Monday, August 31, 2015

IPTA condemns the brutal murder of rationalist Prof. Kalburgi

While condemning the brutal murder of Prof.MM Kalburgi at his Dharwad residence,IPTA  demands immediate arrest of the mad persons responsible for this cowardly act.

This may be seen in sequence of the murders of Dabholkar and Govind Pansare by fascist and fundamentalist Hindu forces whose face has been further exposed by stubborn pronouncement by Bhuvuth Shetty of Bajrang Dal from mangalore who has tweeted"Earlier UR Ananthmurty was our target and now MM Kalburgi.Anyone ridiculing Hinduism shall meet the same fate and the next is KS Bhagwan."There is a real danger to the life of Prof.KS Bhagwan retired professor of Mysore University who has also been receiving threats like Prof.Kalburgi for his rational comments.Ipta demands total security foe prof.Bhagwan.

IPTA calls upon all secular and rational forces to fight this fascist terror offensive unitedly at every level.Ipta urges upon the central and state governments to act firmly against criminals opposed to freedom of expression and rationality.

Rakesh, General Secy, IPTA

देश के बड़े सांस्कृतिक संगठनों की संयुक्त अपील आैर साझा अभियान

देश के मौजूदा सामाजिक-सांस्कृतिक संकट के प्रति सांस्कृतिक हस्तक्षेप की भूमिका को निर्धारित करने के लिए देश के प्रमुख सांस्कृतिक-साहित्यिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों ने जबलपुर में 22 व 23 अगस्त 2015 को दो दिवसीय विमर्श किया। बैठक में राष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वाले सांस्कृतिक-सामाजिक संगठनों एवं राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कलाकार, साहित्यकार, संस्कृतिकर्मियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं आदि को शामिल करते हुए साझा मोर्चा बनाने का निर्णय लिया गया। इस अवसर पर एक संयुक्त अपील जारी की गयी है जिसमें राकेश, महासचिव, इप्टा, प्रणय कृष्ण, महासचिव, जन संस्कृति मंच, अली जावेद, महासचिव, प्रगतिशील लेखक संघ, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह महासचिव, जनवादी लेखक संघ, महेन्द्र नेह, महासचिव, विकल्प-अखिल भारतीय जनवादी सामाजिक-सांस्कृतिक मोर्चा के हस्ताक्षर हैं। अपील इस प्रकार है :

अपील
भारतीय जनतंत्र आज इतिहास के सबसे संकटपूर्ण दौर से गुजर रहा है। साम्प्रदायिक हिंसा व घृणा का सहारा लेकर कॉर्पाेरेट पूँजीवाद के सहमेल से जो ताक़तें आज देश में सत्तासीन हुई हैं, उन्होंने बहुत आक्रामक तरह से देश की आज़ादी की लड़ाई के दौरान अर्जित लोकतांत्रिक और मानवीय मूल्यों पर हमला किया है।

वे देश की जनता से इतिहास और सांस्कृतिक विरासत ही नहीं, जीने के संसाधन, जल-जंगल-जमीन ही नहीं, बल्कि जीने का हक़ भी छीन लेना चाहते हैं। उनकी कोशिश है कि अल्पसंख्यक इस देश में दूसरे दरज़े के नागरिक की हैसियत से रहें। महिलाएं घरों में और उनके बनाये दायरों में कैद रहें। आदिवासियों, दलित, वंचित लोग हाशिये पर ख़ामोशी से उनकी सेवा के लिए मौजूद रहें और अगर कोई विरोध हो तो उसे राष्ट्रवाद के नाम पर, आतंकवाद के नाम पर, परंपराओं के नाम पर या माओवाद के नाम पर कुचल दिया जाए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगातार हमले तेज़ होते जा रहे हैं।

नौजवान बेरोजगारी से जूझ रहे हैं। अनेक अकाल आये, सूखे पड़े, बाढ़ आई लेकिन मानवता के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी देश में तीन लाख किसान आत्महत्या कर लें। नयी आर्थिक नीतियों की चपेट में आकर मरने वाले इन किसानों के प्रति जो बयान पूर्व और मौजूदा प्रधानमंत्रियों और कृषि मंत्रियों ने दिये हैं, उससे उनकी घोर असंवेदनशीलता ही जाहिर होती है।

गाँव में लोग खेती छोड़कर मज़दूर बन रहे हैं और शहरों में मज़दूरों को देने के लिए इस निजाम के पास सिवाय अपमान और लफ्फाज़ी के और कुछ नहीं है। दूसरी तरफ हम दुनिया के सबसे तेज़ी से बढ़ते करोड़पतियों, अरबपतियों का देश भी बन रहे हैं। स्मार्ट सिटी भी यही बनेंगे और बुलेट ट्रेन भी इसी देश में दौड़ेगी। जबकि देश की 70 फीसदी आबादी को दो वक़्त का खाना नहीं मिल रहा है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगातार हमले तेज होते जा रहे हैं। हमारे सामूहिक सहविवेक हरण के साथ-साथ वे हमारे जनतांत्रिक संस्थानों पर एक-एक कर हमले बोल रहे हैं। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद्, भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान, नालन्दा विश्वविद्यालय, भारतीय फिल्म सेंसर बोर्ड, नेशनल बुक ट्रस्ट समेत तमाम शैक्षणिक-सांस्कृतिक संस्थानों में पक्षपातपूर्ण नियुक्तियां इसके ताज़ा उदाहरण हैं।

एक तरफ वे हमारे इतिहास, संस्कृति और विरासत को विकृत कर रहे हैं और दूसरी तरफ़ वे छद्म संस्कृति का स्वांग कर लोगों को भरमाने का भी काम कर रहे हैं। विवेकानंद, महात्मा गाँधी, बी. आर. अम्बेडकर, चन्द्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, सरदार पटेल जैसे अनेक जननायकों का वे अपनी सुविधा के अनुसार अधिग्रहण भी करते जा रहे हैं।

हम संस्कृतिकर्मी हस्तक्षेप की अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए इस सूरते-हाल को बदलने का संकल्प लेते हैं। हम परिर्वतनकामी ताकतों का आह्वान करते हुए जनता के पास आये हैं, जिसने इतिहास में ऐसी अनेक निरंकुश सत्तायें पलट दी हैं। 

कार्यक्रम

अभियान की शुरूआत 6 दिसंबर 2015 को पूरे देश में होगी।   00 अभियान के तहत सांस्कृतिक यात्राएं, सभा-संगोष्ठी, नुक्कड़ नाटक, काव्यपाठ, फिल्म प्रदर्शन-आदि विविध आयोजन किये जायेंगे।  00 अभियान का दूसरा चरण गाँव केंद्रित होगा, जिसकी शुरूआत 14 अप्रैल 2016 को आंबेडकर जयंती के अवसर पर होगी।  00 अभियान में सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्ष-जनतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वाले स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, नौजवान, विद्यार्थी, किसान-मजदूर संगठनों को तथा राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कलाकार, साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी, सामाजिक कार्यकर्ता और समाज विज्ञानियों को भी सहभागी बनाया जायेगा। 

Thursday, August 27, 2015

इप्टा कोल्हापुर और थियेटर ऑफ़ रेलेवंस की नाट्य लेखन कार्यशाला

ज विज्ञान और तकनीक के साये में, बाजारू और प्रतिगामी युग में विलुप्त होते जन सरोकोरों से प्रतिबद्ध नाटककार का उदय अनिवार्य और अपरिहार्य है. “थियेटर ऑफ़ रेलेवंस” नाट्य सिद्धांत के अनुसार नाटय आलेख  की वैचारिक प्रतिबद्धता का सूत्रधार नाटककार है इसलिए नाटककार का जनसरोकारों से लबरेज होना अनिवार्य और अपरिहार्य है .इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए भारतीय जननाट्य संघ, कोल्हापुर और  थियेटर ऑफ़ रेलेवंस की तरफ से नाट्य लेखन कार्यशाला का आयोजन १४ से १८ अगस्त २०१५ को कोल्हापुर में किया गया .

इस पांच दिवसीय नाट्य लेखन कार्यशाला को उत्प्रेरित किया विश्व विख्यात नाटककार और “थियेटर ऑफ़ रेलेवंस”  नाट्य सिद्धांत के  जनक मंजुल भारद्वाज ने . इस कार्यशाला में नाट्य लेखन के लिए मुलभूत विषयों को खोंगोला और तराशा गया मसलन सामजिक , राजनैतिक , आर्थिक और सांस्कृतिक प्रक्रिया का विश्लेषण , नाट्य शिल्प , नाट्य लेखन शिल्प ,मंच शिल्प , कथा , दृश्य , संवाद और दर्शक की दृष्टी उसके सरोकारों पर विस्तृत वैचारिक और व्यवहारिक अभ्यास हुआ . मंजुल भारद्वाज ने सहभागियों को प्रोत्साहित करते हुए इस कार्यशाला में एक नया नाटक सहभागियों  के साक्ष्य में लिखा .

कार्यशाला के समापन समारोह के अवसर पर आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में मंजुल भारद्वाज ने कहा “नाटक समाजपरिवर्तन का एक सशक्त माध्यम है। अभी नाटकों की तरफ केवल मनोरंजन की दृष्टि से देखा जाता हैं। असलियत  में वो समाज परिवर्तन का सशक्त माध्यम है। कोई भी कला और कलाकार वस्तु नहीं है बल्कि अभिव्यक्ति  करने वाले जीवित इंसान हैं। नाटक के  माध्यम से आदि काल से चल रही शोषण पद्धती पर  प्रहार करके समाज परिवर्तन करना 'थियेटर ऑफ़ रेलेवंसका प्रमुख उद्देश्य है”.

 भारतीय जीवन शैली के शोषण पद्धती पर भारतीय जननाट्य संघथियेटर ऑफ़ रेलेवंस की तरफ से आयोजित नाट्य लेखन कार्यशाला में सहभागी  कलाकार अश्विनी नांदेडकरयोगिनी चौक , अनघा देशपांडे ,कोमल खामकर. तुषार म्हस्के, प्रियंका राउत ,पंकज धूमाल और हृषिकेश ने कायर्शाला के अनुभवों के बारे में बताया की  “एक कलाकार के तौर पर इस जन विरोधी और बाजारू माहौल में   घुटन होती है। खुद का व्यक्तित्व  खोकर काम करना पड़ता है। इस अवस्था से बाहर निकालकर एक सार्थक पहल करने के लिए थियेटर ऑफ़ रेलेवंसयोग्य मंच है। यहाँ कला के लिए कला नहीं ,कला की जन प्रतिबद्धता , कला का समाधानव्यक्तित्व में बदलाव और समाज परिवर्तन का रंगकर्म  करते हुए उन्मुक्त और अनूठा कलात्मक जीवन  जीना सिखाते हैं कलाकार । इसलिए अनेक व्यवसायिक नाटककों को नकारते हुए इस रंगभूमि  पर खुद का योगदान दे रहे हैं”.

- मेघा पानसरे 
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Tuesday, August 25, 2015

देश के नामी सांस्कृतिक संगठनों का साझा अभियान

बलपुर, 23 अगस्त, 2015. देश के मौजूदा सामाजिक-सांस्कृतिक संकट के प्रति सांस्कृतिक हस्तक्षेप की भूमिका को निर्धारित करने के लिए देश के प्रमुख सांस्कृतिक-साहित्यिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों ने जबलपुर में दो दिवसीय विमर्श किया। बैठक में राष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वाले सांस्कृतिक-सामाजिक संगठनों एवं राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कलाकार, साहित्यकार, संस्कृतिकर्मियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं आदि को शामिल करते हुए साझा मोर्चा बनाने का निर्णय लिया गया।विमर्श बैठक की अध्यक्षता रणबीर सिंह, के. प्रताप रेड्डी, मलय, और प्रभाकर चैबे की अध्यक्ष मंड़ली ने की।

अभियान का नाम ‘साझा संघर्ष, साझी विरासतः सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता और जनतांत्रिक मूल्यों के पक्ष में सांस्कृतिक अभियान’ होगा। अभियान के प्रथम चरण की शुरूआत 6 दिसम्बर, 2015 को पूरे देश में होगी। इसके तहत् सांस्कृतिक यात्राएं, सभा, संगोष्ठी, नुक्कड़ नाटक, काव्य-पाठ, फिल्म प्रदर्शन आदि विविध सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जायेंगे। अभियान का दूसरा चरण गांव केन्द्रित होगा। जिसकी शुरूआत 14 अप्रैल, 2016 को अम्बेडकर जयंती पर होगी। 
इस साझा अभियान में सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वाले सांस्कृतिक-सामाजिक संगठनों को शामिल करने का प्रयास होगा। इनमें स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, नौजवान, किसान-मजदूर-सामाजिक संगठनों को भागीदार बनाया जायेगा। साथ ही, राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कलाकार, साहित्यकार, संस्कृतिकर्मियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, आदि को भी इस अभियान का सहभागी बनाया जायेगा।
बैठक में भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा), प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच, विकल्प-अखिल भारतीय जनवादी सांस्कृतिक-सामाजिक मोर्चा एवं अलग दुनिया के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया।
(हिमांशु राय)
राष्ट्रीय सचिव, इप्टा
09425387580

Monday, August 17, 2015

What ails the Indian People’s Theatre?


Since its establishment as a nationwide entity in 1943 at Mumbai’s Marwari School, the Indian People’s Theatre Association, or Ipta, has undergone several transmutations. First, regional units proliferated post-Partition. In 1960, the national chapter disintegrated, even as splinter units continued to function. Then the split in the Communist Party of India resulted in offshoots like Safdar Hashmi’s Jana Natya Manch forging their own identity in the 1970s.

In 1986, at a national conference, held for the first time in two decades, in Hyderabad, the organization declared, “We, the old and new workers of Ipta re-dedicate ourselves to organize Ipta into a powerful and effective National Movement.” If you look at sheer size, they seem to have achieved it—Ipta has more than 500 units in around 30 states and union territories, with more than 12,000 members. It’s no longer the blacklisted organization of its early days, but it’s still largely independent of state largesse, though some units may sometimes get festival and repertory grants from a governmental agency.

Each unit is cast in a similar mould, suggesting that a replicable system is in place. But some are more active than others. Like the branch at Raigarh town in Chhattisgarh, which can possibly be considered a model Ipta unit. Or the Bihar unit based in Patna and managed by Tanwir Akhtar, who has been an office-bearer with Ipta since 1986.

The Raigarh unit’s website conforms to the standard but stands apart for its local flavour—its recent posts are about the 21st edition of a national theatre festival held in December, where Mumbai’s Manav Kaul (who was given an award) and Sushama Deshpande showcased their plays.

Usha Athaley, a driving force, outlines the year-long itinerary that keeps the Raigarh unit buzzing: plays, seminars, cultural functions, a theatre pedagogy programme for members, an annual cultural magazine, Rangkarm. It also conducts a summer theatre camp for children, and liaises with other Ipta branches in the state, like those in Raipur, Bilaspur, Bhilai, Dongargarh, Balco (Bharat Aluminium Co. Ltd) township and Ambikapur—each of which has its own set of activities.

Some of this can perhaps be linked to the work of the late theatre maestro Habib Tanvir, forged on the anvil of tribal culture in the region—for instance, the proletarian ethos of productions like Charandas Chor and Agra Bazaar for his group, Naya Theatre.

Ipta’s Mumbai unit, of course, enjoys a more rarefied position within the organization. In part this could be because it was established in 1942, even before the national chapter came into being. Nivedita Baunthiyal, vice-president of the branch, also attributes it to the soft power of cinema—the careers of Ipta stalwarts in films have given not just their individual legacies a fillip, but added a lustre to the city unit. Actors Balraj Sahni, Utpal Dutt and Dina Pathak have all been important players, as have thinkers like Khwaja Ahmed Abbas, Ali Sardar Jafri and Kaifi Azmi.

The branch eschews some of the exploitative aspects of urban theatre culture. “In keeping with our ideology, we don’t take any money from members, unlike other groups. We don’t work for profit. We are open to anyone passionate about theatre,” says Baunthiyal. “We also don’t enforce hierarchical attitudes when it comes to our daily functioning.”

When she joined the group as a young actor from Dehradun, she was struck by the simplicity of even some of the prominent artistes that she met. Her director M.S. Sathyu, who had directed the classic film Garm Hava, would travel by public transport to Crawford Market and select costumes himself. She recounts how the late A.K. Hangal would make it a point to ask her if everything was going well with the group, even when he had to be hospitalized after a fracture. Baunthiyal is happy to keep the flag flying.

The Mumbai branch is the most prolific of the various units. “We choose plays that are aligned to Ipta’s sensibility. The message is important, although we have distanced ourselves from the radical politics of the past,” says Baunthiyal. Some of their running productions include Rakesh Bedi’s Simla Coffee House, in which S.M. Zaheer invests much gravitas into the part of a ruminating writer despite a hackneyed plot, and Moteram Ka Satyagrah, a satirical, still topical, play on religious hypocrisy, adapted from a Munshi Premchand story.

But the fan-base is not uncritical. And plays such as Darindey... The Villains, adapted by Ramesh Talwar from Lillian Hellman’sLittle Foxes, can seem outmoded in execution. Critic Deepa Punjani says, “In the last decade at least, I haven’t seen a strong production by this legendary group. Its productions have begun to look dated and seem melodramatic, with a hankering for the past.” While aesthetics may not have been a priority when the group was crusading for social uplift, it certainly comes into focus in a setting like Prithvi Theatre, though the plays still command a loyal audience.

The organization’s logo, differentiated by bold colour schemes across units, is a nod to the proverbial clarion call, represented by the sinewy figure of a nagara vadak beating his drum. It was designed by the impassioned, if unheralded, political artist Chittaprosad, whose book of drawings and writings—the stark Hungry Bengal, copies of which were confiscated and burnt by the British in large numbers—has only recently resurfaced (the Delhi Art Gallery has been showcasing a reproduction since 2011). It chronicled the human costs of the man-made Bengal famine in 1943, which was one of the triggers for Ipta’s inception, nationally, that year.

Two of its earliest plays, Nabanna and Jabanbandi by Bijon Bhattacharya, drove home the severity of nature’s wrath and state fascism, and became the basis (alongside Krishan Chander’s Annadata) of Abbas’ uncompromising Dharti Ke Lal (1946), the only film ever produced by Ipta (although the Raigarh unit recently co-produced a short film, June Ek, in 2013). In a scene fromDharti Ke Lal, a glazed-looking peasant girl (played by Tripti Mitra, who would become a doyenne of Bengali theatre) sings a doleful ballad, Ab na zaban par tale dalo, outside Kolkata’s stuccoed Grand hotel, looking in through art deco windows at the excesses of its elite clientele.

In some ways, the contemporary Ipta finds itself looking out rather than looking in, its narrative of victims and exploiters upended by the vagaries of a palliative social change not of its own making, even if oppression continues and inequities remain. “A group with clear leftist sensibilities and middle-class values, which upheld democracy, secularism and the values of education, is sorely at its wit’s end in a neo-liberal, Indian capitalist state, threatened ever so subtly by communalism and identity politics,” says Punjani.

The changes have hit hard. Currently, Ipta cannot be said to be affiliated to any political ideology, though it initially comprised card-carrying members of the Communist Party. Their radical positions softened in the 1970s; Ipta can no longer be considered a bank of left-leaning intellectuals, quick to challenge all modes of oppression. In an interview featured on the group’s official blog, Akhtar, however, is categorical that Ipta hasn’t lost its edgy, aggressive nature. “I think it has gone through a transformation and attained a maturity of its kind. With changing time and changing needs, the ways of expression have changed.”

Athaley is more circumspect. “It is difficult to tell apart regressive and progressive forces in our times. I will not hesitate to say that Ipta’s influence on state policy has waned because, perhaps, our methods are not adequate enough to deal with an increasingly consumerist culture.” But it’s thanks to Ipta’s efforts, she says, that drama instruction is now a part of the Central Board of Secondary Education (CBSE) curriculum, and auditoriums have sprung up in every Chhattisgarh municipality. These may be baby steps but, says Athaley, “Even if the global landscape of cultural insensitivity is slowly swamping our human faculties, we will continue our search for new cultural tools to counter this.”

Harking back to the past is perhaps unfair to the organization even if it seems to insist on living in a time warp. For there are so many cultural organizations that are derivatives of Ipta, or have been inspired by it. The language of protest of students currently agitating against the selection of a new head for the Film and Television Institute of India (FTII) owes much to the songs of revolution first introduced by Ipta. “Chorus songs” may be talked of in pejorative terms, but they have been adopted by umpteen non-governmental organizations and street theatre groups. Political theatre remains a minefield of contradictions across groups and ideologies, but still bears allegiance to the theatre traditions built by Ipta, even if Ipta itself has moved away somewhat.

Certainly, there is a legacy that lives on beyond the boundaries of the official organization. The larger question is: Do cultural movements themselves have a place in today’s social fabric?
Courtesy : http://www.livemint.com 

इस्मत चुग़ताई: खुद बदनामियों झेल कर औरत को उसका हक़ दिलाया


-वीर विनोद छाबड़ा
खनऊ में तारीख़ १४ अगस्त २०१५ में इस्मत चुग़ताई के जन्म शताब्दी समारोह के सिलसिले में इप्टा, लखनऊ ने 'महत्व इस्मत चुग़ताई' कार्यक्रम आयोजित किया। अध्यक्षता जेएनयू के पूर्व प्रोफ़ेसर और उर्दू इल्म-ओ-अदब में बहैसियत समालोचक दख़ल रखने वाले शारिब रुदौलवी ने की। अलावा उनके मंच पर आबिद सुहैल, रतन सिंह, सबीहा अनवर, वीरेंद्र यादव और शबनम रिज़वी की मौज़ूदगी थी।

इप्टा के राष्ट्रीय सचिव राकेश ने संचालन करते हुए इस्मत चुग़ताई की ज़िंदगी पर रौशनी डालते हुए बताया इस्मत आपा के अफ़साने 'लिहाफ़' ने अदबी दुनिया में ज़बरदस्त हलचल पैदा की। ये अफ़साना औरत की आज़ादी की बात तो करता ही है, पूरे समाज का रचनात्मक आत्मलोचन भी करता है.…उन पर उनके भाई अज़ीम बेग चुग़ताई का और उनके लेखन का ख़ासा असर था। इस्मत ने अज़ीम बेग को पार करके उर्दू अदब में खुद को स्थापित किया। ख़ुद अज़ीम बेग को भी इसका डर था। इस्मत कहती थीं कि क़लम मेरे हाथ में जब आ जाती है तो मैं लिखती ही जाती हूं.…वो १९४७ में मुल्क़ की तक़सीम से पैदा हुए फ़सादात से गुज़री। तक़सीम मुल्क़ की ही नहीं हुई बल्कि अवाम के दिलों की भी हुई.…वो कृष्ण चंदर, राजिंदर सिंह बेदी और सआदत अली मंटो की कड़ी हैं। प्रोग्रेसिव लेखन की अगुवा रहीं। उनका लेखन ऑटोबायोग्राफ़िकल रहा है। उनके अफ़साने बताते हैं वो किसी से भी बात कर लेती हैं। चाहे वो धोबी हो या मोची या सफ़ाई वाला या कामवाली बाई या अस्तबल का साइंस…एक बार मंटो से किसी ने पूछा था कि अगर मंटो की शादी इस्मत से हो गयी होती तो? मंटो ने जवाब दिया था कि निक़ाहनामे पर दस्तख़त करते-करते उनमें इतनी लानत-मलानत होती कि यह वहीं टूट जाती। 

करामात हुसैन डिग्री कॉलेज की पूर्व प्रिसिपल और उर्दू की वरिष्ठ लेखिका सबीहा अनवर ने इस्मत आपा के साथ वक़्त वक़्त पर बिताये दिनों को भावुक अंदाज़ से याद किया। इस्मत आपा की राय बेहद बेबाक होती थी। वो दिखावटी बात नहीं करती थीं। प्रैक्टिकल, मुंहफट और आज़ाद ख़्याल। उन्हें दुनिया में होने वाली हर घटना की जानकारी लेने की फ़िक्र रहती। उस पर अपना नज़रिया ज़ाहिर करती…वो जब कभी लखनऊ आतीं तो मेरे घर ज़रूर आती, क़याम भी फ़रमाती। जब भी मिलीं बड़े ख़लूस से मिलीं। उन्हें मिलने, देखने और सुनने वालों का सिलसिला सुबह से शाम चला करता। भीड़ लगी रहती। वो बेबाक बोलने से बाज़ न आतीं। उनकी शैली व्यंग्यात्मक होती। एक बार बोलीं कि मेरी मां को उसके दसवें बच्चे ने बिलकुल तंग नहीं किया क्योंकि वो पैदा होते ही मर गया....कोई न कोई कंट्रोवर्सी वाला बयान दे देतीं और फंस जाती। अख़बारनवीसों को इसी का इंतज़ार रहता। एक दिन कह बैठीं कि मरने के बाद दफ़न करने के बजाये मुझे जलाया जाए.…जब मैंने उनसे कहा कि आप थोड़ा सोचा-समझ कर बयान दिया करें तो उन्होंने कहा, मैं तुम्हारे जैसी समझदार नहीं हूं। जो दिल में है वही कहूंगी। मैं सच कहने से डरती नहीं…बहुत ज़िद्दी थीं वो। बोलने पर आतीं तो बेलगाम हो जातीं। यादों का कभी ख़त्म न होने वाला ख़जाना था उनकी झोली में। अपने मरहूम शौहर शाहिद लतीफ़ और भाई अज़ीम बेग का बहुत ज़िक्र करतीं थीं। लेकिन दुःख साझे नहीं करतीं थीं.…'जुनून' की शूटिंग में मिलीं। मैंने पूछा कहां एक्टिंग में फंस गयीं। तो बोलीं क्या जाता है मेरा? फ़ाईव स्टार होटल और शानदार खाना है। मौज मस्ती है.…चटपटे खाने की बहुत शौक़ीन थीं। खाते वक़्त खूब बातें करतीं। एक बार मुझसे बोलीं बड़ी मक्कार हो तुम। हस्बैंड को रवाना करके खूब बढ़िया-बढ़िया खाना खाती हो और गप्पें मारती हो.…छोटी-छोटी बातों का बहुत ध्यान रखतीं। पूरा सूटकेस पलट देतीं। समझौते नहीं कर सकतीं थीं.…मैंने ऊपरी तौर पर उन्हें ज़िंदगी से भरपूर देखा। लेकिन अंदर से मायूस और तनहा पाया। उन्होंने अपनी बेटियों का ज़िक्र बहुत कम किया। हां, नाती को कभी-कभी याद ज़रूर कर लेतीं। किसी को उनकी फ़िक़्र नहीं होती थी कि वो कहां हैं, कैसी हैं और कब लौटेंगी …उन दिनों वो हमारे घर पर रुकीं थीं। उनके लिए बंबई से फ़ोन आया। फलां फ्लाईट से फ़ौरन रवाना कर दें। मैं और मेरे पति अनवर उन्हें एयरपोर्ट छोड़ने गए। वहीं बंबई जा रहे एक दोस्त मिल गए। हमने इस्मत आपा को उनके सिपुर्द कर दिया, इस ताक़ीद के साथ कि रास्ते भर उनका हर क़िस्म का ख्याल रखें और एयरपोर्ट से घर के लिए टैक्सी भी कर दें। दोस्त ने लौट कर बताया कि वो बलां की ज़िद्दी निकलीं। बंबई एयरपोर्ट पर उन्हें लेने कोई नहीं आया। टैक्सी करके सीधा बांद्रा चली गयीं अपने एक दोस्त के घर।
प्रसिद्ध लेखिका शबनम रिज़वी ने इस्मत आपा के अफ़सानों और नावेलों के किरदारों पर बड़े विस्तार से रौशनी डाली। वो खुद अव्वल दरजे की ज़िद्दी थीं। उनके किरदारों में अजीबो-ग़रीब ज़िद्द और इंकार साफ़ दिखता है। मुहब्बत करने वाला नफ़रत का इज़हार करता है। खेल-खेल में बात शुरू होती है। फिर नफ़रत में तब्दील हो जाते हैं। हमला करते हैं। मगर आख़िर आते-आते भावुक हो जाते हैं.…उनके किरदार वक़्त के साथ बदलते भी रहते हैं.… महिलाओं के लिए बहुत लिखा। 

हिंदी साहित्य के सुप्रसिद्ध समालोचक वीरेंद्र यादव ने रशीद जहां, अतिया हुसैन और कुर्तनलैन हैदर की पंक्ति में इस्मत चुग़ताई को रखते हुए बहुत बड़ी लेखिका बताया। यह सब लखनऊ के आधुनिक आईटी कॉलेज की पढ़ी हुईं थीं। उन्होंने अपने समाज की चिंता के साथ महिलाओं की आज़ादी की बात की है। उनकी प्रसिद्ध कृति 'लिहाफ़' में शोषण के परिप्रेक्ष्य की सिर्फ़ बात नहीं है। उनमें फ़िक्र है कि हालात क्या हैं, रिश्ते क्या हैं और ऐसे रिश्ते क्यों हैं और उनके किरदारों के शौक क्या हैं?…उन्होंने सेक्सुल्टी की बात की। उस भाषा में बात की जो उनके समाज के मिडिल क्लास में बोली जाती है। और उन विषयों पर लिखा जिन पर कभी किसी की निग़ाह नहीं गयी थी.…वो मूल्यों के साथ जुडी रहीं। कभी किसी तहरीक़ के साथ जुड़ कर नहीं लिखा। थोपी हुई बातें नहीं मानीं। जो मन में आया, लिखा…उनके अफ़सानों में १९४७ के पार्टीशन से उपजे सांप्रदायिक दंगों का दर्द है। दिलों में दरारें पड़ने का दर्द है। ऐसे संगीन माहौल में एक लेखक का फ़र्ज़ बनता है कि वो हस्तक्षेप करे। और इस्मत आप ने पूरे समर्पण के साथ बखूबी किया…वो पाखंड की धज्जियां उड़ाती हैं। 'कच्चे धागे' कहानी में उनकी यह फ़िक्र और उनकी विचारधारा दिखती है कि वो किसके साथ खड़ी हैं। बापू की जयंती के रोज़ आत्माएं शुद्द हो रही हैं। गंदी और घिनौनी। मगर लालबाग़ और परेल के इलाकों में एक भी तकली नाचती नज़र नहीं आती है। पच्चीस हज़ार श्रमिक कामगार मैदान में जमा हैं। छटनी की धार से ज़ख्मी मज़दूर, फीसों से कुचले विद्यार्थी, महंगाई के कारक और शिक्षक उम्मीद भरी नज़रों से आज़ाद मुल्क के रहनुमाओं को ताक रहे हैं। इंसान इंसान से नहीं हैवान से लड़ेगा। कामगार मैदान के चारों ओर पुलिस का पहरा है। मगर नाज़ायज़ शराब पर नहीं है, काले बाज़ार और चोर उच्चकों पर नहीं है। मैं इनके साथ हूं। भले मैं इस तूफ़ान में कतरा हूं और हर कतरा एक तूफ़ान है.…आज बहुमतवादी आतंक है। मूल्यों का क्षरण हो रहा है। ऐसे में इस्मत आपा की और उनके समर्पित लेखन की सख़्त ज़रूरत है। 

मशहूर सीनियर उर्दू अफ़सानानिगार रतन सिंह ने इस्मत आपा को याद करते हुए बताया कि वो बेहद संजीदा औरत थीं। एक वाक़या याद है। एक जलसे में उनको सुनने और देखने वालों से हाल भरा हुआ था। मैं जगह न मिलने की वज़ह से पीछे एक कोने में खड़ा था। इस्मत आपा ने देखा। ज़ोर से बोलीं। पीछे क्यों खड़े हो? आगे आओ। इसके पीछे उनका मक़सद था, नई पीढ़ी के अदीबों आगे आओ। सीनियर अदीब जूनियर के लिए रास्ता साफ़ करो। एक जनरेशन दूसरी जेनरेशन को तैयार करती थी। हमें उनके काम को आगे बढ़ाना चाहिये…आज मुल्क़ में कोई ऐसा रिसाला नहीं है जिसमें पूरे मुल्क़ के अदब को देखा जा सके। कहानी के मामले में हमारा हिंदुस्तान बहुत आगे है। 

मशहूर सीनियर उर्दू अफ़सानानिगार और सहाफ़ी आबिद सुहैल ने बताया कि इस्मत आपा सिर्फ़ हिंदुस्तान में ही नहीं बल्कि सारी दुनिया में मशहूर थीं.… पहली मरतबे उन्हें १९६२ में देखा था। लखनऊ के बर्लिंग्टन होटल में एक जलसा हुआ। बेशुमार नौजवान अदीब जमा हुए इस्मत आपा को देखने और सुनने। उन्होंने अपील की। घर से बाहर निकलो। लोगों से मिलो, उन्हें देखो और लिखो…इस्मत आपा शादी के कुछ दिनों बाद तक अपने शौहर शाहिद लतीफ़ के नाम से लिखती रहीं। बाद में अपने नाम से लिखा…औरत जब चुटकी लेती है तो मर्द कसमसा कर रहा जाता है। इस्मत आपा इसमें माहिर थीं.…एक जलसे में जाने से पहले शाहिद ने उनसे कहा, मेरी कहानी के मुतल्लिक कुछ नहीं कहेंगी। मुंह बिलकुल बंद रखना। लेकिन वो अपना वादा नहीं निभा सकीं। कहानी की बखिया उधेड़ कर रख दी। वापसी पर शाहिद ड्राइव कर रहे थे और इस्मत उनका चेहरा देख रहीं थीं कि शाहिद कुछ बोलेंगे। लेकिन बिलकुल ख़ामोश रहे.....एक वाकया रामलाल के घर पर हुआ। हम सब वहां पहुंचे। रामलाल वो तमाम खतूत संभालने और खंगालने में लगे थे जिन्हें तमाम अदीबों ने उन्हें लिखे थे। इस्मत बोलीं यह सब बेकार मेहनत क्यों कर रहे हो। तुम्हारे जाने के बाद सब ख़त्म हो जायेगा। कोई इन्हें संभाल नहीं रखेगा… इस्मत के अफ़सानों में डायलॉग बहुत कम हैं। कहानी बनाई नहीं जाती, बल्कि चलती रहती है। 

कार्यक्रम के अध्यक्ष और ,जेएनयू के पूर्व प्रोफ़ेसर और उर्दू समालोचक शारिब रुदौलवी की निग़ाह में इस्मत चुग़ताई की कहानियां के ख़ास तरह की थीं। तरक़्क़ीपसंद अफ़साने लिखे। फ़िक्री कहानियां लिखीं, जिनकी बुनियाद मसायल हैं। मसायल में इंसान के काम की अहमियत है.…उर्दू में भंगी समाज पर सिर्फ़ दो अफ़साने लिखे गए हैं। एक कृष्ण चंदर ने लिखा - कालू भंगी। और दूसरा लिखा इस्मत ने - दो हाथ। यह इस्मत की ही हिम्मत थी कि उन्होंने उस किरदार की समाज में अहमियत बताई…उनके अफ़सानों को पढ़ कर लोग हैरान होते थे जब उन्हें यह पता चलता था कि ये खातून ने लिखे हैं। उस दौर में यह बहुत बड़ी बात थी.…अफ़साना तो कोई भी लिख सकता है। सवाल यह है कि मसला क्या है? इस्मत ऐसे मसायल लेकर चलती हैं जिनमें औरत की जद्दोजहद पूरी शिद्दत के साथ पेश की जाती है। उसे समाज में हक़ दिलाती हैं। इस्मत ने बदनामियों को झेल कर औरत को उसका मुक़ाम दिलाया। आज़ादी दिलाई… अफ़साने आते रहेंगे और अफ़सानानिगार भी। लेकिन इस्मत का आना मुश्किल है।

और आख़िर में मैं। इस्मत आपा वाक़ई अद्भुत थीं। वो मेरे मरहूम वालिद, उर्दू के मशहूर अफ़सानानिगार रामलाल. की दोस्त थीं। हमारे घर पर रहीं भी.…मैंने उन्हें पहली मरतबे १९६२ में देखा था। वो चारबाग़ वाले हमारे घर आईं थीं। बेहद खूबसूरत। मैं तो उन पर फ़िदा हो गया था। उस वक़्त मेरी उम्र १२ साल थी.…१९८७ में वो हमारे इंदिरा नगर घर आयीं। दो रोज़ रहीं भी। उनसे मैंने सिनेमा के बारे बहुत लंबी बात की। खास तौर पर दिलीप कुमार के बारे में। उनके शौहर शाहिद लतीफ़ ने दिलीप कुमार को 'शहीद' और 'आरज़ू' में डायरेक्ट किया था। इसकी कहानी इस्मत आपा ने लिखी थी। उन्होंने गुरुदत्त की 'बहारें फिर भी आयेंगी' भी डायरेक्ट की थी.…एक बार जब मैं बंबई घूमने गया था तो इस्मत आपा से तो घर पर मुलाक़ात हुई लेकिन शाहिद लतीफ़ साहब से मिलने हमें श्री साउंड स्टूडियो जाना पड़ा, जहां वो चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी के लिए 'जवाब आएगा' के शूटिंग कर रहे थे.…इस्मत आपा बहुत बिंदास थीं और जो बात उन्हें पसंद नहीं थी तो लाख बहस के वो हां नहीं करती थीं। मैंने उनसे कहा रामायण सीरियल का राम अरुण गोविल मुझे फूटी आंख नहीं सुहाता। इस पर वो बहुत नाराज़ हुईं… वो थ्री कैसल विदेशी सिगरेट पी रही थी। मैं उन्हें ललचाई आंखो से देख रहा था। वो समझ गयीं। अपने पर्स से एक डिब्बी निकाल कर मुझे पकड़ा दी। मैंने इसे किसी से शेयर नहीं किया। रोज़ एक एक करके पी डाली…उनके इंतक़ाल की ख़बर ने हतप्रद कर दिया। बड़ा अजीब लगता है और ख़ालीपन सा भी, जब कोई ऐसा गुज़र जाए जिसे बहुत करीब से देखा और समझा हो। और फिर इस्मत आपा तो हमारे परिवार की थीं। 

कार्यक्रम में साहित्य, रंगमंच और पत्रकारिता से जुड़े जुगल किशोर, के.के.चतुर्वेदी, सुशीला पुरी, विजय राज बली, ऋषि श्रीवास्तव आदि तमाम जानी-मानी हस्तियों मौजूद थीं।

रायगढ़ : इप्टा का लघु नाट्य समारोह सम्पन्न

इप्टा रायगढ़ द्वारा दि. 14 और 15 अगस्त को दो दिवसीय लघु नाट्य समारोह का आयोजन किया गया। इन दो दिनों में तीन नाटकों का मंचन हुआ। दि. 14 अगस्त को पॉलिटेक्निक के प्राचार्य डॉ. राजेश श्रीवास्तव ने दीप प्रज्वलित कर इस लघु नाट्य समारोह का उद्घाटन किया।

दीप प्रज्वलित करने में रंगभूमि नाट्य संस्था के नाटक भटकते सिपाही के बाल कलाकार चैतन्य मोड़क और रायपुर की रंगश्रृंखला नाट्य संस्था के बाल कलाकार सायांश मानिकपुरी के नन्हें हाथों की भी भूमिका रही। सर्वप्रथम भटकते सिपाही नाटक का मंचन हुआ। एक आधुनिक काल का सिपाही और एक महाभारत काल का सिपाही हिमालय की सुनसान घाटियों में मिलते हैं और उनके बीच युद्ध और युद्ध की सार्थकता पर विमर्श होता है। श्री किशोर वैभव जैसे युवा लेखक-निर्देशक द्वारा प्रस्तुत यह नाटक युद्ध के प्रति चिंतन को एक नया आयाम देने की कोशिश प्रतीत हुआ। आधुनिक फौजी की भूमिका में थे शैलेश देवांगन तथा कौरव सैनिक की भूमिका निभाई थी लोकश्वर साहू ने। सूत्रधार ग्रीष्मा कुर्वे के साथ अबोध बालक की भूमिका में थे चैतन्य मोड़क। नेपथ्य सम्हाला था विक्रमदीप साहू ने तथा रंगभूशा, वेशभूषा और मार्गदर्शन था रंजन मोड़क का।

 दूसरा नाटक था हीरा मानिकपुरी निर्देशित नाटक प्रजातंत्र का खेल। प्रसिद्ध व्यंग्य लेखक हरिशंकर परसाई की रचना पर आधारित नाटक ‘‘प्रजातंत्र का खेल’’ ने वर्तमान हास्यास्पद परिस्थितियों पर करारा व्यंग्य किया मुद्दे की वैधानिकता-अवैधानिकता पर ध्यान दिये बिना किसतरह अपना उल्लू सीधा करने की कोशिश में किसी को बलि का बकरा बना दिया जाता है तथा इस खेल में प्रधानमंत्री, मंत्री से लेकर धार्मिक गुरु तक शामिल हो जाते हैं, इसपर तीखा व्यंग्य किया गया है। एक सामान्य व्यक्ति की सुंदर पत्नी सावित्री पर इकतरफा फिदा होकर प्रेम करने वाले बन्नू नामक नायक को मदद करने के बहाने सब अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकते हैं। नाटक आरम्भ से लेकर लगभग अंत तक हास्य-व्यंग्य के माध्यम से मंच को प्रवहमान रखता है परंतु नायक के अनशन को धार्मिक अंधविश्वासों का आधार मिलने पर अंततः सावित्री आत्महत्या करने पर मजबूर होती है। यहाँ दर्शक को झटका लगता है और वह हतप्रभ रह जाता है। इस नाटक में सावित्री की भूमिका में थी श्रीया पांडे, उसके बेटे की भूमिका में थे सायांष। बन्नू और उसके दोस्तों की भूमिका में थे
अभिषेक चैधरी, यश नारा, विवेक निर्मल, सुहास बंसोड़, आशीष सिंहानी, लेखेश्वर यादव, हुकुमचंद पटेल, रिशी यदु तथा सुकांत देशपांडे।

 दूसरे दिन दि. 15 अगस्त को प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष एवं युवा कहानीकार श्री रमेश शर्मा द्वारा दीप-प्रज्वलन के बाद इप्टा रायगढ़ का शाहिद अनवर लिखित एवं अजय आठले द्वारा निर्देशित नाटक बी थ्री का मंचन हुआ। इस नाटक में इतिहास के एक प्राध्यापक द्वारा तानाशाही के बारे में पढ़ाते हुए विद्यार्थियों को इसके खतरनाक अंजामों से परिचित कराने के लिए एक प्रयोग किया जाता है। आरम्भ में विद्यार्थी इस बात को हँसी में उड़ा देते हैं कि जर्मनी में हिटलर हुआ था हमारे यहाँ नहीं हो सकता। परंतु मानव का रेजिमेंटेशन किसतरह होता है और उसे पता भी नहीं चलता, प्रोफेसर का प्रयोग इसे सिद्ध करता है। सारे विद्यार्थियों के बीच एक लड़की, जो इसका विरोध करती है, उसे उसी दल का एक छात्र मार डालता है। प्रोफेसर की पत्नी बार-बार अपने पति को इस प्रयोग के खतरे से आगाह करती है परंतु जब तक प्रोफेसर को अपनी गलती का अहसास होता है तब तक देर हो चुकी होती है। बहुत गंभीर परंतु आवश्यक विषय पर केन्द्रित यह नाटक दर्शकों से थोड़ी बौद्धिकता की मांग करता है। चुस्त निर्देशन और सधे अभिनय ने नाटक को बहुत सम्प्रेषणीय बना दिया था। प्रोफेसर की भूमिका में सुमित मित्तल और पत्नी की भूमिका में थी अपर्णा। विद्यार्थियों की भूमिका में मयंक श्रीवास्तव, भरत निशाद, प्रियंका बेरिया, आलोक बेरिया, स्वप्निल नामदेव, दीपक यादव, अमित दीक्षित और कुलदीप दास थे। डायरेक्टर थे सुरेन्द्र बरेठ, प्राचार्य - “याम देवकर, अमेरिकी - रीतांत शर्मा, इजराइली - अजेश शुक्ला, जापानी - अमितेष पांडे तथा सुधीर चपरासी की भूमिका में थे अनादि मेहर। विदेषी मेहमानों के बॉडी गार्ड थे - विवेकानंद प्रधान तथा लोकेश्वर निषाद। प्रकाश परिकल्पना एवं संचालन था अजय आठले का, संगीत संचालन था वासुदेव निशाद का तथा रंगसज्जा की थी संदीप स्वर्णकार ने। पूरे समारोह का सफल संचालन किया विनोद बोहिदार ने।

Tuesday, August 11, 2015

शोषक मुकाबिल हो तो पोस्टर लगाआे

विवेचना थियेटर ग्रुप जबलपुर के द्वारा डा शंकर शेष के नाटक ’पोस्टर’ का प्रभावी मंचन विमला ग्रेस ऑडीटोरियम जॉय सीनियर सेकेण्डरी स्कूल विजय नगर में किया गया। यह नाटक हिन्दी का प्रसिद्ध नाटक है और एक श्रेष्ठ नाट्य कृति है। इसके मंचन विगत 35 वर्षों से किए जा रहे हैं और बहुत सराहे गए हैं। जबलपुर में विवेचना ने पूर्व में इस नाटक के मंचन किए हैं। विवेचना द्वारा ग्रीष्मकालीन शिविर में शामिल नवोदित कलाकारों के साथ मिलकर ’पोस्टर’ की यह नई प्रस्तुति तैयार हुई है।

पोस्टर नाटक की कथा बहुत रोचक है। नाटक एक प्रवचन से शुरू होता है। एक युवक खड़ा होकर कहता है कि यह गांव अब कथा प्रवचन के लायक नहीं बचा है क्योंकि इस गांव में एक लड़की के साथ बलात्कार हुआ है और कोई कुछ नहीं बोला। यहां तक कि बलात्कारी और लड़की का बाप दोनों बैठे प्रवचन सुन रहे हैं। तब कीर्तनकार एक गांव की कथा सुनाते हैं। एक आदिवासी गांव में मजदूर पटैल के कारखाने में काम करते हैं। पटैल वनोपज और लकड़ी आदि का धंधा करता है। एक महिला मजदूर चैती अपने मायके से एक कागज ले आती है जिसे देखते ही पटैल आगबबूला हो उठता है और मजदूरी बढ़ा देता है। मजदूरों को समझ में नहीं आता कि इस कागज को देखकर पटैल गुस्सा क्यों हुआ और फिर मजदूरी क्यों बढ़ा दी। वो गांव के मास्टरजी से यह कागज पढ़वाते हैं तब पता चलता है कि दूसरे गांव में काम कर रहे मजदूरों की मांगों का पोस्टर है। उस गांव में राघोबा नाम का एक मजदूर नेता है जो मजदूरों को शोषण के विरूद्ध लड़ने के लिए संगठित कर रहा है। उसने मजदूरों की शराब भी छुड़वा दी है। इसी प्रेरणा से इन मजदूरों में भी हलचल होती है और नाटक एक के बाद एक नया मोड़ लेता है। नाटक में फारेस्ट आफीसर, पटेल और कीर्तनकार के बहाने समाज में शोषक और शोषितों का संघर्ष बहुत प्रभावशाली तरीके से दिखाया गया है।

निर्देशक वसंत काशीकर ने गांव के परिवेश को अभिव्यक्त करने और कथा के विकास के लिए संगीत , गीत और नृत्य का सुंदर प्रयोग किया गया है। अभय सोहले का संगीत निर्देशन और अमृतांश के तबले व ढोलक ने दर्शकों को अभिभूत किया। गायन मंे उषा तिवारी व जान्हवी शुक्ला प्रभावशाली थीं। मनोज चौरसिया ने नाटक के ही कलाकारों को प्रशिक्षित कर छत्तीसगढ़ी लोकनृत्य तैयार करवाया जिसका संतुलित प्रयोग नाटक में किया गया। प्रकाश परिकल्पना सादी मगर प्रभावपूर्ण थी। प्रकाश में रंगों और पीले प्रकाश का संतुलित संयोजन दिखा। जिसका एक अलग प्रभाव आया। नाटक में पार्श्व संगीत का संचालन जतिन राठौर ने किया। रोहित झा ने कलाकारों को अपने कौशल से मेकअप से सज्जित किया। 

नाटक में कल्लू बने अक्षय सिंह ठाकुर और चैती बनी शालिनी अहिरवार ने दर्शकों को प्रभावित किया। कीर्तनकार व अखंडानंद के रूप में अशोक चांदवानी, कीर्तनकार के साथी के रूप में जतिन राठौर, पटैल बने चिन्टू स्वामी, सुखलाल के रोल में आशीष तिवारी बहुत सराहे गये। गुरू जी के रूप में निमिष माहेश्वरी, फारेस्ट आफीसर - ब्रजेन्द्र सिंह, वृद्ध- सागर सोनी व मजदूर बने तरूण ठाकुर, अक्षय टेम्ले, सौरभ विश्वकर्मा, शुभम जैन, स्वाति भट्ट, श्रेया श्रीवास्तव, मनीषा तिवारी ने अपने पात्रों के अनुकूल प्रभावशाली अभिनय किया। इससे समूह दृश्य बहुत बेहतर बने। 

नाटक के अंत में निर्देशक वसंत काशीकर ने पात्रों का परिचय कराया और नाटक के तैयार होने की प्रक्रिया पर प्रकाश डाला। प्रो ज्ञानरंजन ने निर्देशक वसंत काशीकर को गुलदस्ता भेंट कर स्वागत किया। श्रीमती शुभदा पांडेय धर्माधिकारी ने सभी कलाकारों का स्वागत किया। प्रो ज्ञानरंजन ने इस अवसर पर कहा कि ’पोस्टर’ नाटक पुराना होते हुए भी आज भी प्रासंगिक है। आज देश में आदिवासी और मेहनतकश वर्ग की जिस शोषण के कुचक्र से बावस्ता है उसमें ये नाटक और भी जरूरी हो जाता है। नाटक बहुत खूबसूरती से लिखा गया है। हिमांशु राय व बांकेबिहारी ब्यौहार ने जॉय सीनियर सेकेण्डरी स्कूल व दर्शकों का आभार व्यक्त किया।
हिमांशु राय
लेखक इप्टा की राष्ट्रीय सचिव मंडली के सदस्य हैं। उनसे 94 25 387580 पर संपर्क किया जा सकता है।

Monday, August 10, 2015

भीष्म साहनी : इतिहास को व्याख्यापित करता मानवीय चेहरा

-वीर विनोद छाबड़ा 

०८ अगस्त २०१५. इसी दिन सौ वर्ष पूर्व प्रख्यात कथाकार, नाट्य लेखक और अभिनेता दिवंगत भीष्म साहनी का जन्म हुआ था। इस सिलसिले में इप्टा के तत्वाधान में लखनऊ में एक कार्यक्रम आयोजित हुआ - महत्व भीष्म साहनी। अध्यक्षता दूरदर्शन के पूर्व निदेशक और नाट्य लेखन से जुड़े और भीष्म साहनी के करीबी रहे विख्यात लेखक विलायत जाफ़री ने की। 

कार्यक्रम का संचालन करते हुए इप्टा के राष्ट्रीय सचिव राकेश ने याद करते हुए बताया कि भीष्म १५ अगस्त १९४७ को बड़े उत्साह से रावलपिंडी से दिल्ली आये लालकिले पर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को तिरंगा फहराते देखने और उन्हें सुनने। लेकिन विभाजन के फलस्वरूप उत्पन्न भीषण दंगों के रहते लौट नहीं पाये। उनका परिवार ही विभाजित हो। १९७० में जब महाराष्ट्र के भिवंडी सांप्रदायिक दंगो की विभीषिका को भीष्म ने बड़े करीब से देखा तो उनकी प्रतिक्रिया थी - मैंने ये सब पहले भी देखा है। विभाजन के ज़ख्म हरे हो गए। इसकी परिणीति हुई ऐतिहासिक 'तमस' की रचना के रूप में। गोविंद निहलानी ने टीवी फ़िल्म भी बनाई।उनकी संघटन क्षमता अद्भुत थी। पूर्णतया समर्पित। उनकी कहानियों के पात्र निर्धन और निर्भीक मिलते हैं। 

सुप्रसिद्ध समालोचक वीरेंद्र यादव को भीष्म साहनी में एक बहुआयामी और विरल व्यक्तित्व के दर्शन होते हैं। 'तमस' और भीष्म साहनी एक-दूसरे का पर्याय हैं। विभाजन पर हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी में कई दस्तावेज़ी उपन्यास और कहानियां लिखी गयीं हैं लेकिन 'तमस' उपन्यास उन सब में अलग दिखता है। यह उस उस दौर के क्रूर पहलू को उजागर करता है कि उपनिवेशवादी शक्तियां समाज को बांटने और स्वतंत्रता आंदोलन को कुचलने के लिए के सांप्रदायिकता का इस्तेमाल करती थीं। विभाजन की भयावहता आज भी मंडरा रही है। इसी को भीष्म ने भिवंडी के दंगों में देखा। वो सिर्फ लेखक नहीं थे। फ्रीडम फाईटर भी थे। उन्होंने पीड़ितों की वेदनाओं को सुना और दर्ज किया। सैकड़ों सफ़े भर गए। 'तमस' में उन्होंने इन सबका ज़िक्र करते हुए उस क्षेत्र की मिली-जुली संस्कृति को भी व्याख्यापित किया। उन्होंने 'तमस' में विभाजन की त्रासदी को सांप्रदायिकता की दृष्टि से नहीं देखा। उनके हिंदू-मुस्लिम पात्र एक-दूसरे की मदद करते हुए नज़र आते हैं। सांप्रदायिकता और विभाजनकारी शक्तियों से लड़ते हुए और मरते हुए दिखते हैं। इन घटनाओं को उन्होंने विश्वसनीय बना कर पेश किया। यह बात दूसरी है कि सांप्रदायिक शक्तियां असरदार हो गयीं। आज के समय की सांप्रदायिकता और बहुसंख्यकवाद के खतरे को समझने के लिए 'तमस. एक ज़रूरी पठनीय कथाकृति है। 

युवा लेखन नलिन रंजन सिंह ने भीष्म के महत्व को उनकी कहानियां के कथानक और पात्रों में तलाश किया। 'अमृतसर आ गया' से विभाजन के दौर का पता चलता है। यह उस वक़्त की याद दिलाता है जब भीष्म आजादी का जश्न देखने रावलपिंडी से दिल्ली जा रहे होते हैं। मुस्लिम इलाकों से गुज़रते हुए डर लगना और अमृतसर आते-आते राहत की सांस का मिलना। 'चीफ़ की दावत' में मध्यवर्गीय पारिवारिक ढांचे और आडंबरों की बात करते हुए एक वृद्ध मां की मनोस्थिति का दर्शन। उस पर तंज करना। 'गंगो का दाया' में घर का खर्च चलाने के लिए छह साल का बच्चा काम पर निकलता है। वो लौट कर नहीं आता। ऐसी दुःख की घड़ी में भी पिता सोचता है अब तीन के जगह सिर्फ़ के दो के खाने का इंतज़ाम करना होगा। 'माता-विमाता' में संवेदनशीलता की पराकाष्ठा है। गरीब मां बच्चे का पालन-पोषण विमाता के ज़िम्मे डाल देती है। बच्चे के स्वस्थ होने पर माता उसे लेने आती है। विमाता में माता जाग उठती है। वो देने से मना करती है। लेकिन हक़ तो माता का है। बच्चा रोने लगता है। वो भूख से बिलख रहा है। माता विमाता को दूध पिलाते हुए देखती है। भीष्म की कहानियां पाठक को उस परिवेश से जोड़ देती हैं। समय को लेकर भी वो बड़े सजग रहे हैं। इसलिए भीष्म बड़े रचनाकार हैं। 

वरिष्ठ कथाकार शकील सिद्दीकी ने भीष्म में शालीनता, विनम्रता और दूसरों की बात सुनने का धैर्य देखा। अपनी आलोचना को भी उन्होंने धैर्य से सुना। दूसरों को आगे आने का मौका दिया, दूसरों का दिल नहींदुखाया और खुद को कभी प्रचारित नहीं किया। प्रगतिशीलता उनके व्यक्तित्व की हिस्सा थी। जहां कहीं भी नाटक हुआ वो उससे जुड़ गए। उसकी हर गतिविधि का हिस्सा बने। दरी बिछाने से लेकर अख़बार में खबर बना कर उसे पहुंचाने तक का काम पूर्णतया समर्पित हो कर किया। प्रगतिशील लेखक आंदोलन का सर्वाधिक व्यापक प्रचार और प्रसार भीष्म के राष्ट्रीय महासचिव काल में ही हुआ। भीष्म का व्यक्तित्व इतना विशाल था कि उनके समय में प्रगतिशील लेखक आंदोलन में कम्युनिस्ट पार्टी का हस्तक्षेप न्यूनतम रहा। उनका कथन था कि अच्छा लेखक किसी विचारधारा से प्रभावित होकर नहीं बनता, अपनी मेघा से बनता है। 

युवा लेखक सूर्य बहादुर थापा ने भीष्म को उनके नाटकों के ज़रिये याद किया। भीष्म ने मार्क्सवादी दृष्टिकोण से लिखा लेकिन जो देखा उसे मार्क्सवादी खांचे में नहीं रखा। वो देखते हैं, आत्मसात करते हैं और फिर रचते हैं। समाज की पीड़ा और वेदना को प्राथमिकता दी। 'हानूश' का पात्र जनता को नया जीवन देने के लिए एक घड़ी का अविष्कार करने में सत्रह साल लगाता है। आर्थिक परेशानियों से जूझती उसकी पत्नी उसे कोसती है - यह कैसा आदमी है। जो दो वक़्त की रोटी नहीं कम सकता वो अविष्कार क्या करेगा? लेकिन वो दिल से उसके पीछे है। जब घड़ी का अविष्कार हो गया तो हानुश कहता है कि तुम जैसी स्त्री साथ न होती तो यह अविष्कार मुमकिन नहीं था। इस अविष्कार का ईनाम भी मिला। हानुश की आंखें निकाल दी गयीं ताकि वो दोबारा ऐसी घड़ी न बना सके। 'मुआवज़ा' भीष्म का दस्तावेज़ी नाटक है। यह उस काल में लिखा गया जब बाबरी मस्जिद का विध्वसं हो चुका था। यह दंगे की कहानी है। दंगे की पृष्ठभूमि में सफेदपोश, नेता, अफ़सर, व्यापारी, दलालों की मिली भगत और उसमें मारा जाता बेक़सूर आम आदमी। भीष्म ने इन सब पात्रों के अमानवीय चेहरे बेनकाब किये। भारतीय राजनीति और लोकतंत्र का कच्चा चिट्ठा खोल दिया। 'माधवी' और 'कबीरा खड़ा बाज़ार में' में भीष्म नाटक लिखते हुए नहीं बल्कि अपना काम करते हुए दिखते हैं। लेखक की स्वीकार्यता तभी होती है जब जनता में उसे पढ़ा जाये। भीष्म जिस सहजता के साथ परिदृश्य पर छा जाते हैं वो अद्भुत है। 

सुप्रसिद्ध अभिनेता और निर्देशक जुगल किशोर ने भीष्म साहनी के 'तमस' के अभिनेता भीष्म का ज़िक्र करते हुए कहते हैं भीष्म हरमिंदर सिंह के रूप में कोई पात्र नहीं और न ही अभिनेता हैं, बल्कि वो हरमिंदर को जी रहे नज़र आते हैं। सईद मिर्ज़ा ने 'मोहन जोशी हाज़िर हैं' में भीष्म का चयन इसलिए किया क्योंकि उनके चेहरे में उनको एक 'इतिहास' नज़र आया। भीष्म भीड़ में पात्र तलाशते हैं और फिर उसे गढ़ते हैं। भीष्म वो कलाकार हैं कि काम में इतना डूब जाते हैं कि अविलंब गंदे और बदबूदार पानी में पैंट ऊंची करके घुस जाते हैं और बड़ी सहजता से शॉट देकर चले आते हैं। 

अंत में भीष्म और दूरदर्शन के नाट्य संसार से जुड़े और सभा के अध्यक्ष विलायत जाफ़री ने दिवंगत पंडित नेहरू को उद्धृत करते हुए बताया कि इंसान मर जाता है लेकिन किताबों में वो ज़िंदा रहता है। भीष्म भी हमेशा ज़िंदा रहेंगे। 'तमस' का असर इस मुल्क पर भी है और और उन पर भी रहेगा जिन पर और जिन के लिए लिखी गयी है। 'तमस' के टेलीकास्ट लेकर कई विवाद और टकराव हुए। सुप्रीम कोर्ट तक मामला गया। उस दिन याद है। रात आखिरी एपिसोड टेलीकास्ट होना था। माननीय जज ने उसे देखा और इज़ाज़त दे दी। कोई भी कृति ईमानदारी से बनी हो और अच्छी हो तो ज़रूर लोगों तक पहुंचती है। 
और अंत में मैं। एक वक्ता के रूप में नहीं बल्कि अपने दिवंगत पिता के पुत्र के रूप में जिनके सौजन्य से मैंने भीष्म साहनी को देखा और पढ़ा ही नहीं छुआ भी। और उन्हें समझा भी। और मैं स्वयं को सौभाग्शाली समझाता हूं कि इप्टा ने मुझे आज उनके जन्मशती के प्रोग्राम की रपट लिखने का मौका दिया। 

कार्यक्रम के बीच-बीच में भीष्म साहनी और कृतियों से संबंधित कुछ वीडियो क्लिपिंग भी दिखाई गयी। 
सभा में सुभाष राय, केके चतुर्वेदी, राजबली माथुर, अनिल वत्स, ऋषि श्रीवास्तव, कौशल किशोर, उर्मिल कुमार थपलियाल आदि अनेक गणमान्य लोग भी उपस्थित थे। 

उपन्यास की सफलता उसकी विश्वसनीयता तय करती है

खनऊ : 'कथाकार भीष्म साहनी अक्सर कहा करते थे कि किसी भी उपन्यासिक कृति की सफलता उसकी विश्वसनीयता तय करती है। मसलन पढ़ते समय उसका चित्रण दिमाग में आता है कि नहीं। पढ़ने वाला उसे महसूसता है कि नहीं। उसे वह सब अपने आस-पास का लगता है या नहीं...और यही सब उन्होंने अपने उपन्यासों और कहानियों में जिया।' यह बात आलोचक वीरेन्द्र यादव ने शनिवार को जयशंकर प्रसाद सभागार में भारतीय जन नाटय संघ (इप्टा) की तरफ से जय शंकर प्रसाद सभागार में आयोजित भीष्म साहनी जन्मशती समारोह के उदघाटन कार्यक्रम 'महत्व भीष्म साहनी' में कही।
कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए इप्टा के महासचिव राकेश ने भीष्म साहनी का परिचय दिया और उनसे जुड़े संस्मरण सुनाए। कार्यक्रम के दौरान भीष्म साहनी और उनकी कृतियों पर आधारित छह क्लिपिंग भी दिखाई गई जिनमें भीष्म साहनी ने अपने और बड़े भाई और आलोचक वीरेन्द्र तिवारी ने भीष्म साहनी के उपन्यास 'तमस' को विभाजन पर लिखे गए दूसरे उपन्यासों से जुदा बताया। उन्होंने कहा कि बाकी उपन्यासों में विभाजन की विभीषिका है लेकिन आजादी के 25 वर्षों बाद लिखे गए 'तमस' में विभाजन की त्रासदी को साम्प्रदायिकता के परिप्रेक्ष्य में देखा गया है।
भीष्म साहनी की कहानियों पर जनवादी लेखक संघ के नलिन रंजन सिंह ने प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि भीष्म जी की कहानियों के ज्यादातर पात्र निर्धन और निर्भीक हैं और यही उनके गुण हैं। प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े शकील सिददीकी ने भीष्म साहनी और इप्टा के संबंधों और संगठनकर्ता के रूप में उनकी भूमिका के संस्मरण सुनाए। प्रलेस संस्था के सूरज कुमार थापा ने भीष्म के लिखे नाटकों की चर्चा की। फिल्म अभिनेता बलराज साहनी के छोटे भाई भीष्म साहनी के अभिनय पक्ष की चर्चा में वरिष्ठ रंगकर्मी जुगुल किशोर ने फिल्मों और नाटकों में किए गए उनके अभिनय पक्ष पर बात की। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ रंगकर्मी और दूरदर्शन लखनऊ के पूर्व महानिदेशक विलायत जाफरी ने की।
नवभारत टाइम्स से साभार

Thursday, August 6, 2015

Our Challenge is to save humanity from economic imperialism

On the concluding 12th National Conference and Cultural Festival of Indian Peoples’ Theatre Association (IPTA) at Lucknow (Uttar Pradesh) and hours before he was re-elected as the secretary to the new national committee of the organization. Tanwir Akhtar speaks to Piyusha Chatterjee.


This conference marks two decades of IPTA, since its revival at the 1985 convention in Agra. How do you see the achievements of the organization?Of achevement. I would say there has been quite a few, especially when it comes to theatre in the Hindi belt. The associations’ various branches have done a fair job. Plays like Ramlila by Rakesh of Lucknow and Isoori, by Arun Pandey and one by Javed Akhtar Khan (Door Desh KI Katha), have been selected for performance in national festival Sangeet Natak Academy. There are some good directors like Habib Tanvir and others who are working on the national level and have been acclaimed for their work.

While talking of achievements, would you agree that IPTA has perhaps lost some of its sharpness..its edgy, aggressive nature?No, I don’t think so at all. Instead, I think it has gone through a transformation and attained a maturity of its kind. With changing time and changing needs, the ways of expression have changed. We are doing new experiments in style and the thrust is to voice our views and fulfill our dream through culture.

Then, what is that dream? Has it undergone any change with changing times?Well, there hasn’t been any great shift from what we began with but, yes, we have come to look at newer challenges and are trying to tackle them in our way. The dream we are talking about is that of a better life and a better future. Apart from issues like child labour, exploitation, caste, communal and gender biases, we have a new challenge at hand that of saving humanity from economic imperialism…the ghost of consumerism and globelisation. We are working towards its.

For you, what is raging issue that needs to be addressed?I think this fiddling with ecology for grains of a few is something we must seriously take into account.

What does this word-humanity-signify? Is it the ‘innate goodness’ in people or something more?
By humanity, I mean something, which is in danger from the ethics of a market driven, money oriented economy. Today, a child of 16 years wants to be financially independent. He or she wants to start earning when it is time for them to learn, to play, to look at life from a different angle. What is the hurry, where are we heading…? These are questions that automatically raise their heads. To keep up with this, we are becoming self-centered and selfish. On the one hand, we have issues like Narmada and Tihari, and on the other hand, soft drink companies exploiting our resources for their profit. We are losing our culture; our civilization to this IPTA is trying to create awareness and consciousness among the people about this.

Coming back to the functioning of IPTA and its national committee, why do we need a consorted effort and a cultural organization of a national stature?The IPTA members go and work in the remotest of corners across the country, but there is a need for uniformity and similarity in our efforts to make the movement successful and effective. We must give a form to our protest and a unified approach helps. The national committee meets to decide the thrust and focus of the movement, the challenge that need to be faced and at times, pull up branches on what they are focusing on.

In her inaugural speech on Monday, Shaban Azmi had said that you would discuss a national cultural policy and that she would even take it to the Parliament. What has come of it?I am yet to see the draft of that and matter is to be taken up later today. The committee has not formed any views on that. Personally, I think such a policy is not required by us. IPTA is guided by its own policy and a national committee. The Centre should have an inter\grated cultural policy, but pluralism must be in its main ingredient. Rest, we are there to oppose it, if we find the policy suggested by government is faulty.

But as soon we talk of policy in that sense, don’t we tend to leave out some accommodate some others. Do you think such a policy could be faultless?That is exactly what I was driving at. Last time there was such an effort with the Haksar Committee draft. Opinions were sought and it was widely opposed on many quarters. Finally, it fell flat on its face. It would be very difficult to have a singular policy for a country which has such a diverse culture. Let’s see what the committee decide upon.

IPTA in Freedom Struggle

Govind Vidhyarthi

Date: 14th August, 1947
Time: Midnight 12 O’Clock
Place: Raj Bhawan, Central Headquarters of Communist Party of India, Sandhurst Road, Bombay.
In the Common Room situated on the 2nd floor of the building was a vast gathering of leading poets, writers, political and tread union leaders. A grand Mushaira was in progress. Participating poets including Josh Malihabadi, Majaz Lucknawi, Sahir Ludhianvi, Ali Sardar Jaffri, Majrooh Sultanpuri, Kaifi Azmi, Niaz Hyder and many more. Among the writers were Sajjad Zaheer, Krishan Chander, Rajendra Singh Bedi, Sibte Hasan and others.

Facade of the building was decorated with flags and festoons. On the road below a vast concourse of people had gathered carrying large posters depicting important scenes of our freedom struggle specially prepared by artists Chittaprasad and Jambhekar. In the forefront of the crowd were the member of the Central Squad of the IPTA and the members of the Marathi Squad (Lal Bavta Kalapathak). They were standing on the spot where a little over a year ago during the uprising of the Royal Indian Navy Ratings, the British has mounted machine guns to shoot down the general public who had demonstrated their support to the revolt. This very Sandhurst innumerable processions of patriots on their way to attend political meetings on Chowpati sands.

The crowd on this particular day had swelled to reach the length of road almost up to Prathana Samaj crossing. They were all listening to the eve of Independance Mushaira going on inside the Raj Bhawan on loud speakers.

At 12 O’clock in the night when the siren heralded the dawn of a new era the Mushaira broke off and a tumultuous ovation rent the air which continued for quite some time. In the midst of this ovation Shahir Amar Sheikh’s stentorian voice rose above the tumult when he began his new song written for the occasion:
Hind Sangha Rajyachya Vijayi
Atmya Ghei Pranam
Paradhin Jagatachya Vijayi
Neta Ghei Pranam
Members of Marathi squad was joined by hundreds in full throated singing of this song. Yet another song rent the air this time sung by Prem Dhawan of the Central Squad of the IPTA:
Jhoom Jhoom Ke Naacho Aaj
Gaao Man Ke Geet
which also was written for the occasion. Members of the Central Squad joined by poets and writers and hundreds of others took up the refrain and began dancing on the road. After a while led by the two squads of IPTA-singers and dancers, the whole crowd went round the city in the mighty procession till the early hours of the morning.

For IPTA this event was a land-mark in its glorious history. It was an occasion to rejoice. During the course of the last few years its members had traversed the country with their songs and dances rousing the people for united struggle for freedom, for defending the interests of the people and for achieving communal unity.

It had all began from the eastern region of the united Bengal. Faced with an imminent danger of Japanese invasion a few patriotic youth in Rangpur district led by Benoy Roy banded together to rouse the people against the danger:
Benoy composed his famous song:
Hoi Hoi Hoi Japan Oi!
Aiche Bujhi Amar Tarit
Bero Gayer Guerilla Jawan!

In the Sylhet area of East Bengal Hemango Biswas composed a series of patriotic songs and organised a group of singers. His songs spread in the whole region. One of them I remember was:
                                Kastatare Diyo Jore Shan
                                Kisan Bhaire
                                Kastatare Diyo Jore Shan!
These and many other songs echoed in the villages of Bengal awakening the people to unite and defend the country.

The powerful song movement reached Calcutta. The strains of “Hoi Hoi Hoi” sung by Benoy Roy attracted Batukda (Jytindrindra Moitra, a poet and composer trained in classical music and Rabindra Sangeet) to the group which was singing selected patriotic songs of Rabindranath Tagore and Kazi Nazrul Islam. The group was joined by well known singers like George Biswas (Debabrota Biswas), Hemanta Kumar, Suchitra Mitra, Salil Choudhury and others.

Came Bengal Famine, the greatest man-made human tragedy. Seeing the death and destitution in the streets of Calcutta where thousands has migrated from the famine stricken villages, Batukda composed his well known opera NABA JIBANER GAAN, an inspiring musical composition exhorting people not to give in to despair but to face and fight against the calamity. Led by himself and Suchitra Mitra a group of singers were to perform this opera all over Bengal and outside.

Benoy Roy’s group took up an Urdu poem, an inspiring call to the countrymen to come to the rescue of the famine stricken people of Bengal written by Wamiq Jaunpuri:
Suno Hind ke Rahanewalo
Suno Suno
Tum Hindu Ho, Ya
Muslim Ho
Aurat Mard Amir Faqir
Sabhi Suno Suno
Azadi Ka Jhanda Jisne
Uncha Rakha Hai
Dushman Ke Muqabil Jisne
Maidan Liya Hai
Vo Hindustan Ke Purab Duare
Bengal Ke Insan
Bhook Se Ladkar
Kar Rahe Hain
Zindagi Qurban
Suno Suno Suno Suno!
The group was soon to travel round the country with this song as its special number and collect thousands of rupees for famine relief. I distinctly remember a performance by this group in those days at the Sport Maidan near Charni Road Station in Bombay. Hundreds of people had gathered to witness the cultural programme. A soulful rendering of the song by Reba Roy (now Roychoudhry) in her mellifluous voice had brought the large audience to tears. And then the well known Thespian, Prithviraj Kapur had got up from the audience. Spreading his shawl he went round collecting contributions! Wamiq’s other poem “Bhooka Hai Bengal Re Sathi” was also sung by the group.

Another fighting song of this group was the one on the hanging of the four young kisan leaders of Kerala. Mandathil Appu, Kunhambu Nair, Chirukandan and Abu Bakar, despite the countrywide campaign for their wrote the song:
Phirayiya De De De Moder
Kayyur Bandhudere
Malabarer Krishak Santan
Tara Krishak Sabhar
Chhilo Pran
Amar Hoiya Rohibe Tara
Desher Desher Antare
Expressing the anger for not being able to save their lives the song concluded with a clarion call to build a mass movement which will throw up thousands of fighting heroes like the Kayyur ones.

In Punjab a series of patriotic songs were written by Sheila Bhatia who also organised a group to sing them. Sarala Gupta (now Sharma) organised a mass singer group in Delhi. In U.P. Khem Singh Nagar in Hathras, Rajendra Raghuvanshi in Agra, also organised singing groups. Similar Groups sprung in Andhra, Kerala and other areas centred round the struggle of peasants and workers. In Bombay Suhasini Jambhekar taught a Group of singers patriotic songs composed by her brother Harin Chattopadhyaya. This was the group to which poet Makhdoom taught his new composition:
Yeh, Jang Hai Jange Azaadi
Azadi ke Parcham ke Tale
Ham Hind ke Rahnevalonki
Mahkumonki Mazloomonki
Azadi ke Matavalonki
Dehkanon ki Mazdooronki
Yeh Jang Hai Jang-e-Azadi
This was soon to become the song of the whole nation.

Another group the Marathi squad known as the Lal Bavta Kala Pathak was formed in Bombay under the leadership of Amar Sheikh, a poet, composer and a singer of exceptional tenor. The members of this group included gifted poets and artists like Anna Bhau Sathe, Gawankar and Usha Urdhwarshe. They toured cities and villages in Maharashtra and also various places out side rousing people for fighting for their demands along with their fight for freedom.

In course of time all these Groups jointed the IPTA movement. A landmark in the Cultural movement was the formation in Bombay of what came to be known as the Central Squad of IPTA. With Binoy Ray as its leader, Shanti Bardhan as its dance-director and Pandit Ravi Shankar as its music director, the squad had as its rich repertory of powerful dance and music numbers toured the length and breadth of the country. It may be mentioned here that what is now a National Song. Poet Iqbal’s composition ‘Sare Jahan se Achha Hindustan Hamara’ was set to music by Ravi Shankar for the Central Squad and as such widely popularised by the IPTA long before we attained freedom. Priti Sarkar’s (now Bannerjee) rendering of this song still unequalled.

The significant contribution made by IPTA movement to the cultural renaissance in the country and its impact on the present day cultural scenario has been acknowledged by historians. However adequate stress has not been laid on the role played by it in our country’s struggle for freedom. A casual look at the programmes that the Central Squad presented during freedom struggle will convince everyone hoe sensitive the IPTA movement was to the burning issues which confronted the people at various stages. Apart from mass singing of patriotic songs which again was IPTA’s contribution to the country’s Cultural movement the Central squad had gone round the country with the following Ballets, the very titles of them speak for themselves.
The Spirit of India
India Immortal
Bhookha Bengal
Communal Riots
New Village
Grow more Food
Kashmir State Peoples’ Struggle and
RIN Mutiny, etc.

The last one had highlighted the significant role played by the unsung heroes of Naval uprising who had risen in revolt against the British in 1946. Was it not a fact that when ‘Quit India Movement’ of August 9, 1942 had resolved into negotiations it was the revolt of the Naval Ratings hoisting on their ship the flags of Congress and League along with the Red Flag that, forced the British to finally quit India?


Thus the saga of the glorious role played by IPTA during our freedom struggle will inspire us to re-dedicate ourselves to fight against divisive and destructive forces rearing their heads in our country even after forty years of our independance.