Thursday, June 25, 2015

' टोबा टेकसिंह ' उर्फ़ ' बाकी सब खैरियत है '

संजय पराते
" मनों मिट्टी के नीचे पहुंचते ही मंटो ने फिर सोचा कि वो बड़ा अफ़सानानिगार है या खुदा.
खुदा ने मंटो के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा : यह ' टोबा टेकसिंह ' तुमने लिखा है? मंटो ने कहा - "लिखा है तो क्या हुआ?....हटाओ अपना हाथ!"  खुदा के चेहरे पर एक अजीब सी मुस्कराहट आई. उसने मंटो के कंधे पर से अपना हाथ हटा लिया और उसकी तरफ़ अज़ीब नज़रों से देखकर कहने लगा  "जा, तेरे सारे गुनाह माफ़ किये."

मंटो की मौत के बाद देवेन्द्र सत्यार्थी का यह अफ़साना है, जो बता रहे हैं कि मंटो की ' टोबा टेकसिंह ' उसकी पूरी लेखनी और गुनाहों पर भारी है. और मंटो के गुनाह क्या थे? यही कि उन्होंने अपने समय और पुरूषवादी समाज की तथाकथित नैतिकता, उसकी क्रूर यौनिकता और झूठ का बेरहमी से पर्दाफ़ाश किया. इसके लिए उन्होंने वेश्याओं, शराबियों और जुआडियों को अपनी कहानियों का पात्र बनाया. तब की साहित्यिक दुनिया के वे सबसे बड़े 'छिनाल ' थे कि खुदा भी उनसे रूठा हुआ था. समकालीन प्रगतिशील आंदोलन ने भी उन्हें पूरी तरह स्वीकार नहीं किया. 1945 में प्रगतिशील उर्दू लेखकों के सम्मलेन में ' साहित्य में अश्लीलता परोसने के लिए ' उनके खिलाफ एक प्रस्ताव पारित होते-होते बचा. पकिस्तान में उनके साहित्य पर प्रतिबन्ध लगा, जबकि हिंदुस्तान के विभाजन के बाद उन्होंने पाकिस्तान को अपना वतन बनाया. इसके बावजूद वे इस विभाजन को पूरी ज़िंदगी स्वीकार नहीं कर पाए और पाकिस्तान में रहते हुए ही हुक्मरानों को चुनौती देते हुए ' टोबा टेकसिंह ' जैसी एक ऐसी उत्कृष्ट कहानी दी कि खुदा ने भी उनके सारे गुनाहों को माफ़ कर दिया.

मंटो के जीवित रहते भले ही उसे स्वीकारा न गया हो, आज वही ' अश्लील ' मंटो हिंदुस्तान के साहित्यिक जगत में पूरी प्रखरता के साथ चमक रहा है. जब उन्होंने इस दुनिया को छोड़ा, उनकी लिखी कहानी पर बनी फिल्म ' मिर्ज़ा ग़ालिब ' हिट हो चुकी थी, जिसे बाद में पहला राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार ' स्वर्ण कमल ' भी मिला. उनकी मौत के 57 साल बाद, उनकी जन्म शती के मौके पर पकिस्तान सरकार ने उन्हें ' निशान-ए-इम्तियाज़ ' देने का फ़ैसला तो किया, लेकिन फिर भी उसे मंटो की कहानियों से सेंसर हटाना गवारा न हुआ. लेकिन फिर भी, मंटो आज हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी साझा संस्कृति और प्रगतिशील विरासत के प्रतीक हैं.

मंटो की कहानी ' टोबा टेकसिंह ' को अपने नाटक में ढालते हुए नाटककार अख्तर अली ने मंटो की विभाजनविरोधी दूसरी कहानियों के संवादों का भी बखूबी इस्तेमाल किया है -- "यह मत कहो कि एक लाख हिन्दू और एक लाख मुसलमान मरे हैं -- यह कहो कि दो लाख इंसान मरे हैं --". यह मंटो की कहानी ' सहाय ' का शुरूआती बयान है -- आवेशभरा, जिसका उतनी ही कुशलता से इस्तेमाल मिन्हाज असद ने अपने नाट्य निर्देशन में किया है और दर्शकों की ज़बरदस्त तालियां बटोरी है.

हिंदुस्तान के भारत और पाकिस्तान के बीच विभाजन की निरर्थकता को दिखाने का मंटो का अपना अंदाज़ है, जो पागलखाने में पागलों के अपने तर्क में दिखता है -- " सियालकोट पहले हिंदुस्तान में होता था, पर अब सुना है कि पाकिस्तान में है -- क्या पता कि लाहौर, जो आज पाकिस्तान में है, कल हिंदुस्तान में चला जाएं -- या सारा हिंदुस्तान ही पाकिस्तान बन जाएं --".

इतिहास गवाह है कि विभाजन के पहले का हिंदुस्तान और आज़ादी के बाद का भारत, सिरफिरों और फिरकापरस्तों के जाल में फंसकर पाकिस्तान बनते जा रहा है. आज भारत का इतिहास भिवंडी से लेकर मुजफ्फरनगर तक दंगों का, मुंबई, गोधरा और गुजरात के कत्ले-आम का, अशांत कश्मीर का, बाबरी मस्ज़िद के विध्वंस का और नफरत के ज़हरीले वातावरण का भारत है. हिन्दू और मुस्लिम दोनों ओर के साम्प्रदायिक पक्षों ने धर्म-निरपेक्षता को कमज़ोर करने का काम किया है और धर्म के नाम पर देश की राजनीति को हांकने की कोशिश कर रहे हैं. मंटो दोनों तरह के फिरकापरस्त जुनून के खिलाफ आज भी दीवार बनकर खड़े हैं.

मंटो खुद भी दो बार पागलखाने में दाखिल हो चुके थे. इसलिए पागलों की ' असभ्य मानवीयता ' और शरीफों की ' सभ्य पाशविकता ' के बीच वे अंतर अच्छे-से कर सकते थे. इसलिए मंटो की जुबानी ' टोबा टेकसिंह ' बोल रहे हों या ' टोबा टेकसिंह ' की जुबानी मंटो --यह भारत और पाकिस्तान दोनों के आम आदमी की कहानी है. ' टोबा टेकसिंह ' की मौत हिंदुस्तान के भारत और पाकिस्तान में विभाजन का तीखा नकार है. ' नो मैंस लैंड ' वह जगह है, जहां टोबा टेकसिंह चीखते हुए पछाड़ खाकर गिरता है. बकौल नरेन्द्र मोहन, उसकी चीख के साथ दो-राष्ट्र का सिद्धांत बेदम हो जाता है. ...यह चीख अपने ही घेरे में दुबके और सहमे व्यक्ति की नहीं है. उस व्यक्ति की है, जो घेरे से बाहर आने के लिए, अपने व्यक्तित्व को कई संदर्भों और अर्थों में पहचानने की कोशिश करता है.' (मंटो और विभाजन)

यह मंटो का ट्रीटमेंट है -- विभाजन के बाद बने मनोविज्ञान को रेखांकित करता हुआ. मिन्हाज़ असद ने न केवल इस ट्रीटमेंट के साथ मंटो को उतारा है, बल्कि विभाजन के मर्म, उसकी त्रासदी और पागलपन को भी पूरी शिद्दत से पेश किया है. नज़ीर अकबराबादी के गीत को अपने संगीत में आबिद अली ने ढालकर इस मंचन को बहुत ज्यादा प्रभावी बनाया है, सब कलाकारों के अभिनय की तारीफ़ तो की ही जानी चाहिए, खासकर काशी नायक (बिशन सिंह), करण खान (मलंग), नितेश लहरी (पागल), अंशु दास (रूप कौर), शेखर नाग (फिरतू), टेसू डोंगरे (पागल मौलवी), मो. ग़ालिब (बन्ने मियां), गौरव मिश्र (हवलदार), अमित मिश्र (वकील) की भूमिकाओं की.

कुल मिलाकर, इप्टा के कुछ माह पहले हुए राज्य सम्मलेन में जो सांगठनिक बदलाव हुए, मंच पर उसका असर भी दिखने लगा है, इप्टा की रंग परंपरा की प्रस्तुति -- ' बाकी सब खैरियत है ' के रूप में.

(मंटो की कहानी पर आधारित यह नाटक महाराष्ट्र मंडल के मंच पर इप्टा, रायपुर द्वारा 14 जून, 2015 को मंचित किया गया था। लेखक की टिप्पणी - बतौर एक दर्शक ही)
संपर्क :  094242-31650

Saturday, June 20, 2015

संस्कृति की वर्चस्ववादी समझ : विष्णु नागर


भारतीय फिल्म एवं टेलिविजन संस्थान(एफटीआइआइ) के नये अध्यक्ष और उसकी सोसायटी के चार भाजपाई-संघी सदस्यों की नियुक्ति के विरोध में इस लेख के लिखने तक हड़ताल चल रही थी। कहने की जरूरत नहीं कि इसके नये अध्यक्ष गजेंद्र चौहान की प्रसिद्धि और इस माध्यम की समझ महाभारत और कुछ छोटेमोटे सीरियलों में काम करने तक सीमित है और इस पद तक उनकी पहुँच का आधार उनका पिछले 11 साल से भाजपा से जुड़ा होना है,जिन्होंने पिछले लोकसभा चुनाव में हरियाणा में चुनाव प्रचार भी किया था।। उनके चार भाजपाई सहयोगियों की-जिन्हें संघ और भाजपा से अपने रिश्तों को लेकर किसी तरह की कोई झिझक नहीं है- मशहूरियत तो महाभारत जैसे सीरियल में काम करने जितनी भी नहीं है। जाहिर है कि ये देश के इस प्रतिष्ठित संस्थान का भविष्य तो क्या ही तय करेंगे, उसे बर्बाद ही करने ही लाये गये हैं ताकि सरकार के स्तर से जो भी र जितना भी उदार सांस्कृतिक दृष्टि को समर्थन देने के अब तक प्रयास हुए हैं, वे हमेशा के लिए मटियामेट हो जाएँ और अंततः इन संस्थाओं का कोई उसी तरह कोई अर्थ न रह जाए, जैसे कि मध्य प्रदेश की सरकार पोषित विभिन्न संस्थाओं के साथ हुआ है। आज इनकी राष्ट्रीय या राज्यस्तर पर कोई साख नहीं बची है, इसलिए उनकी अच्छीबुरी कैसी भी कोई चर्चा भी कहीं नहीं है। यही अंततः अखिल भारतीय स्तर पर भी होना है ताकि न बाँस रहेगा, न बाँसुरी बजेगी। दरअसल मोदी सरकार के राज में संस्कृति का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं बचा है जहाँ विवादास्पद और उस क्षेत्र के लगभग अनाम-अनपहचाने-महत्वहीन लोगों की थोक में नियुक्तियाँ नहीं हो रही हों, जो संस्थान आज बचे भी हैं वहाँ भी ऐसी तैयारियाँ जोरों पर हैं। चाहे वह फिल्म सेंसर बोर्ड हो ( जो अब फिल्म प्रमाणीकरण बोर्ड के रूप में जाना जाता है।) ललित कला अकादमी हो, राष्ट्रीय संग्रहालय हो, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास हो या तमाम अकादमिक क्षेत्र की संस्थाएँ हों, इनमें ऐसे लोगों को भऱ दिया गया है या भरा जा रहा है जिनकी प्राथमिक योग्यता संघी-भाजपाई विचार का होना ही नहीं है, बल्कि उनका भरोसेमंद सदस्य होना भी है। जिन सांस्कृतिक संस्थानों में अभी तक सीधे हस्तक्षेप की गुंजाइश नहीं बनी है, वहाँ उनकी स्वायत्ता को धमकियों-चेतावनियों के जरिये नष्ट करने की कोशिशें जारी हैं। शायद इसीका नतीजा है कि साहित्य अकादमी जैसी सबसे कम विवादास्पद और सबसे अधिक स्वायत्त संस्था को भी प्रधानमंत्री के स्वच्छता अभियान के समर्थन में कविता पाठ कराना पड़ा है और अब संगीत नाटक अकादमी के नेतृत्व में अन्य अकादमियाँ सहयोग कर रही हैं योग दिवस ही नहीं, योग सप्ताह जोरशोर से मनाने की । इससे पहले कि किसी सरकार ने अपने गैरसांस्कृतिक एजेंडे को इन संस्थाओं के जरिये लागू करवाने की जुर्रत नहीं की थी।क्या यह इन संस्थाओं को पूरी तरह सरकार के सांस्कृतिक-प्रशासनिक संरक्षण में लेने की तैयारी है? क्या इनकी स्वायत्ता का अंततः उसी तरह मजाक बनेगा, जिस तरह प्रसार भारती बोर्ड से जुड़े दूरदर्शन और आकाशवाणी का बन चुका है?

वैसे भाजपा के नेतृत्व में देश में या राज्यों में जब भी कोई सरकार आती है, वह संघ के सांस्कृतिक एजेंडे को लागू करने को अपनी प्राथमिकता के रूप में देखती है, जबकि गैरभाजपाई सरकारों की लगभग कोई सांस्कृतिक समझ नहीं है और जितनी भी है, उसे लागू करने का उनमें साहस और संकल्प नहीं है जबकि अटलबिहारी सरकार की मिलीजुली सरकार के जमाने में भी प्रेमचंद जैसे बड़े लेखक को पाठ्यक्रम से हटाकर भाजपा के महिला मोर्चे की एक नेत्री का उपन्यास पाठ्यक्रम में रख दिया गया था। आज की तरह तब भी राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद में तानाशाही और अपारदर्शी माहौल बनाते हुए संघ का एजेंडे लागू करने जैसे अनेक शैक्षिक- सांस्कृतिक प्रयास हुए थे। अब तो केंद्र में भाजपा की बहुमतवाली सरकार है जिसका प्रधानमंत्री स्वयं संघ का एक स्वयंसेवक होने के नाते संस्कृति की उतनी ही समझ रखता है जितनी कि संघ देता है, फिर भी जिस पर संघ पूरी तरह हावी है, इसलिए धर्मनिरपेक्षता की कसम खाते हुए मोदी सरकार तत्परतापूर्वक संघी सांस्कृतिक एजेंडा को लागू कर रही है।

जाहिर है कि संघ का एक खास सांस्कृतिक हिंदूवादी एजेंडा है जिसमें और तो और हिदुओं की उदारवादी धार्मिक-सांस्कृतिक परंपराओं तक के लिए जगह नहीं है तो मिलीजुली संस्कृति की सुदीर्घ परंपरा को सम्मान देने के लिए कहाँ हो सकती है,जो भारतीय संस्कृति का मूल है। सच तो यह है कि संघ की तथाकथित सांस्कृतिक समझ का भारत और उसके लोगों से कोई संबंध नहीं है। उसका लोकसंस्कृति,लोक परंपराओं, शास्त्रीय और आधुनिक की कलाओं तथा साहित्य से दूर-दूर तक कोई लेनादेना नहीं है। वह अपने मूल में भारतीय है भी नहीं , भले ही इसका ढिंढोरा पीटने पिटवाने में सबसे आगे है। उसका एक राजनीतिक –सांस्कृतिक एजेंडा है जिसके बारे में यहाँ विनम्रता से इतना ही कहना काफी होगा कि उसका लोकतंत्र समझ से कोई संबंध नहीं है। वह एक संकीर्ण हिंदू वर्चस्ववादी एजेंडा है जिसका बहुत कुछ संबंध उन ताकतों से है जिन्हें अंततः दूसरे विश्व युद्ध में पराजय का मुँह देखना पड़ा था और जिससे हुई भारी बर्बादी के बाद दुनिया ने राहत की सांस ली थी। लेकिन यह भी सही है कि संघ अनुशासित भाजपाई सरकारें ही अपने तथाकथित संकीर्ण और घातक सांस्कृतिक एजेंडे को गंभीरता से लेती हैं और उसे प्राथमिकता से लागू करती हैं।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मोटेतौर पर जो पार्टियाँ इस देश में उदारवादी राजनीतिक समझ रखनेवाली हैं, उनके शीर्ष नेतृत्व की संस्कृति में लगभग कोई दिलचस्पी और समझ नहीं है, इसलिए उनकी प्रथमिकताओं में इसकी कोई जगह भी नहीं है। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जरूर ऐसे थे जिनकी इतिहास और संस्कृति की गहरी और वैज्ञानिक समझ थी और जिन्होंने उस संस्कृति के विकास की आजाद भारत में गहरी नींव रखी। उसके बाद इंदिरा गाँधी हैं जिनकी इस मामले में सक्रिय दिलचस्पी थी। उसके बाद अगर कोई नाम याद आता है तो मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे अर्जुन सिंह का। इस मामले में पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार के दोनों मुख्यमंत्रियों को भी किंचित श्रेय दिया जा सकता है, हालांकि उनका हस्तक्षेप राज्य की सीमा के भीतर ही अधिक रहा है, उसके बाहर उन्होंने कभी गहरी और सक्रिय दिलचस्पी नहीं ली और यहाँ तक कि आजादी के बाद धीरे-धीरे कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी संस्कृति में दिलचस्पी लेना लगभग बंद कर दिया। कुछ और ऐसे प्रधानमंत्रियों- मुख्यमंत्रियों के नाम संभवतः इस सूची से छूट गए हों मगर पहली नजर में कोई और नाम याद नहीं आ रहा। बाकी गैरभाजपाई प्रधानमंत्रियों और मुख्यमंत्रियों के लिए संस्कृति लगभग एक अवांछित या कहें उपेक्षित विषय रहा है और उन्होंने हद से हद सांस्कृतिक पहल का उपयोग या कहें दुरुपयोग अपने नजदीकियों के भी नजदीकियों को उपकृत करने के लिए किया है। इस बहाने उन्हें अगर थोड़ा- बहुत राजनीतिक लाभ मिलता दिखा है तो उसे हासिल करने में उन्होंने संकोच भी नहीं किया है। मोटेतौर पर गैरहिंदूवादी राजनीतिक दलों की समझ यह रही है कि संस्कृति के क्षेत्र में पहल करने से चूँकि वोट नहीं मिलते, इसलिए जो सहज रूप से नाममात्र के बजट से हो सकता है, उसे या तो होने दिया जाए या हिंदूवादियों का दबाव पड़ जाए तो न होने दिया जाए।राममंदिर आंदोलन के बाद खासतौर से कांग्रेसी सरकारें हिंदूवादी एजेंडे की आक्रामकता से भयभीत रही हैं और उन्होंने बार-बार समर्पण किया है।

इसके बावजूद संस्कृति के क्षेत्र में निजी और सार्वजनिक पहल की ऐसी सुदीर्घ और मजबूत परंपरा है कि आज संस्कृति की दुनिया में ऐसा एक भी उल्लेखनीय नाम याद नहीं आता, जिसका संघ-भाजपा परिवार की सांस्कृतिक समझ से कोई अंतर्भूत नाता-रिश्ता हो। कुछ व्यक्तिगत विचलन के उदाहरण हो सकते हैं और अवसरवादियों की कभी भी कोई कमी नहीं रही है तो ब क्यों होगी मगर इसके बावजूद संस्कृति की रचनात्मक दुनिया में आज तक उदारवादी विचारों का ही वर्चस्व है और रहेगा भी। इसकी बुनियादी वजह यह है कि संस्कृति की दुनिया में वही व्यक्ति और संस्था कुछ सार्थक और रचनात्मक कर सकती है-हालांकि इसकी कोई गारंटी नहीं है- जो बुनियादी रूप से संस्कृति की उदारवादी-व्यापक समझ से जुड़ी हुई हो। आज तक कोई बड़ा और सार्थक नाम ऐसा भूले से भी याद नहीं आता, जो संस्कृति की संकीर्ण हिंदूवादी या इस्लामवादी धारा से बुनियादी रूप से जुड़ा हुआ हो और यह स्थिति मोदी सरकार के दौरान भी तमाम उसकी हताश और विध्वंसकारी कोशिशों के बीच बनी रहेनवाली है। कुछ राजनीतिक विचलन इस मायने में देखने को समय-समय पर मिलते रहेंगे कि कुछ कलाकार –लेखक इस सरकार से भी कुछ पाने की आशा में कई मामलो में चुप रहेंगे या अपने कलावादी बाने में घुसकर अराजनीतिक होने का नाटक करेंगे या जो राजनीतिक-वामपंथी होने के आरोप से बचकर अपनी छवि दूर-दूर तक सरकार विरोधी नहीं बनने देना चाहते। वे यह कहना पसंद करेंगे कि हमें राजनीति से क्या मतलब, हम तो संस्कृति की दुनिया में अपना काम अपने चुपचाप ढँग से करना चाहते हैं और यह सरकार हमसे भी कुछ चाहेगी तो हम नि-संकोच करेंगे क्योंकि अंततः यह सरकार भी जनता द्वारा चुनी गई सरकार है और तीन दशक बाद आई ऐसी सरकार है, जिसे संसद में पूरा बहुमत मिला है। कुछ प्रधानमंत्री या उनके मंत्रियों के नजदीक जाने का प्रयास भी कर रहे होंगे ताकि उन लाभों से वे वंचित न रहें, जो लाभ वे पहले भी उठाते रहे हैं और उन लाभों के गुलाम हो चुके हैं। इन्हीं के बूते उनका सांस्कृतिक जगत में वर्चस्व बना हुआ है। साहित्य को छोड़कर अन्य कलाओं के कलाकार बहुत हद तक सरकारी सांस्कृतिक समर्थन पर जिंदा हैं या सरकार को नाराज करने से वे कारपोरेट समर्थन से वंचित हो सकते हैं, इसलिए उन कलाओं के लोगों में यह विचलन और भय अधिक दिखना स्वाभाविक है। इसके बावजूद वे संघी विचारधारा के समर्थक कम से कम अपनी कला के जरिये बन जानेवाले नहीं हैं क्योंकि ऐसा करना अपनी रचनात्मकता से द्रोह करना होगा।, हालांकि चतुराई बहुत काम आनेवाली नहीं है क्योंकि वर्तमान केंद्र सरकार में बैठे महत्वपूर्ण और जिम्मेदार लोगों की सांस्कृतिक समझदारी बहुत हद तक संघ की ताकथित सांस्कृतिक विचारधारा के आसपास ही घूमती है और संघ अपने परिवार के ज्यादा से ज्यादा लोगों को यहाँ- वहाँ फिट करवाने की बेहद जल्दी में है, जो उसके दूरगामी एजेंडे को पूरा करने के लिए जरूरी है। अतः सरकार संस्कृति की तथाकथित गैरराजनीतिक समझ रखनेवाले संस्कृतिकर्मियों में दिलचस्पी नहीं रखती, हाँ वे राजनीतिक रूप से इस्तेमाल होना चाहें तो जरूर उसकी कीमत देकर ऐसा करेगी क्योंकि उसे राजनीति की तरह कला की दुनिया में भी यह दिखाना है कि उसकी वे बड़ी हस्तियाँ उसके साथ हैं।

वैसे भाजपा –संघ सांस्कृतिक वर्चस्व की ऐसी लड़ाई चारों तरफ लड़ रहे हैं,जिसमें उनकी राजनीतिक और अंततः सांस्कृतिक-सामाजिक जीत का वक्फा कम रहनेवाला है। उन्हें भारत के लोगों की असली ताकत का अंदाजा नहीं है, जो पिछड़े सांस्कृतिक-राजनीतिक-सामाजिक एजेंडे को लंबे समय तक कसी भ्रम में स्वीकार नहीं कर सकते।यह एक स्थायी दृश्य नहीं हो सकता, जिसमें आप आबादी के एक बड़े हिस्से को अलग-थलग कर दें, उसे जिल्लत की जिंदगी जीने को मजबूर करें। संस्कृति की रचनात्मकता की उपेक्षा-अवहेलना करें, उसे हिंसा से दबाने का प्रयास करें और राजनीतिक हिदुत्व को देश की विचारधारा बनाने की कोशिश करें।यह इस देश के लोगों के बुनियादी स्वभाव के है।खिलाफ है, उस सांस्कृतिक विरासत के खिलाफ है जिसे हजारों साल के अनुभव के बाद हमारे पुरखों ने हमें सौंपा है, जिसे दुनियाभर के मानवतावादी –परिवर्तनवादी लोगों ने रचा है, बनाया है।

जनसत्ता से साभार

Wednesday, June 17, 2015

FTII छात्रों के आंदोलन को बिहार इप्टा का समर्थन

भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा), बिहार भारत का फिल्म और टेलीविज़न संस्थान (Film and Television Institute of India-FTII) के चेयरमैन पद पर गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति के खिलाफ़ संस्थान के छात्रों के द्वारा चलाए जा रहें आंदोलन के साथ है. गजेन्द्र चौहान का सिनेमा, टेलीविज़न, कला-संस्कृति के क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय योगदान अब तक सामने नहीं आया है. एन.डी.ए. सरकार ने यह नियुक्ति विशुद्ध राजनितिक कारणों से की है. 

भारतीय सिनेमा के उत्थान में FTII का एक महत्वपूर्ण योगदान है. कई नामी-गिरामी फ़िल्मी हस्तियां इस संस्थान के छात्र रहें हैं. FTII के इतिहास में श्याम बेनेगल, अदूर गोपाल कृष्णन, गिरीश कर्नाड, यू.आर. अन्नतमूर्ति, सईद अख्तर मिर्ज़ा जैसे सिनेमा के दिग्गज, कला-मर्मज्ञ, चिंतक, लेखक, निर्देशक चैयरमेन के गरिमामयी पद पर रह चुके हैं. इस पद पर किसी ऐसे व्यक्ति की नियुक्ति, जिसका सिनेमा व कला - संस्कृति के क्षेत्र में कोई उलेखनीय योगदान न हो, पद की गरिमा को कम करना  है.

हाल के दिनों में एन.डी.ए. सरकार देश के प्रमुख संस्थानों में इस तरह की नियुक्ति एक खास विचारधारा को बढ़ावा देने  लिए कर रही है. बिहार इप्टा ऐसे सभी प्रयासों का विरोध करती है.

ऐसे हालात में FTII के संघर्षशील छात्रों के साथ बिहार इप्टा खड़ी है और उनके आंदोलन को अपना नैतिक समर्थन देती है.

तनवीर अख्तर 
महासचिव, बिहार इप्टा
मोबाइल: +91-9308745797; ई-मेल: biharipta47@gmail.com

Remove Gajendra from chairmanship of FTII.

Film and Television Institute of India-FTII is an institute of knowledge and learning. The Chairman, thus, must be a person having deep knowledge of history of filmmaking, history of world theatre, of Indian history, culture and tradition, of essence of Ganga-Jamuni culture, and should have the aptitude of imparting learning to the student. Merely being a member of RSS or BJP, or having acted in a soap opera do not make him fit for the position of Chairman of FTII.
Indian People Theater's Association (IPTA) pledges its full support to the student of FTII and to their demand of removal of Gajendra Singh Chauhan from the Chairmanship of FTII.

Ranbir Singh
President IPTA National Committee

सांस्कृतिक मसलों पर राजनीतिक पक्षधरता

विश्वविख्यात सांस्कृतिक चिंतक अर्डोनो कहते हैं ‘‘संस्कृति का सवाल अंतत: प्रशासनिक प्रश्न होते हैं।’ सृजन की दुनिया से जुड़े लोग अमूमन कला-संस्कृति के सवाल को सृजन से जोड़कर देखने के आदी रहे हैं। संस्कृति का मसला एक प्रशासनिक मसला भी है, इस तरह से देखने का परिपेक्ष्य कम रहा है। जो लोग इस किस्म के प्रश्न उठाते भी रहे हैं उन्हें संस्कृति में राजनीति करने वाला विजातीय तत्व मान लिया जाता है। सांस्कृतिक प्रश्न यदि राजनीति से संबद्ध न होता तो हिटलर के समय का संस्कृति मंत्री यह क्यों कहता ‘‘जब भी कोई संस्कृति की बात करता है, मेरा हाथ बंदूक पर चला जाता है
दरअसल खास सियासी पक्षधरता वाले संस्कृतिकर्मी अपनी राजनीति छुपाने के लिए संस्कृति को एक राजनीतिनिरपेक्ष श्रेणी बताते हैं। ऐसे लोगों का मशहूर जुमला होता है , "हम लोग तो किसी भी पक्ष के नहीं हैं अत: हम किसी भी पक्ष वाले सरकार के साथ काम करते हैं।" इस वक्तव्य में छिपी सत्तापरस्त अवसरवादिता सहज ही लक्षित की जा सकती है।
हिन्दी प्रदेशों में संस्कृति के प्रशासन का एक भारी-भरकम ढांचा मौजूद है। केंद्र व राज्य सरकार के तत्वावधान में चलायी जा रही ‘संगीत नाटक अकादमी’, ‘ललित कला अकादमी’, ‘उत्तर मध्य सांस्कृतिक केंद्र’, ‘पूर्वोत्तर सांस्कृतिक केंद्र’, ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय’, विभिन्न राज्यों की प्रांतीय अकादमियां। पूरे देश में संस्कृति संबंधी मामलों में सरकार औपचारिक रूप से इन संस्थाओं के द्वारा हस्तक्षेप करती है।
अब सवाल उठता है कि हस्तक्षेप की प्रकृति कैसी है। कौन से तबके लाभान्वित होते हैं? जो छूट जाते हैं उसके पीछे क्या कोई सचेत प्रयास है? जब भी इस संबंध में बातचीत का कोई प्रयास किया जाता है, इन संस्थानों में वर्चस्वशाली स्थिति में मौजूद लोग सृजन की स्वायत्तता के नाम पर ऐसे सवालों को उठाने का सख्ती से विरोध करते हैं। विभिन्न सरकारें संस्कृति के क्षेत्र में कैसा हस्तक्षेप कर रही हैं, इस पर अधिकतर चुप्पी छायी रहती है।
दरअसल संस्कृति की दुनिया में काबिज लोगों की सेहत पर सरकारों के बदलने से कोई फर्क नहीं पड़ता। स्वार्थी हितों का ऐसा जमावड़ा हर सरकार में काबिज रहता है। किसी भी किस्म की प्रगतिशील, लोकतांत्रिक एवं विचारपरक संस्कृतिकर्मियों की इंट्री हर कीमत पर रोकी जाती है ताकि संस्कृति के सीमित संसाधनों के लूट का अबाध खेल जारी रहे। ‘‘संस्कृति का राजनीति से क्या लेना-देना?, भई हम तो किसी राजनीति के साथ नहीं बल्कि निरपेक्ष हैं ?" ‘‘अरे यार हर फील्ड में तो राजनीति है ही, कम से कम संस्कृति को तो बख्श दो” ये चालू जुमले हैं जो जनपक्षधर संस्कृतिकर्मियों से निपटने में इस्तेमाल किये जाते हैं।
संगीत, नृत्य, चित्रकला-मूर्तिकला से जुड़े लोग अपेक्षाकृत रूप से सत्तापरस्त रहा करते हैं। कोई भी सरकार आए, उसके पीछे लगकर अपने लिए कोई जुगाड़ बिठा लेना इनका मुख्य ध्येय रहता है। रंगमंच चूंकि सामूहिक कला है अत: इसमें प्रारंभ से ही विचार एवं प्रतिरोध के लिए स्पेस रहा है। लेकिन यहां भी जो संस्थाएं खुद को सबसे ज्यादा निष्पक्ष या राजनीतिनिरपेक्ष बताती हैं, उन्हीं के मंचों पर सबसे अधिक सत्ताधारी नेताओं की मौजूदगी रहती है।
बिहार के कला, संस्कृति एवं युवा विभाग में तो ऐसे लोगों का पुराना जमावड़ा रहा है। बिहार में वैसे तो पिछले ढाई दशकों से तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सरकार मानी जाती है लेकिन संस्कृति विभाग में हमेशा दक्षिणपंथी विचार वालों का वर्चस्व रहा है। विचारधारात्मक पक्षधरता वाले संस्कृतिकर्मी ‘सरकार से कोई उम्मीद ही बेकार है’ वाले मानसिकता में रहने के कारण संस्कृति की प्रशासनिक दुनिया में हस्तक्षेप ही नहीं करते। ‘कोई नृप हों-ही हमें का हानी’ वाली उदासीनता के कारण अवसरवादी व दक्षिणपंथी लोगों को खुली छूट मिल जाती है।
विभिन्न महोत्सवों, सम्मेलनों यहां तक कि पुरस्कारों पर भी यही स्वार्थी समूह हावी रहता है। पिछले एक वर्ष से केंद्र में नई सरकार बनी है। बिहार में चुनाव भी होने वाले हैं। संस्कृति की दुनिया में पिछले दो-तीन महीनों से काफी हलचल है। इधर बिहार में एक नई प्रवृति घर कर रही है। जो सांस्कृतिक संगठन या व्यक्ति केंद्रीय संस्थानों से सहायता लेते हैं वे बिहार के कला-संस्कृति युवा विभाग पर तो पुरजोर हमले करते हैं, ‘अश्लील’ तक की उपाधि देते हैं लेकिन केंद्रीय संस्थानों के विरुद्ध मुंह तक नहीं खोलते ऐसे लोग दिल्ली की राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एन.एस.डी.) के तर्ज पर स्वायत्तता की बात बिहार में करते हैं लेकिन उस स्वायत्तता की आड़ में वहां के लूट व दलाली के धंधे पर मौन रहते है। ऐसे अधिकांश लोगों के तार दिल्ली की इन संसाधन समृद्ध संस्थाओं से जुड़े रहते हैं। बिहार का विरोध व दिल्ली से दोस्ती के पीछे की सियासत के अर्थ बेहद स्पष्ट हैं।
जहां तक स्वायत्तता की बात है तो बिहार सहित पूरे देश में 'सांस्कृतिक नीति' घोषित करने की मांग होती रही है। सांस्कृतिक मामलों के निर्धारण लिए प्रशासनिक नीति या पद्धति। बगैर नीति के कोई संस्थान यदि स्वायत्त होगा वो एन.एस.डी की तरह ही पतित हो जाएगा। बगैर नीति के स्वायत्तता का क्या हश्र होता है इसे बिहार में हिन्दी साहित्य सम्मेलन की दुर्दशा से समझा जा सकता है। कदमकुआं स्थित साहित्य सम्मेलन में, जहां दो-दो रंगसंस्थाएं भी चलती हैं, में बंदूकों को लहराये जाने की घटना की वजह से पूरे देश भर में बिहार को शर्मिंदगी झेलनी पड़ी है। स्वायत्तता की आड़ में साहित्य सम्मेलन कैसे धन एवं धंधे का पर्याय बन गया है इससे हर कोई वाकिफ है।
प्रशासनिक नीति के अभाव ने बिहार में रहने वाले कलाकारों को दोयम दर्जे का बना दिया है। राज्य में कला, संस्कृति के अतिरिक्त पर्यटन विभाग के होने वाले महोत्सवों पर गौर करें तो संस्कृति के क्षेत्र में कैसी अराजकता है, इसका अंदाजा हो जाता है। इन बड़े-बड़े महोत्सवों में अधिकांशत: मुंबई दिल्ली कोलकाता के 'नामी-गिरामी कलाकारों’ को आमंत्रित किया जाता है। प्रांत के कलाकारों की यहां पूछ नहीं होती। होती भी है तो ऐसे कलाकारों के सहायक के रूप में। राज्य के बाहर के कलाकारों की फीस मुंहमांगी होती है। बाजार में उनकी तय कीमत से भी अधिक रकम प्रदान की जाती है। प्रांत का कलाकार भले ही उससे बेहतर हो उसे वो मानदेय नहीं प्रदान दिया जाएगा क्योंकि इन मामलों को देखने वाले प्रशासनिक पदाधिकारियों के नजर में ‘बिहार में तो दोयम-तृतीय दर्जे के कलाकार रहते हैं’। ‘इनकी बाहर के कलाकारों वाली हैसियत कहां’। बिहार के कलाकारों को कमतर आंकने की प्रवृति भी यहां के कलाकारों के पलायन की एक प्रमुख वजह है। प्रशासनिक पदाधिकारियों की भेदभाव भरी मानसिकता राज्य के हितों पर आघात पहुंचाती है।
दरअसल संस्कृति की अंदरुनी दुनिया की खबर रखने वाले बताते हैं कि इसके पीछे कमीशन का पुराना अर्थशास्त्र काम करता है। स्थानीय कलाकारों से कमीशन लेने में बात खुलने का खतरा तो रहता ही है साथ ही स्थानीय कलाकारों के आपसी अंर्तविरोध उसकी एक सीमा बन जाते हैं। बाहर के कलाकारों के निर्धारित मानदेय से कई गुणा अधिक मानदेय दिया जाता है। ‘ऊपर ही ऊपर पी जाते हैं जो पीने वाले हैं’ वाली तर्ज पर रकम का सुरक्षित लेनदेन होता है। संस्कृति के क्षेत्र में यह ‘इस्टीमेट घोटाला’ जैसी परिघटना है। राजगीर महोत्सव में मुंबई के एक गायक को महज एक शो के लिए 36 लाख रुपये दिए गए। संस्कृति के क्षेत्र में बेहद सीमित संसाधनों वाले बिहार में यह आपराधिक बर्बादी से कम नहीं।
इन वजहों से भी बिहार के कला, संस्कृति के क्षेत्र से जुड़े लोग हीनभावना, कुंठा के शिकार रहते हैं। उसके पीछे सरकार की संस्कृति संबंधी प्रशासनिक नीतियां हैं। सब कुछ नेताओं-अफसरों की मनमानी व इच्छा पर निर्भर रहता है। अत: सबसे पहले इस दिशा में सबसे पहला कदम है सभी विभागों के कला-संस्कृति संबंधी मामलों का एक छतरी के तहत लाकर प्रशासनिक नीति बनाना। कला, संस्कृति से जुड़े लोगों के लिए यह राज्य की अस्मिता का भी मामला है।

- अनीश अंकुर
‘राष्ट्रीय सहारा, पटना ’ में  दिनांक  14 जून, 2015 को प्रकाशित एक टिप्पणी

Sunday, June 14, 2015

भीष्म साहनी: जन्मशती स्मरण


-ललित सुरजन
भीष्म साहनी की लंबी रचना ‘आवाजें’ देश विभाजन के बाद पाकिस्तान से भारत आए शरणार्थियों के जीवन से पाठक का परिचय करवाती है। दिल्ली में शरणार्थियों की एक बस्ती बस गई है। उनकी तीन पीढिय़ां यहां रहते हुए बीत चुकी हैं। जो मुसीबतज़दा लोग अपना सब-कुछ लुटाकर एक नई जगह पर आए थे उनके जीवन में धीरे-धीरे ठहराव आया है, कमोबेश खुशहाली भी आई है। स्थितियां बदल गई हैं, दृश्य बदल गए हैं, पहले और आज के व्यवहार में भी फर्क आ गया है। लेखक बारीक निगाहों से परिवर्तनों को देख रहा है। वह इनका बयान कुछ इस अंदाज में करता है, मानो सिनेमा की रील आंखों के सामने घूम रही है। यह रचना चूंकि एक कथासंग्रह में शामिल है इसलिए कहानी ही कहलाएगी, लेकिन मेरे मन में शंका है कि समीक्षक अपने प्रतिमानों पर इसे कहानी मानेंगे या नहीं। जो भी हो, मैं तो यह देख रहा हूं कि भीष्म साहनी ने सामान्य लोक व्यवहार से छोटे-छोटे दृश्य उठाकर कैसे एक बड़ी तस्वीर बना दी है। भीष्म जी के जन्मशती वर्ष पर उनकी रचनाओं को दुबारा पढ़ते हुए मुझे इस कहानी ने एकाएक अपनी ओर खींच लिया। उन्होंने अपनी रचना का शीर्षक दिया है आवाज़ें, लेकिन इन आवाज़ों में शोर नहीं है। कहानी के जितने पात्र हैं उनके बीच एक ही सूत्र हैं कि वे सबके सब शरणार्थी हैं। समय के साथ यह सूत्र धीरे-धीरे कमजोर पडऩे लगता है। एक सामान्य व्यक्ति के जीवन में जो भी अच्छा-बुरा घटित होता है वैसा ही सब कुछ इस कहानी के पात्रों के साथ भी होता है। इस बिखराव के बीच सिर्फ एक पात्र है, जो प्रारंभ से लेकर अंत तक कथा में मौजूद है। कथाकार मानो उसको माध्यम बनाकर उस बस्ती के जीवन का अध्ययन करता है। एक नए और अपरिचित स्थान पर दशकों पहले आकर बसे लोगों के जीवन में जो अस्थिरता, आशंका, भविष्य के प्रति चिंता, मुसीबत के समय सबके साथ रहने की इच्छा इत्यादि की जो आवाज़ें थीं वे अब हर व्यक्ति या परिवार के निजी जीवन की आवाज़ों में बदल गई हैं और लेखक कहता है कि मोहल्ला सचमुच रच-बस गया है। कहानी यहां खत्म हो जाती है।

भीष्म साहनी एक व्यक्ति के रूप में जितने सहज और सरल थे, उनकी रचनाएं भी उस सहज-सरल शैली में सामर्थ्य के साथ रची गई हैं। यदि अतिशयोक्ति के विरुद्ध अल्पोक्ति जैसे किसी विशेषण का इस्तेमाल किया जा सके तो मैं कहना चाहूंगा कि भीष्म साहनी अल्पोक्ति के कलाकार हैं। अंग्रेजी में एक शब्द है- अंडरस्टेटमेंट। यह विशेषण भीष्मजी की रचना शैली पर बखूबी लागू किया जा सकता है। उनके उपन्यास हों, नाटक हो या तमाम कहानियां, सबमें यही देखने मिलता है कि वे न तो नाटकीय रूप से घटनाओं का सृजन करते हैं और न अपनी ओर से कोई बयानबाजी करते हैं। वे जिन घटनाओं को अपनी रचनाओं का आधार बनाते हैं वे रोजमर्रा के जीवन में घटित होती हैं और हम सबने उनका कभी न कभी अनुभव किया है। किन्तु मेरी निगाह में उनकी खूबी यह है कि वे अपने पात्रों के माध्यम से उन घटनाओं को एक नए अर्थ से भर देते हैं जबकि ये पात्र भी सामान्य जनजीवन से ही आते हैं।

अपनी जिस कहानी के कारण भीष्मजी को बहुत अधिक ख्याति मिली याने ‘चीफ की दावत’- उसके अध्ययन से यह बात अधिक स्पष्ट हो जाती है। इस कहानी में भी एक औसत परिवार है जिसे हम शायद निम्न मध्यमवर्गीय कह सकते हैं। एक क्लर्क है जो अपनी तरक्की पाने की प्रतीक्षा कर रहा है। साहब को घर बुलाकर दावत देने से शायद वे खुश हो जाएंगे और पदोन्नति की राह आसान हो जाएगी, यह आशा उसे है। छोटा-सा घर है जहां पुराने तौर-तरीकों वाली बूढ़ी मां भी साथ रहती है। उसे आशंका होती है कि साहब के सामने अगर मां ने ठीक से बर्ताव न किया तो उसका सपना टूटते देर न लगेगी। वह डरता है कि मां को आज के जमाने के अदब कायदे मालूम नहीं है इसलिए वह उसे भीतर कोठरी में ही रहने की, और साहब के सामने न आने की कठोर हिदायत देता है। मां भी समझती है कि बेटे के भविष्य का मामला है, लेकिन होता यह है कि साहब आता है, टेबल पर बिछे मेजपोश की कढ़ाई देखकर खुश हो जाता है; यह जानकर कि यह मां के हाथ की कारीगरी है, मां से मिलने की इच्छा व्यक्त करता है और क्लर्क को बधाई देता है कि तुम्हारी मां कितनी अच्छी कलाकार हैं।

इस कहानी में एक औसत नौकरीपेशा व्यक्ति के मनोभावों का जो चित्रण हुआ है उसकी सच्चाई सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। सामान्य व्यक्ति हमेशा बेहतर भविष्य के सपने देखता है। उसे पूरा करने के लिए तरह-तरह के उद्यम करता है। वह चापलूसी और कभी-कभार झूठ खुशामद का भी सहारा लेता है। उसे यह डर भी होता है कि उससे जो बलवान हैं उनके कोप का शिकार न बनना पड़े, इसलिए वह कई बार बेमन से ही सही, समझौते करता है। ये सारी बातें कथा आगे बढऩे के साथ-साथ अपने आप ही खुलने लगती हैं।

विभाजन की ही पृष्ठभूमि पर भीष्मजी की एक बेहद सशक्त कहानी है ‘पाली’। इस कहानी में विभाजन के समय एक हिन्दू परिवार का बच्चा पाकिस्तान में बिछुड़ जाता है; वहां एक मुसलमान परिवार उसे पालता है। कुछ बरस बाद परिस्थिति बनती है कि वह बच्चा अपने हिन्दू मां-बाप के पास लौट आता है। जिस मुसलमान दंपति ने उसे पाला उसके दिल पर क्या बीती और जब अपने सनातनी परिवेश में लौटा तो क्या-क्या हुआ, उसका जो चित्रण भीष्मजी ने किया है उससे एक तरफ ममता के अधिकार का प्रश्न अनायास उठता है, तो दूसरी तरफ मनुष्य और मनुष्य के बीच धर्म द्वारा खड़ी की गई कृत्रिम दीवारों का भी एक कचोटने वाला अहसास पाठक के मन पर पड़ता है। धर्म के ठेकेदारों की अहम्मन्यता भी इस कहानी से व्यक्त होती है। जन्म देने वाले माता-पिता अपने बच्चे को वापिस पाना चाहते हैं, पाकर खुश भी हैं; यह तो ठीक है, लेकिन इस खुशी में वे यह नहीं जान पाते कि उस अबोध बालक के मन पर क्या गुजरती है। भीष्मजी ने देश विभाजन की पृष्ठभूमि पर कहानियों के अलावा ‘तमस’ जैसा उपन्यास भी लिखा है। इस संदर्भ में विशेषकर गौरतलब है कि उनके मन में एक गहरा विषाद तो है, लेकिन कटुता, प्रतिशोध या आक्रामकता बिल्कुल नहीं है। वे जैसे कहना चाहते हैं कि मनुष्य का जीवन बहुत कीमती है और मनुष्यता से बढक़र कोई दूसरा मूल्य नहीं है।

पार्टिशन पर उनकी एक और कहानी है ‘निमित्त’। यह कहानी उन लोगों पर एक करारा व्यंग्य है जो अपनी कायर अकर्मण्यता को भाग्य या ईश्वर पर छोडक़र खुद को बरी कर लेते हैं। इस कहानी में लेखक ने प्रहसन की शैली में एक दृश्य की रचना की है। फैक्ट्री का हिन्दू मालिक अपने मुसलमान कर्मचारी को सुरक्षित निकल भागने के लिए ड्रायवर के साथ एक कार में भिज देता है। जब दंगाई उसे ढूंढते हुए फैक्ट्री आते हैं तो वह उन्हें दूसरी कार दे देता है कि तुम उसका पीछा कर लो। भागना उसके भाग्य में था, शायद तुम्हारे हाथ से मरना भी उसके भाग्य में हो। ड्रायवर लौटकर आता है और उसके मरने की खबर भी दे देता है। फैक्ट्री मालिक हर बात में कहता है कि हम सब तो निमित्त हैं। ईश्वर, भाग्य और निमित्त के इस राग के बीच धीरे से कहीं उस हिन्दू या सिख ड्रायवर की सूझबूझ और बहादुरी उभरती है जिसने अपने मुसलमान सहकर्मी को सुरक्षित उसके ठिकाने पहुंचाकर उसके मरने की झूठी खबर फैला दी।

भीष्म साहनी का रचनाफलक बहुत विस्तृत है और दृष्टि बहुत गहरी। उनकी रचनाओं को पढ़ते हुए बार-बार महसूस होता है कि मनुष्य के मनोभावों की जितनी गहरी समझ भीष्मजी को थी वैसी उनके समकालीनों में शायद कम को ही थी। उनकी रचनाओं के पात्र चारों तरफ से आते हैं- अमीर-गरीब, शहरी-ग्रामीण, अफसर-व्यवसायी, लेखक-कलाकार आदि। उन्होंने इनमें से जिस किसी का भी चित्रण किया है उसकी प्रामाणिकता पर उंगली नहीं उठाई जा सकती। एक कहानी है- ‘मेड इन इटली’ जिसमें वे भारत के अभिजात एवं नवधनाढ्य वर्ग का विदेशी वस्तुओं के प्रति मोह की जमकर खिल्ली उड़ाते हैं। एक दूसरी कहानी है ‘सेमीनार’ जिसमें वे बतलाते हैं कि लेखक व कलाकार किस तरह से अपने प्रायोजकों के सामने बौने और ओछे पड़ जाते हैं। एक तरह से ये दोनों कहानियां भारतीय समाज में व्याप्त आडंबर की ओर हमारा ध्यान खींचती है। इस तरह की एक और कहानी है जिसका शीर्षक है- ‘रामचंदानी।’ इसमें भी लेखक एक पात्र के बहाने विदेशी चाल-ढाल की नकल करने की खिल्ली उड़ाता है।

यह कहना आवश्यक होगा कि भीष्म साहनी एक प्रगतिशील लेखक थे। उनके अग्रज बलराज साहनी और वे स्वयं कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े थे जिसे उन्होंने कभी छुपाया नहीं। भीष्मजी आगे चलकर राष्ट्रीय प्रगतिशील लेखक महासंघ के कई बरस अध्यक्ष रहे। उन्होंने संगठन के प्रति अपना दायित्व निभाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। वे जब प्रगतिशील लेखक संघ के कार्यक्रमों में आते थे तो उन्हें किसी भी भांति अतिरिक्त सुविधाओं की आवश्यकता नहीं होती थी। वे बहुत आसानी से सबसे घुलमिल जाते थे और नए से नए लेखक को पलभर में अपना बना लेते थे, लेकिन संगठन में सक्रियता का कोई प्रतिकूल प्रभाव उनकी रचनाशीलता पर पड़ा हो ऐसा कभी नहीं हुआ। उनकी रचनाओं में प्रगतिशीलता के जो तत्व हैं याने अन्याय, शोषण, गैरबराबरी, साम्प्रदायिकता, धर्मांधता- इन सबका विरोध, लेकिन ये सारी बातें समर्थ लेखक के आंतरिक विश्वासों से उपजी हैं, किसी सांगठनिक आग्रह के कारण नहीं।

स्वतंत्रोत्तर हिन्दी कथा साहित्य को जिन रचनाकारों ने समृद्ध किया है उनमें भीष्म साहनी का नाम अग्रणी है। नई कहानियां आंदोलन में कुछ समर्थ किन्तु प्रचारप्रिय लेखकों के नाम बढ़-चढक़र सामने आए। भीष्मजी ऐसी आत्मश्लाघा से हमेशा दूर रहे। वे लेखक कहलाने के लोभ से निर्लिप्त रहकर रचनाकर्म को आवश्यक सामाजिक काम मानकर उसमें जुटे रहे। मैं मानता हूं कि भीष्मजी की रचनाएं दिनों-दिन अधिक प्रासंगिक होती जाएंगी।

अक्षर पर्व जून 2015 अंक की प्रस्तावना, ललित जी के ब्लाग से साभार

मिर्जा मसूद की ‘मिट्टी की गाड़ी’

-संजय पराते

शू
द्रक की ‘मृच्छकटिकम्’ एक कालजयी रचना है। शायद यही वह संस्कृत रंग है, जिसे हिन्दी रंगमंच पर सबसे ज्यादा बार खेला गया है। कोई भी नया या पुराना निर्देशक इस रंग के मोह से छूट नहीं पाया। हबीब तनवीर ने ‘मिट्टी की गाड़ी’ के नाम से इसे अपने तरीके से खेला, तो संजय उपाध्याय ने भी इसमें अपना नया रंग भरा। इन दोनों निर्देशकों की खूबी यह रही कि उन्होंने इस रचना का ‘पुनर्पाठ’ किया और मंच पर ‘पुनर्सृजन’। हर कालजयी रचना नई सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक परिस्थितियों में ‘पुनर्पाठ’ और ‘पुनर्सृजन’ की मांग करती है और हर निर्देशक में ऐसा साहस भी नहीं होता कि इस मांग को पूरा करे। इसके अभाव में कोई कालजयी रचना एक साधारण रंग प्रस्तुति भर रह जाती है। पिछले वर्ष इप्टा के नाट्य समारोह में रामजीबाली के निर्देशन में मंचित ‘चारुदत्तम’ और कल मिर्जा मसूद के निर्देशन में खेली गयी ‘मिट्टी की गाड़ी’ इसी साधारणता की शिकार हुई है।

प्रेम हमारी कुदरत का एक प्राकृतिक रंग है। लेकिन हमारे साहित्य में यह प्रेम बहुतायत में राजमहलों तक ही कैद है। शूद्रक की खासियत यह है कि वह प्रेम के इस रंग को अट्टालिकाओं से मुक्त करके जनसाधारण की झोपड़ियों तक लाते हैं। लेकिन ‘मृच्छकटिकम’ केवल निर्धन चारूदत्त और गणिका वसंतसेना की प्रेम कहानी भर नहीं है, इसमें ‘निरंकुश सत्ता के एक असंवैधानिक केन्द्र’ के रुप में राजा के साले शाकार की उपस्थिति भी है, राजा का अत्याचार और भ्रष्ट तंत्र भी है और अत्याचारी राजतंत्र के खिलाफ एक सफल तख्तापलट भी। संस्कृत शास्त्र में एक सफल तख्तापलट के रंग, और वह भी जनसाधारण के विद्रोह के जरिये, बहुत कम देखने को मिलते हैं। प्रेम और विद्रोह के इस ताने-बाने ने ही ‘मृच्छकटिकम’ को कालजयी बनाया है।

शूद्रक ने जब ‘मृच्छकटिकम’ की रचना की थी, तो वह राजतंत्र का सामंती युग था। आज हम पूंजीवादी जनतंत्र में रह रहे हैं, जहां राजसत्ता पहले से ज्यादा निरंकुश और बलशाली है। आज केन्द्र की सत्ता को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ नाम की संस्था अपने बहुविषपायी भुजाओं से निर्देशित कर रही है और वह इसे छुपाने की भी कोशिश नहीं करती। यह सत्ता अपने संसदीय बहुमत के अहंकार से बहुमत जनसाधारण की आकांक्षाओं को दबाने का काम कर रही है और इस दमन को आसान बनाने के लिए उनके बीच सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का खेल भी खेल रही है। यह राजतंत्र की नहीं, पूंजी की निरंकुशता है, जो अपनी शोषण की सत्ता को जमाये रखने के लिए देश की सीमाओं से बाहर बहुराष्ट्रीय कार्पोरेटों के साथ गले मिल रही है और देशहित और जनहित के खिलाफ समझौते कर रही है। इसे किसी पुराने तरीके के जनविद्रोह के जरिये पलटा नहीं जा सकता। इस तख्तापलट के कमांडर, इसकी सेना, इसके हथियार, लड़ाई का मैदान, इसके विचार- सभी अलग तरह के होंगे। लेकिन इस सबके केन्द्र में वह जनसाधारण ही होगा, जो ‘इतिहास का निर्माता’ है। ‘मृच्छकटिकम’ का आधुनिक संदर्भ यही हो सकता है कि आज पूंजी की निरंकुशता, इसके अत्याचार और विभाजनकारी षड़यंत्रों के खिलाफ आम जनता को एकजुट किया जाये और एक वर्गविहीन, शोषणविहीन समाज की स्थापना की आधुनिक लड़ाई को आगे बढ़ाया जाये।

मिर्जा मसूद ‘मृच्छकटिकम’ का आधुनिक संदर्भ पेश करने का साहस नहीं कर पाये। यदि वह ऐसा साहस करते, जन साधारण के विद्रोह और तख्ता पलट के बाद शाकार को ‘जीवन दान’ नहीं मिलता। यह सभी जानते हैं कि फ्रांसीसी क्रांति के बाद राजा को गिलोटिन पर चढ़ा दिया गया था। लेकिन इस ‘जीवन दान’ के लिए मंच पर किसी गांधीवादी ‘हृदय परिवर्तन’ की उपस्थिति का आभास भी नहीं होता- तो सब कुछ के बाद जन साधारण के विद्रोह और तख्ता पलट का नकार और यथास्थिति को बनाये रखना ही है। यथास्थिति के खिलाफ लड़ने में ही किसी नाटक की सार्थकता खोजी जा सकती है।

जिन्होंने ‘मृच्छकटिकम’ पर आधारित दूसरे निर्देशकों की रंग प्रस्तुतियां देखी हैं, उन्हें यह रंग प्रस्तुति बहुत ही साधारण लगेगी- दिखे-दिखाये को फिर से दिखाने की कोशिश। जो रंगदर्शक पहली बार इस नाटक से रुबरू हो रहे थे, उनके रसास्वादन के लिए रंगों की कमी नहीं थी। डाॅ. जीवन यदु के गीतों ने रंग प्रभाव को सुगम और कर्णप्रिय बनाया, तो सुभाष धनकर के मेकअप में पात्रों का रंगाभिनय जमकर निखरा। हर्ष दुबे (चारूदत्त) वसंतसेना (संगीता निषाद), मैत्रेय (सिद्धार्थ मालवीय), मदनिका (मोना पवार) शाकार (तूफान वर्मा) आर्यक (अंकित चैबे), अधिकर्णिक (संतोष जैन) आदि के रंगाभिनय को सबने सराहा। अधिकांश नये कलाकारों के साथ 20-25 लोगों की टीम को साधना मिर्जा साहब के बस की ही बात हो सकती है। आखिरकार, नाट्य कर्म एक सामूहिक कर्म है और सामूहिकता को अपने पूरे रंग में मंच पर उपस्थित करना आसान बात नहीं होती। 

(लेखक की टिप्पणी- बतौर एक दर्शक ही)
मो0-94242-31650

Friday, June 12, 2015

अनहद नाद में नाद है ब्रह्मांड का

 -संतोष श्रीवास्तव
स बनावटी कृत्रिम वातानुकूलित प्रेक्षागृह की बजाय मैंने सुनी उड़ते कीट पतंगों की आवाजें जो मैंने कभी नहीं सुनी थी ...मैंने देखा उन वनस्पतियों को जो गाती हैं गुनगुनाती हैं..मैंने देखा उस धरा को जिसका जर्रा जर्रा बोलता है” हाँ मैं सुन रही हूँ उन आवाजों को जो अभी तक मैंने नहीं सुनी थी । देख रही हूँ कलाकारों के सम्पूर्ण शरीर से होठों से प्रस्फुटित उन अनसुने शब्दों को जो मुझे डुबाते जा रहे हैं अपने रचे लहराते समन्दर में ।

रवीन्द्र नाट्य मंदिर में मंजुल भारद्वाज द्वारा लिखित अनहद नाद (अन हर्ड साउंड्स ऑफ़ युनिवर्स) नाटक की प्रस्तुति में कमसिन कलाकारों ने जी जान लगा दी है। इन रंगकर्मियों ने नाटक पढ़ा और जुट गए उसे साकार करने में । यहाँ मंजुल का कोई दखल नहीं और यही तो ख़ूबी है उनकी । वे थिएटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य सिध्दांत के सृजक और प्रयोगकर्ता है। वे कलाकारों में अपना दर्शन रोपते हैं और दूर खड़े होकर अपना सृजन देखते हैं ।

 ‘अनहद नाद’ कलात्मक प्रक्रिया है । यह प्रक्रिया दर्शकों से रूबरू होती हैऔर सुनाती है उस अनसुने को जो जीवन के आस पास ही है लेकिन हम सुन नहीं पाते और सुन नहीं पाते तो एक अधुरा जीवन जीकर दुनिया को अलविदा कह देतें हैं। मंजुल सवाल करते हैं शरीर में रीढ़ की हड्डी नहीं होगी तो कैसा होगा वह शरीर... अरे दो आँखे होते हुए दृष्टि नहीं हो तो कैसा होगा जीवनअरे आपके पीछे का छोटा मेंदु ही गायब हो जाये तो क्या होगा आपकी चिंतन प्रक्रियाँ काये सवाल आलोड़ित करते हैं ..सोचने पर मजबूर करते हैं ..प्रेरित करते हैं । जीवन से जुडी सफलताओं,असफलताओं के ग्राफ़ में मंजुल सम्पूर्ण को देखते हैं ।....आप अपनी जीवन यात्रा पर पहली और अंतिम बार चलते हो ...नेवर बिफोर ..नो वनट्रेवल्ड युअर जर्नी.. वे गौतम बुद्ध के चिंतन में उतरते हैं ...अपना दीपक खुद बनो ...मंजुल कहते हैं जिस राते पर कोई नहीं चला वहीँ आपकी मंजिल है ...वही आपका अनूठापन है ..और उन्ही रास्तों के दर्द को अनुभव करना है ..और आपको ही इस दर्द की दवा निकालनी है” !

प्रेक्षागृह में नायिका के संवाद गूँज रहे हैं .. मैं जननी हूँ ..और जननी मात्र शरीर में नहीं होती ..शरीर से मनुष्य का शरीर पैदा होता है .. मात्र शरीर पैदा करना मुझे जननी नहीं बनाता ...मुझे जननी का ब्रह्मस्वरूप मिलता है ..जब मैं शरीर मैं प्राण फूंकती हूँ” !

नायिका की आँखों में सम्पूर्ण विश्व के दर्शन हो जाते हैं ..जननी विश्व का सृजन करते हुए भी पथरीले रास्तों पे चलने को मजबूर है लेकिन मंजुल की नायिका मजबूर नहीं है वह कहती है मुझे कपड़ों तक सीमित करने वालों या मुझे निर्वस्त्र करने वालों ..मेरा चीर हरण करने वालो..मैं कृष्णा की मोहताज़ नहीं हूँ ..कृष्ण ने मुझे नहीं ..मैंने कृष्ण को जन्म दिया है .. मैं जननी हूँ। ....मैं जननी हूँ ...एक खुली धरा ...एक विचरती वसुंधरा ...एक उन्मुक्त प्रकृति ..उन्मुक्त आवाज़” क्या कहेगा स्त्री विमर्श !!! केवल पितृसत्ता पर खुन्नस निकलते हुए अपने अधिकारों को चेताते हुए ढेरों कलम चली हैं..चली हैं और थमी हैं पर नहीं थमी मंजुल की सोच !जाने अनजाने स्त्री विमर्श को वो जिस ख़ूबी से छूते हुए आगे बढ़ते हैं ..वो छूवन दस्तावेज़ बन जाती है।

धीरे धीरे नाटक आदि ,मध्य और अंत तक पहुंचते जीवंत दृष्टी कोण से एक कोलाज़ रच जाता है । उस कोलाज़ में ही कहीं गीता दर्शन छिपा है जो सारे संशयों पर हावी होता है... तुम्हारा शरीर दुर्योधन की तरह वज्र का नहीं हुआ है क्योंकि किसी कृष्ण ने किसी एक हिस्से को वज्र होने से बचा लिया था ..ऐसा कौन है?जो मुझको मुझसे मुक्त कराने के लिए उन्मुक्त चिंतन करता है ...ऐसा कौन हैजो मुझको मुझसे युद्ध करनेकेलिए सारथी बनकर अपने और आपके जीवन में उतरता है” !

अनहद नाद को समझने के लिए मंजुल भारद्वाज के इस नाटक में खुद को समोना होगा । तभी हम जान पायेंगें उन अनसुनी ध्वनियों का रहस्य ..समझ पायेंगें सूखी नदी और बहती नदी की आवाजें ..पत्थर और मौसमचाँद सितारे और कीट पतंगे ,अँधेरे और रौशनी की आवाजें और इनके बीच धडकता हमारा दिल यानी ज़िन्दगी ।

नाटक अंत तक दर्शकों को बांधे रखने में सक्षम है अश्विनी नांदेडकर,योगिनी चौकसंदेश,सायली पावसकर,तुषार म्हस्केवैशाली भोसलेकोमल खामकर और अमित डियोंडी अपने अभिनय से नाट्य पाठ को मंच पर आकार देकर कलात्मकता के साथ साकार किया . सभी कलाकार अभिनय नहीं करते बल्कि नाटक को जीते हैं !

खूबसूरत भाषा शैली में रवानगी ,सवालों में झांकना ,खोज के लिए उतरना हर मोड़ पर थमना सोचना ..आगे खुलते रास्ते में अपने कदमों के निशान रोपना ... यह सफ़र है अनसुने का ..यह सफ़र है मंजुल भारद्वाज के नाट्य चिंतन का ..ज़ारी रहे सफ़र..सतत..

संपर्क:
101 केदारनाथ को.हा.सोसायटी , सेक्टर 7,निकट चारकोप बस डिपो, कांदिवली (पश्चिम), मुंबई – 67
mobile - 09769023188

Monday, June 1, 2015

भिलाई इप्टा द्वारा जितेंद्र रघुवंशी को समर्पित " जनसंस्कृति दिवस"

भिलाई इप्टा द्वारा हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी इप्टा के स्थापना दिवस " जनसंस्कृति " को काफी धूमधाम से मनाया गया । इस कार्यक्रम के मुख्यअतिथि भिलाई इस्पात संयंत्र के महा प्रबंधक श्री एच रायचौधरी थे। ज्ञातव्य है की भिलाई इप्टा ने इस वर्ष 5 मई से आयोजित "19 वीं बाल एवं तरुण नाट्य कार्यशाला" साथी जीतेन्द्र रघुवंशी को समर्पित की थी । इस कार्यशाला में 9 वर्ष से 25 वर्ष उम्र के कुल 150 बच्चों को प्रक्षिक्षण दिया गया । कार्यशाला का समापन 24 मई को नेहरू सांस्कृतिक भवन साथी सुभाष मिश्रा के मुख्य आतिथ्य  में संपन्न हुआ । इस अवसर पर  दो जनगीत ईश्वर अल्ला तेरे जहाँ में ( जावेद अख्तर) एवं हम वो दीपक हैं     ( कैफ़ी आज़मी ) तथा दो छत्तीसगढ़ी लोक गीत कोई लीला कोई लीला तथा झम झमा झम पानी गिरे से कार्यक्रम की शुरुआत हुई । शिविर में तैयार तीन नृत्य जंगल  सफारी,लावणी एवं छत्तीसगढ़ी नृत्य तथा भ्रूण हत्या पर नाटक "वेयर इस माई होम " (निर्देशक-नीतू जैन), जंगलों की अंधाधुंध कटाई पर " थोड़ा हमें भी जी   लेने दो" ( निर्देशक - विक्रम मिश्रा ) तथा किताबों की उपयोगिता बतलाता  नाटक " पुस्तक हंडी " ( निर्देशक-प्रखर सक्सेना ) के मंचन किये गए । 

जनसंस्कृति दिवस पर आयोजित रंगारंग कार्यक्रम की शुरुआत  शैलेन्द्र के "तू जिन्दा है तो जिंदगी की जीत पर यकीन कर " जनगीत से हुई । शिविरार्थी बच्चों ने कुछ छत्तीसगढ़ी गीत भी प्रस्तुत किये । शिविर में रोशन घड़ेकर,रूचि गोखले,बी किशोर,चारु श्रीवास्तव,अर्चना ध्रुव द्वारा तैयार तीन नृत्य की प्रस्तुतु के साथ पानी की समस्या पर नाटक " उधार का पानी " ( निर्देशक - निशु पाण्डेय ), " आल इस वैल " ( निर्देशक - चारु श्रीवास्तव  एवं भीष्म साहनी की जन्म शताब्दी पर विशेष रूप से " कबीरा" ( निर्देशक - अनिल शर्मा ) के मंचन भी किये गए । 

पिछले 19 वर्षों से जारी इस नाट्य शिविर में इस वर्ष बच्चों को और बेहतर प्रशिक्षण देने के लिए महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के नाट्य विभाग के स्नातकोत्तर छात्र प्रखर सक्सेना ( भोपाल ) और अनिल शर्मा ( फरीदावाद ) को  विशेष रूप से आमंत्रित किया गया था । थिएटर गेम्स में  संदीप गोखले और राजेश श्रीवास्तव ने योग मे  अरुण पंडा, जनगीत मे  मणिमय मुखर्जी,सुचिता मुखर्जी छत्तीसगरी गीतों में भारत भूषन परगनिहा तथा चित्रकला मे  तनुश्री सेनगुप्ता ने अपना योगदान दिया । इस वर्ष भी सारे नाटक बाल नाट्य शिविर से प्रशिक्षित शिवरार्थी बच्चों ने ही तैयार किये । मंच संचालन सुवास मुदुली,सोनाली चक्रवर्ती तथा शिविरार्थी बच्चों ने किया ।

जनसंस्कृति दिवस आयोजन के पहले नेहरू सांस्कृतिक भवन परिसर में प्रखर सक्सेना के निर्देशन में हरिशंकर परसाई के  व्यंग " भोलाराम का जीव " का नुक्कड़ प्रदर्शन भी किया गया । 
राजेश श्रीवास्तव  

नरेगा के मजदूरों से भी गए-गुजरे हैं अभिनेता

पटना में अनीश अंकुर लम्बे समय से रंगकर्म से जुड़े हुए हैं और विभिन्न समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं के लिए संस्कृति से जुड़े सवालों पर लिखते हैं. आज राष्ट्रीय सहारा के पटना संस्करण में अनीश का विचारोत्तेजक लेख छपा है. विगत 24 मई, 2015 को इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रणबीर सिंह ने ललित किशोर सिन्हा स्मृति व्याख्यान - 7 के तहत इन्हीं सवालों से दो-चार होने की बात की थी. पेश है राष्ट्रीय सहारा, पटना  के  31 मई ,2015 के अंक में प्रकाशित अनीश अंकुर का आलेख.....
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पिछले दिनों पटना में ‘‘इप्टा’ के राष्ट्रीय अध्यक्ष रणबीर सिंह ने ‘‘हिन्दी रंगमंच: आज और कल" विषय पर महत्वपूर्ण वक्तव्य दिया। अभी हिंदी प्रदेश के किसी शहर में रंगमंच विषयक बातचीत पर दृष्टि डालें तो अधिकांशत: उसके विषय में एक किस्म की समानता देखी जा सकती है। विभिन्न शहरों में होने वाले रंगमंच के वर्तमान को अपने अतीत के मुकाबले देखने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। पिछले तीन-चार दशकों में रंगमंच का चेहरा इतना ज्यादा बदल चुका है कि इसे समझने के लिए अतीत के संदर्भ का सहारा लिया जा रहा है। अपने ‘‘आज’ को ‘‘कल’ के परिप्रेक्ष्य में देखने-समझने की कोशिश की जा रही है।

पटना रंगमंच के वर्तमान को निकट अतीत के, पिछले तीन-चार दशकों, की तुलना में देखना चाहें तो एक
अनीश अंकुर 
बड़ा फर्क सहज ही दृष्टव्य है। पटना रंगमंच में 80 का दशक नयी-नयी संस्थाओं के अभ्युदय काल रहा है। आज पटना रंगमंच की कई सक्रिय संस्थाओं में से अधिकांश उसी दशक में अस्तित्व में आयीं। अब फिर से नये-नये संगठनों की अचानक जैसे बाढ़ सी आ गयी है। पिछले दो-तीन वर्षों के भीतर बनने वाले संगठनों के उदय की प्रक्रिया दिलचस्प है। अस्सी व नब्बे के दशक में मान लीजिए किसी एक संगठन में सभी नाटकों का निर्देशन एक खास व्यक्ति कर रहा है परिणामस्वरूप दूसरे रंगकर्मियों की निर्देशन या अच्छे रोल मिल पाने की आकांक्षा उस संगठन में पूरी न हुई। जिससे तनाव व संघर्ष होता था परिणामस्वरूप नये संगठनों का आर्विभाव होता। या फिर कोई रंगकर्मी एन.एस.डी. जैसी संस्था से प्रशिक्षण प्राप्त कर लौटा तो अपने मातृ संगठन के बजाए अपना अलग संगठन कायम करता। पटना या बिहार दूसरे हिस्सों में जो भी रंगकर्मी प्रशिक्षण (खासकर एन.एस.डी.) प्राप्त कर लौटे उसमें लगभग हर किसी ने अपनी नयी संस्था बनायी। प्रशिक्षण हासिल करने की यह सबसे बड़ी त्रासदी रही कि वो सामूहिकता के बजाए व्यक्ति केंद्रित ज्यादा होता चला गया। पुराने संगठन की जैसी भी सामूहिकता रही हो प्रशिक्षणोपरांत अपने सृजनात्मक विकास में उसे अवरोध की तरह दिखाई पड़ने लगती है।

अब जो संगठन बन रहे हैं वो आवश्यक नहीं कि अपने काम करने वाले संगठन को तोड़ कर, उससे इतर नया संगठन बनाया जाए। बल्कि एक ही संगठन में काम करते हुए सभी सदस्यों की सहमति से, सभी सदस्य एक-एक संगठन या कहें एन.जी.ओ. का कर्ता-धर्ता भी बन जाता है। इसका मकसद होता है रंगकर्म के नाम पर मौजूद संसाधनों पर अलग-अलग एन.जी.ओ. बनाकर कब्जा जमाना। बिहार में पिछले कुछ वर्षों से हर विभाग खासकर शिक्षा, स्वास्य, पर्यावरण, पुलिस विभागों अपने प्रचारात्मक अभियानों में नाटकों का उपयोग किया करती है। अत: एक ही संगठन में काम करने वाले सभी प्रमुख सदस्य एक-एक संगठन जो एक एन.जी.ओ. के भी मालिक हैं वे जो भी थोड़ा बहुत फंड है, अपनी दावेदारी प्रस्तुत करते हैं। इनलोगों की खासियत है कोई रंगमंचीय या सृजनात्मक प्रतिबद्धता नहीं! बल्कि सिर्फ और सिर्फ पैसा। पैसा और प्रोजेक्ट ने पुराने संगठनों को छिन्न-भिन्न कर चेहरा बिगाड़ दिया है। संगठनविहीनता रंगमंच में नये दौर का कॉमनसेंस है।

दरअसल संगठन व सामूहिकता को कमजोर करने वाली पटना रंगमंच में तीन किस्म की लॉबी ऑपरेट कर रही है। एन.एस.डी लॉबी, रेपर्टरी लॉबी एवं एन. जी.ओ लॉबी। इन तीनों किस्म की लॉबी का एक दूसरे में रूपांतरण भी होता रहता है, कभी-कभी एक ही बैनर तले ये तीनों प्रवृतियां व लॉबी हावी रहती है। आज पटना रंगमंच में जिस संगठन की सबसे ज्यादा बदनामी है कि जहां एक ही संगठन में दर्जन भर संगठन है, कई एन.जी.ओ. व रेपर्टरी है वो खुद एन.एस.डी. प्रशिक्षित एक रंगकर्मी की देख-रेख में फल-फूल रहा है। इस संगठन की कार्यप्रणाली को एक यदि केसस्टडी की तरह देखा जाए तो पटना रंगमंच में संगठनों के पतन की नयी परिघटना केा ठीक से समझा जा सकता है।

रंगकर्म के नाम पर होने वाला थोड़ा भी संसाधन है वो इन्हीं तीनों लॉबी से बाहर नहीं होनी चाहिए। रंगकर्म के नाम पर मिलने वाले सम्मानों को भी संसाधनों की श्रेणी में ही रखकर समझा जा सकता है।

रेपर्टरी या रंगमंडल लॉबी एक नये किस्म का गठबंधन है। पटना में कई रेपर्टरी चल रही है। इसने रंगमंच में एक नवीन शब्दावली को जन्म दिया है। यदि दो रंगकर्मी किसी एक रेपर्टी के संबंध में बात कर रहे हों मसलन एक पूछेगा कि फलां की रेपर्टरी कितने की है जवाब में वो कहेगा दस और एक। अर्थशास्त्र के दृष्टिकोण से इसका अर्थ हुआ कि दस सदस्यों को छह हजार और एक संयोजक या निर्देशक केा दस हजार प्रति माह की दर से आमदनी। शायद ही कोई रंगमंडल अपने अभिनेताओं को उसके लिए निर्धारित मानदेय, छह हजार, देता है। रंगमंडल के लिए काम करने वाले किसी भी अभिनेता से बात करें वो आपको बताएगा कि उसे निर्धारित रकम से आधी या उससे भी कम दी जाती है।

जबकि यह अभिनेता ही है जिस पर रंगमंच का सारा दारोमदार टिका रहता है। लेकिन वे इस डर से आवाज नहीं उठाते कि कहीं रंगमंडल उन्हें बाहर का रास्ता न दिखा दिया जाए। हायर व फायर का नवउदारवादी तर्क यहॉं प्रचलित है। अभिनेता को उनकी न्यूनतम मानदेय से भी महरूम रखने की आवश्यकता रेपर्टरी संचालकों को एक किस्म की पतित भाईचारगी में बॉंधे रखती है। रंगकर्मियों की आपसी बातचीत में यह जुमला सरेआम है कि ‘‘अभिनेताओं की स्थिति तो नरेगा के मजदूरों से भी गयी गुजरी है"।

वैसे केंद्र सरकार नरेगा जैसे अन्य कल्याणकारी योजनाओं में लूट की रोकथाम के लिए, वित्तीय समावेशन यानी लाभुकों की मजदूरी का पैसा सीधा उनके बैंक खाते में भेजने की बात जोर-शोर से करती है। रंगमंडल के अभिनेताओं का मानदेय भी उनके खाते में नहीं आ सकता इससे एक हद ही सही तक वाजिब हक के लूट पर नियंत्रण लग सकता है। लेकिन सामाजिक क्षेत्र में पारदर्शिता की बात करने वाली बड़बोली केंद्र सरकार रंगमंच के क्षेत्र में शायद ही ऐसा करे। देश भर में बिचौलियों के माध्यम से वो शासवर्गीय एजेंडा के लिए कॉंस्टीच्वेंसी, अपने वर्चस्व की वैधता बनाए रखती हैं।

अभिनेताओं में एका का अभाव, उनका असंगठित होना उनकी दुर्दशा को और बढ़ाता है वे एकजुट होकर सरेआम चलने वाली इस लूट व भ्रष्टाचार का प्रतिरोध भी नहीं कर पाते। कोई जबान खोलना नहीं चाहता जबकि सभी इस खुले व नंगे शोषण से वाकिफ हैं। कमोवेश यही हाल एन.जी.ओ. के लिए काम करने वाले अभिनेताओं का भी है। संस्थाओं में न्यूनतम लोकतंत्र भी नहीं होता जो कि पुराने संगठनों की पहचान थी। पैसों के वितरण पर कोई भी जनतांत्रिक दबाव यहां मंजूर नहीं है।

एन.एस.डी. लॉबी की विशेषता है कि वो प्रांत के बाहर के सभी संसाधनों मसलन कार्यशाला करना, अपने नाटकों के राज्य के बाहर प्रदर्शन आदि पर एकाधिकार रहता है। एन.एस.डी. लॉबी भूल कर भी अपने बाहर के संर्पकों या नेटवर्क (जिससे उनको कार्यशाला एवं नाटकों के शो मिलते रहते हैं) का पता स्थानीय रंगकर्मियों को नहीं लगने देती और न ही उसका फायदा स्थानीय रंगकर्मियों को लेने देती है। थियेटर के बाजार में सरकारी महोत्सवों, विभिन्न अकादमियों के फेस्टीवल, कार्यशालाओं में इन्हीं केा तरजीह दी जाएगी। उनके नाटकों की तैयारी भले पटना स्थित थियेटर वर्कशॉप में होगी लेकिन उसका बाजार राज्य के बाहर होगा। स्थानीय रंगकर्मियों की हैसियत पटना स्थित इनके थियेटर वर्कशॉप में श्रमिक से अधिक नहीं है। दूसरा एन.एस.डी. प्रशिक्षित रंगकर्मी का कितना भी भ्रष्ट, पक्षपाती व अनैतिक क्यों न हो वे अपनी जबान उसके विरुद्ध नहीं खेलते। राज्य के बाजार पर कब्जे के हितों की रक्षा का बिरादराना भाव आपस उन्हें एकसाथ बनाए रखता है।

वैसे ये अलग बात है कि दूसरे हिंदी प्रदेशो के मुकाबले यहॉं भी बिहार के साथ नाइंसाफी की जाती है। चुँकि अपने प्रांत के रंगकर्मियों पर उनका भरोसा नहीं होता वे प्रदेश के कारण अपने साथ होने वाले भेदभाव के विरुद्ध कुछ नहीं कर पाते।

साभार: राष्ट्रीय सहारा, पटना