Friday, September 15, 2017

कल जबलपुर में खुलेगी ’जंगल में खुलने वाली खिड़की’

बलपुर. महाकोशल शहीद स्मारक ट्रस्ट और विवेचना थियेटर ग्रुप ( विवेचना जबलपुर ) द्वारा प्रारंभ की गई नाट्य निरंतर योजना में के अंतर्गत इस माह 16 सितंबर शनिवार को अतिथि नाट्य मंचन के अंतर्गत ’जंगल में खुलने वाली खिड़कीै’ नाटक मंचित होने जा रहा है। इस नाटक के लेखक जितेन्द्र भाटिया हैं। इसका निर्देशन प्रशांत खिड़वड़कर ने किया है। यह नाटक भोपाल की जानी मानी संस्था ’रंगायन’ द्वारा मंचित किया जाएगा। इस नाटक में जाने माने फिल्म, टी वी व नाटकों के अभिनेता राजीव वर्मा प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं। 

’रंगायन’ भोपाल द्वारा भोपाल में ’जंगल में खुलने वाली खिड़की’ के अनेक मंचन भारत भवन व रवीन्द्र भवन में किये गए हैं। नाटक की कहानी बहुत रोचक है। एक दंपत्ति जंगल के अपने रेस्ट हाउस में पहुंचते हैं। उनके बीच वाद विवाद चल ही रहा है कि एक युवक रेस्ट हाउस में घुस आता है। उसके आने से नाटक में तरह तरह के मोड़ आते हैं। 

नाट्य निंरतर योजना के अंतर्गत हर माह के दूसरे शनिवार को जबलपुर से बाहर की नाट्य संस्था का नाटक आमंत्रित किया जाता है। योजना के इस पांचवें माह में अपरिहार्य कारणों से दूसरे के बजाए तीसरे शनिवार को मंचन आयोजित किया जा रहा है। दर्शकों ने नाट्य निरंतर को बहुत पसंद किया है। 

’जंगल में खुलने वाली खिड़कीै’ का मंचन 16 सितंबर 2017 शनिवार को शहीद स्मारक गोलबाजार में संध्या 7.30 बजे से होगा। नाट्य निरंतर योजना के अंतर्गत मंचित होने जा रहे ’जंगल में खुलने वाली खिड़कीै’ नाटक के प्रवेश पत्र शहीद स्मारक के कार्यालय में उपलब्ध रहेंगे। विवेचना के हिमांशु राय, वसंत काशीकर, बांकेबिहारी ब्यौहार ने दर्शकों से ’जंगल में खुलने वाली खिड़कीै’ नाटक अवश्य देखने का अनुरोध किया है।
-हिमांशु राय
विवेचना 9425387580

Wednesday, September 6, 2017

ब्लू व्हेल गेम का यह वर्जन, इप्टा ने की निंदा

IPTA condemns brutal murder of Gauri Lankesh


National committee of IPTA condemns the shocking and brutal murder of senior journalist,activist and intellectual Gauri Lankesh at her residence at Bengaloru. 

IPTA is of the opinion that this is in  series of brutal murders of Dabholkar,Kalburgi, Govind Pansare by the sangh gang who are creating an atmosphere of terror and violence throughout the country.The voices of reason,rationality,humanity,peace and social justice are being systematically targeted. IPTA calls upon all peace loving rational people to fight this onslaught unitedly.It pays rich tributes to Gauri Lankesh who stood bravely against the forces of right reaction.

We resolve to carry on the struggle of all these martyrs who laid their lives in defense of rationality,freedom of expression and composite culture.

Ranbir Sinh, President.                                                    Rakesh, General Secretary


ब्लू व्हेल गेम का यह वर्जन

-कुमार अंबुज

यह 'ब्लू‍ व्हेल गेम' का वह वर्जन है जिसमें किशोरों और युवाओं को फँसाकर आत्महत्या का नहीं बल्कि हत्या करने का टॉस्क् दिया जा रहा है। इस खेल को खिलानेवाली देश में जो संस्था्ऍं हैं वे अपने प्रतिभागियों को इस कदर उत्तेजित और प्रेरित कर देती हैं कि वे हत्यारे को विजेता बन जाने के महान भ्रम में डाल देती हैं। लेकिन कुल मिलाकर यह एक आत्मघाती खेल है जिसमें समाज और देश अपनी ही हत्या पर उतारू हो गया है।

गौरी लंकेश के मारे जाने और कलबुर्गी, दाभोलकर, पानसरे की हत्याओं के बहुत पहले से ही कहता आया हूँ कि यह दौर नाजीवाद और फासीवाद की आधुनिक प्रतिलिपि है। इसका पूर्वाभास था ही कि प्रतिवाद-प्रतिरोध करनेवाले लेखकों-पत्रकारों-बुद्धिजीवियों पर हर तरह के झूठे मुकदमें दायर होंगे, हत्याऍं होंगी क्योंकि इससे ही उस आतंक का वातावरण ठीक तरह से रचा जा सकता है जिसकी जरूरत सांप्रदायिक प्रकृति की सत्ता को हमेशा होती है। यह सब उसके ऐजेंडे का विषय होता है। इस बारे में पहले भी कई बार, हम सबने लिखा ही है।

रचनाकारों के एक बड़े तबके ने लगातार इसका प्रतिरोध किया, यहॉं तक कि साहित्यं अकादेमी पुरस्कार सहित अन्य सम्मान लौटाने का एक प्रभावी उपक्रम भी हुआ। मगर अब वह प्रतिरोध कम होता दिख रहा है। उस पुरस्कार वापसी के बाद के दृश्य् में अनेक झंडाबरदार लेखक भाजपा सरकारों द्वारा आयोजित, प्रायोजित या समर्थित आयोजनों में हिस्सा  लेने के लिए तर्क बनाते रहे हैं, उत्कंठित हैं और तमाम तरह की ओट ले रहे हैं। अनेक चतुर्भुज ऐसे भी हैं जिनके तीन हाथों में कलम, किताब, प्रतिरोध का परचम है लेकिन चौथे हाथ में कमल के  फूल पर विराजमान लक्ष्मी का शुभ-लाभ लॉकेट भी लटका है।

और संभवत: इसी तसवीर के कारण प्रतिरोध, प्रतिवाद और भर्त्सना की सारी कार्यवाहियॉं निस्तेज हो जाती हैं। कई बार हास्यासस्पद भी।

गौरी लंकेश के ताजा घटनाक्रम की पृष्ठभूमि में क्या इस पर विचार किया जाएगा कि जवाहर कला केंद्र, जयपुर में होनेवाले आयोजन का प्रतिभागी लेखक भी उसी तरह से त्याग करेंगे जैसे साहित्य आकदेमी सम्माान वापसी के समय वे सुस्पष्ट  और दृढ़ थे। क्योंकि केवल बयान जारी करना पर्याप्त नहीं होता, कर्म में भी कुछ पोजीशन लेना होता है। क्योंकि इससे एक प्रभावी संदेश जा सकता है। क्योंकि लेखक रिट्रीट नहीं कर रहे हैं, यह दिखना भी चाहिए।

लेखको-कलाकरों में हमेशा ही एक कलावादी समूह ऐसा रहता आया है जो इस सब तरफ से ऑंख मूँदकर बैठता है। उनकी बात भी आगे होगी ही।
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गौरी लंकेश की हत्या पर प्रलेस और जलेस मध्यप्रदेश का संयुक्त बयान

बैंगलौर में वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश की आज  सरे शाम गोली मारकर की गई हत्या दाभोलकर , पानसरे और कलबुर्गी की हत्याओं की ही अगली कड़ी है । इन तमाम हत्याओं के पीछे एक ही विचार , एक ही विचारधारा और विभिन्न नामों वाले एक ही संगठन की हिंसक सक्रियता है ।

21 वीं सदी की शुरुआत से ही इस हिंसा का वीभत्स रूप खुलते जा रहा है । दुर्भाग्य से अब इस विचार को राजनैतिक समर्थन भी मिलता जा रहा है ।

लोकतंत्र को विफल करने की इन कोशिशों के पीछे धर्मांध राष्ट्रवाद की वह लहर है जिस पर सवार राजनीति इस देश मे फ़ासिस्ट तानाशाही कायम करने का सपना देख रही है ।

यह महादेश इस समय एक त्रासद दुःस्वप्न से भरी रात की ओर धकेला जा रहा है । विवेक की मशाल जलाए रखकर ही इस संघर्ष को हम जीत सकते हैं । और हम यही करेंगे भी ।

मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ और जनवादी लेखक संघ मध्यप्रदेश एकमत से वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या की कठोरतम शब्दों में भर्त्सना करते हैं और कर्नाटक सरकार से हत्यारों की तत्काल गिरफ्तारी तथा त्वरित न्याय की मांग करते हैं ।

राजेन्द्र शर्मा , राजेश जोशी
विनीत तिवारी , मनोज कुलकर्णी

Monday, September 4, 2017

अच्छा रंगमंच सभी नियमाे काे ताेड़ कर किया जाता है

नाट्य-समीक्षा
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नाटक - मैकबेथ
लेखक - शेक्सपीयर
अनुवाद - सुमन कुमार
निर्देशक - अनिल रंजन भौमिक
प्रस्तुति - समानांतर इलाहाबाद |
आलेख नाटक का बदन हाेता है, निर्देशक आत्मा आैर पाञ इंद्रियाँ है | आत्मा की ज़िम्मेदारी हाेती है कि बदन पर काेई ज़ख्म न गहरा लग पाये आैर न ही इंद्रियों का दमन हाे |

मैकबेथ विश्व के बहुचर्चित आैर बहुप्रशंसित नाटकाे मे एक है, इसमे शेक्सपियर ने जाे पाञ रचे है, जाे दृश्य बंधन गढ़े है, इसमे मंच पर जिस भव्यता काे स्थापित किया गया है वह बहुत ही अनूठा कार्य है, शेक्सपियर ने मैकबेथ मे कथ्य आैर शिल्प मे स्पर्धा रखी है | मैकबेथ के संवाद किवदंती बन चुके है |

मैकबेथ पूर्णतया व्वसायिक मंड़लियाे द्वारा खेला जाने वाला नाटक है, यह बजट की मांग करता है, रंगमंच के दीर्घकालीन अनुभव की मांग करता है, परिपक्वता की मांग करता है, उम्दा मंच सज्जा, रूप सज्जा, परिधान आैर प्रकाश व्यवस्था की मांग करता है | अगर आप के पास यह सब न हाे ताे मैकबेथ ज़िद की मांग करता है, दीवानगी की मांग करता है, रंगमंच के नशे की मांग करता है |

रंगमंच करने के बहुत से नियम है आैर अच्छा रंगमंच सभी नियमाे काे ताेड़ कर किया जाता है | एैसा ही बिरला नाटय प्रयोग मैने समानांतर इलाहाबाद की नाटय प्रस्तुति "महादेव " मे देखा |

"महादेव " शेक्सपियर के बहुचर्चित बहुप्रशंसित नाटक "मैकबेथ" का अनुवाद है | अनुवाद सुमन कुमार ने किया है, सुमन कुमार का संबंध राष्ट्रीय नाटय विद्यालय दिल्ली से रहा है | समानांतर इसे़ करने का साहस जुटा पाई इसकी एक महत्वपूर्ण वजह सुमन कुमार का सरल सहज अनुवाद भी है, या अनुवाद ही है | सुमन कुमार ने अव्यवसायिक नाटय संस्था की न्यूनतम एवं अधिकतम सीमा का पूरी तरह ध्यान मे रख कर इसका भारतीय करण किया है |
मैकबेथ एक वीर आैर वफ़ादार सैनिक था जिसे तीन चुड़ैल राजा बन सकने का सपना दिखाती है आैर उसकी पत्नी उसे सब कुछ पा लेने के लिये उकसाती है | शेक्सपियर ने चुड़ैलाे काे अशुभ एवं विनाश का का प्रतीक मानकर समूचे विश्व काे आगाह किया है कि सचेत रहे कि आप के घर मे आप के समीप भी काेई चुड़ैल ताे नही है ???

नाटक केे निर्देशक इलाहाबाद के वरिष्ठ नाटय कर्मी अनिल रंजन भौमिक है, भौमिक जी के पास रंगमंच का चालीस वर्षाे का अनुभव है | मैकबेथ मे भाैमिक जी ने अपने चालीस वर्षाे के अनुभव काे मा़नाे निचोड़ के उंड़ेल दिया है | चुड़ैल वाला दृश्य हाे या युद्ध वाला दृश्य, षड़यंत्र रचने वाला दृश्य हाे या समूचे बरनम वन का स्वतः चलकर महल मे आ जाने वाला दृश्य, भौमिक जी की निर्देशकीय परिकल्पना ने इन सभी दृश्याे काे बहुत खूबसूरती के साथ मंच पर प्रस्तुत कराया है, विशेष कर सैनिकाे का घाेड़े दाैड़ाते हुए आने जाने का दृश्य आकर्षक बन पड़ा है |

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के खुले प्रांगण मे मैकबेथ की यह अंतरंग प्रस्तुति थी, प्रांगण की भव्यता दृश्याे के अनुसार कभी राजमहल की भव्यता का आभास कराती ताे कभी वहां की हरियाली बरनम वन मे पहुचा देती |
युवा रंगकर्मियाे के साथ किया गया भौमिक जी का यह प्रयोग लम्बे समय तक चर्चा का विषय रहेगा |

-अखतर अली
आमानाका, निकट कांच गोदाम
रायपुर (छ. ग.)
माे. 9826126781

Friday, September 1, 2017

रंजीत कपूर ने थिएटर व सिनेमा में नये मुहावरे गढ़े

कानपुर। रंजीत कपूर साहब थिएटर व सिनेमा के सिर्फ कामयाब लेखक, निर्देशक ही नहीं हैं, बल्कि उन्होंने जब भी जो किया नये मुहावरे गढ़े। यह बात बुधवार को 'अनुकृति रंगमंडल कानपुर' द्वारा लोक सेवा मंडल के सहयोग से शास्त्री भवन खलासी लाइन कानपुर में आयोजित कार्यक्रम 'अतीत को नमन, वर्तमान को सम्मान' में वरिष्ठ रंगकर्मी व अनुकृति के सचिव डा.ओमेन्द्र कुमार ने कही। इससे पहले फिल्म गीतकार/ कवि शैलेन्द्र को उनके जन्मदिन के मौके पर उन्हें पुष्पांजलि अर्पित की गयी।

श्री कपूर के सम्मान से पूर्व डा. ओमेन्द्र कुमार ने बताया कि 09 जून 1948 में सिहोर मध्य प्रदेश में जन्मे रंजीत जी 1973-76 में राष्ट्रीय नाट्य विधालय दिल्ली से स्नातक हैं। सुप्रसिद्ध अभिनेता अन्नू कपूर उनके छोटे भाई व फिल्म/ धारावाहिक निर्देशक सीमा कपूर उनकी बहन हैं। जाने भी दो यारों, कभी हां कभी न, लज्जा, बैंडिट क्वीन समेत तमाम फिल्मों की स्क्रिप्ट लिख चुके श्री कपूर ने रंगमंच के लिए एक रुका हुआ फैसला, एक घोड़ा छह सवार, एक संसदीय समिति की उठक बैठक सहित काफी नाटक लिखे और निर्देशित किये हैं।

 रंगकर्मी कृष्णा सक्सेना ने भी श्री कपूर से जुड़े अपने संस्मरण बताये। अनुकृति द्वारा रंजीत कपूर को 'लाइफ टाइम एचीवमेंट' सम्मान प्रदान किया गया। श्री कपूर ने शैलेन्द्र को एकमात्र मूलतः कवि गीतकार बताया। कहाकि 'सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है' जैसे सहज शब्दों के इस्तेमाल से शैलेन्द्र जी के गीत हमेशा जन जन तक लोकप्रिय रहेंगे।
इसके बाद भारत पाक संबंधों को रेखांकित करती रंजीत कपूर द्वारा लिखित-निर्देशित उनकी चर्चित फिल्म 'जय हो डेमोक्रेसी' का विशिष्ट प्रदर्शन आयोजित किया गया है।

फिल्म में एक पाक सैनिक का एक संवाद 'अल्लाह ईश्वर ने तो एक ही धरती बनायी थी इसे सीमाओं में तो हमने बांटा है' पर दर्शकों की खूब तालियां बजीं।

कार्यक्रम में डा. आनंद शुक्ला, डा. राजेन्द्र वर्मा, लोक सेवा मंडल के अध्यक्ष दीपक मालवीय, कपिल सिंह, संजय शर्मा, नीलम प्रिया मिश्रा, दीपिका सिंह, योगेन्द्र श्रीवास्तव, गोपाल शुक्ला, अनिल गौड़, उमेश शुक्ला, अभिलाष, आकाश, स्वयं कुमार समेत तमाम लोग मौजूद रहे।

मेछा-दाढ़ी बढ़ा ले भाई, साधू बन उड़ा मलाई...

रायपुर. प्रगतिशील लैखक संघ और इप्टा रायपुर के संयुक्त तत्वावधान में वृंदावन हॉल रायपुर में आयोजित प्रसंग परसाई में प्रख्यात लेखक प्रभाकर चौबे ने मुख्य अतिथि की आसंदी से कहा कि हरिशंकर परसाई जी का समाज से बेहद जीवंत संपर्क था. वे सिर्फ रचनाकार ही नहीं बल्कि एक्टिविस्ट भी थे. आज के समय में जो लेखक राजनीति से परहेज़ करेगा वह भजन तो लिख सकता है किंतु साहित्य नहीं लिख सकता. परसाई जी समाज की तमाम चीजो से रस ग्रहण कर उसे विचारों में ढालते थे. आज फेसबुक, वाट्सएप जैसी सोशल मीडिया में प्रेमचंद और परसाई को सबसे ज्यादा उद्धृत किया जा रहा है, इसी से उनकी बढ़ती प्रासंगिकता का पता चलता है. परसाई जी हमेशा हम सबको रास्ता दिखाते रहेंगे.

 विशेष अतिथि वरिष्ठ रचनाकार और संपादक ललित सुरजन ने अपने संबोधन में कहा कि इन दिनों समाज और देश में जो कुछ भी घट रहा है, उसमें परसाई जी बहुत याद आ रहे हैं. आज परसाई की रचनाओं को लेकर जनता के बीच जाने की जरूरत है. आज जड़ स्थिति को तोड़ना जरूरी है. परसाई की रचनाएं युवाओं के लिए साहित्य में प्रवेश की खिड़की खोल सकती है.

विशेष अतिथि प्रख्यात रंगकर्मी एवं निर्देशक मिनहाज असद ने परसाई जी से हुई मुलाकात का जिक्र करते हुए कहा कि उनकी याददाश्त अद्भुत थी. वे रंगकर्मियों के लिए सबसे ज्यादा लोकप्रिय साहित्यकार हैं. वे छोटे छोटे वाक्यों में अपने तर्कों को बेहद सरलता से रखते थे.लेखक और रंगकर्मी सुभाष मिश्र ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि हरिशंकर परसाई आजादी के बाद के सबसे बड़े लोकशिक्षक हैं. वे समय व समाज को बहुत बारीकी से देखते हैं.उनके व्यंग्य में करूणा की अंतरधारा बहती हैं. आज सबसे ज्यादा नाटक परसाई की रचनाओं पर ही खेले जा रहे हैं.

 दिल्ली से आईं रचनाकार हेमलता माहेश्वर ने अपने संबोधन में पाश की कविता का जिक्र करते हुए कहा कि समय ऐसा आ गया है कि शिकायत करें भी तो किससे करें और कैसे करें. परसाई जी छोटे छोटे वाक्यों से बड़ा सटायर खड़ा कर देते थे.

कार्यक्रम की शुरुआत इप्टा के कलाकारों ने जीवन यदु के एक प्रभावशाली जनगीत से किया. अंत में इप्टा ने निसार अली के निर्देश न में परसाई की रचना टार्च बेचने वाला का छत्तीसगढ़ी नाट्य रूपांतरण टैच बेचईया  का नाचा गम्मत की शैली में मंचन किया. इस अनूठे और प्रभावशाली मंचतन ने खूब तालियां बटोरी. विशेष कर निसार और शेखर नाग के अभिनय ने  दर्शकों पर अमिट छाप छोड़ दी.
कार्यक्रम का संचालन संजय शाम और आभार प्रदर्शन अरूण काठोते ने किया.
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🔦🔦 टार्च बेचने वाला 🔦🔦
●हरिशंकर परसाई

गांव के दो हमउम्र दोस्त ,समारू और दुलारू की कथा है , "टार्च बेचने वाले" ...
आर्थिक दिक़्कतों में उलझे मित्रों के पास "चोंगी-माखुर" ख़रीदने लायक़ औक़ात बची नहीं ।दोनों भाग्य-भरोसे "उत्ती" और "बुड़ती" दिशा में निकल पड़ते हैं क़िस्मत आज़माने , इस उम्मीद के साथ कि एक बरस बाद यहीं मिलेंगे ।
पहला सस्ती " टॉर्च " बेचते भटकता है , दर -ब- दर ।

दूसरा "भीतर के अंधेरे का डर" बता , भक्तों को "भीतरी के टैच बत्ती" जलाने का सर्वोत्तम उपाय बताता ,  चढ़ावा बटोरते , छप्पनभोग लगाते , सुखी जीवन जी रहा है ।

भटकते हुए समारू को एक दिन " दुलारनाथ " के दर्शन  हो जाते हैं , और मित्र दुलारू से अचानक "मालदार" बन जाने  का रहस्य पूछता है ।बाबा  दुलारनाथ उस" बुद्धू" को समझाते हुए बताता है कि तू " टॉर्च " बेचते हुए बाहरी अंधकार का डर बताता है ...उसमें "कमाई " नहीं है ।

अगर तरक़्की करना है तो मेरे "धंधे" मेंं शामिल हो जा ...फ़ायदा-उप्पर-फ़ायदा ...
ग्लोबल उपभोक्ता बाज़ार और बाबा बाज़ार के गलबहिंया डाले सुनामी युग में , चिरहा-फटहा पंहिरे जोक्कड़ , लोटावाली नजरिया , भक्तिभाव में झूमते भक्तगण , " बाबा दुलारनाथ " का लोकल से लेकर ग्लोबल तक फैलता बाज़ार ...

नाचा शैली की छौंक लगाते दृश्यों की खेप-दर-खेप , पहली झलक से ही ठहाकों और तालियों की बौछार का समां बांध  देते हैं और जोक्कड़ को  लबालब - अपनेपन से सराबोर करने  लगती है ।

शेखर नाग ने जोक्कड़ - शैली में परसाई जी के व्यंग्य को शानदार ढंग से स्थापित किया , सीधे - सादे जोक्कड़ के रुप में " मैं हर हांवव जी टैच बेचईया " नचौड़ी गीत गाते ,टॉर्च बेचते , मनोशारिरिक आभिनय की चपलता और सहज-स्वभाविकता को शेखर ने शानदार ढंग से स्थापित किया । दूसरे जोक्कड़ के रुप में निसार अली ने बाबा दुलारनाथ की तर्र भूमिका निभाई ।
                                         
निसार अली अौर शेखर ने " प्रोफ़ेशनल नाचा एक्टर " का ख़िताब दर्शकों से पा ही लिया , दोनों की शानदार जुगलबंदी ने परसाई जी के तीखे व्यंग्य को लोकाभिनय के माध्यम से स्थापित किया ।

बाबा का इवेंट मैनेजर ( मानिक बर्मन ) , फ़ेसबुक नशेड़ी ( स्वप्निल एंथनी ) , लालचटनी बीमार( मीज़ान अहमद ) ,ऑटोवाला ( अजीत टंडन ) , टार्चवाला (मीज़ान अहमद) , चोटीकाट भूत-प्रेत- से बाधित महिला(ओंकार साहू) कोरस की भूमिका में अजय निर्मलकर ,छ्त्रपाल पठौर ने अभिनय किया से जुड़े दृश्यों ने दर्शकों से सामयिक संवाद क़ायम करने में कामयाबी हासिल की , इन दृश्यों में नये कलाकारों ने दमदार उपस्थिति दर्ज की । वेषभूषा , सामग्री संकलन अजय निर्मलकर का था ।मऊ गुप्ता( हारमोनियम ) ,( ढोलक ) , ने प्रस्तुति में सहयोग दिया । प्रस्तुति का निर्देशन निसार अली ने किया ।

कुल मिलाकर  इप्टा ने साबित कर दिया कि नाटक की सामयिक अंर्तवस्तु , अभिव्यक्ति के ख़तरे और अभिनेता के निजि मेहनत से कमाई " आज़ाद गम्मत अभिनय शैली " दर्शकों से शाना-ब-शाना जुड़ अपनेपन का अहसास रचती है । "टैच बेचईया" पिछले 25 वर्षों से नुक्कड़ , चौपाल अौर मंच पर लगातार खेला जा रहा है , प्रगतिशील कवि-गीतकार जीवन यदु द्वारा नाचा शैली में रुपांतरित "टैच बेचईया" अौर ज़्यादा सामयिक अौर धारदार बन गया है जिसके पैनेपन को हम अपनी उंगलियों पर परख सकते हैं ।  बहुत क़रीब से...

नाचा के शरुआत में  दर्शकों  को " इहिच मन हमर देवी है अऊ इहिच मन हमर देवता है " कहकर संबोधित करते ही हैं  "सर्वोत्तम नाचा देखईया दर्शकों " का  इप्टा परिवार की ओर से शुक्रिया अदा करते हैं।

■ निसार अली

Tuesday, August 29, 2017

अशोकनगर में होगी कविता की कार्यशाला

अशोकनगर। प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा की अशोकनगर इकाई संयुक्त रूप प्रतिबद्ध कवि , कथाकार , आलोचक और चिन्तक गजानन माधव मुक्तिबोध के जन्म शताब्दी वर्ष में 1 और 2 अक्टूबर , 2017 को कविता कार्यशाला का आयोजन करने जा रही है | 

इस कार्यशाला की विस्तृत रूपरेखा जल्दी ही प्रसारित की जाएगी। कार्यशाला में पांच सत्र होंगे जिनमें  से दो सत्र क्रमशः मुक्तिबोध की कविता और आलोचना पर तथा तीन सत्र युवा कवियों की कविताओं पर केन्द्रित होंगे | इस कार्यशाला में गुना और अशोकनगर के अलावा 10 युवा कवियों को बाहर से भी आमत्रित किया जाएगा |

 35 वर्ष से कम उम्र के साथी इस तरह की कार्यशाला में शामिल होने के लिए उत्सुक हों तो अपनी दस प्रकाशित / अप्रकाशित कविताएं भेज सकते हैं। कविताओं के आधार पर उन्हें चयनित किया जाएगा| युवा साथियों के आवास और भोजन की व्यवस्था आयोजक करेंगे  पर यात्रा व्यय उन्हें स्वयं वहन  करना होगा |

कार्यशाला में आमंत्रित अतिथियों में पंकज चतुर्वेदी , बसंत त्रिपाठी , वैभव सिंह और विनीत तिवारी ने आने के लिए अपनी सहमति दे दी है | कविता कार्यशाला में कविता पोस्टर प्रदर्शनी और जनगीत कार्यशाला का ज़रूरी हिस्सा रहेंगे |  

संपर्क : पंकज दीक्षित ( अध्यक्ष , प्रलेसं अशोकनगर , मो. 9893717211 ) , सीमा राजोरिया (अध्यक्ष , इप्टा , अशोकनगर , मो. 9893723662 ) , संजय माथुर ( सचिव , प्रलेसं अशोकनगर , मो. 73546 93886 ) , सिद्धार्थ ( सचिव  , इप्टा , अशोकनगर , मो. 903992277 )

Thursday, August 24, 2017

परसाई बनने के लिए तह पर जाकर मुद्दों को समझना जरुरी

ख्यात रचना और व्यंगकार हरिशंकर परसाई को उनकी रचनाओं पर आधारित नाटकों के जरिए किया याद. 

इंदौर. प्रगतिशील लेखक संघ की इंदौर इकाई ने हरिशंकर परसाई को उनकी रचनाओं पर आधारित नाटक के जरिए याद किया। मंगलवार को कस्तूरबाग्राम रुरल इंस्टीट्यूट में भोलाराम का जीव और सदाराव का तावीज जैसे नाटक मंचित किए गए। दोनों नाटकों के जरिए परसाई की रचना में व्यंग के समावेश ने दर्शकों को गुदगुदाया। साथ ही संदेश की गहराई पर सोचने को मजबूर किया। संस्था के करीब 200 से 250 युवतियां और कॉलेज प्रोफेसर्स शामिल हुए। व्याख्याता अजय सोलंकी ने कस्तूरबाग्राम का परिचय देकर कार्यक्रम की शुरुआत की। इंदौर प्रलेसं के अध्यक्ष एस के दुबे ने जानकारी देते हुए बताया कि प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना 1936 में और पहला अधिवेशन लखनऊ में प्रेमचंद की अध्यक्षता में 9 और 10 अप्रैल 1936 में हुआ। विद्यार्थी निकिता जामले ने परसाई जी का परिचय दिया। हिंदी की विद्वान शोभना जोशी ने परसाई, परसाई बने कैसे? परसाई बनने के लिए तह पर जाकर मुद्दों, परेशानियों को समझना जरुरी है। विद्यार्थियों को व्यंग्य और हास्य में अंतर बताते हुए कहा किसी समस्या को, शोषण को शब्दों के ताने बाने में लपेटकर कटाक्ष के साथ लोगों के सामने रखना व्यंग्य है। जो सतही या उथली बातों पर केंद्रित नहीं होता है। 

लगातार पढ़ते हुए भी हर बार खुलेगी नई परत

सारिका श्रीवास्तव ने संचालन करते हुए कहा साहित्यकारों का काम केवल मजे मजे और घनघोर साहित्य की रचना करना ही नहीं है। एक अच्छा रचनाकार वही है जो लोगों तक अपनी बात पहुंचा सके। उनके दुख तकलीफ को समझ सके। जो किसानों, मजदूरों और तमाम शोषित तबके के दर्द अपनी रचनाओं के जरिए दिखा सके। जो परसाई को एक बार पढ़ेगा बार बार पढऩा चाहेगा और जितनी बार पढ़ेगा हर बार नया व्यंग्य एक नई परत को खुला हुआ पाएगा। उनके व्यंग्य पढ़ते हुए लगता है जैसे वर्तमान परिस्थितियों पर ही बात हो रही हो।

कुरीतियों और प्रशासन की व्यंग से खोली पोल

गुलरेज खान ने नाटक के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि हरिशंकर परसाई मखमल में जूते लपेटकर मारते थे। उन जैसा व्यंग्यकार जो समाज की कुरीतियों और प्रशासन की पोल को अपने व्यंग्य के जरिए लोगों के सामने रखा। ये आज हम उनकी दो व्यंग्य रचनाओं भोलाराम का जीव और सदाचार का ताबीज पर दो नाटक खेल रहे हैं। संस्था की ही छात्रा निर्मला सिसौदिया ने परसाई की रचनाओं पर अपनी बात रखी। कार्यक्रम में कस्तूरबाग्राम रुरल इंस्टीट्यूट की प्राचार्या निर्मला सिंह और उनके स्टाफ ने विशेष सहयोग दिया। आभार प्रलेस की नई सदस्य अर्शी ने माना। 

कलाकार 

नाटकों का निर्देशन गुलरेज खान ने किया। अजय, जय, यश, पलश, हिमांशु रायकवार, शाहबाज खान, रौशन, कनक, नुपूर, मयंक, मेलिस एस मिलन, यश जैन, अजय गोयल, पुलकितसोनी, अमुल, अनुज यादव, हिमांशु पांचाल, हिमांशी, चित्रांश, मोहित,  ऋषभ, राजिक, उमंग, जय शर्मा आदि कलाकारों ने अभिनय किया।   

- सारिका श्रीवास्तव                      

Wednesday, August 23, 2017

भव्य रंगमंच कला के इतिहास मे वैचारिक रंगमंच के पीछे खड़ा हाेगा

नाटक - टार्च बेचय्या 
कहानी - हरिशंकर परसाई
नाटय रूपांतर - जीवन यदु राही 
निर्देशक - निसार अली 

अभाव के रंगमंच से गुज़र कर ही अनेकाे रंगकर्मी नाटय विधा काे सम्पन्नता की दहलीज पर पहुचाने मे प्रयासरत है, जिसे अभाव का रंगमंच कहा जाता है, दरअसल यह अभाव उसकी पीड़ा नही बल्कि उसका सौंदर्य है | रंगमंच की समृद्धि उसकी संस्कृति मे निहित है, जाे नाटकाे काे उसकी भव्यता से आंकते है ताे उनके आंकने की परिभाषा ञुटिपूर्ण है, उसमे सुधार की आवश्यकता है | जाे नाटक आंखाे के लिये हाेते है उनका सौंदर्य दृश्याे मे, रंगाे मे, वेशभूषा मे, रूप सज्जा मे, प्रकाश व्यवस्था मे हाेता है, लेकिन जाे नाटक मस्तिष्क के लिये हाेते है उनका सौंदर्य उसकी कथा वस्तु मे हाेता है | 


नाटक नाटक मे अंतर हाेता है | जैसे सब्जी सब्जी के स्वाद मे अंतर हाेता है जबकि दाेनाे से भूख मिटती है, पेट भरता है | यह कतई संभव नही है कि भव्य रंगमंच ही कला के इतिहास मे दर्ज हाेगा, यकीनन वह वैचारिक रंगमंच के पीछे खड़ा हाेगा |


टार्च बेचय्या, प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचना का नाटय रूपांतरण है, रूपांतरण किया है जीवन यदु राही साहब ने | जीवन यदु राही छत्तीसगढ़ के साहित्य, विशेषकर जनवादी गीताे के रचनाकार के रूप मे एक प्रतिष्ठित नाम है | नाटक के निर्देशक थे निसार अली | छत्तीसगढ़ की लोकप्रिय लाेक शैली गम्मत मे इसे ढ़ाल कर निसार अली ने इसे अतिरिक्त निखार प्रदान कर संवार दिया है | जीवन यदु राही की स्कृप्ट बीज थी जिसे निसार ने फूल बना दिया | नाटक मे बारिश के बाद महकने वाली मिट्टी की सुगंध थी |
निसार के पास इप्टा का प्रतिष्ठित बैनर है, दक्ष अभिनेता (शेखर नाग) है, आैर स्वयं उनके पास बेहतर रंग दृष्टि है, लिहाज़ा हमे उनसे आैर बेहतर नाटकाे की उम्मीद है |


-अखतर अली
रायपुर (छ. ग.)
माे. 9826126781

कला के चेतना-पक्ष का सबसे बड़ा शत्रु है मध्यम वर्ग


-    मंजुल भारद्वाज 

र प्राणी को ब्रह्माण्ड में जीने के लिए ‘भोजन’ की आवश्यकता अनिवार्य है चाहे वो मिटटी हो , पानी हो ,वनस्पति , मांस या अन्य धातु जिससे शरीर स्वस्थ रहे , पेट भरे और प्राणी जीवित रहे . प्रकृति ने सभी प्राणियों के लिए पर्याप्त संसाधन मुहैया कराये हैं या उपलब्ध हैं. मनुष्य को छोड़ सभी प्राणी अपना भरण पोषण प्रकृति के अनुसार करते हैं या मनुष्य द्वारा स्थापित ‘व्यवस्था’ के अनुसार अपना भरण पोषण करते हैं. हाँ मनुष्य के जीवन यापन के लिए अर्थ सृजन की आवश्यकता होती है . मनुष्य  सभ्य है , सभ्यता का निर्माण किया है, ‘व्यवस्था , सत्ता कायम की है  और हर ‘व्यवस्था’ के  जीवन यापन के सूत्र अलग अलग होते हैं या यूँ कहें कायदे कानून बने हुए है या सरकारें हर समय ‘रोज़गार’ शब्द के सप्तरंगी छतरी के नीचे लोक लुभावन सपने बिखेरती रहती है , हर व्यवस्था , सत्ता के यह प्रशासकीय हथकंडे और सूत्र होते हैं .

मनुष्य जितना ‘सभ्य’ होता जा रहा है उसका ‘पेट’ अन्य प्राणियों के मुकाबले बढ़ता जा रहा है . जो जितना बड़ा, जितना विकसित , जीतना आधुनिक , जितना तानाशाह या जितना लोकतान्त्रिक उतना ही उसका ‘पेट’ बड़ा हो जाता है दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र ‘अमेरिका से लेकर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र ‘भारत’ तक. इसकी वजह ‘पेट’ का आकार नहीं ,अपितु ज़रूरत की बजाए ‘लालच’ को ‘विकास’ मान लेने के भ्रम की है . वैज्ञानिक युग ,विज्ञान के तौर तरीकों और विज्ञान से उपजी ‘तकनीक’ के व्यापारिक , मुनाफाखोरी , ‘खरीदने और बेचने’ के वर्चस्ववादी युग के ढकोसलों की है . सारी धरती प्रकृति की है ..ये ‘विकसित’ मनुष्य को स्वीकार नहीं हैं , सारी धरती उसकी ये मन्त्र है इस  विकसित’ मनुष्य का , इसलिए ‘ज़रूरत को अनिवार्य ‘लालच’ का रूप देने के लिए चौबीस घंटे हजारों चैनल पूरे ब्रह्माण्ड में ‘मुनाफ़े’ के लिए पूरे  ‘ब्रह्माण्ड’ के संसाधनों को ‘लूट’ रहे हैं . ऐसे में चंद ‘लोग’ ऐश कर रहे हैं और बाकी अपना पेट भरने के लिए हर पल मारे मारे फिर रहे हैं ..’फिर’ भी मनुष्य अपने आप को ‘शिक्षित और सभ्य कहता है बड़ी शान से और पूरी प्रकृति उस पर ‘हंसती’ है.

आदम काल से लेकर आज के ‘वैज्ञानिक सभ्यता के दौर तक मनुष्य को जीवन यापन के लिए अपने शारीरिक बल का उपयोग करना पड़ता है .उत्क्रांति के ‘ पैदल ,पहिये और पंख’ के हर उपादानो के दौर में मनुष्य के शारीरिक श्रम का अर्थ उपार्जन में अहम भूमिका है . आदम काल में ‘शारीरिक बल’ ही श्रेष्ट था . जिसका जितना बल उतनी उसकी सम्पत्ति . बुद्धि के विकास ने ‘शारीरिक बल को ‘अर्थ’ उपार्जन के  सबसे निचले पायदान पर फेंक दिया . आज जो मनुष्य केवल और केवल ‘शारीरिक श्रम’ से अपनी जीविका चला रहा है वो इस ‘सभ्य और शिक्षित’ समाज के हाशिये पर हैं , जो शारीरिक श्रम के साथ थोडा कौशल का उपयोग करते हैं ..वो थोड़ा बेहतर .. जो केवल ‘लैंगिक’ व्यवहार का उपयोग करते हैं वो ‘बेहतर और बदतर’ ..जो  बुद्धि का  उपयोग करते हैं वो ‘समाज’ के उपर वाले तबके में हैं . यानी मनुष्य के इस दौर में अर्थ उपार्जन के चार तरीके हैं 1.शारीरक श्रम एवम् कौशल 2.  भाव भंगिमा और कौशल 3. लैंगिक व्यवहार 4. चेतना ,बुद्धि और विचार !

कला और कलाकार का अर्थ उपार्जन कैसे हो? कला ‘चेतना’ है , विद्रोही है , मनुष्य को मनुष्य बनाने और बनाये रखने का माध्यम है . इस दुनिया में कई ‘व्यस्थाएं’ रहीं है जो ‘कला और कलाकार’ को अपने दरबार में अपनी सत्ता के प्रचार प्रसार के लिए उपयोग करती है, आज भी कर रहीं हैं व्यस्थाएं इन कलाकारों को भोग और विलासता के सारे संसाधन मुहैया कराती हैं . आजकल ग्रांट , अनुदान इनके लिए उपयुक्त शब्द हैं . चूँकि ‘कला और कलाकार’ विद्रोही होते हैं ..इसलिए सत्ता से उनका संघर्ष होता है , जन सरोकारी होने की वजह से ऐसे ‘कलाकार’ जनता के बीच ‘जनता’ की तरह अपना गुजर बसर करते हैं . और सत्ता के दमन की तरह तरह की यातना सहते हैं ..चाहे हो सरकारी हो या सामजिक हो !

भौतिक विकास , लालच , सत्ता और शोहरत की चकाचौंध ने कलाकारों को सम्भ्रमित किया है . सत्ता ने एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत ‘कला’ को पेट भरने का साधन मात्र बना दिया है . और कलाकारों को एक पेट भरने वाली भीड़ . सत्ता ने ये इसलिए किया है ताकि ‘सत्ता’ जनता का शोषण करती रहे और उसको ‘सवाल’ पूछने वाले कलाकार , जनता को जागरूक करने वाले कलाकार , कला को चेतना का सर्वोपरी माध्यम मानने वाले कलाकार पैदा ही ना हो ..ऐसा करके सत्ता अपने खिलाफ़ ‘विद्रोह’ को दबाती है . कला और कलाकरों की एक ऐसी भीड़ का निर्माण करती है जो ‘सत्ता’ के टुकड़ों पर बन्दरबांट करते रहे  ! ऐसे समाज का निर्माण करती है सत्ता जहाँ ‘कला और कलाकार’ को मात्र नाचने गाने वाले ‘तुच्छ’ तबके के रूप में देखा जाता है . या उपभोग के ‘भोग्यात्मक’ रूप में . कोढ में खाज पढ़ा लिखा अनपढ़ , शोहरत पिपासु ‘मध्यम वर्ग’ जो हर तरह का सुख भोगना चाहता है किसी भी कीमत पर . आज की शोषणवादी व्यवस्था का ‘वाहक’ है ये ‘‘मध्यम वर्ग’. ‘लालच’ का सिरमौर’ है ये मध्यम वर्ग. आधी अधूरी ‘सोच’, आधा अधुरा ज्ञान , आधा अधुरा जीवन, और सपने पूरी दुनिया पर कब्जा करने के . इन्हीं रंगीन सपनों को पाने के लिए विकास’ के अभिशाप महानगरों का निवासी है ये मध्यम वर्ग !

इन महानगरों में अपने सपनों को पाने के लिए हर पल ‘भीड़’ में विशेष होने के अभिनय में माहिर हो गया है ये मध्यम वर्ग. हर तरह के कृत्रिम बाज़ार का ग्राहक है ये मध्यम वर्ग. हर तरह की लताड़ सहने में माहिर है ये मध्यम वर्ग. सबका साथ और सबका विकास का भक्त है ये मध्यम वर्ग. पर अफ़सोस ये मध्यम वर्ग थोडा है ..थोड़े की ज़रूरत है के चक्रव्यूह को नहीं तोड़ पाता और अपने ही दिखावटी सपनों के जाल में फंसकर ‘शोषित’ होता रहता है और ‘विकास’ का भजन गाता रहता है . इस शोषण चक्र से इस मध्यम वर्ग को मुक्ति दिलाता है या दिला सकता है ,वो है ‘कलाकार’! पर ये मध्यम वर्ग पूंजीवादी व्यवस्था के षड्यंत्र सूत्र मनोरंजन के लिए कला’ का भक्त है .इस भक्तिभाव के तहत वो एक ऐसे ‘कलाकारों’ के समूह को प्रोत्साहित करता है जो कला के भोगवादी पक्ष के प्रचार प्रसार में माहिर हो . ऐसे कलाकारों को ये मध्यम वर्ग अपने एसएमएस से चुटकी बजाकर सुपर स्टार बनाता है और शोहरत के आसमान पर बिठाता है. पर कला के चेतना-पक्ष का सबसे बड़ा शत्रु है मध्यम वर्ग !

विकास के महानगरीय ‘विनाश’ टापुओं में मनोरंजन के लिए कला को मानने वाले ‘कलाकारों’ की भीड़ है . जो मध्यम वर्ग के इशारों पर नाचती है और ‘मध्यम वर्ग’ की तरह ही कहीं नहीं पहुँचती . बस घूमती रहती है अपने ही भ्रम जाल में, और शोषण वादी ‘सत्ता’ का राजपाट इसी ‘मध्यम वर्ग’ के भ्रमजाल के ‘पहिये’ पर चलता है .

कलाकार का मकसद केवल पेट भरना नहीं होता . इसका मतलब ये नहीं है की ‘कलाकार’ को जीवन यापन की मौलिक सुविधाओं की दरकार नहीं है . जो ‘कलाकार’ है उसे जीवन यापन की कला भी आती है . और जो रोज़गार की भीड़ में लगा है उसकी बात और है . कलाकार को ‘कला’ का मकसद समझना होगा , विकास के नाम पर ‘विनाशलीला’ के षड्यंत्र को समझना होगा. सत्ता के षड्यंत्र को समझना होगा, उसके अनुदान के टुकड़ों से आगे सोचना होगा  , समाज की ‘चेतना’ की जड़ता को तोडना होगा . कलाकार केवल गाना गाने वाले , नाचने वाले हुनरमंद ‘शरीर’ नहीं होते अपितु ‘चेतना’ से आलौकित जनसरोकारी व्यक्तित्व होते हैं जो हर पल ‘मध्यम वर्ग और सत्ता’ के शोषणवादी चक्रव्यूहों को अपनी कला से भेदतें हैं! क्योकि कला ही मनुष्य को मनुष्य बनाती है. आज ‘कलाकारों’ को तय करना है की वो ‘अर्थ’ उपार्जन में अपने आप को कौन सी श्रेणी में रखना चाहते है 1.शारीरक श्रम एवम् कौशल 2. भाव भंगिमा और कौशल 3. लैंगिक व्यवहार 4.    चेतना,बुद्धि और विचार !

आओ मनुष्यता और इंसानियत को बचाने के लिए कला के चेतना’ के विवेकशील प्रतिबद्ध स्वरूप को अपनाएं . कला के इन्सान को इंसान बनाने वाले ‘कलात्मक’ पक्ष को अपनाएं और  सत्ता के अनुदानी टुकड़ों का तिरस्कार कर अपने आप को रोजगार वाली  भीड़ से मुक्त करें . क्योकि ‘कलाकार’ अपने पेट की बजाए अपने ‘कलात्मक’ आलोक से आलौकित होते हैं. कलामेव जयते!
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मंजुल भारद्वाज थिएटर ऑफ रेलेवेंस” नाट्य सिद्धांत के सर्जक व प्रयोगकर्त्ता हैं। एक अभिनेता के रूप में उन्होंने 16000 से ज्यादा बार मंच से पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। लेखक-निर्देशक के तौर पर 28 से अधिक नाटकों का लेखन और निर्देशन किया है। फेसिलिटेटर के तौर पर इन्होंने राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर थियेटर ऑफ रेलेवेंस सिद्धांत के तहत 1000 से अधिक नाट्य कार्यशालाओं का संचालन किया है। वे रंगकर्म को जीवन की चुनौतियों के खिलाफ लड़ने वाला हथियार मानते हैं। मंजुल मुंबई में रहते हैं। उनसे 09820391859 पर संपर्क किया जा सकता है।

अगस्त महीने की एक बड़ी दुर्घटना परसाई का जन्मदिन है

अगस्त महीने में दुर्घटनाएँ होती ही हैं। अगस्त महीने की एक बड़ी दुर्घटना हरिशंकर परसाई का जन्मदिन है।

हरिशंकर परसाई ने जो विध्वंसकारी साहित्य रचा उसके चलते अपना करियर खराब हो गया। परसाई जी ऐसा व्यंग्य न लिखते और दुष्यंत कुमार ऐसी ग़ज़लें न कहते तो अपन ट्रेड यूनियन वगैरह के चक्कर में न पड़कर किसी उच्च पद पर होते और सम्मान पूर्वक मोटी रिश्वत-आदि लेकर अपना इहलोक-परलोक सब सुधारते रहते। इसलिए परसाई जी ने अपने विध्वंसकारी साहित्य को जला देने की जो बात मजाक में कही थी, उस पर उनके वारिसों को गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। समाजवाद, वैज्ञानिक-समझ, तर्क और विवेक की शिक्षा देने वांले परसाई जी अपने आप में एक पूरी यूनिवर्सिटी थे और हिंदी पट्टी में जिस राजनीतिक विचारधारा के प्रसार का काम अकेले परसाई जी ने किया वो सारे वामदल मिलकर नहीं कर सके।  परसाई जी की ताकत उनकी वह भाषा थी, जिसके माध्यम से वे एक आम पाठक से भी सहज संवाद कर पाते थे और उनके रचे हुए के आगे कभी कोई पाठक हीन-भावना से ग्रसित नहीं होता था। इसके ठीक उलट (कुछ अपवादों को छोड़कर) वाम दलों के इलीट प्रायः जिस भाषा में बात करते हैं, वह अच्छे-अच्छों के पल्ले नहीं पड़ती। उनकी भाषा अबूझ है। वामदलों के सिमटने का एक बड़ा कारण यह भी है कि वे आम लोगों से उनकी भाषा में संवाद नहीं कर पा रहे हैं।

कहा जा सकता है कि पूरा मीडिया तो पूंजीपतियों के कब्जे में हैं। पर जो मीडिया उपलब्ध है उसमें हमारे दिग्गज कहाँ खड़े हुए हैं?

कल परसाई जयंती के बहाने महेश कटारे ‘सुगम’ जी का जबलपुर आगमन हुआ। उनकी बुंदेली ग़ज़लें लोक-भाषा की ताकत और तेवर को रेखांकित करती हैं। जब कवि की रची हुई पंक्तियाँ लोगों की जुबान पर चढ़ जाए और लोग मुहावरे के रूप में उनका पाठ करने लगें तो समझ लेना चाहिए कि वह अपने काम में सफल हो गया है। यों सुगम जी ने पिछले दिनों बहुत-से पुरस्कार भी झटके हैं और इनमें से एकाध लखटकिया भी है पर असली पुरस्कार तो तब मिलता है जब निपट गाँव-गवई का आदमी भी उनकी बुंदेली ग़ज़लों की पंक्तियों को प्रयोग में लाते हुए शासन-प्रशासन के खिलाफ मुँह खोलने लगता है कि ‘कछु तो गड़बड़ है‘ और रिले-रेस की तरह यह पंक्तियाँ एक से दूसरे के जुबान पर चढ़ने लगती है।

परसाई जी ने कहीं लिखा है कि कबीर अपने जमाने में अखाड़ा चलाते रहें होंगे और उनके चेलो-चपाटों में लट्ठधारी पहलवान बड़ी संख्या में रहे होंगे, तभी वे उस जमाने में इस तरह की बातें कह पाये। सुगम जी ने बातों-बातों में अपने उस जमाने का जिक्र भी किया जब वे भी लेखन के साथ-साथ थोड़ी-बहुत ‘रंगदारी’ भी कर लेते थे, जो आज के समय में ऐसे बेबाक लेखन का हौसला देता है।

सुगम जी से अपने संवाद का सिलसिला इसी ‘फेसबुक’ से हुआ जिसे मठी लेखक हेय-दृष्टि से देखते हैं। आपने इस माध्यम का बखूबी इस्तेमाल किया और अपनी रचनाओं को लोगों तक पहुँचाते रहे। वे हँसते हुए बताते हैं कि कैसे वे कई बड़े व ‘नामवर’ लेखकों के इनबॉक्स में सर्जिकल-स्ट्राइक करते हुए अपनी रचनाओं को ठेलते रहे, जब तक की उनकी तवज्जो हासिल नहीं हो गयी। रचना का श्रेष्ठ होना ही काफी नहीं है, उसे लोगों तक पहुँचाने की जिद व जुनून भी होना चाहिए और इसके लिए किसी माध्यम से परहेज नहीं होना चाहिए। अग्रज कवि-कथाकार विष्णु नागर ने हंस के अगस्त अंक में विश्वनाथ त्रिपाठी का इंटरव्यू किया है। वे भी बताते हैं कि बड़े से बड़ा प्रकाशक भी जब हिंदी की किसी किताब का संस्करण करता है तो उसकी मात्रा महज पांच सौ के आस-पास होती है। लघु-पत्रिकाएं भी इतनी ही या इससे भी कम छपती होंगी और ज्यादा से ज्यादा दो-तिहाई की संख्या में ही पाठकों तक पहुँच पाती होंगी। तो इतनी-सी संख्या में पाठकों को संबोधित होने वांले महान कवि-लेखक के पास गर्व करने के लिए सिर्फ श्रेष्ठता का दंभ ही रह जाता है, जो सिवाय मूर्खता के और कुछ नहीं है। रचना अपने आप में अच्छी या बुरी होती है, वह माध्यम से तय नहीं होता और इसलिए दम हो तो ताल ठोंककर हर उस मंच का इस्तेमाल अपनी बात कहने के लिए करना चाहिए जो आज के संकट के समय में कुछ ज्यादा लोंगो तक पहुँचती हो।

आज परसाई जी होते तो वे भी फेसबुक-ब्लॉग वगैरह पर होते और उनके फ्रेंड से ज्यादा फालोअर होते। वे डंके की चोट पर अपनी बात कहतें। ट्रॉल्स उन्हें धमकाते भी पर उनके कारण वे मैदान छोड़कर नहीं भागते। पहले हमने राजनीति को महज बुरे लोगों के लिए छोड़ दिया और अब संवाद के सहज -सुलभ  माध्यम को भी लंपटों के हाथों छोड़ देंगे तो वह दिन और भी बुरे होते जायेंगे, जो आज हम देख रहे हैं। यह बात इसलिए भी कहना जरूरी है कि उत्सवधर्मिता के फेर में परसाई जी के चेलों ने आम लोंगों से संवाद बंद कर दिया है और वे कबीरपंथियों की तरह मूर्ति-पूजा जैसा कुछ करने लगे हैं। 

महेश कटारे सुगम आज के समय में सच्चे परसाई-पंथी हैं। वे आम लोगों से संवाद में लगे हुए हैं । 

- दिनेश चौधरी

        

Tuesday, August 22, 2017

प्रगतिशील लेखक संघ की अनूपपुर इकाई का पुनर्गठन

अनूपपुर। भारतीय दर्शन में स्वतंत्रता का नशा है। उसके हर रेशे में बंधन के प्रति विद्रोह है। देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय की पुस्तक से उद्धृत करते हुए यह बात वरिष्ठ साहित्यकार  गोविंद जी श्रीवास्तव ने प्रगतिशील लेखक संघ, अनूपपुर इकाई की सांगठनिक बैठक के दौरान कही। उन्होंने कहा कि आज अभिव्यक्ति की आज़ादी को बाधित करने का प्रयास किया जा रहा है जो भारतीय दर्शन और संस्कृति के खिलाफ है।

महान कवि त्रिलोचन के जन्मदिवस पर अनूपपुर के शम्भूनाथ शुक्ल पुस्तकालय में प्रलेस इकाई की बैठक श्री गोविन्द श्रीवास्तव की अध्यक्षता एवं राज्य सचिवमण्डल सदस्य सत्यम सत्येन्द्र पाण्डेय की उपस्थिति में आयोजित हुई जिसमें उपस्थित रचनाकार साथियों ने रचनापाठ किया, इकाई का सांगठनिक पुनर्गठन करते हुए नवीन कार्यकारिणी एवं सतना में आयोजित होने वाले राज्य सम्मेलन हेतु प्रतिनिधियों का चुनाव किया गया तथा हाल ही में दिवंगत हुए प्रख्यात कवि एवं प्रलेस के अध्यक्ष मंडल के सदस्य चंद्रकांत देवताले के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की गई।

बैठक के आरंभ में इकाई के सचिव श्री रामनारायण पांडेय ने आयोजन के उद्देश्य पर प्रकाश डाला तथा इकाई की सक्रियता बढ़ाने पर बल दिया।

सत्यम सत्येन्द्र पाण्डेय ने प्रगतिशील लेखक संघ के लखनऊ अधिवेशन में पारित घोषणा पत्र और संविधान की मूल बातों पर चर्चा की। साहित्य सिर्फ कला और मनोरंजन की वस्तु नही बल्कि मनुष्य की मुक्ति और मानवता का सौंदर्यबोध है। आज के समय मे कला के सभी माध्यमों के समक्ष खतरे हैं और मनुष्य का शोषण अपने चरम पर है। इसलिये हमे न केवल अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी बल्कि जिनके हक़ में अभिव्यक्ति है उन वंचित तबकों पर ही रहे अत्याचार और सत्ता की फासीवादी प्रवर्तियो के खिलाफ भी लड़ाई लड़नी होगी।
वरिष्ठ अधिवक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता विजेन्द्र सोनी  ने कहा कि लेखको और कलाकारों का सक्रिय संगठन समाज और राजनीति की शुचिता के लिए भी आवश्यक है। आज के सत्ताधारियों ने ज्ञान और साहित्य के खिलाफ हमला बोल दिया है। साहित्य का मार्गदर्शन अस्वीकार कर पूंजीवादी राजनीति आवारा हो गई है। संविधान खतरे में है। आज कलाकारों का संगठित होना सर्वाधिक जरूरी काम है।

इकाई की सक्रियता को बढ़ाने के लिए सभी साथियों ने अपनी सदस्यता का नवीनीकरण कराया और  व्यापक विचार विमर्श उपरांत तय किया कि प्रत्येक माह गोष्ठी आयोजित की जाएगी जिसमें रचनापाठ के अतिरिक्त मौजूदा ज्वलंत प्रश्नों पर भी विमर्श किया जाएगा। मुक्तिबोध जन्म शती वर्ष पर कार्यक्रम करने के बारे ने भी विचार किया गया।

इकाई की नवीन कार्यकारिणी का भी सर्वसम्मति से निर्वाचन किया गया जिसमें श्री गिरीश पटेल, अध्यक्ष, श्रीमती सुधा शर्मा उपाध्यक्ष, श्री रामनारायण पांडेय सचिव, श्री दीपक अग्रवाल सह सचिव तथा डॉ किरण सरावगी कोषाध्यक्ष की जिम्मेवारी हेतु चुने गए। निर्वाचित कार्यकारिणी सदस्यों में सर्वश्री विजेन्द्र सोनी, बाल गंगाधर सिंह सेंगर, उमेश सिंह, नीरज श्रीवास्तव और पवन छिब्बर शामिल हैं।

साहित्य नृशंषों को प्रतिष्ठित नही होने देगा: राजेन्द्र शर्मा

जबलपुर। प्रेमरत क्रोंच युगल के वध को देखकर कवि बाल्मीकि ने बहेलिये को श्राप दिया था कि मैं अपनी सामर्थ्य भर तुमको कभी भी प्रतिष्ठित नही होने दूंगा। उन्होने अपनी रामायण रूपी कविता में अमानवीय नृशंसता पर जबरदस्त प्रहार किया। परिणाम स्वरूप हिंसा और जीवनविरोधी प्रवर्तियों को भारतीय समाज मे सामाजिक प्रतिष्ठा कभी प्राप्त नहीं हुई। यह साहित्य और समाज का रिश्ता है। साहित्य हमेशा ही मानवीय मूल्यों यथा सत्य, प्रेम, त्याग, समानता और श्रम की प्रतिष्ठा और गरिमा के प्रसार का काम करता रहा है।

उपरोक्त उद्गार मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष और वसुधा के संपादक श्री राजेन्द्र शर्मा ने प्रलेस जबलपुर द्वारा आयोजित सातवें परसाई व्याख्यान के अवसर पर व्यक्त किये।
प्रख्यात व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई के जन्मदिवस के मौके पर प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा प्रतिवर्ष आयोजित की जाने वाली व्याख्यानमाला की सातवीं कड़ी के रूप से आयोजित इस कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रख्यात कवि डॉ मलय ने की।

इकाई के सचिव सत्यम सत्येन्द्र पाण्डेय ने विषय प्रवर्तन करते हुए अतिथि वक्ता का परिचय प्रदान किया। अतिथियों एवं उपस्थित श्रोताओं द्वारा परसाई जी के चित्र पर माल्यार्पण किया गया।

राजेन्द्र जी ने अपने वक्तव्य में वंचित मानवता के प्रति परसाई जी की प्रतिबद्धता को याद करते हुए कहा कि परसाई जी का लेखन अपने समय के सवालों के साथ मुठभेड़ करता है और आतताइयों पर शब्दों के माध्यम से प्रहार भी करता है। परसाई जी हमेशा समाज के मेहनतकश के साथ खड़े रहे और इसके लिए उन्होंने नुकसान भी उठाए। आज जबकि राजनैतिक सत्ता का लाभ उठा कर दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के खिलाफ माहौल तैयार किया जा रहा है। गौरक्षा के नाम पर आदमी को मार दिया जा रहा है तब साहित्य को अपनी जिम्मेवारी पर पहले की तुलना में अधिक जिम्मेवारी के साथ खड़े होना चाहिए।

कार्यक्रम के अध्यक्ष डॉ मलय ने प्रगति शील जीवन मूल्य और मानवता के प्रति समर्पित परसाई को याद करते हुए कहा कि उनकी लेखनी में आज के समय का पूर्वाभास नजर आता है। आज हमें भी उनकी ही तरह वंचित मानवता के हक़ में ताकत के साथ खड़े होना होगा। प्रगतिशील लेखक इस वैचारिक संघर्ष हेतु तैयार हैं। सभा का संचालन सत्यम ने और आभार प्रदर्शन वरिष्ठ कथाकार कुंदन सिंह परिहार ने किया।

Sunday, August 6, 2017

थिएटर ऑफ़ रेलेवंस के 25 वर्ष : दिल्ली में 3 दिवसीय नाट्य समारोह


10 अगस्त, 2017 : नाटक "गर्भ" शाम 6.30 बजे “मुक्तधारा ऑडिटोरियम” (गोल मार्किट , भाई वीर सिंह मार्ग नई दिल्ली -1)य में होगा !

नाटक “गर्भ” मनुष्य के मनुष्य बने रहने का संघर्ष है.नाटक मानवता को बचाये रखने के लिए मनुष्य द्वारा अपने आसपास बनाये (नस्लवाद,धर्म,जाति,राष्ट्रवाद के) गर्भ को तोड़ता है. नाटक समस्याओं से ग्रसित मनुष्य और विश्व को इंसानियत के लिए, इंसान बनने के लिए उत्प्रेरित करता है ..क्योकि खूबसूरत है ज़िन्दगी !

11 अगस्त, 2017 : नाटक “अनहद नाद - अन हर्ड साउंड्स ऑफ़ युनिवर्स ” शाम 6.30 बजे का “मुक्तधारा ऑडिटोरियम” में मंचन

नाटक “अनहद नाद - अन हर्ड साउंड्स ऑफ़ युनिवर्स ” कलात्मक चिंतन है, जो कला और कलाकारों की कलात्मक आवश्यकताओं,कलात्मक मौलिक प्रक्रियाओं को समझने और खंगोलने की प्रक्रिया है। क्योंकि कला उत्पाद और कलाकार उत्पादक नहीं है और जीवन नफा और नुकसान की बैलेंस शीट नहीं है इसलिए यह नाटक कला और कलाकार को उत्पाद और उत्पादिकरण से उन्मुक्त करते हुए, उनकी सकारात्मक,सृजनात्मक और कलात्मक उर्जा से बेहतर और सुंदर विश्व बनाने के लिए प्रेरित और प्रतिबद्ध करता है ।

कलाकार :अश्विनी नांदेडकर, योगिनी चौक, सायली पावसकर,कोमल खामकर,तुषार म्हस्के

12 अगस्त, 2017, नाटक :“न्याय के भंवर में भंवरी” का सुबह 11 बजे म ल भारतीय ऑडिटोरियम (Alliance Francaise de Delhi,लोधी रोड़) में मंचन

नाटक “न्याय के भंवर में भंवरी” शोषण और दमनकारी पितृसत्ता के खिलाफ़ न्याय, समता और समानता की हुंकार है !
कलाकार : बबली रावत

लेखक और निर्देशक : मंजुल भारद्वाज
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काल को चिंतन से गढ़ा और रचा जाता है.चिंतन आपके भीतर से सृजित होकर वैश्विक क्षितिज को पार कर विश्व में जीता है.कला मनुष्य को मनुष्य बनाती है. कलात्मक चिन्तन ही मनुष्य के विष को पीने की क्षमता रखता है.1990 के बाद का समय दुनिया के लिए ‘अर्थहीन’ होने का दौर है.ये एकाधिकार और वर्चस्ववाद का दौर है.विज्ञान के सिद्धांतों का तकनीक तक सीमित होने का दौर है. आज खरीदने और बेचने का दौर है. मीडिया का जनता की बजाए सत्ता की वफ़ादारी का दौर है.ऐसे समय में ‘जनता’ को अपने मुद्दों के लिए ‘चिंतन’ और सरोकारों के एक मंच की जरूरत है. ‘थिएटर ऑफ़ रेलेवंस’ रंग सिद्धांत 12 अगस्त,1992 से जनता के सरोकारों का ‘चिंतन मंच’ बनकर कर उभरा है और आज अपने ‘रंग दर्शन’ के होने के 25 वर्ष पूर्ण कर रहा हैं. इन 25 वर्षों में ‘थिएटर ऑफ़ रेलेवंस’ ने गली, चौराहों, गावों, आदिवासियों, कस्बों और महानगरों से होते हुए अपनी वैश्विक उड़ान भरी है और वैश्विक स्वीकार्यता हासिल की है.
थिएटर ऑफ़ रेलेवंस के सिद्धांत
1. ऐसा रंगकर्म जिसकी सृजनशीलता विश्व को मानवीय और बेहतर बनाने के लिए प्रतिबद्ध हो ।
2. कला , कला के लिए ना होकर समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करे । लोगों के जीवन का हिस्सा बने ।
3. जो मानवीय जरूरतों को पूरा करे और अपने आप को अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में उपलब्ध कराये ।
4. जो अपने आप को बदलाव के माध्यम के रूप में ढूंढे । अपने आप को खोजे और रचनात्मक बदलाव की प्रक्रिया आगे बढ़ाये ।
5. ऐसा रंगकर्म जो मनोरंजन की सीमाएँ तोड़कर जीवन जीने का ज़रिया या पद्धति बने ।
(“थिएटर ऑफ रेलेवेंस” नाट्य सिद्धांत का सूत्रपात सुप्रसिद्ध रंगचिंतक, "मंजुल भारद्वाज" ने 12 अगस्त 1992 में किया और तब से उसका अभ्यास और क्रियान्वयन भारत और वैश्विक स्तर पर हो रहा है।)

आज विकास या विकास के नाम पर प्रकृति के विनाश के दौर में मनुष्य का मनुष्य बने रहना एक चुनौती है. नाटक “गर्भ”, “अनहद नाद – Unheard Sounds of universe” और “न्याय के भंवर में भंवरी” के माध्यम से आपको अपने अंदर के इंसान की आवाज़ सुनाने के लिए देश की सत्ता के केंद्र “दिल्ली” में 10,11 और 12 अगस्त 2017 को 3 दिवसीय ‘थिएटर ऑफ़ रेलेवंस - नाट्य उत्सव’ का आयोजन हो रहा है. आपकी सार्थक और रचनात्मक सहभागिता की अपेक्षा. क्योंकि ‘थिएटर ऑफ़ रेलेवंस’ रंग सिद्दांत के अनुसार ‘दर्शक’ पहला और सशक्त ‘रंगकर्मी’ है !

मंजुल भारद्वाज लिखित एवम् निर्देशित और अश्विनी नांदेडकर, योगिनी चौक, सायली पावसकर,कोमल खामकर,तुषार म्हस्के अभिनीत प्रसिद्ध नाटक “गर्भ” और “अनहद नाद –अनहर्ड साउंड्स ऑफ़ युनिवर्स” का मंचन  क्रमशः 10 और 11 अगस्त, 2017 को शाम 6.30 बजे “मुक्तधारा ऑडिटोरियम” (गोल मार्किट , भाई वीर सिंह मार्ग नई दिल्ली -1) में होगा !
जबकि 12 अगस्त को सुबह 11.00 बजे, मंजुल भारद्वाज लिखित और निर्देशित, जानी मानी रंग अभिनेत्री बबली रावत अभिनीत नए नाटक “न्याय के भंवर में भंवरी” का प्रीमियर  म ल भारतीय ऑडिटोरियम (लोधी एस्टेट , लोधी रोड, नई दिल्ली – 3) में होगा !
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“Theatre of Relevance”-25 years of theatrical philosophy
10, 11, 12 August 2017
"3-days theatre festival in Delhi"

Epoch is created and wrought through contemplation. Contemplation, being generated from within you and crossing global horizons, survives in the world.  Art make humans human. Artistic process & reflection alone possesses the capacity of soaking human poison. The period after 1990 has been an era of “Irrelevance” for the world. This has been a period of monopoly and dictatorship. A period of limiting the principles of science to technology alone. Today is the period of buying and selling. A period where media instead of being faithful to the people, is faithful to thy masters & rulers. In these threatening times, the “people” needs ‘contemplation’ for their issues and a platform for their concerns. ‘Theatre of Relevance” theatrical philosophy’ has evolved as a ‘contemplation platform’ for public concerns since 12th August, 1992 and it is completing 25 years of its theatrical philosophy today. In these 25 years, ‘Theatre of Relevance’ has appropriated its global flight via streets, squares, villages, tribes, towns, and cities and has gained global acceptance.

Principles of Theatre of Relevance
1.    A Theatre that commits its creative excellence to make the world more “Better & Humane”.
2.    That is relevant to the context of the society and owes its social responsibility, not to Art just for the Art sake.
3.    Which caters to human needs and provide itself as a platform for             expression.
4.    Which explores itself as a medium of change/development.
5.    That comes out from the ' limits of entertainment ' to a way of living.

(“Theatre of Relevance” was conceived by famous artistic contemplator “Manjul Bhardwaj” on August 12, 1992 and since then it is practiced and implemented at Indian and at international level.)

Today in the era of the destruction of nature in the name of development, it is a challenge for humans to be human. A 3-day ‘Theatre of Relevance-Theatre festival’ is being organised at the epi-centre of power of the country , “Delhi”, on August10, 11 and 12, 2017 to connect you with  your inner human sound through the medium of the plays “Garbh”, “Anhad Naad- Unheard Sounds of Universe” and  “Nyaya ke Bhanwar me Bhawari”. Your meaningful and constructive engagement is expected. Because according to ‘Theatre of Relevance’ philosophy, audience is the first & foremost theatre person.

Famous plays “Garbh” and “Anhad Naad-Unheard Sounds of Universe” written and directed by Manjul Bharadwaj and starring Ashwini Nandedkar, Yogini Chowk, Sayali Pawaskar, Komal Khamkar, Tushar Mahske would be staged on 10 and 11th of August, 2017 respectively at 6.30 pm at “Muktadhara Auditorium” (Gol Market, Bhai Vir Singh Marg, New Delhi-01).

While on 12 August at 11.00 am, a new play “Nyaya ke Bhanwar me Bhawari” written and directed by Manjul Bharadwaj and starring well-known theatre actress Babli Rawat would be premiered at “M L Bhartia Auditorium”(Lodhi Estate, Lodhi Road, New Delhi -03).

Friday, August 4, 2017

ग़ज़ल दो संस्कृतियों का मिलन है

- हरेराम समीप 
'विकल्प' साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था, फरीदाबाद द्वारा महाकवि तुलसीदास और महान कथाकार प्रेमचन्द जयंती के अवसर पर पुस्तक लोकार्पण, चर्चा का आयोजन 'आर्य समाज सेक्टर 7 के सभागार में किया गया, जिसकी अध्यक्षता अलवर से पधारे हिन्दी के प्रख्यात आलोचक एवं कवि डाक्टर जीवन सिंह 'मानवी' ने की. श्री हरेराम समीप की दो पुस्तक- 'समकालीन हिन्दी ग़ज़लकार एक अध्ययन' तथा 'आँखें खोलो पार्थ' दोहा संग्रह के लोकार्पण के उपरांत अलवर से पधारे गजलकार व समीक्षक श्री विनय मिश्र ने अपने बीज वक्तव्य की शुरुआत दोहा संग्रह के शीर्षक दोहे की विस्तृत व्याख्या से की, दोहा था-

कुरुक्षेत्र है ये नया फिर है नया यथार्थ 
शत्रु खड़ा है सामने आँखें खोलो पार्थ 

इसके बाद पिछले चालीस वर्षों में हुए हिन्दी ग़ज़ल के विकास और हिंदी ग़ज़ल आलोचना के महत्वपूर्ण बिन्दुओं और उपलब्धियों का उल्लेख किया जिसमें अस्सी के दशक में प्रकाशित 'शब्द कारखाना पत्रिका' के ग़ज़ल विशेषाक में नचिकेता जी के ४२ पृष्ठीय आलेख को ऐतिहासिक और एक मील का पत्थर बताया, जिसकी टिप्पणियाँ आज भी प्रासंगिक हैं. ग़ज़ल आलोचना की महत्वपूर्ण पुस्तकों में डा शिवशंकर मिश्र की एक प्रमाणिक पुस्तक 'हिंदी ग़ज़ल की भूमिका' के महत्व की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि उससे अच्छी किताब अभी दूसरी नहीं है. उन्होंने श्री ज्ञानप्रकाश विवेक की दो आलोचना पुस्तकों- हिन्दी ग़ज़ल की विकास यात्रा और हिन्दी ग़ज़ल-दुष्यंत के बाद और डॉ. सायमा बानो के शोधग्रन्थ 'हिन्दी ग़ज़ल पहचान और परख' के योगदान का भी उल्लेख किया . श्री नचिकेता के सम्पादन में आये ग़ज़ल संग्रह 'अष्टछाप' तथा पिछले वर्ष आए ''अलाव' पत्रिका के समकालीन ग़ज़ल आलोचना विशेषांक का भी ज़िक्र किया और लोकार्पित पुस्तक 'समकालीन हिन्दी ग़ज़लकार एक अध्ययन' के महत्व पर बात की. उन्होंने कहा कि इस ग्रन्थ में हिन्दी के 25 चर्चित ग़ज़लकारों की रचनाधर्मिता पर विस्तार से अध्ययन किया गया है साथ ही यह सलाह भी दी कि इन ग़ज़लों की समीक्षा के साथ यदि इन्हीं ग़ज़लकारों की दस दस ग़ज़लों का संग्रह भी आए तो एक समग्र जानकारी पाठकों के सामने उपलब्ध हो जाएगी .

कार्यक्रम का संचालन करते हुए कोटा से पधारे प्रसिध्द संस्कृतिकर्मी एवं गीतकार श्री महेंद्र नेह ने हिन्दी ग़ज़ल की जनधर्मिता और वर्तमान परिदृश्य पर विस्तार से चर्चा करते हुए श्री हरेराम समीप के जीवन और लेखन की जानकारी दी और उनकी कुछ चर्चित रचनाओं से उपस्थित श्रोताओं को परिचित कराया और उनके रचनात्मक सरोकारों को उजागर किया. गाज़ियाबाद से पधारे श्री अवधेश कुमार सिंह ने लोकार्पित दोहा संग्रह 'आँखें खोलो पार्थ' पर अपनी समीक्षा पढ़ी और डाक्टर भावना शुक्ल ने समीप के रचनाकर्म पर अपनी बात रखी.

वरिष्ठ और चर्चित कवि श्री लक्ष्मीशंकर बाजपेयी ने दोहा संग्रह के अनेक दोहे पढ़ते हुए कहा कि इस संग्रह में जीवन से जुड़े अनेक विषय हैं, समीप की नजर बार बार पिछड़े और दुखीजनों की तरफ जाती है -

बचपन में जिसकी कलम वक्त ले गया छीन
बाल पेन वह बेचता बस में 'दस के तीन'

इसके बाद श्री बाजपेयी जी ने समकालीन ग़ज़ल परिदृश्य पर बहुत सार्थक विचार रखे. दुष्यंत के समय से अब तक हिंदी ग़ज़लकारों के सामने आती रहीं चुनौतियों पर स्वयं अपने अनुभव बताते हुए उन्होंने कहा कि हिंदी ग़ज़लें कहते हुए तब उन्हें उर्दू शायरों और हिन्दी कवियों की भीषण उपेक्षा मिलती थी, उनसे बेतुके सवाल किये जाते थे. इसके बावजूद हिंदी ग़ज़ल ने इतने कम समय में जो अपनी पुख्ता जमीन तैयार की है वैसी दुनिया के साहित्य की किसी विधा ने नहीं बनाई है . दुष्यंत की ग़ज़लों के प्रभाव से अब उर्दू ग़ज़ल का भी चेहरा बदल रहा है . ग़ज़ल की भाषा का भी कोई मसला नहीं रह गया है . उन्होंने कहा कि अब हिन्दी ग़ज़ल का एक ही लक्ष्य है और वह है हिन्दी ग़ज़ल की साहित्यिक मान्यता पाना. उन्होंने सवाल किया कि जब पंजाबी, गुजराती, मराठी और अन्य भाषाओँ में लिखी जाने वाली ग़ज़ल को भरपूर मान्यता मिल रही है तब हिंदी में ही उसकी उपेक्षा क्यों हो रही है, यह विचारणीय है.

समीप के दोहा संग्रह पर बात करते हुए जयपुर से पधारे प्रखर आलोचक श्री शैलेन्द्र चौहान ने कहा कि वही रचनाकार समाज में बढ़ती विरूपता का पर्दाफाश कर सकता है जिसके सरोकार समाज के वंचित, शोषित, दलित वर्ग के प्रति हैं वरना लेखन एक पाखंड से कम नहीं है. समीप अपनी रचनाओं में लगातार उन पर बात करने वाले रचनाकार हैं, इस दोहा संग्रह में भी उन्होंने संघर्षरत आमजन की बात की है और उसकी यूँ उम्मीद बंधाये रखी है-

उजड़ जाए तो गम नहीं उसको नहीं मलाल
चिड़िया अपना घोंसला बुन लेती हर साल

वरिष्ठ गजलकार व सम्पादक श्री रामकुमार कृषक ने तुलसी जयंती पर स्मरण करते हुए उनके रचना संघर्ष का उल्लेख करते हुए कहा कि जैसे कबीर ने समाज में प्रत्यक्ष संघर्ष करते हुए रचनाकर्म किया उसी तरह तुलसी ने लोकधर्मिता को अपने महाकाव्य के माध्यम से पुनर्स्थापित व पुनर्संस्कारित किया ठीक उसी तरह प्रेमचंद ने भी अपने समय के समाज का चित्रण करते हुए हमें सन्देश दिया कि रचनाकार में प्रतिरोध की चेतना मौजूद रहना बहुत जरुरी है और आज यह परम्परा कवि श्री हरेराम समीप तक जाती है जो अपनी रचनाओं में समय से प्रतिरोध करते हैं . हिन्दी ग़जल में उपस्थित इस प्रतिरोध के सन्दर्भ में वे दुष्यंत के एक मशहूर शेर का हवाला देते हैं - 

"तू किसी रेल सी गुजरती है ,
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ" 

यह हवाला देते हुए वे कहते हैं कि लोग इस शेर को प्रेम के संदर्भ में देखते हैं जबकि यह कोई स्त्री या नारी नहीं है बल्कि दुष्यंत के रचनाकाल को देखें तो यह रेल वास्तव में तत्कालीन व्यवस्था है जो आम इंसान को जिसके संकट का अहसास करा रही है, पुल सा थरथराना यही है. इस तरह हिंदी ग़जल आज प्रतिपक्ष की भूमिका में अपने समय के सभी खतरे उठाने के लिए तैयार है. अर्थात हम कह सकते हैं कि भगतसिंह हिंदी ग़ज़ल की चेतना में मौजूद है. विकास के बीच गाँवों का जो क्षय हुआ है वहाँ बच्चे शहर आकर यहां झुग्गियों में रह रहे हैं, स्त्रियों पर अत्याचार , बाजारीकरण आदि ग़ज़ल के विषय बने हैं. राष्ट्रवाद का जो बाजारीकरण हुआ है वह भी ग़जल का विषय है. इस विडम्बनापूर्ण समय में हिन्दी ग़जल की जो आलोचना यात्रा शुरू हुयी है इसमें समीप शामिल हैं इसके लिए वह बधाई के पात्र हैं .

कृषक जी के वक्तव्य के बीच सभा में उपस्थित कुछ विद्वानों ने प्रश्न उठाये कि साहित्यिक चर्चा में राजनीतिक विषय नहीं उठाने चाहिए थे, तभी अपने अध्यक्षीय भाषण में अलवर से पधारे आलोचक डॉ. जीवन सिंह ने इसी विषय पर केन्द्रित जो प्रभावपूर्ण और धाराप्रवाह वक्तव्य दिया कि सौ से अधिक उपस्थित श्रोता मंत्रमुग्ध हो कर तालियों से उनका समर्थन करने लगे. डॉ. जीवन सिंह ने कहा कि साहित्य जीवन की व्याख्या करता है और राजनीति उससे कभी अलग नहीं रही है. यह केवल नजरिये की बात है कि आप चीज़ों को किस तरह देखते हैं. उन्होंने तुलसीदास के एक दोहे से कहा कि जिस तरह के लोगों के बीच वह उसी तरह समझ लिया जाता है . साहित्य और राजनीति के अन्तर्सम्बन्धों पर उद्धरण देकर समझाते हुए आपातकाल में बाबा नागार्जुन की कविताओं का उल्लेख किया और कहा कि राजनीति कोई बुरी चीज़ नहीं है . अगर बुरी होती तो महात्मा गाँधी राजनीति में क्यों आते ? और भी लोग क्यों आते ? हिन्दी ग़ज़ल के बारे में उन्होंने कहा कि हिन्दी ग़ज़ल अपने समय से संवाद है . जो अन्तर्विरोध रहे हैं, जो परेशानियाँ रही हैं, जो दिक्कतें रही हैं ... ग़ज़ल उनसे सम्वाद करती है . ग़ज़ल तो दो संस्कृतियों का मिलन है, सामासिक संस्कृति का प्रतीक है... इस्लाम और हिन्दू धर्म मिला तो ग़ज़ल की रचना हुई. इसलिए यह बहुत बड़ी विधा है जो सामासिक संस्कृति से निर्मित हुई है .

अंत में हरेराम समीप और संस्था के सदस्यों ने प्रमुख विद्वानों का शाल उढ़ाकर अभिनन्दन किया और सभी का आभार व्यक्त किया . इस तरह कार्यक्रम में आज की हिन्दी ग़ज़ल तथा आधुनिक दोहा विधा पर एक सार्थक विमर्श सम्पन्न हुआ जिसमें श्री नीरज जी ( गजल शोध ग्रन्थ के प्रकाशक) भावना प्रकाशन दिल्ली , जबलपुर, नोएडा, दिल्ली और फरीदाबाद नगर के अनेक कवि कथाकार और लेखकों ने शिरकत की.
प्रस्तुति-
हरेराम समीप 
9871691313

Tuesday, July 25, 2017

अपने अभिनय से फिर 'काल तुझसे होड़ है मेरी' लिख रहे हैं आलोक चटर्जी

-पवन करण
आज से लगभग दस—बारह बरस पहले 'तानसेन संगीत समारोह ग्वालियर' में पंडित जसराज के गायन में खोये हुए मुझे लगा जैसे आसमान की तरफ अपना मुंह उठाकर वे गा नहीं रहे बल्कि समय को चुनौती दे रहे हैं.....यही बात कल यहां नटसम्राट में आलोक चटर्जी को अभिनय करते देखकर तीब्रता से महसूस हुई...जैसे वे काल से होड़ ले रहे हों। 'काल तुझसे होड़ है मेरी' ये कविता प्रसिद्ध कवि स्वर्गीय शमशेर बहादुर सिंह की है लेकिन आलोक चटर्जी को मंच पर देखकर लगता है जैसे वे इन दिनों अपने अभिनय की कलम से इसे पुन: लिख रहे हैं। नाटक समाप्त हो जाने के बाद आलोक चटर्जी से बात तो नहीं हो सकी मगर मिलाने के नाम पर उनका हाथ अपने हाथों में लेकर उनकी उस मिट्टी को टटोलने की इच्छा जरूर थी जिससे वे बने हैं

कोई अभिनेता अपने अभिनय से एक बेहद पीड़ादायी, संवेदनशील और मार्मिक नाट्य—कथानक पर खास तौर से खासी संख्या में सभागार में उपस्थित युवा दर्शकों को इस हद तक उन्मादित कर सकता है कि वे उसके अभिनय की प्रशंषा में बजने वालीं तालियों को क्रम न टूटने दें ये स्मृतिजन्य दृश्य भी कल यहां देखने को मिला। ऐसा मैंने दूसरी बार देखा...पहली बार तब जब जब इंदिरा गांधी आदिवासी कला संग्रहालय भोपाल में आगरा बाजार के मंचन के बाद मैंने तालियों की अटूट गड़गड़ाहट के बीच हबीब तनवीर को हाथ जोड़े खड़े देखा था।

कल सभागार में कई दर्शकों की आंखें भी झर रही थी। स्वयं के द्वारा अपने आसुओं को  ताली बजाते पकड़ा मैने भी । निसंदेह ये कथ्य से अधिक आलोक चटर्जी के अभिनय के प्रभाव से निकले थे। उर्दू के सम्मानीय शायर शकील ग्वालियरी का एक शेर है

बजा रहा था साज कोई बंद कमरे में
लरज रही थीं छतें सात आसमानों की
 
कल आलोक चटर्जी नाट्यमंदिर ग्वालियर में अपने अभिनय का साज बजा रहे थे और सभागार की छत ही नहीं दीवारें भी लरज रही थीं। लगा जैसे दर्शकों को ही नहीं सभागार की कुर्सियों, परदों और दीवारों को भी कई बरसों से इस बात की प्रतीक्षा थी कि उसके ग्रीनरूम से मेकअप कर आलोक चटर्जी मंच पर आयेगें और अपने अभिनय से उन्हें नया जीवन देकर चले जायेंगे। और कल ऐसा हुआ भी।

Wednesday, July 19, 2017

अशोकनगर में नाट्य-संगीत की प्रस्तुति और कार्यशाला का समापन

-सीमा राजोरिया
भारतीय जन नाट्य संघ ( इप्टा ) की अशोकनगर इकाई ने पांच दिवसीय “ नाट्य – संगीत “ पर एकाग्र कार्यशाला का आयोजन किया और पांचवे दिन कार्यशाला के दरम्यान तैयार संगीत रचनायों का प्रदर्शन स्थानीय युवराज होटल के हॉल में किया गया | इस कार्यशाला का संचालन राष्ट्रीय नाट्यविद्यालयदिल्ली की रिपेटरी से जुड़े युवा रंगकर्मी मोहन सागर ने किया | इस कार्यशाला में संगीत और नाटक से जुड़े 20 से ज़्यादा युवतर प्रतिभागियों ने इतने कम समय में जो प्रस्तुति दी उसने  खचाखच भरे सभागार में बैठे दर्शकों को अभिभूत कर दिया |

 हिन्दी नाटकों में नाटक की एकरसता दूर करने , गति प्रदान करने , नाटक के सम्प्रेषण   में गीत संगीत का प्रयोग किया जाता है। इस संगीत की अपनी अलग प्रकृति होती है  | नाट्य संगीत की इस कार्यशाला में अपने नाट्य अनुभव से मोहन सागर ने कार्यशाला में गीत रचनायों पर इप्टा के कलाकारों के साथ अभ्यास किया और कार्यशाला के समापन पर इनका प्रदर्शन किया गया , जिसे देख दर्शक एक नये कला अनुभव से परिचित हुए |

 कार्यशाला में मोहन सागर के साथ कैलाश शर्मा , सिद्धार्थ , हर्ष और दिनेश योगी ने वाद्य यंत्रो के साथ संगत की और प्रतिभागी कलाकार आदित्य रूसिया , मयंक जैन , समीक्षा , अनुपम तिवारी , सत्यभामा ,  शिवानी , सौरभ , दीपिका , कबीर , दर्श , दिनेश , आयशा , सलोनी , रूपाली , , खुशी , अनुष्का , सृष्टि आदि कलाकारों ने सहभागिता की  | कार्यक्रम का संचालन पंकज दीक्षित ने किया और इप्टा अशोकनगर की अध्यक्ष सीमा राजोरिया ने रंग संगीत पर आधार वक्तव्य दिया | आयोजन की सफलता में रतनलाल , संजय माथुर , राजकुमार विश्वकर्मा आदि की महत्वपूर्ण भूमिका रही | शहर के लिए एक नये तरह की संगीत प्रस्तुति के साथ नाट्य – संगीत कार्यशाला का समापन हुआ |                  

Monday, July 10, 2017

बशीरहाट और बालूचरी : बकलम नूर ज़हीर

-नूर ज़हीर 
दोस्तों,
कुछ अजीब सा घटा है मेरे साथ. पिछले महीने बशीरहाट को केन्द्रित करके मेरी एक कहानी "बालूचरी" कथादेश में छपी.
बशीरहाट मुझे मेरी सास ले जाती थी, हर दुर्गा पूजा से पहले. वे सब बहुओं, बेटियों, नाते रिश्तेदारों को देने के लिए तांत की साड़ियाँ खरीदती;
बशीरहाट में साड़ियाँ सस्ती भी मिलती और बहुत तरह की भी; आसपास के गाँवों में तांत का काम होता जो ज़्यादातर मुसलमान जुलाहे करते.
वहां के भाईचारे को देख और समझ कर कई साल बाद यह कहानी लिखी. पाठकों की प्रतिक्रिया मिलनी अभी ख़तम भी न हुई थी की खबर मिली की बशीरहाट जल रहा है और यह सम्भावना है की सारा बंगाल ही भड़क पड़े.
फिर यह भी खबर है की दंगे फ़ैलाने और साम्प्रदायिकता की आग लगाने में कुछ राजनीतिक गुटों का जो असल में देश दुश्मन ताकते हैं हाथ है और बशीरहाट के लोग मिलकर इसका विरोध भी कर रहे हैं और अपनापन बनाये रखने की पूरी कोशिश कर रहे हैं.
जहाँ लोग मिलजुल कर रहते हैं, नफरतों को जड़ नहीं पकड़ने देते, गुड से ज़हर को काटते हैं वही मेरा बशीरहाट है, वही मेरा भारत है!
कहानी पढियेगा और बताइयेगा!
बालूचरी
करम अली को अपनी आँखों यक़ीन नहीं हो रहा था। उस जैसे ग़रीब तांती के दस्तरखान पर इतने पकवान! इतनी भेंट तो कभी किसी ने नहीं दी; शायद आजतक कोई गाहक, इतना अमीर नहीं आया जितना यह सामने बैठा खरीदार , जो एक हाथ से दाढ़ी सहला रहा था और दूसरे से तस्बीह फेर रहा था। इसे कैसे पता चला? किसने इसे खबर दी होगी ? सवाल दिल में आते ही अकरम अली ने ग़ुस्से से अपने बड़े बेटे शरीफुद्दीन की तरफ देखा जो बाप से आँखे चुराकर उस अरब शेख की चापलूसी में लगा हुआ था. वैसे सुलगते लोबान की खुशबू और नई बालूचरी साड़ी की खबर फैलते देर नहीं लगती. बशीरहाट में सभी जानते थे अकरम ने एक नई बालूचरी साड़ी तैयार की है, लेकिन इसकी खबर कलकत्ता और इस शेख तक पहुंचाने की क्या ज़रूरत थी?
अपनी ही लाइ हुई, आगे बढ़ी मिठाई की प्लेट को इशारे से इंकार करते हुए शेख ने मामूली मलमल में लिपटी हुई बालूचरी की तरफ हाथ बढ़ाया। अकरम अली ने ढंकी हुई साड़ी पर हाथ रखा। उसका सारा जिस्म जैसे झनझना उठा। कितनी आस से उसने इस साड़ी को करघे पर चढ़ाया था । सबसे नज़र बचाकर, अपनी बीवी के ज़ेवर बेचकर मुर्शिदाबाद गया था, रेशम के कोये खरीदने। उसने सोचा था खदीजा को तो मरे चार साल होने को आये, अब उसके ज़ेवर रखने से क्या फ़ायदा ? एक एक रेशम के कोये को उसने अपने सामने बंटवाया था और तार बनवाये थे. जब रेशम के धागे बन गए तब रंगाई में कितनी एहतियात बरती थी उसने। तभी तो ऊपर का मलमल हटाकर, पहली तह खुलते ही जैसे ही पल्लू सामने आया आसपास खड़े लोगो की सांस थम गई और शेख के मुंह से यक ब यक निकला "सुभांनल्लाह।" 
अकरम अली के तीनो बेटों की बांछे खिल गई --शेख़ फंस गया!
कांपते हाथों से अकरम अली ने साड़ी की एक एक परत खोलनी शुरू की। हर तह के साथ यादों का एक काफिला जुड़ा हुआ था -- नीले रंग पर उसने कितनी बहस की थी ---आकाश नील, समुन्दर नील, शंख नील या फिरोज़ी नील ! तंग आकर ग़ुलाम नबी रंगरेज़ ने कहा था---अरे बाबा मोर के पंखों में इतने नील होते हैं क्या?
अकरम अली हंस पड़ा था "अरे इतने नील नहीं होते तो मोर नाचता क्यों है ? क्या मोर बादल देखकर नाचता है? बेवकूफ, वो अपने रंग दिखाने लिए इतराता है!"
"तो नाचता मोर बनाना ज़रूरी है क्या?" ग़ुलाम नबी ने आगे हुज्जत की। 
"वाह ! जो नाचे न वह मोर काहे का, वह तो कौआ हुआ। " 
बालूचरी बनाना कोई ख़ाला जी का घर नहीं है इसीलिए बस दस या बारह साड़ियां ही बनाता है अकरम अली साल भर में। ज़्यादातर साड़ियां दुर्गा पूजा के लिए खरीदी जाती हैं। आस पास की सार्वजनिक पूजा कमिटियों से लेकर कलकत्ता तक की पूजा कमिटियों में होड़ लगी रहती है ; अकरम अली की बनाई बालूचरी हाथ लग जाए और पूजा में स्थापित होने वाली दुर्गा ठाकुर के रूप को चार चाँद लग जायें। पूजा पंडाल में आने वाले लोग भी झट पहचान जाते और एक दुसरे से कहते ---'अकरम अली तांती की साड़ी है ना ?' अकरम का सीना गर्व से फूल जाता I लेकिन फिर भी कहीं ना कहीं दिल में एक काँटा सा चुभता रहता। उसने तो साड़ी माँ को बेचीं है। भेंट तो उस भक्त ने की जिसने उसके दाम चुकाए। फिर वह दिल को समझाता और वादा करता, एक साड़ी वह ऐसी बनाएगा जो अपने आप में एक मिसाल होगी; बेषकीमती! नायाब! कारीगरी और कला की ऐसी मिसाल जो खुद अकरम अली के हुनर को पार कर जाएगी, वह हाथ की नफासत उसमे दिखेगी जो कला का दर्जा पायेगी। वह साड़ी जो वह देवी को बेचेगा नहीं; देवी को भेंट करेगा ! 
ढब की आवाज़ से अकरम अली का ध्यान टूटा. सामने एक हज़ार के नोटों का बण्डल पड़ा था। जल्दी जल्दी तीन और बण्डल तख़्त पर गिरे. एक लाख से ज़्यादा साडी का दाम नहीं था। यह तो चार लाख थे। उसके दिल में एक टीस सी उठी। यही रुपये पांच साल पहले मिल गए होते तो खदीजा बच जाती। न उसकी जान बचा पाया न ही उसकी ख्वाहिश पूरी कर पाया। बेचारी दिल में बालूचरी पहनने की आस लिए इस दुनिया से चली गई। शेख ने एक और गद्दी उसकी तरफ बढ़ाई। उसके पास खड़ा उसका सेक्रेटरी बोला "यह तुम्हारी बख्शीश है, तुम्हारे हुनर और मेहनत की दाद दे रहे हैं शेख !"
"लेकिन मोहतरम, आपके देश में तो औरतें साड़ी पहनती नहीं। आप इसका क्या करेंगे ?"
शेख सवाल समझ कर मुस्कुराया "अगले महीने मेरी शादी है; हम लोगों में लड़की के लिए लड़के वालों की तरफ से अबाया भेजा जाता है। इस साड़ी को काटकर अबाया बनेगा; पल्लू से नक़ाब और ऊपर वाला हिस्सा। बहुत खूबसूरत लगेगा इसका अबाया; शायद हमारी बीवी इसे पहली रात को ही पेहेनना चाहे। "
"आप मेरी साड़ी पर कैची चलवाएंगे?"
"काटे बग़ैर तो बुर्का नहीं बन सकता।" शेख अपनी होने वाली बीवी के लिए बहुत से कीमती तोहफे खरीद रहा था। बंगाल की नायाब सोने की नक्काशी के ज़ेवर खरीदने कलकत्ता आया था। वहीं उसे इस साडी की खबर मिली थी और इसी की लालच में इतनी दूर बशीरहाट आया था। सौदा हो गया था अब बेकार बातों में वक़्त गवाना उसे खल रहा था.
अकरम अली खड़ा हो गया। सबको नज़र भरकर देखा और बोला "बुर्का तो तन ढंकने के लिए होता है। "
"सभी कपडा तन ढंकने के लिए होता है." शेख ने दुभाषिये के ज़रिये जवाब दिया।
"सभी का तो मैं नहीं जानता, साड़ी तन ढंकने के लिए नहीं होती."
"तो फिर किसलिए होती है ?" शेख ने तंज़ से सवाल किया।
"सदियों पहले इंसान जानवर की खाल और पेड़ की छाल से भी तन ढँक लेता था. इतना बेहतरीन सूत और रेशम, ऐसे ऐसे रंग, इतनी कारीगरी, ऐसे नमूने ईजाद करने की क्या ज़रूरत थी? नहीं शेख़ साड़ी तन ढंकने के लिए नहीं, जिस्म का हुस्न उभारने के लिए होती है। साड़ी पल्लू को आँचल करके सिर ढंकते हैं ताकि वह बार बार फिसले और काले बालों की घटा लहरा ये और उसमे खिंची हुई सीधी मांग जैसे बिजली का कौंधा ! पल्लू कंधे पर यूँ डाला जाता है ताकि बार बार ढलक जाये और सामने वाले की नज़रे गले से गुज़रती, छाती के उभार से होती, कमर के ख़म पर रूकती, नितम्बो की गोलाइयों पर से फिसलती धड़ाम से ज़मीन पर आ गिरे।”
कुछ समझकर कुछ न समझकर शेख हंसा "तुम तो तांती काम और शायर ज़्यादा मालूम होते हो। इसीलिए औरतों के पहनने की चीज़ बनाते हो , आशिकमिजाज जो ठहरे। "
"जी हाँ सुनते हैं पहले यूनान और रोम के मर्द भी साड़ी जैसा लिबास पहनते थे; लेकिन मर्दों का सीधा सपाट, लठ जैसा शरीर साडी की ताब क्या लाता ? मर्दों से साडी कबकी छूट गई, औरतें आजतक पेहेन रही हैं। "
"खैर वह सब मैं नहीं जानता , हाँ तुम्हारी साड़ी बेजोड़ है। मेरी बीवी इसका अबाया पहनकर बहुत खुश होगी। "
"मैं अपनी साड़ी आपको नहीं बेचूंगा! "
अकरम के छोटे से घर का आँगन खचाखच भरा हुआ था। बशीरहाट में कभी मर्सिडीज़ बेन्ज़ देखी नहीं गई थी। अंदर हो रही बातचीत को सब दम साधे सुन रहे थे। जैसे ही अकरम अली ने साड़ी न बेचने का ऐलान किया बाहर जमा भीड़ जैसे अचानक फट पड़ी; जितने मुह उतनी बात। एक पल को तो शेख़ भी हक्का बक्का रह गया फिर संभलते हुए बोला "क्या कीमत हमने काम लगाई है?"
अकरम कुछ पल चुप रहा फिर साड़ी पर हाथ फेर और उसे बहुत संभाल कर मलमल में लपेटते हुए बोला "यह साड़ी मेरी रूह है शेख साहब और रूह को काट फाड़ कर, टुकड़े टुकड़े नहीं किया जाता, सुइयाँ चुभाकर छलनी नहीं करते आत्मा को मोहतरम!"
"क्या कह रहे हो अब्बा ?" अकरम का दूसरा बेटा करीमुद्दीन बोला। "इतना पैसा तो हमने कभी देखा भी नहीं है!"
"चुप रह कूढ़ कहीं के. कितना तुझे अपना हुनर सिखाने की कोशिश की पर रहा तू जानवर का जानवर ही। तांत और रेशम आंकना तो दूर की बात तुझसे तो करघे पर बैठा भी नहीं जाता। आधे घंटे में ही कहता है 'हाय हाय मेरी कमर दुःख रही है ‘ अरे कमर तोड़े और आँखे फोड़े बिना कहीं बालूचरी बनती है ? "
"लेकिन बनाई तो बेचने के लिए है न?" शेख के सेक्रेटरी ने पूछा।
"आजतक जितनी साड़ियां बनाई सब बेचीं; यह नहीं बेचूंगा। यह साड़ी मैंने माँ दुर्गा के लिए बनाई है।”
"यह कौन हैं ?" शेख ने शायद माँ दुर्गा को कोई दूसरा, ज़्यादा मालदार गाहक समझा।
"अब्बा, देवी को पहनाई गई साड़ी भी तो बर्बाद ही होती है न। ठाकुर के साथ ही विसर्जन हो जाता है साड़ी का। "
ज़ोर की तड़ाक की आवाज़ आई और शमसुद्दीन गिरते गिरते बचा "खबरदार जो काफिरों जैसी बाते मुंह से निकाली। बेटी को सजा संवार कर ही तो ससुराल भेझा जाता है। मेरी बनाई हुई साड़ी पहनकर, दस दिन से बिझुड़े शिव को दुर्गा रिझाती है। तभी तो तप भांग होता है महातपस्वी का, सब मेरी बनाई हुई साड़ी के कारण ही तो। "
"इतनी साड़ियां एक साथ पहनती है देवी दुर्गा?' शरीफउद्दीन ने गाल सहलाते हुए पूछा।
"कितनी पहनती है, कैसे पहनती है, क्यों पहनती है यह तो देवी ही जाने। मैं बस इतना जानता हूँ की मेरी बनाई साड़ी बहुत पसंद करती है माँ, इसीलिए तो हर साल से बेहतर साड़ी बन जाती है, देवी माँ की दया से। "
शेख उठ खड़ा हुआ. ग़ुस्से से उसका चेहरा तमतमाया हुआ था। "तुम मुसलमान होकर भी देवी देवता को मानते हो-----ताज्जुब है!"
अकरम अली के चेहरे पर न घुसा था, न नफरत , न नाराज़गी न हिकारत. एक मासूम सी ख़ुशी उसके चेहरे पर खेल रही थी, जैसी कोई बच्चा, अपने घर के रोशनदान में दिए चिड़िया के अण्डों में से बच्चे निकलते, बड़े होते और अंत में पहली उड़ान भरते देख रहा हो। मलमल में लिपटी बालूचरी साड़ी को अपने सीने से लगाते हुए वो पूरे ऐतमाद से बोला "आप इंसान होकर भी कला और फ़न का मर्म नहीं समझते ---ताज्जुब है!"

नूर ज़हीर 
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