Tuesday, December 27, 2016

‘हमारे समय में’ का मंचन 28 दिसम्बर को

प्टा रायगढ़ के तेइसवें नाट्य समारोह के चौथे दिन बहरूप आर्ट ग्रुप दिल्ली द्वारा प्रस्तुत नाटक ‘हमारे समय में’ का मंचन किया जाएगा। इस नाटक के लेखक हैं शाहिद अनवर और निर्देशक हैं के. एस. राजेन्द्रन।

‘हमारे समय में’ एक आधुनिक त्रासदी है। ‘हमारा समय’ आज बहुदलीय मिलीजुली राजनीति की अनिश्चितताओं, वैचारिक खोखलापन, सैटेलाइट चैनल्स जो आज खबरों का उत्पादन कर रहे हैं उदारीकरण/बाज़ारकेन्द्रित अर्थव्यवस्था और करोड़ो डॉलर के आध्यात्मिक उद्योगों का साक्षी है। इस राजनैतिक पृष्ठभूमि पर एक युवा उग्र मार्क्सवादी के अस्तित्ववादी असमंजस को नाटक में चित्रित किया गया है। इसतरह का नाटक अपने अभिनेताओं से विचारों की तीव्रता एवं स्पष्टता की अपेक्षा रखता है। यह नाटक आज के एकरेखीय विश्व के पतन को रेखांकित करता है। इसतरह के विश्व में वैकल्पिक अस्तित्व के लिए सभी संभावनापूर्ण दृष्टियाँ खो जाती हैं। जब प्रतिरोध की परम्परा छीजती जा रही हैं, ऐसे समय में सपनों और आशाओं को किसतरह बचाकर रखने की कोशिश की जाती है।

उल्लेखनीय है कि बहरूप आर्ट ग्रुप प्रसिद्ध लेखक शाहिद अनवर की ही नाट्य संस्था है। इप्टा रायगढ़ के लोकप्रिय नाटक ‘बी थ्री’ के लेखक शाहिद अनवर ही हैं। शाहिद अनवर के दुखद निधन के बाद 17 से 20 नवम्बर 2016 को उनकी स्मृति में दिल्ली में बहरूप आर्ट ग्रुप द्वारा उनके लिख हुए चार नाटकों का समारोह आयोजित किया था, जिसमें इप्टा रायगढ़ ने भी ‘बी थ्री’ का मंचन किया था।

नाटक पॉलिटेक्निक ऑडिटोरियम में शाम सात बजे से आरम्भ होगा। प्रवेश निःशुल्क है।



चर्च पंसद हैं मुझे

-राजकुमार सोनी 

ह तब लिखा था जब बंसत तिमोथी जिंदा थे। बंसत तिमोथी कौन है क्या है इसका जिक्र आगे करूंगा।
फिलहाल यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि मुझे चर्च पंसद है। बहुत ज्यादा पंसद है। देवदार और पलाश के बड़े-बड़े पेड़ों की वजह से चर्च मुझे हमेशा से आकर्षित करते रहे हैं।


चर्चों के प्रति मेरे आकर्षण की एक वजह यह भी रही है कि भिलाई सेक्टर छह की एक चर्च में मेरा दोस्त अलीवर जैकब हर संडे कांगो बजाने जाया करता था। अलीवर की वजह से मैं यह जान पाया था कि कैसे आरडी बर्मन बिस्किट के खाली डिब्बे, खाली बोतलें और कंघी के उपयोग से संगीत पैदा कर दिया करते थे। अपने पिता के रिकार्ड प्लेयर से गाना सुन-सुनकर मैं थोड़ा बहुत गाने लगा था। संगीत में आरडी का प्रभाव पैदा करने के लिए मैने और अलीवर ने स्कूल की लगभग हर टेबल और कुर्सी को ठोंक-बजाकर कांगों में तब्दील कर दिया था। हम दोनों ऐसी टेबल पर बैठते थे जिसमें बूम-बूम-धूम-धूम की आवाज निकलती थी। जैसे ही आधी छुट्टी होती मैं और अलीवर चालू हो जाते थे। मुझे अलीवर की दोस्ती इसलिए भी पंसद थीं क्योंकि पूरे स्कूल में वहीं एक था जो हर रोज बोरोलीन लगाकर आता था और मैं बोरोलीन की खूशबू के पीछे पागल था। अलीवर अपने टिफिन बाक्स में मेरे लिए कुछ न कुछ तो लाता ही था। कई बार कागज में छिपाकर बोरोलीन भी ले आता था।

चर्च के प्रति एक आकर्षण की दूसरी वजह हिंदी फिल्म देवता भी थीं। संजीव कुमार, शबाना आजमी और डैनी के अभिनय से सजी इस फिल्म का एक गीत- चांद चुराके लाया हूं... मुझे बेहद पंसद था। अब भी है। मुझे लगता था शबाना से मिलने-जुलने का संजीव कुमार ने बढिय़ा ठिकाना खोजा है। बाग-बगीचों में प्रेम की बात करने वाले नौजवान लड़के-लडकियों को डरा-धमकाकर पैसे वसूलने वाली पुलिस चर्च के पीछे तो जा ही नहीं सकती क्योंकि सामने ईशु खड़े होंगे जो उन्हें रोक लेंगे।

एक रोज मैंने अलीवर से कहा कि चर्च देखना है। हमने एक योजना बनाई। हम स्कूल जाने के लिए साथ निकले लेकिन स्कूल न जाकर विजय और बंसत टाकीज में फिल्मों के पोस्टर देखने चले गए। हमारी योजना थीं कि हम फिल्मों के पोस्टरों को देखने के बाद चर्च आएंगे और फिर घर जाकर कह देंगे स्कूल से आ गए।

हम चर्च पहुंचे। चर्च में प्रवेश करते ही मैं ठीक वैसे ही चिल्लाने लगा जैसे फिल्म मधुमति में दिलीप कुमार- सुहाना सफर ये मौसम हंसी... गाने के पहले हे.. हो.. हो करके चिल्लाता है। मैं चिल्लाता रहा और आवाज टकराकर मुझ तक पहुंचती रही, लेकिन थोड़े ही देर में मेरी यह खुशी काफूर हो गई। फिल्म अमर-अकबर-अंथोनी में अभिताभ बच्चन को समझाने वाला एक फादर जैसा फादर हमारे सामने खड़ा था। फादर ने हमें समझाया कि जब कोई प्रार्थना में लीन हो तो उसे डिस्टर्ब नहीं करना चाहिए।

मैं और अलीवर उस जगह पहुंच गए, जहां बड़ी सी मोमबत्ती जल रही थी। वहां गहरे कत्थे रंग का स्कार्फ पहने हुए एक बूढ़ी औरत और हल्का गुलाबी फ्राक पहनी हुई एक खूबसूरत लड़की प्रार्थना कर रही थी। अलीवर और मैं उस बूढ़ी औरत के बगल में घुटनों के बल बैठ गए। अलीवर ने तो प्रार्थना की मुद्रा अख्तियार कर ली, लेकिन मैं यह सोचकर हाथ नहीं जोड़ पा रहा था कि घर में पता चलेगा तो क्या होगा? मां ने हर फोटो के सामने अगरबत्ती घुमाना सिखाया था तो मन मोमबत्ती देखकर थोड़ा हिचक रहा था। इसी हिचक के चलते मैं कभी सुलभा देशपांडे के समान दिखने वाली बूढ़ी औरत को देखता रहा तो कभी निरमा वाशिंग पाउडर के चित्र जैसी नजर आने वाली लड़की को। लड़की कुछ बुदबुदा रही थी। मैंने अलीवर से पूछा- लड़की क्या बोल रही है। उसने बताया- ईशु से कुछ मांग रही है। मैंने चर्च में अपने देवी-देवताओं का आह्वावान किया। जितने भगवानों को अगरबत्ती लगाने के दौरान जानता था उन सबसे मैंने कहा- बुढिय़ा और ये लड़की ईशु से जो कुछ मांग रहे हैं तुम उन्हें दे देना।

इसके बाद जब कभी भी मुझे अवसर मिलता मैं चर्च जरूर जाता रहा। यहीं पर मैंने कांगो-बांगो, मरकस, एकार्डियन, सेक्सोफोन और वायलिन के साथ समूह में 'प्रभु ईशु आया मेरा जीवन बदला.. यहां पाप नहीं यहां पुण्य नहीं जैसा गीत सुना था। एक रोज मुझे - जो क्रूस पे कुरबां है वह मेरा मसीहा है, हर जख्म जो उसका है वह मेरे गुनाहों का है। इस गीत ने परेशान कर दिया। काफी दिनों तक मैं यह सोचता रहा कि क्या ईशु सचमुच हमारे गुनाहों की वजह से क्रूस पर चढ़े थे? काफी खोजबीन के बाद यह पता चला कि गीत की धुन को छत्तीसगढ़ के बंसत तिमोथी नामक शख्स ने तैयार किया था। तिमोथी जी जबरदस्त वायलिन बजाते थे। छत्तीसगढ़ में आने से पहले तिमोथी जी जबलपुर की प्रसिद्ध मसीही संस्था स्वर संगम प्रभात में काम किया करते थे। यह संस्था रेडियो सीलोन के लिए कार्यक्रम बनाया करती थी। देश- दुनिया के चर्चों में आज भी तिमोथी जी के संगीतबद्ध किए गए गीत बज रहे हैं।

दोस्तों चर्च जाता हूं तो बहुत कुछ याद आता है। बचपन याद आता है। अलीवर जो अब इस दुनिया में नहीं है.. वह याद आता है। तिमोथी जी भी नहीं है लेकिन वंदना करते हैं हम... रेडियों सीलोन में सुबह-सुबह बजने वाली प्रार्थना याद आती है। हर साल २५ दिसम्बर को चर्च जरूर जाता हूं। पिछले साल अपने एक अजीज दोस्त के साथ रायपुर से बाहर जंगल में था तब हमने एक कैंडल जलाकर ईशु को याद किया था। चर्च में मोमबत्ती लगाते हुए लोग मुझे अच्छे लगते हैं। वहां दिखने वाले बच्चों को देखकर लगता है देश- दुनिया में बहुत सी चीजें खराब है, लेकिन उम्मीद अब भी खूबसूरत ही है और वह बच्चों के रुप में हमारे आसपास मौजूद हैं। चर्च जाकर मैं बचपन में लौट जाता हूं। एक अजीज दोस्त का कहना है कि मैं अब भी बच्चा हूं। दोस्त को क्या मालूम कि मैं अपने भीतर के बच्चे को बचाकर रखने के लिए भी हर रोज जानबूझकर चर्च के सामने से गुजरता हूं


Saturday, October 8, 2016

इप्टा पर फ़ासिस्ट हमला, अधिनायकवादी प्रवृति, गुंडागर्दी है: अरुण कमल

"आज देश में इस तरह का माहौल बनाया जा रहा है कि जैसे हम सोच रहे हैं, जैसे हम खा रहे हैं, पी रहे हैं वैसे ही आप सोचें। ये अधिनायकवादी प्रवृति है, गुंडागर्दी है। जिस मध्य प्रदेश के इंदौर में इप्टा के राष्ट्रीय सम्मलेन पर फ़ासिस्ट हमला हुआ, उसी मध्यप्रदेश में हरिशंकर परसाई को भी पीटा गया था। यह हमारे लिए चुनौती है कि हमें वर्गसंघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए काम करना चाहिए। RSS इस देश का सबसे ख़तरनाक फ़ासीवादी गिरोह है और यह देश की सरकार को नियंत्रित करने का काम कर रहा है."

ये बातें सुप्रसिद्ध कवि अरुण कमल ने इंदौर में हुए भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के 14वें राष्ट्रीय सम्मेलन पर हुए फासीवादी हमले के खिलाफ  कालिदास रंगालय में आयोजित प्रतिरोध सभा में बोलते हुए कहा।

प्रख्यात कवि आलोक धन्वा ने अपने सम्बोधन में कहा "जब हमने दूसरे विश्वयुद्ध में फासीवादी ताकतों को लड़कर पराजित किया तो अब भी क्यों नहीं लड़ सकते। इंदौर में इप्टा के राष्ट्रीय सम्मेलन पर हमला करने वाले आर.एस.एस और उसके अनुषांगिक संगठनो की  आजादी के आंदोलन में कोई भूमिका नहीं थी, इससे जुड़े लोगों ने महात्मा गांधी की उस समय हत्या की जब वे प्रार्थना करने जा रहे थे।ये बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है ऐसे लोग हमारी साझी विरासत पर हमला करने जा रहे हैं।"
चर्चित डाक्टर डा सत्यजीत  ने कहा "आर.एस. इस बजरंग दल जैसे  धर्म व् देश विरोधी लोग आज देशभक्ति की बात कर रहे हैं।जिनका देश की साझी सांस्कृतिक विरासत और परम्परा का न तो कोई ज्ञान है और ना ही सदियों पुरानी इस विशिष्ट पहचान पर कोई आस्था।"

कार्यक्रम की शुरुआत में इंदौर के राष्ट्रीय अधिवेशन में शामिल प्रतिनिधियों की ऒर से तनवीर अख्तर ने पूरे घटना का विस्तार से ब्यौरा देते हुए बताया कि "सबके लिए एक सुन्दर दुनिया के संकल्प के साथ भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा) का 14वां राष्ट्रीय सम्मेलन 02 अक्टूबर, 2016 से 04 अक्टूबर, 2016 तक इंदौर में आयोजित किया गया था, जिसमें देश के 22 राज्यों से 800 से अधिक प्रतिनिधि/कलाकारों ने भाग लिया। राष्ट्रीय सम्मेलन के अंतिम दिन 04 अक्टूबर, 2016 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर. एस. एस.) समर्थित भारत स्वाभिमान संगठन के कार्यकर्ताओं ने आनंद मोहन माथुर सभागृह (ए. के. हंगल रंग परिसर) में चल रहे संगठन-सत्र पर हमला कर सम्मेलन को बाधित करने का प्रयास किया। सभागृह में उपस्थित इप्टाकर्मियों के सशक्त प्रतिरोध की वजह से फ़ासिस्ट ताक़तों को वहां से भागना पड़ा।"

इस अवसर पर पूरे घटना की वीडियो क्लिपिंग भी दिखाई गयी।

वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी अनिल अंशुमन ने अपने  संबोधन में कहा " आज पुरे देश में लिखने पढ़ने वालों पर हमला काफी बढ़ गया है।हमे इसके विरुद्ध एकजुटता की आवश्यकता  है।" 

र्चित साहित्यकार तैय्यब हुसैन पीड़ित ने कहा "आज देश में साम्प्रदायिक ताकतें हिटलर और मुसोलिनी की विचारधारा से प्रेरणा ले रहे हैं. इसलिए ज़रूरी हो गया है कि नाटक करने, गीत गाने , सांस्कृतिक कार्यो के अलावा हम प्रतिरोध को संगठित करें।"

लोक नर्तक विश्वबंधु जी ने इंदौर की घटना की घोर निंदा करते हुए कहा "मैं 1954 से ही इप्टा के जुड़ा हुआ हूँ; लेकिन इंदौर जैसी घटना जिसमे नाटक करने वालो को दबाया जाए ना कभी ऐसा देखा और ना सुना।"

वरिष्ठ रंगकर्मी जावेद अख्तर ने इंदौर के समाचार पत्र "प्रभात किरण" में प्रकाशित ख़बर "इस इप्टा से कैसे निपटा जाए" का पाठ किया और प्रतिरोध सभा में एकजुटता सम्बंधी प्रस्ताव पेश करते  हुए  कहा "हमें फासिस्स्ट ख़तरे के ख़िलाफ़ एकजुट होकर बड़ी गोलबंदी करनी होगी"।

वरीय नाटककार व निर्देशक हसन इमाम ने कहा कि यह हमला देश के प्रजातान्त्रिक मूल्यों पर हमला है। यह हमला दलितों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, किसानों, मजदूरों पर हो रहे हमलों से अलग नहीं है. इसीलिये लेखकों , रंगकर्मियों को दलितों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, किसानों, मजदूरों के साथ कंधा से कंधा मिला कर फासिस्ट हमलों की मुख़ालफत करनी चाहिए।
सभा को वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी कुमार अनुपम, सामजिक कार्यकर्ता रूपेश, युवा रंगकर्मी अजीत कुमार, युवा अभिनेता सुमन कुमार, सामजिक कार्यकर्ता रवींद्र नाथ राय आदि ने सम्बोधित किया।

प्रतिरोध सभा में बड़ी संख्या में रंगकर्मी, कलाकार, सामाजिक कार्यकर्ता शामिल थे। प्रमुख लोगों में अनीश अंकुर, राजन कुमार सिंह, फ़ीरोज़ अशरफ खां, मोना झा, विनोद कुमार, कुमुद कुंदन, विशाल तिवारी, रंजीत, गठन गुलाल, सरफ़राज़, उषा वर्मा, दीपक कुमार,  कथाकार  शेखर, विनय, दीपक, गुलशन, विक्रांत, अभिषेक शर्मा शामिल थें. सभा की अध्यक्षता विश्वबंधु, समी अहमद, आलोक धन्वा और अरुण कमल की अध्यक्ष मंडली ने की.

प्रतिरोध सभा में बिहार आर्ट थिएटर, नटमंडप, प्रेरणा, हिरावल, किसलय, जन सांस्कृतिक मंच, सुरांगन, अभियान, विहान सांस्कृतिक मंच, अक्षरा आर्ट्स, जनविकल्प, बिहार एप्सो,अल खैर, पुनश्च, पटना सिटी इप्टा, पटना इप्टा से जुड़े संस्कृतिकर्मियों, कलाकारों ने भाग लिया। सभा का संचालन युवा रंगकर्मी जयप्रकाश ने किया।

प्रतिरोध सभा में जावेद अख़्तर खां ने पटना के संस्कृतिकर्मियों की ओर से एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया कि 
"इंदौर में विगत 2 अक्टूबर को शुरू हुए इप्टा के 14वें राष्ट्रीय सम्मेलन के अंतिम दिन यानी 4 अक्टूबर 2016 को भारत स्वाभिमान मंच नाम के एक संगठन जिसका किसी ने नाम भी न सुना होगा, के 10-12 उपद्रवी तत्वों ने हमले की कोशिश की। ये मंच पर चढ़ गए और नारेबाजी करने लगे। आयोजकों द्वारा इन्हें बाहर का रास्ता दिखाए जाने के बाद इन्होंने सम्मेलन स्थल पर पत्थरबाजी की जिसमें एक इप्टा कार्यकर्ता घायल हो गया। बाद में इन्होंने स्थानीय विजय नगर थाने पर पहुँच कर उलटे इप्टा के लोगों पर फर्जी प्राथमिकी दर्ज कराने का दबाव बनाया। स्थानीय आर.एस.एस. इकाई ने भी इप्टा सम्मेलन में कथित देश-विरोधी वक्तव्य दिए जाने का फर्जी आरोप लगाते हुए विज्ञप्ति जारी की। अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि कायराना हमला करनेवाले एक नामालूम से, लगभग रातों-रात खड़े हो गए इस संगठन का संबंध किस से है? 

यह घटना संघ समर्थक ताकतों द्वारा लेखकों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों पर लगातार हो रहे हमलों की शृंखला की ताजी कड़ी है। केंद्र की मोदी सरकार और भाजपा शासित राज्य सरकारों के शासन में गाय, देश और धर्म का नाम लेकर अभिव्यक्ति की आजादी, विवेक, समता और सांप्रदायिक सौहार्द्र की संस्कृति पर तथा दलितों और अल्पसंख्यकों पर हमले करनेवाले उन्मादी तत्वों के हौसले बढ़े हुए हैं। लेकिन इन हमलों का प्रतिरोध भी हर कहीं हो रहा है। इप्टा के सम्मेलन पर हमला देश की सांस्कृतिक विरासत के प्रगतिशील पहलुओं पर बढ़ते फासिस्ट हमलों का ही एक और बदतरीन उदाहरण है। 

इप्टा के आंदोलन को जिन महान कलाकारों, फिल्मकारों, चित्रकारों, लेखकों-बुद्धिजीवियों ने खून-पसीना एक कर खड़ा किया, उन्होंने देश ही नहीं दुनिया की मानवतावादी और प्रगतिशील संस्कृति को आगे बढ़ाया है। हम पटना के कलाकार, संस्कृतिकर्मी, सामाजिक कार्यकर्ता और नागरिक इप्टा के राष्ट्रीय सम्मेलन पर हुए हमले की कठोर भर्त्सना  करते हुए हमलावरों और साजिशकर्ताओं की गिरफ्तारी और घटना में मध्य प्रदेश की राज्य सरकार की भूमिका की न्यायिक जाँच की मांग करतें हैं."

Friday, October 7, 2016

श्रद्धांजलि : रंग गुरु एच कन्हाईलाल

ई दिल्‍ली: भारतीय रंगमंच के अप्रतिम निर्देशक ओझा हेस्नाम कन्हाईलाल का गुरुवार दोपहर निधन हो गया. वे फेफड़े के कैंसर से पीड़ित थे. इसी वर्ष उन्हें पद्म भूषण सम्मान दिया गया था. उन्हें पद्म श्री (2003) और संगीत नाटक अकादमी अवार्ड (1985) भी मिल चुका है. वे संगीत नाटक अकादमी के फेलो भी थे.

सावित्री हेस्नाम उनकी पत्नी हैं जो विख्यात रंगमंच अभिनेत्री हैं और उनके पुत्र हेस्नाम तोम्बा उभरते हुए निर्देशक हैं. मणिपुर के कन्हाईलाल ने भारतीय रंगमंच की विविधता को समृद्ध किया. उनकी रंगभाषा में पुर्वोत्तर का शरीर, मानस और वहां की लोक परंपराओं के साथ वहां की जनता का संघर्ष और प्रतिरोध भी शामिल है.

उनकी रंगभाषा में पूर्वोत्तर की ध्वनियों का खेल भी था जो उसे गहराई देता था. उनकी प्रस्तुतियां देश विदेश में मंचित हुईं और सराही गईं. कन्हाईलाल ने मणिपुर में कलाक्षेत्र रंगमंडल की स्थापना की थी और इसके साथ वे काम करते रहे. उन्होंने देश विदेश की विभिन्न संस्थाओं में अभिनेतों को प्रशिक्षण भी दिया. ‘मेमायर्स आफ अफ्रीका’, ‘कर्ण’, ‘पेबेट’, ‘डाकघर’, ‘अचिन गायनेर गाथा’, ‘द्रोपदी’ इत्यादि उनकी चर्चित नाट्य प्रस्तुतियां हैं.

महाश्वेता देवी की कहानी पर आधीरित उनकी प्रस्तुति 'द्रौपदी' अत्यंत प्रशंसित और विवादित रही. इसमें उनकी पत्नी सावित्री का बेमिसाल अभिनय था. प्रस्तुति के बीच एक ऐसा क्षण आता है जब वे मंच पर अनावृत होती हैं. कहा जाता है कि मनोरमा देवी के रेप और अपहरण के खिलाफ महिलाओं ने नंगे होकर आसाम राइफल्स के विरोध में जो प्रदर्शन किया था उसकी प्रेरणा इस प्रस्तुति से ही मिली थी. उनका निधन से भारतीय रंगमंच का एक युगांत हो गया है.

एनडीटीवी इंडिया से साभार

श्रद्धांजलि : रंग गुरु एच कन्हाईलाल

जीवन और रंगमंच में मेरे लिए यह आदर्श जोड़ी रही है - एच कन्हाईलाल और सावित्री माँ। चाहे वो रंगमंच का मंच हो या जीवन की तपती ज़मीन - ये दोनों हमेशा ही एक दूसरे के कंधे से कन्धा मिलाकर मजबूती के साथ खड़े दिखे। मैंने जहाँ भी इन्हें देखा (चाहे वो क्लास हो या जीवन)- साथ में ही देखा; और सदा मनीषी मुद्रा में ही देखा।

दोनों एक दूसरे के पूरक - हर ख़ुशी, ग़म, कला, जीवन संघर्ष, स्नेह, फटकार सब एक साथ। एक थियरी हैं तो दूसरा प्रैक्टिकल, एक जिस्म तो दूसरा दिमाग, एक दिल तो दूसरा धड़कन। ऐसी आदर्श जोड़ी विरले ही होती हैं। ऐसे ही स्नेह के लिए तो जीता है - एक इंसान। कन्हाईलाल और सावित्री माँ ने भारत के न जाने कितने कलाकारों को प्रेरित किया, उन कइयों में से एक मैं भी हूँ। उनकी सादगी और कला का कुछ अंश हम जैसों के भीतर सदा साँस लेती रहेंगीं।

अपने कर्मों के आधार पर एक पीढ़ी दूसरे पीढ़ी के भीतर जीवित रहती हैं। कन्हाईलाल जी का देहावसान की पीड़ा विशाल है लेकिन उनकी विरासत की ज़िम्मेवारी भी तो है, इसे सहेजना ज़रूरी है।

पुंज प्रकाश

Call for resistance against attack on freedom of expression

Call for resistance against attack on freedom of expression on 13th October 2016

Indian Peoples Theatre Association has given a call for resistance against attack on freedom of expression in relation to the attack on IPTA conference by some youths connected with the right wing who tried to disrupt the concluding session of 14th National Conference of IPTA on 4th October 2016 at Anand Mohan Mathur Sabhagrah, Indore.

The General Secretary of IPTA, Rakesh said in a statement that this attack is in the continuation of attacks on freedom of expression by RSS and its allies. He further stated that IPTA was born during freedom struggle in 1943 in the period of ongoing Second World War and IPTA since its inception not only stood against the war but also as a crusader in defense of national sovereignty and integrity and various of its activists throughout the country went to jails fighting the colonial rule. He reiterated that IPTA is firmly against war and terrorism as well since both are the manifestation of imperialist crisis. We observe that it is notorious design of ruling class that those who have been working for the peace of the mankind are portrayed as anti-nationals. It is our patriotism and our nationalist commitment which impels us to talk against war which will destroy human lives in both the countries. People of India have nothing to gain by sacrificing the lives of our soldiers. He has appealed to all IPTA units and to all like-minded writer’s, cultural and other social organizations to observe 13th October 2016 as a day of resistance and rally the people in the fight against communal fascism, terrorism, war mongering and continuous attacks on freedom of expression.

Rakesh Veda
General Secretary
Indian Peoples Theatre Association (IPTA)

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले के खिलाफ़ देशव्यापी प्रतिरोध का आह्वान

13 अक्टूबर 2016 को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले के खिलाफ़ देशव्यापी प्रतिरोध का आह्वान


इंदौर में 02 से 04 अक्टूबर तक आयोजित इप्टा के 14वें राष्ट्रीय सम्मेलन के अंतिम दिन आनंद मोहन माथुर सभागृह में समापन सत्र के दौरान दक्षिणपंथी संगठनों से संबद्ध कुछ युवाओं ने सत्र की कार्यवाही को रोकने का प्रयास किया, जिसके परिप्रेक्ष्य में भारतीय जन नाट्य संघ ने अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हो रहे हमलों के विरोध में 13 अक्टूबर का दिन प्रतिरोध दिवस के रूप में मनाने का आह्वान किया है।

इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव राकेश ने कहा कि इप्टा के सम्मेलन के दौरान हुआ यह हमला राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों द्वारा अभिव्यक्ति की आज़ादी पर लगातार किये जा रहे हमलों की कड़ी का ही एक हिस्सा है। इप्टा का जन्म 1943 में भारत के स्वतत्रंता संग्राम में 1943 में हुआ है। यह द्वित्तीय विष्वयुद्ध का समय भी था और अपनी शुरुआत से ही इप्टा न केवल युद्ध के विरोध में खड़ी हुई है बल्कि देश की संप्रभुता और एकता को बचाने के लिए भी मजबूती से खड़ी रही है और इसके लिए इप्टा के तमाम कार्यकर्ता ब्रिटिश शासन के दौरान जेल भी गए हैं। उन्होंने आगे कहा कि इप्टा युद्ध और आतंकवाद दोनों का ही कड़ा विरोध करती है क्योंकि दोनों ही नवउदारवादी संकट का परिणाम हैं। हम देखते हैं कि यह शासक वर्ग की वही जनविरोधी व्यवस्था है जिसमें जनता की शांति के लिए काम करने वालों की छवि देशविरोधी की छवि बनाकर प्रस्तुत की जाती है। यह हमारी  देशभक्ति और राष्ट्र के प्रति हमारी प्रतिबद्धता ही है कि हम उस युद्ध का विरोध करते हैं जो दोनों ही देशों में इंसानी जिंदगियों को खत्म कर देगा। भारत के लोगों के पास अपने सैनिकों की जान दांव पर लगाकर भी पाने के लिए कुछ नहीं है। उन्होंने इप्टा की तमाम इकाइयों के साथ अन्य समानधर्मा लेखक, सांस्कृतिक व सामाजिक संगठनों से यह अपील की है कि सभी 13 अक्टूबर 2016 का दिन अभिव्यक्ति की आजादी पर हमलों के खिलाफ प्रतिरोध दिवस के रूप् में मनाएं और साम्प्रदायिक फासीवाद, आतंकवाद, युद्धोन्माद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हो रहे हमलों के विरुद्ध लोगों को एकजुट करें।


राकेश वेदा
महासचिव
भारतीय जन नाट्य संघ

Thursday, October 6, 2016

अभिव्यक्ति की आज़ादी पर जारी हमलों के ख़िलाफ़ एकजुट हों!

अभिव्यक्ति की आज़ादी और आलोचनात्मक विवेक पर जारी हमलों के ख़िलाफ़ एकजुट हों!


रियाणा केन्द्रीय विश्वविद्यालय में ‘द्रौपदी’ के मंचन को लेकर खड़ा किया गया हंगामा और इंदौर में इप्टा के राष्ट्रीय सम्मलेन में तोड़-फोड़ की कोशिश — हाल की ये दोनों घटनाएं बताती हैं कि राष्ट्रवादी उन्माद फैलाकर आलोचनात्मक आवाजों को दबा देने की नीति पर आरएसएस और उससे जुड़े अनगिनत संगठन लगातार, अपनी पूरी आक्रामकता के साथ सक्रिय हैं.

हरियाणा केन्द्रीय विश्वविद्यालय में विगत 21 सितम्बर को महाश्वेता देवी को श्रद्धांजलि देते हुए उनकी विश्व-प्रसिद्ध कहानी ‘द्रौपदी’ का मंचन किया गया. यह कहानी कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में है और इसका नाट्य-रूपांतरण/मंचन भी अनेक समूहों द्वारा अनेक रूपों में किया जा चुका है. ‘महाभारत’ की द्रौपदी की याद दिलाती इस कहानी की मुख्य पात्र, दोपदी मांझी नामक आदिवासी स्त्री, सेना के जवानों के हाथों बलात्कार का शिकार होने के बाद उनके दिए कपड़े पहनने से इनकार कर देती है जो वस्तुतः अपनी देह को लेकर शर्मिन्दा और अपमानित होने से इनकार करना है. उसकी नग्नता उसके आत्मसम्मान का उद्घोष बनकर पूरे राज्यतंत्र को शर्मिन्दा करती है. जुलाई में दिवंगत हुईं महाश्वेता देवी को याद करते हुए इसी कहानी का मंचन हरियाणा केन्द्रीय विश्वविद्यालय में किया गया. मंचन के दौरान शान्ति रही और नाटक को भरपूर सराहना मिली, लेकिन उसके बाद अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के लोगों ने भारतीय सेना को बदनाम करने की साज़िश बताकर इस मंचन के विरोध में हंगामा शुरू किया. आस-पास के इलाकों में अफवाहें फैलाकर समर्थन जुटाया गया, महाश्वेता देवी को राष्ट्रविरोधी लेखिका के रूप में प्रचारित किया गया, कुलपति के पुतले फूंके गए और विश्वविद्यालय प्रशासन के सामने यह मांग रखी गयी कि नाट्य-मंचन की इस ‘देशद्रोही’ गतिविधि के लिए ज़िम्मेदार लोगों के खिलाफ कार्रवाई की जाए. असर यह हुआ विश्वविद्यालय ने नाटक के मंचन से जुड़े शिक्षकों पर एक जांच कमेटी बिठा दी, जबकि इस मंचन के लिए न सिर्फ विश्वविद्यालय प्रशासन से पूर्व-अनुमति ली गयी थी बल्कि वहाँ मौजूद अधिकारियों ने मंचन की भूरि-भूरि प्रशंसा भी की थी. अब अंग्रेज़ी विभाग के प्राध्यापक, सुश्री सनेहसता और श्री मनोज कुमार कार्रवाई के निशाने पर हैं और आरएसएस के आतंक का असर विश्वविद्यालय प्रशासन से लेकर शिक्षक समुदाय तक की किनाराकशी के रूप में दिख रहा है. दोनों शिक्षकों के खिलाफ आरएसएस का दुष्प्रचार-अभियान पूरे जोर-शोर से जारी है. ज़ाहिर है, उनकी कोशिश है कि इनके ख़िलाफ़ लोगों की भावनाएं भड़का कर इन पर दंडात्मक कारवाई के लिए विश्वविद्यालय को मजबूर किया जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि विश्वविद्यालय में आलोचनात्मक विवेक के लिए कोई जगह न बचे.

इसी कड़ी में 4 अक्टूबर को इंदौर में इप्टा के राष्ट्रीय सम्मलेन के तीसरे दिन हिन्दुत्ववादियों ने मंच पर चढ़कर हंगामा किया और इस पूरे आयोजन को राष्ट्रविरोधी देशद्रोही गतिविधि बताते हुए नारे लगाए. आयोजन-स्थल से खदेड़े जाने के बाद उन्होंने पत्थर भी फेंके जिससे इप्टा के एक कार्यकर्ता का सर फट गया. उनका आरोप यह था कि प्रसिद्ध फिल्मकार एम एस सथ्यू (‘गरम हवा’ के निर्देशक) ने अपने उदघाटन भाषण में पाकिस्तान में भारतीय सेना के घुसने की आलोचना करके राष्ट्र के खिलाफ काम किया है. उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि वहाँ पिछले दो दिनों से चल रही नाट्य-प्रस्तुतियां राष्ट्रविरोधी और जातिवादी हैं. आरएसएस के मालवा प्रान्त के प्रचार प्रमुख प्रवीण काबरा ने यह बयान दिया कि ‘वे (इप्टा वाले) जन्मजात राष्ट्रविरोधी हैं.’ यह आयोजन-स्थल पर किये गए आपराधिक हंगामे का औचित्य साबित करने का तर्क था.

ये दोनों घटनाएं राष्ट्रवादी उन्माद फैलाकर आलोचनात्मक आवाजों का दमन करने की हिन्दुत्ववादी साज़िशों की ताज़ा कड़ियाँ हैं. जनवादी लेखक संघ इनकी भर्त्सना करता है और हरियाणा केन्द्रीय विश्वविद्यालय के शिक्षकों तथा इप्टा के साथियों के साथ अपनी एकजुटता व्यक्त करता है. पिछले साल अक्टूबर और नवम्बर के महीनों में लेखकों-संस्कृतिकर्मियों ने असहिष्णुता के इस माहौल के खिलाफ अपने सृजन-कर्म से बाहर जाकर अभिव्यक्ति के अन्य रूपों का भी सहारा लिया था. पुरस्कार वापस किये गए थे, सड़कों पर उतर कर नारे लगाए गए थे, अकादमियों पर सरकारी धमकियों के बरखिलाफ अपनी स्वात्तता बहाल करने/रखने का दबाव बनाया गया था. लेखकों, संस्कृतिकर्मियों, इतिहासकारों, वैज्ञानिकों और फ़िल्मकारों की उस मुहिम का सन्देश राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फलक पर प्रसारित हुआ था. ऐसी ही मुहिम की ज़रूरत दुबारा सामने है. हम लेखकों-संस्कृतिकर्मियों से अपील करते हैं कि इस माहौल के विरोध में अपनी आवाज़ बुलंद करें और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर होने वाले हमलों का सीधा प्रतिकार करने के लिए एकजुट हों.

मुरली मनोहर प्रसाद सिंह (महासचिव)
संजीव कुमार (उप-महासचिव)

Wednesday, October 5, 2016

इप्टा पर हमले की निंदा

हम इलाहाबाद के नागरिक, लेखक, संस्कृतिकर्मी पिछले दिनों इंदौर में इप्टा के राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान हुए हमले की खबर से क्षुब्ध हैं। आर एस एस द्वारा संचालित संगठनों द्वारा किया गया यह बेशर्म हमला हमारी सांस्कृतिक विरासत पर हमला है।

सब जानते हैं कि  मुंबई में 25 मई, 1943 को इप्टा (इंडियन पीपुल्स् थियेटर एसोसियेशन) की स्थापना के पीछे देशवासियों की स्वतंत्रता, सांस्कृतिक प्रगति और आर्थिक न्याय की आकांक्षा को मूर्त रूप देना तथा कला के क्षेत्र को विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के दायरे से बाहर निकालकर मेहनतकशों का, मेहनतकशों के लिए जन-अभिव्यक्ति का माध्यम बनाना था। संस्कृति के क्षेत्र में इस वामपंथी हस्तक्षेप ने सांस्कृतिक कायापलट का काम किया। इस धारा ने न केवल परंपरागत कला रूपों की चुनौती दी तथा समाज की पूंजीवादी-सामंती विचार-दृष्टियों को बदला, बल्कि इस दायरे से बंधे कला सर्जकों को भी बदला। इस तरह जो सृजनशीलता सामने आयी, वह अपेक्षाकृत उन्नत संस्कृति की वाहक थी और वर्गीय संस्कृति की पक्षधर भी। इस सृजनशीलता ने मेहनतकशों की संस्कृति को रचने-गढ़ने का काम किया और स्वाधीनता संघर्ष में वामपंथी राजनीति को आम जनता के जेहन में स्थापित करने का काम भी। इस दौर में राजनीति और संस्कृति कर्म एक दूसरे की सहचर थी। इस संस्कृति कर्म ने ‘कला, कला के लिए’ के कलावादी नारे को ठुकराया और ‘कला, जनता के लिए’ के जनवादी नारे को स्थापित किया। इस विशाल सांस्कृतिक आंदोलन ने आम जनता को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ सांस्कृतिक रुप से एकजुट किया। इस आंदोलन ने आम जनता की पिछड़ी हुयी चेतना को बड़े पैमाने पर झिंझोड़ा, आम जनता के पैरों में बंधी रूढ़िवाद और अंधविश्वास की बेड़ियों को तोड़ा, उसे प्रगतिशील, जनवादी चेतना से लैस किया। इसके फलस्वरूप स्वाधीनता आंदोलन के राजनैतिक संघर्ष में वह बड़े पैमाने पर सड़कों पर उतरी।

हम मांग भी करते हैं कि इस हमले के लिए जिम्मेदार लोगों पर कड़ी कानूनी कार्यवाही की जाय और वहां इस तरह के हमले को न रोक पाने के लिए मध्य प्रदेश की राज्य सरकार की भूमिका की न्यायिक जांच हो।

प्रलेस, जलेस, जसम

Monday, October 3, 2016

वे अपनी नस्लों के जेहन में संगीत बो रहे हैं; और हम?

"जब भी भूख से लड़ने
कोई खड़ा हो जाता है
सुंदर दिखने लगता है।"

कलाकारों-कलमकारों का जमावड़ा है तो कुछ अलहदा तो होगा ही। आनंद मोहन माथुर हॉल में माहौल खिंचा हुआ है। सामने प्रवेश द्वार पर चित्त प्रसाद के सुप्रसिद्ध रेखांकन नजर आ रहे हैं। प्रवेश करने वाले गलियारे के दोनों और किताबों की स्टाल सजी हुई है और लोग 'कहीं खत्म न हो जाए' के भाव से अपनी पसंदीदा किताब अभी ही खरीद लेना चाहते हैं। स्टाल के बाएं कोने में सुनील जाना के फोटोग्राफ लगे हुए हैं, जो चित्त प्रसाद के रेखांकन से मानों कह रहे हों-हम भी तो वही बात कह रहे हैं। फोटोग्राफ अंदर बरामदे में भी हैं और इसके फक्कड़-अलमस्त छायाकार शाह आलम बाइसिकल में नजर आ रहे हैं। जिंदगी की जद्दोजहद में लगे आम लोगों की जिन्दा तस्वीरें हैं। यहीं सुपरिचित चित्रकार मुकेश बिजोले की पेंटिंग्स पंकज दीक्षित के कविता पोस्टरों के साथ जुगलबन्दी में लगी हुई हैं। ठीक इसी के सामने वे सीढियाँ हैं जहाँ लम्बे श्वेत बाल और इतनी ही सफेद दाढ़ियों वाला कलाकार नुमा शख्स बड़ी ही सादगी के साथ भोजन की प्लेट लेकर नीचे बैठ गया है। भिलाई के साथी यह देख परीशाँ हो उठते हैं।' अरे कामरेड! यह क्या?' वे एक कुर्सी देकर 12 राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित फिल्मकार और मौजूदा सत्र के मुख्य अतिथि आनन्द पटवर्धन को ऊपर बैठने का अनुरोध करते हैं और आनन्द 'अरे! कोई फर्क नहीं पड़ता' के भाव से अनुरोध स्वीकार कर लेते हैं। उधर सम्मेलन के बाकी प्रतिनिधि कुछ पर्चियों के सहारे भोजन की प्लेट जुटा रहे हैं और इन्हीं पर्चियों में सर्वेश्र्वर दयाल सक्सेना की ऊपर लिखी पंक्तियाँ दर्ज हैं। गोरख पाण्डेय, धूमिल वगैरह की कविताएँ भी हैं। भूख से जूझते हुए भूख की कविताएँ। आनन्द पटवर्धन भोजन को काम की तरह निपटा रहे हैं, क्योकि अभी तुरन्त बाद उन्हें प्रलेस पर बन रही एक अधपकी फ़िल्म का प्रदर्शन करना है।

फ़िल्म कच्ची है, असंपादित, ब्लेंक सीन भी हैं, पर 'ख़त का मजमून समझ आता है, लिफाफा देखकर' की तर्ज पर बनने वाली फ़िल्म की उत्कृष्टता का अंदाजा लगाया जा सकता है। यूँ भी आनन्द पटवर्धन अमूमन ऐसे विषयों पर फ़िल्म बनाते रहे हैं, जिन पर दीगर फिल्मकार सोचते भी नहीं। प्रलेस को विषय बनाना तो और भी कठिन है। फ़िल्म में जावेद सिद्दीकी बता रहे हैं कि किस तरह 1936 में प्रेमचन्द की तहरीर ने न केवल हिंदी और उर्दू के बल्कि अन्य भाषाओं के लेखकों को भी प्रगतिशीलता की धारा में बहा लिया। इप्टा के पूर्व अध्यक्ष ए. के. हंगल विभाजन के त्रासद दिनों को याद कर रहे है जब उनका परिवार पाकिस्तान में बतौर अल्पसंख्यक रह रहा है। मोहल्ले के मुस्लिमों के बीच वे अकेले हिन्दू हैं। वे खुद जेल में हैं। कुछ लोग दुर्भावना से उनके परिवार को घेरते हैं तो मोहल्ले के सारे मुस्लिम बचाव में एकत्र हो जाते हैं। कहते हैं, 'इन्हें हाथ नहीं लगाना। हम इन्हें जानते हैं। भले आदमी हैं। कम्युनिस्ट हैं!'

देश भर के कोई 22 राज्यों से एकत्र हुए कलाकारों की इंदौर शहर में भव्य रैली के बाद इस सत्र की शुरुआत हुई थी। जाती हुई बेमौसम बारिश ने भी रैली का हार्दिक अभिवादन किया। शाम को सुरों की बरसात हुई। देवास इंदौर के ऐन पड़ोस में है। औरों का नहीं पता पर कलाप्रेमी इस शहर को कुमार गन्धर्व के नाम से ही चिह्नित करते हैं। उन्हीं यशश्वी गायक कुमार साहब की सयोग्य शिष्या और सुपुत्री कलापिनी कोमकली ठेठ मालवी शैली में कबीर के भजन सुनाती हैं। कुमार साहब की वही अद्भुत शैली, जहाँ शास्त्रीयता अपना अभिजात्यपन त्याग कर ऊँची आसंदी से उतर आती है और लोक के अक्खड़पन से बेलौस-उन्मुक्त होकर मिलती है। "कौन ठगवा नगरिया लूटल हो" और "नैहरवा, हमका न भाए" जैसी रचनाएँ" अद्भुत, अवर्णनीय समाँ बाँध देती हैं। समय -सीमा की बाध्यता कलापिनी को और, और अधिक सुनने से रोकती है।

शाम के इस सत्र का संचालन आयोजन की भाग-दौड़ में लगे-थके विनीत तिवारी के हाथों में है। इप्टा के इस 14 वें राष्ट्रीय सम्मेलन की स्वागत समिति के अध्यक्ष आनंद मोहन माथुर की आवाज 90 वर्ष की आयु में भी कड़क और बलंद है। वे कहते हैं कि मैं स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहा हूँ की इप्टा का सम्मेलन यहां हो रहा है। जो काम आप पहले कभी आप कर रहे हों, वही काम आगे की दो -तीन पीढियां करती नजर आएं तो बड़ी तसल्ली होती है। 22 राज्यों से 700 से भी ज्यादा कलाकार यहां आए हैं। बाज़ार ने कला को मनोरंजन तक सीमित करने का प्रयास किया पर सथ्यू साहब व आनन्द पटवर्धन जैसे लोगों ने बाजार के सामने घुटने नहीं टेके। यही अपेक्षा आप सब से भी देश करता हैं। क्यूबा और वेनेजुएला के प्रतिनिधियों ने यहां आकर हमें इज्जत बक्शी है। छोटे-छोटे देश किस तरह आत्म सम्मान के सामने खड़े हैं, यह प्रेरक है।

श्री माथुर ने कहा कि हम केवल संस्कृति कर्मी नहीं है। हम राजनीतिक चेतना से लैस हैं। कश्मीर को लेकर जिस तरह हिंदुस्तान और पाकिस्तान राजनीति क्र रहे हैं, उनसे किसी का भला नहीं होगा। हमें मखदूम की ये पंक्तियाँ याद आती हैं कि " जाने वाले सिपाही से पूछो, वो कहाँ जा रहा है।"

अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में श्री रणवीर सिंह ने कहा कि आज का माहौल पूरी तरह अंधकारमय है। मुझे याद आती है, शेक्सपियर के नाटक मैकबेथ के चौथे अंक के तीसरे दृश्य की यह स्पीच: "मुझे लगता है हमारा देश जंजीरों के नीचे दबा जा रहा है; यह रो रहा है, इससे खून बह रहा है और हर दिन इसके घावों में वृद्धि होती जा रही है।' उन्होंने सवाल किया कि क्या हम इन अँधेरे दिनों के खिलाफ़ मूक दर्शक बने रहेंगे या अपने पुरोधाओं से सबक लेकर अपने आंदोलन की धार और तेज करेंगे, अपने नाटकों को और पैना करेंगे, उन्हें जनता के बीच ले जाकर उन्हें लामबंद करेंगे। उन्होंने कहा कि हमारा अस्तित्व थिएटर की वजह से है और थिएटर का अस्तित्व हमारी वजह से। इस रिश्ते को और अधिक सघन और आत्मीय बनाए जाने की जरूरत है।
 
सत्र में क्यूबा और वेनेजुएला के राजदूतों की मौजूदगी प्रेरक और हौसला बढ़ाने वाली रही। क्यूबा के राजदूत ने जहाँ थोड़े संकोच के साथ अपनी बात कही, वहीं वेनेजुएला के प्रतिनिधि ने पूरे भावाभिनय के साथ अपनी बातों को विस्तार दिया। एक फ़िल्म उन्होंने दिखाई जो चौंकाती है, प्रेरित करती है, विचार करने के लिए बाध्य करती है। संगीत को उनके मुल्क ने आंदोलन बना दिया है। कोई 5 लाख से भी ज्यादा बच्चे संगीत सीख रहे हैं, सिखा रहे हैं। किसी के हाथ में गिटार है, किसी के हाथ में वायलिन तो कोई ट्रम्पेट जैसे वाद्य में सुरों से खेल रहा है। यह अपने मुल्क के उन लोगों के लिए विचार का मुद्दा हो सकता है-हालांकि वे कभी करेंगे नहीं-जो अपने बच्चों के हाथों में लाठी और त्रिशूल जैसी चीजें थमा रहे हैं।

कबीर कला मंच की साथी शीतल साठे को सुनना एक अलग, अलहदा अनुभव था । इस पर विस्तार से फिर कभी।







Sunday, October 2, 2016

वे गोली चलाएंगे, हम एक नाटक खेलेंगे

इंदौर, 2 अक्टूबर 16। स्थानीय आनन्द मोहन माथुर सभागृह में इप्टा के 14 वें राष्ट्रीय सम्मेलन की शुरूआत पारम्परिक रूप से झंडोत्तोलन के साथ हुई। झंडोत्तोलन इंदौर के सुपरिचित संस्कृति कर्मी औए पूर्व सांसद होमी दाजी की पत्नी ने किया। इसके बाद भिलाई इप्टा ने मणिमय मुखर्जी के संगीत निर्देशन में एक जनगीत 'हमने ली कसम' की प्रस्तुति दी।

मप्र इप्टा के अध्यक्ष हरिओम राजोरिया का स्वागत भाषण दिया।इप्टा के महासचिव राकेश ने कहा की चार्ली चैपलिन कहा करते थे कि कला जनता के नाम एक प्रेम पत्र है। हमने इसमें यह जोड़ने की हिमाकत की कि यह शाषकों के  विरुद्ध,  साम्राज्यवाद के विरुद्ध, शोषण और असमानता के विरुद्ध अभियोग पत्र भी है। उन्होंने कहा कि आज देश में युद्ध का माहौल बनाया जा रहा है।हम युद्ध के खिलाफ हैं क्योंकि युद्ध समस्याओं की समाप्ति नहीं शुरुआत है। हम भगत सिंग की विरासत को लेकर चलते हैं। एक समय उन्हें भी आतंकवादी कहा गया था। हम अपने सांस्कृतिक औजारों से उनकी लड़ाई को आगे बढ़ाएंगे। हम यद्ध और आतंकवाद से एक साथ लड़ेंगे।

इसके पश्चात् इप्टा के पूर्व अध्यक्ष ए. के.हंगल, पूर्व महासचिव जितेंद्र रघुवंशी, पंडित रविशंकर, ओ. एन करूप, कामरेड ए. बी. बर्धन, रवि नागर, जुगल किशोर, जोहरा सहगल महाश्वेता देवी, राजेन्द्र यादव, रविन्द्र कालिया, नेल्सन मण्डेला, पीट सीगर, आर के लक्ष्मण, मन्नाडे, भूपेन हजारिका, जसपाल भट्टी, सतपाल डांग आदि दिवंगत साथियो-कलाकारों-जन नेताओं को श्रद्धांजलि दी गई।

गर्म हवा के लिए चर्चित फिल्मकार और इप्टा के उपाध्यक्ष साथी एम. एस. सथ्यू ने उद्घाटन भाषण देते हुए कहा कि वे 1960 में इप्टा में आए जब वे मुम्बई इप्टा की रिहर्सल देखा करते थे।

मौजूदा हालात का ज़िक्र करते हुए आपने कहा कि लड़ना आसान है पर शांति से बर्ताव करना मुश्किल है। टेकनोलॉजी के उपयोग से अब लड़ाई और भी  आसान हो गयी है है, पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह गांधी का देश है। आज की सरकार शान्ति के आवरण को फाड़कर फेंक रही है। हमारी जिम्मेदारी बड़ी है। समाजवाद सबको बराबरी का मौका देता है, इसलिए हमें साम्प्रदायिकता के साथ-साथ जातिवाद से भी लड़ना है।  थिएटर दुनिया को बदल नहीं सकता पर यह इसके लिए प्रेरित कर सकता है।

मुझे उद्घाटन भाषण देने के लिए बुलाया गया। अच्छा होता कि मुझे भाषण देने के बदले नाटक करने के लिए बुलाया गया होता तो मैं अपनी बात बेहतर ढंग से रख पता।

राजेन्द्र राजन, महासचिव, प्रलेस  ने खा कि जब इप्टा का गठन नहीं हुआ था तब भी सांस्कृतिक जागरण का काम हम करते थे। प्रेमचन्द रंगशाला को मुक्त करने के लिए एक लम्बी लड़ाई हमने बिहार में लड़ी। लाठियाँ भी खाईं। लड़ाई की इस विरासत से जुड़े होने के कारण मैं स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता हूँ। हम सर्जिकल ऑपरेशन में नहीं निदान में भरोसा करते हैं। प्रलेस दिशा देने का काम करता है। इस धारा को कुंद करने के प्रयास पिछले दिनों खूब हुआ। हम उनके लिए एक बेहतर दुनिया चाहते हैं जो भूखे सोते हैं। निश्चय ही उसमें अम्बानी अडानी शामिल नहीं हैं। हम एनजीओ कल्चर के विरुद्ध हैं। अनुदान कला के धार को भोंथरा कर रहा है। इप्टा और प्रलेस को मिलकर इन चुनौतियों का सामना करना है। लेखक और कलाकार को संगठित होकर लड़ाई लड़नी है। जब कबीर कहते थे कि 'दुखिया दास कबीर है, जागे अरु रोवै' तो वह दरअसल उनका रोना नहीं होता था। वह विद्रोह का आह्वान करते थे। उम्मीद की जानी चाहिए कि लडाई के गीत अब भी रचे जाएंगे और यह काम इप्टा के साथी ही कर सकते हैं।

इसके बाद अशोक नगर इप्टा द्वारा वामिक जौनपुरी का एक जनगीत "जब भी नाव चलती है" प्रस्तुत किया गया ।

साथी शमीम फैजी ने कामरेड बर्धन को याद करते हुए कहा कि वे ही मुझे इस आंदोलन में लेकर आए। मुझ जैसे कई युवा उनके ही कारण आंदोलन से जुड़े। वे सही मायनो में बहु-आयामी थे। अनेक आंदोलनों से जुड़े। साढ़े ग्यारह साल जेल में रहे। कोई 3 साल भूमिगत रहे। वे विचारों को बेहद सरल भाषा में रखते थे। वे आर्ट और कल्चर के साथ भी उतनी ही शिद्दत से जुड़े थे, जितने अन्य संघर्षो से। इसीलिए इप्टा से उनका जुड़ाव समझ में आता है। इसके सम्मेलनों में शिरकत की बागडोर मुझे सौंपते हुए हुए उन्होंने एक बार विनोद में कहा की मैं संस्कृति की बागडोर एक गैर सांस्कृतिक आदमी को सौंप रहा हूँ। साथी शमीम के वक्तव्य के बाद ए. बी. बर्धन के भाषण का एक अंश परदे पर दिखाया गया और उत्पल बेनर्जी ने फैज की एक नज्म 'हम देखेंगे' का गायन किया।

इप्टा के पूर्व महासचिव जितेन्द्र रघुवंशी को याद करते हुए राकेश ने कहा कि उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि एक दोस्त, एक साथी की चर्चा इस तरह से करनी होगी। बकौल दुष्यंत,"उखड़ गया है एक बाजू जबसे, और ज़्यादा वज़्न उठाता हूँ। अब ये दायित्व हम पर है कि उनकी अनुपस्थिति में ज्यादा जिम्मेदारी से काम करें। 57 में दिल्ली में पूर्व गठित इप्टा का आखिरी सम्मेलन हुआ था । 60 में इप्टा बिखरी। 85 में हम आगरा में मिले और कैफ़ी के नेतृत्व में ये कारवां जितेंद्र ने आगे बढ़ाया। बकौल राजेन्द्र यादव वे बड़े कथाकार हो सकते थे, वे बड़े अनुवादक हो सकते थे पर उन्होंने इप्टा के संघठन का जिम्मा चुना। इप्टा दरअसल उन्हें घुट्टी में मिली थी। राकेश के वक्तव्य के बाद जितेंद्र जी पर फ़िल्म दिखाई गयी, जिसका निर्माण दिलीप रघुवंशी ने किया है।

विनीत तिवारी के संक्षिप्त परिचय के बादव्अंधविस्वास निर्मूलन समिति, सांगली, महाराष्ट्र ने एक नाटक का मंचन किया। सोचने की आजादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता राजसत्ता के लिए खतरा होती है, इस बात को रेखांकित करते हुए नाटककारों ने कहा, तुम गोली चलाओगे, हम एक कविता लिखेंगे। तुम गोले दागोगे, हम एक नाटक खेलेंगे!











Saturday, October 1, 2016

इप्टा का 14 वां राष्ट्रीय अधिवेशन एवं जन सांस्कृतिक महोत्सव कल से इंदौर में

इंदौर, 1 अक्टूबर 16। भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) का 14 वां राष्ट्रीय अधिवेशन एवं राष्ट्रीय जन सांस्कृतिक महोत्सव का उद्घाटन कल स्थानीय आनंदमोहन माथुर सभागृह में होगा। उद्घाटन सत्र की शुरूआत प्रातः 10 बजे से सुप्रसिद्ध फिल्मकार एवं इप्टा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्री एम.एस. सथ्यू के उद्घाटन वक्तव्य से होगी। जन संस्कृति महोत्सव का उद्घाटन फिल्मकार आनंद पटवर्धन करेंगे। इस अवसर पर देश-विदेश के अन्य समानधर्मा संगठनों के प्रतिनिधियों द्वारा एकजुटता संदेश प्रेषित किया जायेगा। आयोजन में क्यूबा और वेनेजुएला के राजदूतों सहित देश भर के कोई 1000 प्रतिनिधि, रंगकर्मी, कलाकार, लेखक-कवि शिरकत करेंगे।

जन संस्कृति महोत्सव में नृत्य, नाटक, संगीत, चित्रकला, फोटोग्राफी, माइम, नृत्य-नाटिका, कविता पोस्टर प्रदर्शनी, चित्रकला प्रदर्शनी का समावेश होगा। दृश्य-श्रव्य प्रस्तुति होगी तथा विभिन्न पुस्तिकाओं, सीडी-आदि का विमोचन होगा। देशभर के कोई 20 राज्यों से इप्टा के प्रतिनिधियों के सम्मेलन में भाग लेने के लिए रवाना होने की खबर है।

सम्मेलन में जो नामचीन शख्सियतें हिस्सा ले रही हैं, उनमें एम.एस. सथ्यू और आनंद पटवर्धन के अलावा रणबीर सिंह, वेदा-राकेश, अंजन श्रीवास्तव, नूर जहीर, सुमंगला दामोदरन, कुमार अंबुज, अली जावेद, पवन करण आदि के नाम भी शामिल हैं। कई सालों बाद इप्टा के पूर्व महासचिव जितेन्द्र रघुवंशी की कमी इस अधिवेशन में खलती रहेगी। उन्हीं के कुछ दिनों बाद रंगचिंतक-अभिनेता जुगलकिशोर भी चल बसे थे। जितेंन्द रघुवंशी को श्ऱ़द्वांजलि स्वरूप उन पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म प्रदर्शित की जायेगी और जुगलकिशोर की याद में उनके द्वारा निर्देशित नाटक ‘बह्म का स्वांग’ लखनऊ इप्टा द्वारा खेला जायेगा।

अधिवेशन का पूरा कार्यक्रम इस प्रकार है:  































































































































































इप्टा का 14 वां राष्ट्रीय अधिवेशन एवं जन सांस्कृतिक महोत्सव कल से इंदौर में

इंदौर, 1 अक्टूबर 16। भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) का 14 वां राष्ट्रीय अधिवेशन एवं राष्ट्रीय जन सांस्कृतिक महोत्सव का उद्घाटन कल स्थानीय आनंदमोहन माथुर सभागृह में होगा। उद्घाटन सत्र की शुरूआत प्रातः 10 बजे से सुप्रसिद्ध फिल्मकार एवं इप्टा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्री एम.एस. सथ्यू के उद्घाटन वक्तव्य से होगी। जन संस्कृति महोत्सव का उद्घाटन फिल्मकार आनंद पटवर्धन करेंगे। इस अवसर पर देश-विदेश के अन्य समानधर्मा संगठनों के प्रतिनिधियों द्वारा एकजुटता संदेश प्रेषित किया जायेगा। आयोजन में क्यूबा और वेनेजुएला के राजदूतों सहित देश भर के कोई 1000 प्रतिनिधि, रंगकर्मी, कलाकार, लेखक-कवि शिरकत करेंगे।

जन संस्कृति महोत्सव में नृत्य, नाटक, संगीत, चित्रकला, फोटोग्राफी, माइम, नृत्य-नाटिका, कविता पोस्टर प्रदर्शनी, चित्रकला प्रदर्शनी का समावेश होगा। दृश्य-श्रव्य प्रस्तुति होगी तथा विभिन्न पुस्तिकाओं, सीडी-आदि का विमोचन होगा। देशभर के कोई 20 राज्यों से इप्टा के प्रतिनिधियों के सम्मेलन में भाग लेने के लिए रवाना होने की खबर है।

सम्मेलन में जो नामचीन शख्सियतें हिस्सा ले रही हैं, उनमें एम.एस. सथ्यू और आनंद पटवर्धन के अलावा रणबीर सिंह, वेदा-राकेश, अंजन श्रीवास्तव, नूर जहीर, सुमंगला दामोदरन, कुमार अंबुज, अली जावेद, पवन करण आदि के नाम भी शामिल हैं। कई सालों बाद इप्टा के पूर्व महासचिव जितेन्द्र रघुवंशी की कमी इस अधिवेशन में खलती रहेगी। उन्हीं के कुछ दिनों बाद रंगचिंतक-अभिनेता जुगलकिशोर भी चल बसे थे। जितेंन्द रघुवंशी को श्ऱ़द्वांजलि स्वरूप उन पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म प्रदर्शित की जायेगी और जुगलकिशोर की याद में उनके द्वारा निर्देशित नाटक ‘बह्म का स्वांग’ लखनऊ इप्टा द्वारा खेला जायेगा।

अधिवेशन का पूरा कार्यक्रम इस प्रकार है:  































































































































































Thursday, September 29, 2016

"सबके लिए एक सुन्दर दुनियाँ" के संकल्प के साथ बिहार इप्टा का 74 सदस्यीय सांस्कृतिक दल इंदौर रवाना

टना/ 29 सितम्बर, 2016. भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा) के 14वें राष्ट्रीय सम्मलेन- सह-जन सांस्कृतिक महोत्सव में भाग लेने के लिए बिहार इप्टा का 74 सदस्यीय प्रतिनिधि मंडल कल रवाना हो रहा है। इप्टा के राष्ट्रीय संयुक्त सचिव फ़ीरोज़ अशरफ़ खां के नेतृत्व में बिहार इप्टा से संबंद्ध 26 इप्टा इकाईयों के प्रतिनिधि एवं कलाकार 2 से 4 अक्टूबर 2016 तक सम्मलेन में भाग लेंगे और देश-दुनिया के सांस्कृतिक स्थिति पर विमर्श करेंगे।

विदित हो कि इप्टा का  14वां राष्ट्रीय सम्मेलन-सह-जन संस्कृति महोत्सव का आयोजन 02 अक्टूबर , 20 16  से 04 अक्टूबर, 2016 तक मध्य प्रदेश के इंदौर में  हो रहा है। राष्ट्रीय सम्मेलन का उद्घाटन वरिष्ठ फिल्मकार व इप्टा के उपाध्यक्ष एम. एस. सथ्यू और राष्ट्रीय जन संस्कृति महोत्सव का उद्घाटन चर्चित फिल्मकार आनंद पटवर्द्धन करेंगे।मुख्य कार्यक्रम आनंद मोहन माथुर सभागार (ए. के. हंगल रंग परिसर में आयोजित किया गया है।  इप्टा के राष्ट्रीय सम्मेलन में 21 राज्यों से इप्टा से जुड़े 800 प्रतिनिधि एवं  कलाकार भाग ले रहें हैं। 

जन सांस्कृतिक महोत्सव में बिहार इप्टा के द्वारा शाहिद अनवर लिखित व तनवीर अख़्तर निर्देशित नाटक "सूपनवा का सपना" एवं  नुक्कड़ नाटक "एल. पी. जी." (लेखक: जनम, दिल्ली व निर्देशन: दीपक कुमार)  प्रस्तुति की जायेगी तथा सीताराम सिंह के नेतृत्व में संगीत जत्था जनगीतों की प्रस्तुति करेगा। 

इस अवसर पर आयोजित "राष्ट्रीय संगोष्ठी 1 : जनता का रंगमंच और चुनौतियाँ" को वरिष्ठ रंगकर्मी व बिहार इप्टा के महासचिव तनवीर अख्तर संयोजित करेंगे तथा इसके अन्तर्गत "मुझे कहाँ ले आये हो कोलंबस" और "मैं बिहार हूँ" नाटकों की डेमो प्रस्तुति भी की जायेगी। वरीय  संगीतकार व बिहार इप्टा के कार्यकारी अध्यक्ष सीताराम सिंह "राष्ट्रीय संगोष्ठी 2: जनता का संगीत और चुनौतियाँ" को संयोजित करेंगे। 

 
तनवीर अख्तर
महासचिव, बिहार इप्टा
+91 93087 45797

Thursday, September 22, 2016

नाट्य गंगा की प्रस्तुति ' कोई दुःख न हो तो बकरी खरीद लो'

प्रेमचन्द जयंती पर नाट्य गंगा की प्रस्तुति का यह दसवां वर्ष था| छिन्दवाड़ा शहर के दर्शकों के लिए हर साल मुंशी प्रेमचन्द की कहानियों की नाट्य प्रस्तुतियों की इस कड़ी में इस साल मुंशी प्रेमचन्द की कहानी ' कोई दुःख न हो तो बकरी खरीद लो' पर आधारित युवा रचनाकार पंकज सोनी द्वारा लिखित नाटक 'बकरी' का मंचन हुआ| 

नाटक का निर्देशन सचिन वर्मा ने किया| नाटक के गीत नितिन जैन ने लिखे और रोहित रूसिया ने इन गीतों को संगीत और स्वर दिया| संस्था के रंगकर्मी सचिन मालवी द्वारा कुछ महीनों पहले लगे गई कार्यशाला में प्रशिक्षित युवाओं के साथ ही संस्था के अन्य कलाकारों ने दर्शकों को अपने अभिनय से बांधे रखा |

इप्टा जम्मू कश्मीर की दो एकल प्रस्तुतियां

प्टा जम्मू कश्मीर इकाई ने 20 सितंबर 2016 को के.एल. सहगल सभागार में दो एकल प्रस्तुतियां दी।पहली प्रस्तुति गुलज़ार की "रावी पार"पर आधारित थी।

प्रस्तुति का कथानक बँटवारे के समय को दर्शाता है।सरदार दर्शन सिंह भी पाकिस्तान से विस्थापित हो कर अपनी पत्नी के साथ हिन्दोस्तान आ रहा है। दो जुड़वाँ बच्चे उस के साथ हैं ।एक बच्चे की  मौत रास्ते में हो जाती है। जब गाडी रावी का पुल पार कर रही होती है, दर्शन सिंह मृत बच्चे को रावी में फेंक देता है। लेकिन बाद में उसे एहसास होता है कि मृत बच्चे के जगह उसने जीवित बच्चे को फैंक दिया है।

इस एकल की परिकल्पना एवं प्रस्तुति इप्टा के साथी दीपक विर्दी  की थी। शाम की दूसरी प्रस्तुति डॉ.बलजीत रैना की कहानी " अजब देश की" पर आधारित थी। कहानी एक पात्र बेली राम के इर्द गिर्द घूमती है जिसे बार बार किसी न किसी वजह से धर्म परिवर्तन करना पड़ता है। अन्ततः वो सिख धर्मअपना लेता है। पर उसे उग्रवादी होने के शक में गिरफ्तार कर लिया जाता है। अदालत उसे निर्दोश मानती है और वो वापिस अपने गाँव जाने के लिए ट्रेन पकड़ता है पर रास्ते में ही दंगाई उसे उग्रवादि समझ कर ज़िंदा जला दिया जाता है। मनोज भट द्वारा इस नाटक को निर्देशित संजय ने किया था।

Monday, September 19, 2016

डॉ. जितेंद्र रघुवंशी के 66वें जन्मदिन पर समर्पित नाट्य प्रस्तुति 'कन्यादान'

दो माह के अथक परश्रम के बाद विजय तेंदुलकर कृत नाटक 'कन्यादान' का मंचन 16 सितम्बर 2106 को आगरा के सूरसदन प्रेक्षागृह में हुआ. नाटक के चयन से लेकर उसके मंचन तक की प्रक्रिया के बीच कलाकार कई वैचारिक मतभेदों से गुज़रे. कई बार चर्चा इस मुक़ाम तक पहुँच जाती कि लगता इस स्क्रिप्ट को ड्रॉप कर के किसी और स्क्रिप्ट पर काम करते हैं. कुछ साथियों का सुझाव था की नाटक का अंत बदल दिया जाए लेकिन तब नाटककार के साथ न्याय ना होता. लम्बी कश्मकश के बाद ये तय हुआ की नाटक को पूरी ज़िम्मेदारी के साथ उसकी मूल स्क्रिप्ट के साथ ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया जाए और सही ग़लत का निर्णय दर्शकों पर छोड़ दिया जाए. आख़िर सामाजिक मुद्दों का समाधान समाज के बीच से ही आना चाहिए. अन्य गम्भीर नाटकों के तरह ही ' कन्यादान' के साथ भी ये डर लगातार बना हुआ था कि नाटक बोझिल ना हो जाए.

मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय के सहयोग से 
रंगलोक सांस्कृतिक संस्थान की 
नाट्य प्रस्तुत 'कन्यादान'


बहरहाल, तमाम जटिलताएँ के साथ रिहर्सल चलता रहा. युवा साथी, मध्य प्रदेश नाट्य विद्यालय, भोपाल से स्नातक गरिमा मिश्रा ने निर्देशन की ज़िम्मेदारी को बख़ूबी निभाया.कम पात्रों वाले नाटक के चयन के समय ये विचार भी था कि अभिनेताओं को ख़ुद पर काम करने के लिए पर्याप्त समय मिले. कहना होगा कि बतौर अभिनेता गरिमा मिश्रा, प्रखर सिंह, रेनू मुस्कान, यश उप्रेती, शैलेंद्र यादव, रोहित राठोर ने दर्शकों को बांधे रखा.

नाट्य परिकल्पना व मंच परिकल्पना सारांश भट्ट की थी. सोचिए नाटक के मंचन के लिए पूर्व निर्धारित स्थान में 5 दिन पूर्व परिवर्तन हो जाए.. तब??? तब सारांश जैसे प्रशिक्षित कलाकार ही नैया पार लगा सकते हैं. मंच निर्माण में आकाश कुमार, रोहित राठोर, जितेंद्र चौहान, इमरान कुरेशी ने सहयोग किया.प्रकाश परिकल्पना व संचालन के लिए साथी भूषण शिम्पी हमारे साथ थे. भूषण मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय से प्रशिक्षित हैं और वर्तमान में मुंबई में स्वतंत्र रूप से कार्य कर रहे हैं.

संगीत संयोजन व संचालन हर्षिता मिश्रा एवं धीरज मिश्रा ने संभाला.पूर्व में रंगलोक द्वारा मंचित नाटकों के चित्रों की ख़ूबसूरत प्रदर्शनी आकृति सारस्वत, संस्कार जोशी और इशिता भटनागर ने लगाई. दीपक जैन, डॉ. विजय शर्मा व अमन मित्तल जैसे साथियों के सहयोग से यह मंचन सफल हो सका.

कार्यक्रम का संचालन संयोजक, डिम्पी मिश्रा ने किया. प्रस्तुति के समय आयकर आयुक्त आगरा श्री अमित सिंह, हिंदुस्तान कॉलेज आफ़ मैनेजमेंट स्टडीज़ के निदेशक डॉ. नवीन गुप्ता, रंगलोक के संरक्षक डॉ. सुबोध दुबे, प्रख्यात कवयित्री डॉ. शशि तिवारी, वरिष्ठ रंग निर्देशक बसंत रावत, आदि गणमान्य दर्शक उपस्थित थे.

'विवेचना' जबलपुर का 23 वां राष्ट्रीय नाट्य समारोह 19 अक्टूबर से

विवेचना जबलपुर का तेइसवां राष्ट्रीय नाट्य समारोह आगामी 19 अक्टूबर से 23 अक्टूबर 2016 तक तरंग प्रेक्षागृह में आयोजित है। इस समारोह की खासियत इसमें मंचित नाटकों की भव्यता है। इस समारोह में मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय भोपाल का भव्य नाटक ’आनंद रघुनंदन’ प्रथम दिन मंचित होगा और समारोह का खास आकर्षण है। 19 अक्टूबर को उद्घाटन के अवसर पर होने जा रहे इस संगीतमय नाटक में 40 कलाकार हिस्सा लेंगे। रीवां के महाराजा द्वारा सन् 1830 में लिखे गए इस नाटक को पहली बार मंचित किया जा रहा है।  भव्य सैट और लाइट भोपाल से लाई जा रही हैं। यह नाटक श्रेष्ठ अभिनय, संगीत, अद्भुत कथानक और बघेली भाषा के लालित्य के लिए प्रसिद्ध हुआ है। इस नाटक  के निर्देशक श्री संजय  उपाध्याय  हैं।

 दूसरे दिन सुप्रसिद्ध कवि दुष्यंत कुमार का लिखा नाटक ’एक कंठ विषपायी’ अनवरत थियेटर्स मुम्बई द्वारा मंचित किया जाएगा। इस काव्य नाटक का निर्देशन अशोक बांठिया ने किया है। अभी अभी पृथ्वी थियेटर्स मुम्बई में इस नाटक के मंचन बहुत सराहे गए हैं।

 समारोह के तीसरे दिन शेक्सपियर के नाटक ’मैकबेथ’ का मंचन शैडो माइम थियेटर ग्रुप भोपाल द्वारा किया जाएगा। मैकबेथ का यह मंचन युवा निर्देशक मनोज नायर के निर्देशन में होगा। मैकबेथ की मूल कृति में आज की परिस्थितियों के साथ मेल कर नया मैकबेथ तैयार किया गया है जहां मूल नाटक माइम में मंचित होगा और आज का मैकबेथ संवादों के साथ होगा।

 समारोह के चैथे दिन विख्यात नाट्य निर्देशक अवतार साहनी के नाटक ’एक तू और एक मैं’ का मंचन एक्टर्स रिपर्टरी थियेटर, दिल्ली द्वारा किया जाएगा। इस नाटक को सुनील सिन्हा व नरेन्द्र गुप्ता ने लिखा है। यह दो पात्री नाटक बहुत रोचक और मनोरंजक है।

 पांचवें और अंतिम दिन विवेचना थियेटर ग्रुप द्वारा मोतीलाल केमू के नाटक ’खोया हुआ गांव’ का मंचन किया जाएगा। नाटक का निर्देशन वसंत काशीकर ने किया है। यह नाटक गीत संगीत नृत्य के साथ पहाड़ी गांव के कलाकारों की कथा कहता है। मोतीलाल केमू जम्मू के वरिष्ठ नाटककार हैं। यह प्रथम अवसर है जब यह नाटक जम्मू के बाहर मंचित हो रहा है।

 विवेचना थियेटर ग्रुप जबलपुर के इस 23 वें राष्ट्रीय नाट्य समारोह में भव्य संगीतमय नाटकों का मंचन होने जा रहा है। प्रतिदिन संध्या 7:30 बजे से तरंग आॅडीटोरियम में नाटक मंचित होंगे। विवेचना के हिमांशु राय, बांकेबिहारी ब्यौहार और वसंत काशीकर ने सभी नाट्य प्रेमियों से हर वर्ष के समान इस वर्ष भी नाट्य समारोह के सभी नाटकों को देखने का अनुरोध किया है।

Friday, September 16, 2016

जितेन्द्र रघुवंशी स्मृति समारोह-1

"पता नहीं ये कैसा जनमानस है जो व्यक्तिगत रूप से किसी और पक्ष और सार्वजानिक रूप से धर्मनिरपेक्ष नज़र आना चाहता है। संविधान में आज़ादी के बाद संशोधन किया गया और धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़ा गया क्योंकि तात्कालिक सत्ता भी  धर्मनिरपेक्ष हो या नही इस पर संदेह था " सत्ता के धर्मनिरपेक्ष स्वरुप पर बोलते हुए साहित्यकार विभूति नारायण राय ने आज जनमन विचार मंच की बैठक में अपने विचार व्यक्त किये पूर्व पुलिस अधिकारी रहे श्री राय ने एक सवाल के जबाव में कहा कि आज जो पुलिस का चेहरा नज़र आता है वो आज़ादी के पहले का ही वर्णवादी चेहरा है क्योंकि सत्ता के लिए वही सुविधाजनक था । हाशिमपुरा घटना के जांच अधिकारी रहे श्री राय ने कहा कि सत्ता और पुलिस हमको वही करती  है जो हम उसे करने देते हैं । इस सोच का निज़ाम न काबिले बर्दाश्त है । जितेन्द्र रघुवंशी स्मृति समारोह के क्रम में यह पहला कार्यक्रम था जो आज शाम शहीद स्मारक पर हुआ।

गोष्ठी में श्री राय के अतिरिक्त डॉ नसरीन बेगम डॉ ज्योत्स्ना रघुवंशी डॉ प्रियम अंकित डॉ विजय शर्मा श्री नवाब उदीन श्री प्रमोद सारस्वत डॉ राजाराम राजवीर सिंह राठौर ने अपने विचार व्यक्त किये ।गोष्ठी में युवाओं ने बढ़चढ़ कर भाग लिया जितेन्द्र जी पत्नी भावना रघुवंशी के अतिरिक्त उनकी बेटी सौम्या अभिषेक रघुवंशी मुम्बई से  फ़राज़ अहमद अलीगढ से शुभम सिंह बंगलौर से  , नदीम दिल्ली से आये हुए हैं जो कल समारोह में भी हिस्सा लेंगे । गौरव लहरी मीडिया से अपने सवालों के साथ थे । दलित सवालों को लेकर अर्जुन तेवतिया और अरुण कुमार भी उपस्थित थे।

कार्यक्रम के बाद फ्रेंड्स थिएटर ग्रुप की प्रस्तुति हुई जिसमें अनिल जैन द्वारा निर्देशित और लिखित नाटक पर्यावरण बचाओ के द्वारा जल जंगल ज़मीन के मसले पर आवाज़ उठाई गयी इस नाटक में  समीर सिंघल उमाशंकर जी सोमा जैन एस के जैन और सभी साथियों ने नाटक के जरिये रंगकर्मी जितेन्द्र रघुवंशी जी को याद किया इस अवसर पर श्री राजीव सिंघल श्री ओम शर्मा श्री सुदर्शन दुआ उपस्थित थे।

-विजय शर्मा 

Monday, September 5, 2016

One day organisational conference of IPTA J&K Chapter

One day organisational conference of IPTA J&K Chapter was held yesterday on 29th Aug 2016 at K L Saigal Hall, J&K Academy of art culture and languages. The presidium was shared by Com. Dr. G. S. Charak, Secy. CPI Jammu Region, Dr. Baljeet Singh Raina, eminent writer and Com. K. K. Kaushal, veteran trade union leader and progressive thinker.
A short play " Dekho Bandhu Dekho Bhaiya" written and directed by Vijay Malla was staged.
Later on in the second session elections were held. The outgoing body put forward a proposal ot the new body and that was unanimously accepted.
The new office bearers are as follows:
Chairman: Sh. Anil Chopra
President: Com. Hardeep Singh
Sr. Vice Presidents:
1. Mrs. Nirmal Kesar
2. Mr. Rajinder Khajuria
Vice Presidents:
1. Mr. Harjeet Singh
2. Mr. Manoj Bhat
Gen. Secy: Sanjay Gupta
Organizing Secy: Hariket Jij
Secy.: 1. Vikram Rajwal
             2. Anuroop Pathania
Asst. Secy. : Qurat Ul Ain.

The post of cashier was left open to be filled later on.  Sh. Ashwani pradhan was selected as Patron and Vijay Malla as advisor.The delegates elected for the conference included:
1. Anil Chopra
2. Hardeep Singh
3. Manoj Bhat
4. Ashwani Pradhan
In addition to the four alotted delegates , Sanjay Gupta and Vijay Malla will be ex- officio delegates.


-Sanjay Gupta
Gen. Secy
IPTA, J&K Chapter

Saturday, August 27, 2016

Fidel's 90th Birthday was celebrated in Indore

- Vineet Tiwari
On 13th August, 2016, Comrades from different organizations gathered together in Indore, a town of Madhya Pradesh to pay our respect to Com. Fidel Castro on his 90th birthday. We recalled his gallantry during guerilla warfare with Batista regime. It was a fight for democracy where Com. Fidel fought along with peasants and others from working class in the hills of Sierra Maestra. 
We remembered how Cuba set an example for the entire third world that independence and camaraderie can challenge the mightiest imperialist power of the world. 
We also remembered Com. Che Guevara, his contribution in building a new society in socialist Cuba. Fidel is not just a revolutionary charismatic leader for the Cuban people but he is the leader inspirational light house for the entire third world, from Mozambique and Angola to India and Nepal to Nicaragua to El Salvador to Bolivia to Ecuador and of course to Venezuela.
After the collapse of socialist regimes of Soviet Union and Eastern Europe and the breakdown of CMEA,  Cuba went through a very difficult period. Fidel said to his fellow country people, "History has bestowed upon us the responsibility to carry forward the legacy of socialist revolution. We are proud to get this opportunity and we shall not betray the cause for which we and our comrades have fought." And Indeed, Cuba emerged through the Special Period as a very special country. The people of Cuba along with Venezuela, Bolivia, Ecuador and other countries in Latin America have opened up new vistas for setting up democratic, participative, just and equitable society for human civilization. Speakers discussed about the world famous Cuban healthcare system and courageous Cuban doctors. We also saw Nobel Laureate famous writer Gabriel Garcia Marquez's interview in which he fondly described about Fidel's personality.
We salute Fidel Castro and all those comrades who fought and are fighting for the revolutionary cause of Socialism.
On this occasion,  people's economist Dr. Jaya Mehta from Joshi-Adhikari Institute of Social Studies, Delhi, Vineet Tiwari, senior CPI leader Com. Vasant Shintre, Vijay Dalal, Arvind Porwal, Chunnilal Wadhwani and others shared their thoughts. We also listened Pete Seeger's songs and watched videos about life and works of Com. Fidel Castro. Gen. Secretary of Progressive Vineet Tiwari recited his poem on Cuba. Young comrades of Indian People's Theatre Association (IPTA), Pooja, Sakshi and Raaj cut the cake. State Secretary of National Federation of Indian Women (NFIW) Com. Sarika Shrivastava, Indore Secretary Com. Neha Dubey, Com. Shaila Shintre, Bank trade unionists Com. Arvind Porwal, Com. Brajesh Kanungo, Com. Toufeeq from Progressive Writers Association (PWA), IPTA comrades Seema Rajoria from Ashoknagar and Anuradha Tiwari, Com. Dashrath from CPI were also among the ones who celebrated 90th Birthday of Com. Fidel Castro at OCC home of Bank Officers Association. This was an initiative of Sandarbh Collective which also observed Com. Fidel Castro's 80th Birthday in Indore in 2006 and was reported in Granma. Amir Khan and Nitin Bedarkar facilitated the show of visuals and songs for this occasion.

इतिहास ने फ़िदेल को सही साबित कियाः

फ़िदेल कास्त्रो का 90वाँ जन्मदिन
. सारिका श्रीवास्तव
इं
दौर (मध्य प्रदेश) के प्रगतिशील विचारधारा के साथियों ने 13 अगस्त 2016 को लैटिन अमेरिका के समाजवादी देश क्यूबा के राष्ट्रपति रहे काॅमरेड फिदेल काॅस्त्रो के 90वें जन्मदिन पर उनके जीवन, क्यूबाई क्रान्ति और समाजवाद पर अनेक बातें साझा कीं साथ ही क्यूबा का क्रान्तिकारी संगीत भी सुना।

काॅ. विनीत तिवारी की क्यूबा पर आधारित कविता ‘ज़रूरत’ से कार्यक्रम की शुरुआत हुई। भूमिका रखते हुए डाॅ. जया मेहता ने भारतीय जन नाट्य संघ के युवा और किशोर साथियों को क्यूबा और फिदेल कास्त्रो के बारे में जानकारी देते हुए कहा कि क्यूबा, अमेरिका से लगा हुआ एक छोटा सा देश है जिस पर पहले अमेरिका के पिट्ठू तानाशाह बटिस्टा का शासन था। वहां केवल गन्ने की खेती होती थी जो स्थानीय लोगों की ज़रूरत पूरा करने के बजाय अमेरिका निर्यात कर दी जाती थी। तब फिदेल कास्त्रो, उनके साथी अर्जेंटीना के चे ग्वेरा और उनके तमाम अन्य क्रांतिकारी साथियों ने बटिस्टा के शासन के विरुद्ध लोकतंत्र के लिए सिएरा मैस्ट्रा की पहाड़ियों पर गोरिल्ला युद्ध करके क्यूबा को आज़ाद करवाया। आज लैटिन अमेरिका के अन्य देश, जिनकी व्यायसायिक और प्राकृतिक संपदा का शोषण भी अमेरिका करता रहा है, एक-एक कर अमेरिका के खिलाफ लामबंद हो रहे हैं और समाजवाद की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।

क्यूबा की क्रान्ति को याद करते हुए उन्होंने कहा कि क्यूबा ने जिस तरह पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष कर अपनी आजादी हासिल की और सही मायनों में आज़ादी को आगेू बढ़ाया, वोे तीसरी दुनिया के मुल्कों के लिए एक मिसाल है। 

हमने चे ग्वेरा को भी याद किया की उन्होंने किस तरह समाजवादी क्यूबा में एक नए तरह के समाज को बनाकर स्थापना करने में अपना योगदान दिया। फिदेल केवल क्यूबा की जनता के लिए ही क्रान्तिकारी चमत्कारिक नेतृत्वकारी ही नहीं हैं बल्कि वे एक चमकते हुए प्रकाशपुंज की तरह समूची तीसरी दुनिया चाहे वह मोजाम्बिक और अंगोला हो या भारत और नेपाल हो या निकारागुआ या एल सल्वाडोर या बोलिविया या एक्वाडोर या फिर वेनेजुएला वे सबके लिए प्रेरणादायक हैं। 

जब सोवियत यूनियन और पूर्वी योरप के देशों में समाजवादी व्यवस्थाएँ ढह रही थीं और सीएमईए जैसी वैश्विक वैकल्पिक अर्थव्यवस्था का प्रभाव क्षीण हो रहा था, वो दौर क्यूबा के लिए बहुत ही कठिन था। लेकिन तब फिदेल ने अपने देश की जनता को संदेश दिया कि ‘‘इतिहास ने हमें ये ज़िम्मेदारी सौंपी है कि हम समाजवादी क्रान्ति को आगे बढ़ाएँ।’’ क्यूबा ने अनेक सख्त उपाय किये, ख़ुद फिदेल कास्त्रो ने 60 वर्ष से ज़्यादा की उम्र में साइकल चलाना सीखा क्योंकि सोवियत संघ से आने वाला तेल बंद हो गया था, अनेक सुविधाओं में कटौती की लेकिन अपने देश के नागरिकों की भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य और सम्मानजनक रोज़गार की मूलभूत सुविधाओं को बरकरार रखा। क्यूबा सारी विपरीत परिस्तिथियों का सामना करते हुए संकट से निकला और इस पूरे दौर में सुदृढ़ नेतृत्व किया फ़िदेल कास्त्रो ने। इसीलिए समाजवाद की इच्छा रखने वाले दुनिया के करोड़ों-अरबों लोगों के दिलों में क्यूबा और फ़िदेल का स्थान बहुत ही विशिष्ट है। 

जया मेहता ने बताया कि सोवियत संघ के विघटन के बाद क्युूबा गए भारतीय पत्रकार सईद नकवी ने फिदेल कास्त्रो से एक इंटरव्यू में पूछा कि जब दुनिया के सारे मुल्कों ने समाजवाद को नकार दिया है तो ऐसे में केवल क्यूबा में समाजवाद पर डटे रहना क्या आपको गलत नहीं लगता। जवाब में फ़िदेल ने कहा कि सही और कामयाब होने में अंतर होता है। भले ही दुनिया में वर्तमान में समाजवाद नाकाम होता लग रहा हो लेकिन उससे वह ग़लत साबित नहीं हो जाता। यहीं फ़िदेल के उस ऐतिहासिक व विश्वप्रसिद्ध भाषण की भी याद की गई जिसमें उन्होंने अदालत में कहा था कि ‘आपका कानून भले ही मुझे गलत और गुनहगार ठहराये, इतिहास मुझे सही साबित करेगा।’

क्यूबा की जनता ने वेनेजुएला, बोलिविया, इक्वेडोर और लैटिन अमेरिका के अन्य देशों के लिए लोकतांत्रिक भागीदारी और पूँजीवाद से अलग एक नये किस्म के बराबरी पर आधारित मानव समाज का परिदृश्य सामने रखा। इससे प्रभावित होकर अनेक देशों में पूँजीवाद और अमेरिकी साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ आंदोलन उठे और मजबूत हुए। क्यूबा ने न केवल अपने देश को सँवारा बल्कि सारी दुनिया में मानवता की मिसालें कायम कीं। क्यूबा के चिकित्सक दुनिया के हर कोने में किसी भी आपदा से निपटने के लिए हरपल तैयार रहते हैं।
कॅामरेड विनीत ने बताया कि जब पूरा देश ग़ुलामी के नारकीय जीवन को झेल रहा था तब फिदेल ने होसे मार्ती जैसे क्रांतिकारी कवि को समूचे लैटिन अमेरिका के सर्वाधिक सम्मानित कवि की प्रतिष्ठा दी। ‘ग्वांतानामेरा’ जैसा प्रेमगीत अँधेरे में उम्मीद की रोशनी बिखेरने वाले गीत की तरह दुनियाभर में प्रसिद्ध हुआ। महान गायक पीट सीजर ने इसकी धुन बनाई और गाया। आज यह दुनिया के अमर गीतों में एक है। उपस्थित लोगों ने इस गीत को गाते पीट सीजर के वीडियो को भी देखा। नोबल पुरस्कार प्राप्त कोलंबिया के साहित्यकार गेब्रियल गार्सिया माक्र्वेज़ पर एक वीडियो दिखाते हुए विनीत ने बताया कि फिदेल और मार्क्वेज़ बहुत अच्छे दोस्त भी थे। मार्क्वेज़ अपनी लिखी किताबों की पहली पांडुलिपि सबसे पहले फिदेल को ही पढ़वाते थे।

संदर्भ केन्द्र की पहल पर हुए इस कार्यक्रम में भारतीय महिला फेडरेशन, प्रगतिशील लेखक संघ, इप्टा, रूपांकन, बैंक ट्रेड यूनियनों व अन्य संगठनों के साथियों ने शिरकत की। धेनु मार्केट स्थित म. प्र. बैंक आॅफिसर्स एसोसिएशन के दफ्तर ओ.सी.सी. होम में आयोजित कॅामरेड वसंत शिंत्रे, शैला शिंत्रे, अरविंद पोरवाल, विजय दलाल, दशरथ पवार, चुन्नीलाल वाधवानी, ब्रजेश कानूनगो, सीमा राजोरिया (अशोकनगर), सारिका श्रीवास्तव, नेहा दुबे, प्रकाश जैन, अनुराधा तिवारी, राज लोगरे, तौफीक गौरी, पूजा सेरोके, साक्षी सोलंकी इत्यादि साथी शरीक हुए। आमिर खान व नितिन बेदरकर ने फ़िदेल कास्त्रो के जीवन और क्यूबा के संगीत से परिचित करवाने वाले वीडियो प्रोजेक्टर के माध्यम से दिखाए।

Monday, August 22, 2016

एक थे परसाई

-हनुमंत शर्मा 
एक थे परसाई | उनसे यूँ तो 'फेस टू फेस' कभी मिलना नही हुआ | बस किताबों और अखबारों के मार्फ़त ही उनसे मुलाकात थी | उन्हें हाईस्कूल के दिनों में पहली बार पढ़ा तो लगा बायोलोजी की प्रयोगशाला में मेढक की जगह किसी ने समाज को रख दिया है | चीर फाड़ कर आँत अंतडिया सब बाहर बिखेर दी और बता दिया कि ये है अंदर की सच्चाई | कोई अलीबाबा था जो कहता था खुल जा सिम सिम और छुपे खजानों के दानवी दरवाजे खुल जाते थे सो हम भी जिन्दगी के पेच फसने पर परसाई की तरफ देखते और पेच मानो उल्टा घूमना शुरू हो जाता |

हमारे घर, पड़ोस ,दुकान और दफ्तर सब की शक्ल यहाँ देखी पहचानी जा सकती थी | ‘वैष्णव की फिसलन’ वाला बनिया हमारे मोहल्ले का ही पंजवानी सेठ था| ‘तट की खोज’ वाली शीला बुआ में अपने मित्र की बड़ी बहन दिखती थी | ‘ दो नाक वाले लोग’ को पढ़ता तो अपने माँ पिता की याद आने लगती और ‘ठंडा शरीफ आदमी’ तो मानो मेरा अपना ही बयां था | छोटे छोटे वाक्य छोटे छोटे वाकये और तिलमिलाती छीटांकशी वाला परसाई का अंदाज़ सब मिलकर एक बड़ा प्रभाव पैदा करते | और सच ये है कि परसाई को लिखा ढूँढ ढूँढ कर पढ़ने की एक चरसी लत सी लग चुकी थी | लेकिन दूसरे नशे जहाँ हमें बेहोशी की और के जाते हैं, यह नशा नींद और बेहोशी का दुश्मन था | उन्हें पढ़ने के बाद एक बैचनी भीतर से जकड़ लेती , नींद सी उड़ जाती | उन्हें पढ़ने के बाद वैसा रह पाना मुश्किल था जो हम पढ़ने के पहले थे | उनकी भाषा ,उनका फार्म उनके विचारों का तीव्र संक्रमण करते थे | यदि पाठक में संवेदना की ज़रा भी सम्भावना शेष है तो उसकी ‘स्थित प्रज्ञता’ टूटनी तय है' |

परसाई ने मास्टरी से क्लर्की ,क्लर्की से पत्रकारिता ,पत्रकारिता से स्वतंत्र लेखन तक कई बार पेशा बदला किन्तु उनका अंदाज़ पहले वाला ही रहा यानी कि मास्टराना | छड़ी मार हिटलरी मास्टर नहीं बल्कि कलम से चीर फाड़ कर जगत जीवन के सत्य उद्घाटित करता मेढक फाडू मास्टर | कबीर जिसे लुकाठा कहते हैं वो परसाई के यहाँ कलम है | वो अपना अंदाज़े बयां भी कबीर की परम्परा से ग्रहण करते हैं | जो उन तक भारतेंदु ,बालमुकुंद गुप्त, शिवपूजन सहाय, पाण्डेय बैचेन शर्मा उग्र और निराला से होते हुए पहुँची थी | कबीर की यह चेतना परसाई के लेखन में सहस्त्र मुख वाला विराट दर्शन देती है | किन्तु इस विराट पने के दवाब में वे दूसरे व्यंगकारों की तरह सिनिकल या दार्शनिक रूप से अस्थिर नहीं हो जाते | विचारों और सिद्धांतों की चूल से उनका लेखन कभी नहीं खिसकता |वे हर खतरे का डटकर मुकाबला करते है | कबीर की तरह कलम को लुकाठे की तरह इस्तेमाल करते हुए | “इंदिरा गांधी से एक भेंट” में वे स्वयम लिखते हैं “ मै वही कबीरदास हूँ लेकिन बीसवी सदी का |”

चेखव ने कहा था कि सुखी आदमी दुःख का साहित्य लिखता है और दुखी आदमी हास्य व्यंग्य लिखता है | परसाई ने व्यंग्य लिखा तो क्या वे दुखी आदमी थे? बेशक हाँ | किन्तु उनका दुःख चलताऊ दुःख नहीं था | वह उपरी कमाई के लिए विह्वल सरकारी बाबू या धनिये में लीद मिला रहे बनिए का दुःख भी नहीं था | वह माया से घबराये मोक्ष पिपासु भक्त का दुःख भी नहीं था | कबीर की तरह उनका दुःख भी पंचमकार में डूबे सुखिया संसार को नींद में गाफिल देखकर उपजा था | जिसके लिए अपने लेखन में वे जागते रहे और रोते रहे | उनका दुःख उन्हें निराशा ,अवसाद, या आत्मघात की और नहीं ले जाता बल्कि उल्टे उत्कट जिजीविषा से भर देता है | दुःख ही उन्हें दुःख के कारणों की तह तक ले जाता है | और व्यंग्य की निगेटिव चेतना पाजिटिव बन जाती है | ज्ञानरंजन के साथ एक बातचीत में वे इसका खुलासा करते हुए कहते हैं कि वह ऐसा इसलिए करता है क्योंकि वह दुखी है कि इतना बुरा क्यों हुआ | वह एक बेहतर मनुष्य, एक बेहतर समाज व्यवस्था के प्रति आस्था रखता है इसलिए जो बुराई उसे दिखती है उसे इंगित करता है |

यही वो सूत्र है जो परसाई के व्यंग्य को एक प्रतिक्रिया मात्र होने से बचाता है | वह एक नुक्ताए नज़र के रूप में आता है | उसका ढांचा साहित्यक है किन्तु वह खड़ा जिस क्षेत्र में है वो समाजशास्त्रीय है | उनके औज़ार वैज्ञानिक भौतिकवादी हैं | साहित्य , समाजशास्त्र और वैज्ञानिक भौतिकवाद यही है वो थ्री इन वन फार्मूला जिसकी सहायता से अपना रचना संसार रचते हैं | यहाँ गलदश्रु भावुकता या हास्य विलगित फूहड़ता के लिए कोई जगह नहीं है | क्रोध, करुणा ,आंसू, हास्य सभी यहाँ उदात्त रूप में हैं | वे पराजित मनुष्य की बेबसी पर नहीं हसँते अपितु करुणा के साथ उसके पक्ष में खड़े दिखते हैं | हास्य उनका धेय्य भी नहीं था | शुरुआत में जब उनका परिचय ‘फनी राइटर’ के रूप में दिया गया तो उन्होंने उसका इतना तगड़ा प्रतिवाद करते हुए कहा कि यदि मेरे लेखन को पढकर हँसी आती है तो मेरे लिए शर्मनाक है | इस प्रतिक्रिया में जब उन्हें हास्य विरोधी घोषित किया गया तो ‘ वन मानुस नहीं हँसता’ जैसे लेख लिखकर उन्हें सफाई देनी पड़ी | जिसमे वे ‘जोनाथन स्विप्ट’ के इस फलसफे से सहमत नज़र आते हैं कि जितनी देर तक आदमी हँसता है उतनी देर तक उसके मन में मैल नहीं रहता , उसका कोई शत्रु नहीं होता |इस तरह हसँना मन की निर्मलता है | पर परसाई निर्मल हँसी से हटकर इर्ष्या और द्वेष की हँसी को भी लक्ष्य करते हैं | वे इसे लकडवग्घे की हँसी कहते हैं | और ऐसी हँसी को गोली मार देने का फरमान ही उनका लेखन है| उनका समूचा लेखन समाज के अतरे खोतरे में छुपे लकड वग्घे की शिनाख्त और उसे बेनकाब करने का उपक्रम है |परसाई ने अपने आप को डी क्लास किया और अपनी वर्ग चेतना को समाज के संघर्षों से जोड़कर धारदार बनाया | वे शहर के श्रमिक आंदोलन से जुड़े| मुक्तिबोध से जुड़कर मार्क्सवाद का पाठ पढ़ा और कलम को लड़ाई का हथियार बनाया अपने लिए नहीं उत्पीडत की और से लड़ने के लिए | परसाई ने कालजयी साहित्य लिखने के स्थान पर कालम ,स्तम्भ , पूछिये परसाई से , कबीरा खड़ा बाज़ार में लिखने की राह पकड़ी | 

उनकी पक्षधरता घोषित है | वे ‘रामदास’ के साथ खड़े दिखते हैं तो इसलिए कि रामदास ने नाकामयाबी में भी सपने देखने नहीं छोड़े हैं | सपने हैं तो बदलाव की उम्मीद भी है | किन्तु ‘एक तृप्त आदमी की कहानी’ के मास्टर नंदलाल शर्मा के मध्यवर्गीय लिजलिजेपन के खिलाफ वे जलता लुकाठा लेकर पिल पड़ते हैं | वे निष्क्रिय ईमानदारों , ठंडे शरीफ आदमियों को न केवल चीन्ह लेते हैं उनकी नैतिकता , सिद्धांतवादिता ,महानता की चादर को तार तार कर देते हैं | ऐसे दुचितेपन , अवसरवादिता , काइयापन के ऊपर उनका गुस्सा आसमानी कहर की तरह टूट पड़ता है |

स्कूल मास्टर नंदलाल शर्मा धार्मिक , नैतिक , आत्म संतोषी हैं | वे पूरे देवता हैं |राजनीति से विरक्त | हड़ताल में भाग नहीं लेते | मेहनत से पढाते हैं |कभी कोई शिकायत नहीं करते |उन्हें कोई जगत गति नहीं व्याप्ति | किन्तु देवता होकर भी क्या वे मनुष्य हैं ? परसाई लिखते हैं “ एन. एल. मास्टर झरना है रेगिस्तान का | उसे देख लेने से ऐसा लगता है कि तीर्थ स्नान कर लिया हो | वह पूर्ण तृप्त आदमी है |उसे कोई भूख नहीं है |”
ऐसे पूर्ण तृप्त आदमी परसाई की नज़र में बीमार हैं |आवेशहीन, सम्वेदना से रहित , क्रिया प्रतिक्रिया से विमुख मात्र ‘बायोलोजिकल बीइंग’परसाई की नज़र में एक रीढ़ विहीन केचुआ है , जो पांव के नीचे आ जाता है तो वे पूछते हैं ‘वो क्या था ?’ छटपटाहट से मुक्त यथास्थ्तिवादी निष्क्रिय बुद्धिजीवी यही है |

दरअसल परसाई की वर्ग चेतना संपन्न दृष्टि ही उन्हें रोजमर्रा की मामूली बातों का बड़ा रचनाकार बनाती है |इसी के बूते वे प्रेमचन्द की परम्परा का बेटन लेकर आगे दौड़ जाते हैं | ‘महाजनी सभ्यता’ और ‘मंगलसूत्र’ से जकड़ा देहाती हिंदुस्तान परसाई तक आते आते आज़ाद तो होता है किन्तु आपातकालीन भी हो जाता है | मूल्यों की टकराहट में जहाँ नए मूल्यों का निर्माण होता है | संस्कारों , शास्त्रों और व्यवहार में गडबड झाला हो जाता है |राजनीति, धर्म ,दर्शन , शिक्षा ,कानून गोया जीवन के हर अनुशासन में टूट- फूट , बनाव- बिखराव दिखता है |इसी संधि पर खड़ा हिंदुस्तान परसाई की रचना भूमि है | वे सडांध मारती जगहों से नाक पर रुमाल रखकर गुजर जाने की जगह गंदगी को साफ़ करने में यकीन करते हैं | विद्रूपताओं पर प्रहार करते समय ज़ाहिर है उनका लहजा सख्त हो जाता है और सोंद्रयबोध भी ऐसा जो आभिजात्य को भदेस दिखाई दे | यद्यपि वो भदेस नहीं है किन्तु अंतिम छोर पर खड़े आदमी के वस्तुवादी नज़रिए से स्थितियों को देखने का सहज परिणाम है | यही कारण है कि पाखाने के मारे आदमी को सूर्य भी परमात्मा का लोटा नज़र आता है जिसे लेकर परमात्मा क्षितिज के नाले में उतर जाता है |

वस्तुत: सोंदर्य या शिल्प परसाई की चिंता के केन्द्र में नहीं है, अपितु सामाजिक ज़िम्मेदारी का निर्वहन है | वे अमर होने के लिए नही लिखते ,इसलिए लिखते हैं कि मरे हुए नहीं जीना चाहते | सट्टा फिगर लगाकर शाश्वत लिखने वालों के स्थान पर उन्होंने रोज मरने वाले रोजमर्रा के विषयों को चुना क्योंकि साहित्य उनके लिए सबके साथ मुक्ति का मध्यम है | उन्होंने लिखा “जो अपने युग के प्रति ईमानदार नहीं है ,वह अनन्त ककल के प्रति क्या ईमानदार होगा |”

सो वर्तमान को ठोकना बजाना ही परसाई के भविष्य गढ़ने का तरीका है | इस ठोकने बजाने में वे तटस्थ या निस्पृह भी नहीं रहते , ना ही अपने पाठक को रहने देते हैं | वे पत्रकार की तरह सच्चाई के संवाददाता ही नहीं बने रहते अपितु लुटे पिटे आदमी के पेरावीकर्ता भी बनते हैं | और ज़रुरी हो तो अपना फैसला भी सुना देते हैं | हम चाहें तो इसे लेखक का सर्वसत्तावाद कह सकते हैं किन्तु इसकी परवाह परसाई जैसों को नही होती| वे स्वयं को कहते थे कि लेखक छोटा हूँ पर संकट बड़ा हूँ | व्यवस्था के लिए ये बड़ा संकट उन्होंने लेखन में अपनी इसी भूमिका के चलते निर्मित किया था |

राधावल्लभ त्रिपाठी ने अपने एक लेख में परसाई की तुलना राजकुमारों को शिक्षा देने वाले “विष्णु शर्मा” से की है | राजकुमार “ विष्णु शर्मा” की शिक्षा से राज-काज में कितने शिक्षित हुए इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता किन्तु यदि हम परसाई को पढ़ने के बाद हममें राजकाज और समाज को बदल देने की हूक नहीं उठती तो हमारे मनुष्य ना होने के लिए कोई प्रमाण आवश्यक नही है |