Saturday, August 27, 2016

Fidel's 90th Birthday was celebrated in Indore

- Vineet Tiwari
On 13th August, 2016, Comrades from different organizations gathered together in Indore, a town of Madhya Pradesh to pay our respect to Com. Fidel Castro on his 90th birthday. We recalled his gallantry during guerilla warfare with Batista regime. It was a fight for democracy where Com. Fidel fought along with peasants and others from working class in the hills of Sierra Maestra. 
We remembered how Cuba set an example for the entire third world that independence and camaraderie can challenge the mightiest imperialist power of the world. 
We also remembered Com. Che Guevara, his contribution in building a new society in socialist Cuba. Fidel is not just a revolutionary charismatic leader for the Cuban people but he is the leader inspirational light house for the entire third world, from Mozambique and Angola to India and Nepal to Nicaragua to El Salvador to Bolivia to Ecuador and of course to Venezuela.
After the collapse of socialist regimes of Soviet Union and Eastern Europe and the breakdown of CMEA,  Cuba went through a very difficult period. Fidel said to his fellow country people, "History has bestowed upon us the responsibility to carry forward the legacy of socialist revolution. We are proud to get this opportunity and we shall not betray the cause for which we and our comrades have fought." And Indeed, Cuba emerged through the Special Period as a very special country. The people of Cuba along with Venezuela, Bolivia, Ecuador and other countries in Latin America have opened up new vistas for setting up democratic, participative, just and equitable society for human civilization. Speakers discussed about the world famous Cuban healthcare system and courageous Cuban doctors. We also saw Nobel Laureate famous writer Gabriel Garcia Marquez's interview in which he fondly described about Fidel's personality.
We salute Fidel Castro and all those comrades who fought and are fighting for the revolutionary cause of Socialism.
On this occasion,  people's economist Dr. Jaya Mehta from Joshi-Adhikari Institute of Social Studies, Delhi, Vineet Tiwari, senior CPI leader Com. Vasant Shintre, Vijay Dalal, Arvind Porwal, Chunnilal Wadhwani and others shared their thoughts. We also listened Pete Seeger's songs and watched videos about life and works of Com. Fidel Castro. Gen. Secretary of Progressive Vineet Tiwari recited his poem on Cuba. Young comrades of Indian People's Theatre Association (IPTA), Pooja, Sakshi and Raaj cut the cake. State Secretary of National Federation of Indian Women (NFIW) Com. Sarika Shrivastava, Indore Secretary Com. Neha Dubey, Com. Shaila Shintre, Bank trade unionists Com. Arvind Porwal, Com. Brajesh Kanungo, Com. Toufeeq from Progressive Writers Association (PWA), IPTA comrades Seema Rajoria from Ashoknagar and Anuradha Tiwari, Com. Dashrath from CPI were also among the ones who celebrated 90th Birthday of Com. Fidel Castro at OCC home of Bank Officers Association. This was an initiative of Sandarbh Collective which also observed Com. Fidel Castro's 80th Birthday in Indore in 2006 and was reported in Granma. Amir Khan and Nitin Bedarkar facilitated the show of visuals and songs for this occasion.

इतिहास ने फ़िदेल को सही साबित कियाः

फ़िदेल कास्त्रो का 90वाँ जन्मदिन
. सारिका श्रीवास्तव
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दौर (मध्य प्रदेश) के प्रगतिशील विचारधारा के साथियों ने 13 अगस्त 2016 को लैटिन अमेरिका के समाजवादी देश क्यूबा के राष्ट्रपति रहे काॅमरेड फिदेल काॅस्त्रो के 90वें जन्मदिन पर उनके जीवन, क्यूबाई क्रान्ति और समाजवाद पर अनेक बातें साझा कीं साथ ही क्यूबा का क्रान्तिकारी संगीत भी सुना।

काॅ. विनीत तिवारी की क्यूबा पर आधारित कविता ‘ज़रूरत’ से कार्यक्रम की शुरुआत हुई। भूमिका रखते हुए डाॅ. जया मेहता ने भारतीय जन नाट्य संघ के युवा और किशोर साथियों को क्यूबा और फिदेल कास्त्रो के बारे में जानकारी देते हुए कहा कि क्यूबा, अमेरिका से लगा हुआ एक छोटा सा देश है जिस पर पहले अमेरिका के पिट्ठू तानाशाह बटिस्टा का शासन था। वहां केवल गन्ने की खेती होती थी जो स्थानीय लोगों की ज़रूरत पूरा करने के बजाय अमेरिका निर्यात कर दी जाती थी। तब फिदेल कास्त्रो, उनके साथी अर्जेंटीना के चे ग्वेरा और उनके तमाम अन्य क्रांतिकारी साथियों ने बटिस्टा के शासन के विरुद्ध लोकतंत्र के लिए सिएरा मैस्ट्रा की पहाड़ियों पर गोरिल्ला युद्ध करके क्यूबा को आज़ाद करवाया। आज लैटिन अमेरिका के अन्य देश, जिनकी व्यायसायिक और प्राकृतिक संपदा का शोषण भी अमेरिका करता रहा है, एक-एक कर अमेरिका के खिलाफ लामबंद हो रहे हैं और समाजवाद की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।

क्यूबा की क्रान्ति को याद करते हुए उन्होंने कहा कि क्यूबा ने जिस तरह पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष कर अपनी आजादी हासिल की और सही मायनों में आज़ादी को आगेू बढ़ाया, वोे तीसरी दुनिया के मुल्कों के लिए एक मिसाल है। 

हमने चे ग्वेरा को भी याद किया की उन्होंने किस तरह समाजवादी क्यूबा में एक नए तरह के समाज को बनाकर स्थापना करने में अपना योगदान दिया। फिदेल केवल क्यूबा की जनता के लिए ही क्रान्तिकारी चमत्कारिक नेतृत्वकारी ही नहीं हैं बल्कि वे एक चमकते हुए प्रकाशपुंज की तरह समूची तीसरी दुनिया चाहे वह मोजाम्बिक और अंगोला हो या भारत और नेपाल हो या निकारागुआ या एल सल्वाडोर या बोलिविया या एक्वाडोर या फिर वेनेजुएला वे सबके लिए प्रेरणादायक हैं। 

जब सोवियत यूनियन और पूर्वी योरप के देशों में समाजवादी व्यवस्थाएँ ढह रही थीं और सीएमईए जैसी वैश्विक वैकल्पिक अर्थव्यवस्था का प्रभाव क्षीण हो रहा था, वो दौर क्यूबा के लिए बहुत ही कठिन था। लेकिन तब फिदेल ने अपने देश की जनता को संदेश दिया कि ‘‘इतिहास ने हमें ये ज़िम्मेदारी सौंपी है कि हम समाजवादी क्रान्ति को आगे बढ़ाएँ।’’ क्यूबा ने अनेक सख्त उपाय किये, ख़ुद फिदेल कास्त्रो ने 60 वर्ष से ज़्यादा की उम्र में साइकल चलाना सीखा क्योंकि सोवियत संघ से आने वाला तेल बंद हो गया था, अनेक सुविधाओं में कटौती की लेकिन अपने देश के नागरिकों की भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य और सम्मानजनक रोज़गार की मूलभूत सुविधाओं को बरकरार रखा। क्यूबा सारी विपरीत परिस्तिथियों का सामना करते हुए संकट से निकला और इस पूरे दौर में सुदृढ़ नेतृत्व किया फ़िदेल कास्त्रो ने। इसीलिए समाजवाद की इच्छा रखने वाले दुनिया के करोड़ों-अरबों लोगों के दिलों में क्यूबा और फ़िदेल का स्थान बहुत ही विशिष्ट है। 

जया मेहता ने बताया कि सोवियत संघ के विघटन के बाद क्युूबा गए भारतीय पत्रकार सईद नकवी ने फिदेल कास्त्रो से एक इंटरव्यू में पूछा कि जब दुनिया के सारे मुल्कों ने समाजवाद को नकार दिया है तो ऐसे में केवल क्यूबा में समाजवाद पर डटे रहना क्या आपको गलत नहीं लगता। जवाब में फ़िदेल ने कहा कि सही और कामयाब होने में अंतर होता है। भले ही दुनिया में वर्तमान में समाजवाद नाकाम होता लग रहा हो लेकिन उससे वह ग़लत साबित नहीं हो जाता। यहीं फ़िदेल के उस ऐतिहासिक व विश्वप्रसिद्ध भाषण की भी याद की गई जिसमें उन्होंने अदालत में कहा था कि ‘आपका कानून भले ही मुझे गलत और गुनहगार ठहराये, इतिहास मुझे सही साबित करेगा।’

क्यूबा की जनता ने वेनेजुएला, बोलिविया, इक्वेडोर और लैटिन अमेरिका के अन्य देशों के लिए लोकतांत्रिक भागीदारी और पूँजीवाद से अलग एक नये किस्म के बराबरी पर आधारित मानव समाज का परिदृश्य सामने रखा। इससे प्रभावित होकर अनेक देशों में पूँजीवाद और अमेरिकी साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ आंदोलन उठे और मजबूत हुए। क्यूबा ने न केवल अपने देश को सँवारा बल्कि सारी दुनिया में मानवता की मिसालें कायम कीं। क्यूबा के चिकित्सक दुनिया के हर कोने में किसी भी आपदा से निपटने के लिए हरपल तैयार रहते हैं।
कॅामरेड विनीत ने बताया कि जब पूरा देश ग़ुलामी के नारकीय जीवन को झेल रहा था तब फिदेल ने होसे मार्ती जैसे क्रांतिकारी कवि को समूचे लैटिन अमेरिका के सर्वाधिक सम्मानित कवि की प्रतिष्ठा दी। ‘ग्वांतानामेरा’ जैसा प्रेमगीत अँधेरे में उम्मीद की रोशनी बिखेरने वाले गीत की तरह दुनियाभर में प्रसिद्ध हुआ। महान गायक पीट सीजर ने इसकी धुन बनाई और गाया। आज यह दुनिया के अमर गीतों में एक है। उपस्थित लोगों ने इस गीत को गाते पीट सीजर के वीडियो को भी देखा। नोबल पुरस्कार प्राप्त कोलंबिया के साहित्यकार गेब्रियल गार्सिया माक्र्वेज़ पर एक वीडियो दिखाते हुए विनीत ने बताया कि फिदेल और मार्क्वेज़ बहुत अच्छे दोस्त भी थे। मार्क्वेज़ अपनी लिखी किताबों की पहली पांडुलिपि सबसे पहले फिदेल को ही पढ़वाते थे।

संदर्भ केन्द्र की पहल पर हुए इस कार्यक्रम में भारतीय महिला फेडरेशन, प्रगतिशील लेखक संघ, इप्टा, रूपांकन, बैंक ट्रेड यूनियनों व अन्य संगठनों के साथियों ने शिरकत की। धेनु मार्केट स्थित म. प्र. बैंक आॅफिसर्स एसोसिएशन के दफ्तर ओ.सी.सी. होम में आयोजित कॅामरेड वसंत शिंत्रे, शैला शिंत्रे, अरविंद पोरवाल, विजय दलाल, दशरथ पवार, चुन्नीलाल वाधवानी, ब्रजेश कानूनगो, सीमा राजोरिया (अशोकनगर), सारिका श्रीवास्तव, नेहा दुबे, प्रकाश जैन, अनुराधा तिवारी, राज लोगरे, तौफीक गौरी, पूजा सेरोके, साक्षी सोलंकी इत्यादि साथी शरीक हुए। आमिर खान व नितिन बेदरकर ने फ़िदेल कास्त्रो के जीवन और क्यूबा के संगीत से परिचित करवाने वाले वीडियो प्रोजेक्टर के माध्यम से दिखाए।

Monday, August 22, 2016

एक थे परसाई

-हनुमंत शर्मा 
एक थे परसाई | उनसे यूँ तो 'फेस टू फेस' कभी मिलना नही हुआ | बस किताबों और अखबारों के मार्फ़त ही उनसे मुलाकात थी | उन्हें हाईस्कूल के दिनों में पहली बार पढ़ा तो लगा बायोलोजी की प्रयोगशाला में मेढक की जगह किसी ने समाज को रख दिया है | चीर फाड़ कर आँत अंतडिया सब बाहर बिखेर दी और बता दिया कि ये है अंदर की सच्चाई | कोई अलीबाबा था जो कहता था खुल जा सिम सिम और छुपे खजानों के दानवी दरवाजे खुल जाते थे सो हम भी जिन्दगी के पेच फसने पर परसाई की तरफ देखते और पेच मानो उल्टा घूमना शुरू हो जाता |

हमारे घर, पड़ोस ,दुकान और दफ्तर सब की शक्ल यहाँ देखी पहचानी जा सकती थी | ‘वैष्णव की फिसलन’ वाला बनिया हमारे मोहल्ले का ही पंजवानी सेठ था| ‘तट की खोज’ वाली शीला बुआ में अपने मित्र की बड़ी बहन दिखती थी | ‘ दो नाक वाले लोग’ को पढ़ता तो अपने माँ पिता की याद आने लगती और ‘ठंडा शरीफ आदमी’ तो मानो मेरा अपना ही बयां था | छोटे छोटे वाक्य छोटे छोटे वाकये और तिलमिलाती छीटांकशी वाला परसाई का अंदाज़ सब मिलकर एक बड़ा प्रभाव पैदा करते | और सच ये है कि परसाई को लिखा ढूँढ ढूँढ कर पढ़ने की एक चरसी लत सी लग चुकी थी | लेकिन दूसरे नशे जहाँ हमें बेहोशी की और के जाते हैं, यह नशा नींद और बेहोशी का दुश्मन था | उन्हें पढ़ने के बाद एक बैचनी भीतर से जकड़ लेती , नींद सी उड़ जाती | उन्हें पढ़ने के बाद वैसा रह पाना मुश्किल था जो हम पढ़ने के पहले थे | उनकी भाषा ,उनका फार्म उनके विचारों का तीव्र संक्रमण करते थे | यदि पाठक में संवेदना की ज़रा भी सम्भावना शेष है तो उसकी ‘स्थित प्रज्ञता’ टूटनी तय है' |

परसाई ने मास्टरी से क्लर्की ,क्लर्की से पत्रकारिता ,पत्रकारिता से स्वतंत्र लेखन तक कई बार पेशा बदला किन्तु उनका अंदाज़ पहले वाला ही रहा यानी कि मास्टराना | छड़ी मार हिटलरी मास्टर नहीं बल्कि कलम से चीर फाड़ कर जगत जीवन के सत्य उद्घाटित करता मेढक फाडू मास्टर | कबीर जिसे लुकाठा कहते हैं वो परसाई के यहाँ कलम है | वो अपना अंदाज़े बयां भी कबीर की परम्परा से ग्रहण करते हैं | जो उन तक भारतेंदु ,बालमुकुंद गुप्त, शिवपूजन सहाय, पाण्डेय बैचेन शर्मा उग्र और निराला से होते हुए पहुँची थी | कबीर की यह चेतना परसाई के लेखन में सहस्त्र मुख वाला विराट दर्शन देती है | किन्तु इस विराट पने के दवाब में वे दूसरे व्यंगकारों की तरह सिनिकल या दार्शनिक रूप से अस्थिर नहीं हो जाते | विचारों और सिद्धांतों की चूल से उनका लेखन कभी नहीं खिसकता |वे हर खतरे का डटकर मुकाबला करते है | कबीर की तरह कलम को लुकाठे की तरह इस्तेमाल करते हुए | “इंदिरा गांधी से एक भेंट” में वे स्वयम लिखते हैं “ मै वही कबीरदास हूँ लेकिन बीसवी सदी का |”

चेखव ने कहा था कि सुखी आदमी दुःख का साहित्य लिखता है और दुखी आदमी हास्य व्यंग्य लिखता है | परसाई ने व्यंग्य लिखा तो क्या वे दुखी आदमी थे? बेशक हाँ | किन्तु उनका दुःख चलताऊ दुःख नहीं था | वह उपरी कमाई के लिए विह्वल सरकारी बाबू या धनिये में लीद मिला रहे बनिए का दुःख भी नहीं था | वह माया से घबराये मोक्ष पिपासु भक्त का दुःख भी नहीं था | कबीर की तरह उनका दुःख भी पंचमकार में डूबे सुखिया संसार को नींद में गाफिल देखकर उपजा था | जिसके लिए अपने लेखन में वे जागते रहे और रोते रहे | उनका दुःख उन्हें निराशा ,अवसाद, या आत्मघात की और नहीं ले जाता बल्कि उल्टे उत्कट जिजीविषा से भर देता है | दुःख ही उन्हें दुःख के कारणों की तह तक ले जाता है | और व्यंग्य की निगेटिव चेतना पाजिटिव बन जाती है | ज्ञानरंजन के साथ एक बातचीत में वे इसका खुलासा करते हुए कहते हैं कि वह ऐसा इसलिए करता है क्योंकि वह दुखी है कि इतना बुरा क्यों हुआ | वह एक बेहतर मनुष्य, एक बेहतर समाज व्यवस्था के प्रति आस्था रखता है इसलिए जो बुराई उसे दिखती है उसे इंगित करता है |

यही वो सूत्र है जो परसाई के व्यंग्य को एक प्रतिक्रिया मात्र होने से बचाता है | वह एक नुक्ताए नज़र के रूप में आता है | उसका ढांचा साहित्यक है किन्तु वह खड़ा जिस क्षेत्र में है वो समाजशास्त्रीय है | उनके औज़ार वैज्ञानिक भौतिकवादी हैं | साहित्य , समाजशास्त्र और वैज्ञानिक भौतिकवाद यही है वो थ्री इन वन फार्मूला जिसकी सहायता से अपना रचना संसार रचते हैं | यहाँ गलदश्रु भावुकता या हास्य विलगित फूहड़ता के लिए कोई जगह नहीं है | क्रोध, करुणा ,आंसू, हास्य सभी यहाँ उदात्त रूप में हैं | वे पराजित मनुष्य की बेबसी पर नहीं हसँते अपितु करुणा के साथ उसके पक्ष में खड़े दिखते हैं | हास्य उनका धेय्य भी नहीं था | शुरुआत में जब उनका परिचय ‘फनी राइटर’ के रूप में दिया गया तो उन्होंने उसका इतना तगड़ा प्रतिवाद करते हुए कहा कि यदि मेरे लेखन को पढकर हँसी आती है तो मेरे लिए शर्मनाक है | इस प्रतिक्रिया में जब उन्हें हास्य विरोधी घोषित किया गया तो ‘ वन मानुस नहीं हँसता’ जैसे लेख लिखकर उन्हें सफाई देनी पड़ी | जिसमे वे ‘जोनाथन स्विप्ट’ के इस फलसफे से सहमत नज़र आते हैं कि जितनी देर तक आदमी हँसता है उतनी देर तक उसके मन में मैल नहीं रहता , उसका कोई शत्रु नहीं होता |इस तरह हसँना मन की निर्मलता है | पर परसाई निर्मल हँसी से हटकर इर्ष्या और द्वेष की हँसी को भी लक्ष्य करते हैं | वे इसे लकडवग्घे की हँसी कहते हैं | और ऐसी हँसी को गोली मार देने का फरमान ही उनका लेखन है| उनका समूचा लेखन समाज के अतरे खोतरे में छुपे लकड वग्घे की शिनाख्त और उसे बेनकाब करने का उपक्रम है |परसाई ने अपने आप को डी क्लास किया और अपनी वर्ग चेतना को समाज के संघर्षों से जोड़कर धारदार बनाया | वे शहर के श्रमिक आंदोलन से जुड़े| मुक्तिबोध से जुड़कर मार्क्सवाद का पाठ पढ़ा और कलम को लड़ाई का हथियार बनाया अपने लिए नहीं उत्पीडत की और से लड़ने के लिए | परसाई ने कालजयी साहित्य लिखने के स्थान पर कालम ,स्तम्भ , पूछिये परसाई से , कबीरा खड़ा बाज़ार में लिखने की राह पकड़ी | 

उनकी पक्षधरता घोषित है | वे ‘रामदास’ के साथ खड़े दिखते हैं तो इसलिए कि रामदास ने नाकामयाबी में भी सपने देखने नहीं छोड़े हैं | सपने हैं तो बदलाव की उम्मीद भी है | किन्तु ‘एक तृप्त आदमी की कहानी’ के मास्टर नंदलाल शर्मा के मध्यवर्गीय लिजलिजेपन के खिलाफ वे जलता लुकाठा लेकर पिल पड़ते हैं | वे निष्क्रिय ईमानदारों , ठंडे शरीफ आदमियों को न केवल चीन्ह लेते हैं उनकी नैतिकता , सिद्धांतवादिता ,महानता की चादर को तार तार कर देते हैं | ऐसे दुचितेपन , अवसरवादिता , काइयापन के ऊपर उनका गुस्सा आसमानी कहर की तरह टूट पड़ता है |

स्कूल मास्टर नंदलाल शर्मा धार्मिक , नैतिक , आत्म संतोषी हैं | वे पूरे देवता हैं |राजनीति से विरक्त | हड़ताल में भाग नहीं लेते | मेहनत से पढाते हैं |कभी कोई शिकायत नहीं करते |उन्हें कोई जगत गति नहीं व्याप्ति | किन्तु देवता होकर भी क्या वे मनुष्य हैं ? परसाई लिखते हैं “ एन. एल. मास्टर झरना है रेगिस्तान का | उसे देख लेने से ऐसा लगता है कि तीर्थ स्नान कर लिया हो | वह पूर्ण तृप्त आदमी है |उसे कोई भूख नहीं है |”
ऐसे पूर्ण तृप्त आदमी परसाई की नज़र में बीमार हैं |आवेशहीन, सम्वेदना से रहित , क्रिया प्रतिक्रिया से विमुख मात्र ‘बायोलोजिकल बीइंग’परसाई की नज़र में एक रीढ़ विहीन केचुआ है , जो पांव के नीचे आ जाता है तो वे पूछते हैं ‘वो क्या था ?’ छटपटाहट से मुक्त यथास्थ्तिवादी निष्क्रिय बुद्धिजीवी यही है |

दरअसल परसाई की वर्ग चेतना संपन्न दृष्टि ही उन्हें रोजमर्रा की मामूली बातों का बड़ा रचनाकार बनाती है |इसी के बूते वे प्रेमचन्द की परम्परा का बेटन लेकर आगे दौड़ जाते हैं | ‘महाजनी सभ्यता’ और ‘मंगलसूत्र’ से जकड़ा देहाती हिंदुस्तान परसाई तक आते आते आज़ाद तो होता है किन्तु आपातकालीन भी हो जाता है | मूल्यों की टकराहट में जहाँ नए मूल्यों का निर्माण होता है | संस्कारों , शास्त्रों और व्यवहार में गडबड झाला हो जाता है |राजनीति, धर्म ,दर्शन , शिक्षा ,कानून गोया जीवन के हर अनुशासन में टूट- फूट , बनाव- बिखराव दिखता है |इसी संधि पर खड़ा हिंदुस्तान परसाई की रचना भूमि है | वे सडांध मारती जगहों से नाक पर रुमाल रखकर गुजर जाने की जगह गंदगी को साफ़ करने में यकीन करते हैं | विद्रूपताओं पर प्रहार करते समय ज़ाहिर है उनका लहजा सख्त हो जाता है और सोंद्रयबोध भी ऐसा जो आभिजात्य को भदेस दिखाई दे | यद्यपि वो भदेस नहीं है किन्तु अंतिम छोर पर खड़े आदमी के वस्तुवादी नज़रिए से स्थितियों को देखने का सहज परिणाम है | यही कारण है कि पाखाने के मारे आदमी को सूर्य भी परमात्मा का लोटा नज़र आता है जिसे लेकर परमात्मा क्षितिज के नाले में उतर जाता है |

वस्तुत: सोंदर्य या शिल्प परसाई की चिंता के केन्द्र में नहीं है, अपितु सामाजिक ज़िम्मेदारी का निर्वहन है | वे अमर होने के लिए नही लिखते ,इसलिए लिखते हैं कि मरे हुए नहीं जीना चाहते | सट्टा फिगर लगाकर शाश्वत लिखने वालों के स्थान पर उन्होंने रोज मरने वाले रोजमर्रा के विषयों को चुना क्योंकि साहित्य उनके लिए सबके साथ मुक्ति का मध्यम है | उन्होंने लिखा “जो अपने युग के प्रति ईमानदार नहीं है ,वह अनन्त ककल के प्रति क्या ईमानदार होगा |”

सो वर्तमान को ठोकना बजाना ही परसाई के भविष्य गढ़ने का तरीका है | इस ठोकने बजाने में वे तटस्थ या निस्पृह भी नहीं रहते , ना ही अपने पाठक को रहने देते हैं | वे पत्रकार की तरह सच्चाई के संवाददाता ही नहीं बने रहते अपितु लुटे पिटे आदमी के पेरावीकर्ता भी बनते हैं | और ज़रुरी हो तो अपना फैसला भी सुना देते हैं | हम चाहें तो इसे लेखक का सर्वसत्तावाद कह सकते हैं किन्तु इसकी परवाह परसाई जैसों को नही होती| वे स्वयं को कहते थे कि लेखक छोटा हूँ पर संकट बड़ा हूँ | व्यवस्था के लिए ये बड़ा संकट उन्होंने लेखन में अपनी इसी भूमिका के चलते निर्मित किया था |

राधावल्लभ त्रिपाठी ने अपने एक लेख में परसाई की तुलना राजकुमारों को शिक्षा देने वाले “विष्णु शर्मा” से की है | राजकुमार “ विष्णु शर्मा” की शिक्षा से राज-काज में कितने शिक्षित हुए इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता किन्तु यदि हम परसाई को पढ़ने के बाद हममें राजकाज और समाज को बदल देने की हूक नहीं उठती तो हमारे मनुष्य ना होने के लिए कोई प्रमाण आवश्यक नही है |

Monday, August 8, 2016

नागर की नगरिया किस्सों की अटरिया

. सारिका श्रीवास्तव
जुलाई 2016, इंदौर, मध्य प्रदेश।  उनका संबंध सिर्फ़ संगठन तक का संबंध नहीं था। उस दौर में संबंध वैसे होते ही नहीं थे। जो लोग एक मकसद लेकर चलते थे, वे चाहे सिनेमा में हों या कविता, कहानी, नाटक, चित्रकला या फोटोग्राफी या नृत्य या राजनीति में, उनके संबंध एक अलग धरातल पर चलते थे। बलराज साहनी, जिनकी जन्म शताब्दी अभी दो वर्ष पहले ही गुजरी है और अमृतलाल नागर, जिनका जन्म शताब्दी वर्ष अभी आरंभ हुआ है, पर आधारित भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा), इंदौर का कार्यक्रम बीते दौर को सिर्फ़ एक श्रृद्धांजलि देना भर नहीं था, बल्कि वहाँ से सीख हासिल कर अपने वक़्त में रचनात्मक हस्तक्षेप की ज़रूरत को नये संदर्भों में पूरा करना भी था। क़रीब पाँच घंटे तक चले इस कार्यक्रम का संयोजन इप्टा के कला मानकों के मुताबिक ही किया गया था। इसमें फ़िल्म थी, नाटक था, संस्मरण था और इन विभिन्न कला रूपों को एक सूत्र में पिरोता प्रगतिशील विचार था।

इप्टा का चौदहवाँ राष्ट्रीय सम्मेलन इंदौर में 2, 3 और 4 अक्टूबर को होना है। शहर में इप्टा का माहौल बनाने के लिए सालाना शिविर के अलावा इंदौर इप्टा अनेक छोटे-छोटे कार्यक्रमों को आयोजन पिछले 3-4 माह से कर रही है। अमृतलाल नागर और बलराज साहनी पर केन्द्रित 22 जुलाई 2016 का कार्यक्रम एक तरह से तीन दिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन और राष्ट्रीय सांस्कृतिक महोत्सव का पूर्वरंग था। क़रीब छः सौ दर्शकों ने चार घंटे का कार्यक्रम देखा और सराहा। इसके अलावा नागर जी की पुत्रवधू शरद नागर जी की पत्नी विभा नागर और विभाजी और शरदजी की बेटी ऋचा नागर की उपस्थिति को भी दर्शकों ने आत्मीयता से स्थान दिया।


बलराज साहनीः एक दृश्य-श्रव्य प्रस्तुति
स्वागत की पारम्परिक लंबी औपचारिकता को दरकिनार करते हुए इप्टा के युवा साथियों द्वारा अतिथियों को फूल भेंट कर कार्यक्रम की शुरुआत इंदौर इप्टा की ओर से जया मेहता और विनीत तिवारी द्वारा बलराज साहनी के जीवन पर आधारित दृश्य-श्रृव्य जीवन चित्र की प्रस्तुति से हुई। करीब 50 मिनिट की इस प्रस्तुति में बलराज साहनी के जीवन और सजग राजनीतिक चेतना संपन्न कलाकार के तौर पर उनके विकास को उन्हीं की फ़िल्मों के टुकड़ों से जया मेहता ने इस तरह बुना कि वह अपने आप में एक ही फ़िल्म लगने लगी। इप्टा को आगे बढ़ाने में बलराज साहनी और उनकी पत्नी दमयंती की भूमिका, सन् 1943 में अंग्रेजों और सेठ-साहूकारों द्वारा निर्मित किए बंगाल के अकाल, किसानों की बदहाली और बदहाली से निपटने के सामूहिक उपाय जहाँ इप्टा की ख्वाज़ा अहमद अब्बास निर्देशित बलराज साहनी की पहली फिल्म ‘‘धरती के लाल’’ के ज़रिये दर्शाये गए, वहीं बिमल रॉय निर्देशित फ़िल्म ‘दो बीघा जमीन’ में उन्हीं किसानों की दुर्दशा का चित्रण तो बहुत मार्मिक और प्रभावी तरह से हुआ लेकिन अंततः बिमल रॉय का किसान हारकर निराशा के गर्त में अनिश्चित भविष्य की ओर चला जाता है जबकि इप्टा की फ़िल्म में वही किसान हालात से पूरे गाँव के लोगों की एकता कायम कर लड़ता है और जीतता है। वो भी अकेले नहीं, सबके साथ। ‘गरम हवा’ यूँ तो 1973 में मशहूर फ़िल्म निर्देशक और इप्टा के मौजूदा राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एम. एस. सथ्यू की सांप्रदायिकता के ज़हर पर बनी फ़िल्म है और उसमें भी आगरा इप्टा की पूरी टीम ने ही मदद की थी लेकिन उस फ़िल्म में बलराज साहनी ने जो किरदार निभाया है वो उनकी निजी ज़िंदगी के हादसात की कहानी कहता है। 

इस प्रस्तुति में बलराज साहनी की आम लोगों के मन में ‘वक़्त’ फ़िल्म के किरदार की और लोकप्रिय गीत ‘ऐ मेरी जौहरज़बीं’ की याद तो की ही गई लेकिन साथ ही परदे के पीछे की उनकी क्रांतिकारी और वामपंथी छबि भी पुरज़ोर तरह से प्रस्तुत की गई। कम ही लोगों को यह पता होगा कि किस तरह 1946 में नाविक विद्रोह के समय बलराज साहनी ने अंग्रेजों के ख़िलाफ़ आंदोलनकारियों की मदद की भूमिका निभाई और कैसे वे अंत तक अपनी वामपंथी विचारधारा का निर्वाह पंजाब के किसानों के बीच जाकर उनके दुःख सुख में शामिल होकर भी करते रहे।

इस डॉक्युमेंट्रीनुमा प्रस्तुति की संकल्पना और निर्देशन किया जया मेहता ने और स्क्रिप्ट लिखने व कमेंट्री को अपनी आवाज़ देने की भूमिका निभाई विनीत तिवारी ने। तकनीकी सहयोग आमिर सिद्दीकी और नितिन बेदरकर का रहा। 

अमृतलाल नागरः दादाजी, शोधार्थी, लेखक और शिक्षक
इसके बाद नागरजी की पोती ऋचा नागर ने अमृतलाल नागर की जिंदगी के कुछ पहलूओं पर रोशनी डालते हुए बताया कि बंगाल के जिस अकाल ने बलराज साहनी पर गहरा असर डाला था उसने ही अमृतलाल नागर को उनका उपन्यास ‘भूख’ लिखने के लिये भी प्रेरित किया था। नागरजी और साहनीजी अच्छे दोस्त थे और नागरजी हम बच्चों से बलराज जी का ज़िक्र करते समय अक्सर कहते थे कि बलराज साहनी को वे अपने बड़े भाई की तरह मानते थे। नागरजी की पोती होने के साथ ही ऋचा स्वयं हिंदी और अंग्रेजी की अच्छी लेखिका हैं और उन्होंने अमेरिका के मिनेसोटा विश्वविद्यालय में प्रोफेसर होने के बाद भी भारत में महिलाओं के संगठनों और आंदोलनों से जीवंत रिश्ता बनाये रखा है। 

ऋचा ने रामविलास शर्माजी के एक लेख के जरिए अमृतलालजी को दर्शकों से रूबरू करवाया जिससे दर्शक और श्रोता उनके पहनावे, आदतों और एक अलहदा मौजी व्यक्तित्व से परिचित हुए। उन्होंने बताया कि गुजराती भाषी होने के साथ-साथ उन्हें हिन्दी, मराठी, तमिल, ब्रज, अवधी, बंगाली के साथ ही साथ संस्कृत और उर्दू भी बहुत अच्छी तरह से आती थी। इन बोलियों, भाषाओं के साहित्य के अलावा इतिहास और पुरातत्व में भी उनकी खासी दिलचस्पी थी। उन्होंने ”चकल्लस’’ नामक किताब जो साधारण बोलचाल की भाषा में थी, भी निकाली। नागरजी को फ़िल्म की डबिंग के काम में भारत में ‘‘पायनीयर’’ माना जाता है। अपने फ़िल्मी जीवन में उन्होंने दो रूसी फ़िल्में और एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी की तमिल फ़िल्म ‘मीरा’ की डबिंग की।

उस समय की परिस्थितियों के बारे में चर्चा करती ऋचा बताती हैं कि ऐसा नहीं है कि पूंजीवाद और उससे प्रेरित प्रतिस्पर्धा फ़िल्म इन्डस्ट्री में तब मौजूद नहीं थे, लेकिन उस वक़्त के सामाजिक संघर्ष ने सामूहिक कल्पना और सृजन के एक ज़बर्दस्त दौर को जन्म दे दिया था। इस दौर में जहाँ एक ओर अलग-अलग जगहों की ज़बानों, साहित्य, काव्य, तथा संगीत का समन्वय हो रहा था वहीं कलाकार भी आपस में एक परिवार की तरह जुड़ रहे थे। नागरजी के इस परिवार के सदस्यों में बलराज साहनी के अलावा किशोर साहू, वीरेन्द्र देसाई, सरदार अख़्तर, नलिनी जयवन्त, लीला चिटनिस, राजा बढ़े, सुमित्रा नन्दन पन्त, नरेन्द्र शर्मा, एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी, उदय शंकर, अमला शंकर और उदय तथा अमला शंकर के पुत्र आनन्द शंकर शामिल थे।

ऋचा ने नागर जी के कुछ पत्रों के वाचन किया। शरद नागर की सद्यप्रकाशित संस्मरणात्मक पुस्तक ‘‘मैं और मेरा मन’’ जिसका संपादन ऋचा नागर ने ही किया है, में से उन्होंने वे अंश भी सुनाये जिनमें पत्रों के ज़रिये नागरजी ने अपने बच्चों को सिर्फ़ संस्कार ही नहीं दिये बल्कि समाज और उसकी राजनीति के सारे पहलुओं को खोलकर रखते हुए उन्हें रास्ता भी दिखाया। 

ऋचा ने अमृतलाल नागर के व्याख्यानों पर आधारित लेख ‘‘नाटक लिखने के कुछ गुर’’ के कुछ अंश लोगों तक पहुँचाते हुए अपनी बात शुरु की ‘‘नाटक की बात करने से पहले चलो हम चारपाई की बात कर लें। चारपाई बनी होती है चार पाटियों और चार पायों की और पाटियों को पायों से जोड़ने के लिये छेद यानी चूलें भी होना चाहिये नहीं तो खटिया नहीं बनेगी। फिर उसको बुनने के लिये बाँध का ताना-बाना बनाना पड़ेगा। यही चारपाई समझ लो तुम्हारा नाटक है, तुम्हारी पाटियाँ हैं तुम्हारे पात्र। अब वो पाटियाँ पाये में बँधेंगी क्योंकि जब तक उनको धरातल नहीं मिलेगा पाटियाँ बेकार हैं। तो पाया है कथावस्तु, यानि नाटक का तत्व। जब तक चूल से चूल बराबर नहीं बैठेगी तो बात कैसे बनेगी? ऐसे ही पात्र भी पात्र के साथ जुड़ने चाहिये। सबसे पहले पात्रों का स्वरूप होने का आधार चाहिये यानि ‘थीम’ या कथावस्तु चाहिये ताकि पात्र एक दूसरे से वैसे ही जुड़ जायें जैसे चूल से चूल जुड़ती है--क्योंकि अगर चूलें आपस में सही ढंग से न जुड़ सकीं तब तो खटिया एक तरफ से ऊँची दूसरी तरफ से नीची रह जायेगी। इसलिए खटिया एक सी होनी चाहिये। ताकि जहाँ उसे बिछाओ वह सलोतर बैठे। ऊँची-नीची न हो। इसी तरह पात्रों को भी समतल दो ताकि नाटक जमे।’’

परकाया प्रवेश नाटक का मूल है इस पर अमृतलाल नागर कहते हैं कि नाटककार के रूप में अभिनय तुमको नहीं करना है लेकिन दिमाग़ में जब तक तुम खुद अभिनय नहीं करोगे तब तक अभिनेता कैसे करेगा? इसलिए नाटककार पहले अभिनय भी करता है। ‘कैरेक्टर’ की खू़बियाँ-ख़ामियाँ अपने मन में इकट्ठा करेगा तभी ‘कैरेक्टर’ ज़िन्दा होगा। अगर तुम पात्र में डूबे नहीं तो तुमको क्या मिला? यदि तुम पात्र के अनुरूप नहीं बोले तो पात्र स्वाभाविक नहीं लगेगा। जब तुम उसके अनुरूप बोलोगे तो पाओगे कि ‘डायलॉग्स’ तुम्हारे दिमाग़ के नहीं रह जायेंगे बल्कि खुद-ब-खुद पात्र के दिमाग़ के हो जायेंगे। किन्तु पराये मन में प्रवेश तुम तभी कर सकोगे जब तुम अपना ‘आब्ज़रवेशन’ बढ़ाओगे। ‘क्रियेटिव माइण्ड’ का नाम ही है ‘क्रियेटिव ईगो’। ‘क्रियेटिव ईगो’ जितनी मज़बूत होगी उतना ही अच्छा तुम्हारा लेखन होगा।

अमृतलाल नागर भारतीय जन नाट्य संघ(इप्टा) के अध्यक्ष मंडल के सदस्य ही नहीं रहे बल्कि इप्टा के लिए अनेक नाटक लिखे और निर्देशन भी किया। रज़िया सज्जाद ज़हीर ने 1953 में प्रेमचंद की कहानी ‘‘ईदगाह’’ का नाट्य रूपांतर किया था और नागर साहब ने निर्देशन। इसी नाटक के प्रदर्शन पर इप्टा के स्थानीय लोगों को तीन साल तक मुकदमा झेलना पड़ा। बाद में उच्च न्यायालय ने न केवल आयोजकों को बरी किया बल्कि अभिव्यक्ति की आजादी पर पाबंदी लगाने वाले अंग्रेजों के बनाए काले कानून को ही खारिज कर दिया।


नागर की नगरिया, किस्सों की अटरिया
इस दिन की तीसरी प्रस्तुति थी हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार पद्म भूषण श्री अमृतलाल नागर की तीन कहानियों ‘शकीला की माँ’, ‘क़ादर मियाँ की भौजी’ और ‘मोती की सात चलनिया’ को एक में पिरोकर बनाए नाटक ‘‘नागर की नगरिया, किस्सों की अटरिया’’ पर मुम्बई परख समूह के कलाकारों की नाट्य प्रस्तुति। यह नाटक नागरजी के प्रति, खासतौर पर उनके शताब्दी वर्ष में उनके रचनात्मक जीवन के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन है। करीब एक घंटे की अवधि के इस नाटक को निर्देशित किया नाट्य लेखक और नाट्य निर्देशक तरूण कुमार ने।

नाटक में 60-70 बरस पुराना लखनऊ है जिसका माहौल रचने में निर्देशक तरुण कुमार कामयाब रहे। लखनऊ की बोलचाल का खास लहजा, जिसमें उर्दू के साथ अवधी का मीठा मिश्रण और फिर उस लहजे में लच्छेदार बातें करने वाले किरदार। नाटक के पात्रों की सधी हुई लखनवी बोली के साथ ही साथ सधे हुए अभिनय ने लोगों को अपनी जगह से हिलने का मौका भी ना दिया। हर पात्र की अपनी कहानी, उसका दर्द और तकलीफ को कलाकारों ने बखूबी निभाया। उस दौर के बाजार का दृश्य जिसमें खोमचे वाले, फेरी वाले सामान बेच रहे हैं या भौजी के घर में पान खाते कादिर मियाँ या तांगेवाले की किस्सागोई सब कुछ रोचक और जीवंत था।

तीनों ही कहानियों की बुनावट अलग-अलग महिला पात्रों के इर्द-गिर्द घूमती है। ‘शकीला की माँ’ जमीलन हो, ‘कादर मियाँ की भौजी’ में भौजी हो या ‘मोती की सात चलनिया’ की डॉ. निगार जैसी पढ़ी-लिखी महिला समाज के तानों-बानों में उलझी हैं। उनकी घुटन और छटपटाहट की पीड़ा को अपने अभिनय से बखूबी पेश किया उन किरदारों को निभाने वाले कलाकारों क्रमशः लीना बलोदी, मीनू शर्मा और सोहनी नियोगी ने। इसके अलावा शहजादी के किरदार में अनामिका, मोहम्मदी के किरदार में रैना, कादिर मियाँ के मनोज सिंह और इशरत के किरदार में शुभम चाँदना ने अपने किरदार को जीवन्त कर दिया और अन्य किरदारों का अभिनय भी सहज रहा। सोहनी के गायन ने नाटक की छोटी-मोटी खामियों को भी भुला दिया।

तरूण कुमार ने तीनों कहानियों को रंगमंचीय तत्वों के साथ इस तरह से गूंथा कि लखनऊ की जीवंतता, किरदारों की तमाम रंगतें, उनके बदलते रिश्ते और उनमें छिपी मानवीय करूणा संगीत के सही जगह पर इस्तेमाल से सामने आई। खास दृश्यों की सघनता को बढ़ाने के लिए प्रकाश समंजन ने दृश्यों को बेहतरीन बनाया।

आनंद मोहन माथुर सभागृह में आयोजित इंदौर इप्टा के इस कार्यक्रम में शहर के गणमान्य नागरिकों के साथ-साथ रंगमंच एवं कला की तमाम विधाओं से जुड़े कलाकारों ने शिरकत की और सभी को कार्यक्रम बेहद पसंद आया। 

इंदौर इप्टा के संरक्षक वरिष्ठ अधिवक्ता आनंद मोहन माथुर स्वयं भी इस कार्यक्रम में उपस्थित रहे। पेरिन दाजी, वसंत शिंत्रे, सरोज कुमार, तपन मुखर्जी, सुशील जौहरी, अनन्त श्रोत्रिय, उत्पल बैनर्जी, जितेन्द्र वेगड़ और इंदौर के अलग-अलग नाट्य समूहों के रंगकर्मी भी मौजूद रहे। कार्यक्रम को कामयाब बनाने में प्रमोद बागड़ी, अशोक दुबे, अरविंद पोरवाल, पूजा सेरोके, राज, साक्षी, एस. के दुबे, आनंद मोहन माथुर, अब्दुल भाई, चुन्नीलाल वाधवानी, संजय वर्मा, अभय नेमा, आबिद आदि का विशेष योगदान रहा।

Saturday, August 6, 2016

प्रेमचंद जयंती पर प्रलेस इंदौर ने किया नाटक और परिचर्चा का आयोजन

- अभय नेेमा

इंदौर। प्रेमचंद की कहानियों का रचनाकाल कोई 70 साल पहले का है और उनकी कहानियां आज भी समीचीन हैं। प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में सांप्रदायिक सद्भाव और दलित उत्पीड़न के जिस मसले को उठाया था वह आज भी समाज में मौजूद हैं। प्रेमचंद ने अपने समय में दलितों की सामाजिक और आर्थिक बदहाली का जिक्र किया था वह आजादी के बाद भी न केवल बनी हुई है अब उसे और पुख्ता करने का प्रयास किया जा रहा है। यह बात प्रगतिशील लेखक संघ के सदस्य और स्वतंत्र पत्रकार जावेद आलम ने महान उपन्यासकार और कहानीकार तथा प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक प्रेमचंद की जयंती पर 31 जुलाई को आयोजित कार्यक्रम में कही। प्रगतिशील लेखक संघ की इंदौर इकाई ने वर्चुअल वोयेज कालेज के सहयोग से प्रेमचंद की कहानियों के नाट्य रूपांतरण और प्रेमचंद के कृतित्व पर परिचर्चा आयोजित की थी।

वर्चुअल वोयेज कालेज में आयोजित इस कार्यक्रम में जावेद आलम ने कहा कि पंचपरमेश्वर में सांप्रदायिक सदभाव की मिसाल मिलती है तो कफन और ठाकुर का कुआं जैसी कहानियों में तत्कालीन समय में दलित समुदाय की दुर्दशा का वर्णन मिलता है। उन्होंने विद्यार्थियों से कहा कि समाज की विसंगतियों के देखने के लिए उन्हें गांव जाना चाहिए और हमारे देश की बुनियादी समस्याओं को समझने के लिए उन्हें प्रेमचंद के साहित्य का पठन जरूर करना चाहिए जो कि इंटरनेट पर उपलब्ध है।

कहानीकार रवींद्र व्यास ने कहा कि प्रेमचंद की कहानियां व्यक्ति विशेष का दर्शन नहीं है, बल्कि उस वक्त की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था पर तीखी टिप्पणी है। प्रेमचंद अपने कथा संसार में बड़े रचनात्मक ढंग से प्रगतिशील विचार का प्रतिफलन करते हैं। कफन में वे जमींदारी और सामंतवादी व्यवस्था में एक दलित व्यक्ति का अमानवीयकरण देखते हैं। इसी तरह से पंच परमेश्वर में वे न्याय प्रक्रिया को जाति और धर्म के बरक्स देखते हैं। पंच की कुर्सी पर बैठने वाला किस तरह से किसी जाति और धर्म का न होकर सिर्फ न्यायाधीश रह जाता है आज के संदर्भ में प्रेमचंद द्वारा यह सत्ता द्वारा न्यायिक व्यवस्था का इस्तेमाल करने पर तीखी टिप्पणी है। इसी तरह से ईदगाह नामक कहानी में एक बच्चे का बाजार के प्रति प्रतिरोध दिखाई देता है। उसे बाजार के सारे प्रलोभन खिलौने, मिठाइयां, कपड़ों, झूलों के बजाए अपनी दादी के हाथ जलने का ख्याल आता है और वह उनके लिए चिमटा खरीदता है। प्रगतिशील मूल्य प्रेमचंद की रचनाओं में नारे की तरह नहीं बल्कि नेरेशन में आते हैं। उनकी कहानियों उपन्यासों में नियंत्रित, संयमित करुणा व्यक्त हुई है।



इस अवसर पर वर्चुएल वोयेज के पर्फार्मिंग आर्ट विभाग के विद्यार्थियों ने प्रेमचंद की कहानी कफन और पंच परमेश्वर पर नाटक प्रस्तुत किया।विद्यार्थियों ने कफन और पंच परमेश्वर कहानी के मर्म को आत्मसात करते हुए अपने शानदार अभिनय, संवाद से लोगों का दिल जीत लिया। नाटकों का निर्देशन परफार्मिंग आर्ट विभाग के प्रमुख गुलरेज खान ने किया। नाटक का पार्श्व संगीत व कास्ट्यूम दर्शकों का ध्यान खींचने में सफल रहा।

कार्यक्रम में प्रगतिशील लेखक संघ इंदौर के सचिव अभय नेमा, रामआसरे पांडे, उपाध्यक्ष चुन्नीलाल वाधवानी, हुकमतराय, सुरेश उपाध्याय, तौफीक, पीयूष भट्ट, भारत सक्सेना उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन इप्टा की इंदौर से जुड़ी सारिका श्रीवास्तव ने किया। आभार मानते हुए रामआसरे पांडे ने वर्चुअल वोयेज कालेज के प्रबंधन और विद्यार्थियों को सहयोग के लिए धन्यवाद दिया।

संपर्क : 9977446791