Saturday, July 25, 2015

फोकलवा के फों फों

लेख का शीर्षक दरअसल इस नाटक का ‘थीम-सांग’ है और अपने कस्बे में हर बरस होने वाले राष्ट्रीय नाट्य समारोह में से किसी एक में जब यह खेला गया तो कई दिनों तक लोगों के मुख से यह गाना बरबस फूटता रहा। कोई गीत तभी लोगों की जुबान पर चढ़ता है जब या तो उसकी धुन बहुत मीठी हो या नाटक अथवा सिनेमा का कोई संबद्ध दृश्य दर्शक को छू गया हो। ‘फोकलवा के फों फों’ के साथ दोनों ही बाते हैं। 

अपने कस्बे के दर्शकों के साथ एक बात यह भी अच्छी है कि वे अच्छे नाटक को बार-बार देखना पसंद करते हैं और दो बार इस नाटक का मंचन हो जाने के बावजूद आज भी इसकी मांग उतनी ही बनी हुई है। अभी 10 वें राष्ट्रीय नाट्य समारोह की तैयारियों के दौरान ही किसी ने टोक दिया कि ‘फोकलवा को नहीं बुला रहे हैं क्या?’ मैंने कहा, ‘जरा इंतजार कर लें। फोकलवा की स्मृतियाँ अभी जेहन में बिल्कुल ताजा हैं। जब ये थोडी धुंधलाने लगें, उसे हाजिर कर दिया जायेगा।’ नाट्य समारोह का संयोजक होने के नाते नाटक करने-करावाने के अलावा भी बहुत सारी जिम्मेदारियाँ होती हैं और बहुत कम मौके ऐसे मिलते हैं कि इत्मीनान से बैटकर पूरा नाटक देखा जा सके। ‘राजा फोकलवा’ को भी मैंने टुकडों में ही देखा, पर इन टुकड़ों को मिलाने से जो कोलाज बनता है वह बेहद सुंदर और मनमोहक है। 

व्यक्तिगत तौर पर मेरी राय है कि नाटक में नाटकीयता होनी चाहिये। यह कतई आवश्यक नहीं कि नाटक में हास्य-व्यंग्य ही हो। नाटक गंभीर भी हो तो उसके अंदर दर्शकों को बांधने की या कभी-कभार चौंकाने की क्षमता भी होनी चाहिये। नाटककार की नीयत ऊँचे मंच पर आसीन होकर दर्शकों को उपदेश देने की नहीं होनी चाहिये। खूबसूरती तो इस बात में है कि नाटककार की बात दर्शक के जेहन में संप्रेषित हो जाये और जब वह नाटक देखकर उठे तो उसे यह महसूस न हो कि उसके सिर पर कोई भारी बोझ लाद दिया गया हो। 



फोकलवा एक ऐसा नाटक है जो दर्शकों को आज के उपभोक्तावादी दौर में लालच में नहीं पड़ने का स्पष्ट संदेश देता है और दर्शक उठता भी है प्रफुल्लित होकर। फोकलवा की एंट्री व उसका गेटअप मजेदार है। बचपन में खेले गये बहुत से खेल अब विस्मृत हो चले हैं। फोकलवा मंच पर आते ही उन दिनों की याद दिलाता है जब क्रिकेट जैसे बाजारू खेल ने समाज में अपनी जड़ें नहीं जमायी थीं और उन दिनों के खेल आमतौर पर मौसम, त्यौहार या उपकरणों की तात्कालिक उपलब्धता के अनुरूप होते थे। कभी-कभी इन खेलों में सामाजिक शिक्षण भी समाहित होता थी। ऐसा ही एक खेल ‘डंडा-पतरंगा’ था जो लाठियों या डंडे के सहारे खेला जाता था और नाटक के पहले दृश्य में फोकलवा इसी डंडे के साथ नजर आता है। हरकतें निहायत बेवकूफाना। उजड्ड और गँवार (अपने यहाँ गाँव में रहने वाला व्यक्ति हिकारत का पात्र होता है!)। लेकिन जैसे-जैसे नाटक आगे बढ़ता है दर्शक को मालूम होता है कि मूर्ख-सा दिखने वाला यह फोकलवा असल में क्या चीज है? 

फोकलवा के चरित्र की तुलना समकानीन राजनीति के एक सफल नेता से की जा सकती है जिन्होंने अपनी लोकप्रियता और सफलता के लिये खास किस्म की ओढ़ी हुई मूर्खता का सहारा लिया। आमलोग और खासतौर पर हमारा तथाकथित भद्र और प्रबुद्ध मीडिया एक लंबे अरसे तक इन्हें विदूषक के रूप में प्रचारित करते रहे और नियोजित रणनीति के तहत वे इस रूप में प्रचारित भी होते रहे और राज भी करते रहे। ‘राग-दरबारी’ में भी मूर्खता को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने का वर्णन आता है। फोकलवा की मूर्खता भी चालाकी के महीन व पारदर्शी आवरण में सायास दिखाई जाती है और जब तक इस आवरण पर धूल की परतें जमा हो वह राजपाठ हथिया चुका होता है। पूरे नाटक में मुझे वह दृश्य सबसे ज्यादा प्रभावशाली लगता है जब एक क्षण पहले तक उजबक लगने वाला फोकलवा शपथ ग्रहण करते हुए उसके वाक्यों को किसी मंजे हुए राजनीतिज्ञ की तरह इस तरह दोहराता है गोया उसका जन्म ही राज करने के लिये और राज करने से पहले शपथ लेने के लिये हुआ हो। नाटक की सबसे बड़ी शक्ति लोकनाट्य के तत्वों का तार्किक व विवेकपूर्ण इस्तेमाल है। मैंने बहुत से नाटक ऐसे भी देखे जो लोकतत्वों का प्रचुरता से इस्तेमाल तो करते हैं पर अपने कथानक व विन्यास के संदर्भ में उनके प्रयोग को किसी भी तरह से जस्टीफाई नहीं कर पाते और इसलिये अप्रासंगिक व ठूंसे हुए-से लगते हैं। इसके ठीक विपरीत फोकलवा में यही तत्व निर्देशकीय कुशलता के कारण बड़ी ही सहजता व सरलता से आते चले जाते हैं और नाटक को सुगठित, रोचक व ग्राह्य बनाने में और अंततः उसकी सफलता में बड़ी भूमिका का निर्माण करते हैं। हाशिये पर चला गया ग्रामीण समाज, अपने हालात को बदलने की छटपटाहट, राज व्यवस्था की न्यायप्रियता, मलाईदार तबके द्वारा पसंदीदा वस्तु को हर कीमत पर हासिल करने की होड़, राजसत्ता के गलियारों में नाना प्रकार के षड़यंत्र और न्यायप्रिय राजा की तुलना में अन्यायी राजा के शासनतंत्र में नजर आने वाला कंट्रास्ट, ये सारी चीजें फोकलवा में देखी जा सकती हैं। 

यह बाजारवाद का दौर है। बाजार जरूरत की चीजें नहीं बनाता बल्कि सीधे जरूरत का विर्निर्माण करता है और जरूरत पैदा करने के लिये लालच को सबसे बड़े प्रेरक तत्व के रूप में इस्तेमाल करता है। बाजार का सबसे बड़ा वाहक आज का पूंजीवादी मीडिया है जो लालच की प्रवृत्ति को महिमामंडित करते हुए अनियंत्रित भोग के संदेशों का सहारा लेता है और इस प्रक्रिया में संयम की सीख देने वालों को खलनायक बनाकर प्रस्तुत करता है। यह एक चॉकलेट के स्वाद को महिमामंडित करने के लिये बाप को ही मूर्ख बनाने की सलाह देता है और उसे विदूषक के भेस में दिखाता है। मीडिया में रोज चलने वाले ऐसे अनगिनत विज्ञापन हैं जिनका एकमात्र लक्ष्य भोग-विलास के साथ चरम उपभोक्तावाद जागृत करने हेतु लालच की दबी हुई कमजोरियों को उकसाना है। ‘राजा फोकलवा’ बाजार के इस वैश्विक षड़यंत्र के खिलाफ बहुत ही दृढ़ता व सख्ती के साथ खड़ा दिखाई देता है। यही इस नाटक की सबसे बड़ी सफलता है। 

- दिनेश चौधरी

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