Friday, April 15, 2016

प्रतिबद्धता, जनपक्षधरता और सर्वहारा के संघर्ष की रचनाएँ

-टीकाराम त्रिपाठी

3 अप्रेल 2016 को प्रगतिशील लेखक संघ, सागर ने वरिष्ठ कहानीकार-उपन्यासकार श्री महेन्द्र फुसकेले के काव्य संग्रह ‘‘स्त्री तेरे हजार नाम ठहरे’’ के लोकार्पण का आयोजन किया। इस समारोह के मुख्य अतिथि थे प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव विनीत तिवारी और समारोह की अध्यक्षता की प्रलेसं अध्यक्ष मंडल के सदस्य महेन्द्र सिंह ने। 

कार्यक्रम का प्रारंभ देश के प्रख्यात लोकगायक श्री शिवरतन यादव के कबीर के भजन और लोककवि ईसुरी की कविताओं के गायन से हुआ। काव्य संग्रह के लोकार्पण के बाद अपने सम्बोधन में प्रलेसं मध्य प्रदेश के महासचिव विनीत ने महेन्द्र फुसकेले की कविताओं पर बात करते हुए कहा कि वर्तमान में जिस तरह का हमला आजादी की अभिव्यक्ति के ऊपर है वो लड़ाई लेखक और कलाकार सदियों से लड़ते आए हैं। ये लड़ाई जल्द ठहरने वाली नहीं है। सामन्तवाद, पूंजीवाद और पितृसत्ता सदियों से हमारे मानस के अंदर, हमारी मानसिकता के अंदर पैठ कर चुकी है उससे उबरने के लिए हमें रोज भीतर और बाहर लड़ते रहना होगा। आज की स्थिति में अनेक शब्दों को नया अर्थ दिया जा रहा है। राष्ट्रवाद के नाम पर हर एक की आवाज को कुचला जा रहा है और सबके लिए शोषण से आज़ादी चाहने वालों को देशद्रोही साबित करने की साजि़शें की जा रही हैं। ऐसे में फुसकेलेजी की कविताएं, भले वो गढ़न में कच्ची हों पर एक मनुष्य और रचनाकार के नाते राष्ट्रवाद के हमारे बुनियादी संकल्प को पुख्ता करती हैं कि हमें वंचितों, शोषितों के हक में अपनी कलम चलानी है। उनकी कविताओं से नेरुदा की याद आती है कि ‘जब सड़कों पर खून बह रहा हो तो कविता सिर्फ फूल-पत्तियों की बात नहीं करती रह सकती।’

उन्होंने कहा कि कबीर जब लिख रहे थे तो भाषाविद उनका मूल्यांकन नहीं कर रहे थे क्योकि जब जन की बात होती है तो अनेक शास्त्रीय रूप टूटते हैं। लेकिन जनता ने उन्हें पहले अपना प्रवक्त्ता स्वीकार किया, बाद में वे साहित्यकारों द्वारा स्वीकृत हुए। कथ्य और रूप की लंबी लड़ाई है लेकिन अंततः जनपक्षधरता पैमाना बनती है कि आप किस ओर खड़े हैं।

राष्ट्रवाद के सवाल पर विनीत तिवारी ने कहा कि जो लोग आज राष्ट्रवाद की बात कर रहे हैं उनके लिए अडानी, अंबानी राष्ट्र हैं, या छत्तीसगढ़, उड़ीसा, जेएनयू, हैदराबाद यूनिवर्सिटी और हर तरफ़ पूंजीवाद के षिकंजे में छटपटा रहे लोग राष्ट्र हैं। उन्होंने आह्वान किया कि ये वक़्त है जब लेखकों, कलाकारों को झूठे राष्ट्रवाद के खि़लाफ़ सही राष्ट्रवाद की परिभाषा लोगों के सामने लानी चाहिए। ये कविताएं उसी प्रयास का एक हिस्सा हैं चाहे ये कविताएं चाहे कितनी भी नयी हों लेकिन ये उसी प्रगतिषील कोशिश का एक हिस्सा हैं। इस उम्र में भी उन्होंने नई जमीन तोड़ने की कोशिश की है, ये एक वामपंथी विचार से ओत-प्रोत व्यक्ति के अंदर ही संभव है। विनीत तिवारी ने रवीन्द्रनाथ ठाकुर को याद करते हुए कहा कि रवीन्द्रनाथजी ने भी अस्सी वर्ष की आयु में चित्र बनाना शुरू किए और वे बड़े चित्रकार के रूप में जाने जाते हैं। रचनाकार का कभी अंत नहीं होता। यहाँ रास्ता ही मंजि़ल है। फुसकेलेजी मूलतः गद्य रचनाकार हैं। उन्होंने इस उम्र में कविताएं लिखना प्रारंभ किया यह निष्चित ही अनुभव के सार की बात है। अभी तो उन्होंने अट्ठारह कविताएं लिखकर संग्रह प्रकाशित किया है हम आश्वस्त हैं कि वे आने वाले समय में एक सौ अस्सी कविताएं लिखेंगे। उन्होंने फुसकेलेजी के प्रतिबद्ध व रचनात्मक जीवन में उनकी जीवनसाथी के सहयोग को भी नमन किया।

श्री कैलाश तिवारी विकल ने काव्य संग्रह की समीक्षा करते हुए कविता की आवश्यकता और कविता की विषयवस्तु पर अपने विचार रखे। इस काव्य संग्रह के रचनाकार महेन्द्र फुसकेले ने कहा कि सारे रचनाकर्म का उद्देश्य और लक्ष्य यही है कि मनुष्यता बची रहे।

समारोह के अध्यक्ष महेन्द्र सिंह ने काव्य संग्रह पर बात करते हुए कहा कि फुसकेलेजी ने अभी तक उपन्यास, कहानियां और समीक्षत्मक लेख लिखे हैं लेकिन अब कविताएं लिख रहे हैं ये बड़ी खुशी की बात है। वस्तुतः कविता; रस और आनंद की सृष्टि करती है। भारतीय काव्यशास्त्र की परिभाषाओं के साथ सुमित्रानन्दन पंत का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि फुसकेलेजी की कविताएं सामाजिक विसंगतियों को उजागर करती है। उन्होंने कहा कि इस काव्य संग्रह कि कविता ‘चला चली की बेरा’ कबीर की शैली की कविता को निरूपित करती है। कार्यक्रम का संचालन प्रलेसं इकाई के अध्यक्ष टीकाराम त्रिपाठी ने किया।
दिनेश साहू और दीपा भट्ट ने अतिथियों को स्मृति चिन्ह भेंट कर स्वागत किया और आभार व्यक्त किया टीकाराम त्रिपाठी ने। डॅा. एम. के. खरे का विशेष सहयोग रहा।

इस कार्यक्रम में जीवनलाल जैन, लक्ष्मीनारायण चैरसिया, विष्णु पाठक, निर्मलचंद जैन ‘निर्मल’, शुकदेव प्रसाद तिवारी, अशोक मिजाज, गजाधर सागर, आशीश निःषंक, मणिकांत चौबे, मधुसूदन शिलाकारी, हरिसिंह ठाकुर, आनन्द प्रकाश त्रिपाठी तथा बीना से महेश कटारे ‘सुगम’, सागर से ही उमाकान्त मिश्रा, मनीषचंद झा, अंजना चतुर्वेदी, महेश तिवारी, मनोज श्रीवास्तव, पुरुषोत्तमलाल तिवारी, आशा जैन, एम. डी. त्रिपाठी, गोविन्ददास नगरिया, रमाकांत मिश्र, अशोक पाण्डेय, अशोक फुसकेले, अनिल जैन, निरंजना जैन, विश्वनाथ चौबे, अलीम अहमद खान, यू. बी. एस. गौर, राजेन्द्र पाण्डेय, देपेन्द्र सिंघई, पुष्पदंत हितकर, नलिन जैन, आशीष ज्योतिषी, व्ही. एन. सरवटे, रश्मि ऋतु जैन, और श्रीमती चन्दा फुसकेले, पेट्रिस फुसकेले, नम्रता फुसकेले, प्रिया तथा सागर के कला एवं संस्कृति से जुड़े अन्य लोग भी उपस्थित थे।
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