Thursday, November 26, 2015

अनुपम का ' सारांश ' आैर दानिश इकबाल का ' सारांश '

ह महेश भट्ट की फिल्म थी - उनकी सबसे प्रिय फिल्म, जिसके जरिये 28 साल की उम्र में अनुपम खेर ने फिल्म जगत में प्रवेश किया था. लेकिन यह दानिश इकबाल का नाटक था, जिसे उन्होंने महेश भट्ट के मार्गदर्शन में ही तैयार किया है. इस प्रकार यह एक मिली-जुली कृति है. खचाखच भरे रायपुर के मुक्ताकाशी मंच पर रंग दर्शक सांस थामे मंचन देखते रहे. जबरदस्त तालियों के साथ उन्होंने दिल खोलकर कलाकारों के अभिनय की सराहना की. फिल्म पर रंगमंच का पलड़ा भारी दिखा.

ऊपरी तौर पर यह एक रिटायर्ड हेड मास्टर बी वी प्रधान की कहानी है, जो अपने बेटे की अकारण हत्या के बाद अपनी पत्नी पार्वती के साथ मिलकर जीवन के नए अर्थों की तलाश करता है. इस ' तलाश ' में वह टूटता-बिखरता है, लेकिन हारता नहीं. वह अपनी पत्नी के चेहरे की झुर्रियों में अपने जीवन का ' सारांश ' खोजता है.

लेकिन गहरे अर्थों में यह आज़ादी के बाद बने पतनशील समाज की कहानी है, जिसके मूल्य बिखर रहे हैं, सपने हवा हो रहे हैं. इस समाज पर भ्रष्टाचार का रोग लगा है. राजनीति पर अपराधीकरण हावी है और इस राजनीति का मुख्य लक्ष्य केवल चुनाव जीतना और पैसे बनाना रह गया है. यह राजनीति इतनी संवेदनहीन हो चुकी है कि कोख में पनप रहे बच्चे की भी हत्या पर वह उतारू है.

लेकिन पतनशीलता के खिलाफ एक लड़ाई हमेशा जारी रहती है. अपने बेटे अजय की हत्या प्रधान और उसकी पत्नी भूल नहीं पाते. सुजाता की कोख में पार्वती अपने बेटे अजय को देखती है.दोनों मिलकर इस बच्चे को जन्म देना ठानते हैं. लेकिन प्रधान नहीं चाहते कि उनकी पत्नी कल्पना-स्वप्न में जीयें. वे कठोरता से सुजाता व विलास को घर से अलग करके बच्चे का जन्म सुनिश्चित करते हैं. प्रधान दंपत्ति जिंदगी का सामना करने फिर से तैयार होते हैं, क्योंकि मृत कभी वापस नहीं आते और जीवन असीमित है.

' सारांश ' में अनुपम खेर ने प्रधान की भूमिका निभाई थी और असहिष्णुता के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी. जिस संघर्ष को उन्होंने परदे पर लड़ा -- वह केवल अभिनय था, वास्तविक नहीं. वास्तविकता तो यह है कि आज वे असहिष्णुता की उन्हीं ताकतों के साथ हैं, जो न केवल राजनैतिक गुंडागर्दी कर रही है, बल्कि उनका बस चले तो अपनी विरोधी ताकतों को ' देशनिकाला ' दे दें. पर्दे पर वे अपने बेटे अजय की हत्या से विचलित दिख सकते हैं, लेकिन वास्तविक जीवन में एक अफवाह पर भीड़ द्वारा इखलाक की हत्या कर देने से वे विचलित नहीं होते. वे उस राजनीति के पक्ष में खड़े हैं, जो इखलाक, पानसारे, कलबुर्गी की हत्या के लिए जिम्मेदार है. वे उन लोगों की अगुवाई कर रहे हैं, जो इस समाज की ' उदार ' मानसिकता को ' असहिष्णु ' मानसिकता में बदल देना चाहते हैं और जो ताकतें असहिष्णुता के खिलाफ लड़ रही है, उन्हें ही ' असहिष्णु ' बताते हुए गरिया रही है. यह जरूरी भी नहीं कि एक अच्छा अभिनेता, एक अच्छा इंसान भी हो.

अनुपम खेर के ' सारांश ' से एकदम जुदा है दानिश इकबाल का ' सारांश ' . फिल्म का नायक तो आज खलनायक बन चुका है और रंगमंच आज नायक की भूमिका अदा कर रहा है - एक ' असहिष्णु ' समाज के निर्माण के प्रयासों के खिलाफ अपनी लड़ाई लड़ रहा है.

यह मुक्तिबोध के नाम पर आयोजित इप्टा के 19वें राष्ट्रीय नाट्य समारोह का आखिरी दिन था, जिस पर समर्पण और श्रद्धांजलि विवाद हावी रहा. लेकिन कलबुर्गी, पानसारे-जैसे इस देश के अप्रतिम योद्धाओं के लिए न कोई श्रद्धांजलि थी, न कोई समर्पण. कहीं यह इप्टा के जेबी संगठन बनने और वैचारिक क्षरण का लक्षण तो नहीं ? मुक्तिबोध आज इप्टा से ही पूछ रहे हैं -- किस ओर खड़े हो तुम ? दंगाईयों के साथ या दंगों के खिलाफ ?? इप्टा को आज मुक्तिबोध के ' अंधेरे में ' को समझना बहुत जरूरी है.

(लेखक की टिप्पणी - बतौर एक दर्शक ही)

दानिश इकबाल की ' अकेली '

दिल्ली के ' सदा आर्ट्स सोसाइटी ' के दानिश इकबाल कला-जगत की एक प्रतिभाशाली हस्ती है. रंगमंच के साथ ही वे टीवी, फिल्म व रेडियो से भी जुड़े हैं. लेकिन रंगमंच ने उन्हें विशेष पहचान दी है. सारा का सारा आसमान, सारांश, कैदे-हयात, शास्त्रार्थ, डांसिंग विथ डैड, अ सोल सागा जैसे प्रसिद्ध नाटक उनके खाते में है. संगीत नाटक अकादमी से पुरस्कृत तथा मोहन राकेश सम्मान से सम्मानित दानिश के तीन नाटक सर्वश्रेष्ठ नाटक के पुरस्कार से भी नवाजे जा चुके हैं. बाजारीकरण के इस दौर में भी दानिश रंगमंच से जुड़े हैं, तो यह उनका जूनून ही है.

रायपुर इप्टा द्वारा 19वें मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाट्य समारोह के पांचवें दिन उनकी प्रस्तुति ' अकेली ' ने रंग-दर्शकों को बंबईया टीवी सीरियल का अहसास दिलाया. इस नाटक ने दिल्ली में खूब प्रसिद्धि पाई है, जहां लोग ऊंची दरों पर भी टिकेट खरीदकर नाटक देखने जाते हैं. रायपुर के मुक्ताकाशी मंच पर रंग-दर्शक मुक्त रूप से मुफ्त आवाजाही करते हैं. दोनों प्रकार के रंग-दर्शकों का रंग-मानस अलग-अलग होता है. क्योंकि दर्शक समुदाय के चरित्र की भिन्नता इसमें निहित रहती है. अतः यह जरूरी नहीं कि दिल्ली का प्रसिद्ध नाटक रायपुर के रंगमंच पर भी जमे. हुआ भी ऐसा ही, लेकिन इसमें निर्देशक दानिश इकबाल का कोई कसूर नहीं था.

वास्तव में विभिन्न शहरों और विभिन्न दर्शक-समुदायों का रंग-स्वाद अलग-अलग होता है.दिल्ली का जो रंग-दर्शक अल्पना की समस्या से जुड़ाव महसूस करता है, वैसा ही जुड़ाव रायपुर का रंग-दर्शक महसूस नहीं कर पाता और वह केवल नाटक के हास्य-व्यंग्य का मजा लेता है. दिल्ली का रंग-दर्शक ' एलीट ' है और रायपुर का  मध्यम, मजदूर वर्गीय '. दिल्ली के दर्शक के लिए अल्पना की शादी की समस्या वास्तविक हो सकती है, लेकिन रायपुर के दर्शक के लिए नहीं. रायपुर की ' अकेली ' महिला की समस्या सिर्फ शादी की नहीं होती, वह घर-बाहर -- नाते-रिश्तेदारों के बीच, घर और ऑफिस के बीच, ऑफिस के अंदर -- सब जगह अलग किस्म की समस्याओं का सामना करती है. उसका ' अकेलापन ' सधवा अकेली से भी नितांत भिन्न होता है. इसीलिए दानिश की ' अकेली ' यहां रंग-दर्शकों को छू नहीं पाई. 

(लेखक की टिप्पणी - बतौर एक दर्शक ही)

Tuesday, November 24, 2015

' रश्मिरथी ' आैर व्योमेश शुक्ल का बनारसी ठाठ



संजय पराते
'महाभारत ' समाज में मातृसत्ता के लोप और दासत्व की स्थापना का महाकाव्य है. विभिन्न कला-माध्यमों में यह काव्य पुनर्रचित, पुनर्सृजित होता रहा है. राष्ट्रकवि रामधारीसिंह दिनकर ने इसकी पुनर्रचना ' रश्मिरथी ' के रूप में की है, तो नाट्य संस्था ' रूपवाणी ' के जरिये व्योमेश शुक्ल ने इसे मंच पर नृत्य नाटिका के जरिये साकार किया है.
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 रश्मिरथी ' महाभारत की कहानी का हिस्सा है. महाभारत का एक अद्वितीय चरित्र है कर्ण. कर्ण एक संपूर्ण व्यक्तित्व नहीं है. उसके व्यक्तित्व का निर्माण महाभारत के विभिन्न पात्रों के आचरण से निर्मित होता है. वह कुंती की अवैध संतान है, क्योंकि कुंती ने उसे कुमारी अवस्था में उत्पन्न किया था. वह सूर्यपुत्र था, लेकिन मातृसत्ता के ध्वंस ने कुंती को इतना असहाय बना दिया था कि उसे अपने सुंदर पुत्र का त्याग करना पड़ा. ' सूर्यपुत्र ' को ' सूतपुत्र ' बनना पड़ा, जिसका पालन-पोषण दरिद्र और मामूली मछुआरों द्वारा किया गया. मनु के वर्ण-विधान में ' सूत ' शूद्रों के अधिक निकट थे. लेकिन फिर भी वह, अपने वैध पांडव भाईयों से अधिक वीर व उदार था. अर्जुन भी हालांकि राजा पांडु की वैध संतान नहीं था, लेकिन उसके पास पितृसत्ता और उससे उत्पन्न कुल-गोत्र की छाया थी. पितृसत्ता और कुल-गोत्र का यह बल कर्ण पर हमेशा भारी पड़ा, बावजूद इसके कि वह अर्जुन से ज्यादा पराक्रमी था. प्रतिद्वंद्वी कर्ण भरी सभा में अपने पिता का नाम नहीं बता सका. कुंती का आंचल दूध से भीगता रहा, लेकिन मातृसत्ता हार चुकी थी. अब संतानों की पहचान पिताओं से होती थी.

मातृसत्ता के ढहने और पितृसत्ता के स्थापित होने का प्रतीक परशुराम भी है, जिन्होंने अपने पिता के कहने पर अपनी माता की हत्या की थी. कर्ण को इस मातृहंतक ब्राह्मण से भी शापित होना पड़ा.इस प्रकार कर्ण को बार-बार अपने पूरे जीवन अपनी अस्मिता से जूझना पड़ा. बार-बार उसका अतीत उसके ' वीरत्व ' को पीछे खींचता रहा. तब दुर्योधन ने उसे पहचान दी, उसका अभिषेक राजा के रूप में किया और कुंतीपुत्र कर्ण अपनी संपूर्णता में दैदीप्यमान कौरव सेनापति के रूप में खड़ा होता है. अपनी अस्मिता के संघर्ष में कर्ण विजयी होता है. कौरवों और पांडवों के बीच का महाभारत ' कर्ण ' की उपस्थिति के बिना अर्थपूर्ण व संभव न था.

इसीलिए दिनकर की ' रश्मिरथी ' का नायक कर्ण ही है, जिसे व्योमेश शुक्ल ने ठेठ बनारसी रंग में कल मुक्ताकाशी मंच पर साकार किया. इसके विमर्श के केन्द्र में अस्मिता की वही राजनीति है, जो आधुनिक भारत की राजनीति के केन्द्र में आज भी है. अन्याय के खिलाफ सामाजिक लामबंदी के प्रभावशाली साधन के रूप में आज भी इसका प्रयोग किया जा रहा है. शायद यही कारण हो कि दलितों और वंचितों को आज भी सबसे ज्यादा अपील कर्ण ही करते हैं, कृष्ण नहीं.

व्योमेश शुक्ल अपने अंदाज़ में ' रश्मिरथी ' को प्रस्तुत करते हैं, जिसमें बार-बार कुंती की आवाजाही और उसका मातृनाद है. इस मातृनाद से विचलित होते हुए भी, कुंती के लिए कर्ण का आश्वासन केवल यही है कि उसके पांच बेटे जीवित रहेंगे, ' पांच पांडवों ' का वे कोई आश्वासन नहीं देते. इस प्रकार वे पितृसत्ता को चुनौती देते हैं. अपनी अस्मिता के संघर्ष में वे जातिप्रथा की अमानवीयता को उजागर करते हैं, जो एक मनुष्य को उसकी मानव जाति से अलग कर दासत्व की श्रेणी में ढकेलती है. कर्ण का संघर्ष क्रमशः स्थापित होती दास प्रथा के खिलाफ हुंकार भी है. कर्ण की मृत्यु दास प्रथा की स्थापना का प्रतीक है. कर्ण, दुर्योधन और कृष्ण के अभिनय में उनके स्त्री-पात्रों ने बहुत कुशलता से रंग भरा है.

यह 19वें मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाट्य समारोह का दूसरा दिन था -- जो जितेन्द्र रघुवंशी के साथ ही बबन मिश्र की ' अपराजेय ' स्मृति को समर्पित था. इस दिन आयोजकों ने अपनी उस घोषणा से भी ' मुक्ति ' पा ली कि कुमुद देवरस सम्मान जिस महिला नाट्यकर्मी को दिया जाएगा, उसकी एक नाट्य-प्रस्तुति भी मंच पर अवश्य ही होगी. इस वर्ष यह सम्मान रायगढ़ इप्टा की ऊषा आठले को दिया गया, लेकिन उनकी नाट्यकृति की अनुपस्थिति के साथ. इप्टा को अभी बहुत-से झंझटों से मुक्ति पाने के लिए एक लंबी यात्रा करनी होगी।
(लेखक की टिप्पणी बतौर एक दर्शक ही)

कुमुद देवसर सम्मान और उषा आठले

अखतर अली 


मुक्तिबोध नाट्य समारोह जैसा स्तरीय मंच,नाट्य प्रेमियों की मौजूदगी ,नाट्य पंडितो द्वारा चयन ,नाट्य क्षेत्र में काम करने वालो द्वारा नाट्य क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिये सम्मानित के लिये किसी शख्सियत का चयन निःसंदेह रोमांचित करने वाला है । ये वह सम्मान है जिसे देने वाला और पाने वाला दोनों मेरी दृष्टि में भाग्यशाली है । यह स्थानीय या प्रादेशिक सम्मान नहीं बल्कि रंगक्षेत्र में किसी महिला रंगकर्मी द्वारा किये जा रहे निरंतर स्तरीय कार्यो के लिए दिए जाने वाला एक राष्ट्रीय सम्मान है । 

इस वर्ष यह सम्मान रायगढ़ की रंगकर्मी उषा आठले को दिया जाना तय किया गया है । इसके पहले यह सम्मान उषा गांगुली को भी दिया जा चुका है , उस उषा से लेकर इस उषा तक रंगमंच एक सा नहीं है । उषा गांगुली का रंगमंच में योगदान को कोई कमतर नहीं आंक सकता , निःसंदेह उन्होंने अपनी प्रस्तुतियों से रंगमंच को समृद्ध किया है , नाटको की लोकप्रियता में इज़ाफ़ा किया है , रंगमंच को व्यवसायिक बनाया है । उषा आठले के खाते में शायद उषा गांगुली जैसी उपलब्धिया न हो लेकिन उषा गांगुली के खाते में भी वो उपलब्धियां नहीं होगी जो उषा आठले के नाम है । नादिरा बब्बर और उषा गांगुली को उनकी कर्मभूमि कोलकता और मुंबई में काम करने के लिये पहले से जमा जमाया और बसा बसाया रंगमंच मिला था जबकि उषा आठले रायगढ़ जैसी जगह में जहाँ रंगमंच अपने शैशव काल में था उसे अपने कंधो पर उठाये ऊंचाई प्रदान करती रही । नादिरा बब्बर को प्रशक्षित अभिनेता मिले और उषा जी को रंगमंच से अपरिचित लोगो को प्रशिक्षित करना पड़ा । उषा गांगुली के पास सर्व सुविधा युक्त प्रेक्षागृह और अभ्यस्त दर्शक होने के कारण रंगमंच के अनुकूल वातावरण था वही उषा आठले को प्रतिकूल वातावरण में रंगकर्म करना पड़ा । जहाँ उषा गांगुली खाली जेब घर से निकलती और नाटक करके हाथ में पैसे लिये घर जाती है वही उषा आठले जेब में पैसे लेकर घर से निकलती है और नाटक करके खाली हाथ घर जाती है ।


मुंबई और कोलकाता में जो रंगमंच हो रहा है , उसमे रोज़गार है ,कलात्मकता है ,पब्लिक टेस्ट के अनुसार स्क्रिप्ट चयन होता है लेकिन रायगढ़ में जो रंगमंच होता है उसमे सामाजिक ज़िम्मेदारी का निर्वाह है , वैचारिकता है , स्क्रिप्ट चयन के अनुसार पब्लिक टेस्ट को पैदा करने की ज़िद है । रंगमंच की नादिरा मुंबई में है लेकिन बब्बर की दहाड़ रायगढ़ के रंगमंच में सुनाई देती है । आठले उषा की वह किरण है जिससे हिंदी रंगमंच जगमगा रहा है । ये मेरा सौभाग्य है कि रंगमंच में उत्कृष्ट कार्य करने वाली महिला के रूप में जब इप्टा रायपुर के प्रतिष्ठित मंच से श्रीमती उषा आठले का सम्मान किया जायेगा उस क्षण का प्रतयक्ष दर्शी मै भी रहूगा ।


आयोजको को चाहिये कि सम्मान के समय उनके पति को भी मंच पर बुलाया जाये क्योकि उनका सहयोग भी सराहना का हकदार है।

 संपर्क :
आमानाका
रायपुर ( छ ग )
मोबाईल - 9826126781

बहुलतावाद की रक्षा में व्योमेश का सांस्कृतिक हस्तक्षेप


संजय पराते

क कृति के कितने पाठ हो सकते हैं ? निश्चय ही उतने, जितनी एक घटना की व्याख्याएं. कई-कई पाठ और कई-कई व्याख्याएं बहुलतावाद को जन्म देती है. इन पाठों और व्याख्याओं का एक साथ रहना-गुनना ही सहनशीलता की संस्कृति को जन्म देता है. आज यही संस्कृति हिंदुत्ववादियों के निशाने पर है. वे अपनी एकरंगी व्याख्या से बहुलतावाद को हड़पना चाहते हैं और इस कोशिश में वे हमारी संस्कृति के महानायकों का भी हरण करने से नहीं चूक रहे हैं. वे महात्मा गांधी और भगतसिंह का हरण कर रहे हैं, तो ' महाप्राण ' निराला को भी उग्र हिन्दू राष्ट्रवादी के रूप में व्याख्यायित कर रहे हैं. निराला को हड़पने की कोशिश में वे ' वह तोड़ती पत्थर ' को ठुकराते हैं, ' राम की शक्ति-पूजा ' का सहारा लेते हैं.
आधुनिक हिंदी साहित्य में निराला का एक विशेष स्थान है. ' राम की शक्ति-पूजा ' उनकी कालजयी रचना है. लेकिन ये राम न वाल्मिकी के ' अवतारी ' पुरूष हैं और न तुलसी के ' चमत्कारी ' भगवान ' . वे महज़ एक संशययुक्त साधारण मानव है, जो लड़ता है, हताश-निराश होता है, फिर प्रकृति से शक्ति प्राप्त करता है और शक्ति के संबल से विजय प्राप्त करता है. द्वितीय विश्व युद्ध में आम जनता के आत्मोत्सर्ग से हिटलर के नेतृत्व वाली फासीवादी ताकतों की पराजय सुनिश्चित होती है. इस विश्व युद्ध की पूर्वबेला में निराला ' राम की शक्ति-पूजा ' करते हैं. वे मानस के कथा-अंश को नए शिल्प में ढालते हैं.
लोक परंपरा से मिथक शक्ति ग्रहण करते हैं. यदि ये मिथक गलत हाथों में चले जाएं, तो उसका दुरूपयोग संभव है. भारतीय राजनीति की हकीकत भी आज यही है कि यहां गलत हाथों में मिथक चले गए हैं और पूरी राजनीति ' राम ' और ' गाय ' के मिथकों के सहारे लड़ी जा रही है. इसीलिए बहुलतावादी संस्कृति की रक्षा में इन मिथकों के पुनर्पाठ, पुनर्व्याख्या की जरूरत है.
व्योमेश शुक्ल का रंगमंच इसकी पूर्ति करता है. भारतीय राजनीति में सांप्रदायिक ताकतें जिन मिथकों का सहारा ले रही हैं, उन्हीं मिथकों का सहारा वे उन्हें पछाड़ने के लिए कर रहे हैं. अपनी बहुलतावादी परंपरा की खोज में वे दिनकर, प्रसाद, निराला और भास तक जा रहे हैं और रंगमंच पर राम और महाभारत का बहुलतावादी पुनर्सृजन कर रहे हैं. भारतीय संस्कृति की बहुलतावादी परंपरा की खोज में वे बहुत कुछ तोड़ रहे हैं, बहुत-कुछ जोड़ रहे हैं और इस जोड़-तोड़ से रंगमंच की लोक परंपरा को पुनर्सृजित कर रहे हैं. इस पुनर्सृजन में वे सितारा देवी के ' हनुमान परन ' का भी उपयोग कर रहे हैं, ' राणायनी संप्रदाय ' के बापटजी के ' सामगान ' का भी इस्तेमाल कर रहे हैं, तो पंडित जसराज के भजन भी उनके रंगमंचीय साधन है. लेकिन लोक परंपरा के इस पुनर्सृजन धार्मिकता कहीं हावी नहीं है. वे राम की एक ऐसी लोक व्याख्या प्रस्तुत करते हैं, जो देश-काल-धर्म के परे स्थापित होती है. राजनीति और संस्कृति में धर्म के इस्तेमाल के खतरे से वे वाकिफ हैं. उन्हें मालूम है कि राजनीति का चेहरा गहरे अर्थों में सांस्कृतिक भी होता है और यदि संस्कृति के क्षेत्र में धर्म को हावी होने दिया जाएगा, तो राजनीति के चेहरे को सांप्रदायिक होने से कौन रोक सकता है ?
सो, व्योमेश शुक्ल की ' राम की शक्ति-पूजा ' निराला की साहित्यिक परंपरा का रंगमंचीय सृजन है. उनकी यह नृत्य-नाटिका अभिनय और नृत्य का अदभुत मिश्रण है. पात्रों का रंगाभिनय मूक अभिनय का निषेध करता है और नृत्य के लय-ताल-गति को स्थापित करता है. शास्त्रीय संगीत में डूबी बनारसी राम लीला के इस मंचन में भरतनाट्यम और छाऊ नृत्यों का अदभुत संगम स्थापित किया गया है.
व्योमेश शुक्ल की कल की दूसरी प्रस्तुति ' पंचरात्रम ' भी महाभारत के एक दूसरे पाठ को सामने लाती है, जिसकी रचना महाकवि भास ने की है. यहां " सुईं के नोंक के बराबर भी जमीन नहीं दूंगा " का अंध-राष्ट्रोंन्माद नहीं है, बल्कि द्रोणाचार्य को दक्षिणा के रूप में आधे राज्य को देने को तैयार दुर्योधन खड़ा है. यहां दुर्योधन की ओर से लड़ने वाला अभिमन्यु है, जो विराट के गायों के अपहरण के लिए अर्जुन से लड़ता है और भीम से पराजित होता है. पांच दिनों में पांडवों को खोजने की दुर्योधन की शर्त पूरी होती है और पांडवों को आधा राज्य मिलता है. भास की यह कृति ' महाभारत ' का निषेध है. जिसका साहसिक मंचन कल व्योमेश ने किया. इस देश में जब बहुलतावाद और सहिष्णुता की संस्कृति संघी गिरोह के निशाने पर है, व्योमेश के इस सांस्कृतिक हस्तक्षेप की सराहना की जानी चाहिए.
(लेखक की टिप्पणी -- बतौर एक दर्शक ही)

प्रगतिशील विचारधारा से ज्यादा सहिष्णु और कोई विचारधारा नहीं



संजय पराते
इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव राकेश द्वारा उदघाटन के साथ रायपुर में 19वां मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाट्य समारोह प्रारंभ हुआ. 25 नवम्बर तक चलने वाले इस समारोह में 9 नाट्य प्रस्तुतियां होंगी. और पहले दिन की प्रस्तुति थी — ‘ आदाब, मैं प्रेमचंद हूं. ‘ मुजीब खान के निर्देशन में आइडियल ड्रामा एंड इंटरटेनमेंट, मुंबई ने मुंशी प्रेमचंद की पांच कहानियों का नाट्य रूपांतर प्रस्तुत किया. ये कहानियां थीं क्रमशः — प्रेरणा, मेरी पहली रचना, सवा सेर गेहूं, आप-बीती और रसिक संपादक. मुजीब खान पर प्रेमचंद को मंचित करने का जुनून है.
वे प्रेमचंद की 315 कहानियों के 500 से ज्यादा मंचन कर चुके हैं. इसके लिए लिम्का बुक में उनका नाम दर्ज है. गिनीज़ बुक में वे दर्ज होना चाहते हैं और इसकी तैयारी चल रही है. कुछ लोग इतिहास में इसी तरह दर्ज होते हैं. शायद प्रेमचंद को भी सुकून हो कि उन्हें मंचित करने के लिए मुजीब खान ने फिल्म और टेलीविज़न को भी ठुकराया. मंचन का जुनून ऐसा कि ट्रेन में आरक्षण न मिलने पर तत्काल का सहारा लिया — आने में और जाने में भी. इतने विकट संघर्ष से ही रंगकर्म जिंदा है.
मुंबई में रंगकर्म को जिंदा रखना आसान नहीं है. जो लोग थियेटर से जुड़ते हैं, वे नाम और पैसे के लिए टीवी व फिल्मों में सरक लेते हैं. रंगकर्म से उनका जुड़ाव 5-6 महीनों तक का होता है. प्रेमचंद पहली सीढ़ी है, जिस पर पांव रखकर आगे बढ़ा जा सकता है. लेकिन मुजीब नींव के पत्थर है, प्रेमचंद को जिंदा रखने के लिए. वे नौसिखियों व नवागतों के सहारे अपने रंगकर्म को खींच रहे हैं और थियेटर से जुड़े रहने का रिकॉर्ड बना रहे हैं.
प्रेमचंद अपनी लेखनी से महान थे, इसमें किसी को शक नहीं. वे सामंतवादविरोधी-साम्राज्यवादविरोधी प्रगतिशील साहित्य आंदोलन के अगुआ थे. अपनी लेखनी में उन्होंने न जॉन को बख्शा, न गोविंद को. सांप्रदायिकता हमेशा उनके निशाने पर रही कि किस तरह वह संस्कृति की खाल ओढ़कर सामने आती है और आम जनता को बरगलाती है.
जिस ‘ गाय ‘ पर आज भारतीय राजनीति में घमासान मचा हुआ है, उस गाय के विविध चित्र अपने पूरे रंग में उनकी कहानियों में छाये हुए हैं -दो बैलों की कथा से लेकर पंच परमेश्वर और गोदान तक फैली हुई. सामाजिक कुरीतियों पर जिस तरह उन्होंने करारा व्यंग्य किया, बहुत ही कम लोगों ने किया और इसके लिए उन्हें ‘ घृणा का प्रचारक ‘ कहा गया. महात्मा गांधी के आह्वान पर उन्होंने अपने शिक्षकीय पेशे से त्यागपत्र दिया. आज यदि वह ऐसा काम करते, तो शायद हमारा संघी गिरोह उन्हें अपनी गालियों से नवाजता. वैसे तब भी वे सांप्रदायिक ताकतों के निशाने पर थे.
सभी कहानियां मंचन योग्य नहीं होती. प्रेमचंद पर भी यह लागू होती है. ऐसी कहानियों को मंचित करने की कोशिश की जाएं, तो उसके मंच पर कहानी-पाठ बनकर रह जाने का खतरा रहता है. ऐसी कहानियां सूत्रधारों के बल पर चलती है. सूत्रधारों का रंगाभिनय रंग-दर्शकों की रंग-कल्पना को उत्तेजित करता है और उसके रंग-मानस में दृश्य रचता है.
इस मायने में सूत्रधार कमजोर, तो पूरे मंचन के बैठ जाने का खतरा रहता है. यह मुजीब का ही साहस है कि वे इस खतरे को उठा रहे हैं. लेकिन इसके बावजूद, जहां भी हास्य-व्यंग्य की उपस्थिति रही, कलाकारों ने जमकर नाटक खेला है और दर्शकों को प्रेमचंद से जोड़ने में सफलता हासिल की है.
आज समूचा प्रगतिशील कला-जगत संघी गिरोह के निशाने पर है. वे पूरे समाज को धर्म और जाति के आधार पर बांट देना चाहते हैं, ताकि अपने ‘ हिंदू-राष्ट्र ‘ के निर्माण के लक्ष्य की ओर बढ़ सकें. हिंदुत्व की मानसिकता पैदा करने की कोशिश कितनी नापाक है, यह निर्दोष ईखलाक की भीड़ द्वारा हत्या से पता चलता है.
एक बहुलतावादी, धर्म-निरपेक्ष और सहिष्णु समाज को एकरंगी, पोंगापंथी और असहिष्णु समाज में बदलने की कोशिश जोर-शोर से जारी है. इसके खिलाफ संघर्ष में प्रेमचंद मशाल लिए आगे-आगे चल रहे हैं. प्रेमचंद की इस मशाल को मुक्तिबोध ने थामा था और हिंदुत्ववादियों ने उनकी पुस्तकों की होली जलाई थी. प्रेमचंद और मुक्तिबोध की इस मशाल को गोविंद पानसारे, नरेन्द्र दाभोलकर और कलबुर्गी ने थामा था और उन्हें शहादत देनी पड़ी.
लेकिन इस समारोह ने स्थापित किया कि प्रगतिशील विचारधारा से ज्यादा सहिष्णु और कोई विचारधारा नहीं हो सकती. जिस देश में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के हत्यारों का सम्मान किया जा सकता है, उस देश में इप्टा को संघी पत्रकार के निधन पर श्रद्धांजलि देने से कोई हिचक नहीं हो सकती. इस समारोह के इस पत्रकार के नाम पर समर्पित होने की ख़बरें तो हवा में चल ही रही है.
(लेखक की टिप्पणी — बतौर एक दर्शक ही)