Saturday, October 8, 2016

इप्टा पर फ़ासिस्ट हमला, अधिनायकवादी प्रवृति, गुंडागर्दी है: अरुण कमल

"आज देश में इस तरह का माहौल बनाया जा रहा है कि जैसे हम सोच रहे हैं, जैसे हम खा रहे हैं, पी रहे हैं वैसे ही आप सोचें। ये अधिनायकवादी प्रवृति है, गुंडागर्दी है। जिस मध्य प्रदेश के इंदौर में इप्टा के राष्ट्रीय सम्मलेन पर फ़ासिस्ट हमला हुआ, उसी मध्यप्रदेश में हरिशंकर परसाई को भी पीटा गया था। यह हमारे लिए चुनौती है कि हमें वर्गसंघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए काम करना चाहिए। RSS इस देश का सबसे ख़तरनाक फ़ासीवादी गिरोह है और यह देश की सरकार को नियंत्रित करने का काम कर रहा है."

ये बातें सुप्रसिद्ध कवि अरुण कमल ने इंदौर में हुए भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के 14वें राष्ट्रीय सम्मेलन पर हुए फासीवादी हमले के खिलाफ  कालिदास रंगालय में आयोजित प्रतिरोध सभा में बोलते हुए कहा।

प्रख्यात कवि आलोक धन्वा ने अपने सम्बोधन में कहा "जब हमने दूसरे विश्वयुद्ध में फासीवादी ताकतों को लड़कर पराजित किया तो अब भी क्यों नहीं लड़ सकते। इंदौर में इप्टा के राष्ट्रीय सम्मेलन पर हमला करने वाले आर.एस.एस और उसके अनुषांगिक संगठनो की  आजादी के आंदोलन में कोई भूमिका नहीं थी, इससे जुड़े लोगों ने महात्मा गांधी की उस समय हत्या की जब वे प्रार्थना करने जा रहे थे।ये बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है ऐसे लोग हमारी साझी विरासत पर हमला करने जा रहे हैं।"
चर्चित डाक्टर डा सत्यजीत  ने कहा "आर.एस. इस बजरंग दल जैसे  धर्म व् देश विरोधी लोग आज देशभक्ति की बात कर रहे हैं।जिनका देश की साझी सांस्कृतिक विरासत और परम्परा का न तो कोई ज्ञान है और ना ही सदियों पुरानी इस विशिष्ट पहचान पर कोई आस्था।"

कार्यक्रम की शुरुआत में इंदौर के राष्ट्रीय अधिवेशन में शामिल प्रतिनिधियों की ऒर से तनवीर अख्तर ने पूरे घटना का विस्तार से ब्यौरा देते हुए बताया कि "सबके लिए एक सुन्दर दुनिया के संकल्प के साथ भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा) का 14वां राष्ट्रीय सम्मेलन 02 अक्टूबर, 2016 से 04 अक्टूबर, 2016 तक इंदौर में आयोजित किया गया था, जिसमें देश के 22 राज्यों से 800 से अधिक प्रतिनिधि/कलाकारों ने भाग लिया। राष्ट्रीय सम्मेलन के अंतिम दिन 04 अक्टूबर, 2016 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर. एस. एस.) समर्थित भारत स्वाभिमान संगठन के कार्यकर्ताओं ने आनंद मोहन माथुर सभागृह (ए. के. हंगल रंग परिसर) में चल रहे संगठन-सत्र पर हमला कर सम्मेलन को बाधित करने का प्रयास किया। सभागृह में उपस्थित इप्टाकर्मियों के सशक्त प्रतिरोध की वजह से फ़ासिस्ट ताक़तों को वहां से भागना पड़ा।"

इस अवसर पर पूरे घटना की वीडियो क्लिपिंग भी दिखाई गयी।

वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी अनिल अंशुमन ने अपने  संबोधन में कहा " आज पुरे देश में लिखने पढ़ने वालों पर हमला काफी बढ़ गया है।हमे इसके विरुद्ध एकजुटता की आवश्यकता  है।" 

र्चित साहित्यकार तैय्यब हुसैन पीड़ित ने कहा "आज देश में साम्प्रदायिक ताकतें हिटलर और मुसोलिनी की विचारधारा से प्रेरणा ले रहे हैं. इसलिए ज़रूरी हो गया है कि नाटक करने, गीत गाने , सांस्कृतिक कार्यो के अलावा हम प्रतिरोध को संगठित करें।"

लोक नर्तक विश्वबंधु जी ने इंदौर की घटना की घोर निंदा करते हुए कहा "मैं 1954 से ही इप्टा के जुड़ा हुआ हूँ; लेकिन इंदौर जैसी घटना जिसमे नाटक करने वालो को दबाया जाए ना कभी ऐसा देखा और ना सुना।"

वरिष्ठ रंगकर्मी जावेद अख्तर ने इंदौर के समाचार पत्र "प्रभात किरण" में प्रकाशित ख़बर "इस इप्टा से कैसे निपटा जाए" का पाठ किया और प्रतिरोध सभा में एकजुटता सम्बंधी प्रस्ताव पेश करते  हुए  कहा "हमें फासिस्स्ट ख़तरे के ख़िलाफ़ एकजुट होकर बड़ी गोलबंदी करनी होगी"।

वरीय नाटककार व निर्देशक हसन इमाम ने कहा कि यह हमला देश के प्रजातान्त्रिक मूल्यों पर हमला है। यह हमला दलितों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, किसानों, मजदूरों पर हो रहे हमलों से अलग नहीं है. इसीलिये लेखकों , रंगकर्मियों को दलितों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, किसानों, मजदूरों के साथ कंधा से कंधा मिला कर फासिस्ट हमलों की मुख़ालफत करनी चाहिए।
सभा को वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी कुमार अनुपम, सामजिक कार्यकर्ता रूपेश, युवा रंगकर्मी अजीत कुमार, युवा अभिनेता सुमन कुमार, सामजिक कार्यकर्ता रवींद्र नाथ राय आदि ने सम्बोधित किया।

प्रतिरोध सभा में बड़ी संख्या में रंगकर्मी, कलाकार, सामाजिक कार्यकर्ता शामिल थे। प्रमुख लोगों में अनीश अंकुर, राजन कुमार सिंह, फ़ीरोज़ अशरफ खां, मोना झा, विनोद कुमार, कुमुद कुंदन, विशाल तिवारी, रंजीत, गठन गुलाल, सरफ़राज़, उषा वर्मा, दीपक कुमार,  कथाकार  शेखर, विनय, दीपक, गुलशन, विक्रांत, अभिषेक शर्मा शामिल थें. सभा की अध्यक्षता विश्वबंधु, समी अहमद, आलोक धन्वा और अरुण कमल की अध्यक्ष मंडली ने की.

प्रतिरोध सभा में बिहार आर्ट थिएटर, नटमंडप, प्रेरणा, हिरावल, किसलय, जन सांस्कृतिक मंच, सुरांगन, अभियान, विहान सांस्कृतिक मंच, अक्षरा आर्ट्स, जनविकल्प, बिहार एप्सो,अल खैर, पुनश्च, पटना सिटी इप्टा, पटना इप्टा से जुड़े संस्कृतिकर्मियों, कलाकारों ने भाग लिया। सभा का संचालन युवा रंगकर्मी जयप्रकाश ने किया।

प्रतिरोध सभा में जावेद अख़्तर खां ने पटना के संस्कृतिकर्मियों की ओर से एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया कि 
"इंदौर में विगत 2 अक्टूबर को शुरू हुए इप्टा के 14वें राष्ट्रीय सम्मेलन के अंतिम दिन यानी 4 अक्टूबर 2016 को भारत स्वाभिमान मंच नाम के एक संगठन जिसका किसी ने नाम भी न सुना होगा, के 10-12 उपद्रवी तत्वों ने हमले की कोशिश की। ये मंच पर चढ़ गए और नारेबाजी करने लगे। आयोजकों द्वारा इन्हें बाहर का रास्ता दिखाए जाने के बाद इन्होंने सम्मेलन स्थल पर पत्थरबाजी की जिसमें एक इप्टा कार्यकर्ता घायल हो गया। बाद में इन्होंने स्थानीय विजय नगर थाने पर पहुँच कर उलटे इप्टा के लोगों पर फर्जी प्राथमिकी दर्ज कराने का दबाव बनाया। स्थानीय आर.एस.एस. इकाई ने भी इप्टा सम्मेलन में कथित देश-विरोधी वक्तव्य दिए जाने का फर्जी आरोप लगाते हुए विज्ञप्ति जारी की। अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि कायराना हमला करनेवाले एक नामालूम से, लगभग रातों-रात खड़े हो गए इस संगठन का संबंध किस से है? 

यह घटना संघ समर्थक ताकतों द्वारा लेखकों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों पर लगातार हो रहे हमलों की शृंखला की ताजी कड़ी है। केंद्र की मोदी सरकार और भाजपा शासित राज्य सरकारों के शासन में गाय, देश और धर्म का नाम लेकर अभिव्यक्ति की आजादी, विवेक, समता और सांप्रदायिक सौहार्द्र की संस्कृति पर तथा दलितों और अल्पसंख्यकों पर हमले करनेवाले उन्मादी तत्वों के हौसले बढ़े हुए हैं। लेकिन इन हमलों का प्रतिरोध भी हर कहीं हो रहा है। इप्टा के सम्मेलन पर हमला देश की सांस्कृतिक विरासत के प्रगतिशील पहलुओं पर बढ़ते फासिस्ट हमलों का ही एक और बदतरीन उदाहरण है। 

इप्टा के आंदोलन को जिन महान कलाकारों, फिल्मकारों, चित्रकारों, लेखकों-बुद्धिजीवियों ने खून-पसीना एक कर खड़ा किया, उन्होंने देश ही नहीं दुनिया की मानवतावादी और प्रगतिशील संस्कृति को आगे बढ़ाया है। हम पटना के कलाकार, संस्कृतिकर्मी, सामाजिक कार्यकर्ता और नागरिक इप्टा के राष्ट्रीय सम्मेलन पर हुए हमले की कठोर भर्त्सना  करते हुए हमलावरों और साजिशकर्ताओं की गिरफ्तारी और घटना में मध्य प्रदेश की राज्य सरकार की भूमिका की न्यायिक जाँच की मांग करतें हैं."

Friday, October 7, 2016

श्रद्धांजलि : रंग गुरु एच कन्हाईलाल

ई दिल्‍ली: भारतीय रंगमंच के अप्रतिम निर्देशक ओझा हेस्नाम कन्हाईलाल का गुरुवार दोपहर निधन हो गया. वे फेफड़े के कैंसर से पीड़ित थे. इसी वर्ष उन्हें पद्म भूषण सम्मान दिया गया था. उन्हें पद्म श्री (2003) और संगीत नाटक अकादमी अवार्ड (1985) भी मिल चुका है. वे संगीत नाटक अकादमी के फेलो भी थे.

सावित्री हेस्नाम उनकी पत्नी हैं जो विख्यात रंगमंच अभिनेत्री हैं और उनके पुत्र हेस्नाम तोम्बा उभरते हुए निर्देशक हैं. मणिपुर के कन्हाईलाल ने भारतीय रंगमंच की विविधता को समृद्ध किया. उनकी रंगभाषा में पुर्वोत्तर का शरीर, मानस और वहां की लोक परंपराओं के साथ वहां की जनता का संघर्ष और प्रतिरोध भी शामिल है.

उनकी रंगभाषा में पूर्वोत्तर की ध्वनियों का खेल भी था जो उसे गहराई देता था. उनकी प्रस्तुतियां देश विदेश में मंचित हुईं और सराही गईं. कन्हाईलाल ने मणिपुर में कलाक्षेत्र रंगमंडल की स्थापना की थी और इसके साथ वे काम करते रहे. उन्होंने देश विदेश की विभिन्न संस्थाओं में अभिनेतों को प्रशिक्षण भी दिया. ‘मेमायर्स आफ अफ्रीका’, ‘कर्ण’, ‘पेबेट’, ‘डाकघर’, ‘अचिन गायनेर गाथा’, ‘द्रोपदी’ इत्यादि उनकी चर्चित नाट्य प्रस्तुतियां हैं.

महाश्वेता देवी की कहानी पर आधीरित उनकी प्रस्तुति 'द्रौपदी' अत्यंत प्रशंसित और विवादित रही. इसमें उनकी पत्नी सावित्री का बेमिसाल अभिनय था. प्रस्तुति के बीच एक ऐसा क्षण आता है जब वे मंच पर अनावृत होती हैं. कहा जाता है कि मनोरमा देवी के रेप और अपहरण के खिलाफ महिलाओं ने नंगे होकर आसाम राइफल्स के विरोध में जो प्रदर्शन किया था उसकी प्रेरणा इस प्रस्तुति से ही मिली थी. उनका निधन से भारतीय रंगमंच का एक युगांत हो गया है.

एनडीटीवी इंडिया से साभार

श्रद्धांजलि : रंग गुरु एच कन्हाईलाल

जीवन और रंगमंच में मेरे लिए यह आदर्श जोड़ी रही है - एच कन्हाईलाल और सावित्री माँ। चाहे वो रंगमंच का मंच हो या जीवन की तपती ज़मीन - ये दोनों हमेशा ही एक दूसरे के कंधे से कन्धा मिलाकर मजबूती के साथ खड़े दिखे। मैंने जहाँ भी इन्हें देखा (चाहे वो क्लास हो या जीवन)- साथ में ही देखा; और सदा मनीषी मुद्रा में ही देखा।

दोनों एक दूसरे के पूरक - हर ख़ुशी, ग़म, कला, जीवन संघर्ष, स्नेह, फटकार सब एक साथ। एक थियरी हैं तो दूसरा प्रैक्टिकल, एक जिस्म तो दूसरा दिमाग, एक दिल तो दूसरा धड़कन। ऐसी आदर्श जोड़ी विरले ही होती हैं। ऐसे ही स्नेह के लिए तो जीता है - एक इंसान। कन्हाईलाल और सावित्री माँ ने भारत के न जाने कितने कलाकारों को प्रेरित किया, उन कइयों में से एक मैं भी हूँ। उनकी सादगी और कला का कुछ अंश हम जैसों के भीतर सदा साँस लेती रहेंगीं।

अपने कर्मों के आधार पर एक पीढ़ी दूसरे पीढ़ी के भीतर जीवित रहती हैं। कन्हाईलाल जी का देहावसान की पीड़ा विशाल है लेकिन उनकी विरासत की ज़िम्मेवारी भी तो है, इसे सहेजना ज़रूरी है।

पुंज प्रकाश

Call for resistance against attack on freedom of expression

Call for resistance against attack on freedom of expression on 13th October 2016

Indian Peoples Theatre Association has given a call for resistance against attack on freedom of expression in relation to the attack on IPTA conference by some youths connected with the right wing who tried to disrupt the concluding session of 14th National Conference of IPTA on 4th October 2016 at Anand Mohan Mathur Sabhagrah, Indore.

The General Secretary of IPTA, Rakesh said in a statement that this attack is in the continuation of attacks on freedom of expression by RSS and its allies. He further stated that IPTA was born during freedom struggle in 1943 in the period of ongoing Second World War and IPTA since its inception not only stood against the war but also as a crusader in defense of national sovereignty and integrity and various of its activists throughout the country went to jails fighting the colonial rule. He reiterated that IPTA is firmly against war and terrorism as well since both are the manifestation of imperialist crisis. We observe that it is notorious design of ruling class that those who have been working for the peace of the mankind are portrayed as anti-nationals. It is our patriotism and our nationalist commitment which impels us to talk against war which will destroy human lives in both the countries. People of India have nothing to gain by sacrificing the lives of our soldiers. He has appealed to all IPTA units and to all like-minded writer’s, cultural and other social organizations to observe 13th October 2016 as a day of resistance and rally the people in the fight against communal fascism, terrorism, war mongering and continuous attacks on freedom of expression.

Rakesh Veda
General Secretary
Indian Peoples Theatre Association (IPTA)

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले के खिलाफ़ देशव्यापी प्रतिरोध का आह्वान

13 अक्टूबर 2016 को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले के खिलाफ़ देशव्यापी प्रतिरोध का आह्वान


इंदौर में 02 से 04 अक्टूबर तक आयोजित इप्टा के 14वें राष्ट्रीय सम्मेलन के अंतिम दिन आनंद मोहन माथुर सभागृह में समापन सत्र के दौरान दक्षिणपंथी संगठनों से संबद्ध कुछ युवाओं ने सत्र की कार्यवाही को रोकने का प्रयास किया, जिसके परिप्रेक्ष्य में भारतीय जन नाट्य संघ ने अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हो रहे हमलों के विरोध में 13 अक्टूबर का दिन प्रतिरोध दिवस के रूप में मनाने का आह्वान किया है।

इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव राकेश ने कहा कि इप्टा के सम्मेलन के दौरान हुआ यह हमला राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों द्वारा अभिव्यक्ति की आज़ादी पर लगातार किये जा रहे हमलों की कड़ी का ही एक हिस्सा है। इप्टा का जन्म 1943 में भारत के स्वतत्रंता संग्राम में 1943 में हुआ है। यह द्वित्तीय विष्वयुद्ध का समय भी था और अपनी शुरुआत से ही इप्टा न केवल युद्ध के विरोध में खड़ी हुई है बल्कि देश की संप्रभुता और एकता को बचाने के लिए भी मजबूती से खड़ी रही है और इसके लिए इप्टा के तमाम कार्यकर्ता ब्रिटिश शासन के दौरान जेल भी गए हैं। उन्होंने आगे कहा कि इप्टा युद्ध और आतंकवाद दोनों का ही कड़ा विरोध करती है क्योंकि दोनों ही नवउदारवादी संकट का परिणाम हैं। हम देखते हैं कि यह शासक वर्ग की वही जनविरोधी व्यवस्था है जिसमें जनता की शांति के लिए काम करने वालों की छवि देशविरोधी की छवि बनाकर प्रस्तुत की जाती है। यह हमारी  देशभक्ति और राष्ट्र के प्रति हमारी प्रतिबद्धता ही है कि हम उस युद्ध का विरोध करते हैं जो दोनों ही देशों में इंसानी जिंदगियों को खत्म कर देगा। भारत के लोगों के पास अपने सैनिकों की जान दांव पर लगाकर भी पाने के लिए कुछ नहीं है। उन्होंने इप्टा की तमाम इकाइयों के साथ अन्य समानधर्मा लेखक, सांस्कृतिक व सामाजिक संगठनों से यह अपील की है कि सभी 13 अक्टूबर 2016 का दिन अभिव्यक्ति की आजादी पर हमलों के खिलाफ प्रतिरोध दिवस के रूप् में मनाएं और साम्प्रदायिक फासीवाद, आतंकवाद, युद्धोन्माद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हो रहे हमलों के विरुद्ध लोगों को एकजुट करें।


राकेश वेदा
महासचिव
भारतीय जन नाट्य संघ

Thursday, October 6, 2016

अभिव्यक्ति की आज़ादी पर जारी हमलों के ख़िलाफ़ एकजुट हों!

अभिव्यक्ति की आज़ादी और आलोचनात्मक विवेक पर जारी हमलों के ख़िलाफ़ एकजुट हों!


रियाणा केन्द्रीय विश्वविद्यालय में ‘द्रौपदी’ के मंचन को लेकर खड़ा किया गया हंगामा और इंदौर में इप्टा के राष्ट्रीय सम्मलेन में तोड़-फोड़ की कोशिश — हाल की ये दोनों घटनाएं बताती हैं कि राष्ट्रवादी उन्माद फैलाकर आलोचनात्मक आवाजों को दबा देने की नीति पर आरएसएस और उससे जुड़े अनगिनत संगठन लगातार, अपनी पूरी आक्रामकता के साथ सक्रिय हैं.

हरियाणा केन्द्रीय विश्वविद्यालय में विगत 21 सितम्बर को महाश्वेता देवी को श्रद्धांजलि देते हुए उनकी विश्व-प्रसिद्ध कहानी ‘द्रौपदी’ का मंचन किया गया. यह कहानी कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में है और इसका नाट्य-रूपांतरण/मंचन भी अनेक समूहों द्वारा अनेक रूपों में किया जा चुका है. ‘महाभारत’ की द्रौपदी की याद दिलाती इस कहानी की मुख्य पात्र, दोपदी मांझी नामक आदिवासी स्त्री, सेना के जवानों के हाथों बलात्कार का शिकार होने के बाद उनके दिए कपड़े पहनने से इनकार कर देती है जो वस्तुतः अपनी देह को लेकर शर्मिन्दा और अपमानित होने से इनकार करना है. उसकी नग्नता उसके आत्मसम्मान का उद्घोष बनकर पूरे राज्यतंत्र को शर्मिन्दा करती है. जुलाई में दिवंगत हुईं महाश्वेता देवी को याद करते हुए इसी कहानी का मंचन हरियाणा केन्द्रीय विश्वविद्यालय में किया गया. मंचन के दौरान शान्ति रही और नाटक को भरपूर सराहना मिली, लेकिन उसके बाद अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के लोगों ने भारतीय सेना को बदनाम करने की साज़िश बताकर इस मंचन के विरोध में हंगामा शुरू किया. आस-पास के इलाकों में अफवाहें फैलाकर समर्थन जुटाया गया, महाश्वेता देवी को राष्ट्रविरोधी लेखिका के रूप में प्रचारित किया गया, कुलपति के पुतले फूंके गए और विश्वविद्यालय प्रशासन के सामने यह मांग रखी गयी कि नाट्य-मंचन की इस ‘देशद्रोही’ गतिविधि के लिए ज़िम्मेदार लोगों के खिलाफ कार्रवाई की जाए. असर यह हुआ विश्वविद्यालय ने नाटक के मंचन से जुड़े शिक्षकों पर एक जांच कमेटी बिठा दी, जबकि इस मंचन के लिए न सिर्फ विश्वविद्यालय प्रशासन से पूर्व-अनुमति ली गयी थी बल्कि वहाँ मौजूद अधिकारियों ने मंचन की भूरि-भूरि प्रशंसा भी की थी. अब अंग्रेज़ी विभाग के प्राध्यापक, सुश्री सनेहसता और श्री मनोज कुमार कार्रवाई के निशाने पर हैं और आरएसएस के आतंक का असर विश्वविद्यालय प्रशासन से लेकर शिक्षक समुदाय तक की किनाराकशी के रूप में दिख रहा है. दोनों शिक्षकों के खिलाफ आरएसएस का दुष्प्रचार-अभियान पूरे जोर-शोर से जारी है. ज़ाहिर है, उनकी कोशिश है कि इनके ख़िलाफ़ लोगों की भावनाएं भड़का कर इन पर दंडात्मक कारवाई के लिए विश्वविद्यालय को मजबूर किया जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि विश्वविद्यालय में आलोचनात्मक विवेक के लिए कोई जगह न बचे.

इसी कड़ी में 4 अक्टूबर को इंदौर में इप्टा के राष्ट्रीय सम्मलेन के तीसरे दिन हिन्दुत्ववादियों ने मंच पर चढ़कर हंगामा किया और इस पूरे आयोजन को राष्ट्रविरोधी देशद्रोही गतिविधि बताते हुए नारे लगाए. आयोजन-स्थल से खदेड़े जाने के बाद उन्होंने पत्थर भी फेंके जिससे इप्टा के एक कार्यकर्ता का सर फट गया. उनका आरोप यह था कि प्रसिद्ध फिल्मकार एम एस सथ्यू (‘गरम हवा’ के निर्देशक) ने अपने उदघाटन भाषण में पाकिस्तान में भारतीय सेना के घुसने की आलोचना करके राष्ट्र के खिलाफ काम किया है. उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि वहाँ पिछले दो दिनों से चल रही नाट्य-प्रस्तुतियां राष्ट्रविरोधी और जातिवादी हैं. आरएसएस के मालवा प्रान्त के प्रचार प्रमुख प्रवीण काबरा ने यह बयान दिया कि ‘वे (इप्टा वाले) जन्मजात राष्ट्रविरोधी हैं.’ यह आयोजन-स्थल पर किये गए आपराधिक हंगामे का औचित्य साबित करने का तर्क था.

ये दोनों घटनाएं राष्ट्रवादी उन्माद फैलाकर आलोचनात्मक आवाजों का दमन करने की हिन्दुत्ववादी साज़िशों की ताज़ा कड़ियाँ हैं. जनवादी लेखक संघ इनकी भर्त्सना करता है और हरियाणा केन्द्रीय विश्वविद्यालय के शिक्षकों तथा इप्टा के साथियों के साथ अपनी एकजुटता व्यक्त करता है. पिछले साल अक्टूबर और नवम्बर के महीनों में लेखकों-संस्कृतिकर्मियों ने असहिष्णुता के इस माहौल के खिलाफ अपने सृजन-कर्म से बाहर जाकर अभिव्यक्ति के अन्य रूपों का भी सहारा लिया था. पुरस्कार वापस किये गए थे, सड़कों पर उतर कर नारे लगाए गए थे, अकादमियों पर सरकारी धमकियों के बरखिलाफ अपनी स्वात्तता बहाल करने/रखने का दबाव बनाया गया था. लेखकों, संस्कृतिकर्मियों, इतिहासकारों, वैज्ञानिकों और फ़िल्मकारों की उस मुहिम का सन्देश राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फलक पर प्रसारित हुआ था. ऐसी ही मुहिम की ज़रूरत दुबारा सामने है. हम लेखकों-संस्कृतिकर्मियों से अपील करते हैं कि इस माहौल के विरोध में अपनी आवाज़ बुलंद करें और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर होने वाले हमलों का सीधा प्रतिकार करने के लिए एकजुट हों.

मुरली मनोहर प्रसाद सिंह (महासचिव)
संजीव कुमार (उप-महासचिव)

Wednesday, October 5, 2016

इप्टा पर हमले की निंदा

हम इलाहाबाद के नागरिक, लेखक, संस्कृतिकर्मी पिछले दिनों इंदौर में इप्टा के राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान हुए हमले की खबर से क्षुब्ध हैं। आर एस एस द्वारा संचालित संगठनों द्वारा किया गया यह बेशर्म हमला हमारी सांस्कृतिक विरासत पर हमला है।

सब जानते हैं कि  मुंबई में 25 मई, 1943 को इप्टा (इंडियन पीपुल्स् थियेटर एसोसियेशन) की स्थापना के पीछे देशवासियों की स्वतंत्रता, सांस्कृतिक प्रगति और आर्थिक न्याय की आकांक्षा को मूर्त रूप देना तथा कला के क्षेत्र को विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के दायरे से बाहर निकालकर मेहनतकशों का, मेहनतकशों के लिए जन-अभिव्यक्ति का माध्यम बनाना था। संस्कृति के क्षेत्र में इस वामपंथी हस्तक्षेप ने सांस्कृतिक कायापलट का काम किया। इस धारा ने न केवल परंपरागत कला रूपों की चुनौती दी तथा समाज की पूंजीवादी-सामंती विचार-दृष्टियों को बदला, बल्कि इस दायरे से बंधे कला सर्जकों को भी बदला। इस तरह जो सृजनशीलता सामने आयी, वह अपेक्षाकृत उन्नत संस्कृति की वाहक थी और वर्गीय संस्कृति की पक्षधर भी। इस सृजनशीलता ने मेहनतकशों की संस्कृति को रचने-गढ़ने का काम किया और स्वाधीनता संघर्ष में वामपंथी राजनीति को आम जनता के जेहन में स्थापित करने का काम भी। इस दौर में राजनीति और संस्कृति कर्म एक दूसरे की सहचर थी। इस संस्कृति कर्म ने ‘कला, कला के लिए’ के कलावादी नारे को ठुकराया और ‘कला, जनता के लिए’ के जनवादी नारे को स्थापित किया। इस विशाल सांस्कृतिक आंदोलन ने आम जनता को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ सांस्कृतिक रुप से एकजुट किया। इस आंदोलन ने आम जनता की पिछड़ी हुयी चेतना को बड़े पैमाने पर झिंझोड़ा, आम जनता के पैरों में बंधी रूढ़िवाद और अंधविश्वास की बेड़ियों को तोड़ा, उसे प्रगतिशील, जनवादी चेतना से लैस किया। इसके फलस्वरूप स्वाधीनता आंदोलन के राजनैतिक संघर्ष में वह बड़े पैमाने पर सड़कों पर उतरी।

हम मांग भी करते हैं कि इस हमले के लिए जिम्मेदार लोगों पर कड़ी कानूनी कार्यवाही की जाय और वहां इस तरह के हमले को न रोक पाने के लिए मध्य प्रदेश की राज्य सरकार की भूमिका की न्यायिक जांच हो।

प्रलेस, जलेस, जसम

Monday, October 3, 2016

वे अपनी नस्लों के जेहन में संगीत बो रहे हैं; और हम?

"जब भी भूख से लड़ने
कोई खड़ा हो जाता है
सुंदर दिखने लगता है।"

कलाकारों-कलमकारों का जमावड़ा है तो कुछ अलहदा तो होगा ही। आनंद मोहन माथुर हॉल में माहौल खिंचा हुआ है। सामने प्रवेश द्वार पर चित्त प्रसाद के सुप्रसिद्ध रेखांकन नजर आ रहे हैं। प्रवेश करने वाले गलियारे के दोनों और किताबों की स्टाल सजी हुई है और लोग 'कहीं खत्म न हो जाए' के भाव से अपनी पसंदीदा किताब अभी ही खरीद लेना चाहते हैं। स्टाल के बाएं कोने में सुनील जाना के फोटोग्राफ लगे हुए हैं, जो चित्त प्रसाद के रेखांकन से मानों कह रहे हों-हम भी तो वही बात कह रहे हैं। फोटोग्राफ अंदर बरामदे में भी हैं और इसके फक्कड़-अलमस्त छायाकार शाह आलम बाइसिकल में नजर आ रहे हैं। जिंदगी की जद्दोजहद में लगे आम लोगों की जिन्दा तस्वीरें हैं। यहीं सुपरिचित चित्रकार मुकेश बिजोले की पेंटिंग्स पंकज दीक्षित के कविता पोस्टरों के साथ जुगलबन्दी में लगी हुई हैं। ठीक इसी के सामने वे सीढियाँ हैं जहाँ लम्बे श्वेत बाल और इतनी ही सफेद दाढ़ियों वाला कलाकार नुमा शख्स बड़ी ही सादगी के साथ भोजन की प्लेट लेकर नीचे बैठ गया है। भिलाई के साथी यह देख परीशाँ हो उठते हैं।' अरे कामरेड! यह क्या?' वे एक कुर्सी देकर 12 राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित फिल्मकार और मौजूदा सत्र के मुख्य अतिथि आनन्द पटवर्धन को ऊपर बैठने का अनुरोध करते हैं और आनन्द 'अरे! कोई फर्क नहीं पड़ता' के भाव से अनुरोध स्वीकार कर लेते हैं। उधर सम्मेलन के बाकी प्रतिनिधि कुछ पर्चियों के सहारे भोजन की प्लेट जुटा रहे हैं और इन्हीं पर्चियों में सर्वेश्र्वर दयाल सक्सेना की ऊपर लिखी पंक्तियाँ दर्ज हैं। गोरख पाण्डेय, धूमिल वगैरह की कविताएँ भी हैं। भूख से जूझते हुए भूख की कविताएँ। आनन्द पटवर्धन भोजन को काम की तरह निपटा रहे हैं, क्योकि अभी तुरन्त बाद उन्हें प्रलेस पर बन रही एक अधपकी फ़िल्म का प्रदर्शन करना है।

फ़िल्म कच्ची है, असंपादित, ब्लेंक सीन भी हैं, पर 'ख़त का मजमून समझ आता है, लिफाफा देखकर' की तर्ज पर बनने वाली फ़िल्म की उत्कृष्टता का अंदाजा लगाया जा सकता है। यूँ भी आनन्द पटवर्धन अमूमन ऐसे विषयों पर फ़िल्म बनाते रहे हैं, जिन पर दीगर फिल्मकार सोचते भी नहीं। प्रलेस को विषय बनाना तो और भी कठिन है। फ़िल्म में जावेद सिद्दीकी बता रहे हैं कि किस तरह 1936 में प्रेमचन्द की तहरीर ने न केवल हिंदी और उर्दू के बल्कि अन्य भाषाओं के लेखकों को भी प्रगतिशीलता की धारा में बहा लिया। इप्टा के पूर्व अध्यक्ष ए. के. हंगल विभाजन के त्रासद दिनों को याद कर रहे है जब उनका परिवार पाकिस्तान में बतौर अल्पसंख्यक रह रहा है। मोहल्ले के मुस्लिमों के बीच वे अकेले हिन्दू हैं। वे खुद जेल में हैं। कुछ लोग दुर्भावना से उनके परिवार को घेरते हैं तो मोहल्ले के सारे मुस्लिम बचाव में एकत्र हो जाते हैं। कहते हैं, 'इन्हें हाथ नहीं लगाना। हम इन्हें जानते हैं। भले आदमी हैं। कम्युनिस्ट हैं!'

देश भर के कोई 22 राज्यों से एकत्र हुए कलाकारों की इंदौर शहर में भव्य रैली के बाद इस सत्र की शुरुआत हुई थी। जाती हुई बेमौसम बारिश ने भी रैली का हार्दिक अभिवादन किया। शाम को सुरों की बरसात हुई। देवास इंदौर के ऐन पड़ोस में है। औरों का नहीं पता पर कलाप्रेमी इस शहर को कुमार गन्धर्व के नाम से ही चिह्नित करते हैं। उन्हीं यशश्वी गायक कुमार साहब की सयोग्य शिष्या और सुपुत्री कलापिनी कोमकली ठेठ मालवी शैली में कबीर के भजन सुनाती हैं। कुमार साहब की वही अद्भुत शैली, जहाँ शास्त्रीयता अपना अभिजात्यपन त्याग कर ऊँची आसंदी से उतर आती है और लोक के अक्खड़पन से बेलौस-उन्मुक्त होकर मिलती है। "कौन ठगवा नगरिया लूटल हो" और "नैहरवा, हमका न भाए" जैसी रचनाएँ" अद्भुत, अवर्णनीय समाँ बाँध देती हैं। समय -सीमा की बाध्यता कलापिनी को और, और अधिक सुनने से रोकती है।

शाम के इस सत्र का संचालन आयोजन की भाग-दौड़ में लगे-थके विनीत तिवारी के हाथों में है। इप्टा के इस 14 वें राष्ट्रीय सम्मेलन की स्वागत समिति के अध्यक्ष आनंद मोहन माथुर की आवाज 90 वर्ष की आयु में भी कड़क और बलंद है। वे कहते हैं कि मैं स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहा हूँ की इप्टा का सम्मेलन यहां हो रहा है। जो काम आप पहले कभी आप कर रहे हों, वही काम आगे की दो -तीन पीढियां करती नजर आएं तो बड़ी तसल्ली होती है। 22 राज्यों से 700 से भी ज्यादा कलाकार यहां आए हैं। बाज़ार ने कला को मनोरंजन तक सीमित करने का प्रयास किया पर सथ्यू साहब व आनन्द पटवर्धन जैसे लोगों ने बाजार के सामने घुटने नहीं टेके। यही अपेक्षा आप सब से भी देश करता हैं। क्यूबा और वेनेजुएला के प्रतिनिधियों ने यहां आकर हमें इज्जत बक्शी है। छोटे-छोटे देश किस तरह आत्म सम्मान के सामने खड़े हैं, यह प्रेरक है।

श्री माथुर ने कहा कि हम केवल संस्कृति कर्मी नहीं है। हम राजनीतिक चेतना से लैस हैं। कश्मीर को लेकर जिस तरह हिंदुस्तान और पाकिस्तान राजनीति क्र रहे हैं, उनसे किसी का भला नहीं होगा। हमें मखदूम की ये पंक्तियाँ याद आती हैं कि " जाने वाले सिपाही से पूछो, वो कहाँ जा रहा है।"

अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में श्री रणवीर सिंह ने कहा कि आज का माहौल पूरी तरह अंधकारमय है। मुझे याद आती है, शेक्सपियर के नाटक मैकबेथ के चौथे अंक के तीसरे दृश्य की यह स्पीच: "मुझे लगता है हमारा देश जंजीरों के नीचे दबा जा रहा है; यह रो रहा है, इससे खून बह रहा है और हर दिन इसके घावों में वृद्धि होती जा रही है।' उन्होंने सवाल किया कि क्या हम इन अँधेरे दिनों के खिलाफ़ मूक दर्शक बने रहेंगे या अपने पुरोधाओं से सबक लेकर अपने आंदोलन की धार और तेज करेंगे, अपने नाटकों को और पैना करेंगे, उन्हें जनता के बीच ले जाकर उन्हें लामबंद करेंगे। उन्होंने कहा कि हमारा अस्तित्व थिएटर की वजह से है और थिएटर का अस्तित्व हमारी वजह से। इस रिश्ते को और अधिक सघन और आत्मीय बनाए जाने की जरूरत है।
 
सत्र में क्यूबा और वेनेजुएला के राजदूतों की मौजूदगी प्रेरक और हौसला बढ़ाने वाली रही। क्यूबा के राजदूत ने जहाँ थोड़े संकोच के साथ अपनी बात कही, वहीं वेनेजुएला के प्रतिनिधि ने पूरे भावाभिनय के साथ अपनी बातों को विस्तार दिया। एक फ़िल्म उन्होंने दिखाई जो चौंकाती है, प्रेरित करती है, विचार करने के लिए बाध्य करती है। संगीत को उनके मुल्क ने आंदोलन बना दिया है। कोई 5 लाख से भी ज्यादा बच्चे संगीत सीख रहे हैं, सिखा रहे हैं। किसी के हाथ में गिटार है, किसी के हाथ में वायलिन तो कोई ट्रम्पेट जैसे वाद्य में सुरों से खेल रहा है। यह अपने मुल्क के उन लोगों के लिए विचार का मुद्दा हो सकता है-हालांकि वे कभी करेंगे नहीं-जो अपने बच्चों के हाथों में लाठी और त्रिशूल जैसी चीजें थमा रहे हैं।

कबीर कला मंच की साथी शीतल साठे को सुनना एक अलग, अलहदा अनुभव था । इस पर विस्तार से फिर कभी।







Sunday, October 2, 2016

वे गोली चलाएंगे, हम एक नाटक खेलेंगे

इंदौर, 2 अक्टूबर 16। स्थानीय आनन्द मोहन माथुर सभागृह में इप्टा के 14 वें राष्ट्रीय सम्मेलन की शुरूआत पारम्परिक रूप से झंडोत्तोलन के साथ हुई। झंडोत्तोलन इंदौर के सुपरिचित संस्कृति कर्मी औए पूर्व सांसद होमी दाजी की पत्नी ने किया। इसके बाद भिलाई इप्टा ने मणिमय मुखर्जी के संगीत निर्देशन में एक जनगीत 'हमने ली कसम' की प्रस्तुति दी।

मप्र इप्टा के अध्यक्ष हरिओम राजोरिया का स्वागत भाषण दिया।इप्टा के महासचिव राकेश ने कहा की चार्ली चैपलिन कहा करते थे कि कला जनता के नाम एक प्रेम पत्र है। हमने इसमें यह जोड़ने की हिमाकत की कि यह शाषकों के  विरुद्ध,  साम्राज्यवाद के विरुद्ध, शोषण और असमानता के विरुद्ध अभियोग पत्र भी है। उन्होंने कहा कि आज देश में युद्ध का माहौल बनाया जा रहा है।हम युद्ध के खिलाफ हैं क्योंकि युद्ध समस्याओं की समाप्ति नहीं शुरुआत है। हम भगत सिंग की विरासत को लेकर चलते हैं। एक समय उन्हें भी आतंकवादी कहा गया था। हम अपने सांस्कृतिक औजारों से उनकी लड़ाई को आगे बढ़ाएंगे। हम यद्ध और आतंकवाद से एक साथ लड़ेंगे।

इसके पश्चात् इप्टा के पूर्व अध्यक्ष ए. के.हंगल, पूर्व महासचिव जितेंद्र रघुवंशी, पंडित रविशंकर, ओ. एन करूप, कामरेड ए. बी. बर्धन, रवि नागर, जुगल किशोर, जोहरा सहगल महाश्वेता देवी, राजेन्द्र यादव, रविन्द्र कालिया, नेल्सन मण्डेला, पीट सीगर, आर के लक्ष्मण, मन्नाडे, भूपेन हजारिका, जसपाल भट्टी, सतपाल डांग आदि दिवंगत साथियो-कलाकारों-जन नेताओं को श्रद्धांजलि दी गई।

गर्म हवा के लिए चर्चित फिल्मकार और इप्टा के उपाध्यक्ष साथी एम. एस. सथ्यू ने उद्घाटन भाषण देते हुए कहा कि वे 1960 में इप्टा में आए जब वे मुम्बई इप्टा की रिहर्सल देखा करते थे।

मौजूदा हालात का ज़िक्र करते हुए आपने कहा कि लड़ना आसान है पर शांति से बर्ताव करना मुश्किल है। टेकनोलॉजी के उपयोग से अब लड़ाई और भी  आसान हो गयी है है, पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह गांधी का देश है। आज की सरकार शान्ति के आवरण को फाड़कर फेंक रही है। हमारी जिम्मेदारी बड़ी है। समाजवाद सबको बराबरी का मौका देता है, इसलिए हमें साम्प्रदायिकता के साथ-साथ जातिवाद से भी लड़ना है।  थिएटर दुनिया को बदल नहीं सकता पर यह इसके लिए प्रेरित कर सकता है।

मुझे उद्घाटन भाषण देने के लिए बुलाया गया। अच्छा होता कि मुझे भाषण देने के बदले नाटक करने के लिए बुलाया गया होता तो मैं अपनी बात बेहतर ढंग से रख पता।

राजेन्द्र राजन, महासचिव, प्रलेस  ने खा कि जब इप्टा का गठन नहीं हुआ था तब भी सांस्कृतिक जागरण का काम हम करते थे। प्रेमचन्द रंगशाला को मुक्त करने के लिए एक लम्बी लड़ाई हमने बिहार में लड़ी। लाठियाँ भी खाईं। लड़ाई की इस विरासत से जुड़े होने के कारण मैं स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता हूँ। हम सर्जिकल ऑपरेशन में नहीं निदान में भरोसा करते हैं। प्रलेस दिशा देने का काम करता है। इस धारा को कुंद करने के प्रयास पिछले दिनों खूब हुआ। हम उनके लिए एक बेहतर दुनिया चाहते हैं जो भूखे सोते हैं। निश्चय ही उसमें अम्बानी अडानी शामिल नहीं हैं। हम एनजीओ कल्चर के विरुद्ध हैं। अनुदान कला के धार को भोंथरा कर रहा है। इप्टा और प्रलेस को मिलकर इन चुनौतियों का सामना करना है। लेखक और कलाकार को संगठित होकर लड़ाई लड़नी है। जब कबीर कहते थे कि 'दुखिया दास कबीर है, जागे अरु रोवै' तो वह दरअसल उनका रोना नहीं होता था। वह विद्रोह का आह्वान करते थे। उम्मीद की जानी चाहिए कि लडाई के गीत अब भी रचे जाएंगे और यह काम इप्टा के साथी ही कर सकते हैं।

इसके बाद अशोक नगर इप्टा द्वारा वामिक जौनपुरी का एक जनगीत "जब भी नाव चलती है" प्रस्तुत किया गया ।

साथी शमीम फैजी ने कामरेड बर्धन को याद करते हुए कहा कि वे ही मुझे इस आंदोलन में लेकर आए। मुझ जैसे कई युवा उनके ही कारण आंदोलन से जुड़े। वे सही मायनो में बहु-आयामी थे। अनेक आंदोलनों से जुड़े। साढ़े ग्यारह साल जेल में रहे। कोई 3 साल भूमिगत रहे। वे विचारों को बेहद सरल भाषा में रखते थे। वे आर्ट और कल्चर के साथ भी उतनी ही शिद्दत से जुड़े थे, जितने अन्य संघर्षो से। इसीलिए इप्टा से उनका जुड़ाव समझ में आता है। इसके सम्मेलनों में शिरकत की बागडोर मुझे सौंपते हुए हुए उन्होंने एक बार विनोद में कहा की मैं संस्कृति की बागडोर एक गैर सांस्कृतिक आदमी को सौंप रहा हूँ। साथी शमीम के वक्तव्य के बाद ए. बी. बर्धन के भाषण का एक अंश परदे पर दिखाया गया और उत्पल बेनर्जी ने फैज की एक नज्म 'हम देखेंगे' का गायन किया।

इप्टा के पूर्व महासचिव जितेन्द्र रघुवंशी को याद करते हुए राकेश ने कहा कि उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि एक दोस्त, एक साथी की चर्चा इस तरह से करनी होगी। बकौल दुष्यंत,"उखड़ गया है एक बाजू जबसे, और ज़्यादा वज़्न उठाता हूँ। अब ये दायित्व हम पर है कि उनकी अनुपस्थिति में ज्यादा जिम्मेदारी से काम करें। 57 में दिल्ली में पूर्व गठित इप्टा का आखिरी सम्मेलन हुआ था । 60 में इप्टा बिखरी। 85 में हम आगरा में मिले और कैफ़ी के नेतृत्व में ये कारवां जितेंद्र ने आगे बढ़ाया। बकौल राजेन्द्र यादव वे बड़े कथाकार हो सकते थे, वे बड़े अनुवादक हो सकते थे पर उन्होंने इप्टा के संघठन का जिम्मा चुना। इप्टा दरअसल उन्हें घुट्टी में मिली थी। राकेश के वक्तव्य के बाद जितेंद्र जी पर फ़िल्म दिखाई गयी, जिसका निर्माण दिलीप रघुवंशी ने किया है।

विनीत तिवारी के संक्षिप्त परिचय के बादव्अंधविस्वास निर्मूलन समिति, सांगली, महाराष्ट्र ने एक नाटक का मंचन किया। सोचने की आजादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता राजसत्ता के लिए खतरा होती है, इस बात को रेखांकित करते हुए नाटककारों ने कहा, तुम गोली चलाओगे, हम एक कविता लिखेंगे। तुम गोले दागोगे, हम एक नाटक खेलेंगे!











Saturday, October 1, 2016

इप्टा का 14 वां राष्ट्रीय अधिवेशन एवं जन सांस्कृतिक महोत्सव कल से इंदौर में

इंदौर, 1 अक्टूबर 16। भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) का 14 वां राष्ट्रीय अधिवेशन एवं राष्ट्रीय जन सांस्कृतिक महोत्सव का उद्घाटन कल स्थानीय आनंदमोहन माथुर सभागृह में होगा। उद्घाटन सत्र की शुरूआत प्रातः 10 बजे से सुप्रसिद्ध फिल्मकार एवं इप्टा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्री एम.एस. सथ्यू के उद्घाटन वक्तव्य से होगी। जन संस्कृति महोत्सव का उद्घाटन फिल्मकार आनंद पटवर्धन करेंगे। इस अवसर पर देश-विदेश के अन्य समानधर्मा संगठनों के प्रतिनिधियों द्वारा एकजुटता संदेश प्रेषित किया जायेगा। आयोजन में क्यूबा और वेनेजुएला के राजदूतों सहित देश भर के कोई 1000 प्रतिनिधि, रंगकर्मी, कलाकार, लेखक-कवि शिरकत करेंगे।

जन संस्कृति महोत्सव में नृत्य, नाटक, संगीत, चित्रकला, फोटोग्राफी, माइम, नृत्य-नाटिका, कविता पोस्टर प्रदर्शनी, चित्रकला प्रदर्शनी का समावेश होगा। दृश्य-श्रव्य प्रस्तुति होगी तथा विभिन्न पुस्तिकाओं, सीडी-आदि का विमोचन होगा। देशभर के कोई 20 राज्यों से इप्टा के प्रतिनिधियों के सम्मेलन में भाग लेने के लिए रवाना होने की खबर है।

सम्मेलन में जो नामचीन शख्सियतें हिस्सा ले रही हैं, उनमें एम.एस. सथ्यू और आनंद पटवर्धन के अलावा रणबीर सिंह, वेदा-राकेश, अंजन श्रीवास्तव, नूर जहीर, सुमंगला दामोदरन, कुमार अंबुज, अली जावेद, पवन करण आदि के नाम भी शामिल हैं। कई सालों बाद इप्टा के पूर्व महासचिव जितेन्द्र रघुवंशी की कमी इस अधिवेशन में खलती रहेगी। उन्हीं के कुछ दिनों बाद रंगचिंतक-अभिनेता जुगलकिशोर भी चल बसे थे। जितेंन्द रघुवंशी को श्ऱ़द्वांजलि स्वरूप उन पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म प्रदर्शित की जायेगी और जुगलकिशोर की याद में उनके द्वारा निर्देशित नाटक ‘बह्म का स्वांग’ लखनऊ इप्टा द्वारा खेला जायेगा।

अधिवेशन का पूरा कार्यक्रम इस प्रकार है:  































































































































































इप्टा का 14 वां राष्ट्रीय अधिवेशन एवं जन सांस्कृतिक महोत्सव कल से इंदौर में

इंदौर, 1 अक्टूबर 16। भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) का 14 वां राष्ट्रीय अधिवेशन एवं राष्ट्रीय जन सांस्कृतिक महोत्सव का उद्घाटन कल स्थानीय आनंदमोहन माथुर सभागृह में होगा। उद्घाटन सत्र की शुरूआत प्रातः 10 बजे से सुप्रसिद्ध फिल्मकार एवं इप्टा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्री एम.एस. सथ्यू के उद्घाटन वक्तव्य से होगी। जन संस्कृति महोत्सव का उद्घाटन फिल्मकार आनंद पटवर्धन करेंगे। इस अवसर पर देश-विदेश के अन्य समानधर्मा संगठनों के प्रतिनिधियों द्वारा एकजुटता संदेश प्रेषित किया जायेगा। आयोजन में क्यूबा और वेनेजुएला के राजदूतों सहित देश भर के कोई 1000 प्रतिनिधि, रंगकर्मी, कलाकार, लेखक-कवि शिरकत करेंगे।

जन संस्कृति महोत्सव में नृत्य, नाटक, संगीत, चित्रकला, फोटोग्राफी, माइम, नृत्य-नाटिका, कविता पोस्टर प्रदर्शनी, चित्रकला प्रदर्शनी का समावेश होगा। दृश्य-श्रव्य प्रस्तुति होगी तथा विभिन्न पुस्तिकाओं, सीडी-आदि का विमोचन होगा। देशभर के कोई 20 राज्यों से इप्टा के प्रतिनिधियों के सम्मेलन में भाग लेने के लिए रवाना होने की खबर है।

सम्मेलन में जो नामचीन शख्सियतें हिस्सा ले रही हैं, उनमें एम.एस. सथ्यू और आनंद पटवर्धन के अलावा रणबीर सिंह, वेदा-राकेश, अंजन श्रीवास्तव, नूर जहीर, सुमंगला दामोदरन, कुमार अंबुज, अली जावेद, पवन करण आदि के नाम भी शामिल हैं। कई सालों बाद इप्टा के पूर्व महासचिव जितेन्द्र रघुवंशी की कमी इस अधिवेशन में खलती रहेगी। उन्हीं के कुछ दिनों बाद रंगचिंतक-अभिनेता जुगलकिशोर भी चल बसे थे। जितेंन्द रघुवंशी को श्ऱ़द्वांजलि स्वरूप उन पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म प्रदर्शित की जायेगी और जुगलकिशोर की याद में उनके द्वारा निर्देशित नाटक ‘बह्म का स्वांग’ लखनऊ इप्टा द्वारा खेला जायेगा।

अधिवेशन का पूरा कार्यक्रम इस प्रकार है: