Wednesday, October 14, 2015

लेखकों , कलाकारों द्वारा पुरस्कार वापसी पर जन संस्कृति मंच का बयान

न संस्कृति मंच उन तमाम साहित्यकारों, कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों का स्वागत करता है जिन्होंने देश में चल रहे साम्प्रदायिकता के नंगे नाच और उस पर सत्ता-प्रतिष्ठान की आपराधिक चुप्पी के खिलाफ साहित्य अकादमी और संगीत नाटक अकादमी के पुरस्कारों तथा पद्मश्री आदि अलंकरण लौटा दिए हैं. जन संस्कृति मंच साहित्य अकादमी की राष्ट्रीय परिषद् तथा अन्य पदों से इस्तीफा देनेवाले साहित्यकारों को भी बधाई द्देता है जिन्होंने वर्तमान मोदी सरकार के अधीन इस संस्था की कथित 'स्वायत्तता' की हकीकत का पर्दाफ़ाश कर दिया है. जिस संस्था के अध्यक्ष इस कदर लाचार हैं कि प्रो. कलबुर्गी जैसे महान 'साहित्य अकादमी विजेता' लेखक की बर्बर ह्त्या के खिलाफ अगस्त माह से लेकर अबतक न बयान जारी कर पाए हैं और न ही दिल्ली में एक अदद शोक-सभा तक का आयोजन, उस संस्था की 'स्वायत्तता' कितनी रह गयी है? आखिर किस का खौफ उन्हें यह करने से रोक रहा है? के. सच्चिदानंदन द्वारा उनको लिखा पत्र सबकुछ बयान कर देता है, जिसका उत्तर तक देना उन्हें गवारा न हुआ. सितम्बर के पहले हफ्ते में भी विभिन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों के प्रतिनिधि अकादमी के अध्यक्ष से दिल्ली में मिले थे और उनसे आग्रह किया था कि प्रो.कलबुर्गी की शोक-सभा बुलाएं. आज तक उन्होंने कुछ नहीं किया.

भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद् हो या पुणे का फिल्म इंस्टिट्यूट, नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी हो या भारतीय विज्ञान परिषद्, आई.आई.एम और आई.आई.टी जैसे प्रतिष्ठित संस्थान हों अथवा तमाम केन्द्रीय विश्विद्यालय तथा राष्ट्रीय महत्त्व के ढेरों संस्थान - शायद ही किसी की भी स्वायत्तता नाममात्र को भी साम्प्रदायिक विचारधारा और अधिनायकवाद के आखेट से बच सके. ऐसे में साहित्य अकादमी की स्वायत्तता की दुहाई देकर अकादमी पुरस्कार लौटानेवालों को नसीहत देना सच को पीठ दे देना ही है.
२०१४ के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले मुज़फ्फरनगर में अल्पसंख्यकों के जनसंहार के बाद से लेकर अब तक हत्याओं का निर्बाध सिलसिला जारी है. पैशाचिक उल्लास के साथ हत्यारी टोलियाँ दादरी जिले के एक छोटे से गाँव में गोमांस खाने की अफवाह के बल पर एक निरपराध अधेड़ मुसलमान का क़त्ल करने से लेकर पुणे-धारवाड़-मुंबई-बंगलुरु जैसे महानगरों तक अल्पसंख्यकों, लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का आखेट करती घूम रही हैं. बुद्धिजीवियों, कलाकारों, पत्रकारों के नाम पर 'डेथ वारंट' जारी कर रही हैं. घटनाए इतनी हैं कि गिनाना भी मुश्किल है. इनके नुमाइंदे टी.वी. कार्यक्रमों में प्रतिपक्षी विचार रखनेवालों को बोलने नहीं दे रहे, खुलेआम धमकियां और गालियाँ दे रहे हैं. सोशल मीडिया पर इनके समर्थक किसी भी लोकतांत्रिक आवाज़ का गला घोंटने और साम्प्रदायिक घृणा का प्रचार करने में सारी सीमाएं लांघ गए हैं. कारपोरेट मीडिया का एक बड़ा हिस्सा इन कृत्यों को चंद हाशिए के सिरफिरे तत्वों का कारनामा बताकर सरकार की सहापराधिता पर पर्दा डालना चाहता है. क्या इन कृत्यों का औचित्य स्थापन करनेवाले सांसद और मंत्री हाशिए के तत्व हैं? लेकिन छिपाने की सारी कोशिशों के बाद भी बहुत साफ़ है कि इतनी वृहद योजना के साथ पूरे देश में, कश्मीर से कन्याकुमारी तक, असम से गुजरात तक निरंतर चल रहे इस भयावह घटनाचक्र के पीछे सिर्फ चन्द सिरफिरे हाशिए के तत्वों का हाथ नहीं, बल्कि एक दक्ष सांगठनिक मशीनरी और दीर्घकालीन योजना है. उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में १६ मई, २०१४ के बाद से सैकड़ों छोटे बड़े दंगे प्रायोजित किए जा चुके हैं. खान-पान, रहन-सहन, प्रेम और मैत्री की आज़ादी पर प्रतिबन्ध लगाए जा रहे हैं. गुलाम अली के संगीत का कार्यक्रम आयोजित करना या पाकिस्तान के पूर्व विदेशमंत्री की पुस्तक का लोकार्पण आयोजित कराना भी अब खतरों से खेलना जैसा हो गया है. त्योहारों पर खुशी की जगह अब खौफ होता है कि न जाने कब, कहाँ क्या हो जाए. भारत एक भयानक अंधे दौर से गुज़र रहा है. अभिव्यक्ति ही नहीं, बल्कि जीने का अधिकार भी अब सुरक्षित नहीं.

आज़ाद भारत में पहली बार एक साथ इतनी तादाद में लेखकों-लेखिकाओं और कलाकारों ने सम्मान, पुरस्कार लौटा कर और पदों से इस्तीफा देकर 'सत्य से सत्ता के युद्ध' में अपना पक्ष घोषित किया है. यह परिघटना ऐतिहासिक महत्त्व की है क्योंकि सम्मान वापस करनेवाले लेखक और कलाकार दिल्ली, केरल, कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, उत्तराखंड, बंगाल, कश्मीर आदि तमाम प्रान्तों के हैं. वे कश्मीरी, हिन्दी, उर्दू, मलयालम, मराठी, कन्नड़, अंग्रेज़ी, बांगला आदि तमाम भारतीय भाषाओं के लेखक-लेखिकाएं हैं. उनका प्रतिवाद अखिल भारतीय है. उन्होंने अपने प्रतिवाद से एक बार फिर साबित किया है कि सांस्कृतिक बहुलता और सामाजिक समता और सदभाव, तर्कशीलता और विवेकवाद भारतीय साहित्य का प्राणतत्व है. रूढ़िवाद और यथास्थितिवाद का विरोध इसका अंग है. इन मूल्यों पर हमला भारतीयता की धारणा पर हमला है. हमारी आखों के सामने अगर एक पैशाचिक विनाशलीला चल रही है, तो उसका प्रतिरोध भी आकार ले रहा है. हमारे लेखक और कलाकार जिन्होंने यह कदम उठाया है, सिर्फ इन मूल्यों को बचाने की लड़ाई नहीं, बल्कि भविष्य के भारत और भारत के भविष्य की लड़ाई को छेड़ रहे हैं.
आइये , उनका साथ दें और इस मुहिम को तेज़ करें.
राजेन्द्र कुमार, अध्यक्ष, जन संस्कृति मंच
प्रणय कृष्ण, महासचिव, जन संस्कृति मंच


2 comments:

  1. Esi ghadiyan vivek ki parixa ki ghariyan hotee hain. Jo abhee nahee bolenge, wey jab bhi bolenge, ghalat bolenge. Samay ko to aage nikalna hai, wah raundata hua niklega.













    azadi ke baad pehli baar ekmusht eisa vivek jaga hai. Vidroh ke is vasant ka swagat.

    ReplyDelete
  2. azadi ke baad pehli baar ekmusht eisa vivek jaga hai. Vidroh ke is vasant ka swagat.

    ReplyDelete