Wednesday, October 14, 2015

कुमार अंबुज : हां ! पुरस्कार लौटाने में राजनीति है, लेकिन....

लेखकों द्वारा सम्मान या पुरस्कार वापस करने संबंधी कुछ सवाल भी सामने आए हैं। इस संदर्भ में कुछ बातें, एक पाठक, लेखक और नागरिक के रूप में, कहना उचित प्रतीत हो रहा हैः

1. पुरस्कार वापस करने संबंधी तकनीकी दिक्कतें हो सकती हैं, यानी प्रदाता संस्था उसे वापस कैसे लेगी, प्रावधान क्या हैं, राशि किस मद में जमा होगी, इत्यादि। उसका जो भी रास्ता हो, वह खोजा जाए लेकिन समझने में कोई संशय नहीं होना चाहिए कि यह एक प्रतिरोध और प्रतिवाद की कार्यवाही है। तमाम तकनीकी कारणों से भले ही यह प्रतीकात्मक रह जाये किंतु इसके संकेत साफ हैं। यह एक सुस्पष्ट घोषणा है कि हम सत्ता की ताकत और आतंक से व्‍यथित हैं। हम विचार, विवेक, बुद्धि के प्रति हिंसा के खिलाफ हैं। अभिव्यक्ति की असंदिग्ध स्वतंत्रता के पक्ष में हैं, सांप्रदायिकता और धार्मिक उन्माद की राजनीति के विरोध में हैं। लोकतांत्रिकता और बहुलतावाद को इस देश के लिए अनिवार्य मानते हैं। इसलिए सम्मान-पुरस्कार वापस किए जाने की यह मुहिम बिलकुल उचित है, इस समय की जरूरत है।

2. कहा जा रहा है कि सम्मान राशि को ब्याज सहित वापस किया जाना चाहिए। और उस यश को भी वापस करना चाहिए, जैसे प्रश्न उठाए गए हैं। लेखक को जो राशि सम्मान में दी गई थी वह किसी कर्ज के रूप में नहीं दी गई थी और न ही उसे ऋण की तरह लिया गया था। वह सम्मान में, सादर भेंट की गई थी। इसलिए उस पर ब्याज दिए जाने जैसी किसी बात का प्रश्न ही नहीं उठता। जब तक वह सम्मान लेखक ने अपने पास रखा, उसे ससम्मान रखा, उसके अधिकार की तरह रखा। वह उसकी प्रतिभा का रेखांकन और एक विशेष अर्थ में मूल्‍यांकन था। वह किसी की दया या उपकार नहीं था। यश तो लेखक का पहले से ही था बल्कि अकसर ही सम्मान और पुरस्कार भी लेखकों से ही यश और गरिमा प्राप्त करते रहे हैं। इसलिए इन छुद्र, अनावश्यक बातों का कोई अर्थ नहीं है।

3. यदि इन सम्मानों को वापस करना राजनीति है तो निश्चित ही उसका एक राजनीतिक अर्थ भी है। लेकिन यह राजनीति वंचितों, अल्पसंख्यकों के पक्ष में है। यह राजनीति इस देश के संविधान, प्रतिज्ञाओं, पंरपरा और बौद्धिकता के पक्ष में है। यह राजनीति इस देश के लोकतांत्रिक स्वरूप को बनाए रखने के लिए, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, नागरिक अधिकारों के लिए है। राष्ट्रवाद के नाम पर देश को तोड़ने के खिलाफ है, इस देश में फासिज्म लाने के विरोध में है।

4. जो कह रहे हैं कि आपातकाल या 1984 के दंगों के समय ये सम्मान वापस क्यों नहीं किए गए, उन्हें याद रखना चाहिए कि तब देश में इस कदर दीर्घ वैचारिक तैयारी के साथ, इतने राजनैतिक समर्थन के साथ अल्पसंख्यकों और विचारकों की ‘सुविचारित हत्याएँ’ नहीं की गई थी। तब कहीं न कहीं यह भरोसा था कि चीजें दुरुस्त होंगी, अब यह भरोसा नहीं दिख रहा है। यह हिंसा अब राज्य द्वारा प्रायोजित और समर्थित है। पहले इस तरह की हिंसा का कोई दीर्घकालीन एजेण्डा नहीं था, अब वह एजेण्डा साफ नजर आ रहा है। पहले एक धर्म, एक विचार और एक संकीर्णता को थोपने की कोशिश नहीं थी, अब स्पष्ट है। जब विश्‍वास खंडित हो जाता है और जीवन के मूल आधारों, अधिकारों पर ही खतरा दिखता है तब इस तरह की कार्यवाही स्‍वत:स्‍फूर्त भी होने लगती है। लेखक एक संवेदनशील, प्रतिबद्ध और विचारवान वयक्ति होता है। उस बिरादरी के अनेक लोगों के ये कदम बताते हैं कि देश के सामने अब बड़ा सकंट है।

तो सामने फासिज्म का खतरा साकार है। एक साहित्यिक रुझान के व्यक्ति और नागरिक की तरह मैं इन सब लेखकों के साथ भावनात्मक रूप से ही नहीं, तार्किक रूप से खड़ा हूॅं। और इसके अधिक व्यापक होने की कामना करता हूँ।
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कुमार अंबुज

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