Saturday, January 28, 2017

'हे राम! बापू को बिहारी जन का सलाम'

महात्मा गाँधी के 70वें शहादत दिवस के अवसर पर भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा) ने 29 जनवरी, 2017 (रविवार) को अपराह्न 2.30 एवं 30 जनवरी, 2017 (सोमवार) को पूर्वाह्न 10.30 बजे से विशेष कार्यक्रम 'हे राम...... बापू को बिहारी जन का सलाम' का आयोजन किया है। इस कार्यक्रम के आयोजन में 33 से अधिक सामाजिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक संगठन शामिल हैं।

इस विशेष कार्यक्रम में शिरकत कर आप त्याग, प्रेम, सहिष्णुता एवं भाईचारे के पक्ष में अपनी एजुटता का इज़हार करें।

Friday, January 27, 2017

आजमगढ़ में आरंगम

-संगम पाण्डेय 
जमगढ़ के उजाड़ और खस्ताहाल शारदा टाकीज को अभिषेक पंडित और ममता पंडित ने रंगमंच के लोकप्रिय ठीहे में बदल दिया है। सिनेमा मालिकों से पाँच साल के लिए उपहारस्वरूप मिली इस जगह पर उन्होंने अपनी एक पूरी दुनिया आबाद कर ली है। तीन दिन के आरंगम यानी आजमगढ़ रंग महोत्सव में कई तरह की रोशनियों, मुखौटों, रंग-बिरंगी कनातों से एक बढ़िया नजारा था। अभिषेक ने अपने बीस साल के रंगमंच और बारह साल के आरंगम के दौरान शहर में अच्छे-खासे दर्शक तैयार कर लिए हैं। हर रोज ही तीस-चालीस दर्शकों को जगह न मिलने से वापस लौटना पड़ा; और ये मुफ्तखोर दर्शक नहीं थे, उनके फुटकर सहयोग से जमा हुई धनराशि कई हजार में जा पहुँची थी। 

इस बार अभिषेक ने खुद के ही निर्देशित तीन नाटकों का मंचन किया-- ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘बटोही’ और ‘अंधेर नगरी’। ऐसे नाटकों को नए अभिनेताओं के साथ करने में एक फाँक हमेशा ही होती है, पर वही उसका कलेवर होता है। अच्छी बात यह है कि चूँकि अभिषेक ने जिंदगी को काफी जूझते हुए जिया है, लिहाजा अपने मजबूत यथार्थबोध के कारण उन्हें खुद भी ऐसी फाँकों का अंदाजा है। ये तीनों ही प्रस्तुतियाँ ये साबित करती हैं कि उनमें नाट्य निर्देशन की अच्छी सूझ है। दृश्यों में डिटेलिंग को लेकर वे काफी सचेत हैं, और अंधेर नगरी में टके सेर बिकती चीजों का उन्होंने अच्छा समकालीन बाजार बनाया है। उसके प्रहसन को वे एक दिलचस्प ऊँचाई पर ले गए हैं। 


उनकी संस्था सूत्रधार हर साल एक सूत्रधार-सम्मान देती है, जो इस बार वामन केन्द्रे को दिया गया। वामन केन्द्रे ने इस मौके पर कहा कि वे खुद भी महाराष्ट्र के एक छोटे से गाँव के रहने वाले हैं और जानते हैं कि छोटी जगहों पर रंगमंच करना कितना मुश्किल है। उन्होंने सम्मान स्वरूप दिए गए ग्यारह हजार रुपए में इतनी ही रकम अपनी ओर से मिलाकर सूत्रधार संस्था को वापिस भेंट की। आयोजन में जाने-माने नाट्य समीक्षक दीवान सिंह बजेली, सत्यदेव त्रिपाठी, पटना से आए दूरदर्शन के पूर्व महानिदेशक त्रिपुरारि शरण, जनसत्ता के संपादक मुकेश भारद्वाज, मध्यप्रदेश ड्रामा स्कूल के निदेशक संजय उपाध्याय, उज्जैन की कालिदास अकादेमी के निदेशक आनंद सिन्हा, लखनऊ की भारतेंदु नाट्य अकादेमी के निदेशक आरसी गुप्ता और अजित राय आदि ने भी तीन दिनों के दौरान शिरकत की।

“अनहद नाद" का मंचन 28 जनवरी को मुंबई में

ला एक खोज है … निरंतर खोज ..जो कहीं रूकती नहीं है ..बस जीवन को लगातार जीवन और मनुष्यों को मनुष्य बनाने के लिए प्रतिबद्ध होती है उनको लगातार शुद्दिकरण की प्रक्रिया के अनुभव लोक की अनुभति से जीवन और मनुष्य के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए… इंसान और इंसानियत का बोध और निर्माण करते हुए… कलाकार साधक हैं ..जो अपनी कला साधना से तपाता है अपने आप को और एक खोजी रूह की अनंत खोज में स्वयं समर्पित कर विश्व को अपनी कला से रचनात्मक दृष्टि देकर प्रेरित करतें हैं …

कलाकार मात्र अपना पेट भरने के लिए कलाकार नहीं होता अपितु मानव के जीवन को कलात्मक और प्रकृति की लय और ताल से जोड़ते हैं ..क्योंकि ये प्राकृतिक लय और ताल जब टूटते हैं तो मनुष्य विध्वंसक होकर अपने आप को नष्ट करता है … आज मनुष्य अपने इसी विध्वंसक रूप के चरम पर बैठा है और अपनी चालाकी से उसे विकास कह रहा है …जबकि चारों और हिंसा और हाहाकार है ..

कला और कलाकारों को बाज़ार ने अपने चुंगल में जकड़ कर कठपुतली बना लिया है ..और उन्हें मात्र एक बिकाऊ वस्तु के रूप में जनमानस में परोस रहा है टाइम पास और उपभोग के लिए … ऐसे चुनौतीपूर्ण काल में अफ़सोस कर …बैठने की बजाय हमने कला एक वस्तु ..उत्पाद नहीं है और कलाकार कोई उत्पाद का कारखाना नहीं है .. कला और कलाकार की उन्मुक्तता पर नाटक लिखा “अनहद नाद – Unheard sounds of Universe”… जिसका २९ मई २०१५ को मुंबई के रविन्द्र नाट्य मंदिर में प्रथम मंचन से दर्शकों को लोकार्पित किया और तब से अब तक इसका प्रदर्शन निरंतर हो रहा है और दर्शकों का प्रेम और प्रगाड़ हो रहा है …

इस कलात्मक मंचन में आप सब सादर आमंत्रित है 28 जनवरी ,2017 (शनिवार) को सुबह 11 बजे मुंबई के शिवाजी मंदिर नाट्य मंदिर में….

इस सफलता को अर्जित करने वाले कलासाधक हैं … अश्विनी नांदेडकर , सायली पावसकर,तुषार म्हस्के, और कोमल खामकर ..इन कलासाधकों ने अपने अथक और कलात्मक साधना से इस दिव्य स्वप्न को साकार किया है …
एक्सपेरिमेंटल थिएटर फाउंडेशन विगत २५ वर्षों से देश विदेश में अपनी प्रोयोगात्मक , सार्थक और प्रतिबद्ध प्रस्तुतियों के लिए विख्यात है . सम्पर्क – 09820391859,ईमेल – etftor@gmail.com

Wednesday, January 25, 2017

रायगढ़ इप्टा के वैरागकर सम्मान समारोह में बंसी कौल

ह अवार्ड नहीं है इसमें जो एक तरह की सामूहिकता है जिसके लिये मैं अपने काम में अकसर कोशिश करता रहा हूँ ।मैं सिर्फ विदूषक पर काम नहीं कर रहा था या कर रहा हूँ मेरा मूल उद्देश्य दरअसल सामूहिकता पर ही था ये अलग बात है कि जब भी मेरे काम की चर्चा हुई हर व्यक्त्ति ने उसको अपनी तरह से समझा और बताया किसी ने हंसी कहा, किसी ने उल्हास कहा किसी ने अवसर्ड्पना/बेतुकापन कहा जिस वक्त जिसे जो लगा वह कहा. लेकिन मैं जो दरअसल इतने वर्षों से चाह रहा था जो थियेटर अकसर करता आ रहा या उसे भूलना नहीं चाहिये थियेटर को वो एक तरह से सामूहिकता का प्रतिनिधित्व करता है और वह सामूहिकता आज यहाँ अवार्ड में दिखी जो कि बहुत ज़रूरी है.

थियेटर एक ऐसी कला है जिसमें सामूहिकता बहुत ज़रूरी है आप पेंटिंग अकेले कर सकते हैं, आप कविता अकेले रच सकते हैं, आप कहानी अकेले रच सकते हैं, यहाँ तक कि आप उदास अकेले हो सकते हैं, यहाँ तक कि अकेले गुनगुना सकते हैं, बड़बड़ा सकते हैं लेकिन आप अकेले हँस नहीं सकते और इसीलिये हँसने को भी सामूहिकता की ज़रूरत होती है और कोई भी समाज जिसे आप ज़िंदा समाज कहेंगे या जिस समाज में ज़िंदादिली है उस ज़िंदादिल समाज में सामूहिकता ज़िंदा रहती है और जहाँ सामूहिकता टूटती है तो यह मान लेना चाहिये कि कुछ गड़बड़ है और हम ऐसे दौर से गुज़र रहे हैं जहाँ सामूहिकता टूट रही है या सामूहिकता दूसरा रूप ले रही है जहाँ सामूहिकता एक तरह से विचार का रूप थी जहाँ सामूहिकता सोचने का काम करती थी जहाँ सामूहिकता बुद्धिमानी, विबेक का काम करती थी वो सामूहिकता अब या तो उस जुलूस में बदल रही है उस जुलूस में हिंसा है या यह वो सामूहिकता बनती जा रही है जो कर्मकांडी सामूहिकता है. दरअसल हम सबको यह देखना ज़रूरी है कि हम कौन सी सामूहिकता की बात करते हैं और कौन सी सामूहिकता को बचाना ज़रूरी है और वो सामूहिकता संभवतः थियेटर में ही है. इसीलिये अगर सामूहिकता को बचाना है तो आप को थियेटर को बचाना ज़रूरी होगा कि अगर थियेटर नहीं बचेगा तो आप  दूसरी कोई बात भी नहीं कर पायेंगे.

थियेटर अकेली एक ऐसी कला है जहाँ  आप से यह प्रश्न नहीं किया जाता है कि आप कौन सी जाति से हैं यह अकेली ऐसी कला है जहाँ आपसे यह नहीं पूछा जाता कि आप कौन हैं आप कहाँ से आये हैं दरअसल यह सारे समाज का प्रतिनिधित्व करती है. यहाँ कपड़ा बुनने  वाले से लेकर पहनने वाले तक का समाज एक ही जगह पर रहता है लेकिन पिछले कई वर्षों से देख रहा हूँ कि यह सामूहिकता बिलकुल ही खतम होती जा रही है. दरअसल सामूहिकता की स्थापना का अन्श टूटता जा रहा है. हम जिस विस्थापना की बात करते हैं तो हमारा विस्थापना से मतलब होता है एक शहर से दूसरे शहर में आप दर-बदर हो गये हों या आपको एक शहर से दूसरे में जाना पड़ रहा है दरअसल हम यह कभी नहीं सोचते हैं कि हम आमूहिकता से विस्थापित हो रहे हैं जब हम सामूहिकता से विस्थापित होते हैं तो हम खुद से विस्थापित हो रहे होते हैं, दाहिना हाथ बायें हाथ से विस्थापित हो रहा है हम अपने विचारों से विस्थापित हो रहे हैं और अगर इस विस्थापना को रोकना है तो आप को सामूहिकता को बचाना ज़रूरी है और अगर आप को सामूहिकता को बचाना है तो आप को थियेटर करना ज़रूरी है.

आज की सामूहिकता देख कर मैं  बहुत ही खुश हूँ और अगर यह सामूहिकता बनी रही, थियेटर के अलावा अलग-अलग तरह के लोग यहाँ जमा हुए हैं अलग-अलग तरह का समाज जमा हुआ है यह मेरे लिये एक अलग तरह का अनुभव है. दूसरा मैं आठले साहब और श्रीमती आठले से एक बात कहूंगा कि सारे अवार्ड जितने भी देने हो वो पचास के ऊपर मत दिया करें , पचास की उम्र तक ही दिया करें उसकी कुछ वजहें हैं क्यों कि पचास के बाद जब आप अवार्ड देने लगते हैं और बहुत सारी तस्वीरें आप बाहर लगाते हैं आप अवार्ड देने वाले को उम्र का एहसास कराने लगते हैं. इसमें मुझे लगाता है कि आप में एक शरारती तत्व, शरारतीपन जो शरारत सोचता है और ऐसा मत कीजियेगा क्योंकि कभी कभी जो पचास के ऊपर होते हैं वो ज्यादा शरारती होते हैं और मैं यह कहता भी हूँ और होना भी चाहिये कि हमारे समाज में लोगों को अवार्ड्स देने हैं तो मुझे लगता है चालीस-पैंतालीस-पचास तक दे देना चाहिये ताकि वो आगे काम कर सकें इस इंतज़ार में न रहें कि अगला अवार्ड मुझे मिलने वाला है . नहीं तो क्या होता है कि पचास के बाद अवार्ड्स मिलने शुरु हो जाते हैं तो आप सुबह उठते हैं अख़बार पढ़ते हैं , फोन देखने लगते हैं कि कहीं मुझे कहीं कोई अवार्ड तो नहीं मिला है. और वो मुझे लगता है कि आप के काम को रोक देता है  मैंने इनपर गुस्सा इसीलिये किया था कि पहले दे देते तो मैं शायद और काम करता लेकिन फिर भी मैं करता रहूंगा.  तस्वीरें ज्यादा न लगाया करें इसलिये कि अचानक से आप अपने पीछे देखते हैं आपको लगने लगता है आप इतने बूढ़े हो गये हैं और मैं दरअसल बूढ़ा नहीं होना चाहता हूँ और इसलिये नहीं होना चाहता हूँ कि अगर मैं थियेटर करता रहूंगा तो मैं शायद बूढ़ा नहीं होऊंगा और थियेटर की शायद यह ख़ासियत भी है कि वो आपको बूढ़ा नहीं होने देता है. वहज यह है कि आपके साथ जो लोग जुड़े होते हैं वो सब आपके हमउम्र तो होते नहीं हैं वो दस साल की उम्र से लेकर साठ साल तक के लोग आपके साथ जुड़े होते हैं इसीलिये आपको कभी भी यह एहसास नहीं होता कि आपकी उम्र क्या है आप दस साल के बच्चे के साथ बैठते हैं तो लगता है आप दस साल के हैं, पन्द्रह साल वाले बच्चे के साथ बैठते हैं तो आपको लगता है आप पन्द्रह साल के हैं आप बीस साल वाले मनुष्य के साथ बैठते हैं तो आपको लगता है आप बीस साल के हैं तो ज़ाहिर है कि आप बहुत सारी ज़िन्दगियां और उम्र थियेटर में जीते हैं आप दस साल से लेकर सौ साल तक सारी उम्र एक साथ जीते हैं और यह संभव नहीं है दूसरी जगह. आप सुबह आते हैं तो दस साल के लगते हैं, दोपहर को बारह साल के लगते हैं और शाम होते-होते हो सकता है आप फिर दस साल के लगने लगे हों तो यह शायद थियेटर की ख़ासियत है और इसको बचाये रखना ज़रूरी है.

मैं थियेटर इसलिये भी नहीं करना चाहता हूँ कि साहब मेरे थियेटर से कोई बहुत ज्यादा क्रांति हो जायेगी, अचानक मेरा नाटक देख लोग बाहर निकलेंगे और बहुत बड़ा जुलूस निकालेंगे, सरकार गिरा देंगे ऐसा संभव भी नहीं और मुझे लगता है गलतफहमी में रहना भी नहीं चाहिये. मुझे लगता है अगर हम उस छोटे से समाज को भी बचाये रखें , उस छोटी सी सामूहिकता को बचाये रखें तो आप ने बहुत बड़ा काम कर लिया है. जब आप सोचते हैं कि आप बहुत बड़ा काम करने जा रहे हैं तो दरअसल उस सारे छोटे काम को नकार देते हैं उस छोटी सामूहिकता को खत्म कर देते हैं जिसका होना ज़रूरी है बड़ी सामूहिकता के लिये. मुझे लगता है थियेटर को इस बात से दुखी नहीं होना चाहिये कि साहब अब हमारे पास तो एक सौ-डेढ़ सौ लोग ही देखने के लिये आते हैं और टेलीविजन का जो सीरियल है तो डेढ़ सौ करोड़ देखता है ज़ाहिर है कि हम जर्सी गाय तो हैं नहीं जो ज्यादा दूध देंगे, हम अपने आप को बकरी ही मान लें तो ठीक है और देखिये! किसी भी समाज में किसी चीज़ का महत्व खत्म नहीं होता बकरी का भी उतना ही महत्व है जितना जर्सी गाय का , दूध दोनों ही देते हैं और ज़ाहिर अगर आप दोनों ही दूध देते हैं और नहीं भी देते हैं तो उसका भी महत्व होता है इसीलिये महत्व को बचाये रखना ज़रूरी है ना कि यह मान कर इस बात से दुखी होना कि हमारे दर्शक नहीं आते हैं और अकसर एक सवाल पत्रकारों की तरफ से पूछा जाता है कि क्यों साहब आपको लगता है कि थियेटर मरने वाला है यह पहला प्रश्न होता है. दूसरा प्रश्न होता है कि आप को लगता है कि थियेटर में दर्शक आहिस्ता-आहिस्ता खत्म हो रहें हैं, इस तरह के पन्द्रह-बीस सवाल पूछे जाते हैं  और मैं यह पन्द्रह सवाल सुनना भी नहीं चाहता हूँ  अगर मुझे थियेटर में रहना है और अगर आप यह पन्द्रह सवाल सुनेंगे और इनका जवाब देते रहेंगे तो शायद आप बहुत ही परेशान होंगे. अब मैं अपनी बात यहीं खत्म करता हूँ, धन्यवाद आप को, इप्टा को, इप्टा के लोगों को, इप्टा के दोस्तों को. आपने जो इतना बढ़िया माहौल पैदा किया है उस माहौल को बनाये रखें. धन्यवाद

Tuesday, January 24, 2017

भारतेन्दु नाट्य अकादमी में "बापू ने कहा था" का मंचन

खनऊ । नाटक "बापू ने कहा था" 19 जनवरी को भारतेन्दु नाट्य अकादमी में मंचित हुआ।नाटक गांधी की विचारधारा, उनके सत्य के प्रयोगों का व्यक्तिगत जीवन में एक प्रयोग है। तारकेश्वर पाण्डेय एक आम आदमी है जो दंगे की ज्वाला में अपने इकलौते बेटे सूरज को खो देता है। इसी हिंसक माहौल में उसकी मुलाकात गांधी से होती है। जो दंगा रोकने के लिए उपवास पर बैठे हैं। वो पीड़ा के असहनीय आवेश में गांधी को ललकारते हुए यह बताता है कि अहिंसा और सत्याग्रह की उनकी विचारधारा खोखली है। गांधी उसे समझाते हैं कि एक अनाथ मुसलमान बच्चे को गोद लेकर उसकी परवरिश करो। तुम्हारे दुःख, घृणा और विश्वास को दूर करने का एकमात्र यही रास्ता है।

तारकेश्वर गांधी की बात मानकर एक अनाथ मुसलमान बच्चे की परवरिश करता है। आफ़ताब नाम का यह बच्चा बड़ा होकर घृणा और द्वेष की आंधी का शिकार होता है। एक बार फिर गांधीवादी विचारधारा धार्मिक उन्माद के समक्ष दम तोड़ती हुई दिखाई देती है। आफ़ताब एक आतंकवादी संगठन से जुड़ जाता है। एक आतंकवादी घटना को अंजाम देने के बाद वो अन्दर तक तड़प् जाता है और इस बात का अहसास करता है कि बापू का रास्ता ही सही रास्ता है।

यह नाटक इस बात की पुष्टि करता है कि व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में दोनों में ही गांधीवादी विचारधारा ही सर्वश्रेष्ठ है। नाटक में मंच पर अभिनय करने वालों में आशीष गुप्ता - गांधी, शुभम दुबे - तारकेश्वर पाण्डे, गौरांशी श्रीवास्तव - सुमित्रा, अमन वर्मा - आफ़ताब आदि कलाकारों ने अपने अभिनय से दर्शकों को झकझोर दिया।नाटक में संगीत परिकल्पना एवं संचालन बीएनए से प्रशिक्षण प्राप्त शिवा सक्सेना प्रकाश परिकल्पना व संचालन मनीष सैनी व प्रस्तुति सहयोग निशान्त गुप्ता का रहा। नाटक का निर्देशन प्रिवेन्द्र सिंह ने किया।

Monday, January 23, 2017

दस्तक पटना का नाट्योत्सव 'रंग दस्तक 2017' 24 जनवरी से

टना। नाट्य दल 'दस्तक' द्वारा तीन दिवसीय नाट्योत्सव  "रंग-दस्तक -2017" का आयोजन 24 जनवरी से किया जा रहा है। इस उत्सव में दस्तक के तीन नाटकों का मंचन किया जाएगा। धूमिल की लंबी कविता पटकथा का मंचन प्रेमचंद रंगशाला, पटना में 24 जनवरी 2017 को संध्या 6:30 बजे होगा।  भूख और किराएदार नामक नाटकों  का मंचन क्रमशः 25 व 26 जनवरी 2017 को कालिदास रंगालय, पटना में संध्या 6:30 बजे से किया जाएगा।

पटकथा हिंदी साहित्य की प्रतिष्ठित लंबी कविताओं में से एक है जो भारतीय आम अवाम के सपने, देश की आज़ादी और आज़ादी के सपनों और उसके बिखराव की पड़ताल करती है। देश की आज़ादी से आम आवाम ने भी कुछ सपने पाल रखे थे किन्तु सच्चाई यह है उनके सपने पुरे से ज़्यादा अधूरे रह गए। अब हालत यह है कि अपनी ही चुनी सरकार कभी क्षेत्रीय हित, साम्प्रदायिकता, तो कभी धर्म, भाषा, सुरक्षा, तो कभी लुभावने जुमलों के नाम पर लोगों और उनके सपनों का दोहन कर रही है। इस कविता के माध्यम से धूमिल व्यवस्था के इसी शोषण चक्र को क्रूरतापूर्वक उजागर किया है और लोगो को नया सोचने, समझने तथा विचारयुक्त होकर सामाजिक विसंगतियो को दूर करने की प्रेरणा भी देते हैं। कहा जा सकता है कि पटकथा प्रजातंत्र के नाम पर खुली भिन्न – भिन्न प्रकार के बेवफाई की बेरहम दुकानों से मोहभंग और कुछ नया रचने के आह्वान की कविता है। यह कविता बेरहमी, बेदर्दी और बेबाकी से कई धाराओं और विचारधाराओं और उसके नाम के माला जाप करने वालों के चेहरे से नकाब हटाने का काम करती है; वहीं आम आदमी की अज्ञानता-युक्त शराफत और लाचारी भरी कायरता पर भी क्रूरता पूर्वक सवाल करती है।

किरायेदार  फ़्योदोर दोस्तोव्येसकी की लंबी कहानी "रजत रातें" से प्रभावित नाटक है जो एक लड़का, एक लड़की और एक आदमी के माध्यम से प्रेम की संवेदनाओं सम्बन्धों की पड़ताल दुनियावी मान्यताओं से परे जाकर करता है। यहाँ प्रेम पाने, खोने, यथार्थवादी, आध्यात्मवादी मान्यताओं के परे जाकर एहसासों की बात करता है। यहाँ प्रेम एक मनःस्थिति है न कि खोना, पाना या हासिल करना।

नाटक भूख हाल ही की एक सच्ची घटना है जब एक महानगर में तीन बहनों ने अपने आपको घर के अंदर क़ैद कर लिया था और अपने आपको मजबूरन भूखों मरने के लिए छोड़ दिया था। इस क्रम में छोटी बहन की मौत हो गई और किसी प्रकार दो बहनों को ज़िंदा बचा लिया गया। इस पूरी घटना की पड़ताल करने पर कई पहलू निकलकर सामने आते हैं और हमें देश, समाज, सामाजिक - राजनैतिक और प्रशासनिक व्यवस्था समेत मानवता के क्रूरतम पक्ष से साक्षात्कार कराते हैं। एक ऐसे देश में जिसकी पहचान ही कृषि प्रधान देश के रूप में हो, वहां इंसानों का भूख से दम तोड़ देना एक भयानक घटना और क्रूरतम सच्चाई नहीं तो और क्या है?
सच्ची घटना पर आधारित इस नाटक का लेखन पुंज प्रकाश ने किया है। इस वृतचित्रात्मक नाटक में रेखा सिंह, अरुण कुमार, राहुल कुमार, सुजीत कुमार, मंज़र हुसैन, अमन कुमार, बादल कुमार आदि अभिनेता/अभिनेत्री काम कर रहे हैं।

नाट्य दल दस्तक के बारे में

रंगकर्मियों को सृजनात्मक, सकारात्मक माहौल एवं रंगप्रेमियों को सार्थक, सृजनात्मक, नवीन और उद्देश्यपूर्ण कलात्मक अनुभव प्रदान करने के उद्देश्य से “दस्तक” की स्थापना सन 2 दिसम्बर 2002 को पटना में हुई। दस्तक ने अब तक मेरे सपने वापस करो (संजय कुंदन की कहानी), गुजरात (गुजरात दंगे पर आधारित विभिन्न कवियों की कविताओं पर आधारित नाटक), करप्शन जिंदाबाद, हाय सपना रे (मेगुअल द सर्वानते के विश्वप्रसिद्ध उपन्यास Don Quixote पर आधारित नाटक), राम सजीवन की प्रेम कथा (उदय प्रकाश की कहानी), एक लड़की पांच दीवाने (हरिशंकर परसाई की कहानी), एक और दुर्घटना (दरियो फ़ो लिखित नाटक) आदि नाटकों का कुशलतापूर्वक मंचन किया है। दस्तक का उद्देश्य केवल नाटकों का मंचन करना ही नहीं बल्कि कलाकारों के शारीरिक, बौधिक व कलात्मक स्तर को परिष्कृत करना और नाट्यप्रेमियों के समक्ष समसामयिक, प्रायोगिक और सार्थक रचनाओं की नाट्य प्रस्तुति प्रस्तुत करना भी है।


शास्त्रीय संगीत का स्वभाव आपस की गुफ्तगू जैसा है

खयाल गायक पं. सत्यशील देशपांडेय से  मुहम्मद जाकिर हुसैन की खास बातचीत 

जाने-माने खयाल गायक पं. सत्यशील देशपांडेय 6-7 जनवरी 2017 को भिलाई-दुर्ग आए थे। महान गायक पं. कुमार गंधर्व के शिष्य होने के नाते उनकी अलग पहचान है। शास्त्रीय संगीत पर आधारित पृष्ठभूमि वाली कुछेक हिंदी-मराठी फिल्मों में भी उन्होंने अपनी आवाज दी है। यहां दुर्ग के शासकीय डॉ. वामन वासुदेव पाटणकर कन्या स्नातकोत्तर कॉलेज में शास्त्रीय संगीत पर आधारित एक संगोष्ठी में हिस्सा लेने आए पं. देशपांडेय से मेरी लंबी बातचीत हुई। पं. देशपांडेय को प्रख्यात पेंटर सैयद हैदर रजा के नाम पर स्थापित रजा सम्मान सहित कई प्रतिष्ठित सम्मान मिल चुके हैं। संयोग से बातचीत के दौरान इसी कॉलेज में प्रोफेसर और रजा अवार्ड प्राप्त प्रख्यात चित्रकार योगेंद्र त्रिपाठी भी मौजूद थे। बातचीत के दौरान पं. देशपांडेय ने शास्त्रीय संगीत के शिक्षण-प्रशिक्षण से लेकर रियालिटी शो और फिल्मों तक ढेर सारे सवालों के जवाब बड़े धीरज के साथ दिया। धाराप्रवाह बातचीत के दौरान उन्होंने शास्त्रीय संगीत और उसके व्याकरण पर भी बहुत कुछ कहा। इसलिए इंटरव्यू बनाने के  दौरान मैनें अपने शहर के वरिष्ठ संगीतज्ञ प्रख्यात वायलिन वादक पं. कीर्ति माधव व्यास से भी कुछ जरूरी सलाह ली। जिससे कि तथ्यात्मक गलती न जाए। इसके बाद तैयार हुआ यह पूरा इंटरव्यू-

0 शास्त्रीय संगीत की शिक्षण पद्धति कैसी होनी चाहिए,खास कर बच्चों के लिए ? 
00 आज बच्चों को शास्त्रीय संगीत के नाम पर व्याकरण ज्यादा बताया जाता है। ऐसे में हमारे बच्चे शास्त्रीय संगीत को सरलता से कैसे आत्मसात कर पाएंगे? मैं बच्चों को बताऊं कि भूप में मध्यम और निषाद वज्र्य है और तीन ताल की मात्राएं 16 हैं तो बच्चे बोर हो जाएंगे। अगर मैं राग भूप के तराने से ही शुरूआत करूं तो बेहतर होगा। दरअसल आज लोगों के पास आधे-पौन घंटे की बंदिश सुनने का भी धीरज नहीं है। इसलिए मैनें फाइव मिनिट्स क्लासिकल म्यूजिक (एफएमसीएम) का कंसेप्ट दिया हैै। 

0 तराना ही क्यों..? 
इंटरव्यू के दौरान पं. देशपांडेय और योगेंद्र त्रिपाठी के साथ 
00 मेरा मानना है कि आपकी मातृभाषा अलग-अलग हो तो भी आप तराना गा सकते हैं। मैनें पांच मिनट में शास्त्रीय संगीत (एफएमसीएम) की जो अवधारणा दी उसमें  एक-एक राग का एक-एक तराना स्कूली बच्चों को बताया जाता है। महाराष्ट्र के स्कूलों में यह प्रयोग चल रहा है। इसके लिए करीब 20 तराने मैनें गाए हैं और 30 अन्य कलाकारों से गवाए हैं। मैनें स्पिक मैके के प्रोग्राम में एक लोकप्रिय गीत 'कजरारे-कजरारे' लिया और उसे 8 मात्रा के एक चक्र के बजाए 8-8 मात्रा के दो चक्र (16 मात्रा) में गा कर बताया। इससे बच्चे भी खुश हो गए और उनकी हमारे संगीत की विविधता भी समझ में आ गई। बात सिर्फ 'कजरारे-कजरारे' की नहीं है,आप आज का कोई भी लोकप्रिय गाना लेकर आइए मैं उसे एक ताल या तीन ताल में बनाके बच्चों को बताउंगा तो उसमें बच्चे एन्ज्वाए करेंगे और संगीत को भी समझेंगे। 

0 बच्चों का शिक्षण तो ठीक है लेकिन आम जनमानस तक शास्त्रीय संगीत को पहुंचाने कलाकार का दायित्व कितना है? 
00 देखिए,हमारे शास्त्रीय संगीत में असीमित संभावनाएं हैं और वो किसी भी सच्चे कलाकार को हमेशा प्रेरित करती है। इससे कलाकार तो आनंदित होता ही है लेकिन ज्यादा से ज्यादा श्रोताओं तक पहुंचने का काम प्रतिभाशाली कलाकार कर नहीं पाते हैं। क्योंकि वो तो अपने परफ ार्मेंस और रियाज में व्यस्त रहते हैं। इसलिए सबसे बड़ी जवाबदारी अकादमिक क्षेत्र के लोगों की है। स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी में जो लोग संगीत के शिक्षण से जुड़े हैं और आज की पीढ़ी के सीधे संपर्क में हैं, यह उनका दायित्व है कि हमारे शास्त्रीय संगीत के प्रति युवा पीढ़ी में समझ पैदा करे और ज्यादा से ज्यादा लोगों को संगीत से जोड़ें। 

0 आजादी से पहले और बाद के दौर में शास्त्रीय संगीत और कलाकारों को लेकर क्या बदलाव देखते हैं? 
आजादी से पहले संपर्क माध्यम उतने नहीं थे। ऐसे में समाज से शास्त्रीय संगीतकारों की अपेक्षाएं सिर्फ यही थी कि उसकी साधना में कोई बाधा न आए। तब कलाकार को लोकप्रिय होने की जरुरत नहीं थी। तब कलाकारों-पहलवानों को राजा-महाराजा का संरक्षण मिलता था। इसलिए जनता को खुश करने की तब नौबत नहीं आई थी। लेकिन स्वातंंत्र्य के बाद जब राजा-महाराजा का दौर खत्म हुआ तो भरण-पोषण के लिए कलाकारों का पाला जनता जनार्दन से पड़ा। ऐसे में कलाकारों ने नई तरकीबें ढूंढ निकाली। जैसे अतिगद्रुत तराने गाना या झाला बजाना। 

0 ...तो क्या शास्त्रीय संगीत आम जनता के लिए नहीं है? 
00 मेरा मानना है कि हमारे शास्त्रीय संगीत का स्वभाव आपस की गुफ्तगू जैसा है। मसलन एक कमरे में 10-20 लोग बैठे हैं और कलाकार गा या बजा रहा है तो वहां राग की बारीकियां उभर कर आएगी। अब वही कलाकार हजारों लोगों के बीच परफार्म करे तो पता नहीं कितने लोग इन बारीकियों को पकड़ पाएंगे। हमारा संगीत जनता को खुश करने के लिए नहीं है बल्कि यह बहुत हद तक स्वांत: सुखाय जैसा है। मैनें अपने जीवन में अपने गुरु पं. कुमार गंधर्व के अलावा पं. रविशंकर और पं. भीमसेन जोशी जैसे कलाकारों को सुना है तो उनका सर्वोत्तम मुझे घरेलू महफिलों में ही मिला है। 

0 तो शास्त्रीय संगीत फिर जनता विमुख हुआ ना?
00 देखिए, आम जनता को तो द्रुत गति का संगीत ज्यादा आकर्षित करेगा। हमारा शास्त्रीय संगीत एक अलग तबीयत का है वो बहुत ही नाजुक है और मौन की तरफ ले जाता है। आबादी बढ़ी है तो जनता को आकर्षित करने की तरकीबें भी निकाली गई हैं। जरूरी नहीं कि उससे सच्चा कलाकार भी खुश हो। मान लो मेरी महफिल हो रही है तो उसमें मैं एक हजार लोगों को खुश करूं, उससे बेहतर होगा कि मैं समझ रखने वाले 5 लोगों के लिए अपना संगीत पेश करुं। मैं ग्रेट ब्रिटेन कई बार गया हूं। वहां शेक्सपियर को पढऩे वाले लोग वहां की आबादी के हिसाब से 1-2 प्रतिशत ही होंगे। हमारी शास्त्रीय कलाएं हमेशा सीमित लोगों तक रही हैं और इसमें वो लोग खुश थे। जनता अभिमुख कला का होना ये तो आजादी के बाद आया है और ये कोई उत्कृष्टता की कसौटी नहीं है। 

0 सुगम संगीत का अपना श्रोता वर्ग है और वो शास्त्रीय संगीत की अपेक्षा कहीं ज्यादा बड़ा है? 
00 वह तो होगा ही। सुगम संगीत और शास्त्रीय संगीत में फ र्क ये है कि सुगम संगीत पूर्व निश्चित है। जैसे 'आधा है चंद्रमा रात आधी' गाना किसी सिचुएशन से बना है। अब ये गाना आपको 2017 में भी अच्छा लगता है तो मैं ईष्र्या करुंगा कि क्या खुश आदमी है ये कि इसको उसी गाने से तृप्ति मिल जाती है। लेकिन जिसकी सांगीतिक आत्मा तड़पती है तो उसको शास्त्रीय संगीत तक आना पड़ता है। हमारे शास्त्रीय संगीत में दो वैश्विक रिदम छह मात्रा का दादरा और 8 मात्रा का कहरवा है। इसके दुगुने मात्रा के ताल हमारे ख्याल संगीत में बनें। ताल का पहला आधा और दूसरा आधा ये कंसेप्ट दुनिया के किसी भी संगीत में नहीं है मैं इस संगीत को श्रेष्ठ बताने का दावा नहीं कर रहा हूं,इसकी खासियत बता रहा हूं। 

0 शास्त्रीय संगीत में खास कर गायन में किन तत्वों का समावेश होता है और श्रोता वर्ग इनसे किस हद तक प्रभावित होता है? 
00 शास्त्रीय संगीत में एक कलाकार का स्वभाव, उसके संस्कार, उसकी तालीम और उसकी तत्काल स्वस्फूर्तता जैसे तत्वों से प्रस्तुति का रूप बनता है। इसलिए हमारे संगीत की ये परंपरा रही है कि उसी गायक के उसी राग को ताल में गाए जाने वाले उसी बंदिश को सुनने के लिए वही श्रोता इस उम्मीद पर बार-बार जाते हैं कि अब कुछ नया होगा। यह बात आप दूसरे संगीत में नहीं पा सकते। हमारे संगीत का वैभव और इसकी ऊंचाई है कि हर स्तर पर किसी भी उम्र में लोग बंदिशों का आनंद ले सकते हैं। शास्त्रीय संगीत में नवनिर्माण की खासियत है और जिसको इसका चस्का पड़ जाए तो यही आनंद उसके लिए बहुत है। इसके बाद दस हजार लोगों को संगीत अच्छा लगता है कि नहीं इससे उसे क्या वास्ता...?
अपने गुरू पं. कुमार गंधर्व के साथ संगत करते हुए
0 आपके गुुरू पं. कुमार गंधर्व इस बारे में क्या सोचते थे? उनकी शिक्षण पद्धति कैसी थी? 
00 पं. कुमार गंधर्व को करोड़ों लोगों ने सुना पर उन्होंने कभी जनता के लिए समझौता नहीं किया। कोई उनकी कोई नकल करे या उनका कोई घराना बने ये उनकी इच्छा कभी नहीं थी। वो कहते थे कि मेरा सौंदर्य विचार, मेरा सांगीतिक विचार है। जब वो सिखाने बैठते थे तो हम लोगों को कोई विशिष्ट राग के साथ उससे जुड़ी परंपरा और अन्य पहलू भी समझाते थे। उसके बाद कहते थे-मैनें आपको बता दिया, अब आप अपना रास्ता ढंूढो और इसलिए ही मैं उनके श्रेष्ठ गुरू मानता हूं। उनकी जगह कोई और होता तो रटवा लेता। लेकिन उनका भी शिक्षण ऐसा ही हुआ था। हमारे पंडित जी के गुरूजी पं. बीआर देवधर जी ने भी ऐसे ही गायकी का हर रंग बताने के बाद कहा था कि-अब आप अपना गाना बनाओ। गुरूजी पं. कुमार गंधर्व का कहना था कि जब आप गाने बैठते हैं तो अष्टांग का प्रदर्शन नहीं लगना चाहिए। वे मानते थे कि गाना अष्टांग के लिए नहीं बना है कि हमें आलाप,बोल आलाप और बोलतान सब कुछ मालूम है और हम सभी का प्रदर्शन कर दें। ऐसा जरूरी नहीं बल्कि जो बंदिश आप गा रहे हैं उसमें जो अनुकूल व प्रभावशाली है, वही प्रदर्शित करें। उनका मानना था कि गायिकी किसी भी अंग की अति न करो। 

0 ऐसे में आप पश्चिमी संगीत को किस पैमाने पर रखते हैं? 
00 पश्चिमी संगीत दरअसल पूर्व निश्चित होता है। महान संगीतकार जुबिन मेहता की सिंफ नी सुनिए,वहां आप हमेशा आउटसाइडर रहेंगे। वहां सवा सौ लोगों की टीम है। जिसमें 15 वायलिन, 10 फ्ल्यूट,16 ड्रम और 20 सैक्सोफोन सहित तमाम वाद्य हंै और इन सबके मिलने से बहुत ही सुंदर सिम्फ नी बनती है लेकिन यह सब तो पूर्व निश्चित है। वो लोग स्कोर बोर्ड में लिखा हुआ पढ़ कर स्कोर बजाते हैं। मैं उनके संगीत को छोटा नहीं बता रहा हूं लेकिन वहां तत्काल में अपना कुछ देने के लिए कलाकार के पास गुंजाइश नहीं होती। इसके विपरीत हमारे यहां तो सामने कुछ भी लिखा हुआ नहीं होता। यहां तो कलाकार का मूड, उसकी तालीम,उसके संस्कार और उसकी तात्कालिक समझ ये सब मिल कर हमेशा एक नई सर्जना रचते हैं। हमारे संगीत में जो क्षमताएं हैं,वो चिरंतन है। इसलिए इसको ज्यादा लोकप्रिय होने की तमन्ना कभी नहीं रही। 

0 आपने महज तीन चुनिंदा फिल्मों में पाश्र्वगायन किया। इसकी क्या वजह थी? 
00 क्योंकि इन तीनों फि ल्मों में शास्त्रीय संगीत की पृष्ठभूमि पर आधारित ही प्रसंग था। फि र वो लोग मुझे जानते भी थे। इसलिए उन्होंने मुझे चुना तो मुझे हट के कुछ नहीं करना पड़ा। शशि कपूर की 'विजेता' फि ल्म में रेखा ''भीनी-भीनी भोर आई'' गीत में अपने उस्ताद से संगीत सीख रही है। वहीं फिल्म 'लेकिन' में हेमा मालिनी के मुजरे के दौरान ''झूठे नैना बोले सांची बतिया'' गीत में उस्ताद जी भी साथ दे रहे हैं। ये 'झूठे नैना' वाली बंदिश मेरी ही तैयार की हुई थी। इन दोनों गीतों में मैनें आशा भोंसले के साथ पाश्र्वगायन किया। वहीं 1996-97 में आई मराठी फि ल्म 'हे गीत जीवनाची' भी शास्त्रीय संगीत की पृष्ठभूमि पर बनी थी। जिसमें मैनें लता मंगेशकर के साथ पाश्र्वगायन किया। इसके बावजूद फिल्मों में गाना मेरे लिए कोई बहुत ''ग्रेट'' चीज नहीं है। 

0 शास्त्रीय संगीत के बहुत से कलाकार फि ल्मों से दूर रहना पसंद करते हैं, इसकी क्या वजह है? 
00 पहली बात तो अब ऐसी फि ल्में नहीं बनती जिसमें हमारे शास्त्रीय संगीत के लिए ठीक-ठाक भी गुंजाइश हो। फि र जिसे एक मुक्त इंप्रोवाइजेशन का चस्का लग जाए यानि कि आप एक रटा हुआ फ ार्मूला पेश नहीं कर रहे हैं और अपने संगीत को हर बार अलग-अलग ढंग से पेश कर रहे हैं तो आपको फिल्मों के ऐसे पूर्व निश्चित 3-4 मिनट के गाने में रूचि नहीं रहेगी। किशोरी अमोणकर को भी तो ऐसे मौके आए थे पर उनका मन नहीं लगा। मुझे भी नहीं लगता कि मैं किसी प्रोड्यूसर के पास जाउं या उनको बुलाऊं या उनसे संबंध रखूं, जिससे वो मुझे भी प्लेबैक दें। प्लेबैक से मुझे कोई फ र्क नहीं पड़ता। मैं अपनी बात नहीं कहता। हर शास्त्रीय संगीत के कलाकार को फिल्मों का आकर्षण होता ही नहीं है। 

0 लेकिन फिल्मी गायन को लेकर आप जैसे कलाकारों में इतनी तल्खियां क्यों है ?
00 हमारे यहां फिल्मों में आज कल जो चेहरे दिखते हैं उन पर तो भले आदमियों की आवाज सूट नहीं होगी। मैं नाम नहीं लूंगा लेकिन फि ल्मी संगीत में जो आज के दौर में हैं, ऐसे लोगों की जीवन शैली में ही संगीत नहीं है। आज विडम्बनाएं बहुत सी हैं। मेरे मित्र सुरेश वाडेकर कितना सुरीले गाने वाले हैं लेकिन आज उनको कोई काम नहीं है। ये अलग बात है कि सुरेश वाडेकर अपना विद्यालय चलाते हैं और संगीत शिक्षण में व्यस्त हैं। उनका आनंद इसी में है। 

0 टेलीविजन चैनलों पर संगीत के रियालिटी शो को आप किस नजरिए से देखते हैं? 
सैयद हैदर रजा के हाथों रजा सम्मान प्राप्त करते हुए
00 मेरी समझ में नहीं आता कि इन रियालिटी शो में बैठे ज्यादातर निर्णायकों को ऐसा क्यों लगता है कि गाना यानि किसी की हू ब हू नकल करना है। होना तो ये चाहिए कि अगर रफ ी साहब या लता जी का गाना है तो उसे आप प्रतियोगी के तौर पर कैसे गाते हैं। अब जो जज बैठे होते हैं वे भी कहते हैं कि लता जी की तरह उसने अच्छा गाया। ये तो नकल की बात हुई ना,आपकी अपनी बात कहां आई इसमें? ऐसा इसलिए है कि ये जो जज बनाए गए हैं, वे इन प्रतियोगियों से उम्र में ज्यादा और थोड़े बेहतर हैं। इसके अलावा क्या है इनके पास? जरूरी नहीं कि ये उन प्रतियोगी बच्चों से ज्यादा टैलेंटेड हों। 

0 लेकिन टेलीविजन चैनल भी तो श्रोताओं तक पहुंचने का माध्यम है? 
00 बिल्कुल है और मैं इन चैनलों की भूमिका से इनकार नहीं कर रहा हूं। मैं दरअसल रियालिटी शो की रियालिटी पर बात कर रहा था। वैसे मैं बताऊं अढ़ाई महीना पहले ठीक दीवाली के दिन जब लोग पटाखों और रोशनाई में वक्त बिताना चाहते हैं, तब 'जी मराठी' ने मेरे डेढ़ घंटे के दो सेशन टेलीकास्ट किए। इसके बाद मुझे हजारों लोगों की प्रतिक्रियाएं आई। सोशल मीडिया में बधाई मिली। तो मैं मानता हूं कि सैटेलाइट चैनल भी श्रोताओं तक पहुंचने का बड़ा माध्यम है। 

0 अपने अब तक के संगीत जीवन को किस तरह परिभाषित करना चाहेंगे? कुल जमा हासिल और आगे की चाहत? 
00 महान संगीतकार पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर जी ने अपना गायन प्रदर्शन छोड़ कर शास्त्रीय संगीत के प्रचार कार्य के लिए खुद को समर्पित कर दिया था। लेकिन हमारी पीढ़ी के लोग ऐसा नहीं कर पाए। हम लोगों ने अपने तरीके से शास्त्रीय संगीत को पल्लवित करने में योगदान दिया। मैं संगीत पर कुछ लिख पाया हूं। खुद को अभिव्यक्त करने मैनें संगीत को माध्यम बनाया। मैं कुछ प्रमुख रागों की रचना कर पाया हूं, जिसे मेरे समकालीन और नई पीढ़ी के लोग गाते हैं। ये अच्छी बात है कि वे लोग मेरी नकल नहीं करते हंै। मेरा मानना है कि हमारी बंदिशों में वो गुण होना चाहिए कि आप उसे अपने तरीके से गा सकें। उम्र के इस पड़ाव में भी मैं वही राग फिर से गाऊं और उसमें मुझे कुछ नया दिखता है, तो मैं गाता रहूंगा और जिस दिन मुझे नई बात नहीं दिखेगी तो नहीं तो गाना बंद कर दूंगा। 

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