Monday, July 18, 2016

मुक्तिबोध : बकलम कनक तिवारी -1

-कनक तिवारी 
मुक्तिबोध को सबसे पहले 1958 में साइंस काॅलेज रायपुर के प्रथम वर्ष के छात्र के रूप में मैंने देखा सुना था। मुक्तिबोध 1958 में ही राजनांदगांव के दिग्विजय महाविद्यालय में मुदर्रिसी करने आ गए थे। अजीज़ दोस्त विलास खरे का मित्र होने के नाते उनके ज्येष्ठ पुत्र रमेश से मेरी अंतरंगता हो गई। बाद में रमेश का विवाह विलास की बहन से होने के कारण वे मेरे बहनोई हो गए। अंगरेज़ी साहित्य में एम.ए. करने के दौरान मुझे कई बार इस कवि से मिलने का अवसर तलाशना पड़ा। वह लेकिन औपचारिक वार्तालाप के आगे नहीं बढ़ा। मैं 1963 में दिग्विजय महाविद्यालय राजनांदगांव में अंगरेज़ी विभाग में प्राध्यापक नियुक्त होकर उनका सहकर्मी बना। यादों का कबाड़ तक मूल्यवान होता है। ऐसा पारचून इतिहास का प्राथमिक ड्राफ्ट भी होता है। साहित्यिक दुनिया में तब तक मुक्तिबोध की प्रायोजित, प्रचारित या सुपात्रित वह ख्याति नहीं थी जिसका बवंडर उनकी मृत्यु के बाद अचानक उठा। सादे कपड़ों, गंभीर मुद्रा और धीमी गति से अपने घर की सीढ़ियां उतरकर शिक्षकों के स्टाफ रूम में पड़ी दो आराम कुर्सियों पर बख्शीजी और मुक्तिबोध के बैठने से उन्हें ही इन दोनों साहित्य-अध्यापकों का बोझ सबसे ज़्यादा उठाना पड़ा।

पता नहीं क्यों मुक्तिबोध ने एक दिन शोध परीक्षा के गाइड की तरह मुद्रा बनाकर मुझसे कहा कि मैं नरेश मेहता को पढ़ूं। नगरपालिका के पुस्तकालय से ‘वह पथ बंधु‘ था‘ लाकर मैंने पढ़ने की कोशिश की। उनसे पूछा कि क्या नरेश मेहता की सभी रचनाएं इसी तरह भारीभरकम होंगी। मुक्तिबोध से नरेश मेहता उम्र में पांच वर्ष छोटे थे। देश के कई बौद्धिक आज़ादी के पहले वामपंथी विचारधारा के चुंबकत्व के लिए लोहे के कण ही थे। उनमें से कुछ को चुंबकत्व बांधे नहीं रख सका। वे मध्यममार्गी, दक्षिणपंथी या आज़ाद ख्याल के भी हो गए। नरेश मेहता और निर्मल वर्मा कई नामों में दो बड़े नाम हैं जिन पर वामपंथ से छिटककर छद्म दक्षिणपंथी होने के आरोप तक लगाए गए। इन दोनों की भारतीय संस्कृति की अकाट्य समझ का लोहा वे चुंबक भी मानते हैं जो भारतीय ज्ञानशास्त्र के वांग्मय में पसरे पड़े हैं। अल्प अध्ययन के बावजूद मैंने मार्क्स को कभी खारिज नहीं किया। मुझे यह जानकर अचरज होता है कि बीसवीं सदी की दुनिया को ज्ञान की अलग अलग विधाओं के ज़रिए मूल्यगत तथा ढांचागत स्तर पर जिन चार महान बौद्धिकों ने बनाया है वे चारों यहूदी ही निकले। कार्ल मार्क्स फ्रेडरिक नीत्शे, सिग्मंड फ्रायड और अलबर्ट आइंस्टाइन के बिना बीसवीं सदी का इतिहास लिखा ही नहीं जा सकता। नरेश मेहता का मुक्तिबोध पर लिखा गया ‘मुक्तिबोधः एक अवधूत कविता‘ वाला निबंध संस्मरणात्मक होते हुए भी कई अनछुए आयाम अनावृत्त करता है।

जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी‘ को लेकर मुक्तिबोध की रचनात्मकता उत्तेजित होती रहती। ‘कामायनी‘ नाम से मैं परिचित भर था। प्रसाद में प्रसाद-गुण खोज लेने की मुक्तिबोध की कशिश का मैं चक्षुदर्शी गवाह बना। वे अपनी नज़र से ‘कामायनी‘, फिर महाकाव्य के चश्मे से मानवेंद्रियों के गुंफित अंतर्लाेक की यात्रा के पथप्रदर्शक बने। उन्हें एक अदद पथप्रदर्शित यात्री की ज़रूरत महसूस होती रही होगी, जिसे वे प्रसाद के साहित्यिक राजप्रासाद का अवलोकन करा सकें। व्यावसायिक पर्यटन के गाइड अक्सर ग्रामोफोन के रिकाॅर्ड की तरह पुनरावृत्त बयानों की जुगाली करते हैं। मुक्तिबोध वह गाइड थे जो प्रतिदिन किसी धारावाहिक कथा के अगले परिच्छेद या पड़ाव तक आगे चलकर कुछ नया अहसास भरते। मुझ श्रोता की आश्वस्त-उपस्थिति के बाद हर रात प्रसाद से मुठभेड़ या साक्षात्कार करके स्टाफ रूम आते। रोज एक नया सिरा पकड़कर ‘कामायनी‘ का अलग चेहरा दिखाते। एकालाप की शैली के वार्तालाप को बख्शीजी स्मित हास्य के उस अतिरिक्त श्रोता की तरह सुनते होते जिसने गाइड को फीस नहीं दी है। मुक्तिबोध के कामायनी-निर्वचन से सहसा संकेतित मैं विद्वता बघारने के लिए अंगरेज़ी के महाकवि जाॅन मिल्टन के ‘पैराडाइज़ लाॅस्ट‘ को परोसने लगता। उसे बरस भर पहले ही मैंने परीक्षोपयोगी नोट्स के सहारे पढ़ा था। मिल्टन के नाम से भी उन्मादित मुक्तिबोध ‘पैराडाइज़ लाॅस्ट‘ और उसकी टीकाओं को उपलब्ध कराने कहते। मैं रायपुर के विज्ञान महाविद्यालय का छात्र था। वहां ताज़ा खुले अंगरेज़ी विभाग का पुस्तकालय बहुत विपन्न था। संस्कृत महाविद्यालय में संयोगवश सरकारी अनुदान के कारण अंगरेज़ी साहित्य की पढ़ाई बरायनाम होने पर भी किताबों का अच्छा खासा क्रय किया गया था। मैं थैले भर भरकर किताबें मुक्तिबोध के लिए लाने लगा। उनमें से कई किताबें पहली बार पढ़ी जा रही थीं। मुक्तिबोध को इससे कोफ्त होती क्योंकि अंकित पुस्तक विवरण के अनुसार वे कुछेक वर्षों पहले खरीदी गई थीं। संस्कृत काॅलेज के पुस्तकालय नियमों के अनुसार अन्य महाविद्यालय के प्राध्यापक को पुस्तकें ले जाने की अनुमति नहीं थी। उसी महाविद्यालय के अंगरेज़ी विभाग के सहायक प्राध्यापक मित्र श्यामकिशोर श्रीवास्तव के नाम पर वे पुस्तकें बिना पंजीकृत आवंटन के थैले भर भर लाई जातीं। श्यामकिशोर पढ़ाकू थे। उन ले जाई गई पुस्तकों की सूची देखकर ही मुक्तिबोध के मानस की पड़ताल करते पुलकित होते रहते।

दिग्विजय महाविद्यालय के स्टाफ रूम में ‘कामायनी‘ पर एकाध सप्ताह बाद मेरा रिफ्रेशर कोर्स शुरू हुआ। अब मैं जाॅन मिल्टन और जयशंकर प्रसाद के महाकाव्यों के बीच मुक्तिबोध-सेतु पर चलने का इकलौता यायावर यात्री था। मुझ अज्ञानी को सूचना नहीं थी कि मुक्तिबोध की अंगरेज़ी साहित्य में भी गहरी पैठ है। उन्होंने ‘पैराडाइज़ लाॅस्ट‘ का उल्था किया। वैसा तो मेरे कक्षा-गुरुओं ने सोचा, बताया या बूझा नहीं था क्योंकि उन्होंने प्रसाद को कतई नहीं पढ़ा होगा। कविता भूगोल और इतिहास, भाषा और संस्कृति, धर्म और रूढ़ियों की परस्परता, विभिन्नता और उदासीनता के परे जाकर एक एक चरित्र के माध्यम से अंततः मनुष्य और संभावित मनुष्य को भी तो रचती है। यह तिलिस्म साहित्य की उन गैरपेशेवर कक्षाओं में महीनों तक सीखने को मिला। अंगरेज़ी के आलोचकों वाली किताबों के हाशियों पर मुक्तिबोध ने पेंसिल से बहुत कुछ लिखा। पुस्तकें वापस करने के पहले रबर से उन्हें मिटा दिए जाने के निर्देश भी उन्होंने दिए। सोचता हूं कि जीवन में एक गैरइरादतन अपराध मैंने क्यों नहीं किया। उनकी आज्ञा मानकर वे इबारतें मिटाने का गुनाह लगातार कचोटता रहता है। बख्शी जी भी कई किताबें मंगाकर पढ़ते। वे कभी कभी प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी, रामकुमार वर्मा वगैरह को लेकर मुक्तिबोध से ज़िरह करते। छब्बीस वर्ष के नवयुवक ने स्वनामधन्य पत्रिका ‘सरस्वती‘ का संपादन किया था। छायावाद अथवा स्वछंदतावाद के बड़े हस्ताक्षरों को संपादित, प्रकाशित या अस्वीकृत करने का उनका अपना अनुभव था। उनसे कई बार मतभेद होने पर मुक्तिबोध अपने जिरहनामे की मेरी क्लास लेते। लगता कि यह कवि ‘डूबते को तिनके का सहारा‘ वाले मुहावरे की उलटबांसी कर रहा है। शाब्दिक अर्थ है कि डूबता हुआ व्यक्ति तिनके को सहारा समझकर उसे पकड़ता है, लेकिन बेचारा डूब ही तो जाता है। मुक्तिबोध-प्रसंग में अर्थ यह है कि वे संवेदनाओं के गहरे अतल में डूबने के बाद मुझ जैसे श्रोता को तिनके का सहारा समझकर उसमें से बाहर आना चाहते। मैंने मुहावरे वाले तिनके की भूमिका का अनादर या नकार नहीं किया। वे मेरा सहारा पाकर ऊपर नहीं आ सकते थे। लिहाज़ा और डूबते जाते।

"दिग्विजय महाविद्यालय के परिसर में अपने जिस पहले मकान में वे रहे थे, ठीक उसके पीछे बूढ़ासागर की पथरीली पटरियों पर बैठकर उस वक्त के शीर्षक ‘आशंका के द्वीपः अंधेरे में‘ वाली कविता का एकल श्रोता बनना मेरे नसीब में आया। वह कविता उनके मुझ युवा श्रोता-शिष्य में घबराहट, कोलाहल, आक्रोश और जुगुप्सा भरती गई थी। मुक्तिबोध का वह अविस्मरणीय काव्यपाठ तब तक चलता रहा, जब तक सूरज पूरी तरह बूढ़ासागर में डूब नहीं गया। एक अमर कविता के अनावृत्त होने के रहस्य को देखना कालजयी क्षण जीना था। मैं कविता का अमर श्रोता बना दिया गया। मैं एक साथ हतप्रभ, आतंकित और भौंचक था। बूढ़ासागर का वह रहस्यमय रचना-परिप्रेक्ष्य पूर्वजन्म की घटना या उपचेतन के विस्फोट की तरह मुक्तिबोध की यादों में गूंजता रहता है।"

मेरे जीवन में वह शाम यादध्यानी योग्य है जो मुक्तिबोध की प्रसिद्धि का डंका नहीं बजने के पहले किसी अव्यक्त बानगी का शिकार हो गई होती। दिग्विजय महाविद्यालय के परिसर में अपने जिस पहले मकान में वे रहे थे, ठीक उसके पीछे बूढ़ासागर की पथरीली पटरियों पर बैठकर उस वक्त के शीर्षक ‘आशंका के द्वीपः अंधेरे में‘ वाली कविता का एकल श्रोता बनना मेरे नसीब में आया। वह कविता उनके मुझ युवा श्रोता-शिष्य में घबराहट, कोलाहल, आक्रोश और जुगुप्सा भरती गई थी। मुक्तिबोध का वह अविस्मरणीय काव्यपाठ तब तक चलता रहा, जब तक सूरज पूरी तरह बूढ़ासागर में डूब नहीं गया। एक अमर कविता के अनावृत्त होने के रहस्य को देखना कालजयी क्षण जीना था। मैं कविता का अमर श्रोता बना दिया गया। मैं एक साथ हतप्रभ, आतंकित और भौंचक था। बूढ़ासागर का वह रहस्यमय रचना-परिप्रेक्ष्य पूर्वजन्म की घटना या उपचेतन के विस्फोट की तरह मुक्तिबोध की यादों में गूंजता रहता है। वह कविता मैंने ‘चांद का मुंह टेढ़ा है‘ के संग्रह में शमशेर बहादुर सिंह की टिप्पणी के साथ कई बार पढ़ी। वह वाकई ‘गुएर्निका इन वर्स‘ ही है। उस कविता का मुझ पर इतना प्रभाव हुआ है कि मैं उसे किसी भी समाजचेता कविता का टचस्टोन (कसौटी) बनाता रहता हूं। मुझे पहली बार लगा था कि कविता हमारे पूरे अस्तित्व को न केवल झकझोर सकती है, बल्कि वह हमें अपनी वंशानुगत और पूर्वग्रहित धारणाओं तक की सभी मनःस्थितियों से बेदखल भी कर सकती है। पाठक या श्रोता का व्यापक मनुष्य समाज में गहरा विश्वास हो जाए और खुद उसमें किसी अणु के विस्फोट का संसार बन जाए-यह मुक्तिबोध की उस कविता का बाह्यांतरिक भूचाल है। 
कनक तिवारी 

वस्तुतः ‘अंधेेरे में‘ आंतरिक उजास की कविता है। यह कविता भारतीय जनता का लोकतांत्रिक घोषणापत्र है। उसकी अभिव्यक्ति, निष्पत्ति और उपपत्ति सभी कुछ उन तानोंबानों से बुनी है जो एक मनुष्य को दूसरे से अविश्रृंखलित मानव तारतम्यता से जोड़ती है। यह एक आंशिक और अपूर्ण लेकिन आत्मिक-लयबद्धता का ऐलान है। उसके पौरुष के उद्घाटन का वक्त हिन्दुस्तान की लोकशाही में जनता की यंत्रणा भोगती अनुभूतियों में न जाने क्यों उग नहीं रहा है! मुक्तिबोध संभावित जनविद्रोह की निस्सारता से बेखबर नहीं थे। इसलिए इस महान कविता में लाचारी का अरण्यरोदन नहीं उसकी हताशा की कलात्मक अनुभूति है। पराजित, पीड़ित और नेस्तनाबूद हो जाने पर भी आस्था और उद्दाम संभावनाओं की उर्वरता के यौगिक बिखेर देना भी कविता की रचनात्मक ज़िम्मेदारी होती है। यह तयशुदा पाठ इस विद्रोही कवि का ऐसा उद्घोष है जिसे जनसमर्थन तो चाहिए लेकिन जनआकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के लिए वह प्रतीक्षा करने की स्थिति में नहीं है। ‘अंधेरे में‘ को जितनी बार और जितनी तरह से पढ़ा जाए उसकी दृश्यसंभावनाओं, नाटकीयता और अतिरेक लगती संभाव्यता में मुक्तिबोध की कलम की बहुआयामिता का अनोखा और अकाट्य साक्ष्य गूंजता रहता है।

जारी ...

लेखक की फेसबुक वाल से साभार

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