Friday, July 31, 2015

खामोश! कलाओं का ध्वंस जारी है.....

रकार ने जब पुणे के फिल्म संस्थान को बर्बाद करने के लिये अपने महान योद्धा को मोर्चे पर भेज रखा है तो वह रंगमंच को बख्श देने की दरियादिली की जेहमत भला क्यों उठाने लगी? फर्क सिर्फ इतना है कि फिल्म के मोर्चे पर जहाँ ‘धर्मराज युधिष्ठिर’ को तैनात किया गया है, वहीं रंगमंच पर प्रहार करने के लिये कौरवों की सेना तैयार की गयी है जो ठेकेदार के भेस में आकर रवीन्द्र-मंच पर प्रहार करने में लगे हैं। सरकार दरअसल कला-संस्कृति को भगवा वस्त्र नहीं पहनाना चाहती, बल्कि उसे पूरी तरह से नंगा कर देना चाहती है ताकि वह बेआबरू होकर डूब मरे और उसके स्थान पर उनकी विचारधारा का परचम लहराया जा सके। वह कला और संस्कृति से जुड़े संस्थानों को ही बर्बाद नहीं कर रही है वरन् उनके आधारभूत ढाँचों पर भी चोट करने में लगी हुई है, ताकि बांस के अभाव में बंशी-वादन की कोई गुंजाइश न रहे। यह बात दीगर है कि हिंदुस्तान में चल रहे रंगकर्म के बड़े हिस्से को रंगमंच की कोई दरकार ही नहीं है पर सरकार अपनी ओर से इनकी जड़ों में मट्ठा डालने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहती।

ताजा मामला जयपुर के रवीन्द्र भवन का है। प्राप्त जानकारी के अनुसार जयपुर में इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रणबीर सिंह ने  सत्र न्यायालय में स्थानीय रवींद्र में चल रहे पुनर्निमाण कार्य के विरूद्ध याचिका लगायी है और उनसे फोन पर मिली जानकारी के अनुसार कोर्ट ने अगली सुनवाई तक निर्माण कार्य को स्थगित रखने के लिये अंतरिम स्थगन आदेश जारी कर दिया है। न्यायालय के समक्ष दायर याचिका में श्री रणबीर सिंह ने आरोप लगाया है कि रवीन्द्र मंच के पुनर्निमाण का कार्य जिन हाथों को मंच के प्राधिकारियों ने सौंपा है, उनके पास थियेटर डिजाइन की कोई पृष्ठभूमि अथवा अनुभव नहीं है। यहाँ तक कि नये डिजाइन में लाइट और साउंड सिस्टम के लिये कोई व्यवस्था नहीं रखी गयी है। इतना ही नहीं,  ग्रीन रूम का जो प्लान नये नक्शे में तैयार किया गया है उसमें कलाकार के मंच तक सीधे पहुँचने की कोई व्यवस्था नहीं रखी गयी है।

गौरतलब है कि पुनर्निमाण का यह कार्य गुरूदेव रवीन्द्र नाथ टैगौर की 150 वीं जयंती के मौके पर भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय की सहायता परियोजना के तहत चलाया जा रहा है, लेकिन रिनोवेशन के नाम पर नियमों का उलंघन तथा उसके मूल स्वरूप से छेड़छाड़ की जा रही है। नये थियेटर के निर्माण में तकनीकी खामियां हैं। इस पूरे रिनोवेशन कार्य में आर्कीटेक्ट नियमों का उलंघन किया गया है। रवीन्द्र मंच के रिनोवेशन एवं नये प्रेक्षागृह के निर्माण में भारत सरकार द्वारा एक कमेटी गठित की गई थी। इस कमेटी ने जो नक्शा अप्रूब्ड किया था उसे दर किनार कर रिनोवेशन का कार्य किया जा रहा है। टेण्डर प्रणाली भी शक के घेरे में है। वर्षों पुराने इस इस कल्चरल हब के मूल स्वरूप को -जो कि यहाँ की सांस्कृतिक विरासत और धरोहर है - तहस नहस किया जा चुका है।

जयपुर के रंगकर्मियों का आरोप है कि उक्त संबंध में कुछ भी पूछने पर प्रशासन द्वारा कोई भी जानकारी नहीं दी जा रही है, जिसे लेकर शहर के समस्त कलाकारों में रोश व्याप्त है। उनके साथ नगर के साहित्यकार, नाटककार, लेखक, पत्रकार, एवं बुद्धिजीवी भी शामिल हैं। उधर इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक खबर के अनुसार रवीन्द्र मंच के प्रबंधक का कहना है कि निर्माण कार्य पूरी तरह से परियोजना के नियमों के तहत हो रहा है इसलिये एकतरफा कार्रवाई जैसी कोई बात नहीं है।

रवीन्द्र मंच की पृष्ठभूमि :  रवीन्द्र मंच की परिकल्पना देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की थी। पंडित नेहरू और तत्कालीन संस्कृति मंत्री हुमायूँ कबीर ने सभी राज्यों की राजधानी में रवीन्द्र मंच का खाका तैयार किया था। इसका मुख्य उद्देश्य यह था कि प्रत्येक रवीन्द्र मंच के पास अपनी एक व्यावसायिक रंगमंडली हो जो निरंतर और नियमित रूप से नाटकों का प्रदर्शन कर सके।

जयपुर के रवीन्द्र मंच का इतिहास : जयपुर के रवीन्द्र मंच का खाका राजस्थान के लोक निर्माण विभाग के मुख्य अभियंता श्री परमानंद गजारिया ने तैयार किया था। इसका उद्घाटन 1963 में हुआ था। प्रस्ताव यह था कि इससे जुड़ी हुई इसकी अपनी एक रंगमंडली होगी पर प्रशासनकि अड़चनों की वजह से यह संभव नहीं हो सका। पहले यह शिक्षा विभाग के अधीन था, जिसका कलाकारों ने विरोध किया और मुख्यमंत्री सुखाड़िया साहब ने आदेश दिया कि इसे राजस्थान संगीत नाटक अकादमी को सौंप दिया जाये। तब यह एक स्वतंत्र निकाय बन गया था पर 1970 में श्री देवीलाल समर जब इसके अध्यक्ष बने तो उन्होंने इसे अपने पास रखने से इंकार कर दिया। नतीजतन, मंच को राजस्थान ललित कला अकादमी को सौंन दिया गया। आगे चलकर एक सोसयटी का निर्माण किया गया और तब से रवीन्द्र मंच इस सोसायटी के अधीन है। पहले माध्यमिक शिक्षा स्कूलों के अध्यापकों को इसका अध्यक्ष बनाया जाता था। आगे चलकर राजस्थान प्रशासनिक सेवा (RAS) के अधिकारी इसके प्रबंधक बनने लगे और कभी भी ऐसे लोग यहाँ पर नहीं आ सके जो थियेटर को जानते-समझते हों। इस मंच के साथ इरफान खान, ओम शिवपुरी, इला अरूण और भानू भारती जैसे कलाकार-निर्देषक विभिन्न रूपों में जुड़े रहे।

जयपुर के रवीन्द्र मंच की मौजूदा कहानी :  यूपीए सरकार के दौरान एक योजना बनायी गयी थी कि सभी राज्यों में आधुनिक सुविधाओं के साथ सभी रवीन्द्र मंच का पुनर्निर्माण किया जाये ताकि वे सांस्कृतिक केंद्रों या ‘कल्चरल हब’ के रूप में विकसित हो सकें। विशेषज्ञ सलाह के लिये राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के वरिष्ठ रंगकर्मियों को नियुक्त किया गया। सरकार द्वारा गठित समिति ने जयपुर का दौरा किया और उन्हें प्रमोद जैन द्वारा बनाया गया नक्शा दिखाया गया। उनके नक्शे को मंजूरी मिल गयी पर इस बीच योजना समाप्त हो चुकी थी। इसके बाद केंद्र और राज्य, दोनों जगहों पर भाजपा की सरकार आयी और योजना को नये सिरे से प्रारंभ किया गया। इस योजना के तहत रिनोवेषन का 60 फीसदी खर्च केंद्र और 40 फीसदी खर्च राज्य सरकार वहन करेगी। राजस्थान के संस्कृति मंत्रालय ने इस कार्य के लिये विषेशज्ञों और अधिकारियों की कोई स्थानीय समिति गठित नहीं की। राजस्थान आवास विकास इन्फ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड द्वारा एक आर्किटेक्ट को काम पर नियुक्त किया गया। उन्होंने चार ऐसी एजेंन्सियों से आवेदन मंगाये, जिनमें से तीन भारत सरकार के आर्किटैक्ट अधिनियम 1972 के अधीन न तो आर्किटैक्ट कांउसिल के सदस्य हैं और न ही आर्किटैक्ट हैं। यह अधिनियम स्पष्ट रूप से कहता है कि आवेदनकर्ता को आर्किटैक्ट काउंसिल का सदस्य होना चाहिये और यदि कोई फर्म दो साझेदारों द्वारा चलायी जा रही हो तो दोनों साझेदारों को आर्किटैक्ट होना चाहिये। इस तरह नियुक्ति के मामले में प्रारंभ से ही गड़बड़ी देखी जा सकती है। साथ ही नये नक्शे को मंजूरी के लिये राष्ट्र के ीय नाट्य विद्यालय के समक्ष नहीं भेजा गया। यह भी स्पष्ट नहीं है कि रिनोवेशन का कार्य किसके आदेशअथवा दिशानिर्देशों के तहत प्रारंभ किया गया।  सबसे ज्यादा सदमे की बात तो यह है कि श्री अल्काजी द्वारा डिजाइन किये गये ओपन एयर थियेटर और इसके विशाल रंगमंच को मटियामेट कर दिया गया जो एक बड़ी सांस्कृतिक धरोहर थी। निर्माण कार्य अब जिस तरीके से किया जा रहा है उसमें रवीन्द्र मंच पर नाटकों की प्रस्तुति एक टेढ़ी खीर होगी।

जयपुर के कलाकारों-रंगकर्मियों की मांग : 1. निर्माण कार्य पर अविलंब रोक। 2. ऐसा आर्किटैक्ट जिसे थियेटर डिजाइन की कोई समझ न हो उसे तुरंत हटाया जाये। 3. उक्त मनमानी, ध्वंस और सार्वजनिक धन की बर्बादी के लिये जिम्मेदारी तय करने हेतु एक समिति गठित की जाये और जो भी नुकसान हुआ हो उसकी क्षतिपूर्ति की जाये। 4. जो कुछ भी मरम्मत का कार्य करना हो लोक निर्माण विभाग के तहत उनके अभियंताओं द्वारा कराया जाये और प्राचीन थियेटर की सेवाओं को बहाल किया जाये ताकि यहां पर रंगकर्म संभव हो सके और रंगमंच समाज की सेवा में प्रस्तुत रहे। 5. रवीन्द्र मंच एक स्वतंत्र निकाय होना चाहिये। इसके लिये एक समिति गठित हो जिसका अध्यक्ष वरिश्ठ कलाकार हो और इसके सदस्य अन्य कलाकार और नामी आर्किटैक्ट हों। समिति को इस बात का अधिकार हो कि वह सभी कलात्मक गतिविधियों के साथ आवष्यक मरम्मत या सुधार कार्यों की देखरेख कर सके।

Thursday, July 30, 2015

दंगो का सच और भीष्म साहनी

-हनुमंत किशोर
जीवन और साहित्य एक दूसरे के पूरक है दोनों एक दूसरे को रचते है | इसलिए दोनों को एक दूसरे के माध्यम से समझा जा सकता है |जीवन की गति यथार्थ से कल्पना की ओर होती है लेकिन साहित्य कल्पना से यथार्थ की ओर गति करता है | यूं तो दोनों ही जगह यथार्थ और कल्पना इस तरह अंतरगुम्फित है कि उन्हें अलग अलग करना कठिन है | कोई भी रचनाकार कालबद्ध होते हुए ही काल का अतिक्रमण करता है उसका काल उसकी रचनाओं में आवश्यक रूप से उपस्थित होता है | वह अपने समय से मुक्त नहीं होता मार्क्स के शब्दों में चेतना जीवन का निर्धारण नहीं करती अपितु जीवन चेतना का निर्धारण करता है | एक रचनाकार के रूप में भीष्म साहनी ने अपने समय में जो भोगा और जिया है, देखा और समझा है है वही उनकी रचनाओं में रचनात्मक आवाजाही करता है क्योंकि वे ‘वास्तविकता को गल्प में बदलने’ की कला जानते हैं।

‘भीष्म साहनी उन थोड़े-से कथाकारों में हैं जिनके माध्यम से हम अपने समय की नब्ज पर भी हाथ रख सकते हैं और उनके समय की छाती पर कान लगाकर उनके समय के दिल की धड़कनें भी साफ-साफ सुन सकते हैं। उनके पाठ का पुनर्पाठ कर हम अपने समय को डिकोड कर सकते हैं | विभाजन , दंगा और साम्प्रदायिक भयावहता ऐसा ही सच है जिसका दंश भीष्म साहनी के यहाँ शिद्दत से महसूस किया जा सकता है | क्योंकि इसे अपने जीवन में भी उन्होंने भोगा था |

विभाजन की पीड़ा उनकी रचनाओं में - विभिन्न रूपों और विभिन्न आयामों में त्रासदी के रूप में अभिव्यक्त हुई है । विभाजन की दुखद स्मृतियाँ इस तरह से भीष्म साहनी की अन्तश्चेतना का स्थाई हिस्सा बन चुकी थी कि उन्हें उनके पात्रो की अन्तश्चेतना में पहचाना जा सकता है | विभाजन के दुखद संदर्भ उनके मानस-पटल पर निरंतर छाए रहे इसलिए विभाजन के संदर्भ और घटनाओं लौट-लौट कर रचनाओं में आते रहे जिनका मार्क्स वादी दृष्टि के साथ वे विवेचन और विश्लेषण करते हुए वे उन्हें मानवीयता और मार्मिकता के साथ रचनात्मक धरातल पर प्रस्तुत करते हैं। रचनाओं में सिर्फ उनकी स्मृति नही उनकी वैचारिक दृष्टि और संवेदनशीलता का समावेश भी है।

विभाजन के दंश और दंगो के सच को विश्लेषित करने के लिए सबसे पहले उनकी कहानी ‘अमृतसर आ गया है’ का पुनर्पाठ किया जा सकता है | 'अमृतसर आ गया है' भारतविभाजन के दौरान ट्रेन की एक उस दौर में साधारण सी लगने वाली घटना को केंद्र में रखकर लिखी गर्इ असाधारणकहानी है। कहानी भारत पाक विभाजन के दौरान विकसित परिवेश और इसके संदर्भो को रेखांकित करती हुर्इ साम्प्रदायिकता के मनोविज्ञान को खोलती है।दंगो की पृष्ठभूमि में अफवाहे किस तरह से काम करती है इसे इस कहानी में चीन्हा जा सकता है| गाड़ी झेलम स्टेशन से निकलकर वजीराबाद से होकर हरबंसपुरा होती हुर्इ अमृतसर पहुँचती है। यह वह समय है जब विभाजन के दौरान हिन्दू-मुसिलम दंगों ने पूरेदेश को अपनी चपेट में ले रखा था | इसका असर मुसाफिरों के दिलो दिमाग पर इस तरह छाया है कि ट्रेन के भीतर यात्रियों की मानसिकता और व्यवहार , उनकी क्रिया प्रतिक्रियास्टेशन दर स्टेशन बदलती जाती है | यहाँ गाड़ी के भीतर ही धर्म के आधार पर एक विभाजन होता दिखायी देता है | पहले यह विभाजन डिब्बे केभीतर तक सीमित रहता है लेकिनजैसे जैसे गाडी आगेबढती है यह समूची ट्रेन में हो जाता है | एक मजहब के लोग एक ही डिब्बे में इकठ्ठा होने लगते है |स्टेशन दर स्टेशनफैलतीअफवाह उनके भीतर खौफ और मजहबी नफरत को मजबूत करती चलती है |

कहानी अपना संकेत ट्रेन के वजीराबाद रेलवे स्टेशन से निकलते ही दे देती है जहां ट्रेन के भीतर पठानोें के दिल में हिंदू मुसिलम दंगों के दौरानफैला ज़हर छिपा हुआ है जिसके कारण वे एक दुबले पतले बाबू का उपहास करते हैं। उसे दाल पीने वाला कहते हैं और हिन्दू औरत की छाती परलात मारकर भी उन्हें अफ़सोस नहीं तसल्ली होती है । इस दौरान ट्रेन मुस्लिम बहुलक इलाके से गुजर रही होती है |यहाँ साम्प्रदायिकता का एकरंग सामने है ..दूसरा रंग तब सामने आता हाई जब ट्रेन जैसे ही हरबंसपूरा से निकलकर हिन्दू सिख बहुल इलाके यानी अमृतसर की तरफ बढतीहै.. यात्रियोंकी प्रतिक्रिया बदल जाती है ...अमृतसर एक दूसरी साम्प्रदायिकता का प्रतीक बन जाता है | जहाँ अब तक चुपचाप बैठा दुबला पतला बाबू सांप्रदायिक उन्माद से ग्रस्त होकरअर्ध विक्षिप्त होकर पठानोें को गालियाँ देता हुआ डिब्बे के दीगर मुसाफिरों को कोसने लगता है कि उन्होंने पठानों को क्यों जाने दिया |

प्रतिहिंसा से पागल यह दुबला पतला आदमी रात के अँधेरे में ट्रेन में चढ़ने की कोशिश कर रहे निरीह मुसाफिर के सर में लोहे की छड़ इस लिएमार देता है कि वो मुसलमान है | मारने के बाद दुबला पतला युवक अपने हांथो को सूंघता है | यह खून सवार होने की गंध को सूंघना भी है और शायद अपराध बोध के रूप मेंउसका प्रतिवाद भी | यहाँ आकर कहानी अंधी प्रतिहिंसा का आख्यान बन जाती है जिसे मनोवैज्ञानिक धरातल पर भीष्म साहनी खोलते चलते है |

सांप्रदायिकता मनुष्यता के विरोध् से ही शुरू होती है। मनुष्य मनुष्य के प्रति विश्वास और प्रेम के स्थान पर अविश्वास और घृणा आ जाती है । पूर्वाग्रह और अफवाहे इस विरोध् और घृणा के लिए खाद पानी का काम करते है । इनके नाम पर ही मनुष्य समाज को बांटा जाता है | सांप्रदायिक उन्माद बढ़ने पर धर्मिक उत्तेजना बर्बर की स्थितियों को जन्म देती है। जहां हम यथार्थ को समग्रता में न देखकर खंड-खंड में देखना शुरू कर देते है और खंडित सत्य को ही सम्पूर्ण यथार्थ सम्पूर्ण सत्य मान लिया जाता है | यहाँ आकर मुनुष्य की चेतना भी खंडित होकर विवेक से नहीं भ्रम से परिचालित होती है और अंध हिंसा-प्रतिहिंसा जैसी अविवेकी अमानवीय त्रासदी जन्म लेती है | ‘अमृतसर आ गया है’ कहानी को इसी अर्थ में देखा और समझा जाना चाहिए।

मनोवैज्ञानिक धरातल से आगे भीष्म साहनी का उपन्यास ‘तमस’ दंगो के सामाजिक धरातल की तहें खोलता है | जहाँ दंगो के समाज शास्त्र के साथ उसके अर्थशास्त्र को भी समझा जा सकता है | एक अर्थ में तो यह साहित्यिक कृति के साथ इतिहास भी है| ‘तमस’ में भीष्म साहनी ने दंगा के कारणों में सामाजिक-आर्थिक कारण को महत्वपूर्ण बताया है। दंगों का कारण धर्म नहीं है बल्कि सत्ता की भूख है | दंगा शुरू हो जाने के
बाद उत्तेजित और भ्रमित करने लिए सत्ता षड्यंत्र पूर्वक धर्म को दूसरों के सामने दंगे केकारण के रूप में पेश करती है | यानी दंगा भी हाथी की तरह है जिसके खाने के दांत और दिखाने के दांत अलग अलग हैं |

‘तमस’का आधार विभाजन के दौरान की कुछ घटनाये है जो भीष्म साहनी का अपना अनुभव भी है | चूंकि यह दंगो के पीछे छिपे असली आर्थिक सामाजिक और राजनैतिक चेहरों को बेनकाब करता है इसलिए ‘तमस’ के खिलाफ कुछ साम्प्रदायिक ताकते हमेशा विरोध की मुद्रा में रही हैं | और इतिहास की तरह उन्होंने तमस पर भी हमला करने में चूक नहीं की |‘तमस’ विभाजन के परिदृश्य को बगैर किसी पूर्वाग्रह और पक्षपात के देखता है | बानगी बतौर विभाजन के दौरान राष्ट्रीय कांग्रेस काचरित्र और उसकी समझौतापरस्त नीति | ‘तमस’ का जनरैल जो सच्चा देशभक्त है जो हिन्दुस्तान की एकता एवं अखंड़ता को अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करता है, कहता है कि कांग्रेस पार्टी समझौता में विश्वास करती है। इस तरह इसमें साम्प्रदायिकता के लिए कांग्रेस को भी उतना ही जिम्मेदार ठहराया गया है जितना साम्प्रदायिक राजनीति को। इतिहास के आईने में भी कांग्रेस इस दौर मेंसाम्प्रदायिकता से संघर्ष नहीं समझौता करने की स्थिति में थी। अंग्रेजी राज को यहाँ साम्प्रदायिक दंगे के अमली उपकरण की तरहचित्रित किया गया है | जाहिर है अंग्रेजी हुकुमत भी अपने सियासी कारणों से ऐसी ताकतों को हवा देती रही थी | उसके अफसर दंगो के दौरान उन्हें और भडकाने की भूमिका में रहते थे | आज़ाद हिदुस्तान में भी नौकरशाही कमोबेश उसी भूमिका में आ जाती है |

जिस दंगाई अर्थ शास्त्र का हवाला ऊपर दिया गया उसका खुलासा ‘तमस’ में तब होता है जब दंगों के दौरान आदमी को कत्ल करने से ज्यादा मकानों को लूटा जाता है। यह सब वैसे लोग करते हैं जिनका एकमात्र उद्येश्य लोगों को लूटना होता है। स्पष्ट है,साम्प्रदायिकता उनके लिए धर्म का नहीं धंधे का सवाल है | यहाँ दंगो के वर्ग चरित्र की भी शिनाख्त की जा सकती है | नत्थू एक सफाई कर्मचारी हैं. जिसे एक क्षेत्रीय मुस्लिम राजनीतिक नेता द्वारा रिश्वत और धोखा देकर एक सुअर को मरवा दिया जाता है.अगली सुबह, मृत सुअर को स्थानीय मस्जिद की सीढ़ियों पर पाया जाता है और तनाव फैल जाता है | नाराज मुसलमान हिन्दू और सीखो को मार डालते है और हर इसके जवाबी कार्यवाही मैं मुस्लिम मारे जाते है. और इसके बाद जो दंगे भड़कते हैं उसकी कहानी पांचदिनों तक चलती है |देखने लायक बात यहाँ यह है कि में मस्जिद के सामने सूअर मरवाकर रखनेवाला कोई हिन्दू नहीं बल्कि वह मुसलमान मुराद अली है।

भीष्म साहनी इसका खाका कुछ यूँ खीचते हैं -'सुनते हैं सुअर मारना बड़ा कठिन काम है। हमारे बस का नहीं होगा हुजूर। खाल-बाल उतारने का काम तो कर दें। मारने का काम तो पिगरी वाले ही करते हैं।' पिगरी वालों से करवाना हो तो तुमसे क्यों कहते?'यह काम तुम्ही करोगे।'' और मुराद अली ने पाँच रुपए का चरमराता नोट
निकाल कर जेब में से निकाल कर नत्थू के जुड़े हाथों के पीछे उसकी जेब में ढूँस दिया था।'

नत्थू के हाथ अभी भी बँधे लेकिन चरमराता पाँच का नोट जेब में पड़ जाने से मुँह में से बात निकल नहीं पाती थी।काला सूअर मस्जिद के सामने मरा पाया जाता है.हवा में ज़हर फ़ैल चूका था.सूअर, गाय और इंसान काटने में कोई फर्क नहीं बचा था ऐसे में हुकूमत बस तमाशा देख रही थी.”

दंगो के बाद सद्भाव कमेटी बनती है भीष्म साहनी इसका भी सच उजागर करते है | सद्भाव कमेटी के वाहन में जो कौमी एकता के जिंदाबाद के नारे लाउड स्पीकर पर लगा होता है वह ‘मुराद अली’ ही होता है | यानी सत्ता की यही ताकते अपने नफे नुकसान से परिचालित दंगों और उसके बाद के सद्भाव को अंजाम देने वाली है | राजनैतिक-आर्थिक हित ही सद्भाव की जरूरत तय करते है |

‘तमस’ दंगों में दौरान आम आदमी की भूमिका की पड़ताल भी दिखती है | यहाँ आम आदमी जो स्थानीय तत्व है चाहे वे हिन्दू हों यामुसलमान अमन पसंद ही हैं एक दूसरे के साथ प्रेम और सौहार्द से जीना चाहते है क्योंकि इसी में उनके हित सुरक्षित हैं लेकिन स्थानीयआबादी से बाहर के तत्व दंगो में अपना हित देखते है और वे ही दंगो में सक्रिय भूमिका निभाते हैं | ‘तमस’ में हरनाम सिंह मजे में अपनी दूकान चला रहा होता है | बस्ती वालो को उससे कोई शिकायत नहीं होती उलटे सहानुभूति होती है | बस्ती वाले उससे यही कहते है कि तुम्हें खतरा तभी हो सकता है जब बाहरी लोग यहां आ जाएंगे।

इस तरह ‘तमस’| को डिकोड करके हम गुजरात , महाराष्ट्र , उत्तर प्रदेश और आसाम के हालिया दंगो भी डिकोड कर सकते है |अपनी परवर्ती रचना ‘मुआवज़े’ में जो एक नाटक है भीष्म साहनी दंगो के एक तीसरे धरातल को उजागर करते है |यह तीसरा धरातल आजादी के बाद मूल्यहीन विद्रूपताओ से सराबोर है |यहाँ तक आते आते पतन मासूम कही जाने वाली जनता को भी अपनी चपेट में ले चुका है और वो भी सत्ता,सियायत ,मजहब और अपराध के नापाक गठजोड़ में शामिल दिखती है | निरंतर छीजती सम्वेदानाओ का चरम यह है कि दंगो के पाप की गंगा में जनता भी डुबकियां लगाकर मुआवज़े का पुण्य बटोरती दिखती है |यह जनता वो जनता नहीं है जिसके लिए भीष्म साहनी पूर्ववर्ती रचनाओं में सम्वेदाना और सहानुभूति दिखाते है | इस नाटक की जनता चतुर चालाक और उच्चतर मूल्यों से दूर तात्कालिक स्वार्थ सिद्धि में संलिप्त एक भीड़ है | गरीब तबके का जीवन मूलभूत सुविधाओं से इतना वंचित है कि वे भी दंगे के ‘भयावह परिणाम’ के बारे में न सोचकर मुआवज़े में ‘सुखमय भविष्य की सम्भावना’ ढूँढ़ने लगते हैं । एक पिता अपनी बेटी का विवाह दयनीय–गरीब दीनू से सिर्फ़ इसलिए करने पर आमादा है ताकि दंगे में दीनू की हत्या के बाद मिलने वाले मुआवज़े से उसकी शादी फिर से किसी सुयोग्य वर से कर सके । | यहाँ तक आकर प्रतिरोध .मानवीय गरिमा , मूल्य प्रतिबद्धता परिवर्तन की उम्मीद सिरे से नदारद हो चुकी है | यह इक्कीसवीं सदी के समाज की तस्वीर है जो लोगों को ‘उत्तरआधुनिक सभ्य सुसंस्कृत कसाई’ बनाने पर आमादा है । यह एक हताशा की स्थिति है |

‘मुआवज़े’ में देश के वर्तमान में मसल्स पावर और मोरल पावर का नया विमर्श है जो नये कथ्य और शिल्प के साथ रचा गया है | जिसेजनता का जनता की भाषा में जनता के बीच से उठाया गया कच्चा माल कह सकते है | ‘मुआवज़े’का कथ्य दंगो के बाद बांटी जाने वाली रेवड़ी जिसे मुआवजा कहते हैं के चौगिर्द घूमता है | यहाँ दंगा पूर्व नियोजित प्रायोजितहै |उसकी भविष्य वाणी पहले ही कर दी जाती है और बाद की राहत और मुआवजे के इंतजाम भी पहले कर लिए जाते हैं | यह दंगा प्राकृतिक नहीं मानवीय आपदा है लेकिन इससे निपटने के तरीके सम्वेदना और मनोवृति प्राकृतिक आपदा की तरह हैं | प्राकृतिक आपदा की तरह है दंगा भी छवि चमकाने और राहत की

लूट खसोट में हिस्सेदारी करने का सु अवसर मात्र है | दंगे की लहलहाती फसल काटने पर सभी आमादा हैं क्या नेता क्या अपराधी और क्या जनता |। ‘आग लगाने का काम कुत्ता काम है’ और ‘कत्ल का काम शाही काम है’-ऐसा कहने वाला अपराधी जग्गा नये अवतार में राजनेताजगन्नाथ चौधरीबन जाता है | जिसके ऊपर देश के खजाने की चौकीदारी का जिम्मा है वही खजाने को लूटता है और लूट का एक हिस्सा जनता में बांटकर महीहा बन जाता है | अब अनैतिकता सिर्फ जगन्नाथ चौधरी तक सीमित नहीं है वह जनता तक जा पहुंची है जो किसीभी तरह से पाप कीबहती गंगा में आचमन करना चाहती है |

‘सबसे बड़ी ताक़त बेईमानी में है’-‘‘मुट्ठी गर्म करोगे, काम आगे बढ़ेगा । सदाचार के उपदेश झाड़ोगे, फाइलें वहीं–की–वहीं पड़ी रहेंगी, उन पर धूल जमती रहेगी ।’’सुथरा की यह व्यंग्योक्ति ही वर्तमान का सत्य है | दंगो का एक सत्य यह भी है कि मारे जाने वाले सभी गरीब,वंचित और मजदूर तबके से ही होते है | इसका कारण जग्गा के इस कथन में है‘‘हम तो हर कौम के आदमी को मारते हैं, हमारे लिए सब बराबर हैं, जो सामने आ जाये । चुन–चुनकर मारना ज़्यादा मुश्किल होता है ।...तुम्हें कौन–से अमीरजादे और लखपति मरवाने हैं, यही मोची–नाई–मजदूर मरवाओगे ।’’

‘मुआवज़े’ के पहले दृश्य में कमिश्नर को टेलीफोन पर निर्देश देते दिखाया गया है । वह कह रहा है कि -‘अगर हालात इसी तरह बिगड़ते गये तोसोमवार तक दंगा हो जाना चाहिए’।––––‘अबकी बार दंगा ज़बर्दस्त होगा’ ।––––‘उम्मीद है, सोमवार तक दंगा हो जाएगा’ । उसकी बातों से जाहिरहै दंगा कराने की कोई योजना पहले से बना ली गयी है जिसमें मन्त्री, अफसर और गुण्डे शामिल हैं । ‘मुआवज़े’ का यही केन्द्रीय तत्व है सेठ को अपनी फैक्टरी से जुड़ी सरकारी जमीन पर कब्जा करना है तो अफसरों तथा गुण्डों से मिलकर हो सकता है । उसे भी पक्का यकीन है कि ‘दंगा होकर रहेगा’ । गुमाश तो सारा शहर खाली करवा देने का दम भरता है ।
भ्रष्ट और संवेदनहीन शक्तियाँ यहाँ प्रतिनिधि चरित्रों में उपस्थित हैं | यही हमारा आज का और दंगो का यथार्थ है|





Wednesday, July 29, 2015

मंच के बिना रंगमंच : बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर


-पुंज प्रकाश
ला, संस्कृति और रंगमंच के विकास और बढ़ावा के नाम पर हर ना जाने कितने रूपए स्वाहा होते हैं; किन्तु विकास के सारे दावे ध्वस्त हो जातें हैं जब यह पता चलता है कि देश के अधिकांश शहरों में सुचारू रूप से नाटकों के मंचन के योग्य सभागार तक नहीं हैं. महानगरों में जो हैं भी वे या तो बहुत महंगे हैं या फिर जैसी-तैसी अवस्था में हैं। इसलिए इन पैसों से चंद गिने-चुने जुगाडू रंगकर्मियों और संगीत नाटक अकादमियों में बैठे बाबुओं के व्यक्तिगत विकास के अलावा शायद ही कुछ खास हो पता है। ऐसा कहा जाता है कि कला और संस्कृति किसी भी समाज का आईना होता है। यदि यह सच है तो वर्तमान में समाज और कला संस्कृति की स्थिति क्या है आप स्वयं ही अनुमान लगा सकतें हैं। हमारे भारतीय समाज की ज़रूरतों में रंगमंच का स्थान न्यूनतम से न्यूनतम है। एकाध अपवादों को छोड़ दें तो पुरे देश का रंगमंच मूलभूत सुविधाओं तक से अब तक महरूम है।

मानकता के पैमाने पर भारत में बहुत ही कम ऐसे सभागार हैं जो रंगमंच की दृष्टि से एकदम सही माने जा सकतें हैं। जो भी हैं उनमें से ज़्यादातर सभागार जुगाड़ भिड़ाकर नाटक के लायक किसी तरह बना भर लिए गए हैं। यहाँ जितने भी सभागार बनाये गए हैं वे मूलतः बहुआयामी उपयोग के लिए हैं। भारत के चंद गिने चुने शहरों में जहाँ रंगमंच में एक निरंतरता है वहाँ की स्थिति आंशिक रूप से कुछ बेहतर कही जा सकती है, पर वहाँ भी केवल एक या दो सभागार ही काम लायक हालत में कहे जा हैं। कई सभागार तो रख-रखाव के आभाव में धूल के भंडार में तबदील हो गए हैं। प्रकाश के उपकरण इतने बेदर्दी से टंगे होतें हैं कि कब अभिनेताओं के ऊपर गिर पड़ें पता नहीं। जहाँ तक सवाल पूर्वाभ्यास के स्थलों का है तो कभी कोई पार्क, कोई मैदान, कोई सरकारी, गैर-सरकारी स्कूल का खाली कमरा, खँडहर पड़ा कोई मकान या किसी आस्थावान रंगकर्मी का घर ही अमूमन पूर्वाभ्यास स्थल बनते हैं। आइये कुछ शहरों का जायजा लिया जाय, हिन्दुस्तानी रंगमंच का नंगा यथार्थ भी इसी के आसपास है।

मध्यप्रदेश का शहर जबलपुर। तीन सक्रिय रंग-मंडलियां हैं। साल में तीन राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव का आयोजन होता है। समागम रंगमंडल द्वारा रंग-समागम, विवेचना द्वारा रंग-परसाई व विवेचना द्वारा आयोजित राष्ट्रीय नाट्य समारोह। इन नाट्योंत्सवों में देश के अलग-अलग शहरों के नाट्यदल अपने नाटकों का प्रदर्शन करतें हैं। यहाँ कुल तीन सभागार हैं। पहला, शाहिद स्मारक ट्रस्ट का सभागार है, उसका किराया लगभग पन्द्रह हज़ार रूपया प्रतिदिन है। दूसरा, तरंग जो मध्यप्रदेश पावर मैनेजमेंट कंपनी का सभागार है, इसका किराया तीस हज़ार रुपये प्रतिदिन और तीसरा नगर निगम का सभागार मानस भवन है, जिसका किराया पच्चीस हज़ार रूपया प्रतिदिन है। किसी भी सभागार में प्रकाश और ध्वनि यंत्रों की कोई समुचित व्यवस्था नहीं है। जहाँ तक सवाल पूर्वाभ्यास के स्थानों का है तो उसका कोई निश्चित स्थान नहीं है। कभी किसी स्कूल का मैदान, कभी कोई हॉल यहाँ पूर्वाभ्यास स्थल बनता है।

डोंगरगढ़, मध्य प्रदेश का एक छोटा सा कस्बा है। कोई सभागार नहीं है । मंच अस्थायी बनता है व पंडाल लगाना होता है । साउंड सिस्टम नजदीकी जिले से आता है तथा लाइट भिलाई से मंगाना पड़ता है। वास्तविक खर्च पचास हजार से ज्यादा बैठता है जो जनसहयोग से जैसे-तैसे जुटाया जाता है। पूर्वाभ्यास के लिए कोई जगह नहीं है।

रायगढ़, छतीसगढ़। चार-पांच लाख की आबादी वाले इस शहर में कोई रंगशाला नहीं है। पॉलिटेक्निक कॉलेज का ऑडिटोरियम है जिसे पक्के तौर पर एक सामान्य हॉल कहा जा सकता है। ऑडिटोरियम के निर्माण में किसी भी तरह की तकनीकी जरुरत का ध्यान नहीं रखा गया। वहाँ किसी भी कार्यक्रम का आयोजन आयोजक की मजबूरी है। आज उसे बने लगभग 30-32 वर्ष हुए। कभी कोई बड़ा मेंटेनेंस नहीं किया गया। सीट, ग्रीन रूम की हालत खराब है। लाइट, साउंड किसी तरह लगाया जाता है। सभागार में वेंटीलेशोंन भी नहीं है सो गर्मी के दिनों में अभिनेता-दर्शक सब पसीने में सराबोर होतें हैं। किराया है तीन हज़ार है लेकिन नाटक लायक बनाने में 12-15,000 पड़ता है। इन जुगाड़ को करने में जो मानसिक त्रास से आयोजकों को गुजरना पड़ता है उसकी कोई कीमत नहीं। इप्टा साल में दो एक आयोजन करती है , राष्ट्रीय नाट्योत्सव खुले मैदान में एक चालू हाल बना कर किया जाता है जिसमें 600-700 लोगों के बैठक व्यवस्था होती है। 5 दिनों का खर्च आता है 1,20,000 रु., याने एक दिन का खर्च 24,000 रु.। यह पूरा खर्च जन-सहयोग से जुटाया जाता है। यह आयोजन पिछले 17 साल से लगातार किया जा रहा है। जिस शहर में ऑडिटोरियम नहीं है तो पूर्वाभ्यास के लिए जगह की उम्मीद नही की जा सकती। वो तो भला हो नगर-निगम वालों का जिन्होंने अपना सभाकक्ष रिहर्सल के मुफ्त में उपलब्ध कराया है। जिस दिन इस सभागार में कोई कार्यक्रम होता है उस दिन रिहर्सल बंद। हाँ, अभी 6-7 माह पहले एक सरकारी सभागार के निर्माण का कार्य आरम्भ हुआ है।

रायपुर, छत्तीसगढ़ की राजधानी। पूरी दुनियां में भारतीय रंगमंच का परचम लहरानेवाले हबीब तनवीर की कर्मभूमि। सभागार के नाम पर महाराष्ट्र मंडल का प्रेक्षागृह, कालीबाड़ी का रवीन्द्र मंच, शहीद स्मारक का प्रेक्षागृह, मेडिकल कालेज का प्रेक्षागृह और रंगमंदिर है, किन्तु इनमें से एक भी तकनीकी दृष्टि से नाट्य मंचन के लिए उपयुक्त नहीं । उसका किराया और प्रबंधकों का व्यावसायिक नजरिया रंगकर्मियों को निराश करता है।

राँची, झारखण्ड। खनिज पदार्थों से भरे इस राज्य की राजधानी में कोई लगातार सक्रिय रंगमंच की गतिविधि नहीं है ना ही रंगमंच के लिए कोई सभागार ही है। साल में दो-चार नाटक जैसे-तैसे, जिस तीस सभागार में किसी तरह हो जातें हैं। नाटकों के पूर्वाभ्यास अमूमन किसी के घर या किसी उपलब्ध जगह पर संपन्न किया जाता है। ऐसा सुनाने में आता है कि किसी ज़माने में राँची रगमंच काफी सक्रिय था। राँची का रंगमंच हर तरह से जर्जर हालत में है। किन्तु आज भी कुछ जुनूनी लोग जैसे-तैसे साल में एकाध नाटक कर लेतें हैं।

कोटा, राजस्थान में एक रिवोल्विंग स्टेज है जो पिछले कई सालों से बंद पड़ा है। कहा तो ये भी जाता है कि यह हिंदुस्तान का पहला रिवोल्विंग स्टेज था, किन्तु इस बात में कितनी सच्चाई है इसकी परख होनी अभी बाकि है। कोटा के पास ही जबलपुर सिटी है। यहाँ भवानी नाट्यशाला हैं। जिसकी स्थापना 1920 में हुई थी। आज ये भी बंद है। किसी ज़माने में यहाँ बड़े-बड़े नाटक और ऑपेरा का मंचन हुआ था। कोटा में कुल पांच सभागार हैं। सब के सब प्राइवेट। जिनका किराया 15,000 -30,000 रूपया प्रतिदिन है। वर्तमान में, केवल एक नाट्य दल एक्टिव है – पेरफिन। दर्शकों की कोई कमी नहीं है। रिहर्सल के लिए स्कूलों से मदद ली जाती है।

झाँसी और ग्वालियर, मध्यप्रदेश। झाँसी में केवल एक सभागार है जो रंगमंच क्या किसी भी कार्यक्रम के लिए उपयुक्त नहीं है। ग्वालियर में दो सभागार हैं – मेडिकल सभागार एवं एमएलबी सभागार। इनका एक दिन का किराया तीस से चालीस हज़ार रूपया है। उसपर भी लाईट और साउंड की कोई व्यवस्था नहीं है। जहाँ तक सवाल नाटकों के पूर्वाभ्यास का है तो वो किसी पार्क या किसी के घर पर की जाती है। सक्रिय नाट्य दल भी ज़्यादा नहीं हैं। 

हिसार, कुरुक्षेत्र, सोनीपत हरियाणा। यहाँ जितने भी सभागार हैं वो सब स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय के हैं। दो-तीन के लाईट और साउंड ठीक हैं पर वो नाटकों के लिए बहुत कम ही उपलब्ध हो पातीं हैं। सभागार का किराया दस हज़ार है पर बहुत शिफारिश के बाद ही उपलब्ध हो पाती है। नाटकों के पूर्वाभ्यास किसी छत पर, स्कूल में या कुरुक्षेत्र में मल्टी आर्ट में होतें हैं। हरियाणा में कुल सात-आठ नाट्यदल हैं किन्तु स्थिति अनुकूल नहीं है। यहाँ किसी भी शिक्षण संस्थान में रंगमंच नहीं पढ़ाया जाता।

पटना और बेगुसराय, बिहार। बिहार आजकल सुशासन की आंधी में उड़ रहा है। बेगुसराय का रंगमंच का मुख्य केंद्र दिनकर भवन है। ये भी एक कामचलाऊ सभागार है जहाँ नाटकों के प्रदर्शन और पूर्वाभ्यास होता है। प्रकाश और ध्वनि की कोई व्यवस्था नहीं है। वैसे, रिफायनरी टाउनशिप में जुबली हॉल और ऑफिसर्स क्लब में एक सभागार है जहाँ कभी-कभी नाटक होतें हैं। दिनकर भवन का एक दिन का किराया एक हज़ार रुपया है जिसे अब प्रसाशन 5000 रूपया करने जा रहा था पर स्थानीय रंगकर्मियों के विरोध की वजह से ये फैसला वापस ले लिया गया। पटना में वैसे तो नवनिर्मित प्रेमचंद रंगशाला, भारतीय नृत्य कला मंदिर, रविन्द्र भवन आदि सभागार हैं किन्तु रंगमंच का केन्द्र अभी भी कालिदास रंगालय ही है। यहाँ प्रकाश और ध्वनि की सुविधा तो है किन्तु तकनीक बहुत पुरानी है। अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद बिहार आर्ट थियेटर का कालिदास रंगालय पटना रंगमंच को हर संभव सहायता प्रदान करता है। वहीं तमाम आधुनिक सुविधाओं और कलाकारों के एक लंबे संघर्ष के बाद मुक्त हुआ राजकीय प्रेमचंद रंगशाला इतना ज़्यादा मंहगा और रंगमंच के प्रति उदासीन है कि बहुत कम ही रंगकर्मी वहां अपने नाटकों के प्रदर्शन के बारे में सोचतें हैं।

ये विकास का नारा बुलंद किये हिंदुस्तान के कुछ शहरों की तस्वीर है। गाँव की स्थिति का अंदाज़ा अपने आप ही लगाया जा सकता है। हिंदुस्तान का रंगमंच आज कहाँ खड़ा है।

यह है कुछ शहरों में सभागारों की स्थिति। आप अपने शहर का हाल बताइए।

यहां भी देखें : http://daayari.blogspot.in/2015/07/blog-post_29.html?m=1
आलेख में सहयोग के लिए समागम रंगमंडल (जबलपुर), दिनेश चौधरी (डोंगरगढ़), अपर्णा श्रीवास्तव (रायगढ़), मोना सिन्हा (राँची), राजेन्द्र पंचाल (कोटा), हिमांशु द्विवेदी (झाँसी), रवि मोहन (हिसार), दीपक सिन्हा (बेगुसराय) को आभार.

Saturday, July 25, 2015

फोकलवा के फों फों

लेख का शीर्षक दरअसल इस नाटक का ‘थीम-सांग’ है और अपने कस्बे में हर बरस होने वाले राष्ट्रीय नाट्य समारोह में से किसी एक में जब यह खेला गया तो कई दिनों तक लोगों के मुख से यह गाना बरबस फूटता रहा। कोई गीत तभी लोगों की जुबान पर चढ़ता है जब या तो उसकी धुन बहुत मीठी हो या नाटक अथवा सिनेमा का कोई संबद्ध दृश्य दर्शक को छू गया हो। ‘फोकलवा के फों फों’ के साथ दोनों ही बाते हैं। 

अपने कस्बे के दर्शकों के साथ एक बात यह भी अच्छी है कि वे अच्छे नाटक को बार-बार देखना पसंद करते हैं और दो बार इस नाटक का मंचन हो जाने के बावजूद आज भी इसकी मांग उतनी ही बनी हुई है। अभी 10 वें राष्ट्रीय नाट्य समारोह की तैयारियों के दौरान ही किसी ने टोक दिया कि ‘फोकलवा को नहीं बुला रहे हैं क्या?’ मैंने कहा, ‘जरा इंतजार कर लें। फोकलवा की स्मृतियाँ अभी जेहन में बिल्कुल ताजा हैं। जब ये थोडी धुंधलाने लगें, उसे हाजिर कर दिया जायेगा।’ नाट्य समारोह का संयोजक होने के नाते नाटक करने-करावाने के अलावा भी बहुत सारी जिम्मेदारियाँ होती हैं और बहुत कम मौके ऐसे मिलते हैं कि इत्मीनान से बैटकर पूरा नाटक देखा जा सके। ‘राजा फोकलवा’ को भी मैंने टुकडों में ही देखा, पर इन टुकड़ों को मिलाने से जो कोलाज बनता है वह बेहद सुंदर और मनमोहक है। 

व्यक्तिगत तौर पर मेरी राय है कि नाटक में नाटकीयता होनी चाहिये। यह कतई आवश्यक नहीं कि नाटक में हास्य-व्यंग्य ही हो। नाटक गंभीर भी हो तो उसके अंदर दर्शकों को बांधने की या कभी-कभार चौंकाने की क्षमता भी होनी चाहिये। नाटककार की नीयत ऊँचे मंच पर आसीन होकर दर्शकों को उपदेश देने की नहीं होनी चाहिये। खूबसूरती तो इस बात में है कि नाटककार की बात दर्शक के जेहन में संप्रेषित हो जाये और जब वह नाटक देखकर उठे तो उसे यह महसूस न हो कि उसके सिर पर कोई भारी बोझ लाद दिया गया हो। 



फोकलवा एक ऐसा नाटक है जो दर्शकों को आज के उपभोक्तावादी दौर में लालच में नहीं पड़ने का स्पष्ट संदेश देता है और दर्शक उठता भी है प्रफुल्लित होकर। फोकलवा की एंट्री व उसका गेटअप मजेदार है। बचपन में खेले गये बहुत से खेल अब विस्मृत हो चले हैं। फोकलवा मंच पर आते ही उन दिनों की याद दिलाता है जब क्रिकेट जैसे बाजारू खेल ने समाज में अपनी जड़ें नहीं जमायी थीं और उन दिनों के खेल आमतौर पर मौसम, त्यौहार या उपकरणों की तात्कालिक उपलब्धता के अनुरूप होते थे। कभी-कभी इन खेलों में सामाजिक शिक्षण भी समाहित होता थी। ऐसा ही एक खेल ‘डंडा-पतरंगा’ था जो लाठियों या डंडे के सहारे खेला जाता था और नाटक के पहले दृश्य में फोकलवा इसी डंडे के साथ नजर आता है। हरकतें निहायत बेवकूफाना। उजड्ड और गँवार (अपने यहाँ गाँव में रहने वाला व्यक्ति हिकारत का पात्र होता है!)। लेकिन जैसे-जैसे नाटक आगे बढ़ता है दर्शक को मालूम होता है कि मूर्ख-सा दिखने वाला यह फोकलवा असल में क्या चीज है? 

फोकलवा के चरित्र की तुलना समकानीन राजनीति के एक सफल नेता से की जा सकती है जिन्होंने अपनी लोकप्रियता और सफलता के लिये खास किस्म की ओढ़ी हुई मूर्खता का सहारा लिया। आमलोग और खासतौर पर हमारा तथाकथित भद्र और प्रबुद्ध मीडिया एक लंबे अरसे तक इन्हें विदूषक के रूप में प्रचारित करते रहे और नियोजित रणनीति के तहत वे इस रूप में प्रचारित भी होते रहे और राज भी करते रहे। ‘राग-दरबारी’ में भी मूर्खता को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने का वर्णन आता है। फोकलवा की मूर्खता भी चालाकी के महीन व पारदर्शी आवरण में सायास दिखाई जाती है और जब तक इस आवरण पर धूल की परतें जमा हो वह राजपाठ हथिया चुका होता है। पूरे नाटक में मुझे वह दृश्य सबसे ज्यादा प्रभावशाली लगता है जब एक क्षण पहले तक उजबक लगने वाला फोकलवा शपथ ग्रहण करते हुए उसके वाक्यों को किसी मंजे हुए राजनीतिज्ञ की तरह इस तरह दोहराता है गोया उसका जन्म ही राज करने के लिये और राज करने से पहले शपथ लेने के लिये हुआ हो। नाटक की सबसे बड़ी शक्ति लोकनाट्य के तत्वों का तार्किक व विवेकपूर्ण इस्तेमाल है। मैंने बहुत से नाटक ऐसे भी देखे जो लोकतत्वों का प्रचुरता से इस्तेमाल तो करते हैं पर अपने कथानक व विन्यास के संदर्भ में उनके प्रयोग को किसी भी तरह से जस्टीफाई नहीं कर पाते और इसलिये अप्रासंगिक व ठूंसे हुए-से लगते हैं। इसके ठीक विपरीत फोकलवा में यही तत्व निर्देशकीय कुशलता के कारण बड़ी ही सहजता व सरलता से आते चले जाते हैं और नाटक को सुगठित, रोचक व ग्राह्य बनाने में और अंततः उसकी सफलता में बड़ी भूमिका का निर्माण करते हैं। हाशिये पर चला गया ग्रामीण समाज, अपने हालात को बदलने की छटपटाहट, राज व्यवस्था की न्यायप्रियता, मलाईदार तबके द्वारा पसंदीदा वस्तु को हर कीमत पर हासिल करने की होड़, राजसत्ता के गलियारों में नाना प्रकार के षड़यंत्र और न्यायप्रिय राजा की तुलना में अन्यायी राजा के शासनतंत्र में नजर आने वाला कंट्रास्ट, ये सारी चीजें फोकलवा में देखी जा सकती हैं। 

यह बाजारवाद का दौर है। बाजार जरूरत की चीजें नहीं बनाता बल्कि सीधे जरूरत का विर्निर्माण करता है और जरूरत पैदा करने के लिये लालच को सबसे बड़े प्रेरक तत्व के रूप में इस्तेमाल करता है। बाजार का सबसे बड़ा वाहक आज का पूंजीवादी मीडिया है जो लालच की प्रवृत्ति को महिमामंडित करते हुए अनियंत्रित भोग के संदेशों का सहारा लेता है और इस प्रक्रिया में संयम की सीख देने वालों को खलनायक बनाकर प्रस्तुत करता है। यह एक चॉकलेट के स्वाद को महिमामंडित करने के लिये बाप को ही मूर्ख बनाने की सलाह देता है और उसे विदूषक के भेस में दिखाता है। मीडिया में रोज चलने वाले ऐसे अनगिनत विज्ञापन हैं जिनका एकमात्र लक्ष्य भोग-विलास के साथ चरम उपभोक्तावाद जागृत करने हेतु लालच की दबी हुई कमजोरियों को उकसाना है। ‘राजा फोकलवा’ बाजार के इस वैश्विक षड़यंत्र के खिलाफ बहुत ही दृढ़ता व सख्ती के साथ खड़ा दिखाई देता है। यही इस नाटक की सबसे बड़ी सफलता है। 

- दिनेश चौधरी

Friday, July 24, 2015

प्रश्नों के घेरे में रंगमंच -5

यह परिचर्चा "कल के लिये" पत्रिका के लिये आयाेजित की गयी थी, जिसमें रणबीर सिंह, नूर जहीर, पुंज प्रकाश, मंजुल भारद्वाज, वेदा राकेश आैरजितेन्द्र रघुवंशी ने भाग लिया था। इसका पुनर्प्रकाशन इप्टानामा के वार्षिक अंक में भी किया गया है। आपकी सुविधा केे लिये हम यहां पर प्रतिदिन एक प्रतिभागी के विचार प्रकाशित कर रहे हैं। इस पोस्ट में पुंज प्रकाश के  विचार:

1. आज के समय में हिंदी रंगकर्म के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती क्या है?

पूंजी, प्रशिक्षण, पूर्वाभ्यास की जगह, नाट्य प्रदर्शन के लिए उचित सभागार आदि मूलभुत जरूरतों की कमी एक चुनौती तो है किन्तु हमेशा से ही हिंदी रंगमंच की सबसे बड़ी चुनौती यह रही है कि वह कभी भी जनता की जरूरतों में “शामिल नहीं हो सका। तमाम वर्गों, वर्णों और जातियों में विभाजित, कला और संस्कृति के प्रति अति-उदासीन हिंदी प्रदेशों में सांस्कृतिक नवजागरण के कुछ प्रयास निश्चित रूप से हुए भी लेकिन वह काफी नहीं थे। रंगमंच का यहाँ ऐसा कोई दर्शक वर्ग ही तैयार नहीं हुआ है जो अपनी बदौलत नाटकों और कलाकारों की ज़िम्मेवारी उठाने की क्षमता रखता हो। यहाँ रंगकर्म कभी राजाओं के प्रश्रय में चला तो कभी सामंतो के, तो कभी रंगकर्मियों के जुनून की बदौलत और आजकल सरकारी अनुदानों की तरफ़ हाथ फैलाया जा रहा है। रंगकर्मी सक्रिय तो हैं किन्तु आज तक इस प्राथमिक सवाल का जवाब नहीं तलाश पाए हैं कि वो रंगमंच कर क्यों रहे हैं! इस महत्पूर्ण सवाल के जवाब के बिना कोई भी कला निरुद्देश्यता का ही शिकार होगी। जो रंगकर्मीं और समूह एक खास विचारधारा के कार्यकत्र्ता बन जनचेतना के लिए काम कर रहे थे, वहां भी बिखराव साफ़-साफ़ देखा जा सकता है। पिछले कुछ दशकों में जब जन आंदोलनों की दिशा ही भटक गई। वैसे में इनके मन में भी अपने वैचारिक आदर्शों और सुन्दर समाज रचने के सपनों को लेकर भटकाव होना स्वभाविक ही था। व्यवहार की जड़ में विचार होता है। वैचारिकता का भटकाव व्यवहार में साफ़-साफ़ देखने को मिलता है। कला और समाज एक दूसरे के पूरक हैं और आज दोनों ही विकट रूप से वैचारिक संकट की चपेट में हैं। जब तक वैचारिक संकट व्यावहारिक रूप से दूर नहीं होता तब तक व्यवहारिक धरातल पर अराजकता बनी रहेगी।

2. बड़ी पूंजी के आगमन ने अन्य संचार माध्यमों की तरह क्या रंगकर्म और उसके सरोकारों काे भी प्रभावित किया है?
अर्ध-सामंती, अर्ध-औपनिवेषिक और पूंजी की महत्ता वाले समाज में पूंजी जब आपसी रिश्तों तक को प्रभावित करने की क्षमता रखती है तो ऐसे समय में यह नहीं कहा जा सकता कि इसने रंगमंच को प्रभावित नहीं किया है। लेकिन मैं अपनी बात को जरा दूसरे तरीके से कहना चाहूँगा। बल्कि मैं यह सवाल उठाना चाहूँगा कि जो भी लोग सरोकारों से सराबोर हो रंगमंच कर रहे हैं या कर रहे थे क्या किसी ने उनका ख्याल रखा? क्या किसी ने यह सोचा की रंगकर्मीं भी इंसान होता है जिसकी कुछ मूलभूत ज़रूरतें हैं जिन्हें पूरा किया जाना चाहिए। भूखे पेट लंबे समय तक किसी भी विचारधारा का झंडा नहीं ढोया जा सकता है। आज रंगकर्मी (खासकर सरोकारवाले) तमाम प्रकार के समझौते कर रहे हैं तो इसके लिए उन्हें दोष देने से पहले एक बार यह भी सोचना चाहिए कि क्या वो ऐसा जानबूझकर कर रहे हैं या वो इसके लिए मजबूर हैं। रंगकर्मी और समाज रंगमंच के दो पहिए हैं। किन्तु दुखद सच यह है कि समाज बीमार है और रंगकर्मी खाली पेट। जब अस्तित्व पर संकट हो तो ऐसे समय में सरोकार से पहले अस्तित्व की लड़ाई लड़ी जाती है। हां, उस लड़ाई की दिशा सार्थक भी हो सकती है और अराजक भी।

3. क्या अच्छे दिनों’ का राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य रंगकर्मियों के लियेअभिव्यक्ति के खतरे उठाने’ का आह्वान नहीं कर रहा है?
 अच्छे दिनों का नारा एक राजनैतिक ‘फार्स’ है और किसी भी सजग और सामाजिक सरोकार रंगकर्मीं का सरोकार केवल ‘फार्स’ मात्र नहीं हो सकता। वैसे भी सार्थक रंगमंच का मूल स्वर ही विरोध का है और इस विरोध के दायरे में हर वो चीज़ आती है जो अप्राकृतिक, अमानवीय और झूठ है। सत्ता चाहे किसी के पास हो संवेदनशील और सजग रंगकर्मियों ने तो हमेशा ही अभिव्यक्ति के खतरे उठाए हैं; उठा रहे हैं और उठाते रहेंगें। “शायद इसीलिए वो आज किसी के भी प्रिय नहीं हैं। सनद रहे कि मैं यह बात सजग और सामाजिक सरोकार से संपन्न कलाकारों के बारे में कर रहा हूँ लाशों की ढेर पर अपनी रोटी सेंकनेवाले कलाकारों के बारे में नहीं। वैसे भी परजीवी लोग दूसरों की खुराक चूसकर ज़िंदा रहते हैं, अपनी खुराक खुद पैदा नहीं करते। 

4. आधुनिक नाटकों में किये जाने वाले अधिकाधिक प्रयोगों ने क्या नाटक और दर्शक के बीच की खाई को और अधिक बढ़ा दिया है?
 प्रयोगों के माध्यम से कोई भी कला अपने में नवीनता और प्रगति का समावेष करता है इसलिए प्रयोग को लोकप्रियता या स्वीकार्यता के दायरे से नहीं परखा जाना चाहिए। यदि नवीन प्रयोग न हों तो कला और समाज जड़ हो जायेगा। प्रयोग के विरोध का अर्थ यथास्थितिवादी और जो कुछ भी उपस्थित है वहीं अतिंम सत्य है जैसी अवैज्ञानिक विचार को मानना है। जहाँ तक सवाल प्रयोग की सफलता-असफलता का है तो यह कतई ज़रूरी नहीं कि हर प्रयोग सफल हो ही। केवल रंगमंच ही नहीं बल्कि कृषि, विज्ञान, साहित्य आदि अन्य क्षेत्रों में प्रयोग हो रहें हैं - सफल और असफल हर प्रकार के। प्रयोग होंगें तो वह सफल भी होंगें और असफल भी। इतिहास गवाह है कि मानव ने प्रयोगों के माध्यम से ही प्रगति का रास्ता तय किया है। दुनियां पाषाण युग, लौह युग, स्पेस युग से गुज़रती हुई आज डिजिटल युग में प्रवेष कर गई है। यदि यह प्रयोग नहीं होता तो क्या यह सबकुछ संभव था? मानव ने प्रयोग नहीं किया होता तो हम आज भी जंगलों में रह रहे होते, शिलालेख लिख रहे होते, नंगे घूमते और कच्चा मांस खा रहे होते। मानव पहली बार जो कुछ भी करता है वह प्रयोग ही तो होता है, जो सफल होने पर परम्परा बन जाता है। जहाँ तक सवाल दर्शकों का है तो उसे अमूमन परिणाम से मतलब होता है प्रक्रिया से नहीं। इससे उन्हें कोई सरोकार नहीं कि आप इसे दर्शकों तक पहुँचाने के लिए कितनी मेहनत करते हैं, कितना प्रयोग करते हैं; या करते भी हैं कि नहीं। वैसे भी उनके दिमाग में यह गलत धारण बैठा दी गई है कि कला का काम मनोरंजन मात्र करना है। यह सच हैं कि बोझिलता कोई झेलना नहीं चाहता लेकिन दर्शकों का मनोरंजन मात्र ही किसी सार्थक कला का उद्देश्य नहीं हो सकता और दर्शकों को भी इसके लिए तैयार रहना चाहिए। ऐसा दर्शकवर्ग तैयार करना हम सबकी ज़िम्मेदारी है। यहाँ केवल लकीर के फकीर बनकर मनोरंजन-मनोरंजन और मनोरंजन रटने से काम नहीं चलेगा। मूल समस्या यह है कि हम आज भी नवीनता से खौफ खाते हैं और अमूमन आजमाई हुई चीज़ों को ही खाने, पहनने और देखने में सहजता महसूस करते हैं। वैसे भी जिसे आज हम परम्परा कहते हैं वह भी कभी प्रयोग ही थे। हर काल में रंगमंच ने अपने अंदर प्रयोग के माध्यम से सार्थक बदलाव किए हैं और यह बदलाव कथ्य और शिल्प दोनों ही स्तरों पर साफ़-साफ़ देखा जा सकता है। यदि ऐसा नहीं होता तो हम आज भी किसी राजमहल में नाट्यशास्त्र में वर्णित बातों को ही अंतिम सत्य मानकर कालिदास के नाटकों का ही मंचन कर रहे होते। इसीलिए कला और समाज दोनों में नवीन प्रयोग होते रहे इसी में सबकी भलाई है। वैसे भी जमा हुआ पानी सड़ने लगता है। इसलिए प्रयोगों से डरने की ज़रूरत नहीं है। जो प्रयोग सार्थक होंगे वह अपने आप ही स्वीकार लिए जायेंगे और निरर्थक प्रयोगों का नकार भी स्वतः ही होता रहेगा।


5. बड़े शहरों का रंगकर्म छोटे शहरों और कस्बों में होने वाले रंगकर्म की तरह जनोन्मुख क्यों नहीं है।
इस बात में कोई सच्चाई नहीं कि बड़े शहरों का रंगकर्म छोटे शहरों और कस्बों में होनेवाले रंगकर्म की तरह जन्नोमुख नहीं है। दर्शक हर जगह के रंगमंच का ज़रूरी अंग है और रहेगा। कहीं का भी रंगमच बिना जन (दर्शक) के संभव ही नहीं है। मैं इस बात को नहीं मानता कि कस्बों और छोटे शहरों में नाटक देखने आए लोग ही जन है बड़े शहरों और महानगरों में नाटक देखने आए लोग नहीं। क्या मोहन राकेश, धर्मवीर भारती, विजय तेंदुलकर, गिरीश कर्नाड, ब्रेख्त, बर्नार्ड शा, सात्र्र, कामू आदि के नाटकों में जन सरोकार नहीं हैं? चरणदास चोर जैसा नाटक यदि छोटे शहरों और कस्बों में खेला जाता है तो जन्नोमुख रंगकर्म हो जाता है और वहीं नाटक बड़े शहरों और महानगरों में खेला जाता है तो विलासिता। यदि ऐसा है तो निश्चित रूप से यह एक दोहरा मापदंड है जो संकीर्ण मानसिकता का परिचायक है। जन-सरोकार का शहर, गांव, क़स्बे से कोई लेना देना नहीं है बल्कि यह एक प्रतिबद्धता और वैचारिकता का सवाल है जिसका अभाव कहीं भी हो सकता है - शहर, गांव, क़स्बा, महानगर कहीं भी।

6. क्या कहानी के रंगमंच ने हिंदी में पहले से ही दुर्लभ नाट्य लेखन की परंपरा को और क्षीण किया है?
बिलकुल नहीं। नाटक में दुनियां की सारी कलाएं समाहित हैं -गीत, संगीत, पेंटिंग, साहित्य सब। इससे नाटक समृद्ध होता है क्षीण नहीं। पेंटिग, संगीत, नृत्य की कई शैलियां हो सकती हैं तो रंगमंच की क्यों नहीं? यदि हम केवल नाटक की बात करें तो इसके भी प्रकार हैं। नाट्यशास्त्र में भारत ने इसे दसरूपक कहा है, जिसमें नाटक, प्रकरण, प्रहसन, व्यायोग, भाण, डिम, वीथि, ईहामृग, समवकार, अंक नामक दसरूपकों का वर्णन है। कहानी का रंगमंच नाट्य-विधा से बाहर नहीं है, बल्कि इसे समृद्ध ही करने वाला है।


7. रंगकर्म को लेकर सरकार की सांस्कृतिक नीति क्या होनी चाहिये?

एक ऐसे देश में जहाँ कला और संस्कृति हाशिए पर हो, बाज़ारवाद के प्रभाव में संस्कृतियां इतिहास में विलीन होने को अग्रसर हों, तमाम सरकारी नीतियां के कण-कण में भ्रष्टाचार का वास हो, संस्कृति के नाम पर अप-संस्कृति का बोलबाला हो और जहां हवा व सुनामी में सरकारों की अदलाबदली हो जाती हो वहां बिना किसी सांस्कृतिक नवजागरण के सांस्कृतिक नीति की उम्मीद कैसे की जा सकती है? केवल नीति बना भर देने से क्या होगा? मनरेगा जैसे नीति का क्या हाल हुआ क्या हम नहीं जानते? क्या किसी भी पार्टी के प्रमुख एजेंडे में कला-संस्कृति नामक चीज़ है? यह विचार का दिवालियापन है कि आप नीति बनाने की बात करेंगें तो उनकी समझ में आर्थिक सहायता आता है! क्या केवल आर्थिक सहायता भर प्रदान कर देने से कला-संस्कृति का विकास हो जाएगा? बिलकुल नहीं, बल्कि इसके लिए एक ऐसा सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक परिवेष बनाना होगा जहाँ कला-संस्कृति समाज का एक अभिन्न और ज़रूरी अंग बनकर कंधे से कंधा मिलाकर चले और सहज रूप् से अपना विकास कर सके। जहाँ संस्कृतियों का आदान-प्रदान तो हो लेकिन लोगों को अपनी कला और संस्कृति पर भी गर्व हो, न कि इसे नचनियां-बजनियाँ का पेशा समझें। अंग्रेजों की गुलामी से आज़ाद होने के इतने साल बाद भी यदि हमारे देश में कोई संस्कृति नीति नहीं है तो क्या किसी को इसकी चिंता भी है? लोकतंत्र के नाम पर यहाँ जो कुछ अलोकतांत्रिक चल रहा है क्या हम उससे अनजान हैं? क्या लोकतंत्र का मतलब केवल चुनाव का अधिकार होता है? क्या यह सच नहीं कि लोकतंत्र का नगाडा खूब ज़ोर-ज़ोर से पीटनेवाली पार्टियों की कार्यशैली इतनी ज्यादा अलोकतांत्रिक कि वो अपने चंदा देनेवालों के नाम तक सावर्जनिक नहीं करना चाहती। तब क्या यह सवाल नहीं उठता कि आखिर यह पार्टियां किसके इशारे पर नाचतीं हैं। यदि इसका जवाब जनता है तो मुझे इस जवाब पर कतई यकीन नहीं। आज सरकार जो रंगमंच को बढ़ावा देने के नाम पर अनुदान बांट रहीं है उससे रंगमंच का एनजीओ करण हो रहा है न कि विकास। जनता की गाढ़ी कमाई का (कुछ अपवादों को छोड़कर) कैसा बंदरबांट मचा है यह जग ज़ाहिर है। सांस्कृतिक संस्थानों में कैसे-कैसे असंास्कृतिक व्यक्तित्व विराजमान है यह भी अब किसी से छुपा नहीं हैं। किन्तु सबसे दुखद सच यह कि अब रंगकर्मी भी अपना हक़ नहीं बल्कि अपना हिस्सा मांगने तक में ही संतुष्ट होने लगे हैं। इसलिए केवल सरकार के नीति बनाने से काम नहीं चलेगा बल्कि यह एक सांस्कृतिक क्रांति का विषय है, जो निश्चित रूप से सामाजिक क्रांति के साथ ही होगा। इसलिए बिना किसी सामाजिक व सांस्कृतिक क्रांति के किसी भी कला और समाज का भला नहीं होनेवाला। हां, भला होने का भ्रम ज़रूर फैलाया जा सकता है।

8. क्या राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जैसे संस्थान और वहाँ से प्रशिक्षित एक बड़ी जमात ने देशभर में चल रहे शौकिया रंगमंच को नकारने का काम किया है?
 जिसे यहाँ बड़ी जमात कहा जा रहा है उसकी संख्या कितनी है? बल्कि बड़ी जमात उनकी है जिसे आप शौकिया रंगकर्मीं कह रहे हैं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से प्रशिक्षित रंगकर्मियों की संख्या अल्पमत वाली है। तो क्या उनके पास इतनी शक्ति है कि वो बहुमत को नकार सकें? रंगमंच में आखिरी फैसला दर्शकों का होता है। इसलिए किसी भी अन्य के नकारने या स्वीकारने से कुछ नहींहोता। देश भर में ऐसे रंगकर्मियों की कोई कमी नहीं जिन्होंने दर्शकों के दिलों पर राज किया और आज भी कर रहे हैं। दर्शक डिग्री नहीं नाटक देखने आते हैं। नाट्य-प्रस्तुति यदि अच्छी है तो किसी के भी व्यक्तिगत कुंठा का वहां कोई स्थान नहीं होता। इसलिए हमें किसी के स्वीकार-नकार से ज़्यादा दर्शकों की प्रतिक्रियायों को सम्मान देना चाहिए। रंगमंच मेहनत और लगन के द्वारा सतत “करते हुए सिखाने और सिखाते हुए करने” की चीज़ हैं। इस विधा में व्यक्तिगत कुंठाओं का कोई स्थान नहीं है। इसलिए व्यक्तिगत रूप से हमारे पसंद-नापसंद से समय का बहुआयामी सच नहीं बदल जाता। हमारी मूल समस्या यह नहीं है कि कौन हमें स्वीकार रहा है या कौन नकार रहाहै बल्कि हमारी मूल समस्या यह है कि हमारे अंदर आलोचनाओं को सुनाने और समझाने की इच्छा शक्ति का ह्राष हुआ है और हम ज़रूरत से ज़्यादा आत्ममुग्ध हो गए हैं। जो निश्चित रूप से एक खतरनाक बात है। आत्ममुग्धता किसी भी कला का शत्रु होता है। इसलिए हमें यथाशीघ्र ही अपनी-अपनी आत्ममुग्धता पर काबू पा लेना चाहिए और सकारात्मक आलोचनाओं को यथोचित सम्मान देना सिखाना चाहिए। इसी में रंगकर्म और रंगकर्मीं दोनों का भला है। इसलिए कौन हमने स्वीकार रहा है कौन नहीं इसका ग़म नहीं होना चाहिए। मेहदी हसन की गायी एक गजल का शेर कुछ यूं है -
जो ग़में हबीब से दूर थे वो खुद अपनी आग में जल गए
जो ग़में हबीब को पा गए वो ग़मों से हंसके निकल गए।

पुंजप्रकाश
पूर्णकालिक रंगकर्मी, लेखक आैर निर्देशक। संप्रति दस्तक नाट्य समूह, रांची से संबद्ध। 
संपर्क : 8987630051 

Thursday, July 23, 2015

प्रश्नों के घेरे में रंगमंच - 4

यह परिचर्चा "कल के लिये" पत्रिका के लिये आयाेजित की गयी थी, जिसमें रणबीर सिंह, नूर जहीर, पुंज प्रकाश, मंजुल भारद्वाज, वेदा राकेश आैरजितेन्द्र रघुवंशी ने भाग लिया था। इसका पुनर्प्रकाशन इप्टानामा के वार्षिक अंक में भी किया गया है। आपकी सुविधा केे लिये हम यहां पर प्रतिदिन एक प्रतिभागी के विचार प्रकाशित कर रहे हैं। इस पोस्ट में मंजुल भारद्वाज के  विचार:

1. आज के समय में हिंदी रंगकर्म के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती क्या है?
हिंदी रंगमंच की सबसे बड़ी चुनौती हैं खुद हिंदी रंगकर्मी जो दृष्टी, दिशा , मकसद विहीन रंगकर्म का ढोंग कर रहे हैं। दूसरी बड़ी चुनौती है सरकारी नौकरी करते हुए प्रायोजित ‘नीम हकीम खतरा - ए - जान’ रंग आलोचक। ये दोनों चुनौतियां हिंदी रंगकर्म की दीमक हैं, जो हिंदी रंगकर्म का आमूल बंटाधर करने में लगी हुई हैं।

2. बड़ी पूंजी के आगमन ने अन्य संचार माध्यमों की तरह क्या रंगकर्म और उसके सरोकारों काे भी प्रभावित किया है?
जी , क्योंकि पूंजी सबसे पहले अक्ल को खाती है, उसके बाद प्रतिबद्धता को डसती है और लूट-खसोट की मानसिकता पैदा कर, सीमित और नियंत्रित “धन” के ऊपर आश्रित करती है। इसके बाद वह ‘सीमित और नियंत्रित धन’ की बंदरबांट में बचे-खुचे प्रतिबद्ध रंगकर्मियों को बर्बाद करने का काम करती है। इसलिए हिंदी में कहावत है “‘उधार के घी से पहलवान नहीं बनते और अगर बन जाते हैं तो जिन्दगी भर घी खिलाने वाले की चैकीदारी के लिए”। इसलिए रंगकर्म अपने आप जन-सहभागिता और सहयोग से खड़ा हो तो बेहतर है।

3. क्या अच्छे दिनों’ का राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य रंगकर्मियों के लियेअभिव्यक्ति के खतरे उठाने’ का आह्वान नहीं कर रहा है?
 बिना ‘अभिव्यक्ति के खतरे उठाये” किया गया रंगकर्म भी कोई रंगकर्म है? प्रतिबद्ध और प्रगतिशील रंगकर्म वही है जो ‘अभिव्यक्ति के खतरे उठाये” पर अपने को विवादित कर बेचने के लिए नहीं  बल्कि सांस्कृतिक चेतना का निर्माण कर सांस्कृतिक क्रांति के लिए। हाँ, ‘अच्छे दिनों’ का राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य प्रतिबद्ध रंगकर्मियों के लिए जानलेवा साबित होगा।

4. आधुनिक नाटकों में किये जाने वाले अधिकाधिक प्रयोगों ने क्या नाटक और दर्शक के बीच की खाई को और अधिक बढ़ा दिया है?
 अधिकाधिक प्रयोगों ने नहीं , बिना मकसद और दृष्टी से हुए प्रयोगों ने .औपनिवेशिक मानसिकता से प्रेरित और जिम्मेदारी से विहीन पूंजीवादी सोच के रंगकर्मियों की वजह से ऐसा हुआ ह,ै  क्योंकि दर्शक अपने आप को जब मंच पर नहीं देखता है तो वो नहीं जुड़ता है और “थिएटर अॉफ़ रेलेवंस’ रंग-सिद्धांत के अनुसार दर्शक सबसे बड़ा और शक्तिशाली रंगकर्मी है। पूंजीवादी कलाकार कभी भी अपनी कलात्मक सामाजिक जिम्मेदारी नहीं लेते इसलिए ‘कला-कला’ के चक्रव्यहू में फंसे हुए हैं और भोगवादी कला की चक्की में पिस कर ख़त्म हो जाते हैं। सच्ची कला और कलाकार अपनी कलात्मक सामाजिक जिम्मेदारी समझते हैं, निभाते हैं और जीवन को बेहतर और शोषण मुक्त बनाने के लिए प्रतिबद्ध और समर्पित होता हैं। सही दृष्टी, सही रंग-दृष्टी से किये गए प्रतिबद्ध रंग-प्रयोग  “दर्शक” को जोड़ते हैं।

5. बड़े शहरों का रंगकर्म छोटे शहरों और कस्बों में होने वाले रंगकर्म की तरह जनोन्मुख क्यों नहीं है।
 बड़े शहर जनसरोकारों वाले विकास के मॉडल पर नहीं खड़े अपितु  बड़े शहर औपनिवेशिक और पूंजीवादी सोच के विकास मॉडल हैं तो स्वाभाविक है कि रंगकर्म जन सरोकारों की बजाय  औपनिवेशिक और पूंजीवादी सोच से लैस मध्यमवर्ग केन्द्रित होगा और है।

6. क्या कहानी के रंगमंच ने हिंदी में पहले से ही दुर्लभ नाट्य लेखन की परंपरा को और क्षीण किया है?
 कहानी का रंगकर्म करने वालों को ये बताना होगा की “कहानी” के मंचन से वो क्या हासिल करना चाहते थे ? क्या उनका मकसद “कहानी” का मंचन कर कहानीकारों को नाटक लिखने के लिए प्रेरित करना था? या अपनी एक अलग रंग-पहचान” बनाने के लिए कहानी का मंचन किया गया। जवाब आपको मिल जाएगा।दरअसल नाट्य-लेखन की प्रक्रिया को ध्वस्त किया है औपनिवेशिक और पूंजीवादी सोच वाले “निर्देशकीय व्यक्ति’ के उदय ने। “ थिएटर अॉफ़ रेलेवंस “ रंग-सिद्धांत के अनुसार रंगकर्म ‘निर्देशक और अभिनेता’ केन्द्रित होने की बजाय “दर्शक और लेखन’ केन्द्रित हो। नाट्य लेखन के साथ बड़ी विडम्बना यह है की जिसने एक नाटक नहीं लिखा वह बताता है नाटक किस प्रकार लिखा जाए उसका रूप क्या हो? भरत मुनि इसके सबसे बड़े उदाहारण हैं ( चूँकि वह मिथकीय हैं ..अगर वो हुयें हैं तो) और आजकल फुल टाइम सरकारी नौकर और पार्ट टाइम रंगालोचक दिन रात “नवोदित नाटककारों” की लेखन प्रतिभा का गर्भपात कराने पर उत्तारू हैं। ऐसे भयावह रंग-वातावरण में कौन नाटक लिखकर फजीहत कराये, इसलिए कहानी लिखने तक सीमित हो गया हो “नाटककार” !


7. रंगकर्म को लेकर सरकार की सांस्कृतिक नीति क्या होनी चाहिये?
 रंगकर्म विद्रोही कला है और सरकार कभी भी विद्रोह नहीं चाहती। सरकार दमन चाहती है। सत्ता हमेशा कलाकार से डरती है -चाहे वो सत्ता तानाशाह की हो या लोकतान्त्रिक व्यस्था वाली हो। तलवारों ,तोपों या एटम बम का मुकाबला ये सत्ता कर सकती है पर कलाकार, रचनाकार, नाटककार , चित्रकार या सृजनात्मक कौशल से लबरेज़ व्यक्तित्व का नहीं, क्योंकि कलाकार मूलतः विद्रोही होता है , क्रांतिकारी होता है और सबसे अहम बात यह है कि उसकी कृति का जनमानस पर अद्भुत प्रभाव होता है। इसलिए “कलाकार” को काटा या सत्ता के पैरों से रौंदा नहीं जा सकता। सत्ता ने कलाकार से निपटने के लिए उसकी प्रखर बुद्धि, चेतना और गजब के आत्मविश्वास की पहचान कर उसके अन्दर के भोगी व्यक्तित्व को शह, लोभ, लालच और प्रश्रय देकर उसे राजाश्रित बनाया और सबसे बड़े षड्यंत्र के तहत सदियों से उसके समयबद्ध कर्म करने की क्षमता पर प्रहार किया और जुमला चलाया “अरे भाई ये क्रिएटिव काम है” और क्रिएटिव काम समयबद्ध नहीं हो सकता ...क्रिएटिव काम के समय निर्धारण नहीं हो सकता ..पता नहीं कब पूरा हो, वगैरह। मज़े की बात है की सत्ता के इस षड्यंत्र को “कलाकार वर्ग” समझ ही नहीं पाया और ऐसा शिकार हुआ है कि बड़े शान से इस जुमले को दोहराता है  “अरे भाई ये क्रिएटिव काम है”। इस जुमले को सुनकर, बोलकर आनन्दित और आह्लादित होता है बिना किसी तरह का विचार किये? इसलिए “रंगकर्म” की सरकार नीति नहीं “जन नीति“ हो जो स्वयं अपने आप को आत्मसंशोधित करने में सक्षम हो !

8. क्या राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जैसे संस्थान और वहाँ से प्रशिक्षित एक बड़ी जमात ने देशभर में चल रहे शौकिया रंगमंच को नकारने का काम किया है?
 राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जैसे संस्थान “रंगकर्म” के उत्थान के नाम पर सबसे बड़े कलंक हैं।  दूनिया में कहीं ऐसा उदाहरण कोई बताये कि खेत में गेहूं के बीज बोये और बबूल उगे। कुछ अपवादों को छोड़कर इन संस्थानों से निकले लोग हीन भाव से ग्रसित होते हैं और जो व्यक्ति अल्प ज्ञान , रंग-दृष्टी विहीन , संकुचित व्यक्तित्व व झूठे आत्मविश्वास से ग्रसित होगा वो संस्थान से बाहर निकलने के बाद दूसरों को नकारने के अलावा और क्या करेगा ? इससे ज्यादा यह संस्थान और उससे निकले दिग्भ्रमित छात्र किसी टिप्पणी के योग्य नहीं हैं।

मंजुल भारद्वाज
पूर्णकालिक रंगकर्मी। ‘थियेटर आॅफ रेलेवंस’ नामक रंग-सिद्धांत पर आधारित नाटकों के लेखन व प्रदर्शन में संलग्न। मुंबई में ‘एक्सपेरिमेंटल थियेटर फाउंडेशन’ की स्थापना व इसका संचालन। संपर्क-09820391859

Wednesday, July 22, 2015

प्रश्नों के घेरे में रंगमंच -3

पिछले जाड़े से पहले की कोई दोपहर थी। जितेन्द्र जी ने फोन पर कहा कि ‘‘जयनारायण बुधवार जी ‘कल के लिये’ पत्रिका निकालते हैं और रंगमंच पर एक परिचर्चा प्रकाशित करना चाहते हैं। ये काम आप ही देख लें।’’ मैंने हामी भर दी तो कहा कि जयनारायण जी आपको फोन करेंगे। उनका फोन अगले दिन आया। कहा, ‘‘ मैंने जितेन्द्र जी से आग्रह किया था पर उन्होंने आपका नाम सुझाया है। सवाल भेज दें तो एक बार उन्हें देख लूंगा।’’ 

बाद में मालूम हुआ कि परिचर्चा आयोजित करना कुछ-कुछ साहूकारी वाला काम है। संयोजक साहूकार की तरह तगादे पर तगादा करता है और प्रतिभागी कर्जदार की तरह मोहलत पर मोहलत मांगता जाता है। इस प्रक्रिया में कुछ को स्थायी रूप से कर्ज मुआफी जैसी देनी पड़ती है और वे बाअदब, बाआबरू परिसंवाद से बाहर भी निकल जाते हैं। हालात कुछ ऐसे बने कि जितेन्द्र जी के ही जवाब आखिर तक नहीं मिल पा रहे थे। कहा कि, ‘आगरे में इस बार ठंड बहुत पड़ रही है। लिखना नहीं हो पा रहा है।’ मैंने कहा, ‘‘मैं तो मुनीम हूँ, आप सेठ जी से बात कर लें।’’ कोई दस मिनटों मे ही उनका फोन आया और कहा कि जयनारायण जी ने मोहलत दे दी है। बाद में उन्होंने क्षमायाचना के साथ प्रश्नों के उत्तर भेजे और यह भी जोड़ा कि, ‘‘ जो ठीक न लगे उसे बेदर्दी से संपादित कर लें।’’ इस पोस्ट में पढ़ें जितेन्द्र जी के विचार :

1. आज के समय में हिंदी रंगकर्म के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती क्या है?
मेरी नजर में हिंदी रंगमंच के सामने सबसे बड़ी चुनौती निरंतरता और ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँच की है। एक साथ सार्थकता और कलात्मकता-दोनों को साधने  की है।

2. बड़ी पूंजी के आगमन ने अन्य संचार माध्यमों की तरह क्या रंगकर्म और उसके सरोकारों काे भी प्रभावित किया है
बड़ी पूंजी ने विभिन्न संचार-माध्यमों को तो लगभग कब्ज़ा ही लिया है। पूरी सांस्कृतिक गतिविधि को कथित मनोरंजन उद्योग की परिधि में समाहित करने की कोशिश हो रही है। नवीनतम तकनीक से सज्जित चकाचैंध भरे तरह-तरह के ‘शो’ दर्शकों की अभिरुचि को भ्रष्ट कर रहे हैं; बड़ी लागत या ‘स्टार कास्ट’ वाले नाटक भी रंग-प्रस्तुतियों का ऐसा मॉडल पेश करते हैं कि कम साधनों वाला रंगमंच फीका लगे। इसका एक हद तक  रंगकर्म और उसके सरोकारों पर असर तो हो रहा है। ग्लैमर की चाह कुछ को तो खींच कर ले ही जाती है।

3. क्या अच्छे दिनों’ का राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य रंगकर्मियों के लियेअभिव्यक्ति के खतरे उठाने’ का आह्वान नहीं कर रहा है?
‘अच्छे दिनों’ के राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य ने एक के बाद एक ट्रेजिकोमिक स्थितियों की ऐसी कतार लगा दी है कि नाटकों के लिए वर्ण्य-विषयों की कोई कमी नहीं। अब यह सब बोलेंगे-दिखायेंगे तो जिन पर चोट करेंगे, वे चुप रहने वाले नहीं हैं। सफ़दर की कुर्बानी का जो असर हुआ, उससे सत्ता सावधान ज़रूर हो गयी है। फिर भी जोखिम और खतरे तो उठाने ही होंगे। हाँ,अकारण ‘‘आ बैल,मुझे मार’’ वाली स्थिति पैदा करने से बचना चाहिए। सबको मिल कर मांग करनी होगी कि नाट्य-प्रदर्शन अधिनियम 1876 रद्द हो। इक्का-दुक्का राज्यों में यह लागू नहीं है, बाक़ी देश में अलग-अलग रूपों में प्रभावी है। सत्ताधारियों के पास इस हथियार का होना खतरनाक है।

4. आधुनिक नाटकों में किये जाने वाले अधिकाधिक प्रयोगों ने क्या नाटक और दर्शक के बीच की खाई को और अधिक बढ़ा दिया है?
हाँ,प्रयोग के नाम पर दर्शक को चमत्कृत करने के दुराग्रह से संप्रेषणीयता प्रभावित होती ही है और कथ्य पीछे छूट जाता है। दर्शक के हाथ कुछ नहीं आता। ऐसे कलाकार आत्ममुग्ध होते रहें,उन्हें मुबारक!

5. बड़े शहरों का रंगकर्म छोटे शहरों और कस्बों में होने वाले रंगकर्म की तरह जनोन्मुख क्यों नहीं है।
बड़े शहरों की जीवन-शैली भिन्न है-भागमभाग और ‘आनंद’ के लिए ढेरों विकल्प। उन्हें रंगशाला में खींच कर लाना मुश्किल काम है। तो एक ख़ास समूह ही हर नाट्य-प्रदर्शन में दिखता है। इस ‘ख़ास’ को ही नाटक संबोधित होने लगता है। कस्बों में आबादी का बड़ा हिस्सा और गांवों के लगभग सारे ही लोग नाटक के प्रति आकर्षित होते हैं। छोटे शहरों और मौहल्लों-बस्तियों में भी ऐसा ही माहौल मिलेगा। जनोन्मुखता को इसी से ताक़त मिलती है। लेकिन बड़े शहरों में सब जन-विमुखी होता है-यह सोच ठीक नहीं।

6. क्या कहानी के रंगमंच ने हिंदी में पहले से ही दुर्लभ नाट्य लेखन की परंपरा को और क्षीण किया है?
आम भारतीयों को सदियों से कहानी कहना-सुनना अच्छा लगता है। कहानी,कविता,संस्मरणों,पत्रों आदि विभिन्न साहित्यिक विधाओं की कृतियों के रंगमंच ने नाट्यालेख-रंगालेख के संसार को समृद्ध किया है, उसे विस्तार और गहनता देने में योगदान दिया है।

7. रंगकर्म को लेकर सरकार की सांस्कृतिक नीति क्या होनी चाहिये?
रंगकर्म को लेकर किसी सरकारी सांस्कृतिक नीति की दरकार हमें नहीं है। हाँ, सरकार द्वारा वित्तपोषित संस्थानों के संचालन के बारे में अवश्य स्पष्ट नीति होनी चाहिए- जैसे, अकादमियां, क्षेत्रीय सांस्कृतिक केन्द्र, नाट्य विद्यालय, आदि ... श्री सीताराम येचूरी की अध्यक्षता वाली संसद की प्रवर समिति ने चुनाव से पहले इस सम्बन्ध में अपनी सिफारिशें प्रस्तुत कर दी थीं. इस रिपोर्ट को संसद के पटल पर रखा जाय और उस पर बहस हो. हमारी एक मांग तो यह है कि इन संस्थाओं का सञ्चालन सम्बंधित क्षेत्र के विशेषज्ञों के हाथ में हो.

8. क्या राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जैसे संस्थान और वहाँ से प्रशिक्षित एक बड़ी जमात ने देशभर में चल रहे शौकिया रंगमंच को नकारने का काम किया है?
इनमें से कुछ प्रशिक्षितों से हिंदी के शौकिया रंगमंच को मदद मिली है। ज्यादातर अपने करियर की उलझनों में ही फंसे रहते हैं।



Tuesday, July 21, 2015

औरतें ही चुकाती हैं कीमत



- विभांंशु दिव्याल
हुलतावादी भारतीय समाज में नैतिकता का संकट जिस तरह से गहरा हो रहा है उसे देख-सूंघ कर देश के बौद्धिक जगत में थोड़ा-सा उद्वेलन जरूर होना चाहिए था, थोड़ी-सी चिंता सामने आनी चाहिए थी और इसके भावी खतरों के प्रति चेतावनी जारी करने के प्रयास होने चाहिए थे। अगर ऐसा नहीं हुआ तो इसके दो ही कारण हो सकते हैं- या तो इस संकट को ठीक से समझा नहीं जा रहा है या फिर जिन लोगों के द्वारा इसे समझा जा रहा है, उनके पास वे मीडियाई साधन नहीं हैं जिनके जरिए वे अपनी इस समझ को आमजन तक संप्रेषित कर सकें। वस्तुत: यह संकट पारंपरिक जीवन मूल्यों और आधुनिकता प्रसूत जीवन मूल्यों के बीच की उस टकराहट या द्वंद्व का है जो समाज में हर जगह व्याप्त है और हर समूह या संप्रदाय जिसकी गिरफ्त में है। हर परिवार इस द्वंद्व की चपेट में है। 

आधुनिकता जाति को एक त्याजनीय व्यवस्था करार देती है लेकिन परंपरावादी नैतिकता इससे चिपके रहने के आग्रह पैदा करती है। आधुनिकता सभी मनुष्यों के जैविक तौर पर समान होने का तर्क प्रस्तुत करती है और सभी धार्मिक आस्थाओं की निर्मिति की प्रक्रिया एक जैसी होने की बात करती है, लेकिन सभी धर्म अपनी-अपनी श्रेष्ठताओं के दावे प्रस्तुत करते हैं और अपने सदियों पुराने नैतिक आग्रहों में ही ‘‘एक मात्र सत्य’ के दर्शन करते हैं। आधुनिकता धार्मिक एकता, समन्वय आदि को वर्तमान मानव जीवन के लिए बेहतर मूल्य के रूप में प्रस्तुत करती है लेकिन परंपरा अपनी-अपनी सांस्कृतिक व्यवस्थाओं, आचरण संहिताओं और रूढ़ मान्यताओं को ही बेहतर जीवन का सूत्र बताकर इनको हर हालत में बनाए रखने को ही नैतिकता मानती है। आधुनिकता रूढ़ सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक व्यवस्थाओं को वैज्ञानिक विवेक के अनुसार बदलना चाहती है और उन्हें आधुनिक जीवन की जरूरतों के अनुसार ढालना चाहती है लेकिन परंपरावादी नैतिकता समूचे आधुनिक औजारों को इन व्यवस्थाओं को मजबूत करने में लगा देना चाहती है। स्थिति यह है कि आधुनिकतावादी दृष्टि जिसे नैतिक बनाकर प्रस्तुत करती है, परंपरावादी दृष्टि उसी को घोर अनैतिक बताती है। 

यह सही है कि न तो आधुनिकता में सब कुछ श्रेयष्कर है और न परंपरा में सब कुछ हेय है। लेकिन इन दोनों के बीच संतुलन और सहकार बनाने का जो सामाजिक विवेक चाहिए, दोनों की दुष्प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखने और श्रेष्ठता को प्रोत्साहित करने के लिए जो सांस्कृतिक अभिकरण चाहिए, वे भारतीय समाज में से गायब हैं। और अगर हैं भी तो बेहद कमजोर हैं। यहां हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यूरोपीय समाजों में, जहां आधुनिकताबोध उनकी परंपरा की आंतरिक टकराहटों के बीच से सहज तरीके से विकसित हुआ है, परंपरा और आधुनिकता के बीच के अंतर्विरोध बहुत कम हैं। लेकिन भारत जैसे रूढ़िवादी समाज में, जहां आधुनिकता मुख्यत: एक आयातित संपदा के तौर पर लाई गई है, ये अंतर्विरोध बहुत ज्यादा, बहुत गहरे हैं और सामान्य लोगों के लिए बहुत कष्टकर हैं। खासतौर पर जब ये स्त्री-पुरु ष संबंधों से जुड़े हों।

यहां एक बार फिर कजलीगढ़ की उस घटना की ओर मुड़ जाइए जहां गुंडों का एक गिरोह दो वर्षो में 45 लड़कियों के साथ सामूहिक बलात्कार करता है लेकिन इस गिरोह के विरुद्ध एक भी शिकायत दर्ज नहीं होती। आधुनिकतावादी नैतिकता से मिली छूट इन लड़कियों को घर से बाहर अपने प्रेमियों के साथ एकांत स्थल पर ले जाती है लेकिन परंपरावादी नैतिकता का दबाव इन्हें अपने साथ हुए बलात्कार पर चुप्पी मार जाने के लिए विवश कर देता है। यौन शुचिता की परंपरावादी नैतिकता इन लड़कियों को उत्पीड़न से बचना, न बच सकें तो उसे सहना, उसके साथ समझौता करना, उसके आगे समर्पण करना और अंतत: चुप्पी मार जाना सिखाती है। उसका प्रतिकार करना, उसके विरुद्ध खड़े होना और उसे मिटाने का प्रयास करना नहीं सिखाती। आधुनिकता उनके आगे थोड़ी-सी आजादी के जो द्वार खोलती है, परंपरावादी नैतिकता उसे हर बहाने से बंद करने का प्रयास करती है। दरअसल, परंपरावादी नैतिकता पुरु षवादी नैतिकता है जो औरत पर उसकी यौन शुचिता को एक अति ‘‘उच्च’ जीवन मूल्य बनाकर थोपी गई है। परंपरावादी नैतिकता का हामी पुरु ष, वह चाहे पति की भूमिका में हो या पिता और भाई की भूमिका में, औरत की यौन शुचिता का अतिक्रमण बर्दाश्त नहीं कर पाता। इसलिए आधुनिकता के प्रभाव में जब कोई लड़की स्वेच्छा से अपनी यौन शुचिता का अतिक्रमण होने देती है या फिर जब कोई जबरन उसकी यौन शुचिता का अतिक्रमण करता है तो वह परंपरावादी नैतिकता की तुष्टि के लिए इस अतिक्रमण को छिपा जाना ही उचित समझती है, भले ही उसे शारीरिक-मानसिक तौर पर इसकी कितनी भी बड़ी कीमत क्यों न चुकानी पड़े।

जिन समूह-समाजों में औरत की यौन शुचिता के परंपरावादी नैतिक आग्रह ज्यादा गहरे हैं, उसके पास आधुनिकता के आक्रमण का जवाब देने के लिए कोई वैचारिक औजार नहीं है। इसलिए वे इस आक्रमण का जवाब अपनी औरतों पर ज्यादा प्रतिबंध लगाकर, उनके प्रति ज्यादा कड़ा और क्रूर व्यवहार अपना कर देते हैं। वे अपनी औरतों के संपकरे-संबंधों को परिवार तक ही सीमित रखने के सभी संभव उपाय करते हैं। इस संबंध में अपनी औरत या लड़की का थोड़ा-सा भी विचलन देखकर वे उसके प्रति अत्यधिक कठोर रवैया अपनाते हैं। परिणामस्वरूप ऐसे समाजों की औरतें अपने यौन व्यवहारों को ज्यादा छुपाती हैं और ज्यादा मानसिक यातना झेलती हैं। अध्ययन और सव्रेक्षण बताते हैं कि ऐसे समाजों में, जहां औरतों के लिए बाह्य खुलापन बाधित रहता है, औरतें कौटुंबिक बलात्कारों की शिकार ज्यादा होती हैं। अगर कोई विरोध का स्वर उभरता भी है तो उसे परिवार के अंदर ही दबा दिया जाता है।

ऐसे बंद समाजों में पुरु षों के यौन संबंधों के प्रति नजरिया एकदम भिन्न होता है। उन्हें बड़ी हद तक आधुनिकता के संपर्क में आने और इसके उपादानों का लाभ लेने की छूट मिली रहती है। क्योंकि इनके संपर्क-संबंध पारंपरिक नैतिकता के मापदंडों पर अनुचित नहीं माने जाते, इसलिए इनके विचलनों की भरपाई भी औरतों और लड़कियों को करनी पड़ती है। 

विभांशु दिव्याल के फेसबुक वाल से साभार

प्रश्नों के घेरे में रंगमंच -2

यह परिचर्चा "कल के लिये" पत्रिका के लिये आयाेजित की गयी थी, जिसमें रणबीर सिंह, नूर जहीर, पुंज प्रकाश, मंजुल भारद्वाज, वेदा राकेश आैरजितेन्द्र रघुवंशी ने भाग लिया था। इसका पुनर्प्रकाशन इप्टानामा के वार्षिक अंक में भी किया गया है। आपकी सुविधा केे लिये हम यहां पर प्रतिदिन एक प्रतिभागी के विचार प्रकाशित कर रहे हैं। इस पोस्ट में रणबीर सिंह के  विचार:

1. आज के समय में हिंदी रंगकर्म के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती क्या है?
 हिंदी रंगमंच के सामने सब से पहले तो यही  चुनौती है कि वे रंगमंच को मनोरंजन के तौर पर न लें, मगर एक गहरी चुनौती के तौर पर लें ताकि वो समाज को एक ताकतवर रंगमंच दे सकें। जो रंगमंच की जिम्मेदारियाँ हैं उनको सही तौर पर निभा सकें। ये काम शौकिया रंगमंच नहीं कर सकता। रंगमंच को पेशेवर रंगमंच होना ही पड़ेगा अगर किसी भी देश के रंगमंच के इतिहास को देखें तो मालूम होगा कि पेशेवर रंगमंच ने ही यह काम किया है। हिंदी रंगमंच और बाकी तमाम भाषाओं के रंगमंच को आवाज उठानी होगी ताकि सरकार रंगमंच को संजीदगी से ले बतौर एक तमाशे के नहीं। जो अनुदान आज कबूतरों के दाने की तरह बाँटा जा रहा है वो बहुत नुकसानदेह है। एक तो सरकारी अनुदान आवाज पर पाबंदी लगाता है। दूसरे, वह कलाकार की रचनात्मकता को खत्म करता है क्योंकि वह बगैर अनुदान के कुछ भी नहीं सोच पाता। कलाकारों का और रंगमंच का रिश्ता ऐसा बन जाना चाहिये कि अगर वो हैं तो रंगमंच है, अगर रंगमंच है तो वो हैं। रंगमंच उनकी जिंदगी बन जानी चाहिये।

2. बड़ी पूंजी के आगमन ने अन्य संचार माध्यमों की तरह क्या रंगकर्म और उसके सरोकारों काे भी प्रभावित किया है?
 पूंजी के बगैर तो रंगमंच हो ही नहीं सकता। पूंजी सरकार की तरफ से आनी चाहिये, मगर रंगमंच पर किसी भी तरह की पाबंदी नहीं होनी चाहिये। विदेशों में सरकार सिर्फ थियेटर हॉल बनाती है, अनुदान देती है ताकि वहाँ जो भी काम करते हैं उन्हें वेतन मिल सके। नाटकों के प्रदर्शन पर जो खर्च होता है उसके लिये वहाँ किसी सरकारी अफसर को नहीं रखा जाता। निर्देशक दो होते हैं: एक जो नाटकों के प्रदर्शन पर काम करे और दूसरा वह जो प्रशासनिक व्यवस्थायें देखे। अनुदान देने के बाद सरकार की कोई दखलअंदाजी नहीं होती। बड़ी पूंजी का मतलब है कलाफरोशों की दखलअंदाजी। विदेशों में इनको इंप्रेसारियो(impresario) कहा जाता है, इनको इनकम टैक्स चुकाना पड़ता है। हमारे यहाँ ये आर्गेनाइजर बनकर थियेटर पर कब्जा करते हैं। पैसे ये बनाते हैं, कलाकारों को कुछ नहीं देते। नाटकों का चुनाव भी यही करते हैं। कलाफरोशों का रंगमंच पर कब्जा इसलिये है कि सरकार से पैसा मिलता नहीं। कुछ लोग इनके फंदों में फँस जाते हैं और रंगमंच में अश्लीलता इन्हीं की वजह से आयी। ये कलाकारों का कठपुतली की तरह इस्तेमाल करते हैं। इन्होंने रंगमंच पर कब्जा किया है, लिटरेचर फेस्टिवल इन्हीं की गिरफ्त में है। थियेटर में और लिटरेचर में जो घटियापन आज है उसके जिम्मेदार यही ऑर्गेनाइजर/कलाफरोश हैं। जो मीडिया को खरीद सकते हैं उन्हें रंगमंच को खरीदने में क्या मुश्किल है? इन कलाफरोशों से बचना है तो सरकार को सामने आना होगा।

3. क्या अच्छे दिनोंका राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य रंगकर्मियों के लिये अभिव्यक्ति के खतरे उठानेका आह्वान नहीं कर रहा है?
 अच्छे दिनया तो सेठों के, या तरह-तरह के माफियाओं के, दकियानूसियों के, फेनाटिक्स के आये होंगे। रंगमंच, रंगकर्मी, साहित्य, साहित्यकारों, कलाकारों के लिये कतई नहीं आये। हमें अच्छे दिनों की उम्मीद भी नहीं। नियाज हैदर का एक शेर है, ‘‘ था जहाँ, है वहीं, वो सेठ वो आका नहीं हटता/मेरी गरीबी हट रही है, मगर फाका नहीं हटता।’’ मुझे लगता है कि अभिव्यक्ति पर अच्छी तरह की पाबंदी लगने वाली है। सिलसिला शुरू हो गया है। अफसोस की बात है कि कई कलाकार/साहित्यकार/रंगकर्मी बिक चुके हैं। इस जमाने में जो सुर में सुर नहीं मिलायेगा उसे खतरा उठाना ही होगा। शुतुरमुर्ग की तरह बैठे रहना भी सही नहीं। आवाज तो उठानी ही होगी, सवाल है कौन उठायेमैं समझता हूँ कि यह काम इप्टा कर सकती है।

4. आधुनिक नाटकों में किये जाने वाले अधिकाधिक प्रयोगों ने क्या नाटक और दर्शक के बीच की खाई को और अधिक बढ़ा दिया है?
 प्रयोग का बगैर सोचे-समझे इस्तेमाल करना बेहद नुकसान देह है। यह हो रहा है। अपने आप को फन्नेखाँ समझने की हवस में इसका इस्तेमाल किया जाता है। दर्शकों को थियेटर से भगाने में यह भी एक वजह है। प्रयोग नाटकों की जरूरत को पूरा करे तो सही है वरना इससे रंगमंच को नुकसान ही है। नाटकों और दर्शकों बीच की खाई को तो इसने बढ़ाया ही है।

5. बड़े शहरों का रंगकर्म छोटे शहरों और कस्बों में होने वाले रंगकर्म की तरह जनोन्मुख क्यों नहीं है।
 मेरी नजरों में बड़े शहरों का रंगमंच या छोटे शहरों का रंगमंच एक जैसा ही है। दोनों जगह एक ही तरह के नाटक किये जाते हैं। चालीस साल पुराने नाटक करने की वजह क्या है? दरअसल जो नाटक किये जाते हैं, उनका कोई उनका कोई उद्देश्य या मकसद नहीं है। जो भी नाटक हो रहे हैं वो खुद की पसंद के आधार पर या मनोरंजन के लिये हो रहे हैं। उन्हें दर्शकों की कोई जरूरत नहीं है। थियेटर को निःशुल्क करना पाप है, थियेटर के साथ गद्दारी है।

6. क्या कहानी के रंगमंच ने हिंदी में पहले से ही दुर्लभ नाट्य लेखन की परंपरा को और क्षीण किया है?
 कहानी का रंगमंचयह क्या बला है यह न तो मेरी समझ में आया है न आयेगा। यह रंगमंच में शार्टकट है। शार्टकट जिंदगी में भी खतरनाक है और रंगमंच में भी। इससे रंगमंच को नुकसान हुआ है। जब कहानी छोटी हो तो उसे बढ़ाने में बहुत कुछ जोड़ा जाता है। वो कहानी को बर्बाद करता है और स्टेज के काबिल नहीं होता। न घर का रहा न घाट का। जितनी मेहनत कहानी पर की जाती है अगर उतनी मेहनत नया नाटक लिखने पर की जाये तो रंगमंच की असली सेवा होगी। आज नये नाटकों की जरूरत है।

7. रंगकर्म को लेकर सरकार की सांस्कृतिक नीति क्या होनी चाहिये?
 जिनकी नजरों में रंगमंच की कोई अहमियत ही नहीं उनकी सांस्कृतिक नीति क्या होगी? जो कोलोनियल हुक्मरान की नीति थी, वो इनकी नीति है। सरकार को यह मालूम होना चाहिये कि किसी भी मुल्क के विकास, उसकी तरक्की को परखना हो तो उसके साहित्य और रंगकर्म से परखा जाता है। लोर्का का कहना है कि जो सरकार अपने थियेटर की परवाह नहीं करती या उसे नजरअंदाज करती है तो या तो सरकार मर चुकी है या मरने वाली है। देश की पहचान अडानी, अंबानी, सेठानी, झंझानी वगैरह से नहीं होती। देश की पहचान होती है कि शायर कौन, कवि कौन, उपन्यासकार कौन, नाटककार कौन हैं। आज देखें तो एक भी नहीं है। यह निहायत दुख की बात है। शर्म आती है। सिर झुकता है। रंगमंच सांस्कृतिक नीति का अहम हिस्सा है। पहले तो सरकार को शौकिया रंगमंच और पेशेवर रंगमंच में फर्क करना होगा। शौकिया रंगमंच हमारे यहाँ अपना वजूद बना चुका है।  उसे नजर अंदाज नहीं किया जा सकता मगर ये पहचान करनी होगी कि कौन काम कर रहा है और कौन वक्त जाया कर रहा है। जो काम कर रहा है उसे मदद करनी चाहिये और उसे मार्ग-दर्शन भी देना चाहिये। जो थियेटर ग्रुप 15-20 सालों से लगातार अच्छा काम कर रहे हैं उन्हें मदद मिलनी चाहिये, बाकियों को अपने शौक पूरे करने दें।  हर रवीन्द्र मंच में एक रिपर्टरी होनी चाहिये। जवाहर लाल नेहरू ये चाहते थे मगर ऐसा नहीं हो सका। हर थियेटर में एक टीम हो जो हर वक्त हर वक्त नाटकों का प्रदर्शन करती रहे। जब बार-बार नाटक होंगे तो नाटक लिखे जायेंगे और दर्शक भी बढ़ेंगे।  रंगमंच को एक आर्गेनाइज्ड सेक्टर बनाना जरूरी है। मेरा कहना तो यह है कि हमारे यहाँ जो पारसी थियेटर का बंदोबस्त था, जो एक सिस्टम था, उसे स्वीकार करना चाहिये। पेशेवर रंगमंच बहुत से नौजवानों को काम देगा।

8. क्या राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जैसे संस्थान और वहाँ से प्रशिक्षित एक बड़ी जमात ने देशभर में चल रहे शौकिया रंगमंच को नकारने का काम किया है?
 शौकिया रंगमंच और पेशेवर रंगमंच को मिलाना नहीं चाहिये। जो कॉकटेल बनेगी वो सही नहीं होगी। यह मिलन थियेटर के लिये खतरनाक है। किसी भी देश में ऐसा नहीं होता। 1963 में जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि जो लड़के एनएसडी से तालीम पाकर  आते हैं उनको रवीन्द्र मंच में नौकरी मिलनी चाहिये ओर वहाँ पर एक रिपर्टरी हो। वो पेशेवर रंगमंच की शुरूआत चाहते थे। शौकिया और पेशेवर रंगमंच का विकास अलग-अलग होना चाहिये। एक बात को समझना होगा कि शौकिया रंगमंच एक एक्टिविटी है, कभी-कभी की जाती है। मगर पेशेवर रंगमंच एक आंदोलन है जो बार-बार चलता है। उसका मकसद है अवाम के पास जाना, समाज की बेहतरी के लिये नाटक करना। आज यह नहीं होने की वजह से पेशेवर कलाकार शौकिया रंगमंच में काम करने के लिये मजबूर होते हैं। नजरिया अलग होने की वजह से टकराव होता है।

रणबीर सिंह
इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष। सुविख्यात रंगकर्मी, लेखक व निर्देशक। कई नाटकों सहित इससे संबद्ध अनेक किताबों का लेखन। रॉयल एशियाटिक सोसायटी, ब्रिटेन व आयरलैंड के सदस्य। मारीशस के पूर्व सांस्कृतिक सलाहकार। संपर्क: मो. -09829294707, मेल -  ranbirsinh@rediffmail.com