Tuesday, September 29, 2015

“ अनहद नाद - अन हर्ड साउंड्स ऑफ़ युनिवर्स ” का मंचन १० अक्टूबर को



 रंग चिन्तक मंजुल भारद्वाज द्वारा लिखित और निर्देशित बहुभाषिक नाटक “ अनहद नाद - अन हर्ड साउंड्स ऑफ़ युनिवर्स ” का मंचन १० अक्टूबर, २०१५ - शनिवार को सुबह ११ बजे “शिवाजी नाट्य मंदिर” में  होगा.

नाटक “अनहद नाद - अन हर्ड साउंड्स ऑफ़ युनिवर्स ” कलात्मक चिंतन है, जो कला और कलाकारों की कलात्मक आवश्यकताओं,कलात्मक मौलिक प्रक्रियाओं को समझने और खंगोलने की प्रक्रिया है। क्योंकि कला उत्पाद और कलाकार उत्पादक नहीं है और जीवन नफा और नुकसान की बैलेंस शीट नहीं है इसलिए यह नाटक कला और कलाकार को उत्पाद और उत्पादिकरण से उन्मुक्त करते हुए, उनकी सकारात्मक,सृजनात्मक और कलात्मक उर्जा से बेहतर और सुंदर विश्व बनाने के लिए प्रेरित और प्रतिबद्ध करता है ।

अश्विनी नांदेडकर ,योगिनी चौक, सायली पावसकर,तुषार म्हस्के, कोमल खामकर और अनघा देशपांडे अपने अभिनय से नाट्य पाठ को मंच पर आकार देकर साकार करेंगें !

एक्सपेरिमेंटल थिएटर फाउंडेशन विगत २३ वर्षों से देश विदेश में अपनी प्रोयोगात्मक , सार्थक और प्रतिबद्ध प्रस्तुतियों के लिए विख्यात है . सम्पर्क – 9820391859, ईमेल – etftor@gmail.com

Monday, September 28, 2015

कंपनी की तोप : वीरेन डंगवाल

प्रतीक और धरोहर दो किस्म की हुआ करती हैं। एक वे जिन्हें देखकर या जिनके बारे में जानकर हमें अपने देश और समाज की प्राचीन उपलब्धियों का भान होता है और दूसरी वे जो हमें बताती हैं कि हमारे पूर्वजों से कब, क्या चूक हुई थी , जिसके परिणामस्वरूप देश की कई पीढ़ियों को दारूण दुख और दमन झेलना पड़ा था। तोप कविता में ऐसे ही दो प्रतीकों का चित्रण है। पाठ हमें याद दिलाता है कि कभी ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में व्यापार करने के इरादे से आई थी। भारत ने इसका स्वागत किया , लेकिन बाद में वह हमारी शासक बन बैठी। उसने कुछ बाग बनवाए तो कुछ तोपें भी तैयार कीं। उन तोपों ने इस देश को आजाद करने निकले जाँबाजों को मौत के घाट उतार दिया। पर एक दिन ऐसा भी आया जब हमारे पूर्वजों ने अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंका। तोप को निस्तेज कर दिया। हमें इन प्रतीकों के माध्यम से यह याद रखना होगा कि भविष्य में कोई और ऐसी कंपनी यहाँ पाँव न जमाने पाए जिसके इरादे नेक न हों। भले ही अंत में उनकी तोप भी उसी काम क्यों न आए जिस काम में इस पाठ की तोप आ रही है……..

वीरेन डंगवाल को इप्टानामा की हार्दिक श्रद्धांजलि!

Wednesday, September 23, 2015

“पथनाट्य” उसकी वैचारिक प्रतिबद्धता और चुनौतियां

कामरेड गीता महाजन आैर गोविंद पानसरे के साथ मंजुल भारद्वाज
डॉ. मेघा पानसरे

न 2005 में कोल्हापुर में एक कार्यशाला आयोजित की गयी जिसमें वाम आंदोलन के 50 लड़के और लडकियाँ ने सहभागिता की । इस कार्यशाला से पहली बार नाट्य निर्माण की एक नयीएक अलग प्रक्रिया अनुभव करने को मिली।  "थियेटर ऑफ़ रेलेवंस" नाट्य दर्शन के तत्वों के अंतर्गत नाट्य कार्यशाला का संचालन करने के लिए मंजुल भारद्वाज को आमंत्रित किया था। नाट्य कार्यशाला का विषय था “पथनाट्य” उसकी वैचारिक प्रतिबद्धता और चुनौतियां। 

उसके बाद "लिंगचयन " इस विषय पर स्कूल के बच्चों के लिए नाट्य कार्यशाला आयोजित की । २००१ की जनगणना   ने अनुसार कोल्हापुर जिले के पन्हाला तहसील में ते आयु के लड़के लडकियों का लिंग अनुपात धोखादायक था। इस जनसरोकारी विषय पर जनजागृती के अभियान में लिंगचयन पर पन्हाला तहसील के गाँव गाँव में पथनाट्य के सैकड़ों  प्रयोग हुए।  एक अत्यंत गंभीर ज्वलंत सामाजिक प्रश्न पर सामूहिक स्तर पर भीड़ने का ये प्रयत्न था। जिसका सफलतम परिणाम २०११ की जनगणना में दिखाई पड़ा किपन्हाला तहसील में लड़कियों की जन्म अनुपात दर बढ़ी ! लड़कियों का जन्म प्रमाण दर बढ़ाने में "थियेटर ऑफ़ रेलेवंस" के सांस्कृतिक आंदोलन का बहुत बड़ा योगदान है।

इस क्रम को आगे बढ़ाते हुए २०१४ में कॉलेज और स्कूल के छात्रों के लिए पांच और सात  दिवसीय आवासीय नाट्य कार्यशाला 'छेड़छाड़ क्यों ? इस मंच नाटक की प्रस्तुति  के लिए  आयोजित की । इस नाटक को दोनों समूहों ने भालजी पेंढारकर सांस्कृतिक केंद्र ,कोल्हापुर में प्रस्तुत किया । नव्हंबर 2014 में  मंजुल भारद्वाज लिखित – निर्देशित  'गर्भनाटक की प्रस्तुति तैयार करने के लिए सात  दिवसीय आवासीय नाट्य कार्यशाला हुई । 'गर्भ नाटक की प्रस्तुति भी भालजी पेंढारकर सांस्कृतिक केंद्र में  हुई। उसी समय भारतीय जन नाट्य संघ  की (IPTA) कोल्हापुर शाखा की स्थापना करने का निर्णय हुआ। उसके बाद जयसिंहपूर में दिसम्बर 2014 में युवाओं के लिए 'राजनैतिक संवेदनशीलताइस विषय पर नाट्य कार्यशाला हुई। इसमें  ग्रामीण युवा-युवती सहभागी हुए थे।

पिछले 10 साल के सतत रंग अभियान और नाट्य कार्यशालाओं से मंच और पथनाट्य की उत्तम संहिताओं (स्क्रिप्ट)  का लेखन  और नाट्य प्रस्तुतियों का निर्माण हुआ।  नाटक  'छेड़छाड़ क्यों?' की कार्यशाला में  तैयार हुए कलाकारों ने कोल्हापुर परिसर के बीस महाविद्यालयों में  इस नाटक के प्रयोग किये। हर प्रयोग के बाद लिंग भेद विषमता और महिलाओं पर अत्याचार इस ज्वलंत सामाजिक विषयों पर दर्शकों से विस्तृत  चर्चा हुई। छेड़ छाड़  करने वालों और छेड़ छाड़ से पीड़ित ऐसे दोनो घटकों ने इस शोषण और दमनकारी हिंसक व्यवहार के गंभीर परिणाम को समझ लिया। इस नाटक के माध्यम से महिलाओं के ऊपर होने वाले अत्याचार के सवाल अजेंडे पर आये।

14 
ते 18 अगस्त 2015 में इप्टा की तरफ से थियेटर ऑफ़ रेलेवंस 'नाट्य तत्वों पर नाट्यलेखन कार्यशाला आयोजित हुई । पूंजीवादी व्यवस्था की भूमंडलीकरण की नीति के वजह से होने वाले आर्थिक शोषण,दारिद्र्यसांस्कृतिक आक्रमण,बढती हुई धर्मांधता और असहिष्णुताअभिव्यक्ति स्वतंत्रता का गला घोटना,वैचारिक विरोध के लिए अमानवीय  हिंसा इस पार्श्व भूमि को ध्यान में रखते हुए  नाट्य लेखन हुआ ।

इप्टा कोल्हापुर की टीम
इस पांच दिवसीय नाट्य लेखन  कार्यशाला में नाट्य लेखन के लिए मुलभूत विषयों को खोंगोला और तराशा गया मसलन सामजिक ,राजनैतिक आर्थिक और सांस्कृतिक प्रक्रिया का विश्लेषण नाट्य शिल्प नाट्य लेखन शिल्प ,मंच शिल्प कथा दृश्य संवाद और दर्शक की दृष्टि उसके सरोकारों पर विस्तृत वैचारिक और व्यवहारिक अभ्यास हुआ. 21 वी सदी की परिस्थिति में शोषितों को मानवी इतिहास की शोषण परम्पराओं को खुला करके बताने का यह प्रयास हैं। इस नाटक से महाराष्ट्र की सामान्य जनता को शोषण विरुद्ध आवाज उठाने के लिए प्रवृत्त किया जाएगा।

थियेटर केवल मनोरंजन नहीं हैं । बदलाव का माध्यम है। "थियेटर ऑफ़ रेलेवंस" ये भूमिका इप्टा की कला प्रतिबद्धता भूमिका से सुसंगत है। चैतन्य अभ्यासप्रभावी संवाद प्रस्तुति करने के लिए आवाज का अभ्यासदीर्घ कालीन दबी हुई और बंदी मानसिकता खोलकर  व्यक्ति को खुलेपन से सांस लेने के लिये आसमान देना और नाटक के सामजिक आयाम पर विस्तृत चर्चा और भूमिका निश्चित करना इसके साथ नाट्यलेखननिर्मिती और प्रदर्शन प्रक्रिया में सामुहिक चेतना देने वाला "थियेटर ऑफ़ रेलेवंस" नाट्य सिद्धांत का यह अनुभव मराठी रंगभूमि को समृद्ध  करनेवाला हैं।

संपर्क : डॉ. मेघा पानसरे - 09822421806

Monday, September 14, 2015

वे भाषा को भी कॉरपोरेट और टेक्नोलॉजी का बंदी बनाना चाहते हैं

मकालीन हिंदी कविता के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं राजेश जोशी। उनकी कविता और वह खुद किसी भी अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध के एक प्रमुख स्वर के रूप में हमारे बिलकुल करीब खड़े नजर आते हैं। 1946 में मध्य प्रदेश के नरसिंहगढ़ में जन्मे राजेश जोशी साहित्य अकादमी से पुरस्कृत ऐसे साहित्यकार हैं, जिन्होंने कविताओं के अलावा कहानियां, नाटक, आलोचना, लेख भी खूब लिखे हैं। उनके चार कविता संग्रह-एक दिन बोलेंगे पेड़, मिट्टी का चेहरा, नेपथ्य में हंसी और दो पंक्तियों के बीच और लंबी कविता समरगाथा कई भाषाओं में अनुदित हुई है। एक कवि के रूप में गलत को पूरी निर्भीकता के साथ गलत कहने, और सही को पूरी निडरता के साथ सही कहने का हौसला रखते हैं। उनका मानना है कि खतरनाक समय की शिनाख्त करने का काम भी रचना का होता है और ऐसा करने के लिए रचनाकार को मुखर होना पड़ता है। 

रचनाकार राजेश जोशी ऐसे हर मोर्चे पर बेहद सक्रिय हैं। अपनी सादगी के लिए मशहूर राजेश जोशी सत्ता से सीधे भिड़ने से गुरेज नहीं करते। पिछले दिनों प्रगतिशील कन्नड विद्धान और विचारक एम.एम कलबुर्गी की हत्या के विरोध में भोपाल में तमाम लेखकों-संस्कृतिकर्मियों को जुटाने में भी वह सक्रिय रहे। कलबुर्गी की नृशंस हत्या के खिलाफ राजेश जोशी की पुरानी कविता-मारे जाएंगे- सोशल मीडिया और धरना प्रदर्शन में खूब इस्तेमाल की गई। हाल में भोपाल संपन्न 10वें विश्व हिंदी सम्मेलन को वैचारिक स्तर पर कड़ी चुनौती देते हुए इसे हिंदू सम्मेलन कहकर उन्‍होंने इसकी कड़ी आलोचना की। पेश हैं, आउटलुक की ब्यूरो प्रमुख भाषा सिंह की उनसे हुई बातचीत के अंश-

आपने भोपाल में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन को लेकर बहुत गंभीर सवाल उठाए। मुख्य रूप से किन बिंदुओं पर आपकी बड़ी आपत्ति है 
दिक्कत तो इस सम्मेलन और इस सम्मेलन को करा रही सरकार की सोच और उसकी साहित्य-संस्कृति की अवधारणा से ही थी। हमारा पहला एतराज यह था कि विश्व हिंदी सम्मेलन का मकसद रहा है, हिंदी का प्रचार-प्रसार। यह प्रचार-प्रसार ऐसे राज्य या देश में किया जाता है, जहां हिंदी नहीं बोली जाती रही हो। अभी तक यही सोच रही है, ऐसे में भोपाल जैसे हिंदी भाषी शहर में इस सम्मेलन को करने का कोई औचित्य नहीं था। दूसरा, केंद्र सरकार और राज्य कह रही है कि यह साहित्य सम्मेलन नहीं है, इसलिए साहित्यकारों को नहीं बुलाया। क्या सरकार बता सकती है कि अगर वह इसे अ-साहित्य सम्मेलन के रूप में करना चाहती थी, तो उसने किन भाषाविदों को बुलाया। मेरी जानकारी में दुनिया में किसी भाषा का सम्मेलन या उस पर समग्र चर्चा उसके साहित्य को दरकिनार करके नहीं हुई होगी। तीसरा, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने जो तर्क दिया कि वह हिंदी भाषा को बाजार की भाषा बनाना चाहते हैं, इसलिए बाजार पर जोर है। हिंदी भाषा को बाजार के पास ले जाने के लिए सरकार प्रयास कर रही है। यह कितना मूर्खतापूर्ण तर्क है। भाषा बाजार के पास जाएगी या बाजार भाषा के पास आएगा। बाजार को 40 करोड़ लोगों की भाषा का इस्तेमाल करना होगा तो वह खुद आएगा। आ ही रहा है, नहीं क्या ? फिर यह तर्क कैसे दिया जा सकता है?

आपको क्या लगता है कि इस सम्मेलन में साहित्यकारों की इस कदर उपेक्षा क्यों की गई 
यह उपेक्षा नहीं, सोचे-समझे ढंग से किया गया अपमान है। आप देखिए, विदेश राज्य मंत्री वी.के. सिंह ने कितने गहरे विद्वेष और हिकारत भरे स्वर में साहित्यकारों को दारूबाज, झगड़ालू और खाने-पीने वाला बताया। यह स्वर किनका हो सकता है?  सिर्फ और सिर्फ उनका जिन्हें लगता है कि तमाम दबावों के बावजूद साहित्यकार उनकी तुरही नहीं बजाएंगे। दरअसल, वे असली साहित्य और साहित्यकारों से डरते हैं। वी.के. सिंह के इस मूर्खतापूर्ण बयान से उनका और उनकी पार्टी भाजपा का असली चेहरा सामने आया है। भाजपा की तरफ झुके लोगों के लिए भी इस कदम का समर्थन करना मुश्किल हो रहा है।

क्या उन्हें कहीं साहित्यकारों और साहित्य से डर है 
बिल्कुल। वे हमसे डरते हैं क्योंकि हम उनकी हिंसा, उनके शोषण के खिलाफ अपनी कलम चलाते हैं और अभी तक जनता उसे पढ़ती भी है। दूसरा, सत्ता हाथ में होने के बावजूद वे अपने ब्रांड के बड़े रचनाकार नहीं पैदा कर पाए। जहां तक दारू पीने की बात है तो सबसे अच्छी और सब्सिडाइजड दारू फौज में मिलती है और वहां छक कर पी भी जाती है। तो बकौल वी.के. सिंह क्या हम फौज को और किसी चीज के लिए नहीं, बस दारू के लिए जानें? यहां तक की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस पक्ष में बोलकर हिंदी साहित्य को शर्मसार किया। उन्होंने कहा, यह हिंदी भाषा का सम्मेलन है, हिंदी साहित्य का नहीं। यानी, एक ही वार में उन्होंने भाषा को हिंदी साहित्य से अलग कर दिया। हिंदी के लेखक ने कौन सा ऐसा गुनाह किया, जो वे इस तरह से कर रहे हैं। उनका बस चले तो वे अंग्रेजी साहित्य से शेक्सपीयर, टीएस.इलियट को भी अलग कर सकते हैं। भाषा के साथ जितनी बेहूदगी वे कर सकते हैं, कर रहे हैं। हिंदी भाषा को हिंदू भाषा बनाने की दिशा में ही ये सब हो रहा है।

सरकारी पक्ष का कहना है कि ऐसे आयोजनों की रूपरेखा वे ही तय करते रहे हैं, इसमें हंगामा करने की क्या जरूरत है 
वे किस तरह से चीजों को अंजाम देते हैं, उसी में उनकी पॉलिटिक्स सामने आती है। यह पॉलिटिक्स साहित्य-संस्कृति, बहुलतावाद के खिलाफ है। 10-12 सिंतबर तक चले इस सम्मेलन के लिए दो कार्ड बांटे गए। उद्घाटन और समापन समारोह के। उद्घाटन में तीन नाम थे-प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान। समापन सत्र के कार्ड में चार नाम थे-गृहमंत्री राजनाथ सिंह, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, शिवराज सिंह चौहान और सिने अभिनेता अमिताभ बच्चन। इससे ही केंद्र और राज्य सरकार के हिंदी प्रेम का पूरा मामला समझा जा सकता है। बाकी के सारे सत्र बंद थे, उनके बारे में कोई जानकारी सार्वजनिक नहीं की गई थी। जनता की भाषा पर, जनता के पैसों से होने वाले सम्मेलन को लेकर इतनी गोपनीयता क्यों?
   
केंद्र और मध्य प्रदेश सरकार इस तरह से क्या संकेत देना चाह रहे हैं 
विश्व हिंदी सम्मेलन के जरिये वे देश भर को संकेत देना चाहते हैं। वे बताना चाहते हैं कि उनके राज में साहित्य और साहित्यकारों की क्या औकात है। उन्हें खुन्नस इस बात की है कि सारी ताकत हाथ में होने के बावजूद वे साहित्यकार पैदा नहीं कर सकते। वे भाषा को भी कॉरपोरेट और टेक्नोलॉजी का बंदी बनाकर रखना चाहते है।केंद्र की नरेंद्र मोदी की सरकार जीती ही टेक्नोलॉजी और कॉरपोरेट के बल पर। उन्हीं की सत्ता हिंदी भाषा पर स्थापित करनी है। फासीवादी संस्कृति की आहट है यह। यह हिंदी सम्मेलन नहीं हिंदू सम्मेलन था।

राह क्या है 
हिंदी रचनाकारों में प्रतिरोध की क्षमता कम होने लगी है। राष्ट्रीय और प्रादेशिक राजनीति की स्थितियां पस्ती पैदा करने वाली हैं। इसीलिए वे (सरकारें) सरेआम बेइज्जत करने की हिम्मत भी कर रहे हैं। मुझे लगता है कि हमारी यह चुप्पी टूट रही है। कन्नड विद्धान एमएम. कलबुर्गी की दक्षिणपंथियों द्वारा की गई हत्या का जिस तरह से राष्ट्रव्यापी विरोध हुआ, यह इस बात का संकेत हैं। विश्व हिंदी सम्मेलन में साहित्य की अवहेलना करके जिस तरह से प्रशासन ने बाकायदा जिला प्रशासन को 50-50 हिंदी हितैषी लाने का फरमान दिया, मीडिया को तमाम सत्रों से बाहर रखा, उद्घाटन और समापन सत्र में प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और सिने-सितारे अमिताभ बच्चन को रखा, उसका भी राष्ट्रव्यापी विरोध होना चाहिए था। तमाम लेखक संगठनों, प्रगतिशील-लोकतांत्रिक संगठनों को आगे आकर आवाज उठानी चाहिए।
आउटलुक हिंदी से साभार

शब्द रहेंगे साक्षी : जितेंन्द्र रघुवंशी का 65 वां जन्मदिन

-विजय शर्मा
13 सितंबर, आगरा।  डॉ जितेंद्र रघुवंशी के पैंसठवें जन्मदिवस पर यहां एक किताब का विमोचन किया गया, जिसका नाम है 'शब्द रहेंगे साक्षी जितेंन्द्र रघुवंशी'। जे पी सभागार खंदारी में मशहूर लेखिका और वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी नूर ज़हीर इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव राकेश जी और बिमटेक् के निर्देशक डॉ हरिवंश चतुर्वेदी ने किताब का विमोचन किया।

इस अवसर पर नूर ज़हीर ने सभा को सम्बोधित करते हुए कहा कि समाज में हालात मुश्किल कब नहीं थें, 1921 में, 1936 में , 1947 में लेकिन फिर भी आंदोलन ज़िंदा रहा, जब तक न्याय नहीं मिलता, बराबरी नहीं मिलती और तब तक आंदोलन चलता रहेगा। नूर ज़हीर ने डॉ़ रघुवंशी को याद करते हुए अंधविश्वास पर रोक लगाने की भी बात कही।

डॉ़ हरिवंश चतुर्वेदी ने जितेंद्र जी को स्मरण करते हुए उनके विचारों को विस्तार करने के लिए सूचना प्रोद्योगिकी का प्रयोग करने पर बल दिया। ड़ॉ चतुर्वेदी ने कहा कि पारम्परिक माध्यमों की अपनी एक सीमा है, यदि अपने प्रगतिशील विचारों को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं तो हमें सोशल मीडिया के माध्यमों का भी प्रयोग करना चाहिए। 

इस मौके पर डॉ विजय शर्मा ने सभा में उपस्थित लोगों को अवगत कराया कि कि श्री रघुवंशी की किताब 'शब्द रहेंगे साक्षी जितेंद्र रघुवंशी' को जल्द ही ब्लॉग की शक्ल भी दी जाएगी। वरिष्ठ पत्रकार श्री विभांशु दिव्याल ने भावुक होते हुए श्री रघुवंशी के व्यवहार की गर्मजोशी को याद किया। इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव श्री राकेश ने सभा को सम्बोधित करते हुए कहा कि हम सभी कॉमरेड रघुवंशी के काम को आगे बढ़ाने के लिए संकल्पबद्ध हैं और समाज को प्रगतिशील बनाने के लिए हम कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।

किताब का विमोचन एवम् व्याख्यान का आयोजन जितेन्द्र जी के मित्र सहकर्मी और परिजनों की ओर से किया गया। इस मौके पर जितेन्द्र जी द्वारा लिखा गीत "बिखरने दो पंखुरियाँ प्यार की" आकांशी खन्ना ने भानु प्रताप के तबले की संगत पर गाया।छोटे छोटे बच्चों ने उनकी तस्वीर पर पुष्प गुच्छ अर्पित किया । इलाहाबाद से आये समानांतर संस्था के अनिल रंजन भौमिक जी एवं अशोक नगर इप्टा से पंकज दीक्षित जी एवं बिमल शर्मा व उरई से डॉ नईम का स्वागत दिलीप रघुवंशी डॉ मनुुकांत शास्त्री प्रमोद राणा नीतू दीक्षित विशाल रियाज़ मीतेन रघुवंशी डॉ ज्योत्स्ना रघुवंशी ने किया ।

इस मौके पर जितेन्द्र रघुवंशी के पुत्र मानस और पुत्री सौम्या ने ज़िंदगीनामा का पाठ किया, बहन डॉ ज्योत्स्ना रघुवंशी ने कहानी पढ़ी, किताब के बारे में संयोजक नवाब उददीन ने बताया। सञ्चालन किया डॉ विजय शर्मा ने । कार्यक्रम की अध्यक्षता की राकेश जी ने । समारोह के अंत में प्रमोद सारस्वत और भावना रघुवंशी ने धन्यवाद दिया। कार्यक्रम में डॉ जवाहर सिंह धाकरे कॉमरेड रमेश मिश्र ओम ठाकुर डॉ जे एन टंडन कॉमरेड भारत सिंह हिमांशु कटारा राजवीर सिंह राठौर डॉ शशि तिवारी चौधरी बदन सिंह डॉ सरोज भार्गव अमीर अहमद जी डॉ रेखा पतसरिया विनय पतसरिया गिरीश अश्क़ किशोर चतुर्वेदी उमेश अमल विश्वनिधि मिश्र उमाशंकर मिश्र बसंत रावत अनिल जैन चंद्रशेखर दीपक जैन फ़राज़ अहमद यथार्थ अग्निहोत्री सफ़िया ज़मीर आदि मौजूद थे




Thursday, September 10, 2015

कलबुर्गी की हत्या तार्किकता का गला घोंटने का प्रयास -राम पुनियानी



त 30 अगस्त 2015 को प्रोफेसर मलीशप्पा माधीवलप्पा कलबुर्गी की हत्या से देश के उन सभी लोगों को गहरा सदमा पहुंचा है जो उदारवादी समाज के हामी हैं, तार्किकता के मूल्यों का आदर करते हैं और अंधश्रद्धा के खिलाफ हैं। प्रोफेसर कलबुर्गी, जानेमाने विद्वान थे और उन्होंने 100 से भी अधिक पुस्तकें लिखीं थीं। वे 12वीं सदी के कन्नड़ संत कवि बस्वना की विचारधारा को जनता के सामने लाए। वे मानते थे कि लिंगायत - जो कि बस्वना के अनुयायी हैं - को धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा मिलना चाहिए क्योंकि वे वैदिक परंपरा का हिस्सा नहीं हैं। बस्वना के छंदों में निहित शिक्षाओं, जिन्हें ‘‘वचना’’ कहा जाता है, का उन्होंने गहराई से अध्ययन किया था और इसने उनकी तार्किकतावादी सोच को गढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। 

कलबुर्गी द्वारा बस्वना की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार और मूर्तिपूजा व ब्राह्मणवादी धार्मिक अनुष्ठानों की उनकी खिलाफत ने बजरंग दल जैसे हिंदुत्ववादी संगठनों को उनका शत्रु बना दिया। तथ्य यह है कि पुरातनकाल से नास्तिकतावादी परंपरा, हिंदू धर्म का हिस्सा रही है। इस परंपरा के एक प्राचीन उपासक थे चार्वाक। मूर्तिपूजा का विरोध भी हिंदू धर्म के लिए कोई नई बात नहीं है। आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने मूर्तिपूजा न करने का आह्वान किया था। 

कलबुर्गी की हत्या से कुछ समय पहले, पड़ोसी बांग्लादेश में तीन धर्मनिरपेक्ष युवा ब्लॉगर्स की हत्या कर दी गई थी। सीरिया में इस्लामिक स्टेट के कट्टरवादियों ने खालिद अल-असद नामक अध्येता को जान से मार दिया था। महाराष्ट्र में लगभग दो वर्ष पहले, प्रसिद्ध तार्किकतावादी डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की हत्या ने पूरे देश में हलचल पैदा कर दी थी। उनके प्रयासों से ही महाराष्ट्र में काला जादू और अंधश्रद्धा विरोधी कानून लागू हुआ था। एक अन्य सम्मानित कार्यकर्ता कामरेड गोविंद पंसारे को लगभग एक वर्ष पहले मौत के घाट उतार दिया गया था। पंसारे जिन कई क्षेत्रों में सक्रिय थे, अंधश्रद्धा का विरोध उनमें से एक था। महाराष्ट्र में अत्यंत सम्मान से देखे जाने वाले शासक शिवाजी पर उन्होंने एक पुस्तक लिखी थी जो खासी लोकप्रिय हुई थी। पंसारे अपनी पुस्तक में बताते हैं कि शिवाजी किसानों के हितैषी थे व सभी धर्मों का सम्मान करते थे। शिवाजी के चरित्र का यह प्रस्तुतिकरण, हिंदुत्ववादियों को रास नहीं आया। 

डॉ. कलबुर्गी की हत्या, धारवाड़ में उनके घर पर हुई। प्रोफेसर कलबुर्गी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे हंपी स्थित कन्नड़ विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति थे। वे राष्ट्रीय और कर्नाटक साहित्य अकादमी पुरस्कारों के विजेता थे। इस विद्वान प्राध्यापक ने वीरशैव व बस्वना परंपरा का विशद अध्ययन किया था। विवादों ने उनका कभी पीछा नहीं छोड़ा और ना ही कट्टरपंथियों की धमकियों ने। वीरशैव व बस्वना सहित कन्नड़ लोकपरंपरा पर आधारित आलेखों का उनका संग्रह ‘मार्ग’ सबसे पहले विवादों के घेरे में आया। उन्हें कई बार जान से मारने की धमकियाँ मिलीं। उन्हें पुलिस सुरक्षा प्रदान की गयी, जिसे उनके ही अनुरोध पर कुछ समय पहले वापस ले लिया गया। उन्होंने मूर्तिपूजा बंद करने के मुद्दे पर यूआर अनंथमूर्ति का समर्थन किया था। उनके द्वारा विहिप नेताओं और विश्वेश्वरतीर्थ स्वामी को सार्वजनिक बहस के लिए निमंत्रित करने से एक नए विवाद का जन्म हुआ। कर्नाटक सरकार के अन्धविश्वास विरोधी विधेयक का समर्थन करने के कारण उन्हें बजरंग दल जैसे संगठनों के कोप का शिकार बनना पड़ा। उनका जमकर विरोध हुआ और कई स्थानों पर उनके पुतले जलाये गए। 

दाभोलकर, पंसारे और कलबुर्गी की हत्याओं में कई समानताएं हैं। यद्यपि वे अलग-अलग क्षेत्रों में सक्रिय थे तथापि तीनों तार्किकतावादी थे, अपनी बात बिना किसी लाग-लपेट के कहते थे और उन्हें लगातार धमकियाँ मिलती रहती थीं। उनके हत्या के तरीके में भी कई साम्य हैं। तीनों की हत्या अलसुबह हुईं, हत्यारे मोटरसाइकिल सवार थे, जिनमें से एक बाइक चला रहा था और दूसरे ने ताबड़तोड़ ढंग से गोलियां चलाईं और फिर दोनों भाग निकले। यह भी क्या अजीब नहीं है कि इतना समय बीत जाने के बाद भी, दाभोलकर और पंसारे के हत्यारे पुलिस की पहुँच से दूर हैं।

कलबुर्गी की हत्या के बाद, बजरंग दल के एक कार्यकर्ता भुविथ शेट्टी ने ट्वीट किया, “पहले यूआर अनंथमूर्ति और अब एमएम कलबुर्गी। हिन्दू धर्म का मजाक उड़ाओ और कुत्ते की मौत मरो। और प्रिय केएस भगवान, अब तुम्हारी बारी है”। इस ट्वीट को बाद में वापस ले लिया गया। इसके बाद, हिन्दू दक्षिणपंथी संगठनों से जुड़े कई लोगों ने यह कहना शुरू कर दिया कि कलबुर्गी द्वारा हिन्दू देवी-देवताओं का अपमान किये जाने से उनके प्रति हिन्दुओं के मन में रोष था और इसलिए उनकी हत्या हुई। यह एक तरह से उस असहिष्णुता को औचित्यपूर्ण ठहराने का प्रयास है, जो हमारे समाज में जड़ें जमाती जा रही है। इस मामले में सभी धर्मों के कट्टरपंथियों की सोच एक-सी है। सलमान रूश्दी को धमकियाँ दीं गयीं थीं और तस्लीमा नसरीन संकुचित सोच वालों के निशाने पर थीं। बांग्लादेश में ब्लॉगरों की हत्या हुई तो पाकिस्तान में सलमान तासीर को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। तासीर का कसूर यह था कि वे ईशनिंदा की आरोपी एक ईसाई महिला का बचाव कर रहे थे।

तार्किकता का विरोध, मानव इतिहास का अंग रहा है। चार्वाक ने हमारी दुनिया के प्रति ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण और विशेषकर वेदों को दैवीय बताए जाने पर प्रश्न उठाए। चार्वाक का कहना था कि वेदों को मनुष्यों ने लिखा है और वे सामाजिक ग्रंथ हैं। इस कारण चार्वाक को प्रताडि़त किया गया। समय के साथ, पुरोहित वर्ग द्वारा अपने विचारों को समाज पर लादने की प्रक्रिया ने संस्थागत स्वरूप ग्रहण कर लिया। गौतमबुद्ध, जो अनीश्वरवादी थे और मनुष्यों की समस्याओं का हल इसी दुनिया में खोजने के हामी थे, की शिक्षाओं का जबरदस्त विरोध हुआ। मध्यकालीन भक्ति संत तार्किक सोच के हामी थे और धर्म के नाम पर प्रचलित सामाजिक रीति-रिवाजों और पाखंडों के विरोधी। महाराष्ट्र के तुकाराम जैसे कई संतों को पुरोहित वर्ग के हाथों प्रताड़ना सहनी पड़ी।
दुनिया के अन्य हिस्सों में भी ऐसा ही हुआ। यूरोप में कई वैज्ञानिकों को चर्च के कोप का शिकार बनना पड़ा। जब गैलिलियों ने यह कहा कि धरती गोल है तो चर्च ने उन्हें नरक में जाने का श्राप दिया। इसी तरह की प्रताड़ना, कष्ट और सज़ाएं कई वैज्ञानिकों को भोगनी पड़ीं। चर्च अपनी ‘‘दैवीय सत्ता’’ का इस्तेमाल, सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को रोकने और वैज्ञानिक सोच को बाधित करने के लिए करता रहा। शनैः शनैः तार्किक सोच के विरोधी कमज़ोर पड़ते गए। पुरोहित वर्ग का तर्क यह रहता है कि वे सारे ज्ञान का भंडार हैं क्योंकि हमारे ‘‘पवित्र ग्रंथों’’ में सारा ज्ञान समाहित है। इस सोच का विभिन्न संस्कृतियों और धर्मों में अलग-अलग ढंग से प्रकटीकरण हुआ है। पाकिस्तान में कुछ मौलानाओं ने यह दावा किया कि देश में बिजली की कमी को जिन्नात की मदद से दूर किया जा सकता है क्योंकि जिन्नात असीमित ऊर्जा के स्त्रोत हैं। उन्होंने अपने इस दावे का आधार धर्म को बताया।

भारत में स्वाधीनता संग्राम के दौरान, सामाजिक परिवर्तन के हामियों ने तार्किक सोच को बढ़ावा दिया और धार्मिक ग्रंथों को तार्किकता की कसौटी पर कसना शुरू किया। परपंरावादी, जो पुरातन सामाजिक समीकरणों को बनाए रखना चाहते थे, ने ‘‘ज्ञान की हमारी महान प्राचीन विरासत’’ का राग अलापना शुरू कर दिया। आस्था पर आधारित सोच और वैज्ञानिक पड़ताल एक-दूसरे के सामने आ गए। स्वतंत्रता के बाद, मुख्यतः पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्री होने के कारण, वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा मिला और उच्च शिक्षा व शोध के कई संस्थान स्थापित हुए। इससे देश न केवल आर्थिक दृष्टि से आगे बढ़ा वरन् उसके चरित्र का भी प्रजातांत्रिकरण हुआ। यह वह युग था जब देशवासी भारत के समग्र विकास की कल्पना को साकार करने में जुटे हुए थे और तार्किक सोच को प्रोत्साहित करना, इस प्रक्रिया का आवश्यक अंग था। सन् 1958 में संसद ने राष्ट्रीय वैज्ञानिक नीति संकल्प पारित किया। 

सन 1980 के दशक के बाद से स्थितियां बदलने लगीं। धर्म के नाम पर राजनीति का उभार हुआ। सामाजिक उद्विग्नता को कम करने के लिए आस्था के भावनात्मक सहारे का इस्तेमाल होने लगा। कुछ राजनैतिक ताकतों ने धार्मिक पहचान और आस्था पर राजनीति करनी शुरू कर दी। जैसे-जैसे सामाजिक रूढि़वाद बढ़ा, तार्किक सोच का विरोध भी बढ़ने लगा। लगभग इसी समय ऐसे समूह व संगठन भी उभरे जो तार्किक व वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देना चाहते थे और अंधश्रद्धा के विरोधी थे। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण था केरल शास्त्र साहित्य परिषद। बाद में, महाराष्ट्र में नरेंद्र दाभोलकर ने अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति का गठन किया।
अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के कार्यकर्ता, गांव-गांव जाकर यह प्रदर्शित करने लगे कि किस प्रकार बाबाओं और तथाकथित साधुओं द्वारा दिखाए जाने वाले ‘‘चमत्कार’’ केवल हाथ की सफाई हैं। और यह भी कि ये बाबा, गरीब ग्रामीणों के असुरक्षा के भाव का लाभ उठाकर उनका शोषण करते हैं। अंधश्रद्धा का विरोध करने के अतिरिक्त, पंसारे ने शिवाजी का एक ऐसे शासक के रूप में चित्रण करना शुरू किया जो कि सभी धर्मों का समान रूप से आदर करता था। दक्षिणपंथी इस प्रचार को पचा नहीं पा रहे थे परंतु उनके पास दाभोलकर के धारदार तर्कों का कोई जवाब भी नहीं था। कर्नाटक में यूआर अनंथमूर्ति ने मूर्तिपूजा और अंधश्रद्धा के खिलाफ अभियान शुरू कर दिया। कलबुर्गी ने न केवल अनंथमूर्ति का समर्थन किया वरन उन्होंने अंधश्रद्धा को बढ़ावा देने वाली गतिविधियों को प्रतिबंधित करने संबंधी विधेयक का समर्थन भी किया। उन्होंने अपने विचारों का प्रचार करने के लिए कई पुस्तकें और पेम्फलेट लिखे।

इसके कुछ समय पहले, पहली एनडीए सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्री डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने पौरोहित्य व ज्योतिषशास्त्र के पाठ्यक्रम विश्वविद्यालयों में लागू किए। इससे उन तत्वों को बढ़ावा मिला जो हिंदू धर्म की राजनीति करने वाली ताकतों के साथ थे और ‘‘आस्था’’ के नाम पर आमजनों को बेवकूफ बनाने में लगे हुए थे। सन् 2014 में भाजपा सरकार के दिल्ली में शासन में आने के बाद से पौराणिकता को इतिहास के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। प्राचीन भारत में हवाई जहाज हुआ करते थे और प्लास्टिक सर्जरी की जाती थी, इस तरह के बेसिरपैर के दावे किए जा रहे हैं। इस सरकार के सत्ता में आने से हिंदुत्ववादी राजनीति का अतिवादी तबका बहुत उत्साहित है व काफी आक्रामक हो गया है। समाज में उदारवादी सोच के लिए स्थान कम होता जा रहा है और बहस का स्थान हिंसा ने ले लिया है। असहमत होने के अधिकार को तिलांजलि देने की कोशिश हो रही है और जो आपसे असहमत है, उसे बल प्रयोग और डराधमका कर चुप करने की प्रवृत्ति में बढ़ोत्तरी हुई है। दाभोलकर, पंसारे व कलबुर्गी जैसे साधु प्रवृत्ति के विद्वानों की हत्या यह बताती है कि हमारे देश में प्रतिगामी व कट्टरपंथी तत्वों का बोलबाला बढ़ रहा है। ये तत्व तार्किक सोच को समूल उखाड़ फेंकना चाहते हैं।

हिंदुत्ववादी दक्षिणपंथियों द्वारा अत्यंत आक्रामकता से उन लोगों का विरोध किया जा रहा है जो तार्किक सोच के पैरोकार हैं और जातिप्रथा व मूर्तिपूजा के विरोधी हैं। ये तत्व, हिंदू दक्षिणपंथी राजनीति को मज़बूती दे रहे हैं। हालिया वर्षों में राममंदिर व गौहत्या जैसे पहचान से जुड़े मुद्दों को सीढ़ी बनाकर यह राजनीति सत्ता तक पहुंची है। यह राजनीति ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म, जो कि जातिगत पदक्रम को औचित्यपूर्ण ठहराता है, पर आधारित है। दाभोलकर, पंसारे व कलबुर्गी जैसे व्यक्तियों की विचारधारा, हिंदुत्ववादी राजनीति की जड़ों पर प्रहार करती है। हिंदुत्ववादी, धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाना बना रहे हैं। उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि हिंदू धर्म में ही अनेक विविध और परस्पर विरोधाभासी विचारधाराएं मान्यताएं सदियों से विद्यमान रही हैं। कलबुर्गी की हत्या, यथास्थितिवादियों और परिवर्तनकामियों के बीच चल रहे संघर्ष का प्रतीक है। 

यह सुखद है कि इन नृशंस हत्याओं का जबरदस्त विरोध हो रहा है। विविधता और तार्किकता के समर्थक समूह सोशल मीडिया में इनका विरोध कर रहे हैं और इनके पीछे की विचारधारा का पर्दाफाश कर रहे हैं। इससे यह साफ है कि अभी भी देश में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो तार्किकतवादी मूल्यों में आस्था रखते हैं और यही हम सबके लिए आशा की किरण है। दाभोलकर की हत्या के बाद से कई ऐसे संगठन एक मंच पर आए हैं। वे असहिष्णु, परंपरावादी, आक्रामक दक्षिणपंथी राजनीति का विरोध करने के प्रति दृढ़संकल्पित हैं और सामाजिक परिवर्तन के इन पैरोकारों के अधूरे कार्य को पूरा करने के प्रति प्रतिबद्ध हैं। 

(लेखक के फेसबुक वाल से साभार, मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

Saturday, September 5, 2015

ताकि लोकतन्त्र बचा रहे...

र्म और तर्क का रिश्ता हमेशा दुश्मनाना रहा है। जब चार्वाकों ने पुरोहितों के कर्मकांडों पर सवाल उठाए तो उन्हें इतिहास से ही मिटा दिया गया, ब्रूनो ने जब खगोल शास्त्रीय अध्ययन के आधार पर बाइबिल में लिखी बातों को ग़लत साबित किया तो उसे ज़िंदा जला दिया गया, अनलहक़ का नारा देने वाले मंसूर अल हजाज को फाँसी दे दी गई और इतिहास ऐसी तमाम घटनाओं से भरा पड़ा है जहाँ आस्था की तलवार ने तर्क की गर्दन उड़ाने की हर संभव कोशिश की है।
आधुनिकता के आगमन के साथ दुनिया भर में जो तर्क और विवेक के पक्ष में लड़ाइयाँ लड़ी गईं, उनके चलते ही राजे महाराजों के शासन का अंत हुआ और लोकतन्त्र की स्थापना हुई। लोकतन्त्र केवल एक शासन पद्धति नहीं है बल्कि सीधे सीधे मनुष्य की स्वतंत्र सोच और अभिव्यक्ति की आज़ादी सुनिश्चित कराने वाली जीवन पद्धति भी है। हमारे देश में भी औपनिवेशिक शासन से मुक्ति पाने के बाद लोकतन्त्र अपनाया गया और धार्मिक कट्टरपन तथा पोंगापंथ के खिलाफ लेखकों, संस्कृतिकर्मियों और कलाकारों ने लगातार तीखा संघर्ष किया। लेकिन पिछले एक दशक से ऐसा लग रहा है जैसे बर्बर युग की वापसी हो रही हो। नब्बे के दशक से ही धार्मिक कट्टरपंथ का जिस तरह से उदय हुआ है उसमें असहिष्णुता तेज़ी से बढ़ती गई है। तर्क का जवाब तर्क से देने और असहमतियों को स्थान देने की जगह भावनाएं सभी तर्कों से बड़ी होती जा रही हैं और उनको आहत करने के जुर्म में वे किसी को भी सज़ा ए मौत दे सकते हैं। हालात ऐसे बने हैं कि बांग्लादेश में “मुक्त मन” के नाम से सामूहिक ब्लाग चलाने वाले नौजवानों को खुलेआम मार दिये जाने और कठमुल्लों के दबाव में तसलीमा नसरीन के निर्वासन की निंदा करने वाले एम एफ हुसैन को देश छोडने पर मजबूर कर देते हैं, अनंतमूर्ति तथा मीना कंडासामी पर हमले करते हैं, मुरूगन को खुद को मृत घोषित करने पर विवश करते हैं, किताबें जलाते हैं और अपने देश में अंधविश्वास का आजीवन विरोध करने वाले नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और धार्मिक मान्यताओं को चुनौती देने वाले प्रोफेसर एम एम कल्बुर्गी की दिन दहाड़े हत्या कर देते हैं। इन पर हमला असल में हमारी लोकतान्त्रिक परम्पराओं पर हमला है। केंद्र में एक साम्प्रदायिक दक्षिणपंथी सरकार के आने के बाद से इन ताक़तों का मनोबल बहुत बढ़ा हुआ है. जिस देश में मध्य काल में कबीर जैसे लेखक पर कभी हमला नहीं हुआ, वहाँ आज स्थिति ऐसी हो गई है कि कल्बुर्गी की हत्या के बाद बजरंग दल का एक पदाधिकारी ट्वीट करके लिखता है कि अगली बारी प्रोफेसर भगवान की है। अनंतमूर्ति की मृत्यु के बाद ऐसे ही संगठनों ने मिठाइयाँ बाँट कर उत्सव मनाया था। ऐसी घटनाएँ समाज के निरंतर क्रूर, अमानवीय और असहिष्णु होते जाने की परिचायक हैं, दुखद यह कि ऐसा करने वाले उस हिन्दू धर्म की ठेकेदारी का दावा करते हैं जो स्वयं को सबसे सहिष्णु धर्म बताता रहा है।

28 नवंबर 1938 को तत्कालीन बाम्बे प्रेसीडेंसी के यरगाल गाँव मे जन्मे प्रोफेसर कलबुर्गी ने धारवाड़ से कन्नड़ भाषा में स्नातकोत्तर किया और 1962 से ही कर्नाटक विश्वविद्यालय से सम्बद्ध रहे। हम्पी के कन्नड़ विश्वविद्यालय के कुलपति रहे प्रोफेसर कल्बुर्गी जाने माने साहित्यकार और शोधकर्ता थे। अपने लंबे अकादमिक जीवन में उन्होने 103 किताबें लिखीं और 400 से अधिक शोध आलेख लिखे। पुराने अभिलेखों के विशेषज्ञ कल्बुर्गी को साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। उन्होने अपनी किताबों में लगातार मूर्तिपूजा का विरोध किया। इसी वजह से वे हिन्दू कट्टरपंथी संगठनों के निशाने पर आ गए थे। 1989 में उनकी लिखी एक पुस्तक में लिंगायत मत के संस्थापक संत बसवेश्वर (जिन्होंने स्वयं अंधश्रद्धा, जाति-प्रथा, साम्प्रदायिक और लैंगिक भेद-भाव के विरुद्ध 12वीं सदी में ही युद्ध छेड़ा था) के जीवन-प्रसंग से सम्बंधित दो अध्यायों को उन्हें कट्टरपंथियों के दबाव में वापस लेना पड़ा था। इस घटना पर व्यथित होकर उन्होंने कहा था कि ‘मैंने अपने परिवार की सुरक्षा के लिए यह किया, लेकिन इसी दिन मेरी बौद्धिक मृत्यु हो गयी।’ सन 2014 में कर्नाटक में ‘अंधश्रद्धा विरोधी विधेयक’ पर बहस में भाग लेते हुए श्री कलबुर्गी द्वारा मूर्ति-पूजा के विरोध में कही गयी बातों के खिलाफ उन्हें विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल ने धमकियां दी थीं। अनंतमूर्ति पर जब हमले हो रहे थे तब भी कल्बुर्गी उन लेखकों में शामिल थे जिन्होंने मुखर होकर उनका पक्ष लिया। कुछ समय तक उन्हें पुलिस सुरक्षा भी सरकार ने उपलब्ध कराई थी। लेकिन लगातार धमकियों के बावजूद यह सुरक्षा हटा ली गई और इसके तुरत बाद पिछले रविवार को सुबह सुबह उनके घर के दरवाजे पर दो युवकों ने उनके सर में गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। ज़ाहिर है, देश में एक तरफ दुनिया भर से पूंजी आ रही है, नई नई तकनीक आ रही है, हर चीज़ डिजिटल हुई जा रही है, वहीं दूसरी तरफ असहिष्णुता बढ़ती चली जा रही है और तर्क तथा विज्ञान के प्रति अवज्ञा इस स्तर की है कि वैचारिक असहमति का जवाब लिखकर देने की जगह गोली से दिया जा रहा है। 1962 के फ्रांस के प्रसिद्ध छात्र आंदोलन को याद कीजिये| जब वहाँ के तत्कालीन राष्ट्रपति के सामने आंदोलनों में बेहद सक्रिय सार्त्र की गिरफ्तारी का प्रस्ताव रखा गया तो उन्होंने कहा, “नहीं, सार्त्र फ्रांस की चेतना है, उसे गिरफ्तार नहीं किया जा सकता।’’ इसके उलट आज हमारे देश में जब सबसे उन्नत मेधाओं की चुन चुन के हत्या हो रही है तो उस काले भविष्य की कल्पना मुश्किल नहीं जो अगले दरवाजे पर प्रतीक्षारत है।

हम हिन्दी के लेखक, कलाकार, संस्कृतिकर्मी और आम पाठक डा एम एम कलबुर्गी की नृशंस हत्या पर गहरा शोक प्रकट करते हैं और सरकार से हत्यारों तथा साजिशकर्ताओं की शीघ्र गिरफ्तारी और सज़ा की मांग करने के साथ साथ यह भी उम्मीद करते हैं कि देश में सांप्रदायिक सद्भाव और अभिव्यक्ति की आज़ादी की रक्षा के लिए हर संभव उपाय किए जाएँ। इन्हीं मांगों के समर्थन और डा कलबुर्गी को श्रद्धांजलि देने के लिए आगामी 5 दितम्बर को जंतर मंतर पर एक सभा का आयोजन भी किया जा रहा है। आप सबसे अपील है कि लोकतन्त्र की रक्षा की इस लड़ाई में सहभागी बनें।
_______________________________________________________________________________
दिल्ली में होने 5 सितम्बर यानी आज होने वाले प्रतिरोध आयोजन हेतु 21 संगठनों के साझा मोर्चे द्वारा ज़ारी पर्चा. साथियों से अनुरोध है इसे शेयर करें और संभव हो तो प्रिंट लेकर बाँटें भी.