Monday, July 18, 2016

कला की दुनिया के 'मेंडलीफ' और राजेश जोशी के 70 साल

राजेश जोशी की कविता 'इत्यादि' के मंचन का एक दृश्य 
- बादल सरोज 
गुजरे चार पांच दिनों में बहुत तेजी के साथ फैलाई जा रही अफ़वाह यह है कि राजेश जोशी 70 के हो गए हैं । अफ़वाह को तथ्यात्मक बनाने के लिए भाई लोग 1946 की 18 जुलाई का हवाला इस तरह दे रहे हैं जैसे राजेश न हों प्रतीत्य समुत्पाद या अगर धुंआ है तो फिर आग भी वहीँ होगी मार्का अनुभवजन्य प्रमाण का कोई उदाहरण हों या चरक का कोई आसव हों । अब इन रयुमरमॉंगर्स को कौन बताये कि इस तरह के सरलीकरण के बारे में निदा साब लिखकर और जगजीत सिंह से गवा कर छोड़ गए हैं कि "दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहाँ होता है / सोच-समझवालों को थोड़ी नादानी दे मौला !!"

हम जिन राजेश जोशी को जानते हैं वे 70 के तो हरगिज नहीं हैं । हद्दतन 7 और 17 के बीच कहीं के हैं । पॉपुलर साहित्य की उपमाओं में कहें तो हमे वे मार्क ट्वेन के टॉम सायर और हक्लबेरी फिन के जोड़, जे के रोलिंग के जेम्स पॉटर-सिरियस ब्लैक-रेमुस लुपिन त्रयी के किशोरवय लुपिन, कुछ कुछ मराठी बालसाहित्य के बनास फास्टर फैणे, सत्यजित बाबू की फेलुदा के तोपेश उर्फ़ टोप्से, मालगुडी डेज के स्वामी और कई बार तो लोकप्रिय कार्टूनस्ट्रिप् डेनिस द मीनेस के प्रश्नाकुल डेनिस अधिक लगते हैं । 

ब्लॉन्डी सीरीज के डैगवूड बमस्टेड की तरह घर में सोफे पर बैठे दोनों हाथ ऊंचे कर अंगड़ाई लेकर "अरे यार , कहीं आने जाने की मत कहो, हमे तो घर में ही मजा आता है" कहते दिखने में आलसी से नजर आते , किन्तु इसी के साथ पूरी चैतन्यता के साथ शरलॉक होम्स की तरह साहित्य की भरीपूरी दुनिया में विचरते और खूब मेहनत से न जाने क्या क्या ढूंढ कर पढ़ते छानते राजेश । एलटीसी टूर में दिल्ली एअरपोर्ट से टिकिट कैंसल करवाके फ़टाफ़ट घर लौटते यात्राभीरु मगर किताबों में डुबकी लगाते जेर, जबर, पेश और नुक्तों की सही जगह तलाशने की फ़िक्र में डूबे राजेश । 

मुमकिन है 70 की उम्र राजेश जोशी हो गयी हो- राजेश जोशी तो 70 के नहीं हुए ।

जो अपने बचपन को सहेज कर रखते हैं, अपने अंदर के बच्चे को रोज नहला धुलाकर उसके बालों में करीने से कंघी करके तैयार करते हैं । मगर साथ ही उसे मोहल्ले की अमराइयों से आम और अमरुद तोड़ने तथा गली क्रिकेट के छक्कों चौकों से खुर्राट आंटी की खिड़कियों के कांच तोड़ने से नहीं रोकते, बल्कि उकसाते हैं । उसे चुपके से यूँही चलते फिरते अपना होमवर्क निबटाने के बाद धमाल करने से नहीं रोकते और कक्षा में फर्स्ट आने पर बजाय इठलाने के शर्म से लाल हो जाते हैं वे ही राजेश जोशी बन पाते हैं । जो भूगोल की किताब में लिखी पृथ्वी से सूरज की दूरी पर पूरी तरह यकीन करने के पहले उसे एक बार खुद नाप लेने की जुगत भिड़ाते रहते हैं वे ही राजेश जोशी बन पाते हैं ।

कविता की आलोचना अपना डिपार्टमेंट नहीं है । इसलिए उनकी कविताओं की शल्यक्रिया वे करें जो इसमें पारंगत हैं । वे हमारे प्रिय कवि, नाटक लेखक, गल्पकार और कहानीकार हैं । (यूं तो वे बाकायदा प्रशिक्षित चित्रकार भी हैं मगर मरदूद कला की दुनिया के मेंडलीफों ने उन्हें कवि के खांचे में बाँध कर रख दिया है ।) एक पाठक के रूप में हमें राजेश जोशी की कवितायें बहुत अच्छी लगती हैं । तय नहीं कर पाते कि उस कविता विशेष की मारकता ज्यादा भायी या शिल्प ज्यादा रुचिकर लगा । तड़का बढ़िया था या पौष्टिकता !!

मुक्तिबोध : बकलम कनक तिवारी -1

-कनक तिवारी 
मुक्तिबोध को सबसे पहले 1958 में साइंस काॅलेज रायपुर के प्रथम वर्ष के छात्र के रूप में मैंने देखा सुना था। मुक्तिबोध 1958 में ही राजनांदगांव के दिग्विजय महाविद्यालय में मुदर्रिसी करने आ गए थे। अजीज़ दोस्त विलास खरे का मित्र होने के नाते उनके ज्येष्ठ पुत्र रमेश से मेरी अंतरंगता हो गई। बाद में रमेश का विवाह विलास की बहन से होने के कारण वे मेरे बहनोई हो गए। अंगरेज़ी साहित्य में एम.ए. करने के दौरान मुझे कई बार इस कवि से मिलने का अवसर तलाशना पड़ा। वह लेकिन औपचारिक वार्तालाप के आगे नहीं बढ़ा। मैं 1963 में दिग्विजय महाविद्यालय राजनांदगांव में अंगरेज़ी विभाग में प्राध्यापक नियुक्त होकर उनका सहकर्मी बना। यादों का कबाड़ तक मूल्यवान होता है। ऐसा पारचून इतिहास का प्राथमिक ड्राफ्ट भी होता है। साहित्यिक दुनिया में तब तक मुक्तिबोध की प्रायोजित, प्रचारित या सुपात्रित वह ख्याति नहीं थी जिसका बवंडर उनकी मृत्यु के बाद अचानक उठा। सादे कपड़ों, गंभीर मुद्रा और धीमी गति से अपने घर की सीढ़ियां उतरकर शिक्षकों के स्टाफ रूम में पड़ी दो आराम कुर्सियों पर बख्शीजी और मुक्तिबोध के बैठने से उन्हें ही इन दोनों साहित्य-अध्यापकों का बोझ सबसे ज़्यादा उठाना पड़ा।

पता नहीं क्यों मुक्तिबोध ने एक दिन शोध परीक्षा के गाइड की तरह मुद्रा बनाकर मुझसे कहा कि मैं नरेश मेहता को पढ़ूं। नगरपालिका के पुस्तकालय से ‘वह पथ बंधु‘ था‘ लाकर मैंने पढ़ने की कोशिश की। उनसे पूछा कि क्या नरेश मेहता की सभी रचनाएं इसी तरह भारीभरकम होंगी। मुक्तिबोध से नरेश मेहता उम्र में पांच वर्ष छोटे थे। देश के कई बौद्धिक आज़ादी के पहले वामपंथी विचारधारा के चुंबकत्व के लिए लोहे के कण ही थे। उनमें से कुछ को चुंबकत्व बांधे नहीं रख सका। वे मध्यममार्गी, दक्षिणपंथी या आज़ाद ख्याल के भी हो गए। नरेश मेहता और निर्मल वर्मा कई नामों में दो बड़े नाम हैं जिन पर वामपंथ से छिटककर छद्म दक्षिणपंथी होने के आरोप तक लगाए गए। इन दोनों की भारतीय संस्कृति की अकाट्य समझ का लोहा वे चुंबक भी मानते हैं जो भारतीय ज्ञानशास्त्र के वांग्मय में पसरे पड़े हैं। अल्प अध्ययन के बावजूद मैंने मार्क्स को कभी खारिज नहीं किया। मुझे यह जानकर अचरज होता है कि बीसवीं सदी की दुनिया को ज्ञान की अलग अलग विधाओं के ज़रिए मूल्यगत तथा ढांचागत स्तर पर जिन चार महान बौद्धिकों ने बनाया है वे चारों यहूदी ही निकले। कार्ल मार्क्स फ्रेडरिक नीत्शे, सिग्मंड फ्रायड और अलबर्ट आइंस्टाइन के बिना बीसवीं सदी का इतिहास लिखा ही नहीं जा सकता। नरेश मेहता का मुक्तिबोध पर लिखा गया ‘मुक्तिबोधः एक अवधूत कविता‘ वाला निबंध संस्मरणात्मक होते हुए भी कई अनछुए आयाम अनावृत्त करता है।

जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी‘ को लेकर मुक्तिबोध की रचनात्मकता उत्तेजित होती रहती। ‘कामायनी‘ नाम से मैं परिचित भर था। प्रसाद में प्रसाद-गुण खोज लेने की मुक्तिबोध की कशिश का मैं चक्षुदर्शी गवाह बना। वे अपनी नज़र से ‘कामायनी‘, फिर महाकाव्य के चश्मे से मानवेंद्रियों के गुंफित अंतर्लाेक की यात्रा के पथप्रदर्शक बने। उन्हें एक अदद पथप्रदर्शित यात्री की ज़रूरत महसूस होती रही होगी, जिसे वे प्रसाद के साहित्यिक राजप्रासाद का अवलोकन करा सकें। व्यावसायिक पर्यटन के गाइड अक्सर ग्रामोफोन के रिकाॅर्ड की तरह पुनरावृत्त बयानों की जुगाली करते हैं। मुक्तिबोध वह गाइड थे जो प्रतिदिन किसी धारावाहिक कथा के अगले परिच्छेद या पड़ाव तक आगे चलकर कुछ नया अहसास भरते। मुझ श्रोता की आश्वस्त-उपस्थिति के बाद हर रात प्रसाद से मुठभेड़ या साक्षात्कार करके स्टाफ रूम आते। रोज एक नया सिरा पकड़कर ‘कामायनी‘ का अलग चेहरा दिखाते। एकालाप की शैली के वार्तालाप को बख्शीजी स्मित हास्य के उस अतिरिक्त श्रोता की तरह सुनते होते जिसने गाइड को फीस नहीं दी है। मुक्तिबोध के कामायनी-निर्वचन से सहसा संकेतित मैं विद्वता बघारने के लिए अंगरेज़ी के महाकवि जाॅन मिल्टन के ‘पैराडाइज़ लाॅस्ट‘ को परोसने लगता। उसे बरस भर पहले ही मैंने परीक्षोपयोगी नोट्स के सहारे पढ़ा था। मिल्टन के नाम से भी उन्मादित मुक्तिबोध ‘पैराडाइज़ लाॅस्ट‘ और उसकी टीकाओं को उपलब्ध कराने कहते। मैं रायपुर के विज्ञान महाविद्यालय का छात्र था। वहां ताज़ा खुले अंगरेज़ी विभाग का पुस्तकालय बहुत विपन्न था। संस्कृत महाविद्यालय में संयोगवश सरकारी अनुदान के कारण अंगरेज़ी साहित्य की पढ़ाई बरायनाम होने पर भी किताबों का अच्छा खासा क्रय किया गया था। मैं थैले भर भरकर किताबें मुक्तिबोध के लिए लाने लगा। उनमें से कई किताबें पहली बार पढ़ी जा रही थीं। मुक्तिबोध को इससे कोफ्त होती क्योंकि अंकित पुस्तक विवरण के अनुसार वे कुछेक वर्षों पहले खरीदी गई थीं। संस्कृत काॅलेज के पुस्तकालय नियमों के अनुसार अन्य महाविद्यालय के प्राध्यापक को पुस्तकें ले जाने की अनुमति नहीं थी। उसी महाविद्यालय के अंगरेज़ी विभाग के सहायक प्राध्यापक मित्र श्यामकिशोर श्रीवास्तव के नाम पर वे पुस्तकें बिना पंजीकृत आवंटन के थैले भर भर लाई जातीं। श्यामकिशोर पढ़ाकू थे। उन ले जाई गई पुस्तकों की सूची देखकर ही मुक्तिबोध के मानस की पड़ताल करते पुलकित होते रहते।

दिग्विजय महाविद्यालय के स्टाफ रूम में ‘कामायनी‘ पर एकाध सप्ताह बाद मेरा रिफ्रेशर कोर्स शुरू हुआ। अब मैं जाॅन मिल्टन और जयशंकर प्रसाद के महाकाव्यों के बीच मुक्तिबोध-सेतु पर चलने का इकलौता यायावर यात्री था। मुझ अज्ञानी को सूचना नहीं थी कि मुक्तिबोध की अंगरेज़ी साहित्य में भी गहरी पैठ है। उन्होंने ‘पैराडाइज़ लाॅस्ट‘ का उल्था किया। वैसा तो मेरे कक्षा-गुरुओं ने सोचा, बताया या बूझा नहीं था क्योंकि उन्होंने प्रसाद को कतई नहीं पढ़ा होगा। कविता भूगोल और इतिहास, भाषा और संस्कृति, धर्म और रूढ़ियों की परस्परता, विभिन्नता और उदासीनता के परे जाकर एक एक चरित्र के माध्यम से अंततः मनुष्य और संभावित मनुष्य को भी तो रचती है। यह तिलिस्म साहित्य की उन गैरपेशेवर कक्षाओं में महीनों तक सीखने को मिला। अंगरेज़ी के आलोचकों वाली किताबों के हाशियों पर मुक्तिबोध ने पेंसिल से बहुत कुछ लिखा। पुस्तकें वापस करने के पहले रबर से उन्हें मिटा दिए जाने के निर्देश भी उन्होंने दिए। सोचता हूं कि जीवन में एक गैरइरादतन अपराध मैंने क्यों नहीं किया। उनकी आज्ञा मानकर वे इबारतें मिटाने का गुनाह लगातार कचोटता रहता है। बख्शी जी भी कई किताबें मंगाकर पढ़ते। वे कभी कभी प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी, रामकुमार वर्मा वगैरह को लेकर मुक्तिबोध से ज़िरह करते। छब्बीस वर्ष के नवयुवक ने स्वनामधन्य पत्रिका ‘सरस्वती‘ का संपादन किया था। छायावाद अथवा स्वछंदतावाद के बड़े हस्ताक्षरों को संपादित, प्रकाशित या अस्वीकृत करने का उनका अपना अनुभव था। उनसे कई बार मतभेद होने पर मुक्तिबोध अपने जिरहनामे की मेरी क्लास लेते। लगता कि यह कवि ‘डूबते को तिनके का सहारा‘ वाले मुहावरे की उलटबांसी कर रहा है। शाब्दिक अर्थ है कि डूबता हुआ व्यक्ति तिनके को सहारा समझकर उसे पकड़ता है, लेकिन बेचारा डूब ही तो जाता है। मुक्तिबोध-प्रसंग में अर्थ यह है कि वे संवेदनाओं के गहरे अतल में डूबने के बाद मुझ जैसे श्रोता को तिनके का सहारा समझकर उसमें से बाहर आना चाहते। मैंने मुहावरे वाले तिनके की भूमिका का अनादर या नकार नहीं किया। वे मेरा सहारा पाकर ऊपर नहीं आ सकते थे। लिहाज़ा और डूबते जाते।

"दिग्विजय महाविद्यालय के परिसर में अपने जिस पहले मकान में वे रहे थे, ठीक उसके पीछे बूढ़ासागर की पथरीली पटरियों पर बैठकर उस वक्त के शीर्षक ‘आशंका के द्वीपः अंधेरे में‘ वाली कविता का एकल श्रोता बनना मेरे नसीब में आया। वह कविता उनके मुझ युवा श्रोता-शिष्य में घबराहट, कोलाहल, आक्रोश और जुगुप्सा भरती गई थी। मुक्तिबोध का वह अविस्मरणीय काव्यपाठ तब तक चलता रहा, जब तक सूरज पूरी तरह बूढ़ासागर में डूब नहीं गया। एक अमर कविता के अनावृत्त होने के रहस्य को देखना कालजयी क्षण जीना था। मैं कविता का अमर श्रोता बना दिया गया। मैं एक साथ हतप्रभ, आतंकित और भौंचक था। बूढ़ासागर का वह रहस्यमय रचना-परिप्रेक्ष्य पूर्वजन्म की घटना या उपचेतन के विस्फोट की तरह मुक्तिबोध की यादों में गूंजता रहता है।"

मेरे जीवन में वह शाम यादध्यानी योग्य है जो मुक्तिबोध की प्रसिद्धि का डंका नहीं बजने के पहले किसी अव्यक्त बानगी का शिकार हो गई होती। दिग्विजय महाविद्यालय के परिसर में अपने जिस पहले मकान में वे रहे थे, ठीक उसके पीछे बूढ़ासागर की पथरीली पटरियों पर बैठकर उस वक्त के शीर्षक ‘आशंका के द्वीपः अंधेरे में‘ वाली कविता का एकल श्रोता बनना मेरे नसीब में आया। वह कविता उनके मुझ युवा श्रोता-शिष्य में घबराहट, कोलाहल, आक्रोश और जुगुप्सा भरती गई थी। मुक्तिबोध का वह अविस्मरणीय काव्यपाठ तब तक चलता रहा, जब तक सूरज पूरी तरह बूढ़ासागर में डूब नहीं गया। एक अमर कविता के अनावृत्त होने के रहस्य को देखना कालजयी क्षण जीना था। मैं कविता का अमर श्रोता बना दिया गया। मैं एक साथ हतप्रभ, आतंकित और भौंचक था। बूढ़ासागर का वह रहस्यमय रचना-परिप्रेक्ष्य पूर्वजन्म की घटना या उपचेतन के विस्फोट की तरह मुक्तिबोध की यादों में गूंजता रहता है। वह कविता मैंने ‘चांद का मुंह टेढ़ा है‘ के संग्रह में शमशेर बहादुर सिंह की टिप्पणी के साथ कई बार पढ़ी। वह वाकई ‘गुएर्निका इन वर्स‘ ही है। उस कविता का मुझ पर इतना प्रभाव हुआ है कि मैं उसे किसी भी समाजचेता कविता का टचस्टोन (कसौटी) बनाता रहता हूं। मुझे पहली बार लगा था कि कविता हमारे पूरे अस्तित्व को न केवल झकझोर सकती है, बल्कि वह हमें अपनी वंशानुगत और पूर्वग्रहित धारणाओं तक की सभी मनःस्थितियों से बेदखल भी कर सकती है। पाठक या श्रोता का व्यापक मनुष्य समाज में गहरा विश्वास हो जाए और खुद उसमें किसी अणु के विस्फोट का संसार बन जाए-यह मुक्तिबोध की उस कविता का बाह्यांतरिक भूचाल है। 
कनक तिवारी 

वस्तुतः ‘अंधेेरे में‘ आंतरिक उजास की कविता है। यह कविता भारतीय जनता का लोकतांत्रिक घोषणापत्र है। उसकी अभिव्यक्ति, निष्पत्ति और उपपत्ति सभी कुछ उन तानोंबानों से बुनी है जो एक मनुष्य को दूसरे से अविश्रृंखलित मानव तारतम्यता से जोड़ती है। यह एक आंशिक और अपूर्ण लेकिन आत्मिक-लयबद्धता का ऐलान है। उसके पौरुष के उद्घाटन का वक्त हिन्दुस्तान की लोकशाही में जनता की यंत्रणा भोगती अनुभूतियों में न जाने क्यों उग नहीं रहा है! मुक्तिबोध संभावित जनविद्रोह की निस्सारता से बेखबर नहीं थे। इसलिए इस महान कविता में लाचारी का अरण्यरोदन नहीं उसकी हताशा की कलात्मक अनुभूति है। पराजित, पीड़ित और नेस्तनाबूद हो जाने पर भी आस्था और उद्दाम संभावनाओं की उर्वरता के यौगिक बिखेर देना भी कविता की रचनात्मक ज़िम्मेदारी होती है। यह तयशुदा पाठ इस विद्रोही कवि का ऐसा उद्घोष है जिसे जनसमर्थन तो चाहिए लेकिन जनआकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के लिए वह प्रतीक्षा करने की स्थिति में नहीं है। ‘अंधेरे में‘ को जितनी बार और जितनी तरह से पढ़ा जाए उसकी दृश्यसंभावनाओं, नाटकीयता और अतिरेक लगती संभाव्यता में मुक्तिबोध की कलम की बहुआयामिता का अनोखा और अकाट्य साक्ष्य गूंजता रहता है।

जारी ...

लेखक की फेसबुक वाल से साभार

प्रेमचंद जयंती समारोह : इप्टा पलामू द्वारा लघु कथाओं का पाठ

प्रेमचंद जयंती समारोह के तहत इप्टा की पलामू इकाई ने लघु कथाओं के पाठ का आयोजन किया । जिसमे जिले के कई साहित्यकारों व लेखको ने हिस्सा लिया । तमाम लोगो ने अपनी स्वरचित लघु कथा सुनाकर उपस्थित श्रोताओं को सोचने पर विवश कर दिया । समाज को आईना दिखाता हुआ और वर्तमान राजनितिक-सामाजिक मुद्दों पर आधारित चंद शब्दों में अभिव्यक्ति की गयी कहानियों को काफी सराहा गया । इस मौके पर लोगो ने यह भी चर्चा किया की आखिर कहानियाँ क्यों पढ़ी जाये । वहीँ कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद और उनकी कहानियों को याद करते हुए तमाम लोगो ने इस बात को सिददत से महसूस किया की वर्त्तमान समय में प्रासंगिक कहानी और लघुकथाओं का लिखा जाना और पढ़ा जाना बेहद जरुरी है । लघु कथाएं पाठको को सोचने पर विवश करती है  और यही एक लेखक की सफलता है ।

       इस अवसर पर उर्दू के अमनपसंद शायर मिर्ज़ा खलील बेग ने शायराना अंदाज़ में लघु कथा का पाठ किया।  अमन चक्र ने अपनी कहानी साक्षर और जीवन बनाम मृत्यु का पाठ किया।  चन्दन ने बेटी बचाओ शीर्षक से कहानी सुनाई।  वरिष्ठ साहित्यकार हरिवंश प्रभात ने आदमी और पशु व रक्षाबंधन नामक कहानी पढ़कर सुनाया।  वरिष्ठ लेखक श्रीधर जी ने बूढ़ा भिखारी और उमेश कुमार पाठक रेणु ने असली पुरस्कार शीर्षक से कहनियों का पाठ किया।  इसके अलावे प्रो के डी झा और उपेंद्र मिश्र ने भी कई लघु कथा सुनाएं।

        कार्यक्रम का संचालन करते हुए साहित्यकार प्रो डॉ कुमार वीरेंद्र ने कहा की पहले कहानियाँ पढ़ी जाती थी, अब समझी और समझाई जाती है. लघु कथाओं  के पाठ का आयोजन सराहनीय प्रयास है। इससे लिखने वालों का मनोबल बढ़ेगा और कहानियाँ लिखी जाती रहेंगी।  कार्यक्रम की अद्यक्षता प्रेम भसीन ने किया।

  इस आयेजन के बारे में बताते हुए इप्टा के महासचिव उपेंद्र मिश्र ने  कहा की कार्यक्रम  दूसरी कड़ी में 24 जलाई को प्रेमचंद की कहानी ठाकुर का कुआं का पाठ और 31 जुलाई प्रेमचंद जयंती के दिन बृहद विचारगोष्ठी  का आयोजन किया गया है ।

    मौके पर ललन कुमार, शब्बीर अहमद, नुदरत नवाज, गणेश रवि, अजित, दिनेश, भूपेश, शशि पांडेय समेत अन्य लोग बतौर श्रोता उपस्थित थे।     

Monday, July 4, 2016

दुनिया भर में क्यों फैल रही है कट्टरता?

इंदौर में प्रगतिशील लेखक संघ ने दुनिया भर में फैल रही कट्टरता पर आयोजित की परिचर्चा

इंदौर। प्रगतिशील लेखक संघ की इंदौर इकाई ने पाकिस्तान में सूफी कव्वाल अमजद साबरी की हत्या और बांग्लादेश में पिछले दिनों में ब्लाॅगरों, लेखक व पत्रकारों की हत्या की निंदा करते हुए एक परिचर्चा का आयोजन अनंत थिएटर सुखशांति नगर इंदौर में किया। इसमें भारतीय उपमहाद्वीप में कट्टरपंथी ताकतों के उभार पर वक्ताओं ने अपनी बात रखी। इस मौके पर इंदौर के नाट्य समूह सबरंग ने नाटक 'अजातघर' पेश किया। यह नाटक दंगे और सांप्रदायिकता की पृष्ठभूमि में आम आदमी की विचार प्रक्रिया और उसके द्वारा उठाए गए सवालों के बारे में था।  परिचर्चा में वक्ताओं ने कहा कि पाकिस्तान और बांग्लादेश में सूफी कव्वाल और ब्लागरों की हत्या के बाद भी इंसानियत का पैगाम देना रुकेगा नहीं। कट्टरपंथी विचारधारा के खिलाफ प्रतिरोध जारी रहेगा।

प्रगतिशील लेखक संघ के उपाध्यक्ष कामरेड चुन्नीलाल वाधवानी ने पाकिस्तान में अपने संपर्कों के हवाले से कहा कि अमजद साबरी पाकिस्तान में सूफियाना परंपरा के कव्वाल थे। वे नात गाते थे। जिसमें पैगंबर की प्रशंसा होती है। वे भगत कंवर राम की परंपरा के थे। भगत कंवर राम सिंध के थे। 1935 में उनकी भी हत्या कर दी गई थी। कंवर राम के भजन इतने मधुर होते थे कि उन्हें सुनने आसपास के गांवों के लोग तक आते थे। वे भजन के बाद अपनी झोली फैलाते थे। इसमें जो कुछ भी इकट्ठा होता था उसे वे वहां भजन सुनने आए गरीबों और जरूरतमंदों में बांट दिया करते थे। इसमें से भी ज्यादातर मुस्लिम गरीब किसान होते थे। कंवर राम की हत्या इसलिए कर दी गई थी क्योंकि वे समाज में भाईचारा बढ़ा रहे थे। अमजद साबरी भी पाकिस्तान में कम से कम 250 परिवारों का पालन-पोषण करते थे उनके संरक्षक थे। उनके वालिद गुलाम फरीद भी सूफी कव्वाल थे। अमजद साबरी के परिवार वालों का कहना है कि उनकी किसी से कोई दुश्मनी नहीं थी। फिर साबरी को किसने मारा यह सवाल लोगों की जुबान पर है। पाकिस्तान में सुन्नी बहुल मस्लिम हैं। अमजद भी सुन्नी थे। लेकिन सुन्नियों में वे बरेलवी थे। बरेलवी सुन्नी दरगाह, मजार पर जाते हैं,  संगीत के जरिए आराधना में विश्वास रखते हैं, वहीं कट्टरपंथी दरगाह, संगीत आदि में यकीन नहीं रखते हैं। वे कहते हैं कि सिर्फ एक ही अल्लाह है उसी के आगे सिर झुकाना चाहिए। अमजद साबरी के श्रोताओं में हिंदू-मुसलमान और सिख भी हैं। ये सभी दरगाहों और मजारों पर भी जाते थे। कट्टरपंथी एसा मानते हैं कि बरेलवियों से इस्लाम खतरे में पड़ता है। इसलिए पाकिस्तान में बाबा फरीद की मजार, अब्दाल शाह गाजी की मजार पर बम फेंकने की घटनाएं भी हो चुकी हैं।

कट्टरपंथियों के अनुयायी पाकिस्तान के फाटा यानी कि फेडरल एडमिनिस्टर्ड ट्राइबल एरियास के मदरसों में पनप रहे हैं। फाटा में वजीरिस्तान, मालकंड, चित्राल, स्वात, डीर शहर आते हैं। ये जनजातीय कबीलों के स्वायत्त इलाके हैं। 1948 में पाकिस्तान की एक संधि के तहत फाटा के इलाकों को विशेष दर्जा मिला है। यहां पर शिक्षा व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं है। मदरसों में बच्चों को पढ़ाया जाता है। उन्हें सिर्फ मजहबी शिक्षा दी जाती है। पाकिस्तान में परिवार नियोजन नहीं हैं। वहां के मुसलमान और हिंदुओं के घर में पांच-पांच बच्चे पैदा होना आम बात है। बड़े परिवारों में बच्चों की सही परवरिश न होने और अशिक्षा के चलते सभी बच्चे मदरसों का रुख करते हैं और यहां उन्हें कट्टर बनाया जाता है। इन्हें यही बताया जाता है कि उनके धर्म का शासन ही दुनिया में कायम रखना है।  

प्रगतिशील लेखक संघ की इंदौर इकाई के सचिव अभय नेमा ने बांग्लादेश पर अपनी बात केन्द्रित की। उन्होंने कहा कि बांग्लादेश में 2013 से अब तक 30 ब्लागरों, लेखकों, संपादकों की हत्या की जा चुकी है। इनमें अनीश्वरवादी, धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों के साथ ही वे धर्मनिरेपक्ष मुसलमान भी शामिल हैं जो बांग्लादेश मे कट्टरपंथियों का समर्थन नहीं करते।  इनसे कट्टरपंथी इसलिए नाराज हैं कि ये लोग `मुक्त मन' नामक वेबसाइट पर लिखते हैं। इस साइट पर लेखकों ने धार्मिक आस्था समेत सभी तरह की आस्थाओं पर, धर्म की भूमिका पर सवाल उठाए हैं। बांग्लादेश में अवामी लीग की नेता शेख हसीना की सरकार है। वहीं विपक्ष में बेगम खालिदा जिया की बांगलादेश नेशनलिस्ट पार्टी है। आवामी लीग 1971 में स्वाधीनता मुक्ति संग्राम के दौरान पाकिस्तान की ओर से बांग्लादेश की मुक्ति के खिलाफ लड़ने वालों पर एक-एक कर युद्ध अपराध के मुकदमों में सजा सुना रही है। बांग्लादेश की बहुसंख्यक आबादी सजा के समर्थन में है। अब तक आधा दर्जन से ज्यादा को मौत की सजा या उम्रकैद हो चुकी है। जिन्हें सजा मिली है वे कट्टरपंथी हैं और कई जमात-ए-इस्लामी के नेता हैं। उन्हें बीएनपी का समर्थन है। बीएनपी को जमात-ए-इस्लामी का भी समर्थन है। बीएनपी शेख हसीना को सत्ता से बाहर करने के लिए कट्टरपंथियों का समर्थऩ कर रही है। इन राजनीतिक हालात के कारण इस वक्त बांग्लादेश की हालत विकट है।

इसके अलावा भारत में भी कलबुर्गी, पानसरे और दाभोलकर की हत्या में कट्टरपंथियों का हाथ होने की बात जांच में सामने आ रही है। कट्टरपंथी नहीं चाहते कि कोई प्रगतिशील विचारधारा पनपे और फैले। इस तरह भारतीय उपमहाद्वीप में कट्टरपंथी रुझान हावी होने की कोशिश की जा रही है। यह भारतीय उपमहाद्वीप तक ही यह सीमित नहीं है। योरप में भी दक्षिणपंथी रुझान नजर आ रहा है। आस्ट्रिया, फ्रांस, जर्मनी, नीदरलैंड, इटली में दक्षिणपंथी रुझान हावी होते नजर आ रहे हैं। ब्रेक्सिट में योरपीय संघ से ब्रिटेन का अलग होना भी इसी रुझान को इंगित करता है। योरप के लोग नहीं चाहते कि वे समाज के प्रतिफल को सीरिया के शरणार्थियों के साथ बांटे। अपने कर की राशि से शिक्षा-चिकित्सा, रोजगार और कल्याणकारी राज्य की तमाम सुविधाएं वे शरणार्थियों के साथ बांटना नहीं चाहते हैं। अमेरिका में भी राष्ट्रपति पद की दावेदारी के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप मुस्लिम विरोधी बयान इसी दक्षिणपंथी मानसिकता के तहत दे रहे हैँ।

प्रगतिशील लेख संघ के अध्यक्ष एस के दुबे ने कहा कि भारत में जातियों के बीच संघर्ष हो रहे हैं। गुजरात में पाटीदार और हरियाणा में जाट आरक्षण आंदोलन इसका उदाहरण है। इसके पीछे आर्थिक सवाल हैं। नौकरियां नहीं है। असल मुद्दों को न छूते हुए गैर जरूरी मुद्दे लेकर देश में आंतरिक हिंसा हो रही है। हमारे सामाजिक ताने-बाने को खत्म किया जार रहा है। इसके पीछे यहां की कट्टरपंथी ताकतें हैं।


इस अवसर पर नाट्य संस्था सबरंग द्वारा दंगों और साम्प्रदायिकता के विषय पर केंद्रित रामेश्वर प्रेम लिखित नाटिका 'अजात घर' का मंचन भी हुआ। इस नाटक को रामेश्वर प्रेम ने लिखा है।  प्रांजल श्रोत्रिय द्वारा निर्देशित नाटक में सर्वश्री शाकिर हुसैन और श्रवण गढ़वाल ने भावप्रवण अभिनय किया। नाटक में दो आम आदमियों की मनः स्थिति का चित्रण हैं जो दंगों में जान बचाने के लिए एक घर में छिपे हैं। इस दौरान उनके बीच जातिगत और सांप्रदायिक मसलों को लेकर रोचक संवाद होता है। कहानी इस बात पर खत्म होती है कि दंगों में सब डर छिप रहे हैं तो फिर मार कौन रहा है। निर्देश श्रोत्रिय ने सुविचारित ढंग से दंगे की मानसिकता को उघाड़ा।  गोष्ठी में सबरंग से जुड़े रंगकर्मियों सहित सर्वश्री अनन्त श्रोत्रिय,एस के दुबे, संजय वर्मा,सारिका श्रीवास्तव,ब्रजेश कानूनगो,सुरेश पटेल,केसरीसिंह चिडार आदि भी उपस्थित थे।

-विनीत तिवारी