब की ओर से हर वर्ष खोजी पत्रकारिता के लिए एक सम्मान दिया जाएगा। यह सम्मान प्रतिवर्ष प्रेस क्लब के वार्षिक समारोह में 9 अप्रैल को दिया जायेगा। पुरस्कार की राशि 11 हज़ार रुपये होगी।

सईद के भाई एवं पायनियर के पत्रकार रहे अकबर खान ने कहा- मैं इस दिन के लिए तैयार नहीं था। आप एक उम्र में आकर अपने बुज़ुर्गों के न रहने के लिए तैयार हो जाते हैं लेकिन सईद ऐसे बेवक़्त चला जाएगा, ये मैंने कभी नहीं सोचा था और आज तक भी  इस पर यक़ीन कर पाना मुश्किल होता है। कभी खयाल भी नहीं आया कि उसकी याद में ऐसे बोलने का दिन आयेगा। सईद और मैं भाई, दोस्त और जोड़ीदार थे। हमारे वालिद भी लेखक थे। मुम्बई में हमारे घर में उस वक़्त देश के सबसे बड़े पत्रकारों का आना जाना लगा रहता था।  बचपन से ही हम दोनों को शायद वहीं से पत्रकारिता के प्रति दिलचस्पी पैदा हुई होगी। खूब पढ़ने की हम लोगों को लत थी। सईद को हमारे वालिद से सीख मिली कि हमें आम भाषा में लिखना है, अपनी अंग्रेज़ी का प्रदर्शन करने के लिए नहीं। सईद पैदल खूब चलता था। वह सड़क से जुड़ा था। पैदल चलने के कारण सड़क के लोगों से उसका वास्ता था। वह उनके सरोकारों के बहुत करीब था। उसने तरक्की के बारे में कभी नहीं सोचा।लोग दिल्ली जाते हैं वह दिल्ली, भोपाल छोड़कर इन्दौर आ गया। उसके भीतर सरोकार इस तरह समा गये थे कि सरोकार ही सईद थे। उसके सरोकार में बच्चे, सड़क के लोग, पेड़, पानी ही थे। वह खुद को सड़क गड्ढों का, पेड़ पानी का पत्रकार कहता था। थोडे समय में ही इन्दौर और सईद एक ही हो गये थे। सईद अब हमारा ही नहीं रहा। वह आप सबका हो गया।

आदिवासी हकों, शिक्षा और पर्यावरण के मसलों पर काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता राहुल बनर्जी ने सईद के साथ अपने संस्मरणों के बीच में कहा- सईद खबरों की बाईलाईन में अपना नाम नहीं देता था। लेकिन पढ़कर सईद का लिखा हमेशा पहचान में आ जाता था। सईद प्रेरणाओं से भरा हुआ था। उसका व्यक्तित्व चाय के प्याले की अंतिम बूँद पीनेवाले व्यक्ति का था।  वो शहर के भीतर के ही नहीं बल्कि आसपास के ग्रामीण इलाकों में भी काम कर रहे लोगों को ढूंढता और उनके काम के महत्त्व को रेखांकित कर उन्हें नयी ऊर्जा और गौरव का भाव देता था। उन्होंने धार का एक किस्सा सुनाया कि किस तरह टवलाई में जहां हम आराम के लिए रुके, सईद ने वहां से नर्मदा बचाओ आंदोलन के उद्गम की कहानी निकाल ली और वो स्टोरी हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित हुई। 
दिल्ली से आये विभिन्न अखबारों एवं बीबीसी के लिए लिख रहे सामाजिक कार्यकर्ता एवं पत्रकार-संपादक संजीव माथुर ने कहा- हम  अपने आपको इंदौर स्कूल ऑफ़ जर्नलिज्म के विद्यार्थी कहते थे क्योंकि यहां राजेन्द्र माथुर जैसे अद्भुत पत्रकार हुए हैं। । हम कुछ पत्रकार साथियों ने इंदौर में स्टडी सर्कल एवं चर्चा-परिचर्चा का सिलसिला शुरू किया था जिसमे सईद भी हमेशा आते थे। हमने सईद में न केवल देखा बल्कि उनसे सीखा कि पत्रकारिता में प्रोफेशनली अपग्रेड रहते हुए कभी झुकना नहीं है। साथ ही हमारी विचारधारा का प्रभाव हमारी रिपोर्टिंग पर नहीं होना चाहिए। सईद जानते थे कि दमन के बीच टिके रहना बिना सरोकार और वैचारिकता के नहीं हो सकता। आज पत्रकारिता में संपादकीय मूल्य छीज रहे हैं, रिपोर्टिंग खत्म की जा रही है, डेस्क हावी हो रहा है ऐसे समय में भी सईद से ही यह मिसाल बनती है कि मेहनत और ईमानदारी के साथ ही रस्ते निकलते हैं।

'हमसईद' कार्यक्रम में यादों के गंभीर, वैचारिक सिलसिले में मार्मिक पड़ाव तब आया जब इंदौर के पूर्व नगर निगम आयुक्त और ज़िले के वर्तमान कलेक्टर नरहरि सभा में अचानक ही पहुंचे।  उन्हें जब सईद की याद में बोलने के लिए कहा गया तो उन्होंने कहा- सईद से मेरा दोस्ताना था। हम हमेशा संवाद में रहे। कभी सईद याद कर लेते तो कभी मैं। मैं 2004-05 में इंदौर से गया तो सईद यहीं रहे। मैं जब दुबारा कलेक्टर बनकर आ रहा था तो उम्मीद थी कि सईद से फिर संवाद रहेगा। मुझे बहुत दुख हुआ जब पता चला कि सईद लिवर कैंसर के इलाज के लये दिल्ली हैं। नरहरि जी ने कहा कि अपने सोलह साल के करियर में यह पहला कार्यक्रम है जिसमें मैं बिना बुलाये आया हूँ। मुझे समाचारों से पता चला तो मैं यहाँ आने से खुद को रोक नहीं पाया। सईद जैसे पत्रकार निस्वार्थ पत्रकार होते हैं। हमें ऐसे कार्यक्रम तो करने ही चाहिए साथ ही यह भी होना चाहिए कि जब ऐसे लोग जीवित हों तो उनको साथ और सच्चे सहयोग मिले।

नईदुनिया, इंदौर में उपसंपादक और सईद के करीबी रहे पत्रकार अभय नेमा ने अनेक किस्से याद करते हुए कहा- सईद ने जान बूझकर गाड़ी नहीं ली थी। वे चाहते तो गाड़ी गिफ्ट में ही मिल जाती लेकिन उन्होने अपनी ईमानदारी से कभी समझौता नहीं किया। निर्भीक पत्रकारिता की, कमज़ोर लोगों का हमेशा खयाल रखा। वे हमेशा घूमते रहते थे, लोगों से बातचीत कर करके खबरें निकालते थे। जब ट्रेजर आईलैंड बन रहा था तो सईद एक दिन ऊपरे माले पर पहुँच गये। यों ही बात चीत शुरू कर दी और तब उन्हें पता लगा यह माला अवैध है। इसके बाद उन्होंने कई स्टोरी कीं और बिल्कुल नहीं झुके न ही कोई प्रलोभन स्वीकार किया। सईद अपनी ऐसी सफलताओं की कभी डींग नहीं हाँकते थे। वे किसी को डरा देने, दवाब में ले लेने के किस्से सुनानेवाले पत्रकार नहीं थे। उनकी कमी ने आज इंदौर की पत्रकारिता में बड़ी कमी उपस्थित कर दी है। देश भर में पत्रकारिता अब सेल्फी जर्नलिज्म और संबंधाश्रित होती जा रही है, ऐसे में सईद जैसे लोग पत्रकार साथियों के लिए भी आइना दिखाते थे।

इंदौर में कई वर्षों से रह रहे व्यापारी और सईद के अभिन्न मित्र फ़िलिस्तीनी मूल के आमिर खान ने कहा - वह बहुत अच्छा दोस्त था। उससे मेरी दोस्ती फुटपाथ पर हुई थी। वह इंदौर को इंदौर के लोगों से बेहतर ही नहीं जानता था बल्कि फिलिस्तीन को भी मुझसे बेहतर जानता था। मैं समझता हूँ वह पत्रकारिता में और जीवन में बड़ा रिसर्च करनेवाली शख्सियत थी।

अर्थशास्त्री और सामाजिक कार्यकर्ता जया मेहता ने कहा कि मुझे सईद का काम, उनके लिखने की शैली पसंद थी। मैं चाहती थी कि सईद मेरे साथ काम करे। मैं तो अपनी मार्क्सवादी पहचान हमेशा ज़ाहिर करती हूँ तो वे कहते कि मैं तो मार्क्सवादी नहीं हूँ तो फिर कैसे काम होगा। सईद मुझसे कहते थे मैं राजनीतिक नहीं हूँ लेकिन उनके इंकार के बावजूद मैं उनके काम में अपनी पॉलिटिक्स का रिफ्लैक्शन देखती थी। वे अपने काम से मेरी राजनीति के काफी नज़दीक थे। सईद को अपने काम में छोटी-छोटी चीज़ों को अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य के साथ रखने में महारथ हासिल थी। सईद का महिलाओं के संघर्ष के प्रति बहुत रूचि और सम्मान था। वे हर महिला दिवस पर महिला फेडरेशन की महासचिव सारिका को फोन करके बधाई देते थे और हमसे कुछ न कुछ जानने की इच्छा रखते थे कि पिछले वर्ष भर में कामकाजी महिलाओं के क्या संघर्ष हुए और आगे क्या योजनाएं हैं। शाहबानो के केस में सईद ने बड़ी मार्मिकता और प्रतिबद्धता के साथ लिखा। उसे ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए। हम सईद को इसलिए याद कर रहे हैं क्योंकि जब व्यक्ति चला जाता है तो उसकी यादें भी हमें ज़िदा रखती हैं। आज मेनस्ट्रीम मीडिया में अल्टरनेटिव जर्नलिज्म को जगह नहीं है लेकिन हमें ब्रेख्त की बात याद रखनी चाहिए जो वे ड्रामा के विषय में कहते हैं। ब्रेख्त ने कहा है ड्रामा केवल एक्टर से नहीं बनता। बल्कि ड्रामा पूरा होता है अपने एक्टर और आडिएंस से। यही बात पत्रकारिता पर भी लागू होती है। मैं अभी सोशल मीडिया की समस्या पर बात नहीं करूँगी केवल इतना कहूँगी कि रीडरशिप का अधिकार भी पत्रकारिता को सुधार सकता है। रीडरशिप का अधिकार बहुत महत्वपूर्ण होता है। 

प्रेस क्लब के सभागार में सईद की अनेक तस्वीरें लगी थीं। एक तस्वीर में सईद की उँगलियों में फंस हुआ सिगार भी है। उस ओर इशारा करके जया ने सईद की जिंदादिली से जुड़ा एक संस्मरण भी सुनाया। उन्होंने बताया- मैं जब पहली बार २० साल पहले क्यूबा गयी थी तो सिगार का एक डिब्बा लेकर आई थी। घर में कोई स्मोकर न होने से वो पड़ा रहा और सालों बाद फिर एक दिन सामान इधर-उधर करने, सहेजने के दौरान वह डिब्बा मिल गया। बीस साल बाद क्यूबाई सिगार का वह डिब्बा अचानक मिला तो हम सब दोस्तों ने उसे उत्सव की तरह मनाने को सोचा। दफ्तर से छूटकर रात में करीब 12 - 1 बजे सईद भी मेरे घर आ गए। सिगार पुराने हो जाने से सूख गए थे और जल नहीं पा रहे थे तो सबने सोचा कि कम से कम थोड़ी देर के लिए अपने आपको फिदेल कास्त्रो और चे गुवेरा समझ जाए। सबने बारी-बारी से सिगार को मुंह में लगाया। सब खुद को फिदेल और चेग्वेरा समझते रहे और खुश होते रहे। तब सईद ने उसे वैसे ही मुंह में लगाकर सारिका से तस्वीरें खिंचाई जो यहाँ अभी लगी हैं। 

कवि एवं सामाजिक कार्यकर्ता विनीत तिवारी ने सईद को बड़ी शिद्दत से याद करते हुए कहा- सईद के यों तो अनगिन किस्से हैं। सईद का व्यक्तित्व बड़ा उबड़ खाबड़ लेकिन हरफनमौला था। वह क्रांतिकारिता, ईमानदारी को अलग नहीं मानता था बल्कि इंसानियत में ही क्रांतिकारिता को देखता था। वह जो भी कहता था विनम्रता, ईमानदारी और सरोकार के साथ कहता था। सईद को याद करने का मतलब है खुद को बेहतर इंसान बनाना, सरोकारों के प्रति पूरी मेहनत से समर्पित रहना। मैं आज खुद को बेहतर इन्सान महसूस कर रहा हूँ। वह अपनी पत्रकारिता को सड़क के गड्ढे से खेती तक लेकर आया। वो हम लोगों से खेती के बारे में जानना समझना चाहता था की किस तरह गाँवों में आजीविका का भीषण संकट फैला हुआ है और उसका सही सही कारण क्या है। 

हम सईद को आज इस तरह उसके अपनों, उसके काम के साथ याद करते हुए कपङे साथ उसे ज़िंदा महसूस कर रहे हैं। कह सकते हैं सईद अगर ज़िंदा होता तो उसके जैसे और लोग हमारे साथ आते, सामूहिकता और सांगठनिकता से बेहतर पत्रकारिता की अनेक मिसालें बनतीं और नए पत्रकारों के लिए  प्रेरणा बनती। हमसईद के ज़रिये हम यही करने की कोशिश करेंगे और इस तरह सईद को अपने साथ ज़िंदा रखेंगे। उन्होंने कलेक्टर महोदय को भी कहा कि अब आप भी अपने आपको हमसईद का हिस्सा समझें।

सईद बहुत स्वाभिमानी था और वो किसी भी तरह किसी लालच या दबाव में नहीं आता। था  ऐसा जीवन जीने से आप में एक गौरव भाव आता है। सईद कैंसर से भी घबराया नहीं और आखिर  वो गया भी तो अपने सम्मान के साथ। सईद शादीशुदा नहीं थे। सईद ने स्वयं विवाह नहीं किया था। अकबर का परिवार और उसके दोस्त ही उसका परिवार था। उसकी जान उनकी अपनी भतीजियों महक, निदा और ज़ोया में बसती थी।  बच्चियां सईद को सईदसईद कहती थीं और बदले में सईद भी उनका दो बार नाम  लेते थे। अपने प्यारे सईद सईद के बारे में सुनकर और उनकी तस्वीरें देखकर बार बार उनकी आँखों में आँसू छलक आ रहे थे। लेकिन सईदसईद को तस्वीरों में मुस्कुराता देखकर वो अपने आँसू पोंछ लेती थीं और मुस्कुराने लगतीं थीं।


जया मेहता ने एक दिन पहले ही दिवंगत हुईं भारती जोशी को भी याद किया। उन्होंने कहा भारती जी बहुत अच्छी शिक्षिका थीं। वे बहुत अच्छा पढ़ाती थीं और बोलती थीं। भारती जी की आवाज़ बहुत अच्छी थी। उन्होंने बहुत अच्छे नाटक भी बनाये थे। सभा में उपस्थित लोगों ने दो मिनट का मौन रखकर उनके प्रति भी अपनी श्रद्धांजलि और प्रेम प्रकट किया।

इस अवसर पर बड़ी संख्या में पत्रकार, साहित्यकार, स्वजन एवं अलग अलग क्षेत्रों की शख्सियतें उपस्थित रहीं। उपस्थित लोगों में प्रमुख रूप से भोपाल से आईं सईद की भाभी फौज़िया, प्रेस क्लब इंदौर के अध्यक्ष अरविन्द तिवारी, पूर्व अध्यक्ष प्रवीण खारीवाल, अजय लागू, सुलभा  लागू, सारिका श्रीवास्तव, रुद्रपाल यादव, प्रमोद बागड़ी, संजय वर्मा, कैलाश गोठानिया, कल्पना मेहता, कविता जड़िया, अनुराधा तिवारी, हसन भाई, जावेद आलम आदि उपस्थित थे। प्रलेसं, इप्टा, सन्दर्भ, रूपांकन, इन्दौर प्रेस क्लब एवं मेहनतकश के संयुक्त तत्वावधान में संपन्न हुए इस कार्यक्रम में रूपांकन इंदौर की  ओर से अशोक दुबे द्वारा पत्रकारिता पर केंद्रित पोस्टर प्रदर्शनी भी लगायी गयी। इस कार्यक्रम का संचालन विनीत तिवारी ने किया।

Tuesday, March 21, 2017

IPTA national committee condemns the attack on professor Chauthi Ram Yadav

IPTA national committee condemns the attack on professor Chauthi Ram Yadav at Bareilly college at Bareilly and registration of fake case against him.Rakesh GenerYal,Secretary of IPTA said that this attack is in continuation of attacks on freedom of expression and on autonomous institutions.He has called upon all IPTA units to resist such forces with democratic means and has expressed his solidarity with Prof.Chauthi Ram Yadav.

Rakesh,General Secretary

Friday, March 17, 2017

बिस्मिल्ला खान संगीत की दुनिया में कबीर की परंपरा को निभा रहे थे

-अग्निशेखर
हान शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला खान की गायन शैली की केंद्रीय संम्वेदना को अपनी बारीकियों और जटिलताओं के साथ सुपरिचित चित्रकार वीरजी सुम्बली की पेंटिंग देखकर आज एक साथ कई बातें याद हो आईं।

उस्ताद बिस्मिल्ला खान देहावसान से कुछ समय पूर्व जम्मू आए थे ।यहाँ जम्मू -कश्मीर की कला,संस्कृति और भाषा अकादेमी के ' अभिनव थियेटर ' में जम्मू विश्वविद्यालय, अकादमी और स्पिक-मैके (Spic-Macay) का संयुक्त आयोजन था।इसके बाद उस्ताद बिस्मिल्ला खान जी का श्रीनगर में भी शहनाई वादन हुआ था ।

उनके शहनाई वादन की एक अविस्मरणीय शाम उनके प्रशंसकों के लिए जीवन - उपलब्धि से कम नहीं ।

क्या अद्भुत् शहनाई वादन था उस्ताद बिस्मिल्ला खान का उस दिन!मुझे गंगा घाट पर बजाई उनकी शहनाई की बार बार याद आती रही।

तब मैं उनके निवास पर उनके दर्शन करने गया था और मुझे किसी ने बताया कि उनका गंगा घाट पर कार्यक्रम था । फिर भी उनके घर की एक झलक देख लौटते हुए लगा कि तीर्थ यात्रा की है और उस पुण्य का फल सीधे गंगा घाट पर मिला।उन्हें सुनकर।

ठीक उसी तरह जम्मू में उनके शहनाई वादन को सुनने के दौरान मिले भावातीत आनंद की वो अनुभूतिीं भी दिलों दिमाग पर छपी सी है ।

उनकी शहनाई के दीवानों से भरे 'अभिनव थिएटर' के सभागार में मंच पर उनकी गरिमामय उपस्थिति का आतंक और हर्ष आह्लादकारी तो था ही , उनकी शहनाई से निःसृत अठखेली करती राग-रागिनियों की हवा में उठती अदीख अगरबत्ती की सर्पिल रेखाएँ किसी समाधि -सुख से कम न थीं ।

मैंने कालेज के दिनों से ही उनके कैसेट्स खरीदना,उधार मांगकर सुनना शुरू किया था। भरपूर सुना है उनको।कभी तृषा बुझी नहीं ।

1990 में मातृभूमि से मिली जलावतनी से पूर्व मैंने उस्ताद बिस्मिल्ला खान के शहनाई वादन को सुनकर एक बार घुप्प रात में खिड़की से आँगन पार के चिनार की फुनगी पर कार्तिक की पूनम के खिले चाँद को देखा ।

कुछ देर मंत्रमुग्ध रहने के बाद मैंने एक निर्वैयक्तिक क्षण में "उस्ताद बिस्मिल्ला खान को सुनते हुए " शीर्षक से दो कविताएँ लिखीं थीं ।

दूसरे दिन रेडियो कश्मीर, श्रीनगर जाकर प्रसिद्ध संतूर वादक और संगीतकार पं.भजन सोपोरी और कवि मोहन निराश को ये दोनों कविताएँ सुनाई थीं ।

कविताएँ सराहने के बाद मुझे याद है कि दोनों अधिकारी विद्वानों ने उस्ताद बिस्मिल्ला खान के वादन पर बात बात में कितनी महत्त्वपूर्ण चर्चा की थी। तब मुझे भी उनकी कई बारीकियों का ज्ञान हुआ था।

जम्मू के उस ऐतिहासिक कंसर्ट से पूर्व उस्ताद बिस्मिल्ला खान जी के चेहरे पर हाॅल में बिजली गुल हो जाने और बारबार साउंड-सिस्टम खराब होते रहने से खीझ और अवसाद के भाव देखकर हमें ग्लानि और खेद हो रहा था। बजाने से पूर्व कलाकार का मूड उखड़ जाने की आहट चिंताजनक थी।

उस समय मंच-संचालक ने समारोह के मुख्य अतिथि राज्य सरकार के एक मंत्री तथा जम्मू विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति प्रो.अमिताभ मट्टू दोनों को उस्ताद बिस्मिल्ला खान और उनके सहवादक कलाकारों के सम्मान के लिए मंच पर आमंत्रित किया था । दोनों अतिथि कलाकार के सामने पहुँचे ही थे कि सभागार का साउंड सिस्टम एक बार घनघोर शोर करता हुआ खामोश हो गया।

सभी लोग स्तब्ध हुए और छूटते ही शहनाई के कोमल सुरों के चक्रवर्ती सम्राट की अकस्मात् दहाड से कुलपति और मंत्री घबरा कर दो कदण पीछे को हट गये।उस्ताद बिस्मिल्ला खान के इस अप्रत्याशित रौद्र से सहम गये कुलपति महोदय के चेहरे पर हवाइयां उड़ गयी थीं।

उस्ताद बिस्मिल्ला खान हवा में हाथ हिलाते हुए जोर से झल्लाये थे-"अररे ! लआनत है तुम पर ! यह क्या माजरा है! "

उनसे डरे और शर्मिन्दा स्वर में क्षमा याचना की गयी ।साउंड सिस्टम हाथ के हाथ ठीक किया गया ।उनका सम्मान किया गया ।उनका मन चूँकि उखड़ गया था ।इसलिए किसीको उनसे बेहतर प्रस्तुति की आशा न रही ।

लेकिन वह नैसर्गिक कलाकार थे और थे आशुतोष ।पल में तोला पल में माशा। कुछ ही पल में हमें अपने साथ बहा ले गये थे अबूझ आनंदालोक में ।

और जब एक दिन उनके देहावसान की खबर आई तो संसार सकते में आ गया था ।मैं अपने कमरे में एक कोने से दूसरे कोने तक टहलता रहा।देर तक।

मैंने दुखी मन से कवि केदारनाथ सिंह को फोन लगाया । वह भी उनकी मृत्यु से सदमे में थे।
हमने देर तक अपना दुख साझा किया ।कई संस्मरण उन्होंने सुनाए मुझे ।

मैंने केदार जी से कहा, " बिस्मिल्ला खान जी संगीत की दुनिया में कबीर की परंपरा को निभा रहे थे।"

केदार जी ने हामी भरी थी ।
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गोली-लाठी चला लो लेकिन विचार को नहीं मार पाओगे

प्रस्तुति- शशिभूषण
12 मार्च 2017 को इंदौर स्थित देवी अहिल्या केंद्रीय पुस्तकालय के अध्ययन कक्ष में प्रगतिशील लेखक संघ, इंदौर इकाई द्वारा एक बैठक आयोजित की गई।
इस बैठक में प्रलेसं के प्रांतीय महासचिव, कवि एवं सामाजिक कार्यकर्ता विनीत तिवारी ने हाल ही में मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के 11 सदस्यीय प्रतिनिधि मंडल के साथ शहीद लेखकों डॉ नरेंद्र दाभोलकर, कॉ गोविन्द पानसरे और एम एम कलबुर्गी के गृह नगरों क्रमशः सतारा, कोल्हापुर और धारवाड़ की अपनी यात्रा के संस्मरण सुनाए। इस यात्रा का उद्देश्य लेखकों की शहादत के प्रति अपना सम्मान प्रकट करना, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता ज़ाहिर करना एवं शहीद लेखकों के परिजनों के प्रति एकजुटता जताना तथा इस संकल्प का प्रसार करना था कि तर्कशीलता और विचारों की अभिव्यक्ति की आज़ादी का संघर्ष जारी रहेगा।
लेखकों के प्रतिनिधिमंडल में मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष और 'प्रगतिशील वसुधा' पत्रिका के संपादक श्री राजेन्द्र शर्मा (कवि) तथा महासचिव श्री विनीत तिवारी (कवि-नाटककार और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता) के साथ अध्यक्ष मंडल के सदस्य सर्व श्री हरिओम राजोरिया (कवि-नाटककार), प्रान्तीय सचिव मंडल सदस्य और वरिष्ठ कवि श्री बाबूलाल दाहिया, श्री शिवशंकर मिश्र 'सरस', तरुण गुहा नियोगी, सुश्री सुसंस्कृति परिहार, वरिष्ठ लेखक और पत्रकार श्री हरनाम सिंह, कहानीकार श्री दिनेश भट्ट, नाट्य निर्देशिका और अभिनेत्री सुश्री सीमा राजोरिया, तथा 'समय के साखी' पत्रिका की संपादक और कवयित्री सुश्री आरती शामिल थे। ये लेखक प्रदेश के भोपाल, इंदौर, अशोकनगर, मंदसौर,सतना,सीधी, जबलपुर, छिंदवाड़ा और दमोह शहरों से आते हैं।
विनीत तिवारी ने अपने वक्तव्य में महाराष्ट्र, कर्नाटक और गोआ के अनुभवों को विस्तार से साझा किया। शहीद लेखकों के परिजनों से भेंट, फ़िल्म संस्थान के अनुभव एवं गोवा के संस्मरण तथा प्रेस कॉन्फ्रेंस आदि के अनुभव बांटे।
विनीत तिवारी ने बताया- आज सबसे अधिक ख़तरा और पहला हमला विचारकों, शिक्षकों एवं लेखकों पर ही है। एक समय था जब बुद्धिजीवियों का लिहाज़ होता था और बुरी से बुरी परिस्थिति में भी शिक्षकों, लेखकों पर हमला नहीं होता था। लेकिन आज हालात बिलकुल उलटे हैं। विगत वर्षों में मारे गए तीनों शहीद लेखक सत्तर और 80 वर्ष की आयु के वरिष्ठ विचारक ही थे। उनके सिरों में ही गोली मारकर यह स्पष्ट संकेत दिया गया कि हत्यारे, विचारों के ही हंता हैं। चरमपंथियों के निशाने पर प्रगतिशील विचार ही हैं।
विनीत तिवारी ने पुणे फ़िल्म संस्थान के और पुणे प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा साधना मीडिया सेंटर में हुई पुणे के प्रखर बौद्धिक विचारवंतों के साथ हुई सभा के संस्मरण भी सुनाए। उसके अतीत एवं गौरव पूर्ण उपलब्धियों से परिचय कराया। प्रख्यात संगीतज्ञ विदुर महाजन, अपर्णा महाजन, मैत्रबन, क्रांति कानाडे, ईशा, शांता रानाडे, राधिका इंग्ले, रूचि भल्ला, लता भिसे, माओ, मिलिंद, एस. पी. शुक्ला, अमित नारकर, दीपक मस्के, लतिका जाधव, नीरज, जहाँआरा, अहमद, नाची मुत्थु, राकेश शुक्ल, आदि से मुलाक़ात के किस्से सुनाए। फ़िल्म निर्माण तकनीकि में काम आनेवाली पुरानी सामग्री के चित्र और पूरी यात्रा के दौरान के अनेक चित्र दिखाये।
विनीत ने बताया कि पुणे से सबसे पहले हम लोग डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की पत्नी डॉ. शैला दाभोलकर और बेटे डॉ. हमीद दाभोलकर से मिलने सतारा पहुंचे। वहां अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के काम और अभियान को जाना। आत्मीय बातचीत में डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की पत्नी का अनुभव सुनना संकल्प से भर गया। उन्होंने कहा- मुझे लगता ही नहीं कि नरेंद्र अब नहीं हैं। मैं कुछ भी करने जाऊं तो मन में उन्हीं से पूछ लेती हूँ। उन्होंने बताया कि दशकों तक संघर्ष के बाद आखिर महाराष्ट्र सरकार को ओझा, टोने-टोटके करने वालों के खिलाफ कानून बनाना ही पड़ा। डॉ. दाभोलकर की मृत्यु को 4 वर्ष होने वाले हैं। आंदोलन बढ़ रहा है लेकिन सरकारें धीमे-धीमे काम कर रही हैं। नहीं भूलना चाहिए तीनों शहीद लेखकों के हत्यारे अब तक पकड़े नहीं गए हैं।
विनीत तिवारी ने साहित्य अकादमी सम्मान लौटाने वाले लेखक और एम एम कलबुर्गी के लिए धारवाड़ में न्याय की लड़ाई लड़ रहे लेखक पद्मश्री गणेश देवी के प्रयासों और दक्षिणायन संगठन के बारे में बताया। गणेश देवी अब गुजरात से धारवाड़ आकर रहने लगे हैं और कन्नड़ के लेखकों और अकादमिक विद्वानों को कलबुर्गी के लिए न्याय की मांग के लिए निर्भय होकर लामबंद कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि कलबुर्गी विशुद्ध लेखक थे। उन्होंने 120 से ज़्यादा दर्शन और इतिहास विषयक ग्रन्थ लिखे थे। उनके साथ उनके लिए लड़ी जा रही लड़ाई में यदि लेखक शामिल न हुए तो कौन शामिल होगा? कलबुर्गी ने अकेले इतना वैचारिक लेखन किया है जितना कर्नाटक में शताब्दियों में नहीं लिखा गया है। कलबुर्गी का कमरा अब पूरी तरह उनकी तस्वीर एवं पुस्तकों के साथ एक लेखक के स्मृति कक्ष के रूप में उपस्थित है। धारवाड़ में प्रतिनिधिमंडल ने प्रो. कलबुर्गी के परिजनों, उनकी पत्नी उमादेवी, प्रो. गणेश देवी, प्रो. सुलेखा देवी, विख्यात सामाजिक आंदोलनकारी एस.आर. हीरेमठ और कर्नाटक के विभिन्न हिस्सों से आये 40 कन्नड़ लेखकों से मुलाक़ात की।
कोल्हापुर में गोविन्द पानसरे ने बड़ी संख्या में अलग-अलग संगठन बनाये। उन्होंने जब किसी की तक़लीफ़ जानी तो उस तरह की तक़लीफ़ में पड़े अन्य लोगों को भी खोजा और उन्हें संगठित किया। पानसरे ने अपने संगठन के लोगों के सामने लक्ष्य रखा कि आप लोग उन सामाजिक कार्यकर्ताओं को ढूंढकर उनकी जीवनी परक कम से कम 80 किताबें छापें जो बिना प्रसिद्ध हुए ख़ामोशी से काम करते रहते हैं। यह काम हुआ और कॉमरेड पानसरे ने स्वयं शिवाजी सहित बहुत से विषयों पर आँख खोल देनेवाली, सरकारों को असुविधा पैदा करनेवाली किताबें लिखीं।
विनीत तिवारी ने कोल्हापुर में पानसरे की याद में प्रातः होनेवाली निर्भय यात्रा का भी हाल सुनाया कि किस तरह हम लगभग 200 लोग सुबह इस ऐलान के साथ टहलने निकले कि हम डरे हुए नहीं हैं। हमारी लड़ाई जारी है। हम बच-बचाकर नहीं, बल्कि पूरे मन से और समर्पण के साथ एकजुटता में संलग्न है और किसी भी खतरे के लिए तैयार हैं। लोग गीत गाते चले कि"गोल्या लठ्या घाला, विचार नहीं मरणार" (गोली लाठी चला लो लेकिन विचार को नहीं मार पाओगे।)। कोल्हापुर में पानसरे जी का प्रभाव हज़ारों लोगों पर है और वहां उनकी पत्नी उमा पानसरे, बहू मेघा पानसरे, पोते मल्हार और कबीर के साथ ही उनके चाहने वाले हज़ारों लोगों से बहुत ही आत्मीय अभिनन्दन हमें प्राप्त हुआ।
उन्होंने बताया कि गोवा की यात्रा कई मायने में अविस्मरणीय एवं दूरगामी प्रभाव डालनेवाली रही। गोवा में प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान पत्रकारों लेखकों की उपस्थिति उनके सवालों एवं सहयोग आदि ने आश्वस्त किया।
इसी बीच सरकार द्वारा कोल्हापुर में दिए एक नोटिस का ज़िक्र भी आया जिसमें कहा गया था कि आप लोग मीटिंग में किसी का भी नाम नहीं लेंगे और किसी की निंदा नहीं करेंगे वर्ना आप लोगों को गिरफ्तार कर लिया जायेगा। तब पत्रकार निखिल वागले ने अपने वक्तव्य की शुरुआत ही यह कहकर की कि जिन्होंने हत्या की आप उन्हें पकड़ नहीं रहे उलटे आप हमें ही कह रहे हैं कि हम उनकी आलोचना न करें उनके ख़िलाफ़ आवाज़ न उठाएं। यह ठीक नहीं। हम संघर्ष नहीं छोड़ सकते। आप लोग हमें डराने की बजाय अपना काम कीजिये। इसके बाद देखा यह गया कि जो पुलिसकर्मी, अधिकारी ग़ुस्से में थे इत्मीनान से बैठ गए और ध्यान से सुनने लगे।
कुलमिलाकर विनीत ने इस बात से अपने वक्तव्य का उपसंहार किया कि आज हर स्वतंत्र सोचने विचारने वाले व्यक्ति के लिए एकजुटता, संलग्नता और संघर्ष ज़रूरी हैं। इस यात्रा के संस्मरणों के प्रकाशन को जल्द ही परिणति दी जायेगी एवं फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ निडर लेखन करनेवाले इन तीनों लेखकों की विचार पुस्तकों को हिंदी में भी अधिकाधिक पाठकों तक पहुंचाया जाएगा। ध्यान रहे, लेखकों के लिए देशाटन आवश्यक इसीलिए बताया गया है ताकि लेखक के अनुभव का दायरा बढ़े। हमने इस यात्रा को सोद्देश्य बनाया और अन्य भाषा-भाषी समाज से सीखा-जाना, उनसे जुड़े, उन्हें जोड़ा और जहाँ ज़रूरत हो वहां खड़े होने की निडरता लेकर लौटे। इस यात्रा के दौरान प्रत्येक दिन हमारे सत्तर साला साथियों ने भी युवाओं के उत्साह और सक्रियता का परिचय दिया। हमने इस यात्रा में बहसें की, योजनाएं बनायीं, वास्तविक अमल की रुपरेखा तैयार की और सभी साथियों को यह भी काफी ऊर्जा देने वाला और एक दूसरे को समृद्ध करने वाला अनुभव लगा। हमारे समूह में तीन महिला साथी भी थीं। उनकी सक्रिय भागीदारी पूरी यात्रा में रही।
बैठक के अंत में विनीत तिवारी ने हाल ही में गिरफ़्तार किये गए पत्रकार - संपादक दीपक 'असीम' के मामले से लोगों को अवगत करवाया कि किस तरह ओशो के एक लेख के पुनर्मुद्रण पर उनके खिलाफ कार्रवाई की गयी। ये समाज में विरोधी विचार के प्रति कम होती सहनशीलता की प्रवृत्ति को दर्शाता है। इसके लिए हमें निर्भय होकर जनता से अपने विचार साझा करने होंगे और तर्कशील स्वस्थ बहस का वातावरण बनाना होगा।
बैठक में अन्य लोगों ने भी विचार व्यक्त किये। उपस्थित लोगों में ब्रजेश कानूनगो, अभय नेमा, सुलभा लागू, डॉ. कामना शर्मा, शशिभूषण, तौफ़ीक़, प्रशांत, रामासरे पाण्डे, अजय लागू, आदि प्रमुख थे।

Friday, March 3, 2017

“मैं औरत हूँ ” का 8 मार्च, अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर मंचन

8 मार्च, 2017 यानी अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर रंग चिन्तक मंजुल भारद्वाज द्वारा लिखित और निर्देशित नाटक “मैं औरत हूँ !” का मंचन दोपहर 4 बजे होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एजुकेशन के  मानखुर्द स्थिति ऑडिटोरियम में होगा.

नाटक – “मैं औरत हूँ !” – अपने होने , उसको स्वीकारने और अपने ‘अस्तित्व’ को विभिन्न रूपों में खंगोलने,अन्वेषित करने की यात्रा है . नाटक ‘मैं औरत हूँ!’ पितृसत्तात्मक भारतीय समाज की सोच , बधनों , परम्पराओं , मान्यताओं को सिरे से नकारता है और उससे खुली चुनौती देकर अपने ‘स्वतंत्र मानवीय अस्तित्व’ को स्वीकारता है . नाटक महिला को पुरुष की बराबरी के आईने में नहीं देखता अपितु ‘नारी’ के अपने ‘स्वतंत्र मानवीय अस्तित्व’ को रेखांकित और अधोरेखित करता है .

ये नाटक ‘कलाकार और दर्शकों’ के लिए आत्म मुक्तता का माध्यम है . नाटक में अभिनय करते हुए ‘जेंडर समानता’ की संवेदनशीलता से कलाकार रूबरू होतें हैं और नाटक देखते हुए ‘दर्शक’ ‘जेंडर बायस’ से मुक्त होते हैं . नाटक ‘मैं औरत हूँ’ कलाकार और दर्शक पर अद्धभुत प्रभाव छोड़ता है . ‘नारी’ मुक्ति का बिगुल बजा उसे अपने ‘अधिकार’ के लिए संघर्ष करने को प्रेरित कर ‘सक्षम’ करता है . इस नाटक की लेखन शैली अनोखी है . ‘नारी विमर्श’ पर लिखे इस नाटक को एक कलाकार भी परफ़ॉर्मर कर सकती है / सकता है और अनेक कलाकार भी .. इस नाटक की ‘हिंदी’ के अलावा अलग –अलग भाषाओँ में देश भर में हजारों प्रस्तुतियां हो चुकी हैं और निरंतर हो रही हैं ...

8 मार्च को होने वाली इस  प्रस्तुति में अश्विनी नांदेडकर,सायली पावसकर और कोमल खामकर अपनी ‘अभिनय’ प्रतिभा से नारी विमर्श को एक नया आयाम देगीं !

Loka Manthan – a folk band of the IPTA

GUWAHATI, March 2 - Loka Manthan – a folk band of the Indian Peoples’ Theatre Association (IPTA) – with the objective of promoting the State’s multi-hued folk culture will stage its maiden show at Rabindra Bhawan at 4 pm and 6.15 pm on March 6.


Addressing a press conference, Nayan Prasad, convener, Loka Manthan, and noted singers Sudakshina Sarma and Tarali Sarma, today said that Loka Manthan would proceed with a vision and carry the message of peace and brotherhood, besides striving to promote and popularise folk songs, folk dance forms, folk instruments and folk culture in general among the masses, especially the youths.

“Loka Manthan will be a permanent and professional body that will endeavour to maintain the purity and uniqueness of Assamese folk culture in its myriad forms. We will promote our folk culture across the country and abroad,” the artistes said.

Sadou Asom Bihu Sanmilani Samannayrakshi Samiti and Sadou Guwahati Bihu Sanmilani have welcomed the initiative and assured Loka Manthan of all possible assistance.

-The Assam Tribune

आगरा : रंग ए सुलहकुल का आगाज़

गरा, 03 मार्च. आज रंग ए सुलहकुल का आगाज़ हो गया। आगरा की तहज़ीब की खुशबू हवा में लिए शिव वंदना पर शुरू हुए समारोह की शुरुआत हुई तो  मैकश की नज़्म और उनकी शायरी पर थिरकते नन्हे कदम आगरा की सुलहकुल संस्कृति की गवाही दे रहे थे।समारोह का उदघाटन प्रसिद्ध लेखिका नूर ज़हीर और भावना जितेंद्र रघुवंशी जी ने सुलह का दिया जला कर किया और यादगारे आगरा के सरपरस्त सैय्यद अजमल अली शाह और सोम ठाकुर जी ने रंग ए सुलहकुल के बैनर से परदा खींच 6 दिवसीय कार्यक्रम के आगाज़ की घोषणा की ।

समारोह में विशिष्ठ अतिथि के तौर पर बृज हेरिटेज कजंर्वेशन सोसाइटी के अध्यक्ष श्री सुरेन्द्र शर्मा जी उपस्थित थे। कार्यक्रम की शुरुआत नृत्य ज्योति कत्थक केंद्र के कलाकारों ने श्रीमती ज्योति खंडेलवाल के निर्देशन और विशाल झा जी के समन्वयन में शिव वंदना प्रस्तुत की। अल्लामा मैकश का आगरा और  उनकी शायरी पर डॉ नसरीन बेगम और कलाम अहमद साब ने आने विचार व्यक्त करते हुए मैकश के मानवता के प्रति प्रेम और आगरा में अदब के जरिये उसको फ़ैलाने के लिए प्रयासों पर प्रकाश डाला। प्रसिद्ध लेखिका नूर ज़हीर ने सुलहकुल के इस प्रयास को एक आज के समय की जरूरत बताया और कहा कि यही वो विचार है जो पूरी दुनिया को एक साथ ला सकता है ताकि मोहब्बतें बनी रहें।

श्रीमती भावना रघुवंशी ने अपने उदबोधन में कहा कि आदरणीय रघुवंशी जी के व्यक्त्तिव्य में सबको साथ रखने का जो जज़्बा था वो सुलहकुल की पहचान कराता है।यह प्रयास  उनके काम को आगे ले जाएगा। प्रसिद्ध कवि सोम ठाकुर जी ने इस प्रयास को अनूठी पहल बताया एड. अमीर अहमद  ने इस् सत्र का सञ्चालन करते हुए मैकश की शायरी को सुलहकुल परंम्परा का प्रतीक बताया । सांस्कृतिक सत्र में मैकश की ग़ज़ल पर प्रेरणा चौहान द्वारा गायी गई और तबले पर संगत भानु प्रताप सिंह पर नृत्य ज्योति कत्थक केंद्र के कलाकारों ने शानदार नृत्य द्वारा मन मोह लिया ।इस सत्र का संचालन विशाल रियाज़ ने किया ।

समारोह  की अध्यक्षता कर सैयद अजमल अली शाह साब ने इसे इंसानियत का पहला कर्तव्य बताया और कहा कि ये आने वाली पीढ़ी को आगरा की सुलहकुल परम्परा से परिचित करायेगा । रंग ए सुलहकुल के समन्वयक डॉ विजय शर्मा ने इस सामूहिक प्रयास और इसकी आज की जरुरत बताते हुए कहा कि ये हम सब को साथ रहने की ताकत और समझ देगा। कार्यक्रम में सभी अतिथियों को आगरा के संगमरमर के काम से बना एक प्रतीक चिन्ह दिया गया और कलाकारों का प्रशस्ति पत्र देकर सम्मान किया गया ।

 कार्यक्रम में डॉ ज्योत्स्ना रघुवंशी जी ने जितेंद्र जी के के काम पर बातचीत की। बृज खंडेलवाल, अनिल शुक्ला, डॉ शशि तिवारी,  के नंदा, आदि ने सहयोग किया मंच की साज सज्जा कला संयोजक श्रीमती नीतू दीक्षित ने  वासिफ शेख ,सौरभ लहरी और अर्पित ,अर्जुन गूजर के साथ मिलकर की।
धन्यवाद ज्ञापन फैज़ अली शाह ने किया। कार्यक्रम के अंत में स्वप्ल्हार की व्यवस्था फ़ाइज़ अली शाह, कामिल, सनी, मनीष सिंह शुभम, अर्पित, राम शर्मा, आनंद बंसल आदि ने संभाली                        

Thursday, March 2, 2017

समझ और सरोकार कविता का हासिल

-संदीप कुमार
भोपाल में प्रलेसं के दो दिवसीय कविता शिविर में तमाम प्रतिभागियों ने न केवल अपनी कविता को मांजना सीखा बल्कि कविता और वैचारिकी के रिश्ते को उन्होंने बारीकी से समझा।

आपाधापी और जल्दबाजी के इस दौर में जहां ठहरकर सीखने, समझने की प्रक्रिया धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है, प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेसं) की मध्य प्रदेश इकाई ने फरवरी 2017 में राजधानी भोपाल में युवा कवियों के लिए दो दिवसीय आवासीय कविता शिविर का आयोजन किया। इस शिविर में हिंदी के भिन्न-भिन्न इलाकों से आये कवियों ने शिरकत की। शिविर में आठ युवा कवि और पांच वरिष्ठ कवि लगातार दो दिन मौजूद रहे। इसके साथ ही कुछ युवा एवं वरिष्ठ कवियों का आनाजाना भी हुआ। शिविर का उद्देश्य था कि युवा कवियों की कविताएँ सुनी जाएँ और उन पर समुचित चर्चा और विश्लेषण के ज़रिए उनके अच्छे और बुरे पहलुओं पर गौर किया जाए। ज़ाहिर है इन कविताओं का ताक़त, संभावनाएँ और उनकी सीमाएँ भी इस चर्चा का हिस्सा होनी थीं और हुईं भी। यद्यपि इन्हीं तारीखों में इस्मत चुगताई पर नूर ज़हीर के बनाये नाटक में किरदार निभाने की वजह से रजनीश साहिल इस शिविर में शामिल नहीं हो सके लेकिन प्रतिभागियों के चयन का महत्त्वपूर्ण कार्यभार उन्होंने दिल्ली में बैठकर बखूबी निभाया।

शिविर के उद्देश्य और स्वरुप का परिचय शिविर संयोजक के नाते प्रलेसं की मध्य प्रदेश इकाई के महासचिव विनीत तिवारी ने दिया। उन्होंने प्रलेस द्वारा पूर्व में मांडव, साँची, अशोकनगर, सतना, गुना, इंदौर, कालाकुंड, मंदसौर और उज्जैन आदि स्थानों पर आयोजित इस तरह के रचना और विचार शिविरों की जानकारी दी और कहा कि आवासीय शिविरों से नए और पुराने कवियों के बीच संकोच समाप्त होते हैं और खुल कर बात हो पाती है। साथ ही पूरे वक़्त साथ रहने से साहित्य और संसार को समझने का माहौल कविताओं को अनेकानेक कोणों से देखने का अवकाश संभव करता है। उन्होंने पूर्व में लगाए गए शिविरों को याद करते हुए कहा कि आज के दौर के अनेक प्रमुख कवि शिविरों के बाद ही अपनी सही ज़मीन और पहचान हासिल कर पाए। ज्ञानरंजन, चंद्रकांत देवताले, कृष्णकांत निलोसे, राजेंद्र शर्मा और कुमार अम्बुज द्वारा आयोजित ऐसे ही एक मांडव शिविर से पवन करण, अनिल करमेले, विवेक गुप्ता, आशीष त्रिपाठी और स्वयं मैं कविता के दायरे में गंभीरता से शामिल हुए। उन्होंने शिविरार्थियों से अपेक्षा की कि जिस तरह हमने जो हासिल किया, उसे हम पिछले २० वर्षों से बाद वाली पीढी के कवियों को देने की कोशिश कर रहे हैं, वैसे ही आप सभी को भी आगे ऐसे शिविर आयोजित करने की ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए।

मुक्तिबोध को याद करते हुए वरिष्ठ कवि कुमार अंबुज ने कहा कि साहित्य विवेक और जीवन विवेक अलग - अलग नहीं हैं। सभी के परिचय, जिसमे उनका साबका साहित्य से कैसे पड़ा, इसका ज़िक्र भी शामिल था, के बाद कुमार अम्बुज ने सभी शिविरार्थियों से प्रश्न किया कि दुनिया की उत्पत्ति के बारे में उनका क्या सोचना है? उनका ये सवाल भी उनसे दशकों पहले किसी शिविर में भगवत रावत जी या कमलाप्रसाद जी या मलय जी द्वारा पूछे गए सवाल की प्रासंगिक स्मृति थी। दरअसल यह सवाल इस शिविर की जमीन तैयार कर रहा था। सभी युवा कवियों ने दुनिया की उत्पत्ति और इस प्रकार ईश्वर की अवधारणा, उसकी सत्ता को लेकर अपने-अपने विचार प्रस्तुत किये। इस प्रकार कविता, कवि और वैज्ञानिक चेतना के अंतर्संबंधों को लेकर एक विस्तृत चर्चा आरंभ हुई। कुमार अंबुज ने कहा कि एक कवि के लिए यह आवश्यक है कि वह वैज्ञानिक चेतना से पूरी तरह लैस हो। क्योंकि अगर कवि अपने आसपास की घटनाओं को वैज्ञानिकता की कसौटी पर नहीं कसता, उसे तर्कसंगत करके नहीं देखता और राजनीतिक समझ से संचालित नहीं होता तो उसकी कविता और उसका उद्देश्य इतना बड़ा नहीं हो पाएगा कि वह व्यापक समाज में अपने अनुभवों को सही ढंग से संप्रेषित कर सके।

चर्चा के दौरान धर्म, ईश्वरीय आस्था और अंध श्रद्घा को लेकर भी बातचीत हुई। इस चर्चा के अंत में लगभग सभी प्रतिभागी इस बात पर सहमत थे कि एकदम निर्दोष नजर आने वाली आस्था भी इस बात का जोखिम पैदा कर देती है कि जरूरत आने पर उसे अंधश्रद्घा में तब्दील करने की कोशिश की जाये। ठीक उसी तरह मुक्ति के धर्मशास्त्र (लिबरेशन थियोलोजी) के क्रांतिकारी इतिहास पर भी बात हुई।

चर्चा के उपसंहार के तौर पर विनीत तिवारी ने उरुग्वे के सुप्रसिद्घ लेखक एडुवार्डो गैलियानो के महत्त्वपूर्ण लेख 'आखिर हम लिखते ही क्यों हैं?' का पाठ किया। इस लेख में गैलियानो ने अपनी व्यक्तिगत रचना प्रक्रिया से जुड़े कुछ सवालों के जवाब दिए हैं जो कमोबेश हर लेखक से जुड़े होते हैं। मसलन वह लिखता क्यों है? लेखक की पक्षधरता के क्या मायने हैं, वह क्यों जरूरी है आदि। लेख पर हुई विस्तृत चर्चा ने युवा कवियों के मन की अनेक दुविधाओं को दूर किया और नए सवालों और नई बेचैनियों को पैदा किया।

इस तरह शिविर का पहला सत्र समाप्त हुआ। तब तक नए कवियों को ये समझ नहीं आ रहा था कि इस शिविर में कविता लिखना सिखाया जाएगा या नहीं। दोपहर के खाने के बाद दूसरा सत्र शुरू हुआ। हल्की सर्दी का वक़्त था और दोपहर की गुनगुनी धूप बाहर आमंत्रित कर रही थी। सभी लोग इस सत्र के लिए धूप में निकल आये। ये सत्र प्रतिभागी युवा कवियों की कविताओं का था। शिविर में आठ पूरा वक़्ती नए प्रतिभागी थे: दीपाली चौरसिया, मानस भारद्वाज, प्रज्ञा शालिनी, अल्तमश जलाल, पूजा सिंह, संदीप कुमार, अभिदेव आजाद और श्रद्घा श्रीवास्तव। पहले दिन दीपाली, मानस, प्रज्ञा शालिनी और अल्तमश जलाल ने अपनी कवितायें पढ़ीं। प्रत्येक कवि के कविता पाठ के बाद शेष सभी प्रतिभागियों ने इन कविताओं पर अपने विचार रखे। वरिष्ठ कवियों कुमार अंबुज, विनीत तिवारी, अनिल करमेले, रवींद्र स्वप्रिल प्रजापति और आरती ने इन कविताओं की खूबियों और खामियों पर चर्चा की। इस दौरान कविताओं के बिंबों, कुछ कविताओं में बार-बार आ रहे नॉस्टैल्जिया यानी अतीत मोह समेत तमाम छुए-अनछुए पहलुओं पर व्यापक बातचीत हुई। कुमार अंबुज ने कहा कि नॉस्टैल्जिया को केवल छूकर गुजर जाना कोई मायने नहीं रखता। हम सभी की जड़ें कहीं न कहीं हैं और हम सभी अपने अतीत को याद करते हैं लेकिन एक कवि के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह उन यादों में क्या लेकर जाता है और वहां से पाठक के लिए क्या लेकर आता है। कविता में लयात्मकता और कविता की आतंरिक लय के बीच के अंतर को समझने की भी कोशिश हुई। यह सत्र निश्चित रूप से अत्यंत समृद्ध रहा और इसने कवियों को कविता को पढऩे, समझने और उसके विश्लेषण की दृष्टि विकसित करने का अवसर प्रदान किया। अनिल करमेले ने कहा कि किसी की कविताओं में नास्टैल्जिया बहुत प्रखरता से आया था लेकिन वो आगे नहीं निभ सका। किसी की कविता में विचार तो अच्छा था लेकिन वो कविता में ठीक से नहीं आ पाया। किसी की कविताओं में आत्मदया उसी तरह असमानुपाती थी जैसे कभी कभी कुछ कविताओं में अनावश्यक आत्म गौरव जाता है। अस्मिता की राजनीति जीवन दर्शन और साहित्य को किस तरह प्रभावित करती है, ये बात भी हुई। इस बात पर ज़ोर दिया गया कि तारीफ़ एवं विश्लेषण का विवेक भी होना चाहिए अन्‍यथा कवि के भीतर सुधार की संभावनाएँ विरल हो जातीं हैं।

युवा कवयित्री दीपाली ने माना कि उनके लिए कविता अब तक केवल अपने मनोभावों को प्रकट करने का जरिया भर थी। शिविर में आने के बाद उनको पता चला कि कविता का एक शिल्प होता है और वैज्ञानिकता से कविता का कितना गहरा नाता है। युवा कवि मानस भारद्वाज ने कहा कि कविता शिविर में हिस्सेदारी ने एक साथ कवि और श्रोता होने की जो सुविधा प्रदान की वह अन्यत्र नहीं मिल सकती। यह एक ऐसी स्थिति है जहां आप अपनी कविताओं की प्रत्यक्ष आलोचना सुनने की स्थिति में होते हैं। यह सुधार की इच्छा रखने वालों के लिए बहुत बेहतर बात है।

शाम की चाय के बाद फिर हॉल के भीतर इकठ्ठा होकर कविताएँ और उन पर बातचीत शुरू हो गई। कुछ साथियों ने अपनी पसंद के कवियों की कवितायेँ सुनाईं और उन कविताओं पर चर्चा भी हुई। रवींद्र स्वप्निल प्रजापति, अनिल करमेले और आरती ने अपनी कुछ कविताएँ सुनाईं जिन पर नए कवियों सहित सभी प्रतिभागियों ने अपनी अपनी समझ से टिप्पणी की।

लगभग रात दस बजे शिविर के पहले दिन का औपचारिक समापन हुआ और अनौपचारिक तौर पर फिर शिविर में कविताएँ और उन पर बातचीत, एक-दूसरे के साथ परिचय के दो-चार कदम रात 2-3 बजे तक बढ़ते रहे। शिविर में इंदौर के कलाकार अशोक दुबे के कविता पोस्टर्स की प्रदर्शनी भी लगाई गयी।

शिविर के दूसरे दिन के प्रथम सत्र की शुरुआत में विनीत तिवारी ने कविता शिविर के महत्त्व के बारे में बात की। उन्होंने कहा कि कविता और साहित्य दोनों प्रतिरोध के उपकरण हैं। कविता केवल कुछ कहने के लिए नहीं की जानी चाहिए बल्कि उसमें गलत का विरोध करने, उसे परास्त करने और सही सामाजिक व्यवस्था लागू करने की भावना भी होनी चाहिए। साहित्य और कला वैसे तो कभी स्वान्तः सुखाय नहीं कही जा सकती थी क्योंकि उसकी सदा ही एक सामाजिक भूमिका रही है लेकिन आज तो वो मनुष्यता के पक्ष में खड़े लोगों के प्रतिरोध का भी अस्त्र है इसलिए उसे सिर्फ भाषा या व्याकरण से ही नहीं बल्कि सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में समझना और बरतना होगा। ये कविता को उपयोगितावाद के नज़रिये से देखना नहीं है बल्कि कविता को जीवन की गतिविधियों में रचाना बसाना है।

मौजूदा वर्ष हिंदी के महाकवि गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्मशताब्दी वर्ष भी है। वह हमारी भाषा के एक ऐसे कवि हैं जिनके जिक्र के बिना हिंदी भाषा की कविता का कोई भी सिलसिला अधूरा ही रह जायेगा। यही वजह है कि शिविर के दूसरे दिन का प्रथम सत्र मुक्तिबोध को समर्पित किया गया। उन्होंने मुक्तिबोध को याद करते हुए कहा कि सबकुछ राजनीति के भीतर होता है और हमें ये समझना चाहिए कि हमारी रचना किसके पक्ष में रही है और उसे किस राजनीति के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।

मुक्तिबोध ने हर सामान्य मनुष्य और हर जागरूक मनुष्य से अपनी कविता में अपना राजनीतिक पक्ष साफ़ करने की बात की है। जैसे जैसे हम साहित्य की समाज में भूमिका को समझते जाते हैं, हमारी चुनौती और जि़म्मेदारी बढ़ती जाती है। तब साहित्य मात्र मनोरंजन नहीं रह जाता बल्कि वो बेहतरी के लिए संघर्ष का हिस्सा बन जाता है।

इस सत्र में विनीत तिवारी ने मुक्तिबोध के लेख "जनता का साहित्य किसे कहते हैं" का पाठ किया। इस पाठ के पश्चात तमाम प्रतिभागियों ने लेख के कथ्य पर चर्चा की। इस पाठ का निष्कर्ष यही निकला कि जनता का साहित्य वह साहित्य है जो उसके जीवन की समस्याओं को संबोधित कर सकता है और उनका हल निकालने में हमारी मदद कर सकता है। मनुष्यता को बचाये रखने और मानवता को मुक्ति के मार्ग पर चलने की प्रेरणा इसी साहित्य से मिलती है। कुमार अंबुज ने कहा कि मुक्तिबोध ने जीवन विवेक को ही साहित्य विवेक कहा था और आज भी वह पैमाना बदला नहीं है बल्कि अपनी जगह पर मौजूद है।

शिविर के दूसरे दिन का दूसरा सत्र एक बार फिर युवा कवियों के कविता पाठ का था। पहले दिन के शेष प्रतिभागियों श्रद्घा श्रीवास्तव, अभिदेव आजाद और संदीप कुमार ने दूसरे दिन अपनी कवितायें सुनाईं। इन कविताओं में भी नॉस्टैल्जिया, आकांक्षाएं और कामनाएं बार-बार आईं। कुमार अंबुज, विनीत तिवारी, अनिल करमेले, आरती ने युवा कवियों की कविताओं पर अपनी प्रतिक्रियाएं दीं। इसके अलावा शिविर में मौजूद अन्य साथियों दीपक, पूजा, मनु आदि ने भी इन कविताओं पर अपनी राय रखी। दूसरे दिन भी कविताओं पर टिप्पणी के बहाने कविता लेखन के अलग-अलग पहलुओं को छुआ गया। इस दौरान तुकांत और अतुकांत कविता, कविता में लयात्मकता, उसके बिंब विधान आदि पर विस्तार से चर्चा हुई। वरिष्ठों की राय में संदीप की कविता में एक परिपक्व विचार तो दिखा लेकिन वो जल्दबाज़ी का शिकार होकर जल्दी ख़त्म हो गया। अभिदेव आज़ाद की कविताएँ अपने आपको एक नए और अछूते शिल्प और भाषा में व्यक्त करती हैं लेकिन उनकी कविताएँ जीवन दृष्टि, जीवनानुभव और प्रगतिशील मूल्यबोध की मांग करती हैं। श्रद्धा की कविताएँ धीर - गंभीर हैं, उनमें विचार भी समृद्ध है लेकिन उन्हें नयी कविता की भाषा और मुहावरे को पकड़ने का प्रयास करना होगा।

इस दौरान एक बात जिस पर आम सहमति बनी वह यह थी कि कुछ भी लिखने से पहले हमें मोटे तौर पर यह जानकारी अवश्य होनी चाहिए कि हमसे पहले के लोगों ने क्या-क्या लिखा है। इससे भी बढ़कर यह जानना जरूरी है कि कि हमसे पहले के लोगों ने क्या अच्छा और क्या चुनौतीपूर्ण लिखा है? सच यही है कि एक कवि अथवा साहित्यकार अपने कहने का तरीका, विषयवस्तु और जिस भाषा का वह इस्तेमाल करता है उसका चुनाव केवल अपने समय से ही नहीं करता बल्कि वह अपने पूववर्ती लेखकों को पढ़ते हुए भी उनसे लगातार सीखता रहता है।

चर्चा के दौरान वरिष्ठ साथियों ने युवा मित्रों को कुछ नाम भी सुझाए जिनको पढऩा उन्हें और अधिक परिष्कृत करेगा। जिन देशी-विदेशी रचनाकारों के नाम लिए गए वे हैं: रसूल हमजातोव, चांगीज आइत्‍मातोव, मक्सिम गोर्की, हावर्ड फ्रास्ट, फ्योदोर दोस्तोयेवस्की, लेव तॉल्सतॉय, मिखाइल शोलोखोव, पाब्लो नेरुदा, बेर्टोल्ट ब्रेष्ट, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, शरतचंद्र, रेणु, हरिशंकर परसाई, प्रेमचंद, श्रीलाल शुक्ल, पाश आदि शामिल थे। जिन प्रमुख रचनाओं का नाम सामने आया वे हैं: मेरा दागिस्तान, पहला अध्यापक, मेरा बचपन, मेरे विश्वविद्यालय, जीवन की राहों पर, आदि विद्रोही, मां, अपराध और दंड, समकालीन यूरोपीय कविता, अन्ना केरनिना, धीरे बहो दोन रे, रिल्के के खत, धरती धन न अपना, एक साहित्यिक की डायरी, आत्महत्या के विरुद्घ, राग दरबारी, चरित्रहीन, मैला आंचल, सदाचार का ताबीज, मुर्दाघर, कर्मभूमि आदि। ऐसा भी नहीं था कि शिविर केवल निर्धारित सत्रों में ही चला। औपचारिक सत्र तो कायदे के मुताबिक चले ही। उनके समापन के बाद भी प्रतिभागियों का उत्साह और जिज्ञासा कम नहीं हुए। ऐसे में चाय पीते हुए, खाना बनाते-खाते हुए और यहां तक कि भोजनोपरांत देर रात टहलते हुए भी युवा और वरिष्ठ कवियों का आपसी संवाद जारी रहा। लब्बोलुआब यह कि कहने को चार-पांच सत्रों वाला यह शिविर दरअसल 48 घंटों की एक संपूर्ण कार्यशाला में बदल गया था जिसका अंत आते-आते वरिष्ठ और युवा साथियों के बीच के संकोच और दूरी बरतते सम्मान की जगह आपसी स्नेह और करीबी ने ले ली। और जिस प्रेम और सम्बंधों की ऊष्मा के घर में ये हुआ, उस घर की दीवारें भी लंबे अरसे के लिए कविताओं में सराबोर हो गईं।

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आज से शुरू होगा 6 दिवसीय रंग ए सुलहकुल का सफर

गरा सुलहकुल और सद्भाव की नगरी है और यहां साझी संस्कृति और साहित्य को बढ़ावा देने हेतु यह समारोह नगर के साहित्यकारों, रंगकर्मियों और कलाकारों द्वारा आयोजित किया जा रहा है यह समारोह संस्कृति कर्मी जितेंद्र रघुवंशी जी को समर्पित है यह समारोह गोवर्धन होटल में उदघाटन समारोह से शुरु होगा जिसमें मैकश के 115वें जन्मदिन पर उनकी शायरी और उनके आगरा पर चर्चा के साथ नृत्य ज्योति कत्थक केंद्र के विद्याथियों के द्वारा मैकश की ग़ज़ल पर प्रस्तुति के साथ होगा, 3 मार्च को रिवर कनेक्ट द्वारा नदी और सभ्यता पर चर्चा और अनिल जैन की संस्था ऍफ़ टी जी द्वारा नुक्कड़ नाटक की प्रस्तुति एत्मातुद्दौला व्यू पॉइंट पर होगी।

4 मार्च को यूथ होस्टल में भारत की साझी संस्कृति पर प्रसिद्ध पत्रकार सुभाष गाताडे का व्याख्यान, कविता संग्रह "जहाज के पंछी"( कवि पुष्पेंद्र उपमन्यु )का विमोचन और अनिल शुक्ल द्वारा निर्देशित  रंगलीला की प्रस्तुति "जाम के झाम में अकबर" तय है।5 मार्च को शहीद स्मारक पर आगरा की पच्चीकारी और उसकी मुश्किलों पर चर्चा और आगरा के शिल्पकार वासिफ शेख के शिल्पकर्म की प्रदर्शनी के साथ साथ  कार्टूनिस्ट मदन गोपाल के रेखाचित्र और बैकुंठी देवी कन्या महाविद्यालय की कला विभाग की छात्राओं की कला प्रदर्शनी के बाद रंगलोक सांस्कृतिक संस्थान के कलाकारों द्वारा डिंपी मिश्रा निर्देशित जनगीतों की प्रस्तुति होगी । 6 मार्च को केंद्रीय हिंदी संस्थान में नज़ीर सभागार में नज़ीर और उनका आगरा पर डॉ ज्योत्स्ना रघुवंशी जी के व्याख्यान और केंद्रीय हिंदी संस्थान के छात्र छात्राओं की प्रस्तुति के अतिरिक्त नज़ीर की कविताओ का पाठ होगा। 7 मार्च को सूरसदन बेसमेंट में दिलीप रघुवंशी निर्देशित " इप्टा " के नाटक "सुनो सुनो सुनो" की प्रस्तुति और बसंत रावत के नाटकों के गीत  रंग-संगीत की प्रस्तुति होगी और इसके साथ ही युवा चित्रकार दीपक भदौरिया के काम का लाइव डिमोस्टेशन भी होगा। समापन समारोह में डॉ जितेंद्र रघुवंशी जी के रंगकर्म पर चर्चा डॉ मोहमद अरशद करेंगे ।  इस समारोह में कुल 14 संस्थाएं जिनमे यादगारे आगरा , नृत्यज्योति कत्थक केंद्र, बृज हेरिटेज एंड कजर्वेशन सोसाइटी , भारतीय जन नाट्य संघ इप्टा, रंगलीला, रंगलोक, शहीद भगत सिंह स्मारक समिति, फिल्म एन्ड थिएटर ग्रुप आगरा, थिएटर फोरम, जनमन संवाद केंद्र, legecy आर्ट स्टूडियो , और रिवर कनेक्ट, केंद्रीय हिंदी संस्थान शामिल है और्स किशनलाल स्मृति ट्रस्ट शामिल हैं। 

रामजस कालेज में हुए घटनाक्रम के संदर्भ में इप्टा का बयान

28 फरवरी 2017, नई दिल्ली . नई दिल्ली के रामजस कालेज में होने वाले एक अकादमिक कार्यक्रम में दक्षिणपंथी गुटों द्वारा व्यवधान डालना और इस पर दिल्ली पुलिस का मूक समर्थन देना, देश में सिर उठाती असहिष्णुता और फासीवादी प्रवृत्ति की एक और कड़ी है। अभिव्यक्ति की आजादी और सवाल एवं संवाद के जरिए सत्य की खोज को हिंसा और कानूनी व्यवस्थाओं के दुरुपयोग से निरंतर दबाने की कोशिशें जारी हैं। अगर कुछ विद्यार्थी वैचारिक मतभेद के चलते इसी तरह दूसरे पक्ष पर शारीरिक हमले करते रहे और अध्यापकों को धमकाते रहे तो ऐसे में भारत का भविष्य अंधकारमय प्रतीत होता है। अध्यापकों पर हमला करने के लिए कुख्यात ABVP की हमारे कालेजों और विश्वविद्यालयों में मौजूदगी, देश की एकता और अखंडता के लिए खतरनाक है।

रामजस कालेज और दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं को अपने विचारों की निर्भीक अभिव्यक्ति और बौद्धिक आदान-प्रदान के लोकतांत्रिक मंचों की रक्षा के लिए संघर्षरत देखकर नया हौसला मिलता है। इप्टा इनके साथ एकजुटता के साथ खड़ा है और इन्हें भारतीय जनमानस का सच्चा प्रतिनिधि मानता है।

यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि सरकार के सदस्य, जिनपर लोकतांत्रिक मंचों की रक्षा और प्रोत्साहन का कार्यभार है, वे भी इन हिंसक तत्वों को सार्वजनिक तौर पर बढ़ावा दे रहे हैं। सोशल मीडिया पर रामजस कालेज की छात्रा गुरमेहर कौर को दी जा रही हत्या और बलात्कार की धमकियों पर गृह राज्य मंत्री द्वारा दिए गए बयान बेहद आपत्तिजनक और निंदनीय हैं।  उनके बयान छात्रा को दी गई धमकियों का समर्थन करते प्रतीत होते हैं। इप्टा ऐसे बयानों की कड़ी भर्त्सना करता है।

 इप्टा तमाम कलाकारों, लेखकों, विचारकों, पाठकों और दर्शकों से आह्वान करता है कि वे एकजुट होकर विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की संस्कृति को और मजबूत करें।

जनता के रंगमंच की नायक स्वयं जनता होती है।

-राकेश , राष्ट्रीय महासचिव

रणदीप हुड्डा के नाम बादल सरोज का खुला पत्र

 यार रणदीप, आपने तो बहुतई निराश किया। 2014 में आपकी एक बेहद शानदार फ़िल्म देखी थी -हाईवे ।
अब हम थोड़े से बड़े हो चले हैं । इसलिए जानते है कि फ़िल्म हीरो या हीरोइन नहीं बनाते । कोई कहानी लिखता है, कोई संवाद, कोई कैमरा पकड़ता है, कोई ड्रेस तो कोई सैट बनाता है, कोई निर्देशित करता है । मगर कुछ आदतें बचपन से घर कर जाती हैं : हम में आज भी हैं । फ़िल्म की भूमिका के हिसाब से उसे निबाहने वाले से लगाव जुड़ाव हो जाता है उस फ़िल्म में आपकी अदाकारी गजबई थी यार । हम आपके मुरीद हो गए थे। अगर हमे नम्बर देने का हक़ होता तो 10 में से 11 देते । हालांकि, इसमें बुरा मानने की बात नहीं है, हम तब भी इस फ़िल्म को आलिया भट्ट की फ़िल्म मानते थे, आज भी मानते हैं । परसों जॉली एलएलबी 2 देखते वक़्त उस संवाद पर भी हमने -पूरे हॉल में अकेले ही- तालियां बजाई थीं, जिसमे किसी ने बोला था कि द बिगेस्ट कॉन्ट्रिब्यूशन ऑफ़ महेश भट्ट टू द बॉलीवुड इज आलिया भट्ट!! खैर इसे छोडो । होता है यार, लडकियां बहुत मेहनत करती हैं । सिक्स सेवेन ऐट पैक एब्स तो कोई भी बना सकता है । एक्टिंग अलगई बात है – परिश्रम के साथ साथ कौशल भी मांगती है। तो मुद्दे की बात ये है पार्टनर, कि उस फ़िल्म के आख़िरी 10 मिनट ने हमे स्तब्ध कर दिया था. हमारे चम्बल में इसके लिए ज्यादा सही शब्द है- धक्क रह गए थे हम । फ़िल्म खत्म होने के बाद कुर्सी से उठ नहीं पाये थे। न रो पाये थे, न बोल पा रहे थे। निर्निमेष ताकते से बैठे रह गए थे। हमारे साथ के व्यक्तियों ने हमे झकझोर कर उठाया था। उस रात हम सो भी नहीं पाये थे। आपको याद है वह क्लाइमेक्स ? वीरा (आलिया भट्ट) जो एक सुपर रिच परिवार , जो त्रिपाठी भी है, की लाड़ली बेटी बताती है कि किस तरह बचपन से अपने ही घर में अपने ही अंकल की यौनयातनाओं का दंश झेलती रही थी वह। आपको याद है जब वह यह बात बोलते हुए अपने पिता से कहती है कि ” आप हमेशा मुझे बाहर के लोगों से बचकर रहने की कहते रहे और मेरे साथ अपने अंदर के लोग ही यह सब करते रहे।” इस लिहाज से हमारे लिए हमारे समय की एक बहुत बड़ी, चुस्त और परफेक्ट पैकेजिंग वाली फ़िल्म बन गयी थी हाईवे। हमारी राय थी कि यह फ़िल्म बाप-भाई-अंकलों के लिए अनिवार्य की जानी चाहिए और उनसे कहा जाना चाहिए कि वे अपने परिवार की बच्चियों के साथ उसे देखने जाएँ।

रणदीप, आपको याद है महावीर, वो करैक्टर जिसे फ़िल्म में आपने निबाहा था। कितना एकाकी, कितना सोगवार, कितना आत्मपीड़क और निष्ठुर हो गया था वह। क्यों ? इवोल्व होते होते खुद फ़िल्म ही इसे बताती है। इसलिए कि उसने अपने बचपन में अपने बाप और जमींदार के हाथों अपनी माँ का यौनउत्पीड़न देखा था। कितना बदल दिया था महावीर को उसके बचपन ने। याद है न! यौन अपराध के आगे असहायता इसी तरह तोड़ देती हैं अंदर का बहुत सारा।

लेकिन वही महावीर कितना संवेदनशील और प्यारा बर्ताब करता है वीरा के साथ। सारे अवसर, यहां तक कि वीरा के तीव्र प्रेम और लगाव और आमन्त्रण जैसे भावों के बावजूद उसकी देह को हाथ नहीं लगाता।
परसों जब आप गुरमेहर कौर के बारे में वीरेंद्र सहवाग की निहायत वाहियात बात पर मजे (…..Viru cracked a joke and I admit I laughed. Damn! He is so witty and this is one of the other million things he’s said that has made me crack up. That was it!! … ये आपके ही शब्द हैं ) ले रहे थे । तब हमारी निगाहों में वीरा त्रिपाठी थीं, पति की रजामंदी से जमींदार द्वारा खींची जा रही महावीर की माँ थीं। हम हतप्रभ थे कि यार, लोग कैसे जी लेते हैं इतनी दोहरी ज़िंदगी।

हमें गुरमेहर की फ़िक्र नहीं है। वह समझदार भी है, बहादुर भी। मगर क्या आपको पता है कि जो गुरमेहर के साथ बलात्कार की धमकी दे रहे हैं, उनके इस माइंडसैट के चलते खुद उनके घरों की बच्चियां, उन्ही की बेटियां, बहने यहां तक कि माँयें भी घोर असुरक्षित हैं। किसी बाहरी से नहीं, खुद अपने घर के ऐसे ट्विटर और सोशल मीडिया वीरों से। उनकी मुश्किल यह है कि वे शुरू वाली वीरा त्रिपाठी की तरह हैं। परिवार की इज्जत की खातिर सब सहने वाली। वे न गुरमेहर की तरह बहादुर हैं न समझदार।

डिअर रणदीप सर , असहमत होने पर बलात्कार की धमकी देना द मोस्ट डेंजरस क्रिमिनल शाईकी है। ऐसे लोग -जब तक कि वे पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो जाते तब तक – सभ्य समाज से एकदम अलग थलग तन्हाई में रखे जाने के काबिल होते हैं। हाईवे का महावीर जब -जाने अनजाने ऐसे लोगों के साथ खड़ा दिखता है तो मन होता है कि इम्तियाज अली और साजिद से कहें कि भैय्ये डूब गयी तुम्हारी फिलिम, अब दोबारा से बनाइये। खैर हीरो को उसके जीए करैक्टर के साथ गड्डमड्ड करके देखना हमारी प्रॉब्लम है। आप तो जी मजे लेओ। हाँ, याद आया। इस फ़िल्म में जब आपके अभिनय की तारीफें हुयी थीं तब आपकी एक टिप्पणी अच्छी लगी थी। आपने कहा था कि ” मैं तो तब अच्छा मानूँगा जब नसीर साब इसे ठीक ठाक किया अभिनय मान लेंगे। ” पता नहीं आपकी मुराद पूरी हुयी कि नहीं, मगर नसीरुद्दीन शाह साब ने सहवाग और आपके इस एपिसोड पर जरूर कुछ बोला है। उम्मीद है पढ़ा होगा। न पढ़ा हो तो पढ़ लो यार, पढ़े लिखे आदमी हो, वीरेंद्र सहवाग थोड़े ही हो!
(To Randeep Hudda With LOVE!!)