Tuesday, November 24, 2015

बहुलतावाद की रक्षा में व्योमेश का सांस्कृतिक हस्तक्षेप


संजय पराते

क कृति के कितने पाठ हो सकते हैं ? निश्चय ही उतने, जितनी एक घटना की व्याख्याएं. कई-कई पाठ और कई-कई व्याख्याएं बहुलतावाद को जन्म देती है. इन पाठों और व्याख्याओं का एक साथ रहना-गुनना ही सहनशीलता की संस्कृति को जन्म देता है. आज यही संस्कृति हिंदुत्ववादियों के निशाने पर है. वे अपनी एकरंगी व्याख्या से बहुलतावाद को हड़पना चाहते हैं और इस कोशिश में वे हमारी संस्कृति के महानायकों का भी हरण करने से नहीं चूक रहे हैं. वे महात्मा गांधी और भगतसिंह का हरण कर रहे हैं, तो ' महाप्राण ' निराला को भी उग्र हिन्दू राष्ट्रवादी के रूप में व्याख्यायित कर रहे हैं. निराला को हड़पने की कोशिश में वे ' वह तोड़ती पत्थर ' को ठुकराते हैं, ' राम की शक्ति-पूजा ' का सहारा लेते हैं.
आधुनिक हिंदी साहित्य में निराला का एक विशेष स्थान है. ' राम की शक्ति-पूजा ' उनकी कालजयी रचना है. लेकिन ये राम न वाल्मिकी के ' अवतारी ' पुरूष हैं और न तुलसी के ' चमत्कारी ' भगवान ' . वे महज़ एक संशययुक्त साधारण मानव है, जो लड़ता है, हताश-निराश होता है, फिर प्रकृति से शक्ति प्राप्त करता है और शक्ति के संबल से विजय प्राप्त करता है. द्वितीय विश्व युद्ध में आम जनता के आत्मोत्सर्ग से हिटलर के नेतृत्व वाली फासीवादी ताकतों की पराजय सुनिश्चित होती है. इस विश्व युद्ध की पूर्वबेला में निराला ' राम की शक्ति-पूजा ' करते हैं. वे मानस के कथा-अंश को नए शिल्प में ढालते हैं.
लोक परंपरा से मिथक शक्ति ग्रहण करते हैं. यदि ये मिथक गलत हाथों में चले जाएं, तो उसका दुरूपयोग संभव है. भारतीय राजनीति की हकीकत भी आज यही है कि यहां गलत हाथों में मिथक चले गए हैं और पूरी राजनीति ' राम ' और ' गाय ' के मिथकों के सहारे लड़ी जा रही है. इसीलिए बहुलतावादी संस्कृति की रक्षा में इन मिथकों के पुनर्पाठ, पुनर्व्याख्या की जरूरत है.
व्योमेश शुक्ल का रंगमंच इसकी पूर्ति करता है. भारतीय राजनीति में सांप्रदायिक ताकतें जिन मिथकों का सहारा ले रही हैं, उन्हीं मिथकों का सहारा वे उन्हें पछाड़ने के लिए कर रहे हैं. अपनी बहुलतावादी परंपरा की खोज में वे दिनकर, प्रसाद, निराला और भास तक जा रहे हैं और रंगमंच पर राम और महाभारत का बहुलतावादी पुनर्सृजन कर रहे हैं. भारतीय संस्कृति की बहुलतावादी परंपरा की खोज में वे बहुत कुछ तोड़ रहे हैं, बहुत-कुछ जोड़ रहे हैं और इस जोड़-तोड़ से रंगमंच की लोक परंपरा को पुनर्सृजित कर रहे हैं. इस पुनर्सृजन में वे सितारा देवी के ' हनुमान परन ' का भी उपयोग कर रहे हैं, ' राणायनी संप्रदाय ' के बापटजी के ' सामगान ' का भी इस्तेमाल कर रहे हैं, तो पंडित जसराज के भजन भी उनके रंगमंचीय साधन है. लेकिन लोक परंपरा के इस पुनर्सृजन धार्मिकता कहीं हावी नहीं है. वे राम की एक ऐसी लोक व्याख्या प्रस्तुत करते हैं, जो देश-काल-धर्म के परे स्थापित होती है. राजनीति और संस्कृति में धर्म के इस्तेमाल के खतरे से वे वाकिफ हैं. उन्हें मालूम है कि राजनीति का चेहरा गहरे अर्थों में सांस्कृतिक भी होता है और यदि संस्कृति के क्षेत्र में धर्म को हावी होने दिया जाएगा, तो राजनीति के चेहरे को सांप्रदायिक होने से कौन रोक सकता है ?
सो, व्योमेश शुक्ल की ' राम की शक्ति-पूजा ' निराला की साहित्यिक परंपरा का रंगमंचीय सृजन है. उनकी यह नृत्य-नाटिका अभिनय और नृत्य का अदभुत मिश्रण है. पात्रों का रंगाभिनय मूक अभिनय का निषेध करता है और नृत्य के लय-ताल-गति को स्थापित करता है. शास्त्रीय संगीत में डूबी बनारसी राम लीला के इस मंचन में भरतनाट्यम और छाऊ नृत्यों का अदभुत संगम स्थापित किया गया है.
व्योमेश शुक्ल की कल की दूसरी प्रस्तुति ' पंचरात्रम ' भी महाभारत के एक दूसरे पाठ को सामने लाती है, जिसकी रचना महाकवि भास ने की है. यहां " सुईं के नोंक के बराबर भी जमीन नहीं दूंगा " का अंध-राष्ट्रोंन्माद नहीं है, बल्कि द्रोणाचार्य को दक्षिणा के रूप में आधे राज्य को देने को तैयार दुर्योधन खड़ा है. यहां दुर्योधन की ओर से लड़ने वाला अभिमन्यु है, जो विराट के गायों के अपहरण के लिए अर्जुन से लड़ता है और भीम से पराजित होता है. पांच दिनों में पांडवों को खोजने की दुर्योधन की शर्त पूरी होती है और पांडवों को आधा राज्य मिलता है. भास की यह कृति ' महाभारत ' का निषेध है. जिसका साहसिक मंचन कल व्योमेश ने किया. इस देश में जब बहुलतावाद और सहिष्णुता की संस्कृति संघी गिरोह के निशाने पर है, व्योमेश के इस सांस्कृतिक हस्तक्षेप की सराहना की जानी चाहिए.
(लेखक की टिप्पणी -- बतौर एक दर्शक ही)

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