Saturday, May 21, 2016

जननाट्य दिवस: 25 मई 2016 के अवसर पर बिहार इप्टा की विभिन्न इकाइयां करेंगी विशेष कार्यक्रम का आयोजन



25 मई 2016 को राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा) के स्थापना का 73वाँ वर्ष पूरा हो रहा है. ज्ञातव्य है कि 25 मई 1943 को मुंबई में इप्टा का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित हुआ था. ब्रिटिश दासता व शोषण के ख़िलाफ़ आवाम की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के रूप में भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा) की स्थापना हुई थी और इप्टा ने अपने सात दशकों से भी अधिक लंबे इतिहास में देश की गंगा-जमुनी तहजीब को मजबूत करने का काम किया है. इप्टा ने अपने स्थापना काल से ही गीत, नृत्य, नाटकों के जरिये जनता की आशाओं-आकांक्षाओं, दुःख-दर्द, संघर्ष को अभिव्यक्ति दी है. इप्टा के इस विरासत को रेखांकित करने के मकसद से इप्टा के स्थापना दिवस: 25 मई को "जननाट्य दिवस" के रूप में मनाया जाता है. 

बिहार इप्टा की सभी इकाइयां जननाट्य दिवस:25 मई 2016 के अवसर पर विशेष कार्यक्रम आयोजित करेंगी. इस वर्ष जननाट्य दिवस का थीम "अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने ही होंगे" निर्धारित किया गया है. बिहार इप्टा के महासचिव तनवीर अख्तर ने बिहार इप्टा की सभी इकाईयों के अध्यक्ष, सचिव व बिहार इप्टा राज्य परिषद् के सदस्यों से "अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने ही होंगे" थीम के साथ 25 मई 2016 को विशेष कार्यक्रम आयोजित करने का आह्वान किया है. 

बिहार इप्टा की विभिन्न इकाइयों से अब तक प्राप्त सूचना के अनुसारजननाट्य दिवस के अवसर पर छपरा इप्टा ने नगर पालिका सभागार, छपरा (सारण) में संगोष्ठी एवं सांस्कृतिक संध्या का आयोजन किया है. संगोष्ठी  का विषय "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता: दशा और दिशा" है तथा सांस्कृतिक कार्यक्रम के तहत जनगीत, नृत्य और एकांकी "पागलखाना" की प्रस्तुति की जायेगी. कटिहार इप्टा जनम, दिल्ली के नाटक "औरत" को मंचित करेगा.  मधेपुरा  इप्टा और सहरसा इप्टा  द्वारा इस मौके पर संगोष्ठी आयोजित की जा रही है. पटना इप्टा द्वारा दो दिवसीय आयोजन किया जा रहा है. 24 मई को कैफी आज़मी सांस्कृतिक केंद्र में 'समय संवाद' के तहत वरिष्ठ अभिनेता जावेद अख्तर खाँ "इप्टा की विरासत और आज का समय" विषय पर संवाद करेंगे, इसकी अध्यक्षता बिहार इप्टा की अध्यक्ष डेज़ी नारायण करेंगी. 25 मई को भिखारी ठाकुर रंगभूमि, गाँधी मैदान में 'रंगभूमि संवादके तहत पटना इप्टा द्वारा जन गीत, काव्य आवृत्ति एवं नाटक "गदहा पुराण" एवं रंगसृष्टि, पटना द्वारा नाटक "मन में है विश्वास" की प्रस्तुति होगी. इस अवसर पर वरिष्ठ नाटककार ह्रषीकेश सुलभ मुख्य अतिथि होंगे.

इप्टा स्थापना दिवस के अवसर पर बिहार इप्टा इकाईयां विशेष रूप से झंडोतोलन करेंगी और इप्टा गीत "तू ज़िंदा  है........." (शंकर शैलेन्द्र की रचना) का गायन होगा.      

Sunday, May 15, 2016

सुगम जीवन के लिए क्रांतिकारी गजलें लिखता एक दुर्लभ गजलकार

ज इप्टा अशोकनगर (मध्यप्रदेश) के ग्रीष्मकालीन बाल एवं किशोर शिविर में प्रमुख समकालीन बुन्देली ग़ज़लकार महेश कटारे सुगम ने गजलों का पाठ किया। इस अवसर पर इप्टा मध्य प्रदेश के प्रदेशाध्यक्ष हरिओम राजोरिया, वरिष्ठ चित्रकार और रंगकर्मी पंकज दीक्षित, रंगकर्मी सीमा राजोरिया, विनोद शर्मा, जनवादी लेखक संघ मध्यप्रदेश के प्रांतीय संयुक्त सचिव सुरेन्द्र रघुवंशी, व्यंग्यकार वीरेन्द्र उदैनिया ,अर्चना, संजय माथुर , अरबाज खान, अभिषेक तिवारी एवं अन्य साथियों सहित सैकड़ों प्रतिभागी बच्चे भी मौज़ूद थे।

महेश कटारे सुगम अपनी बुंदेलखंडी लोक भाषा में प्रखर और प्रतिबद्ध प्रगतिशील जनवादी गजलों के लेखन के लिए जाने जाते हैं ।वे बड़ी पाठक संख्या के साथ फेसबुक पर सर्वाधिक पढ़े जाने वाले कवियों में शुमार हैं।अब जबकि लोक भाषाएँ खतरे में आकर साहित्य में होकर लुप्तप्राय होती जा रही हैं ; ऐसे विरुद्ध बाजारवादी समय में महेश कटारे सुगम बुन्देली/ बुंदेलखंडी क्षेत्रीय लोक भाषा को बचाने में दिन -रात जुटे हैं । उनकी गजलों में शोषित और दमित जनता जनता की आवाज़ है और व्यवस्था के प्रति गहरा और ज़रूरी आक्रोश है।उनकी वैचारिकता इन्हें अपने समय के प्रमुख कवियों में शामिल करती है। 

नाट्य शिविर में बच्चों के बीच बुंदेली ग़ज़लों का पाठ एक
सुखद अनुभव के साथ संपन्न हुआ .ख़ुशी इस बात की है कि
बच्चों ने कविता में छुपे व्यंग्य को बखूबी समझा
और उन पात्रों पर उपहासात्मक कहकहे लगाए जिन्हें
कविता अपना निशाना बना रही थी .
इस नई पीढ़ी के बच्चों द्वारा कविता में छुपे अर्थ को समझना
इस बात का स्पष्ट संकेत है कि इप्टा इकाई द्वारा
किये जा रहे प्रयास कितने सार्थक और महत्व पूर्ण हैं.
- महेश कटारे सुगम
महेश कटारे सुगम अपना प्रतिरोध दर्ज़ कराने के लिए कभी संकोच , भ्रम और भय को अपने पथ में बाधा नहीं बनने दिया।वे अन्याय के ख़िलाफ़ जनता के पक्ष में खड़े होकर निर्भीकता के साथ समूची पाखंडी, दोमुंही और शोषणकारी व्यवस्था को गरियाते हैं। ऐसा करते हुए वे हमारे समय के दुष्यन्त और निराला लगते हैं।आज के विरुद्ध समय में उनकी आवाज़ की बहुत ज़रूरत है।

मूलतः बीना ( मध्य प्रदेश) के निवासी सुगम जी की गजलें बिम्ब और प्रतीक विधान में भी अग्रणी हैं।उनके पास जनभाषा का सम्पूर्ण सौंदर्य शास्त्र है और शब्दों में प्रिय, आकर्षक आँचलिक गंध भी।उनकी गजलें हमारे ग्रामीण भारत का सच्चा रोजनामचा हैं। जहाँ आज भी छल-कपट से विहीन कृषक मज़दूर जीवन में मनुष्यता को बचाये हुए है।जहां रिश्ते और और परम्पराएं आज भी जीवित हैं। जहां धूल धूसरित बच्चे गोबर लिपे कच्चे घरों में वैश्विक षड्यंत्रों से अनजान एक खुशहाल जीवन का सपना पाले हैं।महेश कटारे सुगम ऐसे सरल गॉवों और भोले- भाले लोगों के जन कवि हैं। ऐसे लोक कवि / गजलकार महेश कटारे सुगम को मेरा सलाम जिनकी रचनाओं में क्रांति का आगाज़ है।
- सुरेन्द्र रघुवंशी



Thursday, May 12, 2016

'बकरी' के बहाने जिक्र मिर्जा मसूद का

बकरी  रायपुर के मंच पर खेले गये उन नाटकाे मे शुमार है जिससे मै ज़बरदस्त प्रभावित रहा हूं, चुस्त निर्देशन, सशक्त पटकथा, प्रभावशाली अभिनय, अनुरुप प्रकाश व्यवस्था, पाञाे का सही चयन, नाटक की गति, अभिनेताओ का आपसी तालमेल. वाह ! रंगमंदिर के मंच पर उस दिन जो हुआ वह अदभुद था |

जिस समय बकरी नाटक प्रकाशित होकर बाजार में आया उस समय मणि मधुकर के दो नाटक 'रस गंधर्व' और 'दुलारी बाई' , मुद्राराक्षस जी का नाटक 'आला अफसर' और लक्ष्मी नारायण लाल के दो-तीन नाटक काफी खेले जा रहे थे| इसके अलावा रामेश्वर प्रेम, बादल सरकार ,विजय तेंदुलकर के नाटक भी नाट्य मंडलियों की पसंद बन कर उभरे थे ,लेकिन उस समय भी यह देखा गया था कि नाटक मंडलियों का मोह मोहन राकेश के दो नाटक 'आधे- अधूरे' और 'आषाढ़ का एक दिन' तथा धर्मवीर भारती का कालजेयी नाटक 'अंधायुग' की तरफ ही ज्यादा था | राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में उन दिनों 'बेगम का तकिया' जैसे भव्य नाटक खेले जा रहे थे|  

इन सब नाटकों में एक चिंता की बात यह थी कि यह खर्चीले थे| इनकी तुलना में सक्सेना जी का नाटक बकरी मंच पर कम तड़क-भड़क के साथ अधिक प्रभाव उत्पन्न करने वाला साबित हुआ था | इसकी एक वजह यह भी थी कि नाटककार एक कवि भी था उनका कवि होना उनके नाटय लेखन के लिए एक अतिरिक्त विशेषता साबित हुई| उसी समय सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी का एक अन्य नाटक अब 'गरीबी हटाओ' भी काफी पसंद किया जा रहा था | लोगों को इस लेखक से और भी अधिक नाटकों की उम्मीद थी, लेकिन उनके असामयिक निधन ने रंगमंच को गहरी क्षति पहुंचाई |

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना द्वारा लिखित नाटक बकरी के निर्देशक थे मिर्जा मसूद | मिर्जा मसूद रायपुर के रंगमंच पर पिछले कई कई वर्षों से एक ऊंचे मुकाम पर खड़े हुए हैं | इस नाटक में मिर्जा मसूद ने अपनी निर्देशकीय क्षमता का लोहा मनवाया था नाटक की हर एक प्रेम में निर्देशक मौजूद था, इस नाटक में रायपुर शहर के बहुत से दक्ष अभिनेता एक साथ मंच पर मौजूद थे |नाटक एक व्यंग था और अभिनेताओं ने अपने निर्देशक का जबरदस्त साथ दिया था | मंच पर बेहतरीन अनुशासन ,उम्दा संवाद संप्रेषण ,अनुकूल संगीत, और परिणाम जिसे फिल्मी भाषा में कहा जाता है सुपर डुपर हिट |उस नाटक में जहां तक याद आ रहा है घनश्याम शेंद्रे ,आबिद अली , शाहनवाज ,शंकर चक्रवर्ती , दिनेश दुबे ,अजीज कबीर, मिनहाज असद , नीलिमा काठोटे वगैरा-वगैरा उस समय के नामचीन अभिनेता मौजूद थे लेकिन जिन के कंधे पर यह नाटक सफलता की ऊंची उड़ान भरा वह अभिनेता थे मोईज़ कपासी , इनके सहज अभिनय ने नाटक को नाटककार की कल्पना के अनुरूप एक सशक्त प्रस्तुति में परिवर्तित कर दिया था |

मिर्जा मसूद हमेशा से सक्रिय रहे हैं | मिर्जा भाई के सामने कई निर्देशकों ने अभिनेताओं ने अपनी रंगमंच की पारी शुरू की और वह रिटायर हो गए लेकिन मिर्जा भाई आज भी अपने पूरे दमखम के साथ रायपुर के हिंदी रंगमंच पर अपनी सेवाएं दे रहे हैं | मिर्जा मसूद के द्वारा निर्देशित अन्य महत्वपूर्ण नाटक है एक सत्य हरिश्चंदर ,अंधों का हाथी ,अंधायुग, सबरंग मोहभंग, कबीरा खड़ा बाजार में, चंद्रमा सिर उर्फ चंपू ,गोदान ,अंधा युग , लोककथा 78 , पगला घोड़ा , तमाशा, | मिर्जा मसूद के नाटकों में जिन महत्वपूर्ण रंगकर्मियों ने काम किया है उनमें महत्वपूर्ण लोग हैं श्री मोबिन शम्स, जावेद इकराम हैदर ,अमर पांडे , जयप्रकाश मसंद ,शोभा यादव ,दिनेश दुबे, मकीउदीन अहमद , मिनहाज असद ,याेगेश नैयर ,निसार अली ,ज्वाला कश्यप, कीर्ति आयंगर ,इस्माइल खान, सलीम अंसारी बलदेव संधू आदि |

मिर्ज़ा मसूद पहले अविंतका के बैनर तले रंगकर्म किया करते थे उसके पश्चात वे इप्टा से जुड़े और उसके बाद वे महाकोशल नाट्य अकादमी के बैनर तले काम करने लगे लेकिन उन्होंने अवंतिका में अपना बेहतर रंगकर्म किया था |

मिर्ज़ा मसूद ने रायपुर के रंगमंच के लिए जो किया है उसके लिए रायपुर का रंगमंच उन्हें सदा सदा याद रखेगा |मैं मिर्जा मसूद की रंगमंचीय सोच उनकी सक्रियता उनकी लगन को सलाम करता हूं और दुआ करता हूं कि मंच का यह विशेषज्ञ सदा सक्रिय रहे ,स्वस्थ रहे , उम्र दराज़ रहे |

-अखतर अली
रायपुर (छत्तीसगढ)
मोबाइल न. 9826126781

अभिनेता, अभिनेत्री और आज का रंगमंच

-पुंज प्रकाश 
प्रचलित मान्यता यह है कि रंगमंच के केंद्र में अभिनेता- अभिनेत्री हैं। यह बात आज सुनने में भले ही बहुत सुकूनदायक लगे किन्तु इस कथन में जितनी सच्चाई है, उससे कहीं ज़्यादा मात्रा झूठ का है। रंगमंच के मंच के आगे (दर्शकदीर्घा) से यह बात पूर्ण सत्य का आभास देता है क्योंकि दर्शक दीर्घा से रंगमंच के मंच पर अभिनेताओं, अभिनेत्रियों का जीवंत अभिनय सबसे ज़्यादा प्रभावशाली और जादुई प्रतीत होता है। दर्शक इन्हीं के साथ भावों, संवादों और संवेदनाओं के मर्म को पकड़कर रंगमंच के जादुई यथार्थ में गोते लगाते हैं लेकिन मंच के परे, रंगमंच के पुरे चक्रव्यूह में प्रवेश कर यदि झांके तो स्थिति की दयनीयता और क्रूरता बिलबिला कर सामने आ जाती है; और हम देखते हैं कि जिस चीज़ को हम रंगमंच का केंद्र बिंदु मान रहे हैं दरअसल उसकी स्थिति प्रजातंत्र के उस जनता से कुछ ज़्यादा अच्छी नहीं है जो अपनी दयनीय स्थिति और अमानवीय दरिद्रता से मुक्ति हेतू तमाम प्रकार के लुभावने नारों के शोर में दिग्भ्रमित हो इस डर से एवीएम मशीन का बटन दबा आता है कि कहीं उसकी अंतरात्मा चुनाव नामक पवित्र और कर्तव्यनिष्ठ पर्व में सम्मिलित न होने के लिए उसे दुतत्कारने न लगे। यहाँ भी जनता को नायकत्व का टैग लगा है ठीक उसी प्रकार जैसे कि रंगमंच में अभिनेता-अभिनेत्री को केंद्र-बिंदु का। जबकि दोनों की स्थिति किसी कठपुतली जैसी ही है।

यह कब हुआ, कैसे हुआ, क्यों हुआ - यह एक इतिहासिक अध्ययन का विषय है लेकिन यह सच है कि रंगमंच में अभिनेता पहले आया बाकि चीज़ें बाद मे। अब बाद मे आए प्राणी ने चुपके से कैसे और क्यों अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया, यह भी खोज का विषय है। लेकिन एक बात तो सच है कि सारा खेल सत्ता और धन का है। तभी तो सबकुछ झेल कर संघर्ष कर रहा अभिनेता निर्देशक बनते ही ठीक उसी सत्तावादी की तरह व्यवहार करने लगता है, जिससे कि कभी वह स्वयं त्रस्त रहा है। यह शायद पूंजीवाद का ही गोल पहिया है जो घूमता रहता है - गोल गोल। अर्थात हालत ठीक संसद वाली ही है जहाँ सत्ता पक्ष सत्तावादी और विरोध पक्ष विरोधवादी प्रवृति का शिकार होता है और सत्ता पक्ष का विरोध में या विरोध पक्ष का सत्ता में आ जाने से कोई ख़ास मुलभुत और नीतिगत बदलाव प्रत्यक्षतः देखने को नहीं मिलता।

रंगमंच एक सामूहिक कार्य है यदि यह सच है तो सामूहिकता का सिद्धांत यह कहता है कि समूह में कोई छोटा - बड़ा, कमज़ोर - मजबूत, ज़रूरी - गैरज़रूरी, फ़ालतू - महत्वपूर्ण नहीं होता बल्कि सब बराबर होते हैं। सबकी अपनी - अपनी भूमिका होती है और सामूहिकता का वजूद एक दूसरे के परस्पर सहयोग और विश्वास पर टिका होता है। लेकिन जब रंगमंच करते हुए एक व्यक्ति दूसरे पर मालिकाना हक जताने लगता है और दूसरे के मुकाबले में पहला आर्थिक और प्रसिद्धि के रूप में सम्पन्नता की ओर अग्रसर होने लगता है तो संदेह होना लाजमी है। वैसे ह्रास तो पुरे समाज में हुआ है फिर रंगमंच उससे अछूता कैसे रह सकता है? क्या श्रम के ऊपर पूंजी और सत्य के ऊपर फरेब, ईमादारी के ऊपर बेईमानी की सत्ता समाज में और प्रखरता से स्थापित नहीं हुई है? तो यही हाल रंगमंच का भी है, क्योंकि रंगकर्मी कोई आसमान से तो टपके नहीं हैं बल्कि वो भी इसी समाज के ही अंग हैं।

भारतीय रंगमंच का इतिहास बहुत पुराना होने के पश्चात भी उसका मूल स्वरुप अभी भी शौक़िया ही है और सामाजिक स्तर पर उसकी स्वीकृति लगभग उपेक्षित वाली ही है। कुछ राज्यों में अपवाद स्वरुप स्थिति थोड़ी बेहतर है लेकिन वहां भी आदर्श स्थिति तो नहीं ही है। हिंदी क्षेत्र की मध्यवर्गीय और सामंती मानसिकता आज भी इसे अधिकांशतः नाचनियां - बजनियां का ही पेश मानती है। फिर यह भी धारणा प्रखर रूप से विद्दमान है कि नाटक का कार्य उत्सवधर्मिता और मनोरंजन मात्र है। ऐसे माहौल में वर्तमान में ग्रुप थियेटर का लुप्त होना और लगभग एनजीओ के जैसा व्यक्ति-केंद्रित नाट्य दलों का अस्तिव में आ जाना एक कठिन समस्या है। वहीँ ग्रांट कल्चर भी ज़ोरो पर है। तो अब अमूमन नाटक कम प्रोडक्ट ज़्यादा तैयार हो रहे हैं। ग्रुप थियेटर जहाँ अपने तमाम खूबियों-खामियों के बावजूद एक अनुशासन सिखलाता था वही व्यक्ति केंद्रित रंगमंच जोड़-तोड़ के सहारे अपना काम निकलना और जैसे-तैसे एक नाटक को निपटा भर देना सिखला रहा है। ऐसे में जो थोड़ी बहुत प्रशिक्षण की प्रक्रिया चलती भी थी वह भी लगभग बंद हो गई है। नाटकों की संख्या में तो इज़ाफ़ा हुआ है लेकिन गुणवत्ता घोर रूप से प्रभावित हुई है। प्रोफेशनल्स के नाम पर ऐसी व्यूह रचना देखने को मिलती है जो अपने ही नाटकों में कही बातों को खुद नहीं मानता। ऐसे समय में सामाजिक और नैतिक ज़िम्मेदारी की बात, शराब के उस बोतल की तरह हो गई है जिसके अंदर बस महक बची है। अपने नए रंगकर्मियों का सही मार्गदर्शन करने का वक्त अब शायद ही किसी के पास है। सबको फोकटिया कलाकार चाहिए। हद तो यह है कि जनवादी संस्कृति के वाहक होने का दावा ठोकनेवाले कई दल भी इस बहती गंगा में किस्मत आजमाने में ज़रा सा भी संकोच नहीं कर रहे हैं।

गत कुछ वर्षों से विभिन्न प्रकार के अनुदानों के नाम पर कुछ पैसा रंगमंच के हिस्से भी आया है लेकिन इस पैसे के आगमन से बुरे और अ-कलात्मक परिणाम ही ज़्यादा देखने को मिला है। यहाँ समस्या पैसे के आगमन का नहीं बल्कि उसके उपयोग का है। ज़्यादा से ज़्यादा पैसा बचा लेने की बेचैनी ने जहाँ एक तरह झूठ और फरेब का खेल रचा है वहीँ रंगकर्मियों का आपसी वैमनस्य भी बढ़ा है। निर्देशक अब एक कलाकार कम दुकानदार ज़्यादा प्रतीत होने लगा है। बही खाते के खर्च के कॉलम में जिस मद में जितना रुपया भरा जाता है उतना गिने-चुने लोग ही खर्च करते हैं। जहाँ तक सवाल नाटक में कार्य कर रहे अभिनेताओं के मानदेय का है तो किसी भी एक नाटक में उनके मानदेय की सही राशि जानकार कोई भिखारी भी उनका उपहास उड़ा सकता है। लगभग यही दशा विभिन्न प्रकार के कुकुमुत्ते जैसे उग आए NGO जैसे सरकारी अनुदानधारी रंगमण्डलों के अभिनेता-अभिनेत्रियों की है। महोत्सव अनुदान की हालात तो यह है कि तीसरे दर्ज़ का इंतज़ाम के साथ वह नाटकवालों पर चंद हज़ार भी बड़े सोच-सोचकर खर्च करते हैं वही उस नाटक में यदि फ़िल्म में काम करनेवाला/वाली कोई कलाकार हो तो फिर लाखों रुपए हंस-हंसके उड़ा दे सकते हैं। हो सकता है कि एक नाटक करनेवाले दल के कुल खर्च के बराबर एक फ़िल्म कलाकार वाले नाट्यदल की शराब का बिल हो।

यदि सबकुछ ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब अभिनेताओं के नाम पर केवल “रद्दी माल” ही बचेगा रंगमंच के पास।अभी के समय का तो क्रूरतम सत्य है कि क्या अभिनेता-अभिनेत्री रंगमंच में अभिनय करते हुए अपना व अपने परिवार का जीवकोपार्जन कर सकता है? इस सवाल का जवाब है – नहीं, बिलकुल ही नहीं। कम से कम हिन्दी रंगमंच मे तो नहीं ही।

आलेख “आजकल” मई २०१६ अंक में प्रकाशित

Author-activist Noor Zaheer discusses India’s fight for secularism

(Indian Intellectual, Journalist, Writer, Human Rights Activist, Dr. Noor Zaheer is currently touring Canada, at events arranged by several progressive, labor, and rights organizations in Canada.
Her first lecture was to an audience of progressive writers and readers in Mississauga. Progressive Writers Association Canada, Writers Forum Canada, Family of the Heart, and Committee of Progressive Pakistani Canadians were the lead organizers for this event.
The following report by Mayank Bhatt for his blog “Generally about Books” provides the details of the event.
Noor Zaheer, an author, and a member of the Communist Party of India, is in Canada to inform people about the worsening human rights situation in India under the Narendra Modi government. The first lecture in the series was held at the Living Arts Centre in Mississauga Saturday.
Forthright and frank in expressing her views, Noor Zaheer said the Modi government is determined to propagate its peculiar brand of right-wing Hindutva nationalism that is impervious of India’s inherently liberal democratic traditions. She said Modi’s government is not just against the minorities, but even the majority that differ with the Sangh Parivar on the fundamental issue of the basis of Indian nationhood.
Analyzing the last two years of the BJP-led government in New Delhi, Noor Zaheer, who is the President of the Delhi unit of National Federation of Indian Women, and the Indian People’s Theatre Association, said that in addition to targeting the minorities, the government has targeted the farmers by several policy decisions aimed at cutting subsidies; the Adivasi (indigenous) population because it occupies lands rich in minerals that the government wants to parcel out to transnational corporations; and against the student community.
Delving deeper on the subject of persecution of the students, she said the determined manner in which Modi’s supporters have been attacking students in universities such as the Jawaharlal Nehru University (JNU), the Hyderabad University, and the Jadavpur University reveals that the ultra-right is determined to take control of the educational institutions and prevent democratic debate. Noor Zaheer said writers have a duty to raise their voices against such an oppressive regime.
Earlier, she traced the history of the Progressive Writers’ Association, of which her father Syed Sajjad Zaheer was one of the main founders. She said even writers who have no linkages with the left ideology have returned their government bestowed awards in protest of the Modi regime’s and the Sangh Parivar’s anti-minority actions.

The organizers of the program also launched the book Progressive Ideas and Ideals in Urdu Literature(with special reference to Syed Sibte Hassan and the Progressive Writers’ Association) edited by Khalid Sohail, Omar Latif and Abbas Syed. Two of Noor Zaheer’s books Denied by Allah and My God is a Woman were also made available at the event.
My God is a Woman is a novel; Denied by Allah is a book that about “stories of women for whom even God does not seem to have mercy.” It “discusses medieval laws irrelevant in the 21st century sexist biases that pass for conventions, life impacting decisions made only by men which have denied women basic respect and protection; dignity and humaneness, often in the name of religion.”
The program was organized with the support of the following organizations: Alternatives; Centre de recherché et d’action sociales; Committee of Progressive Pakistani-Canadians; Family of the Heart; Hari Sharma Foundation for South Asian Advancement; GTA West Club Communist Party of Canada; Indo-Canadian Workers’ Association; Progressive Writers’ Association Canada; Writers’ Forum Canada, South Asian Network for Secularism and Democracy.

मुंबई में ‘गांधी ने कहा था’ और ‘कोर्ट मार्शल’ का होगा मंचन

मुंबई। आगामी 4 व 5 जून 2016 को स्थानीय साठे ऑडिटोरियम में ‘कबीर’ समूह द्वारा दो दिवसीय नाट्योत्सव का आयोजन किया जा रहा है। नाट्योत्सव में प्रतिदिन दो नाटकों का मंचन किया जायेगा।

नाटक ‘पहले आप’ का मंचन दोनों ही दिनों में प्रथम प्रस्तुति के रूप में संध्या 5:30 बजे से किया जायेगा। यह नाटक इफ्तिखार ने लिखा है।पहले दिन की दूसरी प्रस्तुति के रूप में संध्या 7:30 बजे राजेश कुमार लिखित नाटक ‘गांधी ने कहा था’ का मंचन किया जाएगा।

दूसरे दिन 5 जून 16 को नाटक ‘पहले आप’ की पुनरप्रस्तुति होगी। आयोजन का अंतिम नाटक ‘कोर्ट मार्शल’ होगा। स्वदेश दीपक लिखित यह नाटक देश भर में सबसे ज्यादा खेले व सराहे गये नाटकों में से एक है। सभी नाटकों के निर्देशक शाहिद कबीर है। 

अधिक सूचना के लिए 9769524742 व 8976453232 पर संपर्क किया जा सकता है